मनकुँवर अभिलेख – गुप्त सम्वत् १२९ ( ४४८ – ४९ ई० )

भूमिका

मनकुँवर अभिलेख बैठी हुई एक बुद्ध-मूर्ति के आसन के नीचे अंकित है, जो १८७० ई० भगवानलाल इन्द्रजी को प्रयागराज जनपद अन्तर्गत करछना तहसील के अरैल से ६ मील पर यमुना के दाहिने तट पर स्थित, मानकुँवर नामक ग्राम के उत्तर-पूर्व पंच-पहाड़ नामक टीले पर मिली थी। १८८० ई० में पहले एलेक्जेंडर कनिंगहम ने इसका पाठ प्रकाशित किया; बाद में १८८५ ई० में स्वयं भगवानलाल इन्द्र जी ने अंग्रेजी अनुवाद सहित अपना पाठ प्रकाशित किया। तत्पश्चात् जे० एफ० फ्लीट ने इसका सम्पादन करके ‘Corpus Inscriptionum Indicarum’ में प्रकाशित किया। इसको मनकुँवर या मानकुँवर ( Mankuwar ) दोनों लिखा जाता है।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- मनकुँवर अभिलेख या मनकुँवर बुद्ध-प्रतिमा अभिलेख [ Mankunwar Buddha Statue Inscription ]  या मनकुँवर प्रस्तर प्रतिमा अभिलेख [ Mankuwar Stone Image Inscription ]

स्थान :- मनकुँवर, प्रयागराज जनपद, उत्तर प्रदेश।

भाषा :- संस्कृत-प्राकृत मिश्रित ( संकर भाषा )

लिपि :- ब्राह्मी

समय :- गुप्त सम्वत् १२९ ( ४४८-४९ ई० ), कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल

विषय :- भिक्षु बुद्धमित्र द्वारा भगवान बुद्ध की प्रतिमा की स्थापना से सम्बन्धित विज्ञप्ति।

मूलपाठ

१. [स्वस्ति] नमो बुधानं (।) भगवतो सम्यक्सम्बुद्धस्य स्व-मताविरुद्धस्य इयं प्रतिमा प्रतिष्ठापिता भिक्षु बुद्धमित्रेण।

२. सम्बत् १००(+)२०(+)९ महाराज श्रीकुमारगुप्तस्य राज्ये ज्येष्ठमास दि १०(+)८ सर्व दुःक्ख-प्रहानार्त्थम् [॥]

हिन्दी अनुवाद

[स्वस्ति]। बुद्ध को नमस्कार। स्वमताविरुद्ध भगवान् सम्यक्-सम्बुद्ध (बुद्ध) की यह प्रतिमा भिक्षु बुद्धमित्र ने स्थापित की।

सम्वत् १२९ [में] महाराज श्री कुमारगुप्त के राज्य (काल) में ज्येष्ठ मास दिन १८ को, सभी लोगों के दुःखों के निवारणार्थ।

टिप्पणी

यह भिक्षु बुद्धमित्र द्वारा, बुद्ध की उस प्रतिमा की स्थापना की विज्ञप्ति है, जिस पर यह लेख अंकित है इसमें बुद्ध को सम्यक्-सम्बुद्ध (जिसने पूर्णज्ञान प्राप्त कर लिया है) और स्व-मताविरुद्ध कहा गया है। स्व-मताविरुद्ध का तात्पर्य सम्भवतः यह है कि भगवान् बुद्ध का आचरण उनकी अपनी शिक्षा के अनुरूप ही था; वे जो कहते थे उसके ही अनुसार उनका आचरण था।

इस लेख में कुमारगुप्त के लिये केवल महाराज विरुद का ही प्रयोग मिलता है। मात्र विरुद के प्रयोग के कारण कुछ विद्वानों ने उन्हें महाराजाधिराज पद से च्युत होने की कल्पना प्रस्तुत की है; परन्तु इस प्रकार की धारणा निराधार है। इस वैयक्तिक लेख में महाराजाधिराज के स्थान पर मात्र महाराज उल्लेख को इतना खींचतान करके महत्त्व देने की आवश्यकता नहीं है।

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