करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख – गुप्त सम्वत् ११७ ( ४३६ – ३७ ई० )

परिचय

अयोध्या से लगभग २५ किलोमीटर और फैजाबाद से लगभग १७ किलोमीटर करमदण्डा नामक स्थान पर कुमारगुप्त प्रथम का करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख मिला है। उसके निकट स्थित भराहीडीह नामक एक टीले से फैजाबाद के तत्कालीन डिप्टीकलेक्टर कुँवर कामताप्रसाद को एक शिवलिंग मिला था जो अब लखनऊ संग्रहालय में है। इसी शिवलिंग पर यह लेख अंकित है इसका अधोभाग खण्डित अथवा अनुपलब्ध है। पहले फोगल ने इसका संक्षिप्त विवरण प्रकाशित किया। तत्पश्चात् राखालदास बनर्जी ने सम्पादित कर प्रकाशित किया, तदनन्तर स्टेन कोनों ने दुबारा प्रकाशित किया है।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- कुमारगुप्त प्रथम का करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख ( Karamadanda Shivling Inscription of Kumargupta – I )।

स्थान :- भराठीडीह टीला, करमदण्डा ग्राम, अयोध्या जनपद।

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- उत्तरवर्ती उत्तरी ब्राह्मी

समय :- गुप्त सम्वत् ११७ ( ४३६ ई० )

विषय :- शिवलिंग की स्थापना का विवरण

मूलपाठ

१. नमो महादेवाय। महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त-पादा]-

२. नुध्यातस्य चतुरुदयि सलिलास्वादित य[शसो] [महाराजा]-

३. धिराज श्रीकुमारगुप्तस्य विजयराज्य-संवत्सर-शतेसप्तदशो[त्तरे]

४. कार्तिक मास दशम दिवसे(ऽ) स्थान्दिवस-पूर्व्वायां [च्छान्दोग्याच[आय्यश्व]-वाजि-

५. सगोत्रकुरमरण्य भट्टस्य पुत्रो विष्णुपालितभट्टस्तस्य पुत्रो महारा-

६. जाधिराज श्रीचन्द्रगुप्तस्य मन्त्रि कुमारामात्यश्शिखरस्वाम्यभूत्तस्य पुत्रः

७. पृथिवीषेणो महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तस्य मन्त्रि कुमारामात्यो(ऽ)न-

८. न्तरं च महाबलाधिकृतः भगवतो महादेवस्य पृथिवीश्वर इत्येवं समाख्यातस्य

९. स्यैव भगवतो यथाकर्त्त्वय-धार्मिक कर्म्मणा पाद-शुश्रूषणाय भगवच्छै-

१०. लेश्वरस्यामि-महादेव-पादमूले आयोध्यक नानागोनूचरण तपः –

११. स्वाध्याय-मन्त्र-सूत्र-भाष्य-प्रवचन-पारग [।] भारडिसमद देवद्रोण्यां

१२.  ………………………………………………………………………………………………………….

हिन्दी अनुवाद

महादेव को नमस्कार !

महाराज श्रीचन्द्रगुप्त के चरण का चिन्तन करनेवाले, चार समुद्रों के जल का आस्वादन करनेवाले [यश] वाले महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्त के विजय राज्य के ११७वें वर्ष में कार्तिक मास का १०वाँ दिन।

इस पूर्व [कथित] तिथि को [छान्दोग्याचार्य अश्ववाजि] के सगोत्रीय कुरमरव्य-भट्ट के पुत्र

विणुपालित;

उनके पुत्र महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्त के मन्त्री कुमारामात्य शिखरस्वामी;

उनके पुत्र महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्त के मंत्री कुमारामात्य और बलाधिकृत पृथिवीशेण हुए।

[उन्होंने] पृथ्वीश्वर नाम से विख्यात भगवान शिव [का यह लिंग स्थापित किया]

इस भगवान् [लिंग] की यथाशक्य धर्म-कार्य द्वारा चरण सेवा के निमित्त भगवान शैलेश्वरस्वामी के पादमूल [के निवासी] अयोध्या-वासी विभिन्न गोत्र एवं चरण वाले स्वाध्याय मंत्र, सूक्त एवं भाष्य के निरूपण में पारंगत, भारडिसमद देवद्रोणी ………. ।

ऐतिहासिक महत्त्व

उत्तर प्रदेश के अयोध्या जनपद से शाहगंज फैजाबाद वाली सड़क पर फैजाबाद से लगभग १२ मील दूर स्थित कर्मदण्डा गाँव के समीप भराठीडीह टीले से प्राप्त एक शिवलिंग के अठपहले आधार पर करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख अंकित है। इस पर गुप्त सम्वत् ११७ (४३६-३७ ई०) का उल्लेख है। यह कुमारगुप्त ( प्रथम ) के शासनकाल का है जिसे चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के मन्त्री शिखरस्वामी का पुत्र, कुमारगुप्त ( प्रथम ) के कुमारामात्य पृथ्वीषेण ने उत्कीर्ण कराया है।

करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख महादेव जी के नमस्कार से प्रारम्भ होता है। यहाँ वर्णित है कि चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के उत्तराधिकारी के यश ने चारों समुद्रों का आस्वादन किया है। इसके पुत्र कुमारगुप्त ( प्रथम ) के मन्त्री कुमारामात्य एवं महाबलाधिकृत पृथ्वीषेण का उल्लेख है जो छान्दोग्य शाखा के वाजिगोत्रिय कुमारभट्ट के पुत्र विष्णुपालित भट्ट के पुत्र शिखरस्वामी का पुत्र था और चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का कुमारामात्य था।

शैलेश्वर स्वामी महादेव, जिनको पृथ्वीश्वर भी कहते हैं, के समीप जो विभिन्न विद्याओं में निष्णात अयोध्या के पण्डितों के लिये यह ग्राम दान दिया गया था। यह लेख धार्मिक, राजनीतिक तथा प्रशासकीय दृष्टि से विशेष महत्त्व का है।

गुप्त अभिलेख प्रायः सिद्धम्! से प्रारम्भ होते हैं। पर यह ‘नमो महादेवाय’ से प्रारम्भ होता है। इससे शैव धर्म का ज्ञान प्राप्त होता है। कुमारगुप्त के शैव मन्त्री पृथ्वीषेण ने भी शैव मन्दिर के समीप दान दिया था। तभी शैलेश्वर महादेव को स्वामी शब्द से सम्बोधित किया है।

कुमारगुप्त ( प्रथम ) की उपाधि अभिलेखों में ‘परमभागवत’ है। उसने अश्वमेघ यज्ञ करके अश्वमेघ प्रकार का सिक्का ढलवाया था। गंगाधर लेख में विष्णु मन्दिर की स्थापना, वैग्राम ताम्रलेख में विष्णु मन्दिर को दान आदि इसके वैष्णवानुयायी होने को पुष्ट करते हैं। परन्तु शैव मन्त्री की नियुक्ति और शिव मन्दिर का दान इसकी धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है। अन्य स्रोतों से ज्ञात है कि इसके काल में शक्ति, कार्तिकेय, बुद्ध तथा जिन की उपासना होती थी।

‘चतुरुदधि सलिलास्वादित यशसो’ का उल्लेख कुमारगुप्त की विशेषता के लिये यहाँ किया गया है। उसका यश चारों समुद्रों तक फैला था यह उसके साम्राज्य सीमा का भी संकेत करता है। सम्भव है यह कथन अतिरंजनापूर्ण हो। उसी प्रकार मन्दसौर प्रशस्ति में भी कुमारगुप्त के साम्राज्य के विषय में कहा गया है —

चतुस्समुद्रात्तविलोलमेखला सुमेरु-कैलास- वृहत्पयोधराम्।

वनान्तवान्तस्फुट पुष्पहासिनीं कुमारगुप्ते पृथिवीं प्रशासति।

उसके राज्य के चतुर्दिक समुद्र का कमरबन्ध हैं तथा कैलाश और सुमेरु पर्वत उसके ऊँचे स्तन हैं।’

 

ऐसा दूसरे गुप्त शासक समुद्रगुप्त के लिये भी प्रयागप्रशस्ति में कहा गया है-

प्रदान-भुजविक्रम-प्रशम-शास्त्रवाक्योदयै-

रूपर्युपरि-सञ्चयोच्छ्रितमनेकभार्ग यशः।

पुनाति भुवनत्रयं पशुपतेर्जटान्तर्गुहा-

निरोध- परिमोक्ष-शीघ्रमिव पाण्डुगाङ्गपयः॥

करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख में गुप्त सं० ११७ = ४३६ – ३७ ई० को कुमारगुप्त का विजयसंवत्सर कहा गया है। वह ४३६ ई० में शासन करता था।

इस समय अधिकारियों का पद वंशानुगत था। तभी चन्द्रगुप्त द्वितीय के मन्त्री कुमारामात्य शिखरस्वामी के पुत्र पृथ्वीषेण महाराजा कुमारगुप्त के मन्त्री और बलाधिकृत नियुक्त किया गया था। सम्भवतः तब एक मन्त्री को योग्यता के अनुसार कई पद दिये जाते थे, तभी पृथ्वीषेण को कुमारामात्य और महाबलाधिकृत दोनों ही पद प्रदत्त थे।

‘कुमारामात्य’ एक प्रशासनिक अधिकारी था जबकि महाबलाधिकृत गुप्त काल का प्रधान सेनापति था। इसके अधीन अनेक महासेनापति थे। कुछ लोगों के अनुसार कुमारामात्य युवराज होता था। परन्तु डा० बनर्जी के अनुसार इसका अभिप्राय है राजकुमार का मन्त्री। डा० अल्टेकर ने इन्हें उच्च प्रशासनिक कर्मचारी माना है जो महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त होते थे।

इसमें अयोध्या नगर की चर्चा विद्याव्यसनी नगर के नाम से हुई है। विद्याव्यसनी तथा अनेक शास्त्रों के पारंगत विद्वान यहाँ रहते थे, ( नानागोत्र चरण-तपः-स्वाध्याय मंत्र-सूत्र-भाष्य-प्रवचन-पारग)। इसमें वर्णित ‘छान्दोग्याचार्य’ से स्पष्ट है कि छान्दोग्य उपनिषद की महत्ता विशेष थी। इसी प्रकार अलग-अलग उपनिषदों पर अलग-अलग लोग अपना विशेष अध्ययन सीमित करते होंगे।

जिस लिंग पर यह लेख अंकित है, उसकी स्थापना का यह घोषणा-पत्र है इस घोषणा में लिंग के स्थापक पृथ्वीषेण ने अपने नाम पर लिंग को पृथ्वीश्वर नाम दिया है। लिंग की स्थापना कर उसे व्यक्तियों के नाम पर नामकरण करने की प्रथा गुप्तकाल में प्रायः देखने में आती है

चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में मथुरा में लकुलीश सम्प्रदाय के एक व्यक्ति ने अपने गुरु और उनके गुरु के नाम पर कपिलेश्वर और उपमितेश्वर नाम से दो लिंग स्थापित किये थे। इसी प्रकार निर्मण्ड ताम्रलेख में मिहिरलक्ष्मी नाम्नी राजमहिषी द्वारा मिहिरेश्वर नाम से शिव-लिंग की स्थापना का उल्लेख हुआ है। मथुरा स्तम्भलेख । यह परम्परा आज भी यत्र-तत्र देव-मूर्ति की स्थापना में देखने में आती है।

लिंग के संस्थापक पृथ्वीषेण ने इस लिंग की सेवा-पूजा के निमित्त कोई व्यवस्था भी की होगी। जिसकी चर्चा लेख के अधोभाग में की गयी रही होगी; परन्तु वह अंश अनुपलब्ध है इस कारण उसके सम्बन्ध में विशेष कुछ नहीं कहा जा सकता। अयोध्यावासी कुछ विद्वान् ब्राह्मणों का सम्बन्ध इस व्यवस्था से रहा होगा ऐसा अनुमान पंक्ति १०-११ की शब्दावली से लगाया जा सकता है।

पंक्ति ११ के अन्त में कुछ विद्वानों ने भारडिसमद देवद्रोणी पढ़ा है।

  • स्टेन कोनों का अनुमान है कि भारडि का तात्पर्य भराहीडीह से है, जहाँ से यह लिंग प्राप्त हुआ है और समद सम्भवतः समुद्र है जो शिव के नामों में से एक है।
  • दिनेशचन्द्र सरकार ने समुद का तात्पर्य समुद्रेश्वर नामक किसी शिवलिंग से अनुमान किया है किन्तु भण्डारकर के पाठ में भारडि समद के स्थान में ‘आवर्तित’ संसद है । वैसी अवस्था में इसका तात्पर्य लिंग से संलग्न देव द्रोणी मात्र होगा।

सामान्य रूप से देव-द्रोणी का तात्पर्य देव-प्रतिमाओं के जुलूस से लिया जाता है। परन्तु वेरावल (गुजरात) से प्राप्त एक अभिलेख में आये श्री सोमनाथ ‘देवद्रोणी-प्रतिबद्ध-महायणान्तः पाति’ से ऐसा जान पड़ता है कि देवद्रोणी ‘मन्दिर की सम्पत्ति’ को कहते थे।

विद्वानों ने इसी अर्थ में देवद्रोणी का प्रयोग माना है और यहाँ भारडि समद देवद्रोणी से तात्पर्य सम्भवतः भारडि (भराहीडिह) नामक ग्राम में स्थित अथवा लिंग से संलग्न देव-सम्पत्ति है। लिंग की पूजा-अर्चना के निमित्त यदि यह अनुमान ठीक है तो यह सहज अनुमान हो सकता है कि पृथ्वीशेष ने अयोध्यावासी ब्राह्मणों को कोई देव-सम्पत्ति सुपुर्द की थी जिसका विवरण अनुपलब्ध नीचे की पंक्तियों में रहा होगा।

लेख से यह महत्त्व की सूचना यह प्राप्त होती है कि गुप्त शासन व्यवस्था में राजपद वंशानुगत हुआ करते थे इस लेख से प्रकट होता है कि पृथ्वीषेण कुमारगुप्त (प्रथम) का मन्त्री था और उसका पिता शिखरस्वामिन भी चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का मन्त्री था। शिखरस्वामिन के सम्बन्ध में काशीप्रसाद जायसवाल की धारणा है कि वह कामन्दकीय नीतिसार का रचयिता था।

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