कुलाइकुरै ताम्र-लेख

भूमिका

कुलाइकुरै ताम्र-लेख ९/ इंच लम्बे और ५/ इंच चौड़े ताम्रफलक के दोनों ओर अंकित है। इसे नवगाँव निवासी रजनीमोहन सान्याल ने बगुड़ा (बंगलादेश) अन्तर्गत नवगाँव से ८ मील पर स्थित कुलाइकुरै ग्राम के एक निवासी से क्रय किया था। अनुमान किया जाता है कि यह ताम्रपत्र एक अन्य ताम्रपत्र ( बैग्राम ताम्र-पत्र लेख ) के साथ १९३० ई० में एक तालाब की खुदाई करते समय बैग्राम नामक ग्राम में मिला था और उसे खुदाई करनेवाले मजदूर उठा ले गये थे। इसे दिनेशचन्द्र सरकार ने प्रकाशित किया है।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- कुलाइकुरै ताम्र-लेख

स्थान :- कुलाइकुरै ग्राम, बगुड़ा; बंगलादेश

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी

समय :- गुप्त सम्वत् १२० ( ४३९ ई० )

विषय :- भूमि क्रय करके दान करने से सम्बन्धित

मूलपाठ

१. स्वस्ति (॥) शृङ्गवेरवैथेय-पूर्ण[कौ]शिकायाः आयुक्त[काच्युतदासो(ऽ)-धिक]रणञ्च हस्तिशीर्षे [विभोतक्यां-गुल्मगन्धि]-

२. [कायां] धान्यपाटलिकायां संगोहालिषु ब्राह्मणादीन्ग्रामकुटुम्बि[नः] [कुश]लमनुवर्ण्य बोधयन्ति (।) विदितम्बा

३. भविष्यति यथा इह-वीथी-कुलिक-भीम-कायस्थ-प्रभुचन्द्र-रुद्रदास-देवदत्त-लक्ष्मण-का[न्ति]देव-शम्भुदत्त-कृष्ण-

४. दास-पुस्तपाल-सिङ्ह(सिंह)नन्दि-यशोदामभिः वीथी-महत्तर कुमारदेव-गण्ड-प्रजापति-उमयशो-रामशर्म-ज्येष्ठ-

५. दाम्-स्वामिचन्द्र-हरिसिङ्ह(सिंह)-कुटुम्बि-यशोविष्णु-कुमारविष्णु-कुमारभव-कुमार-भूति-कुमार-य[शोगु]प्त-वैलिनक-

६. शिवकुण्ड-वसुशिवापरशिव-दामरुद्र-प्रभमित्र-कृष्णमित्र-मघशर्म्मा-ईश्वरचन्द्र-रुद्र-भव-स्वामि[देव]-

७. श्रीनाथ-हरिशशर्म्मं-गुप्तशर्म्म-सुशर्म्म-हरि-अलातस्वामि-ब्रह्मस्वामि-महासेनभट्ट-षष्ठिरा [त]-गु ……… श-

८. र्म्म-उण्टशर्म्म-कृष्णदत्त-नन्ददाम-भवदत्त-अहिशर्म्म-सोमविष्णु-लक्ष्मणशर्म्म-कान्ति-धोव्वोक-क्षेमशर्म्य-शु-

९. क्क्र्शर्म्म-सर्प्पपालित-कङ्कुटि-विश्व-शङ्कर-जयस्वामि-कैवर्त्तशर्म्म-हिमशर्म्म-पुरन्दर-जयविष्णु-उम ……

१०. सिङ्हत्त(सिंहदत्त)-बोन्द-नारायनदास-वीरनाग-राज्यनाग-गुह-महि-भवनाथ-गुहविष्णु-शर्व्व-यशोविष्णु-टक्क-कुलदाम …….. व-

११. श्री-गुहविष्णु-रामस्वामि-कामनकुण्ड-रतिभद्र-अच्युतभद्र-लोढक-प्रभकीर्त्ति-जयदत्त-कालुक-अच्युत-नरदेव-भव-

१२. भवरक्षित-पिच्चकुण्ड-प्रवरकुण्ड-शर्व्वदास-गोपाल-पुरोगाः वयं च विज्ञापिताः (।) इह-वीथ्यामप्रतिकर-खिलक्षेत्र-

१३. स्य शश्वत्कालोपभोगायाक्षयनीव्या द्विदीनारिक्य-खिलक्षेत्र कुल्पवाप-विक्री य-मर्य्यादया इच्छेमहि प्रति

१४. प्रति मातापित्रोः पुण्याभिवृद्धये पौण्ड्रवर्द्धनक चातुर्व्विद्य वाजिसनेय चरणाभ्यन्तर- ब्राह्मण-देव-

१५. भट्ट-अमरदत्त-महासेनदत्तानां पञ्च-महायज्ञ-प्रवर्त्तनाय नवकुल्यवापान्क्रीत्वा दातुं एभिरेवोप-

१६. रि-निर्द्दिष्टक-ग्रामेषु खिल क्षेत्राणि विद्यन्ते (।) तदर्हथास्मत्तः अष्टादश-दीनारान्गृहीत्वा एतान्नव-कुल्यवा[पा]-

१७. न्यनु[पा] दयितुं (।) यतः एषां कुलिक-भीमादीनां विज्ञाप्यमुपलभ्य पुस्तपाल-सिङ्ह(सिंह)नन्दि-यशोदा[म्नोश्चा]-

१८. वैधारणयावधृतास्त्वयमिह-वीथ्यामप्रतिकर-खिलक्षेत्रस्य शश्वत्कालोपभोगायाश्रय-नीव्या द्वीदीना-

१९. रिक्य-कुल्पवाप-विक्क्रो(ऽ) नुवृत्तस्तद्दीयतां नास्ति विरोधः कश्चिदित्यवस्थाप्य कुलिक-भीमादिभ्यो अष्टादश-

२०. दीनारानुपसहरितकानायीकृत्यः हस्तिशीर्ष-विभीतक्यां-धान्य-पाटलिका- [गुल्मगान्धिका]-ग्रामेषु ……… –

२१. द्यां दक्षिणोद्देशेषु अष्टौ कुल्यवापाः धान्यपाटलिका-ग्रामस्य पश्चिमो-त्तरोद्देशे[आद्यखात]-परिखा-वेष्टित-

२२. मुत्तरेण वाटानदी पश्चिमेन गुल्मगन्धिका-ग्राम-सीमानमि(श्चे)ति कुल्यवाप[मे] को गुल्मगन्धिकायां पूर्व्वे-

२३. णाद्यपथ: पश्चिमप्रदेशे द्रोणवाप-द्वयं हस्तिशीर्ष-प्रावेश्य-ताप[सपोत्तके] दायितापीत्तके च वि-

२४. भीतक-प्रावेश्य-चित्रवातङ्गरे[च] कुल्यवापाः सप्त द्रोणवापाः षट् (।) एषु यथोपरि निर्दिष्टक-ग्राम-प्र-

२५. देशेष्येषां कुलिक भीम-कायस्थ-प्रभुचन्द्र-रुद्रदासादीनां मातापित्रोः पुण्याभिवृद्धये ब्राह्मण-

२६. देवभट्टस्य कुत्यवापाः पञ्च [कु ५] अमरप्रदस्य कुल्यावाप-द्वयं महासेनदत्तस्य कुल्यवा[प- द्वयं]

२७. कु २ (।) एषां त्रयाणां पञ्चमहायज्ञ-प्रवर्त्तनाय नव कुल्यवापानि प्रदत्तानि (॥) तद्युष्माकं ……… [निवेद्य]-

२८. ति लिख्यते च (।) समुपस्थित-का[लं] [ये(ऽ)प्यन्ये] विषयपतयः आयुक्तकाः कुटुम्बिनो(ऽ) चिकरणिका वा [सम्व्यव]-

२९. हारिणो भविष्यन्ति तैरपि [भूमिदानफल]मवेक्ष्य अक्षय-नीव्यनुपालनीया (॥) उक्तञ्च महाभारते भगव-

३०. ता व्यासेन (।) स्वदत्तां परदत्ताम्वा यो [हरेत] वसुन्धरां। [स] विष्ठायां क्रिमिर्भूत्वा पि[तृभिः सह पच्यते] (॥) [षष्टि वर्ष-सहस्राणि]

३१. स्वर्ग्गे वसति भूमिदः (।) आक्षेप्ता चानुमन्ता [च] तान्येव नरके वसेत् (॥) कृशाय कृश[वृत्ताय] वृत्ति-क्षीणाय सीदते

३२. [भूर्मि] वृत्तिकरीन्दत्वा [सुखी] भवति कामदः (॥) [बहुभिर्व्वसुधा] भुक्ता भुज्यते च पुनः पुनः (।) यस्य [यस्य यदा भूमिस्तस्य] तस्य

३३. तदा फलं (॥) पूर्व्व-दत्तां द्विजातिभ्यो यत्नाद्रक्ष्य युधिष्ठिर (।) महीम्महिमतां श्रेष्ठ दानाच्छ्रेयो(ऽ)नु[पालनं] (॥)

३४. संवत् १००(+)२० वैशाख-दि १ (॥)

हिन्दी अनुवाद

स्वस्ति।

शृङ्गवेर वीथि-अन्तर्गत पूर्णकौशिक के आयुक्त अच्युतदास एवं [उनका] अधिकरण हस्तिशीर्ष, विभीतकी, गुल्मगन्धिक, धान्यपटलिक, संगोहालि के ब्राह्मण आदि ग्राम के कुटुम्बियों को, उनकी कुशल कामना करते हुए सूचित करते हैं —

ज्ञात हो कि इस वीथी के कुलिक भीम, कायस्थ प्रभुचन्द्र, रुद्रदास, देवदत्त, लक्ष्मण, कान्तिदेव, शम्भुदत्त, कृष्णदास, पुस्तपाल सिंहनन्दि, यशोदाम, वीथीमहत्तर कुमारदेव, गण्ड, प्रजापति, उमयशो, रामशर्म, ज्येष्ठदाम, स्वामिचन्द्र, हरिसिंह, कुटुम्बी यशोविष्णु, कुमारविष्णु, कुमारभव, कुमारभूति, कुमार, यशोगुप्त, वैलिनक, शिवकुण्ड, वसुशिव, शिव (द्वितीय), दामरुद्र, प्रभमित्र, कृष्णमित्र, मघशर्मा, ईश्वरचन्द्र, रुद्र, भव, स्वामिदेव, श्रीनाथ, हरिशर्मा, सुशर्मा, हरि, अलातस्वामी, ब्रह्मस्वामी, महासेनभट्ट, षष्टिरात, गु ……. शर्मा, उण्टशर्मा, कृष्णदत्त, नन्ददाम, भवदत्त, अहिंशर्मा, सोमविष्णु, लक्ष्मणशर्मा, कान्ति धोव्वोक, क्षेमशर्मा, शुक्रशर्मा, सर्पपालित, कंकुटि, विश्व, शंकर, जयस्वामी, कैवर्त्तशर्मा, हिमशर्मा, पुरन्दर, जयविष्णु, उम ………., सिंहदत्त, बोन्द, नारायनदास, वीरनाग, राज्यनाग, गुह, महि, भवनाथ, गुहविष्णु, शर्व्व, यशोविष्णु, टक्क, कुलदाम, ……… वश्री, गुहविष्णु, रामस्वामी, कामनकुंड, रतिभद्र, अच्युतभद्र, लोढ़क, प्रभकीर्ति, जयदत्त, कालुक, अच्युत, नरदेव, भव, भवरक्षित, पिच्चकुण्ड, प्रवरकुण्ड, शर्व्वदास, गोपाल, पुरोगों ने हमें सूचित किया है—

इस वीथी में शाश्वत उपभोग के निमित्त अक्षय-नीवि-धर्म के अनुसार दो दीनार प्रति कुल्यवाप की दर से अप्रतिकर खिल-क्षेत्र के विक्रय की जो मर्यादा है, उसके अनुसार हम नव (९) कुल्यवाप भूमि क्रय करके अपने-अपने माता-पिता की पुण्य वृद्धि के निमित्त पुण्ड्रवर्धन-निवासी वाजसनेय चरण के ब्राह्मण देवभट्ट, अमरदत्त और महासेन को पंचमहायज्ञ के प्रवर्तन के लिये दान करना चाहते हैं। अतः इसके निमित्त हमसे अठारह दीनार लेकर उक्त ग्राम में जो खिल-क्षेत्र हैं हमें दी जाय।

कुलिक भीम आदि की इस प्रार्थना पर पुस्तपाल सिंहनन्दि तथा यशोदाम से पूछा गया। उन्होंने बताया कि इस वीथी में अप्रतिकर खिलक्षेत्र शाश्वत उपयोग के निमित्त अक्षय-नीवि-धर्म के अन्तर्गत दो दीनार प्रति कुल्यवाप के भाव से बिक्री की जाती है। इस बात में राज्य की ओर से कोई विरोध नहीं है। यह जानकर भीमादिकुलिक से अठारह दीनार लेकर उन्हें दान के निमित्त ९ कुल्यवाप भूमि दी जाती है। जिसका विवरण इस प्रकार है—

हस्तिशीर्ष विभितकी के अन्तर्गत, धान्यपाटलिका तथा गुलमगन्धिका ग्रामों की दक्षिण दिशा में आठ कुल्यवाप भूमि है वह तथा धान्यपाटलिका ग्राम; पश्चिम उत्तर परिखा (खाईं) से घिरी जो एक कुल्यवाप भूमि है वह दी जाती है; उत्तर में वाटा नदी और पश्चिम में गुलमगन्धिका ग्राम उनकी सीमा है।

आठ कुल्यवाप भूमि में से दो द्रोणवाप (/ कुल्यवाप) गुलमगन्धिका के पश्चिम और पूर्व में आद्यपथ के समीप है। शेष ७ कुल्यवाप तथा ६ द्रोणवाप भूमि हस्तिशीर्ष के अन्तर्गत तापसपोत्तक और दायितपोत्तक में और विभितकी के अन्तर्गत चित्रवातंगर में है।

उक्त निर्दिष्ट ग्राम-प्रदेश में से कुलिक भीम, कायस्थ प्रभुचन्द्र, रुद्रदास आदि के माता-पिता की पुण्य की वृद्धि के निमित्त पाँच कुल्यवाप भूमि ब्राह्मण देवदत्त को, दो कुल्यवाप भूमि अमरदत्त को और दो कुल्यवाप भूमि महासेनदत्त को दी जाती है।

इस प्रकार हम निवेदन करते और लिखते हैं कि जो कोई वर्तमान काल में विषयपति, आयुक्तक, कुटुम्बिक, अधिकरणिक और संव्यवहारिन हैं और जो भविष्य में कभी भी हों वे सभी भूमि के दान-फल के निमित्त इस अक्षयनीवि का अनुपालन करें।

महाभारत में भगवान् व्यास ने कहा है — स्वयं दी हुई अथवा दूसरे द्वारा दान में दी गयी भूमि का अपहरण करेगा, वह पितरों सहित विष्ठा का कीड़ा होगा। भूमि का दान करनेवाला छः हजार वर्ष तक स्वर्ग में वास करता है और उसका अपहरण करनेवाला उतने ही काल तक नरकगामी होता है। भूमि-दान करनेवाला सदा सुखी होता है और वह वसुधा का भोग बार-बार करता है। जो जितना ही भूमि-दान में देगा उसे उतना ही फल मिलेगा। पूर्व काल में ब्राह्मणों को दान दी गयी भूमि की युधिष्ठिर ने भी रक्षा की थी। संसार में भू-दान श्रेष्ठ है, उससे भी श्रेष्ठ उस दान का परिपालन है।

सम्वत् १२० वैशाख दिन १।

महत्त्व

कुलाइकुरै ताम्र-लेख में न तो शासक के नाम का उल्लेख है और न ही इस बात का संकेत है कि यह किस वंश अथवा राज्य का लेख है। इस अभिलेख में जो तिथि दी गयी है, उसे, अनुमान के सहारे दामोदरपुर ताम्रलेखों के आधार पर, गुप्त-संवत् अनुमान किया जाता है और इसे कुमारगुप्त (प्रथम)-शासनकालीन लेख समझा जाता है।

कुलाइकुरै ताम्र-लेख ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा महत्त्व रखता है क्योंकि इससे गुप्त-कालीन भू-व्यवस्था के एक पक्ष का परिचय मिलता है :

  • इसमें दान के निमित्त राज्य की ओर से भू-बिक्री किये जाने की घोषणा की गयी है और गुप्तकालीन विक्रय पत्र का यह सबसे बड़ा प्रारूप है।
  • कुलाइकुरै ताम्र-लेख से ज्ञात होता है कि गुप्त-शासन काल में ब्राह्मणों को भूमि दान करने के उद्देश्य से भूमि क्रय करने का आवेदन-पत्र आयुक्त के सम्मुख उपस्थित किया जाता था।
  • आवेदन-पत्र पाने के पश्चात् आयुक्त पुस्तपाल से भूमि के मूल्य आदि की जानकारी प्राप्त करता था।
  • जानकारी प्राप्त करने के पश्चात् आवेदकों से मूल्य लेकर उनकी इच्छा के अनुसार भूमि आवंटित करता था और उसकी सूचना वह ग्रामवासियों को देता था तथा आदेश करता था कि इस प्रकार प्रदत्त भूमि के उपभोग में कभी कोई किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करे।

इस लेख से तत्कालीन कतिपय प्रशासनिक शब्दावली का परिचय मिलता है। उनमें कुछ तो भौगोलिक इकाइयों का परिचय देती हैं और कुछ भू-व्यवस्था से सम्बन्ध रखती हैं यथा —

  • वीथी – यह विषय से छोटी भौगोलिक प्रशासनिक इकाई थी। इसका उल्लेख इस लेख के अतिरिक्त पहाड़पुर तथा नन्दपुर लेखों में भी हुआ है। गुप्तोत्तर काल में भी इसका उल्लेख विजयसेन के मल्लसरूल ताम्र-शासन में हुआ है। सम्भवतः बीथी को ही गुप्तेतर अभिलेखों में पट्ट कहा गया है। बीथी और पट्ट के प्रसंग में प्रायः नदियों का उल्लेख मिलता है; इससे ऐसा अनुमान होता है कि नदी के तटवर्ती भूमि की किसी इकाई को बीथी कहते थे
  • आयुक्तक – वीथी का प्रमुख अधिकारी सम्भवतः आयुक्तक कहलाता था।
  • अधिकरण – वीथी की स्थानीय शासन समिति को सम्भवतः अधिकरण कहते थे। विषय-अधिष्ठान के प्रसंग में भी अधिकरण शब्द का प्रयोग हुआ है।
  • अधिकरणिक – अधिकरण से सम्बन्ध रखनेवाले कर्मचारियों एवं अधिकारियों को सम्भवतः अधिकरणिक कहा जाता था।
  • कुटुम्बिन – प्रशासन के प्रसंग में प्रायः इसका प्रयोग पाया जाता है। सम्भवतः कुटुम्ब (परिवार) के मुखिया को कुटुम्बिन कहते थे।
  • अप्रतिकर – घोषाल की धारणा है कि अप्रतिकर का तात्पर्य ऐसी भूमि से है जिसका मूल्य न देना पड़े; किन्तु इस लेख में मूल्य देकर भूमि लेने के प्रसंग में इसका उल्लेख हुआ है; इसलिए मुक्त भूमि को अप्रतिकर कहा जाता रहा होगा।
  • खिल-क्षेत्र – ऐसी भूमि जो पहले कभी जोती न गयी हो।

माप सम्बन्धित शब्दावलियाँ —

  • कुल्यवाप – भूमि को मापने की एक ईकाई। यह वह माप है जिसमें एक कुल्य मात्रा बीज की बुआई की जा सके।
  • द्रोणवाप – भूमि की वह ईकाई जिसपर एक द्रोण बीज की बुआई की जा सके।

कुलाइकुरै ताम्र-लेख में भूमि की सीमा को भौगोलिक सीमा का निर्धारण मिलता है। यह गुप्तकाल में भूमि के बढ़ते महत्त्व को दर्शाता है।

गुप्तकाल के भूमिदान सम्बन्धित अभिलेखों में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य देखने को मिलती है कि भगवान् वेदव्यास के महाभारत का उल्लेख करके यह बताया गया है कि इस भूमिदान का कोई अपहरण न करे और युधिष्ठिर ने भी इस तरह का कार्य किया था; यथा – धनैदह ताम्र-पत्र

कुमारगुप्त ( प्रथम ) का बिलसड़ स्तम्भलेख – गुप्त सम्वत् ९६ ( ४१५ ई० )

गढ़वा अभिलेख

कुमारगुप्त प्रथम का उदयगिरि गुहाभिलेख (तृतीय), गुप्त सम्वत् १०६

मथुरा जैन-मूर्ति-लेख : गुप्त सम्वत् १०७ ( ४२६ ई० )

धनैदह ताम्रपत्र ( गुप्त सम्वत् ११३ )

गोविन्द नगर बुद्ध-मूर्ति लेख

तुमैन अभिलेख ( गुप्त सम्वत् ११६ )

मन्दसौर अभिलेख मालव सम्वत् ४९३ व ५२९

करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख – गुप्त सम्वत् ११७ ( ४३६ – ३७ ई० )

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