मथुरा जैन-मूर्ति-लेख : गुप्त सम्वत् १०७ ( ४२६ ई० )

परिचय

मथुरा जैन-मूर्ति-लेख गुप्त सम्वत् १०७ ( ४२६ ई० ) की है। १८९०-९१ ई० में मथुरा स्थित कंकाली टीले के उत्खनन में मिली एक पद्मासना जैन मूर्ति के आसन पर यह लेख अंकित है। इसे पहले बुह्लर ने प्रकाशित किया था। बाद में भण्डारकर ने इसे पुनः सम्पादन किया है।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- कुमारगुप्त प्रथम का मथुरा जैन-मूर्ति-लेख

स्थान :- कंकाली टीला, मथुरा जनपद, उत्तर प्रदेश

भाषा :- संस्कृत।

लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी रूप )।

समय :- गुप्त सम्वत् – १०७ या ४२६ ई० ( १०७ + ३१९ ), कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल।

विषय :- जैन मूर्ति की स्थापना। इसकी स्थापना सामाढ्या नामक स्त्री द्वारा कराया गया।

मूलपाठ

१. सिद्धम्। परमभट्टारक महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्तस्य विजयराज्ये १०० + ७ [ अधि ] क- [ श्राव ] णमास …… [ दि ] [ स ] २० ( । ) अस्यां पू [ र्व्वायां ] कोट्टिया गणा-

२. द्विद्याधरी [ तो ] शाखातो दतिलाचार्य्यप्रज्ञपिताये शामाढ्याये भट्टिभवस्य धीतु गुहमित्रपालि [ त ] प्रा [ चा ] रिकस्य [ कुटुम्बिन ] ये प्रतिमा प्रतिष्ठा-पि [ ता ]।

हिन्दी अनुवाद

सिद्धि हो। परमभट्टारक महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त का विजय राज्य १०७ के अधिक श्रावण मास का दिवस २०।

इस पूर्वकथित दिन को कोट्टिया-गण के विद्याधरी शाखा के दतिलाचार्य की आज्ञा से भट्टिभव की पुत्री प्रास्तारिक गुहमित्रपालित की पत्नी ( कुटुम्बिनी ) सामाढ्या द्वारा [ यह ] प्रतिमा स्थापित की गयी।

टिप्पणी

यह जैन-मूर्ति के आसन पर अंकित सामान्य लेख है जिसमें उसकी प्रतिष्ठा करनेवाली महिला ने अपना परिचय देते हुए कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में मूर्ति को प्रतिष्ठित करने की बात का उल्लेख है। उसने अपना परिचय देते हुए अपने को प्रास्तातिक की कुटुम्बिनी कहा है।

प्रास्तारिक का सामान्य अर्थ प्रस्तर-विक्रेता है। इसका अभिप्राय सामान्य पत्थर बेचनेवाले तथा मूल्यवान् पत्थर (मणि, रत्न आदि) बेचनेवाले दोनों से लिया जा सकता है। यहाँ इसका प्रयोग कदाचित् दूसरे ही भाव में लिया गया है। सम्भवतः यहाँ तात्पर्य जौहरी से हैं।

कुटुम्बिनी शब्द भी द्रष्टव्य है। इसका सामान्य अर्थ गृहस्थ स्त्री किया जाता है। किन्तु प्रत्येक विवाहित स्त्री गृहिणी होती है। अतः इसी भाव में पत्नी के लिये लोक-भाषा में घरनी कहते हैं। अतः यहाँ भी वही अभिप्राय पत्नी से हो सकता है। किन्तु इसके साथ ही यह ध्यातव्य है कि बौद्ध साहित्य एवं अनेक आरम्भिक अभिलेखों में व्यावसायिक वर्ग के लोगों के लिए गहमति (गृहपति) शब्द का प्रयोग पाया जाता है। उसी का पर्याय कुटुम्बी है, जिसका उल्लेख अनेक गुप्त-कालीन अभिलेखों में हुआ है जहाँ उसका तात्पर्य वैश्य वर्ग से है। हो सकता है यहाँ भी कुटुम्बिनी से तात्पर्य वैश्य वर्ण की स्त्री से हो। और दान-दात्री ने अपने पति के व्यवसाय के साथ-साथ स्पष्ट रूप से अपने वैश्य वर्ग की होने की अभिव्यक्ति की हो।

इस लेख में अंकित राज्य वर्ष को बुह्लर ने सम्वत् ११३ होने का अनुमान किया था और मास के नाम को अपाठ्य के रूप में छोड़ दिया था। भण्डारकर ने अपने सम्पादित संस्करण में इसको गुप्त राजवर्ष १०७ के रूप में पढ़ा है। भण्डारकर महोदय का पाठ अधिक तर्कसंगत है।

कुमारगुप्त ( प्रथम ) का बिलसड़ स्तम्भलेख – गुप्त सम्वत् ९६ ( ४१५ ई० )

गढ़वा अभिलेख

कुमारगुप्त प्रथम का उदयगिरि गुहाभिलेख (तृतीय), गुप्त सम्वत् १०६

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