तुमैन अभिलेख ( गुप्त सम्वत् ११६ )

भूमिका

१९१९ ई० में म० ब० गर्दे को अशोकनगर (मध्यप्रदेश) जनपद के अन्तर्गत तुमैन नामक ग्राम की एक मस्जिद में लगे एक शिलाफलक पर यह लेख अंकित मिला था। तुमैन अभिलेख खण्डित अवस्था में है। इसके बायीं ओर का आधे से अधिक अंश अनुपलब्ध है इसे गर्दे महोदय ने ही प्रकाशित किया है। उनके पाठ के कुछ दोषों की ओर बहादुर चन्द छाबड़ा ने एक लेख में निर्देश किया है।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- तुमैन अभिलेख या तुमेन अभिलेख [ Tumen Inscription ]

स्थान :- तुमैन ( तुमेन ) ग्राम, अशोकनगर जनपद, मध्य प्रदेश

भाषा :- संस्कृत।

लिपि :- ब्राह्मी ( दक्षिणी रूप )।

समय :- गुप्त सम्वत् – ११६ या ४३५ ई० ( ११६ + ३१९ ), कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल।

विषय :- गुप्त राजवंश की वंशावली। [भगवान विष्णु के] मंदिर के निर्माण की विज्ञप्ति।

मूलपाठ

१. — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. —   — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — [रा]रिर्य्यस्य लोकत्रयान्ते [।] चरणकमलंमत्यं वन्द्येते सिद्धसङ्हैः [॥] राजा श्रीचन्द्रगुप्तस्तदनु जयति यो मेदिनीं सागरान्ताम्

२. — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ………. ……….(।) ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ………. ………. ……… ……… — [।] श्रीचन्द्रगुप्तस्य महेन्द्र-कल्पः कुमारगुप्तस्तनयस्सम[ग्राम्] [।] ररक्ष साध्वीमिव धर्म्मपत्नीम् वीर्य्याग्रहस्तैरुपगुह्य भूमिम् [॥]

३. — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……… ………. [गा]ग्ग-गौरः [।]क्षित्यम्बरे गुणसमूह-[यूमपूखजालो नाम्नोदितस्स तु घटोत्कचगुप्तचन्द्रः [॥] स पूर्व्वजानां स्थिरसत्व कीर्त्तिभुजार्ज्जितां कीर्त्तिमभिपपद्य॥

४. ……… — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ……… ……… — — [॥] [गुप्तान्वया]नां वसुधेश्वराणां समा-शतक षोडश-वर्षयुक्ते। कुमारगुप्ते नृततौ प्रिथिव्याम् विराजमान शरदीव सुर्य्ये॥ वटोदके साधुजनाधिवासे

५. ……… — ………. — — ………. — ……… — — [।] ……… — ……. — .……. — — ……… — ………. — ………. — — ……… ……… — [॥] ……… — ………. — — ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ………. ………. [।] ……… ……… — — ……… ………. ………. — तास्श्रीदेव इत्यूर्ज्जित नामधेयः [॥] तदग्रजो (ऽ) भूद्धरिदेवसंज्ञस्ततो(ऽ)नुजो यस्तु स धन्यदेवः [।] ततो(ऽ)वरो यश्च स भद्रदेवस्तत कनीयानपि सङ्-हदेवः(॥)

६. — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ……… — न-स क्त चित्ताः [।] समान[वृत्त] कृति[भावधीराः] [कृता]लयास्तुम्बवने वभूवुः॥ अकारयंस्ते गिरिश्रिङ्ग-तुङ्गं शशि-[प्रभं]देवनि[वास-हर्ग्म्यम्](।) — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ………. ………. — ……… ……… — (॥)

  • भण्डारकर ने इसकी पूर्ति ‘भे[द भिन्नः सत्रः] के रूप में की है।
  • भण्डारकर ने इसकी पूर्ति ‘त्वेपिनाकिनोगृहम्’ के रूप में की जाने की सम्भावना जतायी है।

हिन्दी अनुवाद

१. …….. जिसका तीनों लोकों में। जिसके चरणकमल की सिद्ध लोग भी पूजा करते हैं। तत्पश्चात् राजा श्री चन्द्रगुप्त ने सागरपर्यन्त पृथ्वी को विजित किया।

२. ……. इन्द्र के समान श्री चन्द्रगुप्त [का पुत्र] कुमारगुप्त हुआ; उसने साध्वी धर्मपत्नी की तरह ही पृथ्वी की रक्षा की जिसे उसने अपने हाथों अपने शौर्य से प्राप्त किया था।

३. ……. किरण बिखेरते हुए चन्द्रमा की तरह पृथ्वी पर घटोत्कचगुप्त का उदय हुआ उसने अपने पूर्वजों के स्थित निर्मल कीर्ति को अपनी भुजाओं से अर्जित कीर्ति की तरह सुरक्षित रखा।

४. ……. [गुप्त वंश के] पृथ्वी पर स्थित वर्ष ११६, में जब शरद की सूर्य की तरह पृथ्वी पर कुमारगुप्त राजा था, तब बटोदक के साधुजनों के घर (वैश्य कुल) में

५. ……. लक्ष्मीदेव नामक [व्यक्ति] हुआ। उसके हरिदेव नामक बड़ा भाई और धन्यदेव नामक छोटा भाई, उससे छोटा भाई भद्रदेव और सबसे छोटा भाई संघदेव हुए।

६. ……. [उन्होंने] तुम्बवन में रहते हुए समवृत्ति और धीरभाव से देवनिवास (मन्दिर) का निर्माण कराया जो चन्द्र की तरह दमकता हुआ गिरि-शिखर की तरह उतुङ्ग (ऊँचा) दिखायी पड़ता है।

भण्डारकर के पाठ के अनुसार इस पंक्ति का तात्पर्य है – जो अपने समवृत्ति और धीरभाव के कारण अन्य लोगों से सर्वथा भिन्न तुम्बवन में क्षत्रिय-शौर्य का निवास था। उसने चन्द्र की दमकता हुआ गिरि-शिखर की तरह उत्तुंग पिनाकिन नामक देवता का एक मन्दिर बनवाया।*

  • Inscriptions of the Early Gupta Kings – Bhandarkar.*

टिप्पणी

यह तुम्बवन (तुमेन) में एक वैश्य परिवार के पाँच भाइयों द्वारा, जो मूलरूप से बटोदक (सम्भवतः विदिशा जिले में स्थित वदोह नामक ग्राम) के निवासी थे, मंदिर बनवाने का प्रज्ञप्ति-पत्र है। दिनेशचन्द्र सरकार की कल्पना है कि यह भगवान विष्णु मन्दिर का था भण्डारकर ने इसे पिनाकिन (राम) का मन्दिर अनुमानित किया है। इस मन्दिर के निर्माता वैश्य-कुल के थे, यह पंक्ति में आये साधु-जन शब्द से प्रकट होता है। साधु शब्द का सामान्य अर्थ सद्-पुरुष है; परन्तु प्राचीन साहित्य में वैश्य परिवार के विशेषणस्वरूप साधु शब्द का प्रयोग होता रहा है। मध्यकालीन ग्रन्थ-पुष्पिकाओं में, जहाँ वैश्य-जातियों के नाम स्पष्ट रूप से मिलते हैं, इस शब्द का प्रचुर प्रयोग पाया जाता है। इसीसे साहु शब्द बना है, जिससे वैश्य अर्थ से हम सभी परिचित हैं।

तुमैन अभिलेख का ऐतिहासिक महत्त्व उसकी आरम्भिक पंक्तियों के कारण बढ़ जाता है क्योंकि इसमें गुप्तवंश के शासकों के नामों का उल्लेख किया गया है। लेख खण्डित अवस्था में है और उसका आधे से अधिक बायाँ भाग अनुपलब्ध है, जिसके कारण शासकीय-उल्लेख अधूरा ही है। उपलब्ध अंश की दूसरी, तीसरी और चौथी पंक्तियों में चन्द्रगुप्त (द्वितीय) उसके पुत्र कुमारगुप्त (प्रथम), तदन्तर घटोत्कचगुप्त का उल्लेख हुआ है। चन्द्रगुप्त (द्वितीय) और कुमारगुप्त (प्रथम) गुप्त वंश के जाने-माने सम्राट् हैं; उन्हींके क्रम में घटोत्कचगुप्त का उल्लेख, स्पष्ट रूप से इस बात का द्योतक है कि वह गुप्त वंश का ही कोई व्यक्ति था और कुमारगुप्त (प्रथम) का प्रत्यक्ष वंशज था कुमारगुप्त के साथ उसके सम्बन्ध की अभिव्यक्ति करनेवाला अंश नष्ट हो जाने के कारण दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता; तदापि अनुमान किया जा सकता है कि वह कुमारगुप्त का ही पुत्र रहा होगा। उसके सम्बन्ध में कहा गया है कि उसने अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित यश को अपने बाहुबल से प्राप्त किया (पूर्वजानां स्थिरसत्वकीर्तिर्भुजार्जिता)।

घटोत्कचगुप्त नाम तुमैन अभिलेख से पूर्व बसाढ़ (वैशाली) से मिली मिट्टी की एक मुहर से ज्ञात होता है, जो ध्रुवस्वामिनी की मुहर के साथ मिली थी। इस मुहर पर केवल श्री घटोत्कचगुप्तस्य लेख है। एलन का मत है कि इस मुहर का समय चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के राज्य-काल में रखा जा सकता है और वह उसके जीवनकाल में ही प्रचलित हुआ होगा। उनका यह भी कहना था कि यह घटोत्कचगुप्त राजघराने का ही सदस्य रहा होगा। अतः मुहर के इस घटोत्कचगुप्त की पहचान प्रस्तुत अभिलेख के घटोत्कचगुप्त से सहज भाव से की जा सकती है। किन्तु मुहर में नाम के साथ किसी शासकीय विरुद के अभाव में उस मुहर के घटोत्कचगुप्त का समन्वय कुछ इतिहासकार सन्दिग्ध मानते हैं किन्तु प्रस्तुत अभिलेख के घटोत्कचगुप्त की पहचान सहज भाव से सोने के उन सिक्कों के प्रचलन कर्ता शासक से की जा सकती है, जिन पर राजा की बायीं ओर नीचे घटो अंकित है और किनारेवाले अभिलेख के अंश रूप में गुप्त पढ़ा जाता है। पट की ओर क्रमादित्य विरुद है। आकृति और बनावट के आधार पर एलन ने इन सिक्कों का समय पाँचवीं शती ई० का अन्त माना है और उसे कुमारगुप्त द्वितीय का समसामयिक अनुमान किया है। बयाना दफीने से मिले छत्र-भाँति के क्रमादित्य विरुदयुक्त सिक्के को भी घटोत्कचगुप्त का सिक्का अनुमान किया जा सकता है। उसके किनारेवाला लेख उपलब्ध नहीं है जिससे इस बात को निश्चित रूप से कहा जा सके। छत्र भाँति के सिक्के सम्भवतः गुप्त राजाओं ने अपने राज्यारोहण के समय प्रचलित किये थे इस आधार पर कहा जा सकता है कि घटोत्कचगुप्त कुमारगुप्त (प्रथम) के बाद तत्काल शासक हुआ होगा। इस प्रकार घटोत्कचगुप्त को कुमारगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र अनुमान करना अनुचित न होगा।

तुमैन से प्राप्त यह अभिलेख कुमारगुप्त (प्रथम) के शासन काल का है। इसलिए उसमें घटोत्कचगुप्त का उल्लेख इस बात का परिचायक है कि वह उस समय मात्र युवराज रहा होगा। उसके लेख में उल्लेख का मात्र अर्थ यह सकता है कि उस समय वह तुमैन के आसपासवाले प्रदेश सम्भवतः एरिकिण में शासनाधिकारी विशेष (उपरिक) रहा होगा। लेख के खण्डित होने के कारण घटोत्कचगुप्त की राजनीतिक स्थिति के सम्बन्ध में इससे अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता। इस लेख का यह महत्त्व है कि यह गुप्त वंश के एक प्रमुख व्यक्ति के अस्तित्व की जानकारी प्रस्तुत करता है।

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