जगदीशपुर ताम्रलेख; गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७ – ४८ ई० )

भूमिका

जगदीशपुर ताम्रलेख एक ताम्र-फलक पर अंकित है जिसे १९६२ ई० में राजशाही (बंगलादेश) के वारेन्द्र रिसर्च सोसाइटी ने राजशाही जिले के ही जगदीशपुर ग्राम के किसी व्यक्ति से प्राप्त किया था। कहा जाता है कि बहुत वर्ष पूर्व वह कुआँ खोदते समय १५ फुट की गहराई पर मिला था; किन्तु यह कथन बहुत विश्वसनीय नहीं जान पड़ता। ताम्र पत्र पर लेख के अक्षर अनेक स्थलों पर अस्पष्ट हैं और पाठ में भूलें और छूट काफी हैं। लगता है कि इसका लेखक अल्पज्ञ था  क्योंकि इसमें भाषाई त्रुटियाँ हैं। इसे सर्वप्रथम शचीन्द्रनाथ सिद्धान्त ने प्रकाशित किया था किन्तु उनका पाठ सन्तोषजनक नहीं है। तत्पश्चात् दिनेशचन्द्र सरकार ने अपने विवेचन के साथ पाठ प्रस्तुत किया है।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- जगदीशपुर ताम्रलेख [ Jagadishpur Copper-plate Inscription ]

स्थान :- जगदीशपुर; बाँग्लादेश।

भाषा :- संस्कृत ( अशुद्ध )

लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी

समय :- गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७-४८ ई० ), कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल

विषय :- धार्मिक कार्य के लिये भूमि विक्रय की विज्ञप्ति

मूलपाठ

१. स्वाति [॥] शृंगवेरवैथेय-पूर्णकौशिकायाः भट्टरक-पादानुध्यातः आयुक्त-काच्युतो-

२. धिकरणञ्च गुल्मगन्धिके संगोहालिके च ब्राह्मणादीन्प्रधान कुटुम्बिनः कुशल-

३. माशास्य बोधन्ति [।] विदितम्बोस्तु यथा पुण्ड्रवर्धने ये मूलकवस्तुका-वास्तव्यकुटु-

४. म्बि-क्षेमाकः गुल्मगन्धिका-वास्तव्य-भोयिलः तत्रैव वास्तव्य-महीदासाविह वीथी महत्त-

५. र-कुमारवेदेव-गण्ड-प्रजापति-ज्येष्ठदाम-कुटुम्बि-यशोविष्णु-उमायशो-हरिशर्म्म-

६. सर्प्पपालित-हिरण्यगुप्त-कुमारयश कुमारभूति-शिवकुण्ड-शिवापर-शिव-सोमविष्णु

७. सत्यविष्णु-कङ्कुटि-नन्ददामा-वीरनाग-नारायणदास-रुद्र-भव-गुह-अच्युत-कुवेर-शर्व्वनाग-भव-

८. नाग-श्रीदत्त-भवदत्त-धनविष्णु-गुणरथ-नदरदेव-पुरोगाः वयञ्च विज्ञापिताः [I] इच्छामः दक्षि-

९. णांशकेवीथ्या-मेचिकाम्र-सिद्धायतने भगवतान्नमर्हताङ्कारितक-विहारे गुल्मगन्धिके चार्हतान्पूजा-

१०. र्त्थं कारितक-प्रान्त-विहरिक तत्रैव गुल्मगन्धिके भगवतस्सहस्ररश्मेः कारितक देवकुले च बलि-चरु-सत्र-

११. प्रवर्त्तणाय खण्ड-फुट्ट-प्रतिसंस्कार-करणाय गन्ध-धूप-तैलोपयोगाय शश्व-त्कालोपभोग्याक्षयनजी-

१२. व्यामप्रतिकर-खिलक्षेत्रस्य कुल्यवापेकं क्रीत्वा दातुं [।] युष्माकञ्च वीध्यामनुवृत्तः द्विदीनारिक्यो प्रतिकर-

१३. खिलक्षेत्रस्य कुल्यवाप-विक्रयः [I] तदर्हथास्माभिर्हस्ताद्दीनार-द्वयं गृहीत्वा क्षेत्रस्य कुल्यवापमेकं

१४. दातुमिति [।] यतो एतद्विज्ञाप्यमु[प]ल[भ्य] पुस्तपाल-सिंहनन्दि-यशोदा-मयोरवधारणया-

१५. स्त्य[यम]स्मद्वीथ्यनुवृतः द्विन्दीनारिक्याप्र[तिकर]-खिल क्षेत्रस्य कुल्यवाप विक्रयस्तद्दीयतान्न

१६. विरोधः कश्चिदित्यवस्थाप्य क्षेमाक-भोयिल-महिदासयोर्हस्तात्कुलिक-भीमेनोपसंगृहीतकदीनार-

१७. द्वयमेतत्क्रीत्वा क्षेमाक-भोयिल-महीदासयो षड्द्रोणवापाः श्रमणकाचार्ये बलकुण्डस्य समा-

१८. वेशिताः [।] भोयिलेनापि साम्बपुरस्यार्थे द्रोणवाप-द्वयं तच्त्रा[च] देवत-कुल समीपे पुष्पवाटिका-तलवा-

१९. टक-निमित्तं च द्रोणवापमेकं कारितमित्येत् क्षेत्रं गुल्मगन्धिकायां पूर्व्वोत्तत्तरांया दिशि सप्त द्रोणवा-

२०. पाः देवकुल-समीपे च द्रोणवापमेकं [।] लिख्यम(ते)त्र सीमा पूर्व्वण पुष्करिण्याः कन्दरः सीमा च दक्षिणे-

२१. न धनविष्णु-पुष्करिण्या देव-कन्दरः सीमा च पश्चिमेनापि नाभ्रक-सतक सीमा उत्तरेणापि ………. तकु-

२२. ण्डः सीमा इत्येत् चतुस्सीमा-नियमित-क्षेत्रं समुस्थितं कालं येप्यन्ये विषयपतयः आयु-

२३. क्तकाः कुटम्बिनोधिकरणिका वा सम्व्यवहारिणो भविष्यन्ति [तै]रपि भूमिदान फल[वे]-

२४. क्ष्याक्षयनीव्यानुपालनीया [।] उक्तञ्च भगवता व्यासेन [।] स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां [।]

२५. स विष्ठायां कृमिर्भूत्वा पितृभिस्सह पच्यते [॥] षष्टि-वर्ष-सहस्राणि स्वर्ग्गे वसति भूमि-

२६. दः [।] आक्षेप्ता चानुद्रमन्ता च तान्येव नरके वसेत् [॥] इयं राजशतैर्द्दत्वा दीयतै च पुनः पुनः [I] यस्य

२७. यस्य यदा भूमि तस्य तस्य तदा फलं [॥] विन्ध्याटवीष्वनंभस्सु शुष्ककोटरवासिनः [।] कृष्णाह-

२८. यो भिजायन्ति भूमिदायां हरन्ति [ये] इति [॥] सं० १००[+]२०[+]८ चैत्र-दि २० लिखितं रुद्रदासेन तापि

२९. [तं] [सुसिंहेनमिति] [॥]

हिन्दी अनुवाद

स्वस्ति। शृंगवेर-वीथी स्थित पूर्णकौशिक के भट्टारक-पादानुध्यात आयुक्तक अच्युत [अपने] अधिकरण [सहित] गुल्मगन्धिक और संघोलिक के ब्राह्मण आदि प्रधान कुटम्बियों की कुशल कामना करते हैं।

[उन्हें] ज्ञात हो कि पुण्ड्रवर्धन के मूलकवस्तु निवासी कुटुम्बी क्षेमाक, गुल्मगन्धिक निवासी भोयिल और महीदास ने हमें (अधिकरण के सदस्यों) अर्थात् वीथीमहत्तर कुमारदेव, गण्ड, प्रजापति, ज्येष्ठदामन, कुटुम्बि यशोविष्णु, उमायशस, हरिशर्मण, सर्पपालित, हिरण्यगुप्त, कुमारयशस, कुमारभूति, शिवकुण्ड, शिव, शिव (द्वितीय), सोमविष्णु, सत्यविष्णु, कंकुटि, नन्ददाम, वीरनाग, नारायणदास, रुद्र, भव, गुह, अच्युत, कुबेर, शर्वनाग, भवनाग, श्रीदत्त, भवदत्त, धनविष्णु, गुणरथ और नरदेव को सूचित किया है। कि —

हम वीथी के दक्षिणी भाग में स्थित मचिकाम्र के सिद्धायतन में भगवान् अर्हत के निमित्त बने विहार, (२) गुल्मगन्धिका स्थित अर्हत की उपासना के निमित्त बने विहारिका और (३) गुल्मगन्धिका स्थित सहस्ररश्मि (सूर्य) के मन्दिर को बलि, चरु, सत्र तथा इन स्थानों की मरम्मत के निमित्त अक्षय-नीविस्वरूप दान देने के लिये एक कुल्यवाप अप्रतिकर भूमि क्रय करना चाहते हैं। आप लोगों की वीथी में उक्त प्रकार की एक कुल्यवाप भूमि के लिये दो दीनार [मूल्य] प्रचलित है। अतः आप लोग हमसे दो दीनार लेकर हमें एक कुल्यवाप भूमि देने [की कृपा करें]।

इस प्रकार का आवेदन प्राप्त होने पर पुस्तपाल सिंहनन्दिन और यशोदाम ने पूछने पर बताया कि अप्रतिकर खिल-क्षेत्र (भूमि) के लिये वीथी में दो दीनार प्रति कुल्यवाप मूल्य प्रचलित है और यह आवेदन तदनुकूल है। इसकी स्थापना हो जाने पर कुलिक भीम ने क्षेमाक, भोयिल और महीदास से दो दीनार प्राप्त किया।

इन क्रीत भूमि में से क्षेमाक, भोयिल और महीदास ने छ द्रोणवाप (/कुल्यवाप) श्रमणक आचार्य बलकुण्ड के सुपुर्द किया। भोयिल ने दो द्रोणवाप भूमि, जो देवकुल के निकट है, पुष्पवाटिका तथा तलवाटक के निमित्त साम्बपुर को दिया।

इस क्षेत्र में से सात द्रोणवाप गुल्मगन्धिका के उत्तर-पूर्व भाग में तथा एक द्रोणवाप देवकुल के निकट है। उसकी सीमा इस प्रकार लिखी जा रही है — पूर्व में पुष्करण का कन्दर; दक्षिण की ओर धनविष्णु के पुष्करणी का देवकन्दर, पश्चिम की ओर नाभ्रक की सम्पत्ति तथा उत्तर की ओर ……….. कुण्ड।

इस प्रकार चारों ओर से सीमाबद्ध क्षेत्र को, जिस समय जो भी विषयपति, आयुक्तक, अधिकरण के कुटुम्बी एवं सम्व्यवहारी हों, वे इस भूमिदान [पत्र] द्वारा प्रदत्त अक्षयनीवी [मानकर] उसका पालन करें।

भगवान् व्यास ने कहा है — जो व्यक्ति स्वदत्त अथवा परदत्त भूमि का हरण करता है वह पितरों-सहित विष्ठा का कृमि होता है।

भूमिदान देनेवाला छः सहस्र वर्ष तक स्वर्गवास करता है; जो उसका अपहरण करता है वह उतने ही समय तक नरक में रहता है। सैकड़ों राजाओं ने दान दिया है और बराबर देते रहे हैं। जो जिस रूप में दान देता है उसे उसी प्रकार का फल मिलता है।

भूमि-दान का अपहर्ता विन्ध्यवासी के शुष्क वृक्ष-कोटर में रहनेवाले काले साँपों के रूप में जन्म लेता है।

हिन्दी अनुवाद

जगदीशपुर ताम्रलेख धनैदह ताम्रपत्र ( गुप्त सम्वत् ११३ ), कुलाइकुरै, दामोदरपुर और बैग्राम अभिलेखों के समान ही धार्मिक कार्य के निमित्त भू-विक्रय की विज्ञप्ति है। इसे कुलाइकुरै के समान ही आयुक्तक अच्युत और उसके अधिकरण ने प्रसारित किया था।

कुलाइकुरै लेख में अधिकरण के सदस्यों के रूप में जिन नामों का उल्लेख है, उनमें आठ को वीथी-महत्तर कहा गया है, शेष की चर्चा कुटुम्बिन के रूप में हुई है।जगदीशपुर ताम्रलेख में ३२ नाम हैं जिनमें ४ ही वीथी-महत्तर हैं, शेष कुटुम्बिन हैं। दोनों की नामावली में १७ (१-४, ६-८ १०-११, १३-१७ और २७) नाम एक-से हैं इनसे ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकरण की जिस बैठक में जिस क्रय के आवेदन-पत्र पर विचार किया जाता था, उसकी विज्ञप्ति में उस बैठक में उपस्थित सदस्यों के ही नामों का उल्लेख किया जाता था।

दोनों लेखों के देखने से अधिकरण के सम्बन्ध में एक बात और भी ज्ञात होती है, वह यह है कि कुटुम्बियों में से ही वीथी-महत्तर निर्वाचित होते थे। कुलाइकुरै लेख में उमायशस का उल्लेख बीथी-महत्तर के रूप में हुआ है; प्रस्तुत लेख में उसे मात्र कुटुम्बिन कहा गया है। जान यह पड़ता है कि बीथी-महत्तर के पुनर्निर्वाचन में उमायशस सफलता प्राप्त न कर सका था।

जगदीशपुर ताम्रलेख के अनुसार तीन व्यक्तियों-क्षेमाक, भोयिल और महीदास ने मिलकर एक कुल्यवाप भूमि क्रय की और उसमें से छः द्रोणवाप (/ कुल्यवाप) उन तीनों ने मिलकर (१) मेचिकाम्र स्थित बौद्ध विहार, (२) गुल्मगन्धिका स्थित विहारिक (छोटे विहार) तथा गुल्मगग्धिका स्थित सहस्र-रश्मि (सूर्य) के मन्दिर को बलि, चरु, सत्र तथा इन संस्थाओं की मरम्मत के निमित्त दिया और उनके प्रबन्ध का दायित्व श्रमणक आचार्य (बौद्ध-भिक्षु) को सौंपा। इससे ज्ञात होता है कि उन दिनों लोगों में किसी प्रकार की साम्प्रदायिक दुर्भावना नहीं थी और लोग बिना किसी भेद-भाव के विभिन्न सम्प्रदाय की संस्थाओं और मन्दिरों को दान देते थे और उसी प्रकार बौद्ध भिक्षु भी बौद्धेतर मन्दिरों की देखभाल करने में समान रुचि रखते थे।

क्रीत शेष दो द्रोणवाप (/ कुल्यवाप) भूमि का मूल्य कदाचित् भोयिल ने अकेले दिया था, जिससे उसका उल्लेख अलग से किया गया है भोयिल ने इस भूमि को साम्बपुर को पुष्प वाटिका बनाने तथा तलवाटक के निमित्त दिया। दिनेशचन्द्र सरकार की धारणा है कि साम्बपुर उस संस्थान का नाम था, जहाँ सूर्य की प्रतिमा स्थापित थी उसका नामकरण कदाचित् सूर्योपासक साम्ब के नाम पर हुआ था जिसकी प्रतिमा की पूजा उस मन्दिर में होती रही होगी। उनकी यह भी धारणा है कि इस मन्दिर की स्थापना भोयिल ने ही की थी और उसकी व्यवस्था (maintenance) के लिये उसने यह भूमि दी। किन्तु यदि इसका तात्पर्य उस सूर्य-मन्दिर से होता तो उसे किसी अलग नाम साम्बपुर से उल्लेख करने की आवश्यकता न होती। यह किसी अन्य संस्थान की व्यवस्था से ही सम्बन्ध रखता है।

तलवाटक का तात्पर्य उन्होंने मन्दिर से सटी हुई ऐसी भूमि अनुमान किया है जो स्थापना के समय व्यवस्था के लिये दी जाय। किन्तु तलवाटक के इस अर्थ से सहमत होना कठिन है क्योंकि इस लेख से स्पष्ट ध्वनित होता है कि जिस संस्थान अथवा मन्दिर को भूमि दी गयी वह पहले से स्थापित था, भले ही भोयिल ने ही उसे स्थापित किया हो तलवाटक का उल्लेख बैग्राम ताम्रपत्र में भी हुआ है। उसमें तलवाटक के लिये स्थल-वास्तु (मकान बनाने के लिये भूमि) दिये जाने का उल्लेख है। तलवाटक का उल्लेख जीवितगुप्त के देववर्णार्क के लेख में भी हुआ है। वहाँ इसका तात्पर्य भगवानलाल इन्द्रजी ने गाँव का लेखागार अनुमान किया है। दिनेशचन्द्र सरकार ने अन्यत्र कहा है कि मन्दिर के सेवा-रत भृत्यों के एक वर्ग को तलवाटक कहते रहे होंगे। बैग्राम लेख के प्रसंग से लगता है कि मन्दिर के पुजारी को ही तलवाटक कहते रहे होंगे। डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त इसका तात्पर्य नारियल के बगीचा बताते हैं। देव आराधना के लिये पुष्प और नारियल दोनों ही आवश्यक हैं; अतः उसी की पूर्ति के लिये उसने यह दान दिया होगा किन्तु निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता।

कुमारगुप्त ( प्रथम ) का बिलसड़ स्तम्भलेख – गुप्त सम्वत् ९६ ( ४१५ ई० )

गढ़वा अभिलेख

कुमारगुप्त प्रथम का उदयगिरि गुहाभिलेख (तृतीय), गुप्त सम्वत् १०६

मथुरा जैन-मूर्ति-लेख : गुप्त सम्वत् १०७ ( ४२६ ई० )

धनैदह ताम्रपत्र ( गुप्त सम्वत् ११३ )

गोविन्द नगर बुद्ध-मूर्ति लेख

तुमैन अभिलेख ( गुप्त सम्वत् ११६ )

मन्दसौर अभिलेख मालव सम्वत् ४९३ व ५२९

करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख – गुप्त सम्वत् ११७ ( ४३६ – ३७ ई० )

कुलाइकुरै ताम्र-लेख

दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख ( प्रथम ) गुप्त सम्वत् १२४ ( ४४३ – ४४ ई० )

दामोदरपुर ताम्रपत्र लेख (द्वितीय) – गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७-४८ ई० )

मथुरा बुद्ध-मूर्ति लेख – गुप्त सम्वत् १२५ ( ४४४ ई० )

बैग्राम ताम्र-लेख – गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७ – ४८ ई० )

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top