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बैग्राम ताम्र-लेख – गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७ – ४८ ई० )

भूमिका बैग्राम ताम्र-लेख १९३० ई० में वर्तमान बाँग्लादेश के दीनाजपुर जनपद से बैग्राम नामक गाँव से मिला था। राधागोविन्द बसाक ने इसको प्रकाशित किया है। संक्षिप्त विवरण नाम :- कुमारगुप्त प्रथम का बैग्राम ताम्र-लेख [ Baigram Copper-Plate Inscription of Kumargupta – I ] स्थान :- बैग्राम, दीनाजपुर जनपद; बाँग्लादेश। भाषा :- संस्कृत लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७-४८ ई० ) विषय :- भूमि क्रय करके भगवान् गोविन्दस्वामी के देवकुल के जीर्णोद्धार व पुजापाठ के लिये दान करने से सम्बन्धित। मूलपाठ १. स्वस्ति (II) पञ्चनगर्य्या भट्टारक-पादानुध्यातः कुमारामात्य कुलवृद्धिरेत-द्विषयाधिकरणञ्च २. वायिग्रामिक-त्रिवृत[ा] -श्रीगोहाल्योः ब्राह्मणोत्तरान्सम्व्यवहारि-प्रमुखान्ग्राम-कुटुम्बिनः कुशलमनु- ३. वर्ण्यं बोधयन्ति (।) विज्ञापयतोरत्रैव वास्तव्य-कुटुम्बि-भोयिल-भास्करा-वावयोः पित्रा शिवनन्दि- ४. ना कारि[त]कं भगवतो गोविन्दस्वामिनः देवकुलस्त-दसावल्पवृत्तिकः (।) इह विषये समुदय- ५. बाह्याद्यस्तम्ब-खिल-क्षेत्ताणामकिञ्चिव्यतिकराणां शश्वदाचन्द्रार्क्क-तारक-भोज्यानांमक्षय- नीव्या ६. द्विदीनारिक्क्य-कुल्यवाप-विक्क्रयो(ऽ) नुवृत्तस्तदर्हथावयोस्सकाशात्षड्दीतारानष्ट च रूपकानायी ७. [कृ]त्य भगवतो गोविन्दस्वामिनो देवकुले [ख]ण्ड-फुट्ट-प्रतिसंस्क[ा]रकरणाय गन्ध-धूप-दीप ८. सुमनसां प्रवर्त्तनाय च त्रिवृतायां भोगिलस्य खिल-क्षेत्र-कुल्यवाप-त्रयं श्रीगोहाल्याश्चापि ९. तल-वाटकार्थं स्थल-वास्तुनो द्रोणवापमेकं भास्करस्यापि स्थलवास्तुनो द्रोणवा[प]पञ्च दातु- १०. मि[ति] (।)  यतो युष्मान्बोधयामः पुस्तपाल-दुर्गदत्तार्क्कदासयोरवधारणया अवधृत- ११. मस्तीह-विषये समुदय-बाह्याद्यस्तम्ब-खिल-क्षेत्राणां शश्वदाचन्द्रार्क्कतारक भोज्यानां द्विदी- १२. नारिक्य-कुल्यवाप-विक्क्रयो(ऽ) नुवृत्तः (।) एवंविधाप्रतिकर-खिलक्षेत्र-विक्क्रये च न कश्चिद्राजार्थ- १३. विरोध उपचय एव भट्टारक-पादानां धर्म्मफल-षड्भागावाप्तिश्च तद्दीयतामिति (।) एतयोः १४. भोयिल-भास्करयोरसका(शा)त्षड्दीनारानष्ट च रूपकानायीकृत्य भगवतो गोविन्दस्वामिनो १५. देवकुलस्यार्थे भोयिलस्य त्रिवृतायां खिलक्षेत्र-कुल्यवाप त्रयं तलवाट काद्यर्त्यम् १६. श्रीगोहाल्यां स्थल-वास्तुनो द्रोणवापं भास्करास्याप्यत्रैव स्थले-वस्तुनो द्रोणवाप- १७. मेवं कुल्यवाप त्रयं स्थल-द्रोणवाप-द्वयञ्च अक्षयनीव्यास्ताम्र-पट्टेन दत्तम् (I) निन्न १८. कु ३ स्थल-द्रो २ (।) ते यूयं स्वकर्षणाविरोधि-स्थाने दर्व्वीकर्म्म-हस्ते-नाष्टक-नवक-नलाभ्या- १९. मपविञ्च्छ्य चिरकाल स्थ[ा] यि-तुषाङ्गारादिना चिह्नैश्चातुर्दिशो नियम्य दास्यथाक्षय- २०. नीवी-धर्मेन च शश्वत्कालमनुपालयिष्यथ (।) वर्त्तमान-भविष्यैश्च संव्य-वहार्य्यादिभिरेत- २१. द्धर्म्मपेक्षयानुपालयितव्यमिति (॥)  उक्तञ्च भगव(ता) वेदव्यास-महात्मना (।) स्व- दत्तां पर-दत्तां २२. व्वा यो हरेत वसुन्धरां। स विष्ठायां क्रिमिर्भूत्वा पितृभिस्सह पच्यते (॥) षष्टिं वर्ष-सह- २३. स्राणि स्वर्गे मोदति भूमिदः (।) आक्षेप्ता चानुमन्ता च तान्येव नरके वसेत् (॥) पूर्व्व- २४. दत्तां द्विजातिभ्यो यत्नाद्रक्ष युधिष्ठिर (।) महीं महिमतां श्रेष्ठ दानाच्छ्रेयो(ऽ) नुपाल- २५. नमिति (॥) सं १००(+)२०(+)८ माघ-दि १०(+)९ (॥) हिन्दी अनुवाद स्वस्ति। पंचनगरी [विषय के विषयपति] भट्टारक के पादानुवर्ती कुमारामात्य कुलवृद्ध तथा उनका अधिकरण वायिग्राम (बैग्राम) से लगे त्रिवृत्ता तथा श्री गोहाली के ब्राह्मणों, सम्व्यवहारी, ग्रामप्रमुख एवं कुटुम्बियों की कुशल-मंगल कामना करता हुआ सूचित करता है — ज्ञात हो कि यहाँ के निवासी भोयिल तथा भास्कर ने निवेदन किया है कि उनके पिता शिवनन्दिन द्वारा निर्मित भगवान् गोविन्दस्वामिन् का देवकुल (मन्दिर) स्वल्प-वृत्तिक है (अर्थात् उसकी आय का पर्याप्त साधन नहीं है)। इस विषय में समुदयबाह्य (ऐसी भूमि जिसमें अन्न उत्पन्न न होता हो), आद्यस्तम्ब (जंगल-झाड़ियों से भरी हुई भूमि), खिल-क्षेत्र (ऐसी भूमि जो कभी जोती न गयी हो), अकिंचित् अप्रतिकर (भूमि जिससे राज्य को किसी प्रकार की आय न होती हो), दो दीनार प्रति कुल्यवाप की दर से, जब तक सूर्य-चन्द्र-तारे रहें तब तक उपभोग के लिये अक्षयनीवी-रूप में बिक्री के लिये उपलब्ध है। [अतः] छः दीनार आठ रूपक लेकर भोगिल को भगवान् गोविन्दस्वामी के देवकुल (मन्दिर) की मरम्मत तथा [उनकी पूजा के निमित्त] गन्ध, धूप, दीप और पुष्प की व्यवस्था के लिये त्रिवृता स्थित तीन कुल्यवाप खिलखेत्र तथा तलवाटक के लिये गोहाली स्थित एक द्रोणवाप स्थल-वास्तु ( मकान बनाने के निमित्त भूमि) तथा भास्कर को एक द्रोणवाप स्थल भूमि दी जाय। अतः घोषित किया जाता है कि पुस्तपाल दुर्गादत्त तथा अर्क्कदास ने पूछने पर बताया कि जब तक सूर्य-चन्द्र-तारे रहें तब तक भोग के निमित्त दो दीनार प्रति कुल्यवाप की दर से समुदयबाह्य, खिल-क्षेत्र बेचने का प्रचलन है। इस प्रकार के अप्रतिकर खिल क्षेत्र की बिक्री से राज्य की किसी प्रकार की हानि होने की सम्भावना नहीं है। वरन् इस प्रकार की [भूमि देने से] भट्टारक (राजा) को धर्म-लाभ का छठा अंश प्राप्त होता है। अतः यह भूमि बेची जा सकती है। [तदनुसार] भोगिल और भास्कर से छः दीनार आठ रूपक प्राप्त कर भगवान् गोविन्दस्वामिन् के देवकुल (मन्दिर) के निमित्त त्रिवृता स्थित तीन कुल्यवाप खिल-क्षेत्र तथा तलवाटक के निमित्त श्रीगोहाली स्थित एक द्रोणवाप स्थल-वास्तु तथा वहीं (उसी ग्राम में) भास्कर को एक द्रोणवाप स्थल-वास्तु — कुल तीन कुल्यवाप दो द्रोणवाप भूमि अक्षय-नीवी के रूप में इस ताम्रपट्ट द्वारा दी जा रही है। [खिल भूमि] ३ कुल्यवाप स्थल [भूमि] २ द्रोण। [इस] कर्षणाविरोधी-स्थान (ऐसी जगह जहाँ किसी के कृषि कार्य में बाधा न पड़े अर्थात् जो भूमि किसी कृषक की न हो) में दर्वीकर्म-हस्त ८×९नल के पैमाने से नाप और तुषार-अंगार आदि के चिह्न द्वारा चौहद्दी स्थिर कर अक्षय-नीवि-धर्म के अनुसार शाश्वत काल के उपभोग के निमित्त भूमि दी गयी। वर्तमान और भावी संव्यवहारिन् इस कार्य की मर्यादा को, धर्म-कार्य समझकर परिपालन करें। भगवान् महात्मा वेदव्यास ने कहा है जो स्वतः या दूसरों द्वारा दान में दी गयी भूमि का अपहरण करता है वह पितरों सहित विष्ठा का कीड़ा होगा। भूमि देनेवाला व्यक्ति छः हजार वर्ष तक स्वर्ग में निवास करता है उसका अपहर्ता उतने ही काल तक नरकवासी होता है। युधिष्ठिर ने भी ब्राह्मणों को दी गयी भूमि की रक्षा की थी। इस जगत् में भू-दान का परिपालन श्रेष्ठ कार्य है। संवत् १२८, माघ दिवस १६। टिप्पणी बैग्राम ताम्र-लेख धार्मिक कार्य के निमित्त राज्य की ओर से बेची गयी भूमि-सम्बन्धी विज्ञप्ति है। यह लेख गुप्तकालीन भूमि व्यवस्था के अध्ययन के लिये महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इससे निम्न जानकारियाँ प्राप्त होती हैं : पंचनगरी नामक विषय का उल्लेख है। विषय गुप्तकालीन प्रशासनिक इकाई थी जिसकी तुलना आधुनिक जनपदों से की जा सकती है। विषय का प्रशासक ‘विषयपति’ होता था। देवकुल अर्थात् मंदिर। स्वल्पवृत्तिक अर्थात् आय का पर्याप्त साधन न होना। समुदयबाह्य अर्थात् ऐसी भूमि जिसमें अन्न न उपजता हो। आद्यस्तम्ब अर्थात् जंगल-झाड़ी युक्त भूमि। खिल क्षेत्र अर्थात् जो भूमि जोती न गयी हो या बंजर भूमि। अकिंचित अप्रतिकर अर्थात् ऐसी भूमि जिससे राज्य को आय न होती हो। कुल्यवाप – भूमि की वह इकाई जिसमें एक तुल्य मात्रा बीज बोया जा सके। दीनार – स्वर्ण का सिक्का। अक्षयनीवी – स्थायी धन या भूमि का दान। अक्षयनीवी धर्म – अक्षयनीवी से सम्बन्धित विनियम। रूपक – चाँदी का सिक्का। द्रोणवाप – भूमि की वह इकाई जिसमें एक द्रोण बीज बोया जा सके। नल – भूमि को मापने के लिये धातु की छड़ या लट्ठा। गुप्तकालीन अभिलेखों में हम बारम्बार अक्षयनीवी और अक्षयनीवी धर्म के उल्लेख पाते हैं, बैग्राम ताम्र-लेख भी इसका अपवाद नहीं है।। इसके तहत यह तथ्य बार-बार दोहराया गया है – राजा को धर्म लाभ का छठवाँ हिस्सा प्राप्त होता है। जब तक सूर्य-चन्द्र-तारे हैं तब तक के लिये दान अर्थात् ऐसा दान जिसका क्षय न हो शाश्वत हो ( अक्षयनीवी

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दामोदरपुर ताम्रपत्र लेख (द्वितीय) – गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७-४८ ई० )

भूमिका दामोदरपुर ( रंगपुर जनपद, बाँग्लादेश ) से कई अभिलेख प्राप्त हुए हैं, उन्हीं में से यह द्वितीय अभिलेख है। इसीलिये इसको दामोदरपुर ताम्रपत्र लेख (द्वितीय) कहते हैं। इसको राधागोविन्द बसाक ने प्रकाशित किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- कुमारगुप्त प्रथम का दामोदरपुर ताम्रपत्र लेख (द्वितीय) [ Damodarpur Copper Plate Inscription-II Of Kumargupta-I] स्थान :- दामोदरपुर, उत्तरी बाँग्लादेश का रंगपुर जनपद। भाषा :- संस्कृत लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७-४८ ई० ) विषय :- भूमि क्रय करके दान करने से सम्बन्धित, विषय ( जनपद ) की प्रशासनिक जानकारी का स्रोत। मूलपाठ प्रथम पटल ( मुख भाग) १. स[ ] १००(+)२०(+)८ वैशाख-दि १०(+)३ [।] पर[मदैव]त-परमभट्टारक-महाराजाधिराज [श्रीकुमा]- २. रगुप्ते पृथिवी-पतौ [तत्पाद]परिगृहीतस्य पु[ण्ड्रवर्द्धन भुक्तावुपरिकचि]-रातदत्त [स्य] ३. भोगेना[नुव]ह[मानक] कोटिव[र्ष]-विषये तन्नियुक्तक-कु[मा]रामात्य-वे [त्र]- ४. वर्म्मणि अधिष्ठाना[धिक]र[णञ्च]नगर [श्रे]ष्ठि-धृतिपाल सार्थवा[हबन्धुमि]त्र प्र[थ]- ५. म-कुलिक-धृतिमत्र [प्रथ]म-कायस्थ [शाम्ब] पाल-पुरो[गे] सम्व्यव[हर]ति [यतः] स ….. ६. विज्ञापितं अ[र्ह]थ मम प[ञ्च] महायज्ञ-प्रवर्त्तनायानुवृत्ताप्रदाक्षनि[वी]- ७. मर्य्यादया दातुमिति [।] एतद्विज्ञाप्यमुपलभ्य पुस्तपा[ल] रिसिदत्त-जयन-[न्दि-विभुदत्तानामव]- ८. धारणया दीयतामित्यु[त्प]न्ने एतस्माद्य[था]नुवृत्त त्रैदीनारि[क्य-कु]ल्य-वापे[न]   द्वितीय पटल ( पृष्ठ भाग ) ९. [द्व]यमुप [संगृ]ह्य [ऐरा]वता [गो] राज्ये पञ्चिम दिशि पञ्चद्रो [णा]- १०. अर्ध[ट्ट]पानकैश्च सहितेति दत्ताः [I] तदुत्तर-कालं सम्व्यवहारिभिः [धर्म्ममवेक्ष्या]नु[म]- ११. न्तव्याः [।] अपि च भूमि-दान सम्बद्धामिमौ श्लोकौ भवतः [।] पूर्व-दत्तां द्विजाति[भ्यो] १२. यत्नाद्रक्ष युधिष्ठिर [।] महीं महीवतां श्रेष्ठ दानाच्छ्रेयो(ऽ) तुपा(ल) नं [॥] बहुभिर्व्वसुधा दत्ता दी [य] ते च १३. पुनः पुनः [।] यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलमिति [॥] हिन्दी अनुवाद संवत् १२८ वैशाख दिन १३ । परमदैवत परमभट्टारक महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त के पाद द्वारा गृहीत पुण्ड्रवर्धन भुक्ति के उपरिक चिरातदत्त के समृद्धिपूर्ण शासन के अन्तर्गत कोटिवर्ष के [चिरातदत्त] द्वारा नियुक्त (विषय-पति) कुमारामात्य वेत्रवर्मा और अधिष्ठान (नगर) के अधिकरण (प्रशासन-समिति) के सदस्य — नगर-श्रेष्ठि धृतिपाल, सार्थवाह बन्धुमित्र, प्रथम-कुलिक धृतिमित्र, प्रथम-कायस्थ शाम्बपाल [तथा] पुरोग, यह सूचित करते हैं — ……… ने निवेदन किया है कि पंचमहायज्ञ* के परिपालन के निमित्त अप्रद-नीवी मर्यादा के अनुसार मुझे [भूमि] दी जाय। इस प्रार्थना-पत्र को पाकर पुस्तपाल ऋषिदत्त, जयनन्दि और विभुदत्त से जाँच की गयी और जाँच करने के बाद तीन दीनार प्रति कुल्यवाप की दर से दो दीनार लेकर अर्हट्ट (पानी खींचने का रहट) और पानक (पानी के निकास की नाली) सहित पाँच द्रोण (भूमि) ऐरावत गोराज्य के पश्चिम दी जाती है। बलि, चरु, वैश्वदेव, अग्निहोत्र और अतिथि। — मनुस्मृति (३/६९)* भविष्य के शासनाधिकारी (सम्व्यवहारी) इसका परिपालन करें। भूमि-दान के सम्बन्ध में यह श्लोक कहा गया है — पूर्वकाल में ब्राह्मणों को दी गयी भूमि की रक्षा युधिष्ठिर ने भी की थी। भूमि-दान से [दान दी गयी] भूमि की रक्षा श्रेष्ठ है। बहुत से लोगों ने दान दिया है। दान बार-बार दिया जाना चाहिये । जो जितना ही भूमि-दान देता है उसे उसीके अनुसार फल मिलता है। टिप्पणी आधुनिक बाँग्लादेश के रंगपुर जनपद के दामोदरपुर से संस्कृत गद्य में प्राप्त कुमारगुप्त के शासनकाल का यह ताम्रपत्र है। दामोदरपुर से कई ताम्रपत्र मिले हैं। इन ताम्रपत्रों को प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ जैसे नाम दिये गये हैं; उदाहरणार्थ दामोदरपुर ताम्रपत्र लेख (द्वितीय )। प्रस्तुत अभिलेख में भूमिदान सम्बन्धी महाभारत के दो श्लोक उद्धृत हैं इनका उद्देश्य है किसी ब्राह्मण के पंचमहायज्ञ* की व्यवस्था के लिये राज्य से दो दीनार में पाँच द्रोण भूमि की खरीद करना। यहाँ पंचमहायज्ञों का उल्लेख है। मनु के अनुसार ये पंचपातकों के निवारणार्थ किये जाते थे उनके विवरण के अनुसार पाँच पातक हैं— ब्रह्महत्या, सुरापान, स्वर्ण चोरी, गुरु-शय्या-गमन और इनका संग। पाँच महायज्ञों को मनु ने गिनाया है — ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ तथा अतिथियज्ञ।* प्रस्तुत ताम्र-लेख दामोदर ताम्र-लेख अभिलेख ( प्रथम ) की तरह ही भू-विक्रय की विज्ञप्ति है। दोनों ही एक ही स्थान से एक ही विषयपति और एक ही अधिकरण द्वारा प्रचारित हैं। इस प्रकार दोनों ही लेखों का पूर्वांश एक समान है दोनों के निवेदक भी ब्राह्मण हैं। पहले लेख में निवेदन अग्निहोत्र के निमित्त एक कुल्यवाप भूमि के लिये किया गया था। प्रस्तुत लेख में निवेदन पंच-महायज्ञ के निमित्त भूमि प्राप्त करने के लिये है। दोनों ही लेखों से ज्ञात होता है कि उस समय भूमि का मूल्य तीन दीनार प्रति कुल्पवाप था। इस लेख में ५ द्रोणवाप भूमि क्रय किये जाने की बात कही गयी है। उसका मूल्य १७/८ दीनार होता है पर उससे मूल्यस्वरूप दो दीनार लिया गया, जो भूमि के मूल्य से दीनार अधिक है। सम्भवतः इस १/८ दीनार के बदले क्रेता को अर्हट्ट और पानक की सुविधा दी गयी थी। दिनेशचन्द्र सरकार ने हट्टपानक का अर्थ हाट (बाजार) और आपानक (shed for watering cattle) बताया है। उनकी धारणा है कि भूमि के साथ वे भी दिये गये थे। इस प्रकार का अधिकार इतने अल्प मूल्य के बदले दिया जाना संदेहजनक है। अतः भण्डारकर ने इसे अरहट्टपानक (रहट-युक्त पौशाला) (drinking places having Persian wheels) का सुझाव दिया है। एक अन्य विद्वान् ने इसका तात्पर्य ‘खुदे नहर के पानी से सिंचाई का अधिकार’ ग्रहण किया है। इसकी कल्पना उन्होंने किस आधार पर की है, यह अज्ञात है। इस अभिलेख में प्रयुक्त एरावतागोराज्य की व्याख्या के सन्दर्भ में भण्डारकर ने आप्टे के कोष में ऐरावत के बताये गये अर्थ की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। उनके अनुसार ऐरावत, जलहीन विस्तृत भूमि (vast and waterless region) को कहते हैं। अगोराज्य का तात्पर्य भण्डारकर ने गो-विहीन (destiute of cows) किया है। इस प्रकार उनका कहना है कि इसका तात्पर्य ऐसी ऊसर भूमि से है जहाँ गायें भी नहीं जातीं। इस प्रकार की व्याख्या अपने आपमें ठीक नहीं है। यह अभिलेख भूमि-विक्रय-पत्र है। इसमें विक्रीत भूमि का संकेत आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है यदि हम भण्डारकर की व्याख्या को स्वीकार करें तो हमें उस जगह का कोई संकेत उपलब्ध नहीं होता जहाँ विक्रीत भूमि थी। अतः स्पष्ट है यहाँ एरावतागोराज्य स्थानवाची है। ऐरावत को हम भले ही ऊसर भूमि मान लें पर गोराज्य के सम्बन्ध में ऐसी कल्पना नहीं कर सकते हैं। अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि विक्रीत भूमि गोराज्य में थी और वह ऊसर थी। कुमारगुप्त ( प्रथम ) का बिलसड़ स्तम्भलेख – गुप्त सम्वत् ९६ ( ४१५ ई० ) गढ़वा अभिलेख कुमारगुप्त प्रथम का उदयगिरि गुहाभिलेख (तृतीय), गुप्त सम्वत् १०६ मथुरा जैन-मूर्ति-लेख : गुप्त सम्वत् १०७ ( ४२६ ई० ) धनैदह ताम्रपत्र ( गुप्त सम्वत् ११३ ) गोविन्द नगर बुद्ध-मूर्ति लेख तुमैन अभिलेख ( गुप्त सम्वत् ११६ ) मन्दसौर अभिलेख मालव सम्वत् ४९३ व ५२९ करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख –

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मथुरा बुद्ध-मूर्ति लेख – गुप्त सम्वत् १२५ ( ४४४ ई० )

भूमिका १९६५ ई० के आसपास मथुरा कलक्टरी कचहरी के लिये नये अभिलेखागार भवन की नींव खोदते समय भगवान बुद्ध की एक भग्न मूर्ति मिली थी, जिसके पीठासन पर यह लेख अंकित है। इसीलिये इसको मथुरा बुद्ध-मूर्ति लेख कहा जाता है। यह मूर्ति मथुरा संग्रहालय में रखी हुई है। पीठासन का दाहिना भाग टूटा हुआ है जिसके कारण प्रथम दो पंक्ति के कुछ अक्षर तथा अन्तिम पंक्ति अप्राप्य है। पहली पंक्ति के अक्षरों के शिरोभाग भी क्षतिग्रस्त हैं। इस प्रकार यह लेख अधूरा है। इसको वी० एन० श्रीवास्तव ने प्रकाशित किया है। संक्षिप्त विवरण नाम :- कुमारगुप्त प्रथम का मथुरा बुद्ध-मूर्ति लेख ( Mathura Buddha Image Inscription of the Time of Kumaragupta I ) स्थान :- मथुरा जनपद, उत्तर प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १२५ ( ४४४ ई० ) विषय :- भगवान बुद्ध की मूर्ति के निर्माण की विज्ञप्ति मूलपाठ १. …………… श्रीकुमारगुप्तस्य विजय-राज्य-सम्वत् १२५ अश्वायुज मासे दि ९ [अस्यां] दिवस पूर्व्वायां माथुरस्य २. ……………. [कु]मारदास [भ]ट्ट-विज्ञायमानस्य [I] यद[त्र] पुण्यमं तद् भवतु माता पित्रोः सर्व्वसत्वानां चानुत्तर ३. ……………. [ज्ञानावाप्तयि] ……………. हिन्दी अनुवाद ….…….. श्री कुमारगुप्त के विजय-राज्य में संवत् १२५, अश्वायुज (आश्विन) मास का दिन ९। इस पूर्वकथित दिन को मथुरा के ……… कुमारदास भट्ट की भेंट। इसका जो पुण्य हो वह माता-पिता और सर्व सत्वों को प्राप्त हो। महत्त्व जिस भग्न बुद्धमूर्ति के पीठासन पर यह लेख है, उसी के दान की यह विज्ञप्ति है। यदि पहली पंक्ति का पूर्वांश उपलब्ध होता तो कदाचित् कुमारगुप्त के सम्बन्ध में कुछ जानकारी प्राप्त होती। हो सकता है उसमें कुमारगुप्त प्रथम का विरुद रहा हो। इसी प्रकार दूसरी पंक्ति के अनुपलब्ध अंश में कदाचित् मथुरा निवासी कुमारदास का परिचय रहा होगा। इससे इतना ही ज्ञात होता है कि यह कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल का है जिसमें गुप्त सम्वत् १२५ ( ४४४ ई० ) अंकित है। कुमारगुप्त ( प्रथम ) का बिलसड़ स्तम्भलेख – गुप्त सम्वत् ९६ ( ४१५ ई० ) गढ़वा अभिलेख कुमारगुप्त प्रथम का उदयगिरि गुहाभिलेख (तृतीय), गुप्त सम्वत् १०६ मथुरा जैन-मूर्ति-लेख : गुप्त सम्वत् १०७ ( ४२६ ई० ) धनैदह ताम्रपत्र ( गुप्त सम्वत् ११३ ) गोविन्द नगर बुद्ध-मूर्ति लेख तुमैन अभिलेख ( गुप्त सम्वत् ११६ ) मन्दसौर अभिलेख मालव सम्वत् ४९३ व ५२९ करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख – गुप्त सम्वत् ११७ ( ४३६ – ३७ ई० ) कुलाइकुरै ताम्र-लेख दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख ( प्रथम ) गुप्त सम्वत् १२४ ( ४४३ – ४४ ई० ) दामोदरपुर ताम्रपत्र लेख (द्वितीय) – गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७-४८ ई० )

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दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख ( प्रथम ) गुप्त सम्वत् १२४ ( ४४३ – ४४ ई० )

भूमिका दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख १९१५ में तत्कालीन दीनाजपुर जनपद और वर्तमान रंगपुर जनपद से एक सड़क निर्माण के दौरान दीनाजपुर ग्राम से मजदूरों को मिले थे। इनकी संख्या ५ है। इसमें पहला यहाँ प्रस्तुत है। तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट जे० ए० एजकील ने राजशाही के वारेन्द्र रिसर्च सोसाइटी को दे दिया जहाँ वे सुरक्षित हैं। उन्हें सर्वप्रथम राधागोविन्द बसाक ने प्रकाशित किया उन्हीं ताम्रपत्रों में से एक पर यह लेख अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- कुमारगुप्त प्रथम का दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख – १  ( Damodarpur Copper Plate Inscription -1 Of Kumargupta-I ) स्थान :- दामोदरपुर, उत्तरी बाँग्लादेश का रंगपुर जनपद। भाषा :- संस्कृत लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १२४ ( ४४३-४४ ई० ) विषय :- भूमि क्रय करके से सम्बन्धित, विषय की प्रशासनिक जानकारी का स्रोत। मूलपाठ मुख भाग ( पहला पटल ) १. सम्व १००(+)२०(+) ४ फाल्गुण-दि ७ परमदैवत-परमभट्टारक-महाराज[ ]- २. धिराज-श्रीकुमारगुप्ते पृथिवी-पतौ तत्पाद-परिगृहीते पुण्ड्रवर्द्ध[न]- ३. भुक्तादुपरिक-चिरातदतेनानुवानक-कोटिवर्ष-विषये च त- ४. न्नियुक्तक-कुमारामात्य-वैत्रवर्मन्यधिष्ठाणाधिकरणञ्च नगरश्रेष्ठि- ५. धृतिपाल सार्थवाह-बन्धुमित्र प्रथमकुलिक-धृतिमित्र प्रथमका[य]- ६. स्थ-शाम्बपाल पुरोगे संव्यवहरति यतः ब्राह्मण कर्प्पटिकेण ७. विज्ञापित(म्) अर्हथ ममाग्निहोत्रोपयोगाय अप्रदाप्रहतखि- ८. ल-क्षेत्रं त्रदीनारिक्य-कुल्यावापेण शश्वताचन्द्रार्क्कतारक-भोज्ये [त]-   पृष्ठ भाग ( दूसरा पटल ) ९. या नीवी-धर्म्मेण दातुमिति एवं दीयतामित्युत्पन्ने त्रिनी दीना [राण्यु]- १०. पसंगृह्य यतः पुस्तपाल-रिशिदत्त-जयनन्दि-विभुदत्तानामधा- ११. रणया डोङ्गाया उत्तर पञ्चिणद्देशे कुल्पवापमेकम् दत्तम् [॥] १२. स्व-दत्तां परदत्ताम्बा यो हरेत वसुन्धरां भूमि-[दान]-संवद्धाः श्लोका भव[न्ति] [I] १३. स विष्ठायां क्रिमिर्भूत्वा पित्रिभि सह पच्यतेति [॥] [इ]ति [॥] हिन्दी अनुवाद सम्वत् १२४ के फाल्गुन (मास) में ७वें दिन जब परमदैवत परमभट्टारक महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त पृथ्वीपति थे तब उनके अधीन पुण्ड्रवर्धन भुक्ति का उपरिक चिरातदत्त था और उसके अधीन कोटिवर्ष विषय का उसके द्वारा नियुक्त कुमारामात्य वेत्रवर्मा था। अधिष्ठान के अधिकरण नगर श्रेष्ठि धृतपाल, सार्थवाह बन्धुमित्र, प्रथम कुलिक धृतमित्र, प्रथम कायस्थ शाम्बपाल से कर्पटिक नामक ब्राह्मण ने आवेदन किया कि मेरे अग्निहोत्र के उपयोग के लिये तीन दीनार मूल्य का खिल कुल्यवाय क्षेत्र को स्थायी रूप से तथा चन्द्र, सूर्य और ताराओं तक उपभोगार्थ उसको नीवीधर्मानुसार दिया जाय। इस प्रकार देने की स्वीकृति पर तीन दीनार में क्रय करके पुस्तपाल ऋषिदत्त, जयनन्दि, विभुदत्त के नाम की पुष्टि पर डोंगा के उत्तर पश्चिम की ओर एक कुल्यवाय दिया गया। “स्वयं दी गई तथा दूसरे द्वारा प्रदत्त भूमि को जो हरता है। वह विष्ठा की क्रीड़ा होकर पितरों के साथ कष्ट पाता है॥” ऐतिहासिक महत्त्व आधुनिक बाँग्लादेश के रंगपुर जनपद के दामोदारपुर ग्राम से प्राप्त पाँच ताम्रपत्र अभिलेखों में से यह एक है। तिथि तथा अभिलेख में वर्णित शासक के अनुसार यह कुमारगुप्त प्रथम ( पृथ्वीपति ) का है। दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख – १ में तिथि लेखन की जिस पद्धति का प्रयोग किया गया है उसमें सबसे पहले वर्ष, फिर मास और तब दिवस का उल्लेख किया गया है। वर्ष के लिये सम्वत् के बाद पहले सैकड़े का अंक दो शून्यों के साथ (१००), फिर दहाई का अंक एक शून्य के साथ ( २० ) और तब इकाई का अंक दिया गया है। इन तीनों का योग सम्वत् के लिये किया गया है। इसके बाद मास का नाम जैसे फाल्गुन और तब दिवस की संख्या के लिये पहले दि० और तब संख्या लिखी जाती थी। यह अभिलेख १२४ सम्वत् के फाल्गुन मास और ७वें दिवस का है यह ज्ञात नहीं कि १२४ किस गणना क्रम में है गुप्त अभिलेख होने के कारण यह गुप्त संवत् ही होगा तथा इसकी तिथि गुप्त सम्वत् = ४४३-४४ ई० होगी। राजा की उपाधि परमदैवत, परमभट्टारक, महाराजाधिराज अंकित है। ये उपाधियाँ इसके पूर्व और बाद के अभिलेखों से भी ज्ञात होती हैं। यह सम्पूर्ण लेख संस्कृत गद्य में है केवल नीचे की दो पंक्तियाँ पद्य में हैं। इससे ज्ञात होता है कि राज्य प्रान्तों में विभक्त था। प्रान्तों को भुक्ति कहते थे जिसका अधिकारी ऊपरिक ( राज्यपाल ) होता था। प्रान्त में कई जनपद होते थे जिन्हें विषय कहा जाता था। विषय ( जनपद ) का शासक कुमारामात्य था। इसका कार्यालय प्रधान नगर में होता था जिसे ‘अधिष्ठानाधिकरण’ कहते थे। इसकी सहायता के लिये एक प्रतिनिधि समिति थी जिसमें चार सदस्य थे – नगर श्रेष्ठि, सार्थवाह, प्रथम कुलीक तथा प्रथम कायस्थ। यहाँ पुण्ड्रवर्धन भुक्ति के अन्तर्गत कोटिवर्ष विषय का उल्लेख है जिसके कुमारामात्य वेत्रवर्मा थे। इसकी समिति में नगर श्रेष्ठि धृतपाल, सार्थवाह बन्धुमित्र, प्रथम कुलिक धृतिमित्र और प्रथम कायस्थ शाम्बपाल थे। यहाँ पुस्तपाल का भी उल्लेख है। यह सम्भवतः लेखाधिकारी या दस्तावेजों का अधिकारी ( record keeper ) था। इसके पास भूमि-सम्बन्धित ( क्रय-विक्रय, सीमा, भूमि उपजाऊ इत्यादि ) का पूरा विवरण रहता था तथा वह कागज के आधार पर बताता था कि भूमि की प्रकृति किस प्रकार की है? क्या उसे राज्य बेच सकता है? अथवा कर रहित करने में राज्य को कोई विशेष हानि नहीं होगी। दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख – १ में प्रयुक्त शब्दावलियाँ : भुक्ति – गुप्तकालीन प्रशासनिक ईकाई। साम्राज्य को भुक्ति में बाँटा गया था। इसकी तुलना वर्तमान समय के प्रांत या राज्य से की जा सकती है। इस लेख में पुंड्रवर्धन भुक्ति का उल्लेख है। भुक्ति के प्रशासनिक अधिकारी को ‘उपरिक’ कहा गया है। इसमें चिरातदत्त का उपरिक के रूप में विवरण है। विषय – भुक्ति को विषय में बाँटा गया था जिसकी तुलना वर्तमान ‘जनपदों’ से की जा सकती है। इसका प्रशासनिक अधिकारी ‘विषयपति’ होता था। तत्कालीन विषयपति कोटिवर्ष का उल्लेख इसमें किया गया है। यहाँ पर ‘कोटिवर्ष’ विषय का उल्लेख किया गया है। अधिष्ठान का अधिकरण – विषय का शासन सुचारुरूप से चलाने के लिये एक चार सदस्यीय एक समिति थी जो विषयपति को शासन चलाने में सहायता करती थी – नगर श्रेष्ठि – नगर के महाजनों का प्रमुख सार्थवाह – व्यवसायियों का प्रधान प्रथम कुलिक – प्रधान शिल्पी प्रथम कायस्थ – मुख्य लेखक पुस्तपाल – विषयपति का एक कार्यालय होता था जहाँ सभी अभिलेखों को सुरक्षित रखा जाता था जिसका प्रमुख पुस्तपाल होता था। नीवीधर्म – गुप्तकाल से हमें यह प्रक्रिया बढ़ती हुई देखने को मिलती है। अक्षयनीवी का अर्थ है – स्थायी धन या भूमि का दान जिसका की कभी क्षय न हो। इससे जुड़े धर्म को ही नीवीधर्म कहा गया है। दीनार – गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्रा कुल्यवाप – भूमि नापने की इकाई। भूमि की वह इकाई जिसमें एक कुल्य बीज को बोया जा सके। अप्रदा अप्रहत खिल-क्षेत्र : अर्थात् अविक्रीत अक्षत ( परती ) भूमि। अप्रदा – ऐसी भूमि

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कुलाइकुरै ताम्र-लेख

भूमिका कुलाइकुरै ताम्र-लेख ९१/२ इंच लम्बे और ५१/२ इंच चौड़े ताम्रफलक के दोनों ओर अंकित है। इसे नवगाँव निवासी रजनीमोहन सान्याल ने बगुड़ा (बंगलादेश) अन्तर्गत नवगाँव से ८ मील पर स्थित कुलाइकुरै ग्राम के एक निवासी से क्रय किया था। अनुमान किया जाता है कि यह ताम्रपत्र एक अन्य ताम्रपत्र ( बैग्राम ताम्र-पत्र लेख ) के साथ १९३० ई० में एक तालाब की खुदाई करते समय बैग्राम नामक ग्राम में मिला था और उसे खुदाई करनेवाले मजदूर उठा ले गये थे। इसे दिनेशचन्द्र सरकार ने प्रकाशित किया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- कुलाइकुरै ताम्र-लेख स्थान :- कुलाइकुरै ग्राम, बगुड़ा; बंगलादेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १२० ( ४३९ ई० ) विषय :- भूमि क्रय करके दान करने से सम्बन्धित मूलपाठ १. स्वस्ति (॥) शृङ्गवेरवैथेय-पूर्ण[कौ]शिकायाः आयुक्त[काच्युतदासो(ऽ)-धिक]रणञ्च हस्तिशीर्षे [विभोतक्यां-गुल्मगन्धि]- २. [कायां] धान्यपाटलिकायां संगोहालिषु ब्राह्मणादीन्ग्रामकुटुम्बि[नः] [कुश]लमनुवर्ण्य बोधयन्ति (।) विदितम्बा ३. भविष्यति यथा इह-वीथी-कुलिक-भीम-कायस्थ-प्रभुचन्द्र-रुद्रदास-देवदत्त-लक्ष्मण-का[न्ति]देव-शम्भुदत्त-कृष्ण- ४. दास-पुस्तपाल-सिङ्ह(सिंह)नन्दि-यशोदामभिः वीथी-महत्तर कुमारदेव-गण्ड-प्रजापति-उमयशो-रामशर्म-ज्येष्ठ- ५. दाम्-स्वामिचन्द्र-हरिसिङ्ह(सिंह)-कुटुम्बि-यशोविष्णु-कुमारविष्णु-कुमारभव-कुमार-भूति-कुमार-य[शोगु]प्त-वैलिनक- ६. शिवकुण्ड-वसुशिवापरशिव-दामरुद्र-प्रभमित्र-कृष्णमित्र-मघशर्म्मा-ईश्वरचन्द्र-रुद्र-भव-स्वामि[देव]- ७. श्रीनाथ-हरिशशर्म्मं-गुप्तशर्म्म-सुशर्म्म-हरि-अलातस्वामि-ब्रह्मस्वामि-महासेनभट्ट-षष्ठिरा [त]-गु ……… श- ८. र्म्म-उण्टशर्म्म-कृष्णदत्त-नन्ददाम-भवदत्त-अहिशर्म्म-सोमविष्णु-लक्ष्मणशर्म्म-कान्ति-धोव्वोक-क्षेमशर्म्य-शु- ९. क्क्र्शर्म्म-सर्प्पपालित-कङ्कुटि-विश्व-शङ्कर-जयस्वामि-कैवर्त्तशर्म्म-हिमशर्म्म-पुरन्दर-जयविष्णु-उम …… १०. सिङ्हत्त(सिंहदत्त)-बोन्द-नारायनदास-वीरनाग-राज्यनाग-गुह-महि-भवनाथ-गुहविष्णु-शर्व्व-यशोविष्णु-टक्क-कुलदाम …….. व- ११. श्री-गुहविष्णु-रामस्वामि-कामनकुण्ड-रतिभद्र-अच्युतभद्र-लोढक-प्रभकीर्त्ति-जयदत्त-कालुक-अच्युत-नरदेव-भव- १२. भवरक्षित-पिच्चकुण्ड-प्रवरकुण्ड-शर्व्वदास-गोपाल-पुरोगाः वयं च विज्ञापिताः (।) इह-वीथ्यामप्रतिकर-खिलक्षेत्र- १३. स्य शश्वत्कालोपभोगायाक्षयनीव्या द्विदीनारिक्य-खिलक्षेत्र कुल्पवाप-विक्री य-मर्य्यादया इच्छेमहि प्रति १४. प्रति मातापित्रोः पुण्याभिवृद्धये पौण्ड्रवर्द्धनक चातुर्व्विद्य वाजिसनेय चरणाभ्यन्तर- ब्राह्मण-देव- १५. भट्ट-अमरदत्त-महासेनदत्तानां पञ्च-महायज्ञ-प्रवर्त्तनाय नवकुल्यवापान्क्रीत्वा दातुं एभिरेवोप- १६. रि-निर्द्दिष्टक-ग्रामेषु खिल क्षेत्राणि विद्यन्ते (।) तदर्हथास्मत्तः अष्टादश-दीनारान्गृहीत्वा एतान्नव-कुल्यवा[पा]- १७. न्यनु[पा] दयितुं (।) यतः एषां कुलिक-भीमादीनां विज्ञाप्यमुपलभ्य पुस्तपाल-सिङ्ह(सिंह)नन्दि-यशोदा[म्नोश्चा]- १८. वैधारणयावधृतास्त्वयमिह-वीथ्यामप्रतिकर-खिलक्षेत्रस्य शश्वत्कालोपभोगायाश्रय-नीव्या द्वीदीना- १९. रिक्य-कुल्पवाप-विक्क्रो(ऽ) नुवृत्तस्तद्दीयतां नास्ति विरोधः कश्चिदित्यवस्थाप्य कुलिक-भीमादिभ्यो अष्टादश- २०. दीनारानुपसहरितकानायीकृत्यः हस्तिशीर्ष-विभीतक्यां-धान्य-पाटलिका- [गुल्मगान्धिका]-ग्रामेषु ……… – २१. द्यां दक्षिणोद्देशेषु अष्टौ कुल्यवापाः धान्यपाटलिका-ग्रामस्य पश्चिमो-त्तरोद्देशे[आद्यखात]-परिखा-वेष्टित- २२. मुत्तरेण वाटानदी पश्चिमेन गुल्मगन्धिका-ग्राम-सीमानमि(श्चे)ति कुल्यवाप[मे] को गुल्मगन्धिकायां पूर्व्वे- २३. णाद्यपथ: पश्चिमप्रदेशे द्रोणवाप-द्वयं हस्तिशीर्ष-प्रावेश्य-ताप[सपोत्तके] दायितापीत्तके च वि- २४. भीतक-प्रावेश्य-चित्रवातङ्गरे[च] कुल्यवापाः सप्त द्रोणवापाः षट् (।) एषु यथोपरि निर्दिष्टक-ग्राम-प्र- २५. देशेष्येषां कुलिक भीम-कायस्थ-प्रभुचन्द्र-रुद्रदासादीनां मातापित्रोः पुण्याभिवृद्धये ब्राह्मण- २६. देवभट्टस्य कुत्यवापाः पञ्च [कु ५] अमरप्रदस्य कुल्यावाप-द्वयं महासेनदत्तस्य कुल्यवा[प- द्वयं] २७. कु २ (।) एषां त्रयाणां पञ्चमहायज्ञ-प्रवर्त्तनाय नव कुल्यवापानि प्रदत्तानि (॥) तद्युष्माकं ……… [निवेद्य]- २८. ति लिख्यते च (।) समुपस्थित-का[लं] [ये(ऽ)प्यन्ये] विषयपतयः आयुक्तकाः कुटुम्बिनो(ऽ) चिकरणिका वा [सम्व्यव]- २९. हारिणो भविष्यन्ति तैरपि [भूमिदानफल]मवेक्ष्य अक्षय-नीव्यनुपालनीया (॥) उक्तञ्च महाभारते भगव- ३०. ता व्यासेन (।) स्वदत्तां परदत्ताम्वा यो [हरेत] वसुन्धरां। [स] विष्ठायां क्रिमिर्भूत्वा पि[तृभिः सह पच्यते] (॥) [षष्टि वर्ष-सहस्राणि] ३१. स्वर्ग्गे वसति भूमिदः (।) आक्षेप्ता चानुमन्ता [च] तान्येव नरके वसेत् (॥) कृशाय कृश[वृत्ताय] वृत्ति-क्षीणाय सीदते ३२. [भूर्मि] वृत्तिकरीन्दत्वा [सुखी] भवति कामदः (॥) [बहुभिर्व्वसुधा] भुक्ता भुज्यते च पुनः पुनः (।) यस्य [यस्य यदा भूमिस्तस्य] तस्य ३३. तदा फलं (॥) पूर्व्व-दत्तां द्विजातिभ्यो यत्नाद्रक्ष्य युधिष्ठिर (।) महीम्महिमतां श्रेष्ठ दानाच्छ्रेयो(ऽ)नु[पालनं] (॥) ३४. संवत् १००(+)२० वैशाख-दि १ (॥) हिन्दी अनुवाद स्वस्ति। शृङ्गवेर वीथि-अन्तर्गत पूर्णकौशिक के आयुक्त अच्युतदास एवं [उनका] अधिकरण हस्तिशीर्ष, विभीतकी, गुल्मगन्धिक, धान्यपटलिक, संगोहालि के ब्राह्मण आदि ग्राम के कुटुम्बियों को, उनकी कुशल कामना करते हुए सूचित करते हैं — ज्ञात हो कि इस वीथी के कुलिक भीम, कायस्थ प्रभुचन्द्र, रुद्रदास, देवदत्त, लक्ष्मण, कान्तिदेव, शम्भुदत्त, कृष्णदास, पुस्तपाल सिंहनन्दि, यशोदाम, वीथीमहत्तर कुमारदेव, गण्ड, प्रजापति, उमयशो, रामशर्म, ज्येष्ठदाम, स्वामिचन्द्र, हरिसिंह, कुटुम्बी यशोविष्णु, कुमारविष्णु, कुमारभव, कुमारभूति, कुमार, यशोगुप्त, वैलिनक, शिवकुण्ड, वसुशिव, शिव (द्वितीय), दामरुद्र, प्रभमित्र, कृष्णमित्र, मघशर्मा, ईश्वरचन्द्र, रुद्र, भव, स्वामिदेव, श्रीनाथ, हरिशर्मा, सुशर्मा, हरि, अलातस्वामी, ब्रह्मस्वामी, महासेनभट्ट, षष्टिरात, गु ……. शर्मा, उण्टशर्मा, कृष्णदत्त, नन्ददाम, भवदत्त, अहिंशर्मा, सोमविष्णु, लक्ष्मणशर्मा, कान्ति धोव्वोक, क्षेमशर्मा, शुक्रशर्मा, सर्पपालित, कंकुटि, विश्व, शंकर, जयस्वामी, कैवर्त्तशर्मा, हिमशर्मा, पुरन्दर, जयविष्णु, उम ………., सिंहदत्त, बोन्द, नारायनदास, वीरनाग, राज्यनाग, गुह, महि, भवनाथ, गुहविष्णु, शर्व्व, यशोविष्णु, टक्क, कुलदाम, ……… वश्री, गुहविष्णु, रामस्वामी, कामनकुंड, रतिभद्र, अच्युतभद्र, लोढ़क, प्रभकीर्ति, जयदत्त, कालुक, अच्युत, नरदेव, भव, भवरक्षित, पिच्चकुण्ड, प्रवरकुण्ड, शर्व्वदास, गोपाल, पुरोगों ने हमें सूचित किया है— इस वीथी में शाश्वत उपभोग के निमित्त अक्षय-नीवि-धर्म के अनुसार दो दीनार प्रति कुल्यवाप की दर से अप्रतिकर खिल-क्षेत्र के विक्रय की जो मर्यादा है, उसके अनुसार हम नव (९) कुल्यवाप भूमि क्रय करके अपने-अपने माता-पिता की पुण्य वृद्धि के निमित्त पुण्ड्रवर्धन-निवासी वाजसनेय चरण के ब्राह्मण देवभट्ट, अमरदत्त और महासेन को पंचमहायज्ञ के प्रवर्तन के लिये दान करना चाहते हैं। अतः इसके निमित्त हमसे अठारह दीनार लेकर उक्त ग्राम में जो खिल-क्षेत्र हैं हमें दी जाय। कुलिक भीम आदि की इस प्रार्थना पर पुस्तपाल सिंहनन्दि तथा यशोदाम से पूछा गया। उन्होंने बताया कि इस वीथी में अप्रतिकर खिलक्षेत्र शाश्वत उपयोग के निमित्त अक्षय-नीवि-धर्म के अन्तर्गत दो दीनार प्रति कुल्यवाप के भाव से बिक्री की जाती है। इस बात में राज्य की ओर से कोई विरोध नहीं है। यह जानकर भीमादिकुलिक से अठारह दीनार लेकर उन्हें दान के निमित्त ९ कुल्यवाप भूमि दी जाती है। जिसका विवरण इस प्रकार है— हस्तिशीर्ष विभितकी के अन्तर्गत, धान्यपाटलिका तथा गुलमगन्धिका ग्रामों की दक्षिण दिशा में आठ कुल्यवाप भूमि है वह तथा धान्यपाटलिका ग्राम; पश्चिम उत्तर परिखा (खाईं) से घिरी जो एक कुल्यवाप भूमि है वह दी जाती है; उत्तर में वाटा नदी और पश्चिम में गुलमगन्धिका ग्राम उनकी सीमा है। आठ कुल्यवाप भूमि में से दो द्रोणवाप (१/४ कुल्यवाप) गुलमगन्धिका के पश्चिम और पूर्व में आद्यपथ के समीप है। शेष ७ कुल्यवाप तथा ६ द्रोणवाप भूमि हस्तिशीर्ष के अन्तर्गत तापसपोत्तक और दायितपोत्तक में और विभितकी के अन्तर्गत चित्रवातंगर में है। उक्त निर्दिष्ट ग्राम-प्रदेश में से कुलिक भीम, कायस्थ प्रभुचन्द्र, रुद्रदास आदि के माता-पिता की पुण्य की वृद्धि के निमित्त पाँच कुल्यवाप भूमि ब्राह्मण देवदत्त को, दो कुल्यवाप भूमि अमरदत्त को और दो कुल्यवाप भूमि महासेनदत्त को दी जाती है। इस प्रकार हम निवेदन करते और लिखते हैं कि जो कोई वर्तमान काल में विषयपति, आयुक्तक, कुटुम्बिक, अधिकरणिक और संव्यवहारिन हैं और जो भविष्य में कभी भी हों वे सभी भूमि के दान-फल के निमित्त इस अक्षयनीवि का अनुपालन करें। महाभारत में भगवान् व्यास ने कहा है — स्वयं दी हुई अथवा दूसरे द्वारा दान में दी गयी भूमि का अपहरण करेगा, वह पितरों सहित विष्ठा का कीड़ा होगा। भूमि का दान करनेवाला छः हजार वर्ष तक स्वर्ग में वास करता है और उसका अपहरण करनेवाला उतने ही काल तक नरकगामी होता है। भूमि-दान करनेवाला सदा सुखी होता है और वह वसुधा का भोग बार-बार करता है। जो जितना ही भूमि-दान में देगा उसे उतना ही फल मिलेगा। पूर्व काल में ब्राह्मणों को दान दी गयी भूमि की युधिष्ठिर ने भी रक्षा की थी। संसार में भू-दान श्रेष्ठ है, उससे भी श्रेष्ठ उस दान का परिपालन है। सम्वत् १२० वैशाख दिन १। महत्त्व कुलाइकुरै ताम्र-लेख में न तो शासक के नाम का उल्लेख है और न ही इस बात का संकेत है कि यह किस

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करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख – गुप्त सम्वत् ११७ ( ४३६ – ३७ ई० )

परिचय अयोध्या से लगभग २५ किलोमीटर और फैजाबाद से लगभग १७ किलोमीटर करमदण्डा नामक स्थान पर कुमारगुप्त प्रथम का करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख मिला है। उसके निकट स्थित भराहीडीह नामक एक टीले से फैजाबाद के तत्कालीन डिप्टीकलेक्टर कुँवर कामताप्रसाद को एक शिवलिंग मिला था जो अब लखनऊ संग्रहालय में है। इसी शिवलिंग पर यह लेख अंकित है इसका अधोभाग खण्डित अथवा अनुपलब्ध है। पहले फोगल ने इसका संक्षिप्त विवरण प्रकाशित किया। तत्पश्चात् राखालदास बनर्जी ने सम्पादित कर प्रकाशित किया, तदनन्तर स्टेन कोनों ने दुबारा प्रकाशित किया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- कुमारगुप्त प्रथम का करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख ( Karamadanda Shivling Inscription of Kumargupta – I )। स्थान :- भराठीडीह टीला, करमदण्डा ग्राम, अयोध्या जनपद। भाषा :- संस्कृत लिपि :- उत्तरवर्ती उत्तरी ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् ११७ ( ४३६ ई० ) विषय :- शिवलिंग की स्थापना का विवरण मूलपाठ १. नमो महादेवाय। महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त-पादा]- २. नुध्यातस्य चतुरुदयि सलिलास्वादित य[शसो] [महाराजा]- ३. धिराज श्रीकुमारगुप्तस्य विजयराज्य-संवत्सर-शतेसप्तदशो[त्तरे] ४. कार्तिक मास दशम दिवसे(ऽ) स्थान्दिवस-पूर्व्वायां [च्छान्दोग्याच[आय्यश्व]-वाजि- ५. सगोत्रकुरमरण्य भट्टस्य पुत्रो विष्णुपालितभट्टस्तस्य पुत्रो महारा- ६. जाधिराज श्रीचन्द्रगुप्तस्य मन्त्रि कुमारामात्यश्शिखरस्वाम्यभूत्तस्य पुत्रः ७. पृथिवीषेणो महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तस्य मन्त्रि कुमारामात्यो(ऽ)न- ८. न्तरं च महाबलाधिकृतः भगवतो महादेवस्य पृथिवीश्वर इत्येवं समाख्यातस्य ९. स्यैव भगवतो यथाकर्त्त्वय-धार्मिक कर्म्मणा पाद-शुश्रूषणाय भगवच्छै- १०. लेश्वरस्यामि-महादेव-पादमूले आयोध्यक नानागोनूचरण तपः – ११. स्वाध्याय-मन्त्र-सूत्र-भाष्य-प्रवचन-पारग [।] भारडिसमद देवद्रोण्यां १२.  …………………………………………………………………………………………………………. हिन्दी अनुवाद महादेव को नमस्कार ! महाराज श्रीचन्द्रगुप्त के चरण का चिन्तन करनेवाले, चार समुद्रों के जल का आस्वादन करनेवाले [यश] वाले महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्त के विजय राज्य के ११७वें वर्ष में कार्तिक मास का १०वाँ दिन। इस पूर्व [कथित] तिथि को [छान्दोग्याचार्य अश्ववाजि] के सगोत्रीय कुरमरव्य-भट्ट के पुत्र विणुपालित; उनके पुत्र महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्त के मन्त्री कुमारामात्य शिखरस्वामी; उनके पुत्र महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्त के मंत्री कुमारामात्य और बलाधिकृत पृथिवीशेण हुए। [उन्होंने] पृथ्वीश्वर नाम से विख्यात भगवान शिव [का यह लिंग स्थापित किया] इस भगवान् [लिंग] की यथाशक्य धर्म-कार्य द्वारा चरण सेवा के निमित्त भगवान शैलेश्वरस्वामी के पादमूल [के निवासी] अयोध्या-वासी विभिन्न गोत्र एवं चरण वाले स्वाध्याय मंत्र, सूक्त एवं भाष्य के निरूपण में पारंगत, भारडिसमद देवद्रोणी ………. । ऐतिहासिक महत्त्व उत्तर प्रदेश के अयोध्या जनपद से शाहगंज फैजाबाद वाली सड़क पर फैजाबाद से लगभग १२ मील दूर स्थित कर्मदण्डा गाँव के समीप भराठीडीह टीले से प्राप्त एक शिवलिंग के अठपहले आधार पर करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख अंकित है। इस पर गुप्त सम्वत् ११७ (४३६-३७ ई०) का उल्लेख है। यह कुमारगुप्त ( प्रथम ) के शासनकाल का है जिसे चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के मन्त्री शिखरस्वामी का पुत्र, कुमारगुप्त ( प्रथम ) के कुमारामात्य पृथ्वीषेण ने उत्कीर्ण कराया है। करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख महादेव जी के नमस्कार से प्रारम्भ होता है। यहाँ वर्णित है कि चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के उत्तराधिकारी के यश ने चारों समुद्रों का आस्वादन किया है। इसके पुत्र कुमारगुप्त ( प्रथम ) के मन्त्री कुमारामात्य एवं महाबलाधिकृत पृथ्वीषेण का उल्लेख है जो छान्दोग्य शाखा के वाजिगोत्रिय कुमारभट्ट के पुत्र विष्णुपालित भट्ट के पुत्र शिखरस्वामी का पुत्र था और चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का कुमारामात्य था। शैलेश्वर स्वामी महादेव, जिनको पृथ्वीश्वर भी कहते हैं, के समीप जो विभिन्न विद्याओं में निष्णात अयोध्या के पण्डितों के लिये यह ग्राम दान दिया गया था। यह लेख धार्मिक, राजनीतिक तथा प्रशासकीय दृष्टि से विशेष महत्त्व का है। गुप्त अभिलेख प्रायः सिद्धम्! से प्रारम्भ होते हैं। पर यह ‘नमो महादेवाय’ से प्रारम्भ होता है। इससे शैव धर्म का ज्ञान प्राप्त होता है। कुमारगुप्त के शैव मन्त्री पृथ्वीषेण ने भी शैव मन्दिर के समीप दान दिया था। तभी शैलेश्वर महादेव को स्वामी शब्द से सम्बोधित किया है। कुमारगुप्त ( प्रथम ) की उपाधि अभिलेखों में ‘परमभागवत’ है। उसने अश्वमेघ यज्ञ करके अश्वमेघ प्रकार का सिक्का ढलवाया था। गंगाधर लेख में विष्णु मन्दिर की स्थापना, वैग्राम ताम्रलेख में विष्णु मन्दिर को दान आदि इसके वैष्णवानुयायी होने को पुष्ट करते हैं। परन्तु शैव मन्त्री की नियुक्ति और शिव मन्दिर का दान इसकी धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है। अन्य स्रोतों से ज्ञात है कि इसके काल में शक्ति, कार्तिकेय, बुद्ध तथा जिन की उपासना होती थी। ‘चतुरुदधि सलिलास्वादित यशसो’ का उल्लेख कुमारगुप्त की विशेषता के लिये यहाँ किया गया है। उसका यश चारों समुद्रों तक फैला था यह उसके साम्राज्य सीमा का भी संकेत करता है। सम्भव है यह कथन अतिरंजनापूर्ण हो। उसी प्रकार मन्दसौर प्रशस्ति में भी कुमारगुप्त के साम्राज्य के विषय में कहा गया है — चतुस्समुद्रात्तविलोलमेखला सुमेरु-कैलास- वृहत्पयोधराम्। वनान्तवान्तस्फुट पुष्पहासिनीं कुमारगुप्ते पृथिवीं प्रशासति। उसके राज्य के चतुर्दिक समुद्र का कमरबन्ध हैं तथा कैलाश और सुमेरु पर्वत उसके ऊँचे स्तन हैं।’   ऐसा दूसरे गुप्त शासक समुद्रगुप्त के लिये भी प्रयागप्रशस्ति में कहा गया है- प्रदान-भुजविक्रम-प्रशम-शास्त्रवाक्योदयै- रूपर्युपरि-सञ्चयोच्छ्रितमनेकभार्ग यशः। पुनाति भुवनत्रयं पशुपतेर्जटान्तर्गुहा- निरोध- परिमोक्ष-शीघ्रमिव पाण्डुगाङ्गपयः॥ करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख में गुप्त सं० ११७ = ४३६ – ३७ ई० को कुमारगुप्त का विजयसंवत्सर कहा गया है। वह ४३६ ई० में शासन करता था। इस समय अधिकारियों का पद वंशानुगत था। तभी चन्द्रगुप्त द्वितीय के मन्त्री कुमारामात्य शिखरस्वामी के पुत्र पृथ्वीषेण महाराजा कुमारगुप्त के मन्त्री और बलाधिकृत नियुक्त किया गया था। सम्भवतः तब एक मन्त्री को योग्यता के अनुसार कई पद दिये जाते थे, तभी पृथ्वीषेण को कुमारामात्य और महाबलाधिकृत दोनों ही पद प्रदत्त थे। ‘कुमारामात्य’ एक प्रशासनिक अधिकारी था जबकि महाबलाधिकृत गुप्त काल का प्रधान सेनापति था। इसके अधीन अनेक महासेनापति थे। कुछ लोगों के अनुसार कुमारामात्य युवराज होता था। परन्तु डा० बनर्जी के अनुसार इसका अभिप्राय है राजकुमार का मन्त्री। डा० अल्टेकर ने इन्हें उच्च प्रशासनिक कर्मचारी माना है जो महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त होते थे। इसमें अयोध्या नगर की चर्चा विद्याव्यसनी नगर के नाम से हुई है। विद्याव्यसनी तथा अनेक शास्त्रों के पारंगत विद्वान यहाँ रहते थे, ( नानागोत्र चरण-तपः-स्वाध्याय मंत्र-सूत्र-भाष्य-प्रवचन-पारग)। इसमें वर्णित ‘छान्दोग्याचार्य’ से स्पष्ट है कि छान्दोग्य उपनिषद की महत्ता विशेष थी। इसी प्रकार अलग-अलग उपनिषदों पर अलग-अलग लोग अपना विशेष अध्ययन सीमित करते होंगे। जिस लिंग पर यह लेख अंकित है, उसकी स्थापना का यह घोषणा-पत्र है इस घोषणा में लिंग के स्थापक पृथ्वीषेण ने अपने नाम पर लिंग को पृथ्वीश्वर नाम दिया है। लिंग की स्थापना कर उसे व्यक्तियों के नाम पर नामकरण करने की प्रथा गुप्तकाल में प्रायः देखने में आती है। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में मथुरा में लकुलीश सम्प्रदाय के एक व्यक्ति ने अपने गुरु और उनके गुरु के नाम पर कपिलेश्वर और उपमितेश्वर नाम से दो लिंग स्थापित किये थे। इसी प्रकार निर्मण्ड ताम्रलेख में मिहिरलक्ष्मी नाम्नी राजमहिषी

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मन्दसौर अभिलेख; मालव सम्वत् ४९३ व ५२९

भूमिका मन्दसौर अभिलेख, मन्दसौर (मध्य प्रदेश) नगर में शिवाना नदी के तट पर स्थित भगवान शिव को समर्पित एक मंदिर महादेव घाट की सीढ़ियों पर लगे एक शिला फलक पर अंकित मिला था। इसे १८८५ में पीटर पेटर्सन ने प्रकाशित किया था। किन्तु इसे ढूँढ निकालने का श्रेय फ्लीट के एक लिपिक को दिया जाता है जिसे उन्होंने वहाँ यशोधर्मन के अभिलेख की प्रतिलिपि करने के लिये भेंजा गया था। तब फ्लीट ने इसे सम्पादन कर प्रकाशित किया है। तदन्तर उनके पाठ, अनुवाद एवं व्याख्या सम्बन्धी भूलों को लेकर अनेक लेख प्रकाशित हो चुके हैं। संक्षिप्त परिचय नाम :- मन्दसौर अभिलेख स्थान :- मन्दसौर, शिवाना नदी के तट पर महादेव घाट की सीढ़ी, मध्य प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्तकाल, मालव सम्वत् ४९३ ( ४३६ ई० ) और ५२९ ( ४७२ ई० ) विषय :- सूर्य मंदिर का निर्माण और पुनर्निर्माण का विवरण रचयिता :- वत्सभट्टि मूलपाठ १. [ सिद्धम्॥ ] [ यो ] [ धृत्य ] मुपास्यते सुर-गणैस्सिद्दैश् [ च ] सिद्ध्यर्त्विभि- दर्ध्यनैकाग्र-परैर्व्विधेय-विषयैर्म्मोक्षार्त्थिभिर्य्योगिभिः। भक्त्या तीव्र-तपोधनैश्च मुनिभिश्शाप-प्रसाद-क्षमै- र्हेतुर्य्या जगत क्षयाभ्युदययोः पायात्स वो भास्करः [ । १ ] तत्व-ज्ञान-विदो(ऽ)पि यस्य न विदुर्ष २.                                   यो(ऽ)भ्युद्यतः – कृत्स्नं यश्च गभस्तिभिः प्रवृसृतैः पु [ ष्ण ] आति लोक त्रयम् [ । ] गन्धर्व्वामर-सिद्ध-किन्नर-नरैस्संस्तूयते(ऽ) भ्युत्थितो भक्तेभ्यश्च ददाति यो(ऽ) भिलषितं तस्मै सवित्रे नमः। [ । २ ] य प्रत्यहं प्रतिविभात्पुदयाचलेन्द्र- विस्तीर्ण्ण-तुङ्ग-शिखर-स्खलितांशुजालः [ । ] क्षीबाङ्गना- ३.                   जन-कपोल-तलाभिताम्र- पायात्स वस्सु [ किं ] रणाभरणोविवस्वान् [ ॥ ३ ] कुसुमभरानततरुवर-देवकुल-सभा-विहार-रमणियात्। लाट विषयान्नगावृत-शैलाज्जगति प्रथित शिल्पाः [ । ४ ] ते देश-विगुणापहृताः प्रकाश- मद्ध्वादिजान्यविरलान्यासुखा- ४.                          न्यपास्य। जातादरा दशपुरं प्रथमं मनोभि- रन्थागतासस्ससुत-बन्धु-जनास्समेत्य [ ॥ ५ ] मत्तेभ-गण्ड तट-विच्युत-दान-बिन्दु- सिक्तोपलाचल-सहस्र-विभूषाणायाः [ I ] पुष्पावनम्र-तरु-षण्ड-वतंसकाया भूमे पुरन्तिलक-भूतमिदं क्रमेण [ ॥ ६ ] तटोत्थ-वृक्ष-च्युत- ५.                           नैक-पुष्प- विचित्र-तीरान्त-जलानि भान्ति। प्रफुल्ल-पद्मभरणानि यत्र सरांसि कारण्डव-संकुलानि [ ॥ ७ ] विलोल-वीची-चलितारविन्द-पतद्रजः-पिञ्जरितैश्च हंसैः। स्व-केसरोदार-भरावभुग्नैः क्वचित्सरांस्यम्बुरुहैश्च भान्ति। [ । ८ ] स्व-पुष्प-भारावनतैर्न्नगेन्द्रै-र्मद-। ६.                 प्रगल्भालि-कुल-स्वनैश्च। अजस्रगाभिश्च पुराङ्गनाभि-र्व्वनानि यस्मिन्समलंकृतानि [ ॥ ९ ] चलत्पताकान्यबला-सनाथा-न्यत्यर्त्थ-शुक्लान्यधिकोन्नतानि। तडिल्लता-चित्र-सिताब्भ्र-कूट-तुल्योपमानानि गृहाणि यत्र [ ॥ १० ] कैलास-तुङ्ग-शिखर-प्रतिमानि चान्या- न्याभान्ति दीर्घ-बलभी- ७.                  नि सवेदिकानि। गान्धर्व्व-शब्द-मुखरानि निविष्ट-चित्र- कर्म्माणि लोल-कदली-वन-शोभितानि [ ॥ ११ ] प्रासाद मालाभिरलंकृतानि धरां विदार्य्यैव समुत्थितानि। विमान-माला-सदृशानि यत्र गृहाणि पूर्णेन्दु-करामलानि [ ॥ १२ ] यद्भात्यभिरम्य-सरिद्वयेन चपलोर्म्मिणा समुपगूढं [ । ] ८. रहसि कुच-शालिनीभ्यां प्रीति-रतिभ्यां स्मराङ्गमिव [ ॥ १३ ] सत्य-क्षमा-दग-शम-व्रत-शौच-धैर्य्य- [ स्वाद्ध्या ] य-वृत-विनय-स्थिति-बुद्ध्युपेतैः। विद्या-तपो-निधिभिरस्मयितैश्च विप्रै- र्य्यभ्राजते ग्रह-गणै खमिव प्रदीप्तैः [ ॥ १४ ] अथ समेत्य निरन्तर-सङ्गतै-रहरहः प्रविजृम्भित- ९.                        सौहृदाः [ । ] नृपतिभिस्सुतवत्प्रतिमा] निताः प्रमुदिता न्यवसन्त सुखं पुरे [ ॥ १५ ] श्रवण- [ सु ] भग गान्धर्व्वे दृढं परिनिष्ठिताः सुचरित-शतासङ्गा केचिद्विचित्र-कथाविदः [ । ] विनय-निभृतास्सम्यग्धर्म-प्रसङ्ग-परायाणा- प्रियमपरुषं पत्थ्यं चान्ये क्षमा बहु भाषितुं [ ॥ १६ ] १०. केचित्स्व-कर्म्मण्यधिकास्तथान्यै विज्ञायते ज्योतिममात्मवद्भिः [ । ] अद्यापि चान्ये समर-प्रगल्भ-कुर्व्वन्त्यरीणामहितं प्रसह्य॥ [ १७ ] प्राज्ञा मनोज्ञ-वधवः प्रथितोरुवंशा वंशानुरूप-चरिताभरणास्तथान्ये। सत्यव्रताः प्रणयिनामुपकार-दक्षा विस्रम्भ- ११.        [ पूर्व्व ] मपरे दृढ़-सौहृदाश्च [ ॥ १८ ] विजित-विषय-सङ्गैर्द्धर्म-शीलैस्तथान्यै- [ र्मृ ] दुभिरधिक-सत्वैर्ल्लोकयात्रामरैश्च [ । ] स्व-कुल-तिलक भूतैर्मुक्तरागैरुदारै- रधिकमभिविभाति श्रेणिरेवं प्रकारैः [ ॥ १९ ] तारुण्य-कान्त्युपचितो(ऽ) पि सुवर्ण्ण-हार- तांबूल-पुरुष-विधिना सम- १२.                  [ लंकृ ] तो (ऽ) पि। नारी-जनः श्रियमुपैति न तावदग्ग्रयां यावन्न पट्टमय-वस्त्र- [ यु ] गानि धत्ते [ ॥ २० ] स्पर्श [ व ] ता [ व्वर्णा ] न्तर-विभाग-चित्रेण नेत्र-सु [ भ ] गेन [ । ] यैस्सकलमिदं क्षितितलमलंकृतं पट्टवस्त्रेण [ ॥ २१ ] विद्याधरी-रूचिर-पल्लव-कर्ण्णपूर- वातेरितास्थिरतरं प्रविचिन्त्य १३.               [ लो ] कं [ । ] मानुष्यमर्त्य-निचयांश्च तथा विशालां [ स्ते ] षां शुभेमतिरभूदचला ततस्तैः [ ॥ २२ ] चतुस्समुद्राम्बु-विलोल-मे [ खलां ] सुमेरु-कैलास-बृहत्पयोधराम् [ । ] वनान्त-वान्त-स्फुट-पुष्प-हासिनीं कुमारगुप्ते प्रिथिवीं-प्रशासति [ ॥ २३ ] समान-धीश्शुक्र-वृहस्पतिभ्यां ललामभूतो भुवि १४.                पार्त्थिवानां [ । ] रणेषु यः पार्थ-समानकर्म्मा वभूव गोप्ता नृप-विश्ववर्म्मा [ ॥ २४ ] दीनानुकंपन-परः कृपणार्त्त-वर्ग्ग- सान्त्व प्रदो (ऽ) धिकदयालुरनाथ-नाथः [ । ] कल्पद्रुमः प्रणयिनामभयं प्रदश्च भीतस्य यो जनपदस्य च बन्धुरासीत् [ ॥ २५ ] तस्यात्मजः स्थैर्य्य-नयोपपन्नो बन्धुप्रियो १५.                 बन्धुरिव प्रजानां [ ॥ ] बंध्वर्ति-हर्ता नृप-बन्धुवर्म्मा द्विइद्दप्त पक्ष-क्षपणैकदक्षः [ ॥ २६ ] कान्तो युवा रण पटुर्व्विनयान्वितश्च राजापि सन्नुपसृतो न मदैः स्मयाद्यैः [ । ] शृङ्गार मर्त्तिरभिभात्यनलंकृतोऽपि रूपेण य कुसुम-चाप इव द्वितीयः [ ॥ २७ ] वैधव्य-तीव्र व्यसन-क्षतानां १६.         स्मृत्वा यमद्याप्यरि-सुन्दरीणां। भयाद्भवत्यायत लोचनानां घन-स्तनायास-करः प्रकम्पः [ ॥ २८ ] तस्मिन्नेव क्षितिपति-वृषे बंधुवर्म्मण्युदारे सम्यक्स्फीतं दशपुरमिदं पालयत्युन्नतांसे। शिल्पावाप्तैर्द्धन-समुदयैः पट्टवायैरुदारं श्रेणीभूतैर्ब्भवनमतुलं कारितं १७.         दीप्तरश्मेः [ ॥ २९ ] विस्तीर्ण्ण-तुङ्ग-शिखरं शिखरि-प्रकाश- मभ्युद्गतेन्द्वमल-रश्मि-कलाप-गौरं [ । ] यद्भाति पश्चिम-पुरस्य निविष्ट-कान्त- चूड़ामणि-प्रतिसमन्नयनाभिरामं [ ॥ ३० ] रामा सनाथ-भवनोदर-१ भास्करांशु- वह्नि-प्रतापं-सुभगे जल-लीन-मीने [ । ] चन्द्रांशु-हर्म्यतल- १८.               चन्दन – तालवृन्त हारोपभोग-रहिते हिम-दग्ध-पद्ये [ ॥ ३१ ] रोद्ध्र प्रियंगुतरु-कुन्दलता-विकोश- पुष्पासव-प्रमुदितालि-कलाभिरामे [ । ] काले तुषार-कण-कर्क्कश-शीत वात वेग-प्रनृत्त-लवली-नगणैकशाखे [ ॥ ३२ ] स्मर-वशग-तरुणजन-वल्लभाङ्गना-विपुल-कान्त-पीनोरु- [ । ] १९. स्तन-जघन-घनालिङ्गन-निर्भर्त्सित तुहिन-हिम-पाते [ ॥ ३३ ] मालवानां गण-स्थित्या२ या [ ते ] शत-चतुष्टये। त्रिनवत्यधिके(ऽ)ब्दानामृतौ सेव्य-धनस्तनै [ ॥ ३४ ] सहस्यमास शुक्लस्य प्रशस्ते(ऽ)ह्नि त्रयोदशे [ । ] मङ्गलाचार-विधिना प्रासादो(ऽ) यं निवेशितः [ ॥ ३५ ] बहुना समतीतेन २०.           कालेनान्यैश्च पार्थिवैः [ । ] व्यशीर्य्यतैकदैशो(ऽ)स्य भवनस्य ततो(ऽ) धुना [ ॥ ३६ ] स्वयशो-वृद्धये सर्व्वमत्युंदारमुदारया। संस्कारितमिदं भूयः श्रेण्या भानुमतो गृहं [ ॥ ३७ ] अत्युन्नतमवदातं नभः स्पृशन्निव मनोहरैश्शिखरैः [ । ] शशि-भान्वोरभ्युदयेष्वमल-मयूखायतन- २१.                     भूतं [ ॥ ३८ ] वत्सर-शतेषु पंचमु विशंत्यधिकेषु नवसु धाब्देषु। यातेष्वभिरम्य-तपस्यमास-शुक्ल द्वितीयायां [ ॥ ३६ ] स्पष्टैरशोकतरु-केतक-सिंदुवार- लोलातिमुक्तकलता-मदयतिकानां। पुष्पोद्गमैरभिनवैरधिगम्य नून- मैक्यं विजृंभित-शरे हर-पूत-देहे [ ॥ ४० ] २२. मधुपान-मुदित-मधुकर-कुलोपगीत-नगणैक-पृथु-शाखे [ । ] काले नव-कुसुमोद्गम-दंतुर-कांत-प्रचुर-रोद्धे [ ॥ ४१ ] शशिनेव नभो विमलं कौ [ स्तु ] भ मणिनेव शार्ङ्गिणो वक्षः [ । ] भवन-वरेण तथेदं पुरमखिलमलंकृतमुदारं [ ॥ ४२ ] अमलिन-शशि- २३.                 लेखा-दंतुरं पिङ्गलानां परिवहति समूहं यावदीशो जटानां। वि [ कच ]३– कमल-मालामंस-सक्तां च शार्ङ्गी भवनमिदमुदारं शाश्वतन्तावदस्तु [ ॥ ४३ ] श्रेण्यादेशेन भक्त्या च कारितं भवनं रवेः [ । ] पूर्व्वा चेयं प्रयत्नेन रचिता वत्सभट्टिना [ ॥ ४४ ] २४. स्वस्ति कर्तृ-लेखक-वाचक-श्रोतृभ्यः॥ सिद्धिरस्तु॥ फ्लीट ने इसको ― ‘रचने दर’ —पाठ प्रस्तुत किया था। आर० जी० भण्डारकर ने उसे ‘भवने दर’ पाठ प्रस्तुत किया है। कीलहार्न और ब्यूह्लर ने ‘भवनोदर’ पाठ माना है। कुछ विद्वानों ने ‘गमना दर’ पाठ की सम्भावना भी प्रस्तुत किया है।१ भण्डारकर ने इसकाका पाठ ‘षित्या’ प्रस्तुत किया है।२ भण्डारकर महोदय का पाठ ‘विकट’ है। हिन्दी अनुवाद सिद्धि हो! अस्तित्व के अभिलाषी देव-समूह, यौगिक सिद्धि के अभिलाषी सिद्ध-गण, निरन्तर ध्यानमग्न संयमी और मोक्षार्थी भोगि-गण, वरदान और शाप देने में समर्थ कठोर तपस्या करनेवाले मुनि-गण द्वारा जो भक्तिपूर्वक पूजित है, वे — संसार के क्षय और निर्माण के कारण सूर्य [ भगवान् ] आप सबकी रक्षा करें। १ जिसके वास्तविक स्वरूप को, तत्वज्ञान को जाननेवाले और

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तुमैन अभिलेख ( गुप्त सम्वत् ११६ )

भूमिका १९१९ ई० में म० ब० गर्दे को अशोकनगर (मध्यप्रदेश) जनपद के अन्तर्गत तुमैन नामक ग्राम की एक मस्जिद में लगे एक शिलाफलक पर यह लेख अंकित मिला था। तुमैन अभिलेख खण्डित अवस्था में है। इसके बायीं ओर का आधे से अधिक अंश अनुपलब्ध है इसे गर्दे महोदय ने ही प्रकाशित किया है। उनके पाठ के कुछ दोषों की ओर बहादुर चन्द छाबड़ा ने एक लेख में निर्देश किया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- तुमैन अभिलेख या तुमेन अभिलेख [ Tumen Inscription ] स्थान :- तुमैन ( तुमेन ) ग्राम, अशोकनगर जनपद, मध्य प्रदेश भाषा :- संस्कृत। लिपि :- ब्राह्मी ( दक्षिणी रूप )। समय :- गुप्त सम्वत् – ११६ या ४३५ ई० ( ११६ + ३१९ ), कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल। विषय :- गुप्त राजवंश की वंशावली। [भगवान विष्णु के] मंदिर के निर्माण की विज्ञप्ति। मूलपाठ १. — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. —   — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — [रा]रिर्य्यस्य लोकत्रयान्ते [।] चरणकमलंमत्यं वन्द्येते सिद्धसङ्हैः [॥] राजा श्रीचन्द्रगुप्तस्तदनु जयति यो मेदिनीं सागरान्ताम् २. — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ………. ……….(।) ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ………. ………. ……… ……… — [।] श्रीचन्द्रगुप्तस्य महेन्द्र-कल्पः कुमारगुप्तस्तनयस्सम[ग्राम्] [।] ररक्ष साध्वीमिव धर्म्मपत्नीम् वीर्य्याग्रहस्तैरुपगुह्य भूमिम् [॥] ३. — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……… ………. [गा]ग्ग-गौरः [।]क्षित्यम्बरे गुणसमूह-[यूमपूखजालो नाम्नोदितस्स तु घटोत्कचगुप्तचन्द्रः [॥] स पूर्व्वजानां स्थिरसत्व कीर्त्तिभुजार्ज्जितां कीर्त्तिमभिपपद्य॥ ४. ……… — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ……… ……… — — [॥] [गुप्तान्वया]नां वसुधेश्वराणां समा-शतक षोडश-वर्षयुक्ते। कुमारगुप्ते नृततौ प्रिथिव्याम् विराजमान शरदीव सुर्य्ये॥ वटोदके साधुजनाधिवासे ५. ……… — ………. — — ………. — ……… — — [।] ……… — ……. — .……. — — ……… — ………. — ………. — — ……… ……… — [॥] ……… — ………. — — ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ………. ………. [।] ……… ……… — — ……… ………. ………. — तास्श्रीदेव इत्यूर्ज्जित नामधेयः [॥] तदग्रजो (ऽ) भूद्धरिदेवसंज्ञस्ततो(ऽ)नुजो यस्तु स धन्यदेवः [।] ततो(ऽ)वरो यश्च स भद्रदेवस्तत कनीयानपि सङ्-हदेवः(॥) ६. — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ……… — न-स क्त चित्ताः [।] समान[वृत्त] कृति[भावधीराः] [कृता]१ लयास्तुम्बवने वभूवुः॥ अकारयंस्ते गिरिश्रिङ्ग-तुङ्गं शशि-[प्रभं]देवनि[वास-हर्ग्म्यम्]२ (।) — — ……… ………. ………. ……… ……… — ……. .……. — — — ……… ………. ………. — ……… ……… — (॥) भण्डारकर ने इसकी पूर्ति ‘भे[द भिन्नः सत्रः] के रूप में की है।१ भण्डारकर ने इसकी पूर्ति ‘त्वेपिनाकिनोगृहम्’ के रूप में की जाने की सम्भावना जतायी है।२ हिन्दी अनुवाद १. …….. जिसका तीनों लोकों में। जिसके चरणकमल की सिद्ध लोग भी पूजा करते हैं। तत्पश्चात् राजा श्री चन्द्रगुप्त ने सागरपर्यन्त पृथ्वी को विजित किया। २. ……. इन्द्र के समान श्री चन्द्रगुप्त [का पुत्र] कुमारगुप्त हुआ; उसने साध्वी धर्मपत्नी की तरह ही पृथ्वी की रक्षा की जिसे उसने अपने हाथों अपने शौर्य से प्राप्त किया था। ३. ……. किरण बिखेरते हुए चन्द्रमा की तरह पृथ्वी पर घटोत्कचगुप्त का उदय हुआ उसने अपने पूर्वजों के स्थित निर्मल कीर्ति को अपनी भुजाओं से अर्जित कीर्ति की तरह सुरक्षित रखा। ४. ……. [गुप्त वंश के] पृथ्वी पर स्थित वर्ष ११६, में जब शरद की सूर्य की तरह पृथ्वी पर कुमारगुप्त राजा था, तब बटोदक के साधुजनों के घर (वैश्य कुल) में ५. ……. लक्ष्मीदेव नामक [व्यक्ति] हुआ। उसके हरिदेव नामक बड़ा भाई और धन्यदेव नामक छोटा भाई, उससे छोटा भाई भद्रदेव और सबसे छोटा भाई संघदेव हुए। ६. ……. [उन्होंने] तुम्बवन में रहते हुए समवृत्ति और धीरभाव से देवनिवास (मन्दिर) का निर्माण कराया जो चन्द्र की तरह दमकता हुआ गिरि-शिखर की तरह उतुङ्ग (ऊँचा) दिखायी पड़ता है। भण्डारकर के पाठ के अनुसार इस पंक्ति का तात्पर्य है – जो अपने समवृत्ति और धीरभाव के कारण अन्य लोगों से सर्वथा भिन्न तुम्बवन में क्षत्रिय-शौर्य का निवास था। उसने चन्द्र की दमकता हुआ गिरि-शिखर की तरह उत्तुंग पिनाकिन नामक देवता का एक मन्दिर बनवाया।* Inscriptions of the Early Gupta Kings – Bhandarkar.* टिप्पणी यह तुम्बवन (तुमेन) में एक वैश्य परिवार के पाँच भाइयों द्वारा, जो मूलरूप से बटोदक (सम्भवतः विदिशा जिले में स्थित वदोह नामक ग्राम) के निवासी थे, मंदिर बनवाने का प्रज्ञप्ति-पत्र है। दिनेशचन्द्र सरकार की कल्पना है कि यह भगवान विष्णु मन्दिर का था भण्डारकर ने इसे पिनाकिन (राम) का मन्दिर अनुमानित किया है। इस मन्दिर के निर्माता वैश्य-कुल के थे, यह पंक्ति में आये साधु-जन शब्द से प्रकट होता है। साधु शब्द का सामान्य अर्थ सद्-पुरुष है; परन्तु प्राचीन साहित्य में वैश्य परिवार के विशेषणस्वरूप साधु शब्द का प्रयोग होता रहा है। मध्यकालीन ग्रन्थ-पुष्पिकाओं में, जहाँ वैश्य-जातियों के नाम स्पष्ट रूप से मिलते हैं, इस शब्द का प्रचुर प्रयोग पाया जाता है। इसीसे साहु शब्द बना है, जिससे वैश्य अर्थ से हम सभी परिचित हैं। तुमैन अभिलेख का ऐतिहासिक महत्त्व उसकी आरम्भिक पंक्तियों के कारण बढ़ जाता है क्योंकि इसमें गुप्तवंश के शासकों के नामों का उल्लेख किया गया है। लेख खण्डित अवस्था में है और उसका आधे से अधिक बायाँ भाग अनुपलब्ध है, जिसके कारण शासकीय-उल्लेख अधूरा ही है। उपलब्ध अंश की दूसरी, तीसरी और चौथी पंक्तियों में चन्द्रगुप्त (द्वितीय) उसके पुत्र कुमारगुप्त (प्रथम), तदन्तर घटोत्कचगुप्त का उल्लेख हुआ है। चन्द्रगुप्त (द्वितीय) और कुमारगुप्त (प्रथम) गुप्त वंश के जाने-माने सम्राट् हैं; उन्हींके क्रम में घटोत्कचगुप्त का उल्लेख, स्पष्ट रूप से इस बात का द्योतक है कि वह गुप्त वंश का ही कोई व्यक्ति था और कुमारगुप्त (प्रथम) का प्रत्यक्ष वंशज था कुमारगुप्त के साथ उसके सम्बन्ध की अभिव्यक्ति करनेवाला अंश नष्ट हो जाने के कारण दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता; तदापि अनुमान किया जा सकता है कि वह कुमारगुप्त का ही पुत्र रहा होगा। उसके सम्बन्ध में कहा गया है कि उसने अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित यश को अपने बाहुबल से प्राप्त किया (पूर्वजानां स्थिरसत्वकीर्तिर्भुजार्जिता)। घटोत्कचगुप्त नाम

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गोविन्द नगर बुद्ध-मूर्ति लेख

परिचय गोविन्द नगर बुद्ध-मूर्ति लेख १९७६ ई० में मथुरा नगर के बाह्य भाग में गोविन्द नगर नामक नये उपनिवेशन के उत्खनन में प्राप्त हुआ है। यह अभिलेख भगवान बुद्ध की एक खड़ी मूर्ति के पादासन पर अंकित है। यह मूर्ति मथुरा संग्रहालय में रखी हुई है इस लेख के रमेशचन्द्र शर्मा (संग्रहालय के तत्कालीन निदेशक) द्वारा प्रस्तुत पाठ को १९८२ ई० में जे० जी० विलियम्स ने अपनी पुस्तक ‘द आर्ट आव गुप्त इण्डिया’* में प्रकाशित किया है। The Art of Gupta India – Joanna Gottfried William.* संक्षिप्त परिचय नाम :- गोविन्द नगर बुद्ध-मूर्ति लेख। स्थान :- गोविन्द नगर, मथुरा जनपद, उत्तर प्रदेश। भाषा :- संस्कृत। लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी रूप )। समय :- गुप्त सम्वत् – ११५ या ४३४ ई० ( ११५ + ३१९ ), कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल। विषय :- बौद्ध-मूर्ति की स्थापना की विज्ञप्ति। मूलपाठ सिद्धम् सं १०० [ + ] १० [ + ] ५ दि १० [ + ] ३ [ । ] अस्यां दिवस पूर्व्वायाम् भगवतः दशबलिन शाक्यमुने [ : ] प्रतिमा प्रतिष्ठापिता भिक्षुना सन्घवर्मना [ । ] यदत्त्र पुन्यं तत्मातापित्रोमर्पुवम् कृत्वा सर्वसत्वानाम् सर्व दुःख प्रहानायानुत्तर जा ( ज्ञा ) नाप्तये [ । ] घटिता दिन्नेन। हिन्दी अनुवाद सिद्धि हो। सम्वत् ११५ श्रावण दिवस १३ इस दिन को भिक्षु संघवर्मन ने दशबल शाक्यमुनि की [ यह ] प्रतिमा प्रतिष्ठित की। इसका जो पुण्य हो, वह सब माता-पिता, पूर्वजों एवं सभी प्राणियों को मिले सभी लोगों के दुःख-निवारण और अनुत्तर ज्ञान प्राप्ति के निमित्त दिन्न ने [ इस प्रतिमा को ] गढ़ा। टिप्पणी यह अभिलेख जिस बुद्ध-मूर्ति के पादासन पर अंकित है, उसी मूर्ति के भिक्षु संघवर्मन द्वारा स्थापित किये जाने की यह प्रज्ञप्ति है। इससे पूर्व मथुरा से प्राप्त गुप्तकाल के केवल दो लेख हैं : एक, तो चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल का है जिसमें शिव-लिंग स्थापित किये जाने की घोषणा है। मथुरा स्तम्भ लेख दूसरा, प्रस्तुत लेख से केवल दो वर्ष पूर्व गुप्त संवत् १०७ का कुमारगुप्त प्रथम के काल का ही है। उसमें जैन-मूर्ति की प्रतिष्ठा का उल्लेख है। मथुरा जैन-मूर्ति-लेख इस प्रकार भगवान बुद्ध की मथुरा से प्राप्त अद्यतन मूर्ति है। इस दृष्टि से इसका महत्त्व है। गोविन्द नगर बुद्ध-मूर्ति लेख में महात्मा बुद्ध को भगवान, दशबलिन और शाक्यमुनि कहा गया है। भगवान और शाक्यमुनि तो बुद्ध के लिये प्रयु होने वाले बहु-प्रचलित शब्द हैं। दशबलिन विशेषण अनजाना सा लगता है। पर इसका प्रयोग मथुरा से ही प्राप्त एक अन्य किन्तु परवर्ती लेख में भी हुआ है, जिसे मथुरा पादासन लेख गुप्त सम्वत् १६१ का बताया गया है। दशबलिन का अर्थ सम्भवतः दश गुण या बल से रहा हो। इस अभिलेख की महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस मूर्ति के शिल्पकार ने अपना नामोल्लेख किया है और अपना नाम दिन्न बताया है। भारतीय शिल्पकला में अपना नाम उद्भासित करने वाला एकमात्र यही शिल्पी है। दिन्न ने अपने नाम का उल्लेख न केवल इस मूर्ति के लेख में किया है, वरन् कसिया ( कुशीनगर, उ० प्र० ) में प्राप्त बुद्ध की विशालकाय निर्वाण मूर्ति एवं वहीं से प्राप्त एक अन्य बुद्ध मूर्ति उसी की कृति है। उन पर भी उसने अपना नाम अंकित किया है। इस प्रकार यह अभिलेख गुप्त कालीन मूर्तिकला के इतिहास की दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है । कुमारगुप्त ( प्रथम ) का बिलसड़ स्तम्भलेख – गुप्त सम्वत् ९६ ( ४१५ ई० ) गढ़वा अभिलेख कुमारगुप्त प्रथम का उदयगिरि गुहाभिलेख (तृतीय), गुप्त सम्वत् १०६ मथुरा जैन-मूर्ति-लेख : गुप्त सम्वत् १०७ ( ४२६ ई० ) धनैदह ताम्रपत्र ( गुप्त सम्वत् ११३ )

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धनैदह ताम्रपत्र ( गुप्त सम्वत् ११३ )

परिचय धनैदह ताम्रपत्र १९०८ ई० में राजशाही ( बंगलादेश ) जनपद के अन्तर्गत नाडोर तहसील के धनैदह ग्राम में अत्यन्त खण्डित अवस्था में एक पतला ताम्र-फलक प्राप्त हुआ था। यह लेख उसी पर अंकित है। इस ताम्र फलक को राजशाही के बारेन्द्र रिसर्च सोसाइटी के निदेशक अक्षयकुमार मैत्रेय ने खान बहादुर मुहम्मद इर्शाद अली खाँ से प्राप्त किया था और उसी सोसाइटी के संग्रह में है। यह अभिलेख ताम्रपट के एक ओर अंकित और घिसा है। इसका दाहिना आधा भाग और ऊपर का दाहिना और नीचे का बायाँ कोना अनुपलब्ध है। इसे पहले राखालदास बनर्जी ने, तत्पश्चात् राधागोविन्द बसाक ने प्रकाशित किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- धनैदह ताम्रपत्र [ Dhanaidah Copper Plate ] स्थान :- धनैदह गाँव, नाडोर तहसील, राजशाही जनपद, बाँग्ला देश भाषा :- संस्कृत। लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी रूप )। समय :- गुप्त सम्वत् – ११३ या ४३२ ई० ( ११३ + ३१९ ), कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल। विषय :- इसमें कुमारगुप्त के लिये परमभागवत, महाराजाधिराज के साथ ‘परमदैवत’ विरुद द्रष्टव्य है। इसमें अक्षयनीवि दान का विवरण मिलता है। मूलपाठ १. …… [ स ] म्वत्सर-श [ ते ] त्रयोदशोत्तरे २. [ सं १०० + १० +३ ] ……. [ अस्यान्दि ] वस-पूर्व्वायां परमदैवत-पर- ३. [ म-भट्टारक-महाराजाधिराज-श्रीकुमारगुप्ते पृथिवीपती ] ………. कुटु [ म्बि ] ……. ब्राह्मण-शिवशर्म्म-मह- ४. …….. वकीर्ति-क्षेमदत्त-गोष्ठक-वर्ग्गपाल-पिङ्गल-शुङ्कुक-काल- ५. …….. विष्णु-[ देव ] शर्म्म-विष्णुभद्र-खासक-रामक-गोपाल- ६. ……… श्रीभद्र-सोमपाल-रामाद्यः ग्रामाष्टकुलाधिकरणञ्च ७. ……… विष्णुना (ऽ) विज्ञापिता इह खादाट ( ? ) पार-विषये ( ऽ ) नु-वृत्तमर्य्यादास्थि [ ति ]- ८. …….. नीवीधर्म्म [ ा ] क्षयेण लभ्य [ ते ] [ । ] [ त ] दर्हथ ममाद्यनेनैवक्क्रमे-दा [ तुं ] ९. ……… समेत्या ( ? )  भिहितैः सर्व्वमेव …… ज्ञा ( ? ) कर-प्रतिवेशि ( ? ) कुटुम्बि-भिरवस्थाप्य क- १०. …… रि-कन-यदितो- [ त ] दवधृतमिति यतस्तथेति प्रतिपाद्य ११. ……. [ अष्टक-न ] वक-नला [ भ्या ] मपविञ्छ्य क्षेत्रकुल्यवापमेकं दत्तं [ । ] ततः आयुक्तक- १२. ……… भ्रा ( ? ) तृकटक-वास्तव्य-छन्दोग-ब्राह्मण-वराहस्वामिनो दत्तं ( । ) त [ द्धव ]- १३. भूम्या दा [ नाक्षे ] पे च गुणागुणमनुचिन्त्य शरीर का [ ा ] ञ्चन-कस्य चि- १४. [ र चञ्चलत्वं ] ………. [ ॥ ] [ उ ] क्तञ्च भगवता द्वैपायनेन [ । ] स्वदत्ताम्पर-दत्ताम्वा १५. [ यो हरेत वसुन्धरां [ । ] [ स विष्टायां कृमिर्भूत्वा पितृ ] [ भिः ] सह पच्यते [ ॥ ] षष्टि वर्ष-सहस्रानि स्वर्ग्गे मोदति [ भू ] मिदः [ । ] १६. [ आक्षेप्ता चनुमन्ता च तान्येव नरके वसेत्॥ ] [ पू ] र्व्वदतां द्विजातिभ्यो यत्नाद्रक्ष युधिष्ठिर [ ॥ ] [ महीं [ मही मताञ्छ्रेष्ठ ] १७. [ दानाच्छ्रेयोऽनुपालनं ] [ ॥ ] …….. यं …. श्रीभद्रेन उत्कोर्ण्ण स्थम्भेश्वरदासे [ न ] हिन्दी अनुवाद संवत् एक सौ तेरह ( ११३ )। इस दिन ( समय ) परमदैवत [ परमभट्टारक महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त पृथ्वीपति [ हैं ]। कुटुम्बिक ….. ब्राह्मण शिवशर्मा, नागशर्मा, मह [ त्तर ] [ दे ] वकीर्ति, क्षेमदत्त, गोष्ठक, वर्ग्गपाल, पिंगल, शुंकक, काल ……  विष्णु, [ देव ] शर्मन, विष्णुभद्र, खासक, रामक, गोपाल ….. श्रीभद्र, सोमपाल, राम आदि ग्राम के अष्ट-कुलिक भी। …… विष्णुन ( ? ) यह विज्ञापित करते हैं — खादापार विषय से सम्बद्ध मर्यादा के अनुसार निर्धारित अक्षयनी-विधर्म [ के अनुकूल ] [ जो भूमि है ]। उसे नियमानुसार दिया जा रहा है। …… निकट के सभी कर-प्रतिवेशी कुटुम्बिक हैं, उन्हें सूचित किया जाता है — ……यह स्वीकार किया गया। एक कुल्यवाप भूमि, ८ x ९ नल नापकर दिया गया। उसे आयुक्तक भ्रातृकटक निवासी छान्दोग ब्राह्मण वराहस्वामी को दिया गया। भूमि दान के गुण-अवगुण पर विचार कर, शरीर और धन ( कांचन ) की चंचलता ( नश्वरता ) को सोचकर यह दान दिया गया। भगवान् द्वैपायन ( व्यास ) ने कहा है — जो अपने अथवा दूसरों द्वारा दिये गये दान का अपहरण करेगा, वह पितरोंसहित विष्ठा का कीड़ा बनकर रहेगा। भूमि दान करनेवाला हजार वर्ष तक स्वर्ग का सुख भोग और उसका अपहरण करनेवाला उतने ही काल तक नरक-वास करता है। पूर्व में ब्राह्मणों को दिये गये दान की युधिष्ठिर ने भी रक्षा की; क्योंकि दान देने से अधिक श्रेष्ठ दान की रक्षा करना है। …… इसे श्रीभद्र ने लिखा और स्तम्भेश्वरदास ने उत्कीर्ण किया। टिप्पणी यह अभिलेख सामान्य शासन-पत्रों से सर्वथा भिन्त्र एक विक्रय-पत्र है। इसमें दान देने के निमित्त भूमि क्रय किये जाने का उल्लेख है। लेख क्षतिग्रस्त होने के कारण विक्रय-पत्र का प्रारूप पूर्णतया समझा नहीं जा सका है। केवल इतना ही अनुमान किया जा सकता है कि विष्णु नामक किसी आयुक्तक ने ग्राम के कुटुम्बिकों, महत्तरों तथा अधिकरण के सम्मुख खादा ( ट ) पार विषय में प्रचलित दर पर एक कुल्यवाप भूमि अक्षय नीविधर्म के अनुसार क्रय करने का प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जिसे उन लोगों ने स्वीकार किया। और इस प्रकार उक्त क्रीत भूमि को उसने वराहस्वामिन नामक सामवेदी ब्राह्मण को दान में दिया। अन्त में दान की महत्त्व व्यक्त करनेवाली धर्म-वाक्य की पंक्तियाँ उद्धृत की गयी हैं। अभिलेख में जो धर्म-वाक्य उद्धृत हैं उन्हें भगवान् द्वैपायन ( व्यास ) द्वारा कथित बताया गया है। ये या इसी प्रकार के अन्य वाक्य प्रायः गुप्त एवं मध्यकालीन दान-पत्रों में अंकित पाये जाते हैं। इन वाक्यों के वास्तविक उद्गम के सम्बन्ध में कुछ भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। यदि ये वाक्य वस्तुतः व्यासकथित है तो उन्होंने इन्हें कहाँ और किस प्रसंग में कहा था, इसकी कोई जानकारी अब तक प्राप्त नहीं हो सकी है। इन वाक्यों का उद्गम जो भी हो, इन दान-पत्रों में उल्लेख करने का उद्देश्य दान-दाता द्वारा इस बात पर बल देना है कि दान की महत्त्व बहुत बड़ा है; दिये हुए दान की रक्षा की जानी चाहिए। दान-दाता के वंशज एवं अन्य लोग दिये गये दान की उपेक्षा न करें इसलिए उन्हें इन वाक्यों द्वारा भय दिखाया और उपदेश दिया जाता रहा है। धनैदह ताम्रपत्र में भूमि के प्रसंग में अक्षय नीविधर्म का उल्लेख हुआ है। व्यावहारिक अर्थ में नीवि का तात्पर्य परिपण अथवा मूल-धन है। भूमि के प्रसंग में इसका तात्पर्य उस पद्धति से है जिसके अनुसार भूमि प्राप्त करनेवाला व्यक्ति प्रदत्त भूमि की आय अथवा उपज का उपयोग कर सकता था। सामान्यतः उपयोग का यह अधिकार उसे उसके जीवनकाल तक ही होता था। किन्तु अक्षय नीवि-धर्म के अनुसार प्राप्तकर्ता और उसके उत्तराधिकारी इस भूमि

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