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मथुरा जैन-मूर्ति-लेख : गुप्त सम्वत् १०७ ( ४२६ ई० )

परिचय मथुरा जैन-मूर्ति-लेख गुप्त सम्वत् १०७ ( ४२६ ई० ) की है। १८९०-९१ ई० में मथुरा स्थित कंकाली टीले के उत्खनन में मिली एक पद्मासना जैन मूर्ति के आसन पर यह लेख अंकित है। इसे पहले बुह्लर ने प्रकाशित किया था। बाद में भण्डारकर ने इसे पुनः सम्पादन किया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- कुमारगुप्त प्रथम का मथुरा जैन-मूर्ति-लेख स्थान :- कंकाली टीला, मथुरा जनपद, उत्तर प्रदेश भाषा :- संस्कृत। लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी रूप )। समय :- गुप्त सम्वत् – १०७ या ४२६ ई० ( १०७ + ३१९ ), कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल। विषय :- जैन मूर्ति की स्थापना। इसकी स्थापना सामाढ्या नामक स्त्री द्वारा कराया गया। मूलपाठ १. सिद्धम्। परमभट्टारक महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्तस्य विजयराज्ये १०० + ७ [ अधि ] क- [ श्राव ] णमास …… [ दि ] [ स ] २० ( । ) अस्यां पू [ र्व्वायां ] कोट्टिया गणा- २. द्विद्याधरी [ तो ] शाखातो दतिलाचार्य्यप्रज्ञपिताये शामाढ्याये भट्टिभवस्य धीतु गुहमित्रपालि [ त ] प्रा [ चा ] रिकस्य [ कुटुम्बिन ] ये प्रतिमा प्रतिष्ठा-पि [ ता ]। हिन्दी अनुवाद सिद्धि हो। परमभट्टारक महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त का विजय राज्य १०७ के अधिक श्रावण मास का दिवस २०। इस पूर्वकथित दिन को कोट्टिया-गण के विद्याधरी शाखा के दतिलाचार्य की आज्ञा से भट्टिभव की पुत्री प्रास्तारिक गुहमित्रपालित की पत्नी ( कुटुम्बिनी ) सामाढ्या द्वारा [ यह ] प्रतिमा स्थापित की गयी। टिप्पणी यह जैन-मूर्ति के आसन पर अंकित सामान्य लेख है जिसमें उसकी प्रतिष्ठा करनेवाली महिला ने अपना परिचय देते हुए कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में मूर्ति को प्रतिष्ठित करने की बात का उल्लेख है। उसने अपना परिचय देते हुए अपने को प्रास्तातिक की कुटुम्बिनी कहा है। प्रास्तारिक का सामान्य अर्थ प्रस्तर-विक्रेता है। इसका अभिप्राय सामान्य पत्थर बेचनेवाले तथा मूल्यवान् पत्थर (मणि, रत्न आदि) बेचनेवाले दोनों से लिया जा सकता है। यहाँ इसका प्रयोग कदाचित् दूसरे ही भाव में लिया गया है। सम्भवतः यहाँ तात्पर्य जौहरी से हैं। कुटुम्बिनी शब्द भी द्रष्टव्य है। इसका सामान्य अर्थ गृहस्थ स्त्री किया जाता है। किन्तु प्रत्येक विवाहित स्त्री गृहिणी होती है। अतः इसी भाव में पत्नी के लिये लोक-भाषा में घरनी कहते हैं। अतः यहाँ भी वही अभिप्राय पत्नी से हो सकता है। किन्तु इसके साथ ही यह ध्यातव्य है कि बौद्ध साहित्य एवं अनेक आरम्भिक अभिलेखों में व्यावसायिक वर्ग के लोगों के लिए गहमति (गृहपति) शब्द का प्रयोग पाया जाता है। उसी का पर्याय कुटुम्बी है, जिसका उल्लेख अनेक गुप्त-कालीन अभिलेखों में हुआ है जहाँ उसका तात्पर्य वैश्य वर्ग से है। हो सकता है यहाँ भी कुटुम्बिनी से तात्पर्य वैश्य वर्ण की स्त्री से हो। और दान-दात्री ने अपने पति के व्यवसाय के साथ-साथ स्पष्ट रूप से अपने वैश्य वर्ग की होने की अभिव्यक्ति की हो। इस लेख में अंकित राज्य वर्ष को बुह्लर ने सम्वत् ११३ होने का अनुमान किया था और मास के नाम को अपाठ्य के रूप में छोड़ दिया था। भण्डारकर ने अपने सम्पादित संस्करण में इसको गुप्त राजवर्ष १०७ के रूप में पढ़ा है। भण्डारकर महोदय का पाठ अधिक तर्कसंगत है। कुमारगुप्त ( प्रथम ) का बिलसड़ स्तम्भलेख – गुप्त सम्वत् ९६ ( ४१५ ई० ) गढ़वा अभिलेख कुमारगुप्त प्रथम का उदयगिरि गुहाभिलेख (तृतीय), गुप्त सम्वत् १०६

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कुमारगुप्त प्रथम का उदयगिरि गुहाभिलेख (तृतीय), गुप्त सम्वत् १०६

परिचय उदयगिरि गुहाभिलेख (तृतीय) विदिशा जनपद, मध्य प्रदेश स्थित उस गुहा-मन्दिर में है, जिसे एलेक्जेंडर कनिंघम ने ‘दसवीं जैन-गुहा’ का नाम दिया था। कनिंघम की दृष्टि में यह लेख १८७६-७७ ई० में आया था और उसे उन्होंने १८८० ई० में प्रकाशित किया था। १८८२ ई० में हुल्श ने उसका एक संशोधित पाठ प्रस्तुत किया तत्पश्चात् उसे फ्लीट ने सम्पादित कर प्रकाशित किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- कुमारगुप्त प्रथम का उदयगिरि गुहाभिलेख (तृतीय) [ Udaigiri Cave Inscription of Kumargupta I ]। स्थान :- उदयगिरि, विदिशा जनपद; मध्य प्रदेश। भाषा :- संस्कृत। लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी रूप )। समय :- गुप्त सम्वत् – १०६ या ४२५ ई० ( १०६ + ३१९ ), कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल। विषय :- जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ की मूर्ति की स्थापना की उद्घोषणा है। परन्तु लेख में उल्लिखित कोई प्रतिमा अब गुहा के भीतर नहीं है। मूलपाठ १. नमः सिद्धेभ्यः [ ॥ ] श्री संयुतानां गुण-तोयधीनां गुप्तान्वयानां नृप-सत्तमानां २. राज्ये कुलस्याभिविवर्द्धमाने षड्भिर्य्युते वर्ष शतेऽथ मासे [ ॥ ] सु-कार्तिके बहुल-दिनेऽथ पंचमे ३. गुहामुखे स्फट-विकटोत्कटामिमां जित-द्विषो जिनवर-पार्श्वसंज्ञिकां जिनाकृतिं शम-दमवान- ४. चीकरत [ ॥ ] आचार्य्य-भद्रान्वय-भूषणस्य शिष्यो ह्यस्वार्य्य-कुलोद्गतस्य आचार्य्य-गोश- ५. र्म्म-मुनेस्सुतस्तु पद्मावतावश्वपतेर्भटस्य [ ॥ ] परैरजेस्य रिपुघ्न-मानि-नस्स संधि- ६. लस्येत्यभिविश्रुतो भुवि स्व-संज्ञया शंकर-नाम-शब्दितो विधान-युक्तं यति-मा- ७. र्ग्दमास्थितिः [ ॥ ] स उत्तराणां सदृशे कुरूणां उदग्दिशा-देश-वरे प्रसूतः ८. क्षपाय कर्म्मारि-गणस्य धीमान् यदत्र पुण्यं तदपास-सरर्ज्ज [ ॥ ] अनुवाद सिद्ध [ पुरुषों ] को नमस्कार। श्री ( वैभव ) से युक्त, गुणों के सागर गुप्त-कुल के राजा के राजत्वकाल में राज्यकुल की अभिवृद्धि करनेवाले वर्ष १०६ में, कार्तिक के उत्तम मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी। इस गुहा के मुख में ( भीतर ) उन जिनों में श्रेष्ठ पार्श्वनाथ की, जिन्होंने [ धर्म के ] शत्रुओं पर विजय प्राप्त किया था और जिन्होंने इन्द्रियों को वशीभूत कर लिया था, सर्प-फण से युक्त पार्श्ववर्तिनी परिचारिकाओं ( विकटा ) सहित मूर्ति की स्थापना की गयी। आचार्य भद्र-कुल के भूषण के शिष्य आर्य-कुल के मुनि आचार्य गोशर्मन के शिष्य, उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित कुरु नामक देश में जन्मे, पद्मावती से उत्पन्न ( अथवा पद्मावती निवासी ), शत्रु से अपराजित होने के कारण रिपुघ्न कहे जानेवाले, सैनिक अश्वपति के पुत्र के रूप में प्रख्यात शंकर ने, जिन्होंने शास्त्रीय नियमों के अनुसार संन्यासियों के मार्ग का अनुसरण किया था, इस कृति से [ प्राप्त होनेवाले ] पुण्य को धर्म-कार्यों के शत्रुओं के विनाश के लिये अर्पित किया। टिप्पणी यह लेख गुप्त-शासकों के काल का है किन्तु इसमें शासक के नाम का उल्लेख नहीं मिलता है। उसकी अभिव्यक्ति मात्र गुप्तान्वय द्वारा की गयी है। इसी अभिलेख के समान मन्दसौर अभिलेख में भी गुप्त शासक का नामोल्लेख न करके गुप्तान्वय से ही समसामयिक गुप्त शासक को इंगित किया गया है। ये दोनों ही लेख मध्य-भारत के क्षेत्र के हैं। इनमें शासक का नामोल्लेख न किया जाना अकारण न होगा इसके पीछे अवश्य ही कोई राजनीतिक परिस्थिति रही होगी। इस दृष्टि से यह ध्यातव्य है। इसमें जो तिथि अंकित है, वह गुप्त सम्वत् के अनुसार कुमारगुप्त ( प्रथम ) के शासन काल के अन्तर्गत आती है। इसी आधार पर इसे उसके काल का लेख कहा जा सकता है। इस लेख का उद्देश्य गुहा के भीतर जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ की मूर्ति की स्थापना की उद्घोषणा है। परन्तु लेख में उल्लिखित कोई प्रतिमा अब गुहा के भीतर नहीं है। मूर्ति के रूप का जो वर्णन है, उससे ज्ञात होता है कि उनके साथ विकटा का भी अंकन हुआ था विकटा बौद्धों द्वारा मान्य देवताओं की परिचारिका को कहते हैं। सम्भवतः उन्हींके अनुकरण पर इस गुहा के भीतर पार्श्वनाथ की मूर्ति के साथ भी परिचारिका का अंकन किया गया था। लेख का आरम्भ सिद्धों को नमस्कार के साथ किया गया है। सिद्धों से तात्पर्य उन तपस्वियों से है, जिन्होंने निम्नलिखित पाँच अवस्थाओं में से एक अथवा अनेक के रूप में सिद्धि प्राप्त कर ली हो। ये पाँच अवस्थाएँ हैं— सलोकता (किसी देवविशेष के साथ स्वर्ग में निवास ); सरूपता (देवता के स्वरूप के साथ एकात्मकता अथवा उसके साथ एकाकार हो जाना); सामीप्य (देवता के साथ नैकट्य); सायुज्य (देवता में समाहित हो जाना) और साष्टिता अथवा सामनैश्वर्यत्व ( शक्ति एवं अन्य गुणों में परम सत्ता के समान हो जाना)। सिद्ध शब्द बौद्ध सम्यक् संबुद्ध के निकट जान पड़ता है। सम्भवतः यहाँ जैन तीर्थकरों को सिद्ध कहा गया है।

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गढ़वा अभिलेख

परिचय प्रयागराज जनपद के बारा तहसील स्थित बारा मुख्यालय से लगभग ८ मील दक्षिण-पश्चिम शंकरगढ़ से डेढ़ मील की दूरी पर एक प्राचीन दुर्ग है जिसे लोग गढ़वा दुर्ग, शंकरगढ़ कहते हैं। इस दुर्ग के भीतर आजकल बस्ती बसी है। वहाँ एक आधुनिक मकान की दीवाल में पत्थर की एक पटिया लगी हुई थी। इसी पटिया पर ‘गढ़वा अभिलेख’ अंकित है। १८७१-७२ ई० में इसकी ओर राजा शिवप्रसाद ‘सितारे-हिन्द’ का ध्यान आकृष्ट हुआ और वे उसे वहाँ से ले आये और अब के भारतीय संग्रहालय, कोलकाता में संग्रहित है। यह अभिलेख-युक्त पटिया अपने वर्तमान रूप में केवल आधा ही उपलब्ध है; पीछे का भाग किसी ने काटकर अलग कर दिया, जो अब अप्राप्य है। इसके आगे-पीछे के दो पटलों पर चार लेखों का अंकन हुआ था, जो पत्थर के काट डालने के कारण अब केवल अधूरे उपलब्ध हैं। एक ओर के पटल पर, जिस पर तीन लेखों का अंकन केवल बायीं ओर के अंश और दूसरी ओर के पटल पर दायीं ओर का अंश उपलब्ध है। इन्हें पहले एलेक्जेंडर कनिंघम ने प्रकाशित किया था। बाद में फ्लीट ने उनका सम्पादन किया। अपने सम्पादित रूप में उन्होंने प्रथम दो लेखों को एक साथ प्रथम और द्वितीय भाग के रूप में प्रकाशित किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- गढ़वा अभिलेख स्थान :- गढ़वा दुर्ग, शंकरगढ़, बारा तहसील, प्रयागराज जनपद; उत्तर प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी ) समय :- कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल गढ़वा अभिलेख ( प्रथम – क ) मूलपाठ १. [ परमभागवत महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त राजस्य ] २. संवतसरे …….. [ अस्यां ] ३. दिवस पूर्व्वायां ….. ४. क मातृदासपुत्र ….. [ पुण्या ] ५. प्यानर्थं रचि [ त ] ….. [ स ] ६. दासत्र-सामान्य-ब्रह्मण …… ७. दीनारैर्द्दशभिः १० ……. [ । ] ८. यश्चैनं धर्म्म स्कन्धं [ व्युच्छिन्दात्स पंच महापातकैः सं ….. ] ९. य्यु श्रः स्यादिति [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद [ परमभागवत महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त के शासन-काल में ] वर्ष ….. उस दिन को ….. मातृदास पुत्र ….. पुण्य-वृद्धि के उद्देश्य से सदा चलनेवाले सत्र में सामान्य रूप से ब्राह्मण ….. १० दीनार …… जो भी इस धर्म-स्कन्ध के प्रति [ व्यवधान उपस्थित करेगा वह पंचमहापातक के अपराध का भागी ] होगा। गढ़वा अभिलेख ( प्रथम – ख ) गुप्त सम्वत् वर्ष ९८ परिचय उपर्युक्त अभिलेख के क्रम में यह अभिलेख उसी के नीचे अंकित है। इसे फ्लीट ने उसी के क्रम में उसी लेख के खण्ड २ के रूप में प्रकाशित किया था। परन्तु यह सर्वथा स्वतंत्र लेख होने के कारण अलग स्वीकारना उचित होगा। यह अभिलेख भी खण्डित है और केवल बायीं ओर का अंश ( पूर्वांश ) ही उपलब्ध है। उत्तरांश अनुपलब्ध भाग में रहा होगा। संक्षिप्त परिचय नाम :- गढ़वा अभिलेख ( प्रथम – ख ) स्थान :- गढ़वा दुर्ग, शंकरगढ़, बारा तहसील, प्रयागराज जनपद; उत्तर प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी ) समय :- कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल, गुप्त सम्वत् ९८ मूलपाठ १. परमभागवत—महा[राजाधिराज — श्री कुमारगुप्त-रा] २. ज्य- संवत्सरे ९० ( + ) ८ [ अस्यां खिस ] ३. पूर्व्वायां पाटलिपुत्रे ….. [ गृ ] ४. हस्थस्य भार्य्या य ….. ५. आत्म-पुण्योपचय [ ार्थं ] ६. सदा सत्र सामान्य ब्र [ ाह्मण ] ७. दीनाराः दश १० …… [ । ]  [ यश्चैनं ] ८. धर्म्म स्कन्धं व्युच्छिन्द्या [ त्स ] पञ्चमहापातकैः संयुक्त स्यादि इति [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद परमभागवत महा [ राजाधिराज श्री कुमारगुप्त ] के शासनकाल के वर्ष ९८ में ….. उक्त दिन पाटलिपुत्र ….. गृहस्थ की पत्नी ….. अपने पुण्य-वृद्धि [ के उद्देश्य से ] ….. सदा चलनेवाले सत्र में समान्य रूप से [ ब्राह्मण ] ….. १० दीनार ….. [ । ] जो भी इस धर्म-स्कंद में व्यवधान करेगा [ वह पंचमहापातक का भागी होगा। ] गढ़वा अभिलेख ( द्वितीय ) भूमिका यह अभिलेख गढ़वा दुर्ग, शंकरगढ़, बारा तहसील; जनपद प्रयागराज से प्राप्त उसी शिला फलक पर, जिस पर उपर्युक्त अभिलेख अंकित है, ठीक उनके नीचे अंकित है। उपर्युक्त लेखों से इसे एक रेखा द्वारा अलग किया गया है। इसका भी उत्तरांश अनुपलब्ध है। एलेक्जेंडर कनिंघम ने इसका पाठ १८७३ ई० में प्रकाशित किया था। तत्पश्चात् फ्लीट ने इसका सम्पादन किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- गढ़वा अभिलेख ( द्वितीय ) स्थान :- गढ़वा दुर्ग, शंकरगढ़, बारा तहसील, प्रयागराज जनपद; उत्तर प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी ) समय :- कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल मूलपाठ १. जितं भगवता। प [ रमभागवत-महाराजाधिराज ]- २. श्री कुमा [ रगु ] प्त [ स्य-राज्य संवत्सरे ] ….. ३. दिवसे १० [ अस्यां दिवस-पूर्व्वायां ] ….. ४. रा पा [ टलिपु ] त्र …. ५. सदा सत्र सा [ मान्य ] …. ६. [ द ] त्ता दीनारः १० त (?) …. ७. ति सत्त्रे च दीनारास्त्रय् ….. [ ॥ ] [ यश्चैनं धर्म्म-स्कन्धं व्युच्छि ]- ८. न्द्यात्स पञ्चमहापा [ तकैः सम्युक्तः स्यादिति [ ॥ ] ९. गोयिन्दा लक्ष्मा …. हिन्दी अनुवाद जिंतभगवत्। परमभागवत महाराजाधिराज कुमारगुप्त के शासनकाल के वर्ष ….. के दिवस १० उक्तदिन पाटलिपुत्र के ….. सदा चलने वाले सत्र ….. के लिये १० दीनार दिया ….. और के सत्र को दिया [ जो भी इस धर्म स्कन्द में व्यवधान करेगा पंचमहापात का भागी होगा गोयिन्दा लक्ष्मा। गढ़वा अभिलेख (तृतीय), गुप्त सम्वत् वर्ष ९८ परिचय उपर्युक्त तीन अभिलेख, जिस शिलाफलक पर अंकित हैं, उसी फलक के दूसरी ओर यह लेख अंकित है। इसकी पहली पंक्ति तथा अन्य पंक्तियों का पूर्वांश अनुपलब्ध है। इसे भी १८८० ई० में एलेक्जेंडर कनिंघम ने प्रकाशित किया था। तत्पश्चात् फ्लीट ने इसका सम्पादन किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- गढ़वा अभिलेख ( तृतीय ) स्थान :- गढ़वा दुर्ग, शंकरगढ़, बारा तहसील, प्रयागराज जनपद; उत्तर प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी ) समय :- कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल मूलपाठ १. [ जितं भगवता॥ परमभागवत महाराजाधि ]- २. [ राज-श्री-कुमारगुप्त-राज्य-संवत्स ] रे ९० ( + ) ३. ….. [ अस्यां दिवस ] – पूर्व्वायां पट्ट* – ४. ………………… ने ( ? ) नात्मपुण्योप [ च ] — ५. [ यार्त्य ] ………. रे कालीयं सदा सत्र ….. ६. ……………………….. कस्य तलकनिवांन्ते ( ? ) ७. …………………… भ्यमं दीनाराः द्वादश ८. …………… स्यांकुरोद्म ( ? ) स्तच्छ …….. ९. ………. [ सं ] युक्त [

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कुमारगुप्त ( प्रथम ) का बिलसड़ स्तम्भलेख – गुप्त सम्वत् ९६ ( ४१५ ई० )

भूमिका एटा (उत्तर प्रदेश) जिला अन्तर्गत अलीगंज तहसील से चार मील उत्तर-पश्चिम बिलसड़ पुवायाँ नामक एक ग्राम है। इस ग्राम के उत्तर-पश्चिमी कोने पर लाल पत्थर के बने चार टूटे स्तम्भ (दो गोल और दो चौकोर) खड़े हैं। इनमें से दोनों गोल स्तम्भों पर यह लेख समान रूप से अंकित है। एक पर वह १३ पंक्तियों में और दूसरे में १६ छोटी पंक्तियों में है। इसे १८७७-७८ ई० में एलेक्जेंडर कनिंघम ने ढूँढ निकाला था; १८८० ई० में उन्होंने इसका अनुवादसहित पाठ प्रकाशित किया। तदनन्तर फ्लीट ने उसे सम्पादित कर प्रकाशित किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- कुमारगुप्त ( प्रथम ) का बिलसड़ स्तम्भलेख स्थान :- बिलसड़ पुवायाँ ग्राम, एटा जनपद; उत्तर प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- परवर्ती ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् वर्ष ९६ अर्थात् ४१५ ई० ( ९६ + ३१९ ) विषय :- यह अभिलेख ध्रुवशर्मा नामक व्यक्ति द्वारा कार्तिकेय के मन्दिर में एक प्रवेश-द्वार तथा सत्र स्थापित करने की घोषणा है। इसमें गुप्त राजवंश की वंशावली मिलती है। मूलपाठ १. [ सिद्धम् ॥ ] [ सर्व्व-राजोच्छेत्तुः पृथिव्यामप्रतिरथस्य चतुरुदधि-सलिला-स्वा ] दित-यशसो २. [ धनद-वरुणेन्द्रान्तक-समस्य कृतान्त-परशोः न्यायागतानेक-गो-हि ] रण्य-कोटि-प्रदस्य चिरोत्सन्नाश्वमेधाहर्त्तुः ३. महाराज-श्रीगुप्त-प्रपौत्रस्स महाराज श्रीघटोत्कच-पौत्रस्य म [ हा ] राजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्त पुत्रस्य ४. लिच्छ [ वि-दौहित्रस्य ] [ महादेव्यां कुमारदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजा ] धिराज श्री समुद्रगुप्त-पुत्रस्य ५. महादेव्यां दत्त [ देव्यामुत्पन्नस्य स्वयमप्रतिरथस्य परम भागवत ] स्य महाराजाधिराज-श्री चन्द्रगुप्त-पुत्रस्य। ६. महादेव्यां ध्रुवदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराज-श्रीकुमारगुप्तस्याभि [ व ] – द्र्धमान-विजय-राज्य-संवत्सरे षणवते ७. [ अस्यान्दि ] वस पूर्व्वायां भगवतस्त्रैलोक्य-तेजस्संभार सं [ भृ ] ताद्भूत-मूर्त्ते-र्ब्रह्मण्यदेवस्य ८. ….. निवासिनः स्वामि-महासेनस्यायतने [ ऽ ] स्मिन्कार्त्त-युगाचार-सद्धर्म्म-वर्त्मानुयायिना। ९. [ माता ] ……. [ प ] र्षदा मानितेन ध्रुवशर्म्मणा कर्म्म महत्कृतेदम्। १०. कृ [ त्व ] [ नेत्र ] भिरामां मु [ नि-वसति मिह स्व ] र्ग्ग-सोपान [ रू ] पां [ । ] कौबेरच्छन्दबिम्बां स्फटिकमणिदलाभास गौरां प्रतो [ लि ] म्। ११. प्रासादा [ ग्राभि ] रूपं गुणवर-भवनं [ धर्म्म-स ] यथावत्। पुण्येष्वेवाभिरामं व्रजति शुभमतिस्ताद शर्मा ध्रुवो ( ऽ ) स्तु॥ १२. ……..स्य ….. शुभामृतवर-प्रख्यात-लब्धा भुवि। भक्ति-हीन-सत्व-समता कस्तं न संपूजयेत्। १३. येनापूर्व्व-विभूति-सञ्चय-चयैः …….. – …….. – ।     तेनायं ध्रुवशर्म्मणा स्थिर-वरस्तभो [ च्छ्र ] यः कारतिः। हिन्दी अनुवाद सिद्धि हो। सब राजाओं के उन्मूलक पृथिवी पर अप्रतिरथ ( जिसके समान पृथिवी पर अन्य कोई न हो ), चारों समुद्र के जल से आस्वादित कीर्तिवाले, कुबेर ( धनद ), वरुण, इन्द्र तथा यम (अन्तक) के समान, कृतान्त के परशु-तुल्य, न्याय से उपलब्ध अनेक गौ तथा कोटि हिरण्य ( सिक्के ) के दानदाता, चिरोत्सन्न-अश्वमेधहर्ता महाराज श्रीगुप्त के प्रपौत्र, महाराज श्री घटोत्कचगुप्त के पौत्र, महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के पुत्र, लिच्छवि-दौहित्र महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त के महादेवी दत्तदेवी से उत्पन्न, अप्रतिरथ, परमभागवत महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के महादेवी ध्रुवदेवी से उत्पन्न पुत्र महाराज श्री कुमारगुप्त के वर्तमान विजय राज्य का संवत्सर छियानवे ……… निवासी ( स्थित ) स्वामीमहासेन के, जो त्र्यलोक्य के तेज से आवृत भगवान ब्रह्मण्यदेव हैं, इस आयतन ( मन्दिर ) में, कृतयुग ( सत्ययुग ) के आचार के अनुसार जो सद्धर्म वर्तमान है, उसका पालन करनेवाले तथा ……  परिषद् में आदर प्राप्त करनेवाले ध्रुवशर्मा द्वारा स्वर्ग के सोपानस्वरूप नयनाभिराम, मुनियों का निवास-स्थान, तथा कुबेरच्छन्द [ नामक मणि ] के समान स्फटिक मणि-मालाओं की प्रभा से आच्छादित प्रतोली ( प्रवेश-द्वार ) तथा अग्र-प्रासाद के रूप में गुणवर-भवन, धर्म-सत्र का निर्माण किया गया। इसके पुण्य के स्वरूप [ दीर्घ काल तक ] मनोहारी रूप से ध्रुवशर्मा विचरण करता रहे। ……. इस पृथ्वी पर जिसकी शुभ और अमर ख्याति ……. [ शायद ही कोई ऐसा ] भक्ति रहित हो जो सत्व और समभाव से इसकी पूजा न करता हो। इस पूर्वकथित [ वास्तु ] का [ निर्माण कराकर ] विभूति का संचय ….. उस ध्रुवशर्मा ने दृढ़ स्तभ…….. टिप्पणी यह अभिलेख ध्रुवशर्मा नामक व्यक्ति द्वारा महासेन ( कार्तिकेय ) के मन्दिर में एक प्रतोली ( प्रवेश-द्वार ) तथा सत्र स्थापित करने की घोषणा है। इस अभिलेख का ऐतिहासिक महत्त्व केवल इतना ही है कि इसमें गुप्तवंश के परिचय की अभिव्यक्ति करनेवाले वंशावली का वह प्रारूप प्राप्त होता है जो आगे रूढ़ होकर गुप्त शासकों की मुद्राओं एवं आलेखों में प्रयोग होता रहा। इस वंश-परिचय में समुद्रगुप्त के लिये प्रायः उन्हीं विरुदों का प्रयोग हुआ है जिनका प्रयोग हरिषेण ने प्रयाग-प्रशस्ति में किया है। उन विरुदों के अतिरिक्त दो विरुद नये हैं, जो हमारा ध्यान विशेष रूप से आकर्षित करते हैं। वे हैं —— सर्व-राजोच्छेता और चिरोत्सन्न-अश्वमेध-हर्तुः। सर्वराजोच्छेता ( सभी राजाओं का उन्मूलन करनेवाला ) विरुद का प्रयोग सर्वप्रथम हमें काचगुप्त के सिक्कों पर देखने को मिलता है; इस कारण अनेक विद्वानों—विसेंट स्मिथ, फ्लीट, एलन आदि ने काचगुप्त के सिक्कों को समुद्रगुप्त का सिक्का बताने का प्रयास किया है और कहा है कि काच उसका अपर नाम था। इस प्रसंग में द्रष्टव्य यह है कि हरिषेण ने प्रयाग प्रशस्ति में इस प्रकार के किसी विरुद का प्रयोग न कर उसे अनेक-भ्रष्ट-राजोत्सन्न राजवंश प्रतिष्ठापक कहा है, जो इस विरुद के भाव के सर्वथा विपरीत है। इसलिए इस विरुद का प्रयोग समुद्रगुप्त ने अपने लिये कभी न किया होगा। इसका प्रयोग निःसन्देह उसके जीवन-काल के बाद ही आरम्भ हुआ होगा। इस प्रसंग में यह भी द्रष्टव्य है कि इस विरुद का प्रयोग समुद्रगुप्त तक ही सीमित नहीं है प्रभावतीगुप्ता के पूना-ताम्र-शासन में चन्द्रगुप्त ( द्वितीय ) को भी सर्वराजोच्छेता कहा गया है | चिरोत्सन्न अश्वमेध-हर्तुः का अर्थ फ्लीट ने — ‘दीर्घकाल से बन्द अश्वमेध ( यज्ञ ) को पुनर्प्रचलित करनेवाला ( one who has restored the Ashvamedha, that had been long in abeyance ) किया है। इनके इस अनुवाद को सभी विद्वान् अन्धानुकरण कर, स्वीकार करते चले आ रहे हैं। किन्तु समुद्रगुप्त से पूर्व अनेक राजाओं — शुंगवंशी पुष्यमित्र, कलिंग नरेश खारवेल, सातवाहन वंशी सातकर्णि, वाकाटक-वंशी प्रवरसेन एवं भारशिव ने अश्वमेध यज्ञ किये थे। कुछ ने तो समुद्रगुप्त से कुछ ही काल पूर्व किया था इस अनुवाद को ठीक मानें तो समुद्रगुप्त के लिये प्रयुक्त यह विरुद सत्य के सर्वथा विपरीत ठहरता है किन्तु इस विरुद को मात्र अतिशयोक्तिपूर्ण कथन नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः फ्लीट एवं अन्य विद्वानों ने इसे समझने की समुचित चेष्टा नहीं की है। चिरोत्सन्न शब्द का प्रयोग अश्वमेध के प्रसंग में ही शतपथ ब्राह्मण में हुआ है। उसमें इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है कि ‘यज्ञ के अनेक कर्म तत्त्व भूले जा चुके हैं अतः इसके परिहारस्वरूप यज्ञ-कर्ता के लिये आवश्यक है

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मन्दसौर अभिलेख – ४६७ ई० ( मालव सम्वत् ५२४ )

भूमिका मालव अभिलेख – ४६७ ई० एक शिलापट्ट पर अंकित है। इसे म० ब० गर्दे को १९२३ ई० के ग्रीष्म में मन्दसौर (मध्य प्रदेश) स्थित दुर्ग के पूर्वी दीवाल के भीतरी भाग में जड़ा हुआ मिला था। इसको म० ब० गर्दे ने ही प्रकाशित किया है। वर्तमान में यह ग्वालियर संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- मन्दसौर अभिलेख – ४६७ ई० [ Mandsaur inscription – 467 AD ] स्थान :- मन्दसौर, मध्य प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्तकाल, मालव सम्वत् ५५४ ( ४६७ ई० ) विषय :- गोविन्दगुप्त की जानकारी मिलती है। साथ ही दत्तभट्ट द्वारा बौद्ध भिक्षुओं के लिये एक स्तूप, एक कुँआ, प्याऊ, उद्यान का निर्माण। रचयिता :- कवि रविल मूलपाठ १. सिद्धम् [ । ] ये [ ने ] दमुद्भव-निरोध-परम्परायां भग्नं जगद्विविध-दुख-निरन्तरायाम् ( । ) तित्त्रासुना त्रिपदरो निरदेशि धर्म्मस्तस्मै नमोस्तु सुगताय गताय शान्तिम् ( ॥ ) [ १ ] २. गुप्तान्वय व्योमनि चन्द्रकल्पः श्री चन्द्रगुप्त-प्रथिताभिधानः ( । ) आसीन्नृपो लोक-विलोचनानां नवोदितश्चन्द्र इवापहर्त्ता ( ॥ ) [ २ ] भुवः पतीनां भुवि भूपतित्वमाच्छिद्य ३. धी विक्क्रम-साधनेन ( । ) नाद्यापि मोक्षं समुपेति येन स्व-वंश्य-पाशैरवपाशिता भूः ( ॥ ) [ ३ ] गोविन्दवख्यात-गुण-प्रभावो गोविन्दगुप्तोर्ज्जितनामधेयम् ( । ) वसुन्धरेश- ४. स्तनयं प्रजज्ञे स दित्यदित्योस्तनयैस्सरूपम् ( ॥ ) [ ४ ] यस्मिन्नृपैरस्तमित-प्रतापैश्शिरोभिरालिङ्गित-पादपद्मे। विचारदोलां विबुधाधिपोपि शंकापरीतः ५. समुपारुरोह ( ॥ ) [ ५ ] सेनापतिस्तस्य बभूव नाम्ना वाय्वादिना रक्षित-पश्चिमेन ( । ) यस्यारिसेनास्समुपेत्य सेनां न कस्यचिल्लोचनमार्ग्गमीयुः ( ॥ ) [ ६ ] ६. शौचानुराग-व्यवसाय-मेधादाक्ष्य-क्षमादगुणराशिमेकः ( । ) यशश्च यश्चन्द्रमरीचि-गौरं दधार धाराधर-धीर-घोषः ( ॥ ) [ ७ ] उदीच्य भूभृत्कुल-चन्द्रिकायां स राजपुत्र्यां ७. जनयां बभूव। नाम्नात्मजं दत्तभटं गुणानां कीर्त्तेश्च योभून्निलयः पितेव ( ॥ )  [ ८ ] दाने धनेशं धियि वाचि चेशं रतो स्मरं संयति पाशपाणिम् ( । ) यमर्त्थि- ८. विद्वत्प्रमदारिवर्गास्सम्भावयांचुक्क्रुरनेकधैकम् ( ॥ ) [ ९ ] गुप्तान्वयारि-द्रुम-धूम-केतुः प्रभाकरो भूमिपतिर्य्यमेनम् ( । ) स्वेषाम्बलानां बलदेववीर्य्यं गुणा- ९. नुरागादधिपं चकार ( ॥ ) [ १० ] चिकीर्षुणा प्रत्युपकार-लेशं तैनेष पित्रोः शुभयोग सिद्ध्ये। स्तूप-प्रपारामवरैरुपेतः कूपोर्ण्णवागाधजलो व्यखानि ( ॥ )  [ ११ ] यश्मि- १०. न्सुहृत्संगम-शीतलञ्च मनो मुनीनामिव निर्म्मलं च। वचो गुरुणामिव चाम्बु पत्थ्यं पेपीयमानः सुखमेति लोकः ( ॥ ) [ १२ ] शरन्निशानाथ-करामलायाः ११. विख्यायके मालववंशकीर्तेः। शरद्गणे पंचशते व्यतीते त्रि-घातिताष्टा-भ्यधिके क्कमेण ( ॥ )  [ १३ ] भृङ्गाङ्ग-भारालस-बाल-पद्मे काले प्रपन्ने रमणीय-साले। १२. गतासु देशान्तरित प्रियासु प्रियासु काम-ज्वलनाहुतित्वम् ( ॥ ) [ १४ ] नात्युष्ण-शीतानिल-कम्पितेषु प्रवृत्त-मत्तान्यमृत-स्वनेषु। प्रियाधरोष्ठारुण-पल्लवेषु १३. नवां वहत्सूपवनेषुकान्तिम् ( ॥ ) [ १५ ] यो धातुमात्रे हत-धातु-दोषः सर्व्व-क्रिया-सिद्धिमुवाच तस्य। कुन्देन्दु-शुभ्रोब्भ्र-विघृष्ट-यष्टिरयं कृतो धातुवरः स-कूपः॥ [ १६ ] १४. अनेक-सरिदंगनांग-परिभोग-नित्योत्सवो महार्ण्णव इवाम्बुनो निचय एष मा भूत्क्षयी। सुरासुर-नरोरगेन्द्र-महितोप्ययं धातुधृक्परैतु सम- १५. कालताममरभूधरार्केन्दुभिः ( ॥ ) [ १७ ] स्तूप-कूप-प्रपरामा ये चेते परिकीर्त्तिता ( । ) लोकोत्तर-विहारस्य सीम्नि तेभ्यन्तरीकृताः॥ [ १८ ] रविलस्य कृतिः। हिन्दी अनुवाद १. सिद्धम्। जन्म-मरण की निरन्तर चली आती परम्परा के कारण नाना प्रकार के दुःखों में डूबे हुए जगत् के उद्धार के लिये जिसने तीन पदोंवाले धर्म की स्थापना की और शान्ति प्राप्त की, उस सुगत (भगवान् बुद्ध) को नमस्कार। २. आकाश में चन्द्रमा के समान गुप्त वंश में श्री चन्द्रगुप्त नाम का एक राजा हुए जो नवोदित चन्द्रमा की तरह लोगों की आँखों को आकृष्ट करते रहे। ३. उसने अपने विक्रम और बुद्धि से [ अनेक ] राजाओं के राजतत्व को छीन लिया था, उसने अपने वंश के पाश में पृथिवी को बाँध रखा था, जिससे वह ( पृथ्वी ) अब तक मुक्त नहीं हो सकी है। ४. वह वसुन्धरेश ( राजा ) ( चन्द्रगुप्त ) अपने गुणों के कारण गोविन्द ( विष्णु ) के समान प्रख्यात था उसने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम गोविन्दगुप्त था जो दिति और अदिति के पुत्रों के समान था। ५. जिस समय राजा लोग अपनी शक्तिसे च्युत होकर उसके ( गोविन्दगुप्त के ) पाद-पद्मों में शिर झुकाते थे, उस समय देवताओं के स्वामी ( इन्द्र ) भी भयभीत होकर शंकाओं के झूले पर झूलने लगते थे। (अर्थात् यह सोचकर परेशान हो जाते थे कि कहीं वह राजा उसे भी सिंहासन से च्युत न कर दे)। ६. इस राजा के एक सेनापति था, जिसका नाम वायुरक्षित था। उसकी सेना को निकट आते देखकर शत्रु सेना भाग खड़ी होती थी। ७. उस ( सेनापति ) की ( कड़कती हुई ) आवाज मेघ गर्जन के समान थी; उसमें अनेक गुण थे, यथा— शौच, अनुराग, व्यवसाय, मेघा, दक्षता, क्षमा आदि उसे चन्द्र-किरणों के समान ख्याति भी प्राप्त थी। ८. उदीच्य राजवंश की चन्द्रिका के समान उसके एक पुत्र हुआ जिसका नाम दत्तभट्ट था। वह भी गुण और कीर्ति में अपने पिता के समान था। ९. धन चाहनेवाले उसकी दानशीलता के कारण उसे धनेश ( कुबेर ) समझते थे; विद्वत्वर्ग में वह अपनी बुद्धि के कारण बृहस्पति माना जाता था; रति ( कला ) के लिये वह युवतियों में कामदेव समझा जाता था। शत्रु लोग उसे युद्ध में यम कहते थे। १०. उस ( दत्तभट्ट ) को, जो बलदेव के समान बली था। उसके गुणों को देखकर, भूमिपति प्रभाकर ने, जो गुप्त वंश के शत्रुओं के लिये दावाग्नि समझा जाता था, अपनी सेना का अधिनायक नियुक्त किया। ११. इस ( दत्तभट्ट ) ने अपने पितरों के किंचित् मात्रा में प्रत्युपकारस्वरूप, एवं उनके शुभ योग ( स्वर्ग-सुख ) के निमित्त स्तूप, प्रपा, आराम सहित, जल से भरा हुआ एक कूप बनवाया। १२. उसके शीतल जल को पीकर लोग वैसे ही आनन्द का अनुभव करते हैं जैसा आनन्द प्रिय मित्रों के मिलने से मिलता है। [ उसका जल ] गुरु के वचन के समान निर्मल और बड़ों के कथन के समान गुरुत्वपूर्ण है। १३. शरद चन्द्र की निर्मल चाँदनी की तरह निर्मल मालव वंश की कीर्ति को जब ५२४ वर्ष बीत गये, [ तब ] १४. ऐसी ऋतु में, जब भौंरों के भार से नव-पद्म दबे होते हैं; शाल के वृक्ष रमणीय लगते हैं; जब देशान्तर गये प्रियतम के विरह के कारण पत्नियाँ काम ज्वाला में जलती रहती हैं; १५. जब न उष्ण और न शीतल वायु से कम्पित होते [ वृक्षों ] से बगीचे में नव-सौन्दर्य प्रस्फुटित होता है; जब कोयल अपनी मत्त करनेवाली वाणी आरम्भ करती होती है; जब प्रिया के अधर की तरह लाल दिखायी पड़नेवाली कोमल पत्तियाँ प्रस्फुरित होती हैं; १६. कूपसहित स्तूप का निर्माण [ उस बुद्ध की स्मृति में ] किया गया जिसने समस्त धातुओं

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ध्रुवस्वामिनी का मुद्रा अभिलेख ( Seal Inscription of Dhruvaswamini )

भूमिका १९०३-०४ ई० में बसाढ़ (प्राचीन वैशाली) जनपद वैशाली (बिहार) से पुरातात्विक उत्खनन में एक मुहर की मिट्टी की तीन छापें मिली थीं। ध्रुवस्वामिनी का मुद्रा अभिलेख आकार में अण्डाकार ढाई इंच लम्बी और पौने दो इंच चौड़ी रही होगी। छाप के अनुसार मुहर पर एक वामाभिमुख सिंह है; उसके नीचे एक पड़ी लकीर है। लकीर के नीचे चार पंक्तियों का लेख है। यह मुहर भारतीय संग्रहालय ,कोलकाता में है। इसे टी० ब्लाख ने प्रकाशित किया; बाद में भण्डारकर महोदय ने इसका विवेचन प्रस्तुत किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- ध्रुवस्वामिनी का मुद्रा अभिलेख ( Seal Inscription of Dhruvaswamini ) स्थान :- बसाढ़ ( प्राचीन वैशाली ), वैशाली जनपद, बिहार भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल ( ३७५ – ४१५ ई० ) विषय :- इसमें ध्रुवस्वामिनी का चन्द्रगुप्त द्वितीय की पत्नी होना, उनके गोविन्दगुप्त नामक एक अन्य पुत्र की जानकारी मिलती है। मूलपाठ १. महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त [ – ] २. पत्नी महाराज श्री गोविन्दगुप्त [ – ] ३. माता महादेवी श्री ध्रु [ – ] ४. वस्वामिनी [ । ] हिन्दी अनुवाद महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त [ – ] ( की ) पत्नी; महाराज श्री गोविन्दगुप्त [ – ] ( की ) माता महादेवी श्री ध्रुवस्वामिनी [ – ]। ऐतिहासिक महत्त्व इस मुहर से ज्ञात होता है कि ध्रुवस्वामिनी महाराजधिराज श्री चन्द्रगुप्त की पत्नी और महाराज श्री गोविन्दगुप्त की माता थी। ध्रुवस्वामिनी ने चन्द्रगुप्त की पत्नी होने की बात अनेक लेखों से पहले से ही ज्ञात थी। इस मुहर से ज्ञात होने से पूर्व कुमारगुप्त (प्रथम) के ही उनका पुत्र होने की बात ज्ञात थी। इस मुहर से पहली बार यह बात प्रकाश में आयी कि उसके गोविन्दगुप्त नामक एक पुत्र और भी थे। इस मुहर पर गोविन्दगुप्त का नाम होने से यह भी अनुमान होता है कि गोविन्दगुप्त उनके ज्येष्ठ पुत्र रहे होंगे। डी० आर० भण्डारकर ने इस मुद्रा के आधार पर गोविन्दगुप्त को युवराज और तिर-भुक्ति का प्रशासक होने की कल्पना प्रस्तुत की है। चन्द्रगुप्त द्वितीय का मथुरा स्तम्भलेख ( Mathura Pillar Inscription of Chandragupta II ) चन्द्रगुप्त द्वितीय का उदयगिरि गुहा अभिलेख ( प्रथम ) चन्द्रगुप्त द्वितीय का उदयगिरि गुहालेख ( द्वितीय ) चन्द्रगुप्त द्वितीय का साँची अभिलेख ( गुप्त सम्वत् – ९३ या ४१२ ई० ) चन्द्र का मेहरौली लौह स्तम्भ लेख हुंजा-घाटी के लघु शिलालेख ( गुप्तकालीन ) मथुरा खंडित लेख

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मथुरा खंडित लेख

भूमिका मथुरा खंडित लेख को १८५३ ई० में एलेक्जेंडर कनिंघम में खोज निकाला था।  उनको यह मथुरा नगर के कटरे के प्रवेश-द्वार के बाहर फर्श के रूप में प्रयुक्त एक तिकोने आकार का लाल रंग के पत्थर का टुकड़ा मिला था। यह प्रस्तर का टुकड़ा किसी बड़े चौकोर शिलाफलक का अंश है। उपलब्ध मथुरा खंडित लेख जिस टुकड़े पर अंकित है उसमें अभिलेख की १० पंक्तियों के अंश मात्र उपलब्ध हैं। प्रथम पंक्ति लगभग पूर्णरूप से नष्ट हो गयी है; इसी तरह नीचे का भाग भी अनुपलब्ध है। लुप्त भाग में कितनी पंक्तियाँ रही होंगी, यह बता पाना तनिक कठिन है। फ्लीट की धारणा है कि यह अभिलेख चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के शासनकाल काल का है; उसमें उसके द्वारा किये गये किसी कार्य का उल्लेख रहा होगा। इसका उल्लेख कनिंगहम ने पहले अपने तीन प्रकाशनों किया था; बाद में विधिवत् सम्पादन फ्लीट ने किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- मथुरा खंडित लेख [ Mathura Fragmentary Inscription ] स्थान :- मथुरा, उत्तर प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्तकाल ( सम्भवतः चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल; ३७५ – ४१५ ई० ) विषय :- गुप्त राजवंश की वंशावली का विवरण प्राप्त होती है। मूलपाठ १. ….. [ सर्व्व-राजोच्छेतुः पृथिव् ] यामप्रतिरथ- २. [ स्य चतुरुदधिसलि ] लास्वादित [ यशसो ध ] ३. [ निद-वरुणेन्द्रान्तक स ] मस्य कृतान्त [ परशोः ] ४. [ न्यायागतनेकगो ] – हिरण्य कोटि प्रद [ स्य चिरो ] – ५. [ त्सन्नाश्वमेधाहर्त्तुम्म ] हाराजश्रीगुप्तप्रपौ [ त्रस्य ] – ६. [ महाराज श्रीघटोत्क ] च पौत्रस्य महाराजाधिर [ ज ] – ७. [ श्री चन्द्रगुप्तपु ] त्रस्य लिच्छविदौहित्रस्य महा [ दे ] – ८. [ व्यां कुमार ] देव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिरा – ९. [ ज श्री स ] मुद्रगुप्तस्य पुत्रेण१ त्परिगृ – १०. [ ही ] तेन महादेव् [ य ]ां द [ त्त ] देव् [ य ] मुत् [ प ]न् [ ने ] – ११. [ न परमभागवतेन महाराजाधिराज श्री ] १२. [ चन्द्रगुप्तेन ] …….. विलसड़ स्तम्भलेख के आधार पर इसे पुत्रस्य पढ़ा गया है।१ हिन्दी अनुवाद ……… सब राजाओं के उन्मूलक पृथ्वी पर अप्रतिरथ ( जिसके समान पृथ्वी पर अन्य कोई न हो ), चारों समुद्र के जल से आस्वादित कीर्तिवाले, कुबेर ( धनद ), वरुण, इन्द्र और यम ( अन्तक )के समान कृतान्त के परशु-तुल्य, न्याय से उपलब्ध अनेक गाय और कोटि हिरण्य ( सिक्के ) के दानदाता चिरोत्सन्न-अश्वमेधकर्ता महाराज श्रीगुप्त के प्रपौत्र, महाराज श्री घटोत्कचगुप्त के पौत्र, महाराज श्री चन्द्रगुप्त के पुत्र, लिच्छवि-दौहित्र महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त के पुत्र और उसके ( समुद्रगुप्त ) द्वारा चुना गये, महादेवी दत्तदेवी से उत्पन्न, परमभागवत महाराजाधिराज श्री ( चन्द्रगुप्त के द्वारा ) ….. टिप्पणी मथुरा खण्डित लेख का पाठन फ्लीट ने अन्य अभिलेखों के आधार पर, जिनमें गुप्त वंश का परिचय दिया गया है, अनुमानतः किया है। इस प्रकार का अद्यतम अभिलेख जो फ्लीट को ज्ञात था वह कुमारगुप्त प्रथम का ‘बिलसड़ अभिलेख’ है। परन्तु उसकी आरम्भिक पंक्तियों का पूर्वांश खण्डित रहा है इसके पश्चात् का दूसरा अभिलेख, जिसमें वंश-परिचय है, बिहार अभिलेख है, जिसे उन्होंने स्कन्दगुप्त का अनुमान किया था। परन्तु इस अभिलेख का भी पूर्वांश खण्डित है। वंश-परिचय देने वाला तीसरा अभिलेख ‘भितरी स्तम्भ लेख’ है। इसमें सर्वप्रथम वंश-परिचय वाला अंश अक्षुण्ण रूप में प्राप्त होता है। अतः कहा जा सकता है कि फ्लीट ने प्रस्तुत खण्डित लेख के पूर्ण रूप का अनुमान इसी लेख के आधार पर किया होगा। परन्तु पंक्ति संख्या ११-१२ का जो अनुमानित रूप उन्होंने दिया है वह स्कन्दगुप्त के लेख की पंक्तियों से, जो पीछे चल कर अनेक मुहरों पर असंदिग्ध भाव से वंश-परिचय का स्थायी प्रारूप बन गया था, तनिक भिन्न है। मथुरा खंडित लेख का निचला भाग अनुपलब्ध है और दसवीं पंक्ति के अक्षर टूटे हैं। फ्लीट ने अनुमान के सहारे दसवीं-ग्यारहवीं पंक्तियों को प्रस्तुत करते हुए यह अनुमान प्रस्तुत किया है कि लेख चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के शासनकाल का है; उनके नाम के आगे किसी उत्तराधिकारी का उल्लेख न रहा होगा। उनके इस अनुमान का आधार पंक्ति संख्या ६ है इस पंक्ति में सम्बन्ध-कारक विभक्ति-युक्त समुद्रगुप्त के उल्लेख समुद्रगुप्तस्य के आगे तत्काल करण-कारक पुत्रेण का प्रयोग हुआ है, जो उनके मतानुसार यह स्पष्ट करता है कि यह वंशावली समुद्रगुप्त के पुत्र एवं मनोनीत उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त (द्वितीय) तक, जिनका नाम आगे की पंक्ति में रहा होगा, पहुँच कर समाप्त हो गयी होगी। अनुपलब्ध अंश में इस वंश परिचय के बाद इस अभिलेख का प्रयोजन रहा होगा। यह प्रयोजन चन्द्रगुप्त (द्वितीय) द्वारा ही सम्पादित हुआ होगा, ऐसा फ्लीट की धारणा है। फ्लीट १२वीं पंक्ति में ‘चन्द्रगुप्तेन’ पाठ होने का अनुमान किया है। किन्तु कुमारगुप्त (प्रथम) के काल के बिलसड़ अभिलेख के आधार पर यह सम्भावना भी प्रकट की जा सकती है कि १२वीं पंक्ति का पाठ चन्द्रगुप्तः रहा होगा और आगे नये वाक्य में प्रयोजन की चर्चा रही होगी। यह भी सम्भव है कि १२वीं पंक्ति में ‘चन्द्रगुप्तस्यभिवर्धमान विजयराज्य संवत्सरे’ वाक्य के साथ काल के उल्लेख के बाद, जैसा कि बिलसड़ अभिलेख में है, प्रयोजन की चर्चा की गयी रही हो। किन्तु प्रयाग प्रशस्ति में वंश चर्चा का जो रूप है और समुद्रगुप्त का परिचय जिस रूप में दिया गया है उसे देखते हुए इस अभिलेख के चन्द्रगुप्त कालीन होने में  तनिक सन्देह है। अधिक सम्भावना यही है कि वह परवर्ती काल के ही किसी शासक का होगा। इसे कहाँ रखा जाय इसका निर्णय न कर सकने के कारण फ्लीट का अनुसरण करके इसे विद्वानों ने चन्द्रगुप्त द्वितीय का माना है। चन्द्रगुप्त द्वितीय का मथुरा स्तम्भलेख ( Mathura Pillar Inscription of Chandragupta II ) चन्द्रगुप्त द्वितीय का उदयगिरि गुहा अभिलेख ( प्रथम ) चन्द्रगुप्त द्वितीय का उदयगिरि गुहालेख ( द्वितीय ) चन्द्रगुप्त द्वितीय का साँची अभिलेख ( गुप्त सम्वत् – ९३ या ४१२ ई० ) चन्द्र का मेहरौली लौह स्तम्भ लेख हुंजा-घाटी के लघु शिलालेख ( गुप्तकालीन )

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हुंजा-घाटी के लघु शिलालेख ( गुप्तकालीन )

भूमिका हुंजा-घाटी के लघु शिलालेख गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि और संस्कृत भाषा में हैं। इससे ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र गुप्त-शासकों का प्रभाव था। सिन्धुनद के काँठे के उत्तरी भाग में काराकोरम पर्वत शृंखला में स्थित दर्रे से होकर गिलगिट की ओर जाने वाले प्राचीन मार्ग को पाकिस्तान और चीन ने मिल कर एक नये बड़े मार्ग का रूप दिया है। जब १९७९ ई० में यह मार्ग यातायात के लिये खुला तब पाकिस्तान के पुरातत्वविद् अहमद हसन दानी* और हाइडलबर्ग (पश्चिमी जर्मनी) विश्वविद्यालय के कार्ल जेटमर ने हुंजा-घाटी (गिलगित-बाल्तिस्तान) के पुरावशेष का सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में उन्हें हुंजा वाले प्रदेश में घुसने से पहले ही गोरवाले प्रदेश के निकट स्थित चिलास और इसके आस-पास चट्टानों पर अनेक खचित रेखा चित्र और खोतानी, खरोष्ठी और ब्राह्मी लिपि में अंकित अनेक लघु-लेख प्राप्त हुए हैं। खरोष्ठी लिपि के लेखों में विभवदाकिस, कनिष्क द्रविष्क के नाम बताये जाते हैं। ब्राह्मी लिपि में अंकित लेख लगभग ६०-७० हैं जिन्हें उन्होंने प्रकाशित किया है। उनमें से यहाँ कुछ अभिलेख ही प्रस्तुत हैं। Ahmad Hassan Dani, Journal of Central Asia, 8 / 2 (December 1985) ५-१२४।* संक्षिप्त परिचय नाम :- हुंजा-घाटी के लघु शिलालेख या हुंजा काँठे के लघु शिलालेख [ Minor Rock-Edicts of Hunza-Valley ] स्थान :- चिल्लास, गोरवाले प्रदेश के निकट, गिरगिट-बाल्तिस्तान, लद्दाख संघ राज्य क्षेत्र, भारत ( वर्तमान में यह क्षेत्र अनधिकृत रूप से पाकिस्तान के कब्जे में है )। भाषा :- संस्कृत लिपि :- गुप्तकालीन ब्राह्मी समय :- गुप्तकाल विषय :- चन्द्रगुप्त द्वितीय, हरिषेण आदि का उल्लेख। मूलपाठ ( १ ) सं… श्री विक्रमादित्य जयति श्रीचन्द्र ( २ ) विक्रमादि[त्य] ( ३-४ ) श्री चन्द्र ( ५ ) हरिषेण इह [ध] मचकं प्रतिष्ठित[म्] ( ६ ) हरि[षेण] इह ( ७ ) चन्द्र श्री देवस्य ( ८ ) श्री चन्द्रस्य ( ९ ) सिंह-संपाप्त चन्द्र श्री देव विक्रमादित्य ( १० ) संवतसरे १००  ४०  [३] देव श्री [चन्द्र] ( ११ ) श्री देव च न्द्र [प्राप्त] ( १२ ) संवत स- सोम श्री देव प्राप्त ( १३ ) संवतसर शते चत्व[रिंशत] श्री देवचन्द्र- सं० १०० ४० ३ [सि] संप्राप्त ( १४ ) [सं १०० ४० ३] श्री विक्रमादित्य जयति श्री चन्द्र ( १५ ) संवतसरे १०० ४०- हरिषेण [चकं] प्रतिष्ठिपितं ( १६ ) हरिषेण [संप्राप्त इह चकं] ( १७ ) श्री चन्द्र देवस्य ( १८ ) सं – – – देव श्रीचन्द्र चकं इह सम्प्राप्त हरिषेण ( १९ ) श्रीदेव च न्द्र [प्राप्त] टिप्पणी इन अभिलेखों में श्री चन्द्र, श्री विक्रमादित्य, श्री देवचन्द्र विक्रमादित्य आदि जो नाम पढ़े गये हैं, उनमें चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के नाम की स्पष्ट झलक मिलती है। चन्द्र और विक्रमादित्य तो चन्द्रगुप्त द्वितीय स्पष्ट नाम और विरुद हैं ही। उनके लिये देव का प्रयोग भी उसके अपने कतिपय सिक्कों पर हुआ है ‘श्री देव देव महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त‘ में देखा जा सकता है। अभिलेख १४ में उल्लिखित ‘श्री विक्रमादित्य जयति‘ तो अविकल रूप से सिक्कों के लेख की अनुकृति है। साथ ही उल्लेखनीय यह भी है कि इन अभिलेखों के क्रम में ही कई लेखों में हरिषेण का भी नाम है। हरिषेण नाम प्रयाग प्रशस्ति के लेखक का भी है। वह समुद्रगुप्त के काल में सन्धि-विग्रहिक थे। गुप्त-कालीन इन व्यक्तियों का जो लगभग समकालिक रहे हैं, एक साथ एक ही लेख में (लेख १८) मिलना मात्र आकस्मिक या संयोग कह कर उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती यह अनुमान करना ही होगा कि चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने इस ओर कोई अभियान किया था उसके साथ ही हरिषेण भी, जो उस समय तक जीवित रहा होगा, सन्धि-विग्रहिक के रूप में आये रहे होंगे। कुछ में तो उसके द्वारा धर्मचक्र की स्थापना की भी बात कही गयी है। उसने इन्हें स्वयं अंकित कराया होगा चन्द्रगुप्त के नाम के लेख भी यदि उसने नहीं तो उसके साथ आये किसी अन्य व्यक्ति ने अंकित किया है जिसने अपने को सह सम्प्राप्त (नैकट्य प्राप्त करने वाला साथी) कहा है। इन अभिलेखों के चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के होने की सम्भावना को नकारते हुए उनमें पढ़े गये तिथि १४३ की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है और कहा गया है कि इस तिथि की संगति किसी रूप में किसी ज्ञात सम्वत् के आधार पर चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के काल (३७६-४३४ ई०) से नहीं बैठती और ये अभिलेख उससे सम्बन्धित है जो इस प्रदेश के शासक थे। उनकी भी उपाधि विक्रमादित्य थी। पटोल शासकों के सम्बन्ध की जानकारी हमें विशेष रूप में तो नहीं है। हम इतना ही जानते हैं कि विदेशी पुरातत्त्वविदों के एक दल ने १९३१ ई० में गिलगिट की ओर एक अभियान किया था। उस समय उन्हें गिलगिट से सटे हुए नौपुर नामक स्थान में एक वास्तु उपलब्ध हुआ था जिसका वाह्य रूप स्तूप सरीखा था उसके भीतर के दो कमरों में उन्हें भूर्ज-पत्र पर लिखे अनेक ग्रन्थ प्राप्त हुए। इन ग्रन्थों को उन्होंने गिलगिट पाण्डुलिपियाँ ( Gilgit Manuscripts ) का नाम दिया है। इन ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि उन्हें पटोल वंश के शासकों ने लिखवाया था उनमें दिये हुए नामों से उनके छः राजाओं और उनकी रानियों तथा कतिपय राज-पुरुषों की जानकारी हुई। लिपि के आधार पर ये ग्रन्थ सातवीं-आठवीं शती ई० के अनुमान किये जाते हैं। इस पटोल शासकों का भी समय यही कहा जाता है। उपर्युक्त अभिलेखों को इसी समय का ठहराने के लिये यह प्रतिपादित किया गया है कि — (१) पाँचवीं शती के गुप्त लिपि से गंगा-काँठे में मौखरि और हर्षवर्धन के समय अर्थात् सातवीं शती के बाद जो लिपि विकसित हुई थी उससे ही इन लेखों की लिपि अनुप्राणित है; (२) इन अभिलेखों में दी गयी १४३ की तिथि हर्ष-संवत् में है इस प्रकार वे ७४६ ई० के हैं। इन अभिलेखों को आठवीं शती ई० का बताने के लिये अभिलेख में अंकित लिपि की मात्राओं को आधार बनाया गया है। किन्तु डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त को इन अभिलेखों के गुप्तोत्तर कालीन होने का कोई लक्षण दिखायी नहीं देता है। गुप्त जी की दृष्टि में वे चौथी-पाँचवीं शती ई० के बाद के कदापि नहीं हो सकते। मात्राओं की अपेक्षा अक्षर पर ध्यान देकर ही लिपि के आधार पर किसी काल का निर्णय किया जा सकता है और किसी अक्षर की विशेषता पर ध्यान देकर ही उसके काल की ठीक पकड़ हो सकती है। इस दृष्टि से अभिलेख संख्या ९ की

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चन्द्र का मेहरौली लौह स्तम्भ लेख

परिचय मेहरौली लौह स्तम्भ लेख संघ राज्य क्षेत्र दिल्ली के दक्षिण दिल्ली जनपद के मेहरौली नामक गाँव से प्राप्त हुआ है। यह लौह स्तम्भ कुतुबमीनार के निकट स्थापित है। इसी लौह स्तम्भ पर ‘चन्द्र’ का अभिलेख अंकित है। चन्द्र का पहचान ‘चन्द्रगुप्त द्वितीय’ से की गयी है। मेहरौली लौह स्तम्भ के तल का व्यास सोलह इंच और सिरे का व्यास बारह इंच और ऊँचाई २३ फुट ८ इंच है। इस लौह स्तम्भ पर लेख पत्थर के बने चबूतरे से सात फुट दो इंच ऊपर २ फुट ९ १/३ इंच चौड़े और १० १/३ इंच ऊँचे घेरे के बीच अंकित है। १८३४ ई० में पहली बार जेम्स प्रिन्सेप महोदय ने इस लेख की लेफ्टिनेण्ट डब्लू० ईलियट द्वारा १८३१ ई० में तैयार की गयी नकल ( प्रतिलिपि ) प्रकाशित की थी। तदनन्तर १८३८ ई० में कैप्टेन टी० ए० बर्ट द्वारा प्रस्तुत छाप के आधार पर उन्होंने इसका अपना तैयार किया पाठ और अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया। १८७१ ई० में भाऊ दाजी ने इसका एक संशोधित पाठ और अपना अनुवाद रायल एशियाटिक सोसाइटी की बम्बई शाखा के सम्मुख उपस्थित किया जो चार वर्ष पश्चात् १८७५ ई० में प्रकाशित हुआ। तदनन्तर फ्लीट ने इसका सम्पादन किया इस लेख के सम्बन्ध में अनेक लेखकों ने समय समय पर अपने विचार प्रकट किये हैं। संक्षिप्त परिचय नाम :- चन्द्र का मेहरौली लौह स्तम्भ लेख [ Mehrauli Iron Pillar Inscription of Chandra ] स्थान :- मेहरौली गाँव, दक्षिण दिल्ली जनपद; संघ राज्य क्षेत्र दिल्ली। भाषा :- संस्कृत। लिपि :- ब्राह्मी। समय :- चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल ( ३७५ – ४१५ ई० )। विषय :- चन्द्रगुप्त द्वितीय की उपलब्धियों का विवरण। मूलपाठ १. यस्योद्वर्त्तयतः प्रतीपमुरसा शत्रून्समेत्यागतान्वंगेष्वाव-वर्त्तिनो(ऽ) भिलिखिता खड्गेन कीर्त्तिर्भुजे [ । ] २. तीर्त्वा सप्त मुखानि येन समरे सिन्धोर्ज्जिता वाह्लिका यस्याद्याप्यधिवास्यते जलनिधिर्व्वीर्य्यानिलैर्द्दक्षिणः [ ॥ १ ] ३. खिन्नस्येव विसृज्य गां नरपतेर्ग्गमाश्रितस्येतरां मूर्त्या कर्म्मंजिताबनिं गतवतः कीर्त्या स्थितस्य क्षितौ [ । ] ४. शान्तस्येव महावने हुतभुजो यस्य प्रतापो महान्नाद्याप्युत्सृजति प्रणाशित-रिपोर्य्यलस्य शेषः क्षितम् [ ॥ २ ] ५. प्राप्तेन स्व-भुजार्ज्जितंच सुचिरंचैकाधिराज्यं क्षितो चन्द्रास्वेन समग्रचन्द्र-सदृशीं वक्त्र-श्रियं विभ्रता [ । ] ६. तेनायं प्रणिधाय भूमि-पतिना भावेन विर्ष्णो मतिं प्रान्शुर्विष्णुपदे गिरौ भगवतो विष्णोर्ध्वजः स्थापितः [ ॥ ३ ] हिन्दी अनुवाद १. बंगदेश में संघटित रूप से अपने विरुद्ध आये हुए शत्रुओं को अपने वक्ष द्वारा पीछे की ओर ढकेलते समय तलवार द्वारा जिसकी भुजा पर कीर्ति अंकित हुई है; २. जिसने सिन्धु के सात मुखों को पार कर [ युद्ध में ] बाह्लीकों को जीता; जिसके शौर्यानिल से दक्षिणी समुद्र अब तक सुवासित है; ३. जो राज्य खिन्न ( विरक्त ) होकर पृथ्वी ( गो ) को त्याग कर अन्यत्र चला गया; जिसने अपने कर्म ( शौर्य ) से पृथ्वी को जीत लिया, जो पृथ्वी पर रहते हुए भी अपनी कीर्ति से ( स्वर्ग तक ) जा पहुँचा; ४. जिसका विशाल वन में शान्त हुई दावाग्नि के समान, आज भी शत्रुओं को विनष्ट करने वाले प्रयासों की स्मृति स्वरूप प्रताप इस पृथिवी का त्याग नहीं कर सकी है; ५-६. जिसने इस वसुन्धरा पर अपने भुज-बल से उपार्जित एकाधिराज्य ( एकछत्र राज्य ) का बहुत दिनों तक उपभोग किया, उस चन्द्र तुल्य मुख-श्री धारण करने वाले ‘चन्द्र’ नाम से प्रख्यात, शुद्ध हृदय वाले राजा ने विष्णु भगवान में श्रद्धा प्रकट कर विष्णुपद नामक पर्वत पर भगवान् विष्णु के इस उन्नत ध्वज की स्थापना की। टिप्पणी मेहरौली लौह स्तम्भ लेख में ‘चन्द्र’ नामक राजा की उपलब्धियों का वर्णन तीन श्लोकों में किया गया है जिसका सारांश इस प्रकार है : ‘जिसने बङ्गाल के युद्ध-क्षेत्र में मिलकर आये हुये अपने शत्रुओं के एक संघ को पराजित किया था, जिसकी भुजाओं पर तलवार द्वारा उसका यश लिखा गया था, जिसने सिन्धु नदी के सातों मुखों को पार कर युद्ध में बाह्लीकों को जीता था, जिसके प्रताप के सौरभ से दक्षिण का समुद्रतट अब भी सुवासित हो रहा था।’ अभिलेख के अनुसार जिस समय यह लिखा गया चन्द्र की मृत्यु हो चुकी थी, किन्तु ‘उसकी कीर्ति इस पृथ्वी पर फैली हुई थी।’ ‘उसने अपने बाहुबल से राज्य को प्राप्त किया था और चिरकाल तक शासन किया।’ ‘भगवान विष्णु के प्रति श्रद्धा के कारण विष्णुपद नामक पर्वत पर उसने विष्णुध्वज की स्थापना की थी।’ मेहरौली लौह स्तम्भ लेख के सम्बन्ध में निम्न समस्याएँ हैं : इसमें कोई तिथि अंकित नहीं है। राजा का पूरा नाम नहीं मिलता है। इसमें राजा की कोई वंशावली नहीं दी गयी है। फलस्वरूप इस राजा के समीकरण के प्रश्न पर विद्वानों में गहरा मतभेद रहा है। प्राचीन भारतीय इतिहास में चन्द्रगुप्त मौर्य से लेकर चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य तक ‘चन्द्र’ नामधारी जितने भी शासक हुये हैं उन सबके साथ मेहरौली लेख के चन्द्र का समीकरण स्थापित करने का विद्वानों ने अलग-अलग प्रयास किया है। एच० सी० सेठ इस चन्द्र की पहचान चन्द्रगुप्त मौर्य से करते हैं परन्तु चन्द्रगुप्त मौर्य वैष्णव मतानुयायी नहीं थे। इस लेख की लिपि भी गुप्तकाल की है। रायचौधरी ने इस राजा की पहचान पुराणों में वर्णित नागवंशी शासक ‘चन्द्रांश’ से किया है किन्तु चन्द्रांश कोई इतना प्रतापी राजा नहीं था जो मेहरौली के चन्द्र की उपलब्धियों का श्रेय प्राप्त कर सके। हर प्रसाद शास्त्री ने इस राजा को सुसुनिया (प० बंगाल) के लेख का ‘चन्द्रवर्मा’ बताया है किन्तु यह समीकरण भी मान्य नहीं है क्योंकि चन्द्रवर्मा एक अत्यन्त साधारण राजा था जिसे समुद्रगुप्त ने बड़ी आसानी से उन्मूलित कर दिया था। रमेशचन्द्र मजूमदार के मतानुसार मेहरौली के लेख का ‘चन्द्र’ कुषाण नरेश ‘कनिष्क’ के साथ समीकृत किया जाना चाहिए क्योंकि उसी का बल्ख पर अधिकार था तथा खोतानी पाण्डुलिपि में उसे ‘चन्द्र कनिष्क’ कहा गया है। परन्तु हम जानते हैं कि कनिष्क बौद्ध मतानुयायी थे तथा उसके राज्य का विस्तार दक्षिण में नहीं था। अतः यह समीकरण भी मान्य नहीं हो सकता। इसी प्रकार फ्लीट, आयंगर, बसाक जैसे कुछ विद्वानों ने ‘चन्द्र’ को ‘चन्द्रगुप्त प्रथम’ बताया है। किन्तु यह भी असंगत है क्योंकि चन्द्रगुप्त प्रथम का राज्य विस्तार अत्यन्त संकुचित था। पुनश्च बंगाल अथवा दक्षिण की ओर उसका कोई प्रभाव नहीं था। कुछ विद्वानों ने ‘चन्द्र’ की पहचान ‘समुद्रगुप्त’ से कर डाली है।* परन्तु समुद्रगुप्त के साथ पहचान के विरुद्ध सबसे बड़ी आपत्ति तो यही है कि इस लेख में अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख नहीं मिलता जबकि यह मरणोत्तर है। पुनश्च समुद्रगुप्त का एक नाम ‘चन्द्र’ रहा हो, इसका भी कोई

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चन्द्रगुप्त द्वितीय का साँची अभिलेख ( गुप्त सम्वत् – ९३ या ४१२ ई० )

परिचय यह अभिलेख साँची (विदिशा, मध्यप्रदेश) स्थित बड़े स्तूप की वेदिका पर बाहर की ओर २” फुट x ९” फुट की प्रस्तर शिला पर अंकित है। साँची अभिलेख की ओर १८३४ ई० में बी० एच० हाग्सन ने ध्यान आकृष्ट किया। १८३७ ई० में कैप्टेन एडवर्ड स्मिथ द्वारा प्रस्तुत छाप के आधार पर जेम्स प्रिंसेप ने इसका पाठ प्रस्तुत किया। तत्पश्चात् फ्लीट महोदय ने इसका सम्पादन किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- चन्द्रगुप्त द्वितीय का साँची अभिलेख [ Sanchi Inscription of Chandragupta – II ]; चन्द्रगुप्त द्वितीय का साँची प्रस्तर अभिलेख [ Sanchi Stone Inscription of Chandragupta – II ]। स्थान :- साँची, रायसेन जनपद; मध्य प्रदेश। भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- ९३ गुप्त सम्वत् अर्थात् ४१२ ई०। चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल। विषय :- चन्द्रगुप्त द्वितीय के सेनापति आर्म्रकार्दव द्वारा कोकनादवोट के बौद्ध संघ को ईश्वरवासक ग्राम और २५ दीनार का दान जिससे कि भिक्षुओं के भोजन और प्रकाश की व्यवस्था की जा सके। मूलपाठ १. [ सिद्धम् ॥ ] का [ कना ] दबोट-श्रीमहाविहारे शील-समाधि प्रज्ञा-गुण भवितेन्द्रियाय परम-पुण्य- २. क्षे [ त्र ] [ त ] ताय चतुर्द्दिगभ्यागताय श्रमण-पुङ्गवासयायार्य्य सङ्घाय महाराजाधि- ३. रा [ ज-श्री ] चन्द्रगुप्त-पाद-प्रसादाप्यायित-जीवित-साधनः अनुजीवि-सत्पुरुष-सद्भाव- ४. वृ [ त्यर्थ ] जगति प्रख्यापयन् अनेक-समरावाप्त-विजय-यशस्पताकः सुकुलिदेश-न ५. ष्टी ……. वास्तव्य उन्दान-पुत्राम्रकार्द्दवो मज-शरभङ्गाप्ररात-राजकुल मूल्य-क्री- ६. तं [ देयधर्म्म ] ईश्वरवासकं पञ्च-मण्डल्यां प्रणिपत्य ददाति पञ्चविंशतिश्च दीना- ७. रान् … [ ॥ ] यादर्द्धेन महाराजाधिराज-श्रीचन्द्रगुप्तस्य देवराज इति प्रि- ८. य-ना [ म्नः ] ……. [ ये ] तस्य सर्व्व-गुण-संपत्तये यावच्चन्द्रादित्यौ तावत्पञ्च भिक्षवो भुंज- ९. तां र [ त्न ] -गृ [ हे ] [ च ] [ दीप ] को ज्वलतु [ I ] मम चापरार्द्धत्पञ्चैव भिक्षवो भुंजता रत्न-गृहे च १०. दीपक इ [ ति ] [ ॥ ] [ त ] देतत्प्रवृतं य उच्छिन्द्यात्स गो-ब्रह्म-हत्यया संयुक्ते भवेत्पञ्चभिश्चान- ११. न्तर्य्यैरिति [ । ] सं ९० (+) ३ भाद्रपद-दि ४ [ । ] हिन्दी अनुवाद सिद्धम्। सुकुलि देशान्तर्गत ….. नष्टी नामक नगर के निवासी उन्दान के पुत्र अम्रकार्देव ने, — जिसका जीवन-साघन महाराज श्री चन्द्रगुप्त के चरणों के प्रसाद से सुगम हो गया है; जो [ राजा के ] अनुजीवी ( अनुवर्ती ) सज्जन पुरुषों के सद्भावों को सम्पूर्ण जगत में प्रख्यात करने वाला है; जिसने अनेक युद्धों में विजय रूपी यश का पताका फहराया है — राजकुल के मण, शरभंग और अम्ररात को मूल्य देकर [ जिस भूमि को ] क्रय किया है और जिसके लिये ईश्वरवासक के पंचमण्डली से निवेदन ( प्रणिपात ) करके पच्चीस दीनार मूल्य दिया है, [ उस भूमि को ] काकनादबोट महाविहार में चारों ओर से आकर रहने वाले शील, समाधि, प्रज्ञा आदि गुणों से इन्द्रियों का दमन कर चुके श्रेष्ठ श्रमणों के संघ को [ वह ] दान कर रहा है। इसके द्वारा दी गयी [ भूमि की जो आय हो ] उसकी आधी आय से जब तक चन्द्र-सूर्य रहें तब तक पाँच भिक्षुओं को भोजन कराया जाय और रत्न-गृह में दीप जलाया जाय ताकि समस्त पुण्य देवराज प्रियनाम वाले महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त ( द्वितीय ) को मिले। शेष आधी आय से, मेरी ओर से भी पाँच भिक्षुओं को भोजन कराया जाय और रत्न-गृह में दीप जलाया जाय। जो कोई इस व्यवस्था में बाधा डालेगा, वह गो-हत्या, ब्राह्मण-हत्या के साथ साथ पंच पापों के दोष का भागी होगा। वर्ष ९३ भाद्रपद, दिवस ४ । महत्त्व चन्द्रगुप्त द्वितीय का साँची अभिलेख भी उदयगिरि गुहा अभिलेख प्रथम और द्वितीय के समान गुप्त सम्राट के अनुसेवक द्वारा दिये गये दान की विज्ञप्ति है। इस विज्ञप्ति का प्रस्तुत अनुवाद फ्लीट कृत अनुवाद से सर्वथा भिन्न है। उन्होंने पंक्ति ५ में आये मूल्य शब्द का अर्थ मूल-धन किया है और उसे अक्षय-निवि का समरूप शब्द माना है तथा पंक्ति ७ के नष्ट अंश में दीनारों के ब्याज से सरीखे भाव की कल्पना की है। उन्होंने यह कल्पना (गुप्त) वर्ष १३१ के साँची से प्राप्त एक अन्य लेख (साँची प्रस्तर अभिलेख, गुप्त सम्वत् १३१ ) की पंक्ति संख्या ३ में आये ‘अक्षय-नीविदत्ता दीनारा द्वादश‘ के आधार पर की है। परन्तु फ्लीट महोदय का अनुवाद मज, शरभंग तथा अग्ररात के नीवि-दान से खरीदा गया कोई अर्थ नहीं रखता। किसी नीवि दान से कोई वस्तु खरीदी नहीं जा सकती। मूल्य का तात्पर्य सीधे-सादे ढंग से दाम से है। उन लोगों को दाम देकर अम्रकार्दव ने भूमि क्रय की थी और उसे उसने काकनादबोट बिहार के भिक्षु संघ को एक निश्चित प्रयोजन के लिये दान दिया। कुमारगुप्त (प्रथम) के दामोदरपुर ताम्रलेखों में भूमि क्रय करके दान देने के स्पष्ट उल्लेख हैं। उनके परिप्रेक्ष्य में इसे सहज समझा जा सकता है। भूमि क्रय की बात को ध्यान में रखकर उसके सन्दर्भ में ही पंक्ति संख्या ७ के नष्ट अंश की पूर्ति की जानी चाहिये। इस विज्ञप्ति में भूमि से होने वाली आय को दो भागों में बाँटा गया है और आय के इन दोनों ही भागों से पाँच-पाँच भिक्षुओं को भोजन कराने और रत्नगृह में दीपक जलाने की व्यवस्था की गयी है। सीधे-सीधे ढंग से कहा जा सकता है कि दस भिक्षुओं को भोजन कराने तथा रत्नगृह में दो दीपक जलाये जाने की बात कही गयी है। परन्तु अलग-अलग व्यवस्था करने का अभिप्राय विशेष है। आधी आय को दाता अपना नहीं मानता। उसके व्यय की व्यवस्था उसने अपने स्वामी चन्द्रगुप्त ( द्वितीय ) के पुण्य-कर्म के निमित्त किया है। शेष आधी आय को ही वह अपना कहता है। अपने इस आधे भाग के दान के परिणामस्वरूप अपने लिये किसी प्रकार के प्रतिफल की इच्छा दाता ने नहीं की है। इस प्रकार दाता ने निष्काम भाव से यह दान दिया था। रत्न-गृह से, जहाँ दीप जलाये जाने की व्यवस्था है, जिसका तात्पर्य त्रिरत्न — बुद्ध, धर्म और संघ से लिया जा सकता है और इसी भाव में फ्लीट महोदय ने उसे ग्रहण कर उसे स्तूप का पर्याय माना है; परन्तु एक अन्य दृष्टि से रत्न-गृह का तात्पर्य यहाँ भगवान बुद्ध की मूर्ति प्रतिष्ठित मन्दिर के गर्भ गृह से भी हो सकता है। शासन-व्यवस्था की दृष्टि से अभिलेख में आये पंच-मण्डली और राज-कुल शब्द दृष्टव्य हैं। पंच-मण्डली शब्द से अनुमान किया जाता है कि वह आधुनिक पंचायत सरीखी संस्था रही होगी। इस प्रसंग में कुमारगुप्त (प्रथम) कालीन दामोदरपुर ताम्र-लेखों पर ध्यान देना उचित होगा जिसमें भूमि क्रय के प्रसंग में पाँच व्यक्तियों — नगर-श्रेष्ठि, सार्थवाह, प्रथम

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