हुंजा-घाटी के लघु शिलालेख ( गुप्तकालीन )

भूमिका

हुंजा-घाटी के लघु शिलालेख गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि और संस्कृत भाषा में हैं। इससे ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र गुप्त-शासकों का प्रभाव था। सिन्धुनद के काँठे के उत्तरी भाग में काराकोरम पर्वत शृंखला में स्थित दर्रे से होकर गिलगिट की ओर जाने वाले प्राचीन मार्ग को पाकिस्तान और चीन ने मिल कर एक नये बड़े मार्ग का रूप दिया है। जब १९७९ ई० में यह मार्ग यातायात के लिये खुला तब पाकिस्तान के पुरातत्वविद् अहमद हसन दानी* और हाइडलबर्ग (पश्चिमी जर्मनी) विश्वविद्यालय के कार्ल जेटमर ने हुंजा-घाटी (गिलगित-बाल्तिस्तान) के पुरावशेष का सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में उन्हें हुंजा वाले प्रदेश में घुसने से पहले ही गोरवाले प्रदेश के निकट स्थित चिलास और इसके आस-पास चट्टानों पर अनेक खचित रेखा चित्र और खोतानी, खरोष्ठी और ब्राह्मी लिपि में अंकित अनेक लघु-लेख प्राप्त हुए हैं। खरोष्ठी लिपि के लेखों में विभवदाकिस, कनिष्क द्रविष्क के नाम बताये जाते हैं। ब्राह्मी लिपि में अंकित लेख लगभग ६०-७० हैं जिन्हें उन्होंने प्रकाशित किया है। उनमें से यहाँ कुछ अभिलेख ही प्रस्तुत हैं।

  • Ahmad Hassan Dani, Journal of Central Asia, 8 / 2 (December 1985) ५-१२४।*

संक्षिप्त परिचय

नाम :- हुंजा-घाटी के लघु शिलालेख या हुंजा काँठे के लघु शिलालेख [ Minor Rock-Edicts of Hunza-Valley ]

स्थान :- चिल्लास, गोरवाले प्रदेश के निकट, गिरगिट-बाल्तिस्तान, लद्दाख संघ राज्य क्षेत्र, भारत ( वर्तमान में यह क्षेत्र अनधिकृत रूप से पाकिस्तान के कब्जे में है )।

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- गुप्तकालीन ब्राह्मी

समय :- गुप्तकाल

विषय :- चन्द्रगुप्त द्वितीय, हरिषेण आदि का उल्लेख।

मूलपाठ

( १ )

सं… श्री विक्रमादित्य जयति

श्रीचन्द्र

( २ )

विक्रमादि[त्य]

( ३-४ )

श्री चन्द्र

( ५ )

हरिषेण इह [ध] मचकं

प्रतिष्ठित[म्]

( ६ )

हरि[षेण]

इह

( ७ )

चन्द्र श्री देवस्य

( ८ )

श्री चन्द्रस्य

( ९ )

सिंह-संपाप्त

चन्द्र श्री देव विक्रमादित्य

( १० )

संवतसरे १००  ४०  [३] देव श्री [चन्द्र]

( ११ )

श्री देव च

न्द्र [प्राप्त]

( १२ )

संवत स-

सोम श्री देव

प्राप्त

( १३ )

संवतसर शते चत्व[रिंशत]

श्री देवचन्द्र-

सं० १०० ४० ३

[सि] संप्राप्त

( १४ )

[सं १०० ४० ३] श्री विक्रमादित्य जयति

श्री चन्द्र

( १५ )

संवतसरे १०० ४०-

हरिषेण [चकं] प्रतिष्ठिपितं

( १६ )

हरिषेण

[संप्राप्त इह चकं]

( १७ )

श्री चन्द्र देवस्य

( १८ )

सं – – – देव श्रीचन्द्र

चकं इह सम्प्राप्त

हरिषेण

( १९ )

श्रीदेव च

न्द्र [प्राप्त]

टिप्पणी

इन अभिलेखों में श्री चन्द्र, श्री विक्रमादित्य, श्री देवचन्द्र विक्रमादित्य आदि जो नाम पढ़े गये हैं, उनमें चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के नाम की स्पष्ट झलक मिलती है। चन्द्र और विक्रमादित्य तो चन्द्रगुप्त द्वितीय स्पष्ट नाम और विरुद हैं ही। उनके लिये देव का प्रयोग भी उसके अपने कतिपय सिक्कों पर हुआ है ‘श्री देव देव महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त‘ में देखा जा सकता है। अभिलेख १४ में उल्लिखित ‘श्री विक्रमादित्य जयति‘ तो अविकल रूप से सिक्कों के लेख की अनुकृति है। साथ ही उल्लेखनीय यह भी है कि इन अभिलेखों के क्रम में ही कई लेखों में हरिषेण का भी नाम है। हरिषेण नाम प्रयाग प्रशस्ति के लेखक का भी है। वह समुद्रगुप्त के काल में सन्धि-विग्रहिक थे। गुप्त-कालीन इन व्यक्तियों का जो लगभग समकालिक रहे हैं, एक साथ एक ही लेख में (लेख १८) मिलना मात्र आकस्मिक या संयोग कह कर उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती यह अनुमान करना ही होगा कि चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने इस ओर कोई अभियान किया था उसके साथ ही हरिषेण भी, जो उस समय तक जीवित रहा होगा, सन्धि-विग्रहिक के रूप में आये रहे होंगे। कुछ में तो उसके द्वारा धर्मचक्र की स्थापना की भी बात कही गयी है। उसने इन्हें स्वयं अंकित कराया होगा चन्द्रगुप्त के नाम के लेख भी यदि उसने नहीं तो उसके साथ आये किसी अन्य व्यक्ति ने अंकित किया है जिसने अपने को सह सम्प्राप्त (नैकट्य प्राप्त करने वाला साथी) कहा है।

इन अभिलेखों के चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के होने की सम्भावना को नकारते हुए उनमें पढ़े गये तिथि १४३ की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है और कहा गया है कि इस तिथि की संगति किसी रूप में किसी ज्ञात सम्वत् के आधार पर चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के काल (३७६-४३४ ई०) से नहीं बैठती और ये अभिलेख उससे सम्बन्धित है जो इस प्रदेश के शासक थे। उनकी भी उपाधि विक्रमादित्य थी।

पटोल शासकों के सम्बन्ध की जानकारी हमें विशेष रूप में तो नहीं है। हम इतना ही जानते हैं कि विदेशी पुरातत्त्वविदों के एक दल ने १९३१ ई० में गिलगिट की ओर एक अभियान किया था। उस समय उन्हें गिलगिट से सटे हुए नौपुर नामक स्थान में एक वास्तु उपलब्ध हुआ था जिसका वाह्य रूप स्तूप सरीखा था उसके भीतर के दो कमरों में उन्हें भूर्ज-पत्र पर लिखे अनेक ग्रन्थ प्राप्त हुए। इन ग्रन्थों को उन्होंने गिलगिट पाण्डुलिपियाँ ( Gilgit Manuscripts ) का नाम दिया है। इन ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि उन्हें पटोल वंश के शासकों ने लिखवाया था उनमें दिये हुए नामों से उनके छः राजाओं और उनकी रानियों तथा कतिपय राज-पुरुषों की जानकारी हुई। लिपि के आधार पर ये ग्रन्थ सातवीं-आठवीं शती ई० के अनुमान किये जाते हैं। इस पटोल शासकों का भी समय यही कहा जाता है।

उपर्युक्त अभिलेखों को इसी समय का ठहराने के लिये यह प्रतिपादित किया गया है कि —

(१) पाँचवीं शती के गुप्त लिपि से गंगा-काँठे में मौखरि और हर्षवर्धन के समय अर्थात् सातवीं शती के बाद जो लिपि विकसित हुई थी उससे ही इन लेखों की लिपि अनुप्राणित है;

(२) इन अभिलेखों में दी गयी १४३ की तिथि हर्ष-संवत् में है इस प्रकार वे ७४६ ई० के हैं।

इन अभिलेखों को आठवीं शती ई० का बताने के लिये अभिलेख में अंकित लिपि की मात्राओं को आधार बनाया गया है। किन्तु डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त को इन अभिलेखों के गुप्तोत्तर कालीन होने का कोई लक्षण दिखायी नहीं देता है। गुप्त जी की दृष्टि में वे चौथी-पाँचवीं शती ई० के बाद के कदापि नहीं हो सकते। मात्राओं की अपेक्षा अक्षर पर ध्यान देकर ही लिपि के आधार पर किसी काल का निर्णय किया जा सकता है और किसी अक्षर की विशेषता पर ध्यान देकर ही उसके काल की ठीक पकड़ हो सकती है। इस दृष्टि से अभिलेख संख्या ९ की प्रतिलिपि को उन्होंने उद्धृत किया है —

हुंजा-घाटी के लघु शिलालेख में से एक का हिन्दी रूपान्तर।
हुंजा-घाटी के लघु शिलालेख : प्रस्तुत अभिलेख का क्रम संख्या- ९

इस अभिलेख में का डमरू सरीखा रूप ध्यातव्य है। का यह रूप किसी भी काल (कुषाण अथवा गुप्त) के गंगा काँठे (घाटी) के अभिलेखों में देखने में नहीं आता। यह तथ्य अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि ये अभिलेख किसी भी रूप में गंगा काँठे के लिपि से प्रभावित या अनुप्राणित नहीं है। का यह रूप यमुना काँठे (घाटी) में भी हुविष्क के एक ३६वें वर्ष के लेख में और उससे पूर्व मथुरा से प्राप्त शक-कालीन दो-तीन अभिलेखों में ही देखने में आया है। पश्चिमोत्तर प्रदेश में चरसद्दा से इन्द्र की एक मूर्ति मिली है, जो आरम्भिक कुषाण-कालीन समझी जाती है उसके ‘इन्द्रः देवराजा’ लेख में भी का यही रूप है। इन साक्ष्यों से यही कहा जा सकता है कि का यह रूप शक-कुषाण काल में पश्चिमी प्रदेशों में ही प्रचलित रहा होगा और उन्हीं के साथ मथुरा वाले क्षेत्रों में आया होगा। इनके परिप्रेक्ष्य में यह भी अनुमान किया जा सकता है कि शक कुषाण वाले पश्चिमी प्रदेश में का डमरूवाला यह रूप अधिक काल तक प्रचलित रहा होगा और का नया रूप प्रचलन में आ जाने के बाद भी कुछ काल तक उसका प्रयोग होता रहा हो, जैसा कि इन अभिलेखों में देखने में आता है। इस प्रकार का प्रयोग अधिक से अधिक चौथी शताब्दी ई० तक होता रहा होगा।

लिपि का यह साक्ष्य इस बात का अकाट्य प्रमाण है कि ये अभिलेख पटोल शासकों के नहीं हो सकते। इस काल में इस भू-भाग पर बलोर के शासकों का अधिकार था जिनकी उपाधि ‘साहि’ थी। इन अभिलेखों को चन्द्रगुप्त (द्वितीय) से ही सम्बन्धित कहा जा सकता है।

इस तथ्य के परिप्रेक्ष्य में इन अभिलेखों की तिथि को हर्ष संवत् में अंकित किये जाने के अनुमान की कोई सार्थकता नहीं रह जाती है। यों भी, हर्ष सम्वत् के अस्तित्व की धारणा का अभी तक कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है, केवल अनुमान मात्र है। उसके अस्तित्व को स्वीकार करें तो भी ध्यातव्य होगा कि हर्ष-संवत् में अंकित अनुमान किये जाने वाले अभिलेखों की संख्या अत्यन्त सीमित है और वे अत्यन्त सीमित क्षेत्र के ही हैं। ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर किसी भी प्रकार अनुमान किया जा सके कि मौखरि अथवा हर्षवर्धन का प्रभाव किसी भी रूप में हिमालय की पर्वत मालाओं में छिपे इस सुदूर प्रदेश में पहुँचा और वहाँ हर्ष संवत् का प्रयोग होता रहा। इस सम्बन्ध में डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त जी का विचार है कि इसमें अंकित तिथि १४३ (यदि पाठ ठीक है तो) द्वितीय कुषाण संवत् में अंकित किया गया है, जो पश्चात् कनिष्क संवत् (जिसका आरम्भ नयी धारणाओं के परिप्रेक्ष्य में १४० ई० के आस-पास हुआ था) के १०० वर्ष पश्चात् नये सिरे से आरम्भ किया गया था। इस प्रकार ये लघु लेख ३८० ई० अर्थात् चन्द्रगुप्त (द्वितीय) वाह्लीक यात्रा की निश्चित तिथि प्रस्तुत करता है।

इन अभिलेखों के चन्द्रगुप्त (द्वितीय) से सम्बन्धित होने की बात नकारने के लिये एक यह बात भी कही गयी है कि हुँजा वाला प्रदेश पंजाब से बाख्त्री जाने के मार्ग में नहीं पड़ता। परन्तु ऐसी बात भौगोलिक तथ्यों की उपेक्षा करके ही कही जा सकती है। यदि भौगोलिक मानचित्र सामने रखकर देखा जाय तो सहज जाना जा सकता है कि बख्त्री पहुँचने का यही सुगम मार्ग है।

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चन्द्रगुप्त द्वितीय का उदयगिरि गुहालेख ( द्वितीय )

चन्द्रगुप्त द्वितीय का साँची अभिलेख ( गुप्त सम्वत् – ९३ या ४१२ ई० )

चन्द्र का मेहरौली लौह स्तम्भ लेख

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