पिपरहवा अभिलेख या पिपरहवा बौद्ध कलश अभिलेख

परिचय

नाम – पिपरहवा बौद्ध अस्थि कलश अभिलेख ( Piprahwa Buddhist Vase-Inscription ) या पिपरहवा अभिलेख।

स्थान – पिपरहवा, सिद्धार्थनगर जनपद, उत्तर प्रदेश।

भाषा – प्राकृत ( पूर्वी वर्ग )।

लिपि – मौर्य-पूर्व ब्राह्मी।

समय – गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण ४८३ ई०पू० के ठीक बाद अर्थात् पाँचवीं शताब्दी ई०पू०।

विषय – महात्मा बुद्ध के धातु अवशेष पर वैयक्तिक अभिलेख।

पिपरहवा अभिलेख का मूल-पाठ

सुकिति भतिनं सभगिनिकनं सपुतदलनं।

इयं सलिल निधने बुधस भगवते सकियनं॥

संस्कृत छाया

सुकृतिभ्रातृणां सभगिनीकिनां सुपुत्रदाराणाम्।

इदं शरीरनिधानं बुद्धस्य भगवतः शाक्यानाम्॥

हिन्दी अनुवाद

सुकृति के भाइयों, भगिनियों, दाराओं, पुत्र-दाराओं सहित।

यह शरीर निधान भगवान बुद्ध का शाक्यों के॥

 

श्लोक का विश्लेषण 

इस अभिलेख के पहले दो शब्दों पर विवाद है –

  • सुकिति – इसको विद्वानों के एक वर्ग ने सुकीर्ति तो दूसरे ने सुकृति का प्राकृत भाषान्तर माना है।
  • भतिनं – इसको भी भ्रातृणां या भक्तयोः का प्राकृत रूपान्तरण माना गया है।

इस तरह सुकिति-भतिनं के दो अर्थ निकलते हैं –

  • सुकीर्ति या सुकृति के भाई
  • सुकीर्ति ( या सुकृति ) और भक्त नामक दो व्यक्ति

इस पदावली का प्रथम अर्थ ( सुकीर्ति या सुकृति के भाई ) अधिक संगत लगता है।

इस तरह इस श्लोक का कुल मिलाकर यह अर्थ निकलता है कि, ‘बुद्ध भगवान् शाक्य के इस इस शरीर-धातु-अवशेष ( निधान ) को सुकीर्ति-बन्धुओं ने अपनी बहन, पुत्र के साथ मिलकर प्रतिष्ठित करवाया।’

पिपरहवा अभिलेख का ऐतिहासिक महत्त्व

पिपरहवा स्तूप से मिले अस्थिकलश पर यह अभिलेख अंकित है। यह स्तूप उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जनपद में पिपरहवा नामक स्थान पर है। अस्थिकलश की ग्रीवा पर यह अभिलेख लिखा गया है। यह अस्थिकलश प्रस्तर का है। यह अभिलेख प्राकृत भाषा में और ब्राह्मी लिपि में लिखी गयी है।

महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण होने पर उनके धातु अवशेषों को आठ भागों में बाँटा गया था। उन सभी आठ धातु अवशेषों को श्रद्धापूर्वक उनके अनुयायियों ने आठ स्थानों पर रखकर उसपर स्तूपों का निर्माण कराया था। उन्हीं आठ मौलिक अष्ट स्तूपों में से एक पिपरहवा स्तूप भी है। इस तरह इसकी जो तिथि निकलकर आती है वह है – ४८३ ई०पू० अर्थात् पाँचवीं शताब्दी ई०पू०।

इस अभिलेख में सलिल निधनं ( शरीर निधानं ) अंकित है। उस शरीर निधान अर्थात् धातु अवशेष पर एक अवशेष बनवाया गया था। स्तूप निर्माण को नई परम्परा नहीं थी क्योंकि इसका विवरण ऋग्वेद में भी मिलता है। स्वयं महात्मा बुद्ध के कथन से भी यही ज्ञात होता है। दिव्यावदान में उल्लेख आता है कि भगवान बुद्ध कहते हैं कि मेरे चातुमहापदे पर उसी तरह स्तूप बनवाये जाये जिस प्रकार शासकों की मृत्यु पर बनवाये जाते हैं। जैन परम्परा भी इसकी प्रचीनता को प्रमाणित करती है।

महापरिनिर्वाण सूत्र में महात्मा बुद्ध के शरीर-धातु के आठ दावेदारों के नाम निम्न मिलते हैं –

  • पावा और कुशीनारा के मल्ल
  • कपिलवस्तु के शाक्य
  • वैशाली के लिच्छवि
  • अलकप्प के बुलि
  • रामगाम के कोलिय
  • पिप्पलिवन के मोरिय
  • मगधराज अजातशत्रु
  • वेठद्वीप के ब्राह्मण

इन आठों दावेदारों ने महात्मा बुद्ध के धातु अवशेषों पर आठ स्थानों पर स्तूपों का निर्वाण करवाया। इसी में से कपिलवस्तु के शाक्यों ने जो स्तूप निर्मित करवाया वही है – पिपरहवा का स्तूप। इसकी पुष्टि के लिए अभिलेख का साक्ष्य लिया जाता है –

  • अभिलेख में आये शब्द ‘सकियानं’ का संस्कृत में रूपांतरण होगा – शाक्यानां; अर्थात् शाक्यों। बुद्ध स्वयं शाक्य क्षत्रिय थे इसीलिए उनके धातु अवशेषों के आठ भागों में से एक भाग कपिलवस्तु के शाक्यों को मिला था।
  • अभिलेख में आयी पदावली ‘सुकिति भतिनिं’ जिसका संस्कृति रूपांतरण होगा – सुकृति भ्रातृणां; अर्थात् भागवान बुद्ध के भाइयों द्वारा। इससे स्पष्ट होता है कि ये ही सलिल निधान के संस्थापक और पिपरहवा स्तूप के निर्माता थे।
  • कपिलवस्तु कहाँ बसा था इस बात पर विवाद हो सकता है परन्तु यह स्पष्ट है कि पिपरहवा चाहे प्राचीन कपिलवस्तु हो या न हो परन्तु यह भूभाग कपिलवस्तु के शासनक्षेत्र में अवश्य आता होगा। सम्प्रति कपिलवस्तु की पहचान वर्तमान में नेपाल में की जाती है।

गौतम बुद्ध 

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