चन्द्रगुप्त द्वितीय का साँची अभिलेख ( गुप्त सम्वत् – ९३ या ४१२ ई० )

परिचय

यह अभिलेख साँची (विदिशा, मध्यप्रदेश) स्थित बड़े स्तूप की वेदिका पर बाहर की ओर २” फुट x ९” फुट की प्रस्तर शिला पर अंकित है। साँची अभिलेख की ओर १८३४ ई० में बी० एच० हाग्सन ने ध्यान आकृष्ट किया। १८३७ ई० में कैप्टेन एडवर्ड स्मिथ द्वारा प्रस्तुत छाप के आधार पर जेम्स प्रिंसेप ने इसका पाठ प्रस्तुत किया। तत्पश्चात् फ्लीट महोदय ने इसका सम्पादन किया।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- चन्द्रगुप्त द्वितीय का साँची अभिलेख [ Sanchi Inscription of Chandragupta – II ]; चन्द्रगुप्त द्वितीय का साँची प्रस्तर अभिलेख [ Sanchi Stone Inscription of Chandragupta – II ]।

स्थान :- साँची, रायसेन जनपद; मध्य प्रदेश।

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- ब्राह्मी

समय :- ९३ गुप्त सम्वत् अर्थात् ४१२ ई०। चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल।

विषय :- चन्द्रगुप्त द्वितीय के सेनापति आर्म्रकार्दव द्वारा कोकनादवोट के बौद्ध संघ को ईश्वरवासक ग्राम और २५ दीनार का दान जिससे कि भिक्षुओं के भोजन और प्रकाश की व्यवस्था की जा सके।

मूलपाठ

१. [ सिद्धम् ॥ ] का [ कना ] दबोट-श्रीमहाविहारे शील-समाधि प्रज्ञा-गुण भवितेन्द्रियाय परम-पुण्य-

२. क्षे [ त्र ] [ त ] ताय चतुर्द्दिगभ्यागताय श्रमण-पुङ्गवासयायार्य्य सङ्घाय महाराजाधि-

३. रा [ ज-श्री ] चन्द्रगुप्त-पाद-प्रसादाप्यायित-जीवित-साधनः अनुजीवि-सत्पुरुष-सद्भाव-

४. वृ [ त्यर्थ ] जगति प्रख्यापयन् अनेक-समरावाप्त-विजय-यशस्पताकः सुकुलिदेश-न

५. ष्टी ……. वास्तव्य उन्दान-पुत्राम्रकार्द्दवो मज-शरभङ्गाप्ररात-राजकुल मूल्य-क्री-

६. तं [ देयधर्म्म ] ईश्वरवासकं पञ्च-मण्डल्यां प्रणिपत्य ददाति पञ्चविंशतिश्च दीना-

७. रानू … [ ॥ ] यादर्द्धेन महाराजाधिराज-श्रीचन्द्रगुप्तस्य देवराज इति प्रि-

८. य-ना [ म्नः ] ……. [ ये ] तस्य सर्व्व-गुण-संपत्तये यावच्चन्द्रादित्यौ तावत्पञ्च भिक्षवो भुंज-

९. तां र [ त्न ] -गृ [ हे ] [ च ] [ दीप ] को ज्वलतु [ I ] मम चापरार्द्धत्पञ्चैव भिक्षवो भुंजता रत्न-गृहे च

१०. दीपक इ [ ति ] [ ॥ ] [ त ] देतत्प्रवृतं य उच्छिन्द्यात्स गो-ब्रह्म-हत्यया संयुक्ते भवेत्पञ्चभिश्चान-

११. न्तर्य्यैरिति [ । ] सं ९० (+) ३ भाद्रपद-दि ४ [ । ]

हिन्दी अनुवाद

सिद्धम्। सुकुलि देशान्तर्गत ….. नष्टी नामक नगर के निवासी उन्दान के पुत्र अम्रकार्देव ने, — जिसका जीवन-साघन महाराज श्री चन्द्रगुप्त के चरणों के प्रसाद से सुगम हो गया है; जो [ राजा के ] अनुजीवी ( अनुवर्ती ) सज्जन पुरुषों के सद्भावों को सम्पूर्ण जगत में प्रख्यात करने वाला है; जिसने अनेक युद्धों में विजय रूपी यश का पताका फहराया है — राजकुल के मण, शरभंग और अम्ररात को मूल्य देकर [ जिस भूमि को ] क्रय किया है और जिसके लिये ईश्वरवासक के पंचमण्डली से निवेदन ( प्रणिपात ) करके पच्चीस दीनार मूल्य दिया है, [ उस भूमि को ] काकनादबोट महाविहार में चारों ओर से आकर रहने वाले शील, समाधि, प्रज्ञा आदि गुणों से इन्द्रियों का दमन कर चुके श्रेष्ठ श्रमणों के संघ को [ वह ] दान कर रहा है।

इसके द्वारा दी गयी [ भूमि की जो आय हो ] उसकी आधी आय से जब तक चन्द्र-सूर्य रहें तब तक पाँच भिक्षुओं को भोजन कराया जाय और रत्न-गृह में दीप जलाया जाय ताकि समस्त पुण्य देवराज प्रियनाम वाले महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त ( द्वितीय ) को मिले। शेष आधी आय से, मेरी ओर से भी पाँच भिक्षुओं को भोजन कराया जाय और रत्न-गृह में दीप जलाया जाय।

जो कोई इस व्यवस्था में बाधा डालेगा, वह गो-हत्या, ब्राह्मण-हत्या के साथ साथ पंच पापों के दोष का भागी होगा।

वर्ष ९३ भाद्रपद, दिवस ४ ।

महत्त्व

चन्द्रगुप्त द्वितीय का साँची अभिलेख भी उदयगिरि गुहा अभिलेख प्रथम और द्वितीय के समान गुप्त सम्राट के अनुसेवक द्वारा दिये गये दान की विज्ञप्ति है।

इस विज्ञप्ति का प्रस्तुत अनुवाद फ्लीट कृत अनुवाद से सर्वथा भिन्न है। उन्होंने पंक्ति ५ में आये मूल्य शब्द का अर्थ मूल-धन किया है और उसे अक्षय-निवि का समरूप शब्द माना है तथा पंक्ति ७ के नष्ट अंश में दीनारों के ब्याज से सरीखे भाव की कल्पना की है। उन्होंने यह कल्पना (गुप्त) वर्ष १३१ के साँची से प्राप्त एक अन्य लेख (साँची प्रस्तर अभिलेख, गुप्त सम्वत् १३१ ) की पंक्ति संख्या ३ में आये ‘अक्षय-नीविदत्ता दीनारा द्वादश‘ के आधार पर की है। परन्तु फ्लीट महोदय का अनुवाद मज, शरभंग तथा अग्ररात के नीवि-दान से खरीदा गया कोई अर्थ नहीं रखता। किसी नीवि दान से कोई वस्तु खरीदी नहीं जा सकती। मूल्य का तात्पर्य सीधे-सादे ढंग से दाम से है। उन लोगों को दाम देकर अम्रकार्दव ने भूमि क्रय की थी और उसे उसने काकनादबोट बिहार के भिक्षु संघ को एक निश्चित प्रयोजन के लिये दान दिया।

कुमारगुप्त (प्रथम) के दामोदरपुर ताम्रलेखों में भूमि क्रय करके दान देने के स्पष्ट उल्लेख हैं। उनके परिप्रेक्ष्य में इसे सहज समझा जा सकता है। भूमि क्रय की बात को ध्यान में रखकर उसके सन्दर्भ में ही पंक्ति संख्या ७ के नष्ट अंश की पूर्ति की जानी चाहिये।

इस विज्ञप्ति में भूमि से होने वाली आय को दो भागों में बाँटा गया है और आय के इन दोनों ही भागों से पाँच-पाँच भिक्षुओं को भोजन कराने और रत्नगृह में दीपक जलाने की व्यवस्था की गयी है। सीधे-सीधे ढंग से कहा जा सकता है कि दस भिक्षुओं को भोजन कराने तथा रत्नगृह में दो दीपक जलाये जाने की बात कही गयी है। परन्तु अलग-अलग व्यवस्था करने का अभिप्राय विशेष है। आधी आय को दाता अपना नहीं मानता। उसके व्यय की व्यवस्था उसने अपने स्वामी चन्द्रगुप्त ( द्वितीय ) के पुण्य-कर्म के निमित्त किया है। शेष आधी आय को ही वह अपना कहता है। अपने इस आधे भाग के दान के परिणामस्वरूप अपने लिये किसी प्रकार के प्रतिफल की इच्छा दाता ने नहीं की है। इस प्रकार दाता ने निष्काम भाव से यह दान दिया था।

रत्न-गृह से, जहाँ दीप जलाये जाने की व्यवस्था है, जिसका तात्पर्य त्रिरत्न — बुद्ध, धर्म और संघ से लिया जा सकता है और इसी भाव में फ्लीट महोदय ने उसे ग्रहण कर उसे स्तूप का पर्याय माना है; परन्तु एक अन्य दृष्टि से रत्न-गृह का तात्पर्य यहाँ भगवान बुद्ध की मूर्ति प्रतिष्ठित मन्दिर के गर्भ गृह से भी हो सकता है।

शासन-व्यवस्था की दृष्टि से अभिलेख में आये पंच-मण्डली और राज-कुल शब्द दृष्टव्य हैं।

  • पंच-मण्डली शब्द से अनुमान किया जाता है कि वह आधुनिक पंचायत सरीखी संस्था रही होगी। इस प्रसंग में कुमारगुप्त (प्रथम) कालीन दामोदरपुर ताम्र-लेखों पर ध्यान देना उचित होगा जिसमें भूमि क्रय के प्रसंग में पाँच व्यक्तियों — नगर-श्रेष्ठि, सार्थवाह, प्रथम कुलिक, प्रथम-कायस्थ और पुरोग का उल्लेख हुआ है। कदाचित इन्हीं पाँच जन-प्रतिनिधियों की समिति का उल्लेख यहाँ पंच-मण्डली के रूप में हुआ है।
  • राज-कुल का सामान्य अर्थ राज परिवार से सम्बन्धित व्यक्ति होता है। दिनेश चन्द्र सरकार का कहना है कि राज-कुल का अर्थ राजा का दरबार और न्यायालय भी होता है। राज-कुल का तात्पर्य वे दरबारी (a member of king’s court) से अथवा न्याय पीठ के सदस्य (member of court of justice) से लेते हैं, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया है। डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त की धारणा है कि यहाँ राज-कुल का तात्पर्य इन दोनों में से किसी से भी नहीं है। वह मात्र राज-पुत्र ( जिससे राजपूत बना है) का पर्याय है और समाज के उस वर्ग विशेष का द्योतक है जिसके सदस्य भूमि के विक्रेता थे। इस प्रकार यह अभिलेख इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि गुप्तकाल में राजपूतों का वर्ग बनना आरम्भ हो गया था।

इस अभिलेख से यह सूचना मिलती है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय का प्रिय नाम देवराज था। इसका समर्थन एक वाकाटक अभिलेख से भी होता है जिसमें प्रभावती गुप्ता को देवगुप्त की पुत्री कहा गया है। चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के कतिपय सोने के सिक्कों के अभिलेख में भी उसके लिए देवश्री का प्रयोग हुआ है। सिक्कों पर यह प्रयोग विरुद सरीखा है पर उसे उसके अपर नाम का भी संकेत कहा जा सकता है।

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