admin

स्कंदगुप्त का भीतरी स्तम्भलेख

भूमिका स्कंदगुप्त का भितरी स्तम्भलेख या भीतरी स्तम्भलेख उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद के अन्तर्गत सैदपुर से पाँच मील उत्तर-पूर्व स्थित भितरी नामक ग्राम में खड़े लाल पत्थर के एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। यह स्तम्भ सम्भवतः उस मन्दिर के आगे लगा ध्वज था जिसके छेंकन आदि के कुछ भाग काशी विश्वविद्यालय द्वारा कराये गये उत्खनन में कुछ वर्ष पूर्व प्रकाश में आये हैं। १८३४ ई० में ट्रेगियर महोदय ने सर्वप्रथम देखा था। उस समय अभिलेखवाला अंश मिट्टी के नीचे दबा था। एलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा जब उसके चारों ओर की मिट्टी हटायी गयी, तो यह लेख प्रकाश में आया। १८३६ ई० में उन्होंने इसके प्राप्त होने की सूचना प्रकाशित की। १८६७ ई० में रेवरेण्ड डब्लू एच० मिल ने इसे अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशित किया। १८७१ ई० में कनिंघम ने, १८७५ ई० में भाऊ दाजी ने और १८८५ ई० में भगवानलाल इन्द्रजी ने अपने-अपने पाठ और अनुवाद प्रकाशित किये। तदुपरांत जे० एफ० फ्लीट ने उसे सम्पादित कर Corpus Inscriptionum Indicarum में प्रकाशित किया। बाद में भण्डारकर ने उसका पुनर्परीक्षण किया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- स्कंदगुप्त का भीतरी स्तम्भलेख या भितरी स्तम्भलेख [ Bhitari Stone Pillar of Skandgupta ] स्थान :- गाजीपुर जनपद; उत्तर प्रदेश भाषा :-  संस्कृत लिपि :- उत्तरी ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १४८ ( ४६७ ई० ), स्कंदगुप्त का शासनकाल विषय :- स्कंदगुप्त की उपलब्धियों का विवरण मूलपाठ १. [सिद्धम् ॥] [सर्व]रा[जो]च्छेतुः पृथिव्यामप्रतिरथस्य चतुरुदधिसलिला-स्वादित-यशसो धनद-वरुणेन्द्रान्तक-स[मस्य] २. कृतान्त-परशोः न्यायागतानेक-गो-हिरण्य [को]टि-प्रदस्य चिरोत्सन्नाश्वमेधाहर्त्तुर्महाराज श्रीगुप्तप्रपौत्र [स्य] ३. महाराज-श्रीघटोत्कचपौत्रस्य महाराजाधिराज-श्रीचन्द्रगुप्त-पुत्रस्य लिच्छवि-दौहित्रस्य महादेव्यां कुमार-देव्या- ४. मुत्पन्नस्य महाराजाधिराज-श्रीसमुद्रगुप्तस्य पुत्रस्तत्परिगृहीतो महादेव्यान्दत्तदेव्यामुत्पन्नः स्वयं चाप्रतिरथः ५. परम-भागवतो-महाराजाधिराज-श्रीचन्द्रगुप्तस्तस्य पुत्रस्तत्पादानुद्धयातो महादेव्यां ध्रुवदेव्यामुत्पन्नः परम- ६. [भा]गवतो महाराजाधिरा[ज]-श्रीकुमारगुप्तस्तस्य[।] प्रथित-पृथुमति-प्रभाव-शक्तेः पृथु-यशसः पृथिवी-पतेः पृथुश्रीः [।] ७. पि[तृ]-प-[रि]-गत-पादपद्म-वर्ती प्रथित-यशाः [पृ]थिवीपतिः सुतोऽयम् [॥ १] [ज]गति भु[ज]-बलाढ्यो गुप्त वंशै[क]वीरः प्रथित-विपुल- ८.                                    नामा नामतः स्कन्दगुप्तः [।] सुचरित-चरितानां येन वृत्तेन-वृत्तं न विहितमथात्मा तान-[धीदा?]-विनतिः [॥ २] विनय- ९. बल-सुनीतैर्व्विक्क्रमेण-क्क्रमेण प्रतिदिनमभियोगादीप्सितं ये[न]ल[ब्ध्वा] [।] स्वभिमत-विजिगीषा-प्रोद्यतानां परेषां प्रणि-हित इव ले[भे सं]विधानोपदेशः [II ३] १०. विचलित-कुल-लक्ष्मी-स्तम्भनायोद्यतेन क्षितितल-शयनीये येन नीता त्रियामा [।] समु- ११.         दित ब[ल]कोशन्-राष्ट्र-मित्राणियक्त्वा                                 क्षितिप-चरण-पीठे स्थापितो वाम-पादः [॥ ४] प्रसभमनुपमर्द्रिर्धस्त-शस्त्र-प्रतापैर्विन[य] [स]मु [चितैश्च] क्षान्ति-शौयैर्न्निरूढम् [।] १२. चरितममलकीर्त्तेर्गीयते यस्य शुभ्रं दिशि दिशि परितुष्टैराकुमारं मनुष्यैः [॥ ५] पितरि दिवमुपेते १३.       विप्लुतां वंश-लक्ष्मीं भुज-बल-विजितारिर्य्यः प्रतिष्ठा[प्य भूयः] [।] जितमिति परितोषान्मातरं सास्र नेत्रां हतिरिपुरिव कृष्णो देवकीमभ्यु[पे- १४.                                            [तः] [॥ ६] [स्वै]र्द्द[ण्डैः] [द्विषदो व्यापेत्य] चलितं वंशं प्रतिष्ठाप्य यो बाहुभ्यामवनिं विजित्य हि जितेष्वार्त्तेषु कृत्वा दयाम् [।] नोत्सिक्तो [न] च विस्मितः प्रतिदिनं १५. [संवर्द्धमान]-द्युति-गतिश्च स्तुतिभिश्च-वृत्तकथनं यं [प्र]णयत्यार्तं   [॥ ७ ] हूणैर्य्यस्य समागतस्य समरे दोर्भ्यां धरा कम्पिता भीमावर्त्त-करस्य १६.                               शत्रुषु शरा[विनयस्य दुर्घर्षिनः] [।] …………….. लिखितं प्रख्यापितो [दीप्तिनद्यो नभी तै लक्ष्यत इव श्रोत्रेषु सारङ्ग ध्वनिः [॥ ८] १७. [स्व] पितुः कीर्त्ति —  —  —  —  ……  —  ……  [।] —  —  —  — [मुक्तिभिर्युक्त] —  —  —  — ……  —  ……  — [॥ ९] [प्रकार्य्या] प्रतिमाका चिठप्रतिमां तस्य शाङ्गिणः [।] १८. [सु]प्रतीतश्चकारेमां या [वदाचन्द्र-तारकम्] [॥ १०] इह-चैनं प्रतिष्ठाप्य सुप्रतिष्ठित-शासनः [।] ग्राममेनं स विद[धे] पितुः पुण्याभिवृद्धये [॥ ११] १९. अतो भगवतो मूर्त्तिरियं यश्चात्र संस्थितः (?) [।] उभयं निर्द्दिदेशासौ पितुः पुण्याय-पुण्य-धीरिति [॥ १२] हिन्दी अनुवाद सिद्धि हो! सब राजाओं के उन्मूलक; पृथ्वी पर अप्रतिरथ (जिसके समान पृथ्वी पर अन्य कोई न हो); चारों समुद्र के जल से आस्वादित कीर्तिवाले; कुबेर (धनद), वरुण, इन्द्र तथा यम (अन्तर) के समान; कृतान्त के परशु-तुल्य; न्याय से उपलब्ध अनेक गो तथा कोटि हिरण्य (सिक्के) के दान-दाता; चिरोत्सन्न-अश्वमेध हर्त्ता; महाराज श्रीगुप्त के प्रपौत्र; महाराज घटोत्कचगुप्त के पौत्र; महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के पुत्र; लिच्छवि-दौहित्र, महादेवी कुमारदेवी [के गर्भ से उत्पन्न] महाराज समुद्रगुप्त उनके पुत्र, उनके परिगृहीत, महादेवी दत्तदेवी [के गर्भ से उत्पन्न] स्वयं भी अप्रतिरथ; परमभागवत महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त उनके पुत्र तथा पादानुगामी महादेवी ध्रुवदेवी से उत्पन्न परमभागवत महाराजाधिराज कुमारगुप्त — [१-६] वे प्रबल मेधा से सत्पन्न (प्रथित पृथु-मति), शक्तिसम्पन्न (प्रभाव-शक्तेः) महान् यशस्वी (पृथु-यशस), विख्यात (पृथु-श्री) थे; [उन्हीं] पिता के चरण-कमल पर भ्रमर की भाँति मँडरानेवाला, शासक ( पृथ्वी-पति), यह पुत्र है। जगत् में अपनी भुजाओं के लिये प्रख्यात, गुप्त वंश के इस वीर का नाम स्कन्दगुप्त है। [६-८] उसका चरित्र ही सुचरित है, उसकी धर्म-परायणता कथनीय (वृत) है; वह प्रशस्तमार्गगामी (धर्मविहित) है; [वह] निर्मल आत्मा और विनीत हैं। विनय, बल, विक्रम उसने दाय (क्रम) में प्राप्त किया है लोक व्यवहार का ध्यान रखते हुए [उसने] विजय की दृढ़ इच्छा रखनेवाले शत्रुओं को भी पराभूत करने की कला में दक्षता प्राप्त की है। [६-१०] अपने कुल की विचलित लक्ष्मी को पुनः स्थापित करने के प्रयास में उसे सारी रात पृथ्वीरूपी शैया पर बितानी पड़ी। [अन्ततोगत्वा] बल, कोष, राष्ट्र (प्रजा) और मित्रों की सहायता से अपने शत्रुओं को अपने चरणों का आसन बनाने (अर्थात् कुचलने) में सफल रहा। उसने अपने शस्त्रों के अतुल प्रताप से अपने शत्रुओं का विनाश कर दिया। उस अमल कीर्तिवाले राजा का शुभ चरित अपने समुचित विनय, शान्ति एवं शौर्य आदि के कारण दूर-दूर तक फैला हुआ है। चारों ओर बालक वृद्ध सभी प्रसन्न भाव से उसका गुणगान करते रहते हैं। पिता की मृत्यु के पश्चात् उसने वंश की विलुप्त लक्ष्मी को अपने बाहु-बल द्वारा शत्रुओं को विजित कर फिर से स्थापित किया। और तब वह विजयी होकर अपनी आँसू भरे माँ के पास परितोष के निमित्त उसी प्रकार गया जिस प्रकार कृष्ण देवकी के पास गये थे। उसने अपनी सेना की सहायता से वंश की विचलित प्रतिष्ठा को फिर से स्थापित किया। अपने बाहुबल से पृथ्वी पर विजय प्राप्त की। साथ ही, उसने विजित एवं आर्तजनों के प्रति दया भाव भी व्यक्त किया। अपने दिनों-दिन बढ़ते हुए प्रताप के प्रति उसने कभी न तो गर्व किया और न कभी आश्चर्य प्रकट किया। [वरन्] वृत्त कथन कहने वाले ही उसे अपने गीतों और स्तुतियों में उसे आर्य कहा करते थे। युद्ध में उसके बाण शत्रुओं में हलचल (जलावर्त) मचा देते थे और आकाश और नदी के बीच धनुष के टंकार प्रतिध्वनित हो उठते थे, और जब हूण अपने दोनों बाहुओं के सहारे पृथ्वी पर गिरते थे तो पृथ्वी कम्पित हो उठती थी। अपने पिता की कीर्ति …….. किसी की प्रतिमा बनाना कर्त्तव्य है, यह सोचकर जब तक चाँद और तारे रहें तब तक स्थायी रहने के निमित्त (उसने शार्ङ्गिण की प्रतिमा [यहाँ] प्रतिष्ठापित की और [अपने] पिता की पुण्य की वृद्धि के लिये उसने इस ग्राम को (उस देवता) को प्रदान किया; उसीका यह सुप्रतिष्ठित शासन है। इस प्रकार भगवान् की यह प्रतिमा तथा जहाँ वह स्थापित है [ वह गाँव], दोनों उसने पुण्य अर्जन के निमित्त अर्पित किया। टिप्पणी

स्कंदगुप्त का भीतरी स्तम्भलेख Read More »

पाँचवाँ गढ़वा अभिलेख, गुप्त सम्वत् १४८ ( ४६७ ई० )

भूमिका पाँचवाँ गढ़वा अभिलेख उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जनपद के बारा तहसील से गढ़वा नामक स्थल से दशावतार मन्दिर के भग्नावशेषों में प्राप्त चबूतरे के किनारे पर लगा हुआ मिला है। सम्प्रति यह भारतीय संग्रहालय, कोलकाता में संग्रहित हैं। इस अभिलेख को १८७४-७५ या १८७६-७७ में एलेक्जेंडर कनिंघम महोदय ने प्राप्त किया था। कनिंघम महोदय ने इसको १८८० ई० में प्रकाशित किया। उस समय कनिंघम महोदय ने इसका समय गुप्त सम्वत् १४० उद्वाचन किया परन्तु बाद में हुल्श महोदय ने इसका समय गुप्त सम्वत् १४८ बताया। जे० एफ० फ्लीट महोदय ने इसको सम्पादित करके Corpus Inscritionum Indicarum में प्रकाशित किया। पाँचवाँ गढ़वा अभिलेख २’ ४” लम्बे और ७३/४” चौड़े प्रस्तर फलक पर अंकित है। यह अभिलेख भी गढ़वा से मिले कुमारगुप्त ( प्रथम ) के शासनकाल के अन्य चार अभिलेखों की तरह खंडित अवस्था में है। देखें — कुमारगुप्त प्रथम का गढ़वा अभिलेख । विद्वानों का अनुमान है कि इसका पूर्वांश लगभग इसी आकार के ही एक अन्य शिला-फलक पर अंकित रहा होगा। संक्षिप्त परिचय नाम :- पाँचवाँ गढ़वा अभिलेख ( Fifth Gadhwa / Garhwa Inscription ) या गढ़वा प्रस्तर अभिलेख ( Gadhwa / Garhwa Stone Inscription ) स्थान :- गढ़वा, बारा तहसील, प्रयागराज जनपद; उत्तर प्रदेश भाषा :-  संस्कृत लिपि :- उत्तरी ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १४८ ( ४६७ ई० ), स्कंदगुप्त का शासनकाल विषय :- मंदिर का जीर्णोद्धार, अनंतस्वामी के चरण की स्थापना, बडभी निर्माण की विज्ञप्ति। मुलपाठ १. ………… स्य प्रवर्द्धमान विजयराज्य-संव्वत्सर शतेऽष्यचत्वारिंशदुत्तरे माघमासदिवसे एकविङशतिमे। २. ………… पुण्याभिवृद्ध्यर्थं वडभींकारपयित्वा अनन्तस्वामिपादां प्रतिष्ठाप्य गन्ध-धूप स्रग …… ३. ………… [स्फुट]-प्रतिसंस्कारकरणार्थं भगवच्चित्रकूट-स्वामिपादीय-कोष्ठे त प्रावेश्यमति ४. ………… दत्ता द्वादश [।] यैनंव्युच्छिन्द्यात्स पंचभिः महापतकै संयुक्तः स्यादिति [॥] हिन्दी अनुवाद १. …. के प्रवर्द्धमान शासनकाल के १४८वें वर्ष के माघ मास के २१वें दिन [।] २. …. पुण्य की अभिवृद्धि के निमित्त वडभी बनवाकर अनन्तस्वामी के चरण को स्थापित करके गन्ध, धूप, माला …… तथा उसकी मरम्मत के निमित्त भगवान् चित्रकूट-स्वामी के कोष्ठ में [मैं] देता हूँ। ३. …. १२ […….] दिया। जो इस दान की अवहेलना करेगा उसे पंच महापातक का दोष लगेगा। टिप्पणी आरम्भिक अंश अनुपलब्ध होने के कारण इसमें अंकित काल १४८ गुप्त संवत् के सहारे ही कहा जा सकता है कि यह लेख स्कन्दगुप्त अथवा उसके बाद के शासक कुमारगुप्त (द्वितीय) के शासनकाल में लिखा गया होगा। अधिक सम्भावना है कि लेख स्कन्दगुप्त के काल का ही है। लेख से ऐसा जान पड़ता है कि किसी ने बडभी बनवाकर उसमें अनन्तस्वामी के चरण की स्थापना की थी। फ्लीट ने बडभी शब्द के मूल में बलभी होने की कल्पना की है और इस शब्द के कुमारगुप्त (प्रथम) के शासन काल के मन्दसोर अभिलेख  की पंक्ति ६ (श्लोक ११) में प्रयुक्त होने की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। उन्होंने इस शब्द की व्याख्या ‘छत का काष्ठ निर्मित ढाँचा’, ‘चपटी छत’, ‘भवन का सबसे ऊपरी भाग अथवा कमरा’, ‘सबसे ऊपर की मंजिल’, ‘छज्जा’, ‘प्रासाद के ऊपर बना अस्थायी निर्माण’, ‘तम्बू’ आदि किया है। प्रसंग के अनुसार उन्होंने अनुमान किया है कि इसका तात्पर्य देवालय के किसी रूप से होगा। अतः यहाँ उन्होंने सपाट छतवाले मन्दिर की कल्पना की है। कैलास-तुङ्ग-शिखर-प्रतिमानि चान्या- न्याभान्ति दीर्घ-बलभी–                   नि सवेदिकानि। गान्धर्व्व-शब्द-मुखरानि निविष्ट-चित्र- कर्म्माणि लोल-कदली-वन-शोभितानि [ ॥ ११ ] — मंदसौर अभिलेख । ‘अनन्तस्वामी-पाद’ का तात्पर्य सम्भवतः भगवान विष्णु-पद से है। जान पड़ता है कि भगवान विष्णु की मूर्ति के विकसित हो जाने के बावजूद प्रतीक पूजा का महत्त्व इस काल तक बना हुआ था। ‘चित्रकूटस्वामी-पाद—कोष्ठ’ का तात्पर्य है — चित्रकूट प्रयागराज से लगभग १२० किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम, बाँदा से लगभग ७० किलोमीटर दक्षिण-पूर्व स्थित एक प्रख्यात पर्वतीय स्थल है। कहा जाता है कि यहाँ श्रीराम अपने वनवास काल में यहाँ रहे थे। अतः इस स्थान की ख्याति तीर्थ-स्थल के रूप में है। सहज अनुमान किया जा सकता है कि चित्रकूट-स्वामी का तात्पर्य यहाँ श्रीराम से है और ‘चित्रकूटस्वामी-पाद’ से किसी ऐसे मन्दिर से तात्पर्य है जिसमें  भगवान राम की चरण पादुका प्रतिष्ठित रही होगी। कोष्ठ का सीधा-सादा अर्थ ‘कोठार’ (वह स्थान जहाँ सुरक्षित रूप से सम्पत्ति रखी जाती है) है। यहाँ इसका तात्पर्य सम्भवतः खजाने से है। प्राचीन काल में अनेक धार्मिक-स्थल आधुनिक बैंक का काम करते थे जहाँ अक्षयनीवि के रूप में स्थायी रूप से धन जमा किया जाता था, और उस धन से सूद के रूप में होनेवाली आय, धन जमा करने वाले की इच्छानुसार निश्चित कार्य में व्यय किया जाता था। इस प्रकार का कार्य चित्रकूट स्वामी पाद करता रहा होगा और उसका जो विभाग यह कार्य करता होगा वह कोष्ठ कहा जाता होगा। ‘अनन्तस्वामी-पाद‘ के प्रतिष्ठापक ने उनके पूजा-अर्चना तथा मन्दिर की मरम्मत के निमित्त कुछ धन राशि जमा की थी। उसी बात को उसने इस लेख द्वारा प्रकाशित किया है। गढ़वा अभिलेख स्कंदगुप्त का जूनागढ़ अभिलेख कहौम स्तम्भ-लेख सुपिया स्तम्भ-लेख इंदौर ताम्र-लेख – गुप्त सम्वत् १४६ ( ४६५ ई० )

पाँचवाँ गढ़वा अभिलेख, गुप्त सम्वत् १४८ ( ४६७ ई० ) Read More »

इंदौर ताम्र-लेख – गुप्त सम्वत् १४६ ( ४६५ ई० )

भूमिका इंदौर ताम्र-लेख उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद के अंतर्गत अनुपशहर तहसील के इंदौर ग्राम के एक नाले में पड़ा हुआ ए० सी० एल० कार्लाईल को १८७४ ई० में मिला था। लगभग ८ इंच लंबे और साढ़े पाँच इंच चौड़े ताम्र-फलक पर अंकित है। कनिंघम महोदय ने इसको प्रकाशित किया। तत्पश्चात् जे० एफ० फ्लीट महोदय ने इसको Corpus Inscriptionum Indicarum में प्रकाशित किया। संक्षिप्त विवरण नाम :- स्कंदगुप्त का इंदौर ताम्र-लेख [ Indore Copper Plate Inscription of Skandgupta ] स्थान :- इंदौर ग्राम, अनूपशहर तहसील, बुलंदशहर जनपद; उत्तर प्रदेश। भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तर भारतीय / उत्तरी रूप )। समय :- गुप्त सम्वत् १४६ ( ४६५ ई० ), स्कंदगुप्त का शासनकाल। विषय :- सूर्य पूजा और सूर्य मंदिर में दीपक जलाये जाने के लिये धनदान का विवरण। मूलपाठ १. सिद्धम् [॥] यं विप्रा विधिवत्प्रबुद्ध-मनसो ध्यानैकताना स्तुवः यस्यान्तं त्रिदशासुरा न विविदुर्न्नोर्ध्वं न तिर्य- २.                                ग्गति[म् ] [।] यं लोको बहु-रोग-वेग-विवशः संश्रित्य चेतोलर्भः पायाद्वः स जगत्पि[ढ़ा]न-पुट-भिद्रश्म्या- ३.                                करो भास्करः [II १] परमभट्टारक-महाराजाधिराज-श्रीस्कन्दगुप्तस्याभिवर्द्धमान-विजय-राज्य-संव्वत्सरं शते षच्चत्वा- ४. [रि]ङ् शदुत्तरतमे फाल्गुन-मासे तत्पाद-परिगृहीतस्य विषयपति शर्व्वेनागस्यान्तर्व्वद्यां भोगाभिवृद्धये वर्त्त- ५. माने चेन्द्रापुरक पद्मा-चातुर्व्विद्य-सामान्य-ब्राह्मण-देव-विष्णुर्द्देव-पुत्रो हरित्रात पौच्चः डुडक-प्रपौत्रः सतताग्निहो- ६. त्र-छन्दोगो राणायणीयो वर्षगण-सगोत्र इन्द्रापुरक-वणिग्भ्यां क्षत्रिया-चलवर्म- भृकुण्ठसिङ्हाभ्यामधिष्ठा- ७. नस्य प्राच्यां दिशीन्द्रपुराधिष्ठान-माडास्यात-लग्नमेव प्रतिष्ठापितक-भगवते सवित्रे दीपोपयोज्यमात्म-यशो- ८. भिवृद्धये मूल्यं प्रयच्छतिः [॥] इन्द्रपुर-निवासिन्यास्तैलिक श्रेण्या जीवन्त-प्रवराया इतो(ऽ) धिष्ठानादपक्क्रम- ९. ण-संप्रवेश-यथास्थिरायाः आजस्रिकं ग्रहपतेर्द्विज-मूल्य-दत्तमनया तु श्रेण्या यदभग्नयोगम् १०. प्रत्थमार्हाव्य[व]च्छिन्न संस्थं देयं तैलस्य तुल्येन पलद्वयं तु २ चन्द्रार्क-समकालीयं [॥] ११. यो व्यक्क्रमेद्दायमिमं निबद्धम् गोघ्नो गुरुघ्नो द्विज-घातकः सः [।] तैः पातकैः १२.                       पञ्चभिरन्वितो(S)धर्गच्छेन्नरः सोपनिपातकैश्चेति॥ हिन्दी अनुवाद सिद्धि हो। जिनका ब्राह्मण विधिवत् प्रबुद्ध मन से एकाग्र होकर ध्यान करते हैं, जिनका अन्त न तो देवता और न असुर जान पाते हैं, जिन्हें बहुरोग-वेग-विवश लोक स्मरण कर लाभ प्राप्त करते हैं, वे जगत्पीठ रश्मि-आकर भास्कर (सूर्य) रक्षा करें। परम-भट्टारक महाराजाधिराज श्री स्कन्दगुप्त के अभिवर्द्धमान विजय-राज्य संवत्सर एक सौ छियालिस के फाल्गुन मास में, जब उनके परिगृहीत विषयपति शर्वनाग अन्तर्वेदी में विषयपति के रूप में भोग की अभिवृद्धि करते हुए वर्तमान थे — सतत अग्निहोत्र में रत छन्दोग्य राणायनीय-वर्ष-गण-गोत्र के चन्द्रपुर स्थित पद्मा निवासी चतुर्वेदी ब्राह्मण देव के पुत्र, हरित्रात के पौत्र, डुडिक के प्रपौत्र देवविष्णु ने, अपने यशोवृद्धि के निमित्त, इन्द्रपुर के वणिक्-क्षत्रिय अचलवर्मा और भूकुण्ठसिंह के अधिष्ठान (दुकान) के पूर्व स्थित इन्द्रपुर अधिष्ठान से सटे माडास्यात में स्थापित भगवान् सवित्र (सूर्य) के दीपायोजन के निमित्त यह मूल्य [धन दान] दिया। यह धन इन्द्रपुर-निवासी तैलिक-श्रेणी में, जिसके प्रधान (प्रवर) जीवन्त हैं, आजश्रिक सम्पत्ति [के रूप में] अभग्न-योग (स्थायी रूप से बनी) रहेगी और इस (श्रेणी) के अन्यत्र चले जाने पर भी बनी रहेगी। जब तक सूर्य और चन्द्र हैं तब तक यह श्रेणी तौलकर दो पल तेल निरन्तर दिया करेगी और मूल-धन का किसी प्रकार भी क्षय नहीं होगा जो कोई इस निबन्ध के दाय का व्यतिक्रमण करेगा, वह गो-हत्या, गुरु-हत्या, द्विजघात का भागी होगा और वह अपने अन्य पाप के साथ पंच महापातक का पापी होकर नरक में जायेगा। विश्लेषण इंदौर ताम्र-लेख सूर्य मन्दिर में दीप जलाने के निमित्त तेल की व्यवस्था के लिये दिये गये मूल्य (स्थायी दान) की प्रज्ञप्ति है। इस कार्य के लिये कितना धन दिया गया इसका कोई उल्लेख नहीं है। यह धन तैलिक की श्रेणी को स्थायी (आजस्रिक) सम्पत्ति के रूप में दिया गया था जिसके बदले में उनके द्वारा दो पल तेल दिये जाने की बात कही गयी है; परन्तु धन की तरह ही यह नहीं बताया गया है कि तेल की यह मात्रा कितने अन्तराल से दी जायेगी। ऐसा अनुमान होता है कि यह व्यवस्था दैनिक रही होगी। इंदौर ताम्र-लेख में ‘वणिग्भ्यां क्षत्रिय-अचलवर्म भुकुष्ठसिंहाभ्याम्-अधिष्ठान’ पद में आया क्षत्रिय शब्द विद्वानों का ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट करता है। यदि क्षत्रिय शब्द अचलसिंह की तरह ही व्यक्तिवाचक है तो उसका कोई विवेचनिक महत्त्व नहीं है। परन्तु यदि इसका अभिप्राय क्षत्रिय वर्ण से हो, जैसा कि सामान्य रूप से सभी विद्वानों की धारणा है, तो यह तत्कालीन समाज की दृष्टि से विवेच्य हो जाता है। इस अवस्था में यह कहना होगा कि इस काल तक क्षत्रिय वर्ण ने अपना रूढ रूप धारण कर लिया था; समाज में उसकी स्वतन्त्र सत्ता मानी जाने लगी थी। यदि ऐसा न होता तो वणिक् के रूप में अचलवर्मा और भुकुण्ठसिंह के लिये क्षत्रिय जैसे विशेषण की आवश्यकता न होती। अपना वर्ण-कार्य छोड़कर अन्य वर्ण के कार्य का स्मृतिकारों ने निषेध किया है और आपद्काल में ही व्यवसाय बदलने की अनुमति दी है, जिसका तात्पर्य यह है कि वर्णेतर व्यवसाय करना समाज में हेय समझा जाता रहा होगा। परन्तु जब हम यहाँ क्षत्रिय को वर्णेतर व्यवसाय करते पाते हैं तो ऐसा लगता था कि जन-सामान्य में स्मृतिकारों के कथन का विशेष प्रभाव नहीं था। इंदौर ताम्र-लेख में उल्लिखित इन्द्रपुर इन्दौर है जहाँ से ताम्रलेख उपलब्ध हुआ है; वह अन्तर्वेदी विषय में स्थित था। अन्तर्वेदी का तात्पर्य प्राचीनकाल में गंगा-यमुना के बीच का क्षेत्र, जो प्रयाग से हरिद्वार तक विस्तृत था, समझा जाता रहा है। इसी क्षेत्र में बुलन्दशहर जिला, जिसके अन्तर्गत इन्दौर है, अवस्थित है। छान्दोग्य और राणायणीय सामवेद की दो शाखाएँ हैं। इससे ज्ञात होता है कि दानदाता सामवेदी ब्राह्मण था। प्रायः ब्राह्मणों द्वारा दान प्राप्त करने की ही चर्चा पायी जाती है। स्मृतिकारों ने ब्राह्मर्णो के कर्तव्यों में दान देने का उल्लेख नहीं किया है इस दृष्टि से भी इस दान-पत्र का महत्त्व है। स्कंदगुप्त का जूनागढ़ अभिलेख कहौम स्तम्भ-लेख सुपिया स्तम्भ-लेख

इंदौर ताम्र-लेख – गुप्त सम्वत् १४६ ( ४६५ ई० ) Read More »

सुपिया स्तम्भ-लेख

भूमिका सुपिया स्तम्भ-लेख मध्य प्रदेश के रीवा जनपद से सुपिया ग्राम के निकट से १९४३-४४ ई० में मिला है। वर्तमान में यह धुबेला संग्रहालय, मध्य प्रदेश में संरक्षित रखा गया है। इसका उल्लेख सबसे पहले बहादुरचन्द्र छाबड़ा ने किया। तत्पश्चात् दिनेशचन्द्र सरकार ने इसको सम्पादित करके प्रकाशित किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- स्कंदगुप्त का सुपिया स्तम्भ-लेख [ Supiya/Supia Stone Pillar Inscription of Skandgupta ] स्थान :- सुपिया, रीवा जनपद; मध्य प्रदेश। भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी परवर्ती ( उत्तर भारतीय )। समय :- गुप्त सम्वत् १४१ ( ४६० ई० ), स्कंदगुप्त का शासनकाल विषय :- जैन मूर्ति और स्तम्भ के स्थापना की विज्ञप्ति। मूलपाठ १. [श्री]घ[टो]त्कच[ ] [।] तद्वन्शे प्रव[र्त्तमा]- २. [ने]महार[ ]ज-[श्रीसमुद्रगु]प्तः [।] त[त्पु]- ३. [त्र]-श्रीविक्क्रमा[दित्यः] त[त्पुत्र] [।] महारा[ज]- ४. [श्री] महेन्द्रादित्य[:] तस्य [पु]त्र[:] चक्क्र[व]- ५. [र्त्ति]तु[ल्यो महा]बलविक्क्र[मे]ण र[म]- ६. [तु]ल्यो धर्म्म] प [र] तया युधिष्ठिर स [त्ये]- ७. नाचर[वि]नय महाराज-श्रीस्क[न्द]- ८. गुप्तस्य राज्य[सम्व]त्सर शते एक- ९. चत्वारि[न्शोत्त]रके [।] [अस्यां] दिवसपू- १०. र्व्वायां [।] अवडर-वास्तव्य-कुटुम्बि[कः]- ११. कैवर्त्तिश्रेष्ठि-नप्तृ हरिश्रेष्ठि पु[त्रः] श्रीद- १२. [त्तः।] तद्भ्रातृ वर्ग[:] [।] त[द्भ्रा] ताच्छन्दक[श्चेति] [।] १३. स्वपुण्याप्यायनार्थ यशः-की- १४. [र्त्ति]-प्रवर्ध[य]मान-गोत्र-शैलिका बल-य- १५. ष्ठिः प्रतिष्ठापिता वर्गाग्रामिकेण १६. जेष्ठमासे-शुक्लपक्षस्य द्विती- १७. [यायां] ति[थौ] [॥] हिन्दी अनुवाद श्री घटोत्कच; उनके वंश में हुए महाराज श्री समुद्रगुप्त; उनके पुत्र श्री विक्रमादित्य; उनके पुत्र महाराज श्री महेन्द्रादित्य; उनके पुत्र चक्रवर्ती के समान महाबल विक्रम, राम के समान धर्म-परायण और युधिष्ठिर की तरह सत्यवादी और विनयशील महाराज श्री स्कन्दगुप्त के राज्य का संवत्सर १४१। इस दिन अवडर-निवासी कुटुम्बिक (वैश्य) कैवर्तश्रेष्ठि के नप्ता (नाती; दौहित्र), हरिश्रेष्ठि के पुत्र श्रीदत्त; उनके भाई वर्ग्ग; उनके भाई छन्दक। अपनी पुण्य की प्राप्ति और यश-कीर्ति के निमित्त ग्रामिक वर्ग्ग ने [इस] गोत्र-शैलिक बल-यष्ठि की प्रतिष्ठा की। ज्येष्ठ मास शुक्ल पक्ष द्वितीया की तिथि। विश्लेषण शब्द विश्लेषण : सुपिया स्तम्भ-लेख एक प्रस्तर-स्तम्भ ( Stone Pillar ) है, इसको गोत्र-शैलिक और बल-यष्टि कहा गया है। जहाँ स्तम्भ था, वहाँ के लोग इसे सती-स्तम्भ कहते थे। बहादुरचन्द्र छाबड़ा ने इसे षष्ठी से सम्बन्धित अनुमान किया था। षष्ठी कार्तिकेय की पत्नी का नाम है। सन्तान-जन्म के उपरान्त इनकी पूजा जन्म के छठे दिन किये जाने की प्रथा उत्तर भारत के प्रायः सभी परिवारों में पायी जाती है। दिनेशचन्द्र सरकार ने इस लेख का सम्पादन करते हुए इस कल्पना का खण्डन किया है। उनके मत के अनुसार यह ग्रामिक (ग्राम के मुखिया) वर्ग द्वारा स्थापित गोत्र-शैलिक है और परिवार के मृत व्यक्तियों की स्मृति में स्थापित किया गया था। गोत्र-शैलिक के साथ एक अन्य पद बल-यष्टि का उल्लेख है। बल-यष्टि का उल्लेख इसी क्षेत्र के भूमरा नामक स्थान से प्राप्त परिव्राजक महाराज के काल के एक लेख में भी हुआ है। वहाँ फ्लीट ने इसका तात्पर्य ‘सीमा स्तम्भ‘ लिया है। परन्तु गोत्र-शैलिक के प्रसंग में इसकी कोई संगति नहीं बैठती है। दिनेशचन्द्र सरकार ने बल-यष्टि को गोत्र-शैलिक का विशेषण माना है और उसका अर्थ भारी-भरकम स्तम्भ (stout pillar) माना है। यष्टि का तात्पर्य स्मारक स्तम्भ जान पड़ता है उसे ही गोत्र-शैलिक भी कहा गया है और परिवार के [मृत] लोगों की स्मृति में स्थापित किया गया था। चक्रवर्ती गुप्त राजाओं की वंशावली : सुपिया स्तम्भ-लेख की उल्लेखनीय बात यह है कि इसमें गुप्त वंश के शासकों का उल्लेख करते हुए उसका आरम्भ आदि-पुरुष श्रीगुप्त से न करके घटोत्कच से किया गया है। इसमें गुप्त वंश को ‘घटोत्कच वंश’ कहा गया है। घटोत्कच के बाद सीधे समुद्रगुप्त का उल्लेख है। यहाँ चन्द्रगुप्त (प्रथम) के नाम की उपेक्षा की गयी है। यद्यपि वैयक्तिक लेख में विशेष महत्त्व की बात भले ही न कही जाय परन्तु विचारणीय अवश्य है। समुद्रगुप्त के बाद उनके उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त (द्वितीय) और कुमारगुप्त (प्रथम) का उल्लेख उनके नामों से न करके उनके विरुदों द्वारा विक्रमादित्य और महेन्द्रादित्य के रूप में किया गया है। यह बात भी अप्रत्याशित और असाधारण है। समुद्रगुप्त और कुमारगुप्त (प्रथम) को केवल ‘महाराज’ कहा गया है जबकि घटोत्कच के लिए किसी भी विरुद का प्रयोग नहीं किया गया है। इस लेख की सबसे महत्त्व की बात तो यह है कि स्कन्दगुप्त को चक्रवर्ती राजा के समान, राम के समान महाबली-विक्रमी और युधिष्ठिर के समान सत्यवादी और विनम्र कहा गया है। इस लेख में इस प्रकार की प्रशंसा इस बात की अभिव्यक्ति है कि जनसाधारण उन्हें बड़ी ऊँची दृष्टि से देखती थी; वह लोक-प्रिय थे। स्तम्भ संथापक का विवरण : सुपिया स्तम्भ-लेख के प्रतिष्ठापक वर्ग को ग्रामिक कहा गया है; वह कदाचित् अपने ग्राम का मुखिया है। वह कदाचित् वही वर्ग है जिसे कुटुम्बिक कैवर्ति-श्रेष्ठि का का नप्ता (दौहित्र) कहा गया है। वहाँ कदाचित् इस ग्राम का निवासी नहीं था और अपने मातामह के परिवार में गृहीत (गोद लिया गया था।) उसके मातामह वैश्य (कुटुम्बी) होने के साथ श्रेष्ठि (सेठ) अर्थात् महाजन भी थे। स्कंदगुप्त का जूनागढ़ अभिलेख कहौम स्तम्भ-लेख

सुपिया स्तम्भ-लेख Read More »

कहौम स्तम्भ-लेख

भूमिका स्कंदगुप्त का कहौम स्तम्भ-लेख उत्तर प्रदेश राज्य के देवरिया जनपद में कहौम नामक ग्राम में स्थापित एक स्तम्भ है। इस स्तम्भ पर पाँच तीर्थंकरों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं और यह लेख अंकित है। कहौम को कहाँव और कहाऊँ ( Kahaon ) भी लिखा जाता है। उत्तर प्रदेश का सर्वेक्षण करते समय १८०६ और १८१६ ई० के बीच डॉ० फ्रांसिस बुकानन (हैमिलटन) [ Dr. Francis Buchanan ( Hamilton) ] ने इस लेख को देखा था। इसका उल्लेख उन्होंने अपनी उस रिपोर्ट में किया है जिसे उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के संचालक मण्डल के सम्मुख प्रस्तुत किया था। इस हस्तलिखित रिपोर्ट के आधार पर १८३८ ई० में माण्टगोमरी मार्टीन ( Montgomery Martin ) ने अपनी पुस्तक ‘ईस्टर्न इण्डिया’ ( Eastern India ) में इस लेख का उल्लेख किया और उसकी छाप प्रकाशित की। उसी वर्ष जेम्स प्रिंसेप ( James Prinsep ) ने भी अंगरेजी अनुवाद सहित इसका पाठ प्रकाशित किया। १८६० ई० में फिट्ज एडवर्ड हाल ( Fitz Edward Hall ) ने इसके प्रथम श्लोक को अनुवाद सहित प्रकाशित किया। १८७१ ई० में एलेक्जेंडर कनिंगहम ने और १८८१ ई० में भगवानलाल इन्द्रजी ने अपने पाठ प्रकाशित किये। फिर जे० एफ० फ्लीट ने उसका सम्पादन किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- स्कंदगुप्त का कहौम स्तम्भ-लेख [ Kahaum Stone Pillar Inscription of Skandgupta ] या  प्राचीन दिगम्बर जैन स्तम्भ , कहाऊँ [ Ancient Digambar Jain Pillar, Kahaon ] स्थान :- कहौम या कहाँव या कहाऊँ, देवरिया जनपद; उत्तर प्रदेश। भाषा :- संस्कृत लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १४१ ( ४६० ई० ), स्कंदगुप्त का शासनकाल विषय :- जैन मूर्ति और स्तम्भ के स्थापना की विज्ञप्ति। मूलपाठ १. सिद्ध[म्] [।] यस्योपस्थान भूमिर्नृपति-शत-शिरः-पात-वातावधूता २. गुप्तानां वन्शजस्य प्रविसृत-यशसस्तस्य सर्वोत्तमर्द्धः ३. राज्ये शक्रोपमस्य क्षितिप-शत-पतेः स्कन्दगुप्तस्य शान्ते ४. वर्षे त्रिन्शद्दशैकोत्तरक-शततमे ज्येष्ठ-मासि प्रपत्रे [॥ १] ५. ख्याते(ऽ) स्मिन्ग्राम-रत्ने ककुभ इति जनैस्साधु-संसर्ग-पूते [।] ६. पुत्तो यस्सोमिलस्य प्रचुर-गुण-निधेर्भट्टिसोमो महा[त्मा] [।] ७. तत्सूनू रुद्रसोमः पृथुल-मति-यशा व्याघ्र इत्यन्य-संज्ञो । ८. मद्रस्तस्यात्मजो(ऽ) भूद्विज-गुरु-यतिषु प्रायशः प्रीतिमान्यः [॥ २] ९. पुण्य-स्कन्धं स चक्क्रे जगदिदमखिलं संसरद्वीक्ष्य भीतो १०. श्रोयोर्त्थं भूत-भूत्यै पथि नियमवतामर्हतामादिकर्त्तृन् [I] ११. पञ्चेन्द्रां स्थापयित्वा धरणिधरमयान्सन्निखातस्ततोऽयम् १२. शैल-स्तम्भः सुचारुगिरिवर-शिखराग्रोपमः कीर्ति कर्ता [॥ ३] हिन्दी अनुवाद सिद्धम् जिसकी उपस्थान-भूमि शत नृपतियों के सिर झुकाने से उत्पन्न वायु से हिल उठती है, जिसका वंश गुप्त है, जिसका यश जगत्-विख्यात है, जो समृद्धि में सर्वोत्तम है, जो शक्रोपम (इन्द्र-तुल्य) है, जो शत क्षितिपति है, उस स्कन्दगुप्त के शान्ति [पूर्ण शासन के] वर्ष एक सौ एकतालीस का यह ज्येष्ठ मास गाँव का यह रत्न ककुभ नाम से प्रख्यात है और साधु-संसर्ग से पवित्र है। इस ग्राम में सोमिल का पुत्र प्रचुर-गुणनिधि महात्मा भट्टिसोम हुआ उसका पुत्र प्रथुल-मति और यशवाला रुद्रसोम हुआ, जिसे लोग व्याघ्र नाम से भी पुकारते थे। उसका पुत्र मद्र हुआ, वह ब्राह्मण, गुरुजनों और साधु-सन्तों के प्रति श्रद्धाभाव रखता था। यह देखकर कि यह संसार सतत परिवर्तनशील है, भयभीत होकर उसने अपने लिए अधिकाधिक पुण्य बटोरने का प्रयास किया[और] समस्त जगत् के हितार्थ अर्हत् पद के आदि कर्ता पाँच इन्द्रों (जितेन्द्रों) की मूर्तियाँ उत्कीर्ण कराकर इस शैल-स्तम्भ को भूमि पर खड़ा किया जो हिमालय की चोटी की तरह दिखाई देता है। विश्लेषण कहौम स्तम्भ-लेख से निम्न ऐतिहासिक महत्त्व की बातें ज्ञात होती हैं :- यह लेख उस शैल-स्तम्भ के स्थापना की घोषणा है, जिस पर वह अंकित है। इस स्तम्भ के शीर्ष पर एक तथा चौपहल तल के चारों ओर एक-एक तीर्थंकर की प्रतिमा उत्कीर्ण है। ये हैं — आदिनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी। इस लेख से ज्ञात होता है कि कहौम ( कहाँव / कहाऊँ ) ग्राम का, जहाँ यह स्तम्भ है, प्राचीन नाम कुकुभ था। इस लेख की पंक्ति संख्या ३-४ में आये ‘स्कन्दगुप्तस्य शान्ते वर्षे’ का तात्पर्य अनेक विद्वानों ने स्कन्दगुप्त के शान्त (मृत्यु) होने के पश्चात् अथवा स्कन्दगुप्त का [साम्राज्य] शान्त (समाप्त) होने पर लिया था और इसे उसके मृत्यूपरान्त अथवा उसके शासन के समाप्त होने के बाद का लेख अनुमान किया है। परन्तु भाऊ दाजी ने इसे स्कन्दगुप्त के शान्तिपूर्ण शासनकाल के अर्थ में ग्रहण किया और उसका अनुमोदन फ्लीट ने भी किया। यही अर्थ तर्कसंगत भी प्रतीत होता है। स्कंदगुप्त का जूनागढ़ अभिलेख

कहौम स्तम्भ-लेख Read More »

स्कंदगुप्त का जूनागढ़ अभिलेख

भूमिका स्कंदगुप्त का जूनागढ़ अभिलेख सौराष्ट्र में जूनागढ़ से एक मील पूरब स्थित गिरनार नामक पर्वत के उस प्रस्तर खण्ड पर यह लेख अंकित है, जिस पर महाक्षत्रप रुद्रमदामान का प्रख्यात अभिलेख है। इसके ज्ञात होने की सूचना सर्वप्रथम १८३८ ई० में जेम्स प्रिंसेप ने प्रकाशित की थी। १८४३ ई० में रायल एशियाटिक सोसाइटी की बम्बई शाखा के सम्मुख इसकी एक प्रतिलिपि प्रस्तुत की गयी, जिसे जनरल सर जार्ज लीग्रैण्ड जेकब तथा एन० एल० वेस्टरगार्ड ने तैयार की थी। यह प्रतिलिपि १८४४ ई० में प्रकाशित हुई। १८६३ ई० में भाऊ दाजी ने अंग्रेजी अनुवाद के साथ इस लेख का अपना पाठ प्रस्तुत किया। तत्पश्चात् एगलिंग ने उनके पाठ में संशोधन किया। अन्त में जे० एफ० फ्लीट ने इसे सम्पादित कर Corpus apInscriptionum Indicarum में प्रकाशित किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- स्कंदगुप्त का जूनागढ़ अभिलेख [ Junagarh Inscription of Skandgupta ] स्थान :- जूनागढ़, गुजरात भाषा :- संस्कृत लिपि :- दक्षिणी ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १३६, १३७ और १३८ ( ४५५, ४५६ और ४५७ ई० ), स्कंदगुप्त का शासनकाल विषय :- पुरपाल चक्रपालित द्वारा सुदर्शन झील के बाँध का पुनर्निर्माण, भगवान विष्णु के मंदिर का निर्माण। मूलपाठ १. ॐ सिद्धम्॥ श्रियमभिमतभोग्यां नैककालापनीतां त्रिदश[प]ति-सुखार्थं यो बलेराजहार[।] कमल-निलयनायाः शाश्वतं धाम लक्ष्म्याः २. स जयति विजितार्त्तिर्विष्णुरवन्त जिष्णुः [॥ १] तदनु जयति शश्वत् श्री-[पति]क्षिप्त-वक्षाः स्वभुज-जनित-वीर्यो राजराजाधिराजः [I] नरपति- ३. भुजगानां मानदर्प्पोत्फणानां प्रतिकृति-गरूणा[ज्ञां] निर्व्विषीं चावकर्ता [॥ २] नृपति-गुण-निकेतः स्कन्दगुप्तः पृथु-श्रीः चतुरु[दधि-जल ]ान्तां स्फीत-पर्यन्त-देशा[।] ४. अवनिमवनतारिर्यः चकारात्म-संस्थां पितरि सुरसखित्वं [प्राप्त]वत्यात्म शक्त्या[॥ ३] अपि च जितमेव तेन प्रथयन्ति यशांसि यस्य रिपवो(ऽ)पि [।] आमूल-भग्न-दर्प्पा नि[र्वचन]१ [सर्व]देशेषु [॥४] भंडारकर महोदय ने इसको नि[वर्तिता] पढ़ा है।१ ५. क्रमेण बुद्ध्या निपुणं प्रधा[र्य] ध्यात्वा च कृत्स्नान्गुण-[दोष हेतून्] [।] व्यपेत्य सर्व्वन्मनुजेन्द्र-पुत्रांल्लक्ष्मीः [स्वयं] यं वरयांचकर [॥ ५] [त]स्मिन्नृपे शासति नैव कश्चिद्ध[र्म्मा]दपेतो मनुजः प्रजासु। ६. [आर्त्तो]दरिद्रो व्यसनी कदर्यो दण्डेन वा यो भृश-पीडितः स्यात् [॥ ६] एवं स जित्वा पृथिवीं समग्रां भग्नाग्र-द[र्पान्] द्विषतश्च कृत्वा। सर्व्वेषु देशेषु विधाय गोप्तृन् संचिन्तया[मा]स-बहु प्रकारम् [॥ ७] स्यात्को(ऽ)नुरूपो ७.              मतिमान्विनितो मेघा स्मृतिभ्यामनपे [त-भा]वः [।] सत्यार्जवौदार्य-नयोपप[न्नो]।     [माधुर्य]-दाक्षिण्य[य]शोन्वितश्च [॥ ८] भक्तो(ऽ)नुरक्तो नृ-[विशे]ष-युक्तः सर्व्वोपधाभिश्च विशुद्ध-बुद्धिः। आनृण्य-भावोपगतान्तरात्माः सर्व्वस्य लोकस्य हिते प्रवृत्तः [॥ ९] ८. न्यायार्जने(ऽ)र्थस्य च कः समर्थः स्यादर्जितस्याप्यथ रक्षणे च। गोपायितस्यापि [चा] वृद्धि-हेतौ वृद्धस्य पात्र-प्रतिपादनाय [॥ १०] सर्व्वेषु भृत्येष्वपि संहतेषु यो मे प्रशिष्यान्निखिलान्सुराष्ट्रान्। आं ज्ञातमेकः खलु पर्णदत्तो भारस्य तस्योद्वहने समर्थः [॥ ११] ९. एवं विनिश्चत्य नृपाधिपेन नैकानहो-रात्र-गणन्स्व-मत्या। यः    नियुक्तो(ऽ)र्थनया कथंचित् सम्यक्सुराष्ट्रावनि-पालनाय [॥ १२] नियुज्य देवा वरुणं प्रतीच्यां स्वस्था यथा नोन्मनसो बभूवुः [।] पूर्व्वेतरस्यां दिशि पर्णदत्तं नियुज्य राजा धृतिमांस्तथाभूत् [॥ १३] १०. तस्यात्मजो ह्यात्मज-भाव-युक्तो द्विधेव चात्मात्म-वशेन नीतः। सर्व्वात्मनात्मेव च रक्षणीयो नित्यात्मवानात्मज-कान्त-रूपः [॥ १४] रूपानुरूपैर्ललितैर्विचित्रैः नित्य-प्रमोदान्वित-सर्वभावः। प्रबुद्ध-पद्माकर-पद्मवक्तो नृणां शरण्यः शरणागतानाम् [॥ १५] ११. अभवद्भुवि चक्रपालितो(ऽ)साविति नाम्ना प्रथितः प्रियो जनस्य। स्वगुणैरनुपस्कृतैरुदात्तैः पितरं यश्य विशेषयांचकार [॥ १६] क्षमा प्रभुत्वं विनयोनयश्च शौर्यं विना शौर्य-महार्चनं च। दाक्ष्यं२ दमो दानमदीनता च दक्षिण्यमानृण्यमशून्यता च [॥ १७] सौदर्यमार्येतर-निग्रहश्च अविस्मयो धैर्य्यमुदीर्णता च। भंडारकर महोदय ने इसको ‘वा(?)क्यं’ पढ़ा है।२ १२. इत्येवमेते(ऽ) तिशयेन यस्मिन्नविप्रवासेन गुणा वसन्ति [॥ १८] न विद्यते(ऽ) सौ सकले(ऽ)पि लोके यत्रोपमा तस्य गुणैः क्रियेत। स एव कार्त्स्न्येन गुणान्वितानां बभूव नृणामुपमान-भूतः [॥ १९] इत्येवमेतानधिकानतो(ऽ) न्यान्गुणान्प[री]क्ष्य स्वयमेव पित्रा। यः संनियुक्तो नगरस्य रक्षां विशिष्य पूर्वान्प्रचकार सम्यक् [॥२०] १३. आश्रित्य वीर्य [स्वभु]ज-द्वयस्य स्वस्यैव नरस्य दर्प। नोद्वेजयामास कंचिदेवमस्मिन्पुरे चैव शशास दुष्टाः [॥ २१] विस्रब्धमल्पेन शशाप्म यो(ऽ)स्मिन् कालेन लोकेषु सनागरेषु। यो लालयामास च पौरवर्गान् [स्वस्येव ] पुत्रान्सुपरीक्ष्य दोषान् [॥ २२] संरंजयां प्रकृतीर्बभूव पूर्व्व-स्मिताभाषण-मान-दानैः। १४. निर्यन्त्रणान्योन्य-गृह-प्रवेशेः संवर्द्धित-प्रीति-गृहोपचारैः [॥ २३] ब्राह्मण्य-भावेन परेण युक्तः[श]क्तः शुचिर्दानपरो यथावत्। प्राप्यान्स काले विषयान्सिषेवे धर्मार्थयोश्चा[प्य]विरोधनेन [॥ २४] [यो— …  — — …  … पर्णदत्ता]त्स न्यायवानत्र किमस्ति चित्रं। मुक्ता-कलापाम्बुज-पद्म-शीताच्चन्द्रात्किमुष्णं भविता कदाचित् [॥ २५] १५. अथा क्रमेणाम्बुद-काल आग[ते] [नि]दाघ कालं प्रविदार्य तोयदैः। ववर्ष तोयं बहु संततं चिरं सुदर्शनं येन बिभेद चात्वरात् [॥ २६] संवत्सराणामधिके शते तु त्रिंशद्भिरन्यैरपि षड्भिरेव। रात्रौ दिने प्रौष्ठपदस्य षष्ठे गुप्त-प्रकाले गणनां विधाय [॥ २७] १६. इमाश्च या रैवकाताद्विनिर्गताः पालासिनीयं शिकता-विलाशिनी। समुद्र-कान्ताः चिर-बन्धनोषिताः पुनः पतिं शास्त्र-यथोचितं ययुः [॥ २८] अवेक्ष्य वर्षागमजं महोद्भ्रमं महोदधेरूर्जयता प्रियेप्सुना। अनेक-तीरान्तज-पुष्प-शोभितो १७.                     नदीमयो हस्त इव प्रसारितः [॥ २९] विषाद्य[मानाः] खलु सर्वतो [ज]नाः कथं-कथं कार्यमिति प्रवादिनः। मिथो हि पूर्वापर-रात्रमुत्थिता विचिन्तयां चापि बभूवुरुत्सुकाः [॥ ३०] अपीह लोके सकले सुदर्शनं पुमां हि दुर्दर्शनतां गत क्षणात्। १८. भवेन्नु सो(ऽ)म्भोनिधि तुल्य दर्शनं सदर्शन— …  …  — …  — … — [॥ ३१] …  — … —  — … वणे स भूत्वा पितुः परां भक्तिमपि प्रदर्श्य [।] धर्म पुरो-धाय शुभानुबन्धं राज्ञो हितार्थं नगरस्य चैव [॥ ३२] संवत्सराणामधिके शते तु १९.                   त्रिंशद्भिरन्यैरपि सप्तभिश्च। [गुप्त- प्रकाले] [नय]-शास्त्र-वेत्ता [विश्वे](ऽ) प्यनुज्ञात-महाप्रभावः [॥ ३३] आज्य-प्रणामैः विबुधानथेष्ट्वा धनैर्द्विजातीनपि तर्पयित्वा। पौरांस्तथाभ्यर्च्य यथार्हमानैः भृत्यांश्च पूज्यान्सुहृदश्च दानैः [॥ ३४] २०. ग्रैष्मस्य मासस्य तु पूर्व-प[क्षे] …  — … —  — [प्र]थमे(ऽ)ह्नि सम्यक्। मास-द्वेनादरवान्य भूत्वा धनस्य कृत्वा व्ययमप्रमेयम् [॥ ३५] आयामतो हस्त-शतं समग्रं विस्तारतः षष्टिरथापि चाष्टौ। २१. उत्सेधतो(ऽ)न्यत् पुरुषाणि [सप्त ?]  …  —  …  — [ह]स्त-शत-द्वयस्य [॥ ३६] बबन्ध यत्रान्महता नृदेवान[भ्यर्च्य ?] सभ्यग्धटितोपलेन। अ-जाति-दुष्टम्प्रथितं तटाकं सुदर्शनं शाश्वत-कल्प-कालम् [॥ ३७] २२. अपि च सुदृढ-सेतु-प्रान्त(?) -विन्यस्त-शोभ-रथचरणसमाह्व क्रौंचहंसास-धूतम्। विमल-सलिल —  —  — …  —  — … भुवित  …  …  …  —  —  — द[—]                                         (ऽ)र्कः शशी च [॥ ३८] २३. नहरमपि च भूयाद्वृद्धिमत्पौर-जुष्टं द्विजबहुशतगीत-ब्रह्म-निनंष्ट-पाप। शतमपि च समानामीति-दुर्भिक्ष-[मुक्त] …  …  …  …  …  …  —  —  —                                    …  —  —  …  —  — [॥ ३९] [इति] [सु]दर्शन-तटाक-संस्कार-ग्रन्थ रचना [स]माप्त X                           X                         X २४. दृप्तारि-दर्प-प्रणुदः पृथु-श्रियः स्व-वङ्श-केतोः सकलावनी-पतेः। राजाधिराज्याद्भुत-पुण्य-[कर्मणः] …  — …  —  — …  …  — …  — …  — [॥ ४०] —  — …  —  — …  …  — …  — …  — …  — …  —  — …  …  — —   [।] द्वीपस्य गोप्ता महतां च नेता दण्ड-स्थि[ता] नां २५.                                     द्विषतां दमाय [॥ ४१] तस्यात्मजेनात्मगुणान्वितेन गोविन्द-पादार्पित-जीवितेन। —  — …  —  — …  …  — …  — …  — …  — …  —  — …  …  — —   [॥ ४२] —  — …  —  — …  …  — …  — …  — ग्धं विष्णोश्च पादकमले समवाप्य तत्र। २६. अर्थव्ययेन            महता महता च काले नात्म-प्रभाव-नत-पौर जनेन तेन [॥ ४३] चक्रं विभर्ति रिपु — … …  — … — …  …  — …  — …  — …  —  — [।] —  — … — — — … — … — — … — — तस्यस्वतंत्र-विधि-कारण-मानुषस्य [॥ ४४ ] २७. कारितमवक्र-मतिना चक्रभृतः चक्रपालितेन गृहं। वर्षशते(ऽ)ष्टात्रिंशे गुप्तानां काल-[क्रग-गणिते] [॥ ४५] —  — …  —  — …  …  — …  — …  — …  —                             …. … … … …  — … — …  — — [।] २८. — [स]र्थमुत्थितमिवोर्जयतो(ऽ)चलस्य कुर्वत्प्रभुत्वमिव भाति पुरस्य मूर्ध्नि [॥ ४६] अन्यच्य मूर्ध्दिनि सु —  — … 

स्कंदगुप्त का जूनागढ़ अभिलेख Read More »

मथुरा मूर्ति-लेख; गुप्त सम्वत् १३५ ( ४५४ ई ० )

भूमिका मथुरा मूर्ति-लेख मथुरा-कारागार के निकट स्थित टीले से प्राप्त बुद्ध की एक खड़ी बुद्ध प्रतिमा के पादासन पर अंकित है सम्प्रति केवल पादासन और उसके ऊपर का कुछ ही भाग उपलब्ध है जिसमें केवल चरण-भाग और उसके बीच बैठी एक छोटी सी आकृति है। सम्भवतः यह अब लखनऊ संग्रहालय में है। इस लेख को पहले जे० डाउसन ने प्रकाशित किया; फिर एलेक्जेंडर कनिंघम ने इस लेख का अपना पाठ प्रस्तुत किया। तत्पश्चात् जे० एफ० फ्लीट ने इसे अपने Corpus Inscriptionum Indicarum में संकलित किया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- मथुरा मूर्ति-लेख [ Mathura Buddha Idol Inscription ] स्थान :- मथुरा, उत्तर प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १३५ ( ४५४ ई० ), कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल विषय :- विहारस्वमिनी द्वारा भगवान बुद्ध की मूर्ति के निर्माण की विज्ञप्ति। मूलपाठ १. संवत्सर शते पंचस्त्रिंशोत्तरतमे १००[+]३०[+]५ पुष्यमासे दिवसे विंशे दि २० [।] देयधर्मोऽयमं विहारस्वमिन्या २. देवतायाः॥ यदत्र पुण्यं तद्भवतु मातापित्रोः सर्व्वसत्वानाञ्च अनुत्तर-ज्ञानाप्तये॥ ३. सौभाग्यं प्रतिरूपता गुणवती कीर्तिस्सपत्नक्षयः श्रीमतो विभवा भवाः सुखफला निर्वाणमंते शिवम् ४. अस्ताब्धानि(?) भवन्ति दाननिरतौ चित्तं नियोज्यैकदा [ …….. — — …… ] विचरण-[ …. …. ] धियां[ — — … … ]याम् [॥] हिन्दी अनुवाद संवत्सर १३५ पुष्य मास दिन २०। यह देव [मूर्ति] विहारस्वामिनी का धर्मदान है। इससे जो भी पुण्य [लाभ] हो वह सब माता-पिता तथा समस्त प्राणियों के परम-ज्ञान के निमित्त [अर्पित है]। सौभाग्य, प्रतिरूपता, गुण, कीर्ति (यश), सपत्नी (सौत) का क्षय, समृद्धि, सुख देनेवाली योनियाँ, मंगलकारी निर्वाण [ये] सभी अनित्य हैं। दान देने के उपरान्त चित्त को नियोजित कर …… । टिप्पणी साँची प्रस्तर अभिलेख के समान ही इस लेख में भी शासक के नाम का उल्लेख नहीं है। इसमें अंकित तिथि १३५ को गुप्त-संवत् मानकर फ्लीट ने लेख को स्कन्दगुप्त के प्रारम्भिक शासन काल का अनुमान किया है। उनकी दृष्टि में कुमारगुप्त (प्रथम) इस काल तक शासन करना सम्भव नहीं है किन्तु कुमारगुप्त के चाँदी के सिक्के १३०+ तिथि के उपलब्ध हैं, दूसरी ओर स्कन्दगुप्त की जूनागढ़-प्रशस्ति से ज्ञात अद्यतम तिथि १३६ गुप्त सम्वत् ( ४५५ ई० ) है; वह इस लेख की तिथि के अति निकट है अतः फ्लीट के अनुमान के अनुसार इस लेख के स्कन्दगुप्त-कालीन होने की अधिक सम्भावना है। सम्प्रति निश्चयात्मक रूप से हम कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हैं। फिरभी इतिहासकारों ने कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल ४१५ से ४५५ ई० तक रहा। इस आधार पर यह अभिलेख कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल का ठहरता है। मथुरा मूर्ति-लेख बुद्ध-मूर्ति की स्थापना की सामान्य विज्ञप्ति है। बौद्ध धर्म और दर्शन की दृष्टि से पंक्ति ३-४ का महत्त्व जान पड़ता है। परन्तु अन्तिम पंक्ति के उत्तर भाग के कुछ शब्द अनुपलब्ध होने से इसका समुचि भाव ग्रहण कर सकना सम्भव नहीं हो पाया है। बुद्ध प्रतिमा की संस्थापिका का उल्लेख विहार-स्वामिनी नाम से हुआ है। जे० एफ० फ्लीट महोदय ने इसका भाव विहार-स्वामी ( विहार के व्यवस्थापक) की पत्नी लिया है। परन्तु एक मत यह भी है कि यह कोई व्यक्तिवाचक नाम हो; यथा – ध्रुवस्वामिनी, हरिस्वामिनी आदि नामों की तरह – जो कि हमें गुप्तकाल में मिलते हैं। कुमारगुप्त ( प्रथम ) का बिलसड़ स्तम्भलेख – गुप्त सम्वत् ९६ ( ४१५ ई० ) गढ़वा अभिलेख कुमारगुप्त प्रथम का उदयगिरि गुहाभिलेख (तृतीय), गुप्त सम्वत् १०६ मथुरा जैन-मूर्ति-लेख : गुप्त सम्वत् १०७ ( ४२६ ई० ) धनैदह ताम्रपत्र ( गुप्त सम्वत् ११३ ) गोविन्द नगर बुद्ध-मूर्ति लेख तुमैन अभिलेख ( गुप्त सम्वत् ११६ ) मन्दसौर अभिलेख मालव सम्वत् ४९३ व ५२९ करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख – गुप्त सम्वत् ११७ ( ४३६ – ३७ ई० ) कुलाइकुरै ताम्र-लेख दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख ( प्रथम ) गुप्त सम्वत् १२४ ( ४४३ – ४४ ई० ) दामोदरपुर ताम्रपत्र लेख (द्वितीय) – गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७-४८ ई० ) मथुरा बुद्ध-मूर्ति लेख – गुप्त सम्वत् १२५ ( ४४४ ई० ) बैग्राम ताम्र-लेख – गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७ – ४८ ई० ) जगदीशपुर ताम्रलेख; गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७ – ४८ ई० ) साँची प्रस्तर लेख : गुप्त सम्वत् १३१ ( ४५० – ५१ ई० )

मथुरा मूर्ति-लेख; गुप्त सम्वत् १३५ ( ४५४ ई ० ) Read More »

साँची प्रस्तर लेख : गुप्त सम्वत् १३१ ( ४५० – ५१ ई० )

भूमिका साँची प्रस्तर लेख मध्य प्रदेश के रायसेन जनपद में स्थित साँची महास्तूप के पूर्वी द्वार के दक्षिण बीच की वेदिका की चौथी पंक्ति तथा कोने के भाग में अंकित है। इसको कैप्टेन एडवर्ड स्मिथ ने ढूँढ निकाला था और जेम्स प्रिंसेप ने उसका पाठ और अनुवाद प्रकाशित किया। तत्पश्चात् जे० एफ० फ्लीट ने अपने Corpus Inscriptionum Indicarum में इसे सम्मिलित किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- साँची प्रस्तर लेख स्थान :- साँची, रायसेन जनपद, मध्य प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १३१ ( ४५०-५१ ई० ), कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल विषय :- हरिस्वामिनी द्वारा १२ दीनार का अक्षयनीवी दान मूलपाठ १. सिद्धम्। उपासक सनसिद्ध भार्य्यया उपासिका हरिस्वामिन्या- २. माता पितरमुद्दिश्य काकनादबोट महाविहारे चातुर्द्दिशयार्य्य सं- ३. घाय अक्षयनीवी दत्ता दीनारा द्वादश [।] एषां दीनाराणां या वृद्धि- ४. रूप जायते तथा दिवसे संघमध्यप्रविष्ठकभिश्ररैकः भोज- ५. यितव्यः [॥] रत्नगृहेऽपि दीनार त्रयदत्तं [।] तद्दीनार त्रयस्य वृद्ध्या ६. भगवतां बुद्धस्य दिवसे दिवसे दीपत्रयं प्रवालित्यं [॥] चतुर्बुद्धास- ७. नेऽपि दत्तः दीनार एकः [।] तस्य वृद्ध्या चतुर्बुद्धासने भगवतो बुद्धस्य ८. दिवसे-दिवसे दीपः प्रवालयितव्यः [॥] एवमेषाक्षयनीवी- ९. आचन्द्रार्कशिलालेख्या स्वामिनीसनसिद्धभार्य्यया १०. उपासिका हरिस्वामिन्या प्रवार्तिता इति [॥] ११. संव्वत् १००[+]३०[+]१ अश्वयुग्दि ५ ॥ हिन्दी अनुवाद सिद्धि प्राप्त हो। उपासक सनसिद्ध की पत्नी उपासिका हरिस्वामिनी ने अपने माता-पिता की [पुण्य-वृद्धि] के लिये काकनादबोट-बिहार के चारों दिशाओं के आर्य संघ को अक्षय-नीवी के रूप में बारह दीनार दिया। इन दीनारों से प्राप्त होने वाले ब्याज से संघ में आये हुए एक भिक्षु को प्रतिदिन भोजन दिया जाय। रत्न-गृह के लिये भी तीन दीनार दिया गया। इन तीन दीनारों के ब्याज से [रत्नगृह में] भगवान् बुद्ध के लिए नित्य तीन दीप जलाये जायँ। चर्तुर्बुद्ध (चार बुद्ध) के आसन के लिये भी एक दीनार दियाइसके ब्याज से चतुर्बुद्ध-आसन के बुद्ध के लिए नित्य दीप जलाया जाय। स्वामिनी, सनसिद्ध-पत्नी, उपासिका, हरिस्वामिन् द्वारा प्रवर्तित चन्द्र-सूर्य के अस्तित्व काल तक बनी रहनेवाला [यह] अक्षय नीवी व्यवस्था इस शिलालेख [के रूप में] लिखी गयी। इति। सम्वत् १३१ अश्वायुज दिन ५ । विश्लेषण इस अभिलेख में किसी शासक के नाम का उल्लेख नहीं गया है। अंकित तिथि १३१ को गुप्त सम्वत् अनुमान कर इस लेख को फ्लीट ने कुमारगुप्त (प्रथम) अथवा उसके उत्तराधिकारी स्कन्दगुप्त के काल का अनुमान किया है। लिपि के आधार पर यह लेख निःसन्दिग्ध रूप से गुप्तकालीन है, तदनुसार इस पर अंकित तिथि भी गुप्त सम्वत् मानी जा सकती है। विंसेंट स्मिथ ने डब्लू वास्ट के संग्रह में उपलब्ध कुमारगुप्त (प्रथम) के चाँदी के एक सिक्के पर वर्ष १३६ पढ़ा था। उनके कथन के इस आधार पर कुमारगुप्त (प्रथम) की अन्तिम तिथि १३६ समझी जाती रही है। यह लेख हरिस्वामिनी नाम्नी बौद्ध-उपासिका द्वारा काकनादबोट (साँची) स्थित विहार हो अक्षय नीवि के रूप में दिये गये दान की घोषणा है। दान-दात्री का उल्लेख इस लेख में दो बार आरम्भ और अन्त में हुआ है। उसे उपासिका के अतिरिक्त स्वामिनी भी कहा गया है। जे० एफ० फ्लीट ने इसे विहार-स्वामिनी का लघ्वीकरण माना है। साँची से ही उपलब्ध एक खण्डित स्तम्भ लेख में विहार-स्वामी और कुशीनगर स्थित बुद्ध की निर्वाण मूर्ति पर अंकित लेख में महाविहार-स्वामिन् विरुद अथवा उपाधि का प्रयोग हुआ है। फ्लीट ने इन दोनों को विहार के व्यवस्थापक की उपाधि माना है और महाविहार स्वामिन् को बड़ा और विहार स्वामिन को उसके अन्तर्गत छोटा अधिकारी अनुमान किया है। डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त जी का मत है कि इन उपाधियों का सम्बन्ध वस्तुतः बौद्ध-विहार से हो तो भी इन दोनों ही उपाधियों का पारस्परिक कोई सम्बन्ध नहीं है। दोनों ही उपाधियों एक ही स्तर की हैं। एक का सम्बन्ध महाविहार से और दूसरे का सम्बन्ध सामान्य विहार से है। प्रस्तुत लेख के प्रसंग में फ्लीट स्वामिनी को विहार-स्वामिनी का संक्षिप्तीकरण मानते हुए भी इसे धार्मिक संस्था से सम्बद्ध उपाधि नहीं मानते। वे इससे विहार-स्वामी की पत्नी का भाव ग्रहण करते हैं। परन्तु बौद्ध-विहार के सन्दर्भ में किसी व्यवस्थापक के गृहस्थ होने की कल्पना कुछ विचित्र और संदेहास्पद सी लगती है। विहार और महाविहार का व्यवस्थापक तो कोई गृह-त्यागी भिक्षु ही होता रहा होगा। परन्तु गृहस्थ का विहार व्यवस्थापक होना असम्भव भी नहीं माना जा सकता है। बौद्ध संघ ने पुरुषों की तरह ही स्त्रियों को भी प्रव्रज्या लेने की छूट दे रखी थी। अतः निश्चित है कि भिक्षुओं की तरह ही भिक्षुणियाँ भी विहारों में रहती रही होंगी। उनकी व्यवस्था भिक्षु-विहारों से अलग होती रही होगी। उनके अपने विहार रहे होंगे। अतः उन विहारों की व्यवस्थापिका को ही विहार-स्वामिनी कहा जाता रहा होगा, ऐसा अनुमान सत्य के निकट और स्वाभाविक होगा। प्रस्तुत लेख के सन्दर्भ में द्रष्टव्य यह है कि स्वामिनी कही जानेवाली नारी का परिचय पत्नी के रूप में दिया गया है; भिक्षुणी होने के बाद तो पति-पत्नी जैसा सम्बन्ध रह ही नहीं जाता। दूसरी बात बौद्ध-संघ किसी भी भिक्षु-भिक्षुणी को अर्थ संचय की अनुमति नहीं देता। जब कोई भिक्षु या भिक्षुणी अर्थ-संचय कर ही नहीं सकता था, तो दान देने के लिये उसके पास धन कहाँ रहा होगा? स्पष्ट हैं कि इस लेख में स्वामिनी का प्रयोग विहार-स्वामिनी के भाव में नहीं, सीधे-सादे ढंग से गृह-स्वामिनी के भाव में हुआ है। साँची प्रस्तर लेख के अनुसार जो धन दान दिया गया है, उसके मूल्य (मूल-धन) को अक्षुण्ण ( अक्षय ) रखने का विधान है, वह अक्षय नीवि है। उसके ब्याज का ही व्यय किया जा सकता था। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि काकनादबोट महाविहार उपासक उपासिकाओं की ओर से ट्रस्टी का कार्य भी करता और उनके धन से बैंक की तरह ब्याज के रूप में आय का साधन प्रस्तुत करता था। महाविहार दान-दाताओं से उपलब्ध पूँजी का उपयोग किस प्रकार करता था जिससे उसे व्यय के लिये ब्याज प्राप्त हो, अभी तक किसी सूत्र से नहीं जाना जा सका है। हो सकता है, श्रेणियों की तरह वह स्वयं ऋण देता और ब्याज प्राप्त करता रहा हो। अथवा वह स्वयं दान में प्राप्त पूँजी को किसी विश्वस्त श्रेणी में जमा कर ब्याज प्राप्त करता रहा हो। साँची प्रस्तर लेख द्वारा दान दात्री ने तीन कार्यों को व्यवस्था की है — (१) १२ दीनार के अक्षय-नीवि से प्राप्त ब्याज से नित्य एक भिक्षु के लिये भोजन। (२) तीन दीनार के ब्याज से रत्न-गृह में नित्य तीन दीप का प्रज्वलन। (३) एक दीनार के ब्याज से चतुर्बुद्धासन पर नित्य एक दीप

साँची प्रस्तर लेख : गुप्त सम्वत् १३१ ( ४५० – ५१ ई० ) Read More »

मनकुँवर अभिलेख – गुप्त सम्वत् १२९ ( ४४८ – ४९ ई० )

भूमिका मनकुँवर अभिलेख बैठी हुई एक बुद्ध-मूर्ति के आसन के नीचे अंकित है, जो १८७० ई० भगवानलाल इन्द्रजी को प्रयागराज जनपद अन्तर्गत करछना तहसील के अरैल से ६ मील पर यमुना के दाहिने तट पर स्थित, मानकुँवर नामक ग्राम के उत्तर-पूर्व पंच-पहाड़ नामक टीले पर मिली थी। १८८० ई० में पहले एलेक्जेंडर कनिंगहम ने इसका पाठ प्रकाशित किया; बाद में १८८५ ई० में स्वयं भगवानलाल इन्द्र जी ने अंग्रेजी अनुवाद सहित अपना पाठ प्रकाशित किया। तत्पश्चात् जे० एफ० फ्लीट ने इसका सम्पादन करके ‘Corpus Inscriptionum Indicarum’ में प्रकाशित किया। इसको मनकुँवर या मानकुँवर ( Mankuwar ) दोनों लिखा जाता है। संक्षिप्त परिचय नाम :- मनकुँवर अभिलेख या मनकुँवर बुद्ध-प्रतिमा अभिलेख [ Mankunwar Buddha Statue Inscription ]  या मनकुँवर प्रस्तर प्रतिमा अभिलेख [ Mankuwar Stone Image Inscription ] स्थान :- मनकुँवर, प्रयागराज जनपद, उत्तर प्रदेश। भाषा :- संस्कृत-प्राकृत मिश्रित ( संकर भाषा ) लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १२९ ( ४४८-४९ ई० ), कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल विषय :- भिक्षु बुद्धमित्र द्वारा भगवान बुद्ध की प्रतिमा की स्थापना से सम्बन्धित विज्ञप्ति। मूलपाठ १. [स्वस्ति] नमो बुधानं (।) भगवतो सम्यक्सम्बुद्धस्य स्व-मताविरुद्धस्य इयं प्रतिमा प्रतिष्ठापिता भिक्षु बुद्धमित्रेण। २. सम्बत् १००(+)२०(+)९ महाराज श्रीकुमारगुप्तस्य राज्ये ज्येष्ठमास दि १०(+)८ सर्व दुःक्ख-प्रहानार्त्थम् [॥] हिन्दी अनुवाद [स्वस्ति]। बुद्ध को नमस्कार। स्वमताविरुद्ध भगवान् सम्यक्-सम्बुद्ध (बुद्ध) की यह प्रतिमा भिक्षु बुद्धमित्र ने स्थापित की। सम्वत् १२९ [में] महाराज श्री कुमारगुप्त के राज्य (काल) में ज्येष्ठ मास दिन १८ को, सभी लोगों के दुःखों के निवारणार्थ। टिप्पणी यह भिक्षु बुद्धमित्र द्वारा, बुद्ध की उस प्रतिमा की स्थापना की विज्ञप्ति है, जिस पर यह लेख अंकित है इसमें बुद्ध को सम्यक्-सम्बुद्ध (जिसने पूर्णज्ञान प्राप्त कर लिया है) और स्व-मताविरुद्ध कहा गया है। स्व-मताविरुद्ध का तात्पर्य सम्भवतः यह है कि भगवान् बुद्ध का आचरण उनकी अपनी शिक्षा के अनुरूप ही था; वे जो कहते थे उसके ही अनुसार उनका आचरण था। इस लेख में कुमारगुप्त के लिये केवल महाराज विरुद का ही प्रयोग मिलता है। मात्र विरुद के प्रयोग के कारण कुछ विद्वानों ने उन्हें महाराजाधिराज पद से च्युत होने की कल्पना प्रस्तुत की है; परन्तु इस प्रकार की धारणा निराधार है। इस वैयक्तिक लेख में महाराजाधिराज के स्थान पर मात्र महाराज उल्लेख को इतना खींचतान करके महत्त्व देने की आवश्यकता नहीं है। कुमारगुप्त ( प्रथम ) का बिलसड़ स्तम्भलेख – गुप्त सम्वत् ९६ ( ४१५ ई० ) गढ़वा अभिलेख कुमारगुप्त प्रथम का उदयगिरि गुहाभिलेख (तृतीय), गुप्त सम्वत् १०६ मथुरा जैन-मूर्ति-लेख : गुप्त सम्वत् १०७ ( ४२६ ई० ) धनैदह ताम्रपत्र ( गुप्त सम्वत् ११३ ) गोविन्द नगर बुद्ध-मूर्ति लेख तुमैन अभिलेख ( गुप्त सम्वत् ११६ ) मन्दसौर अभिलेख मालव सम्वत् ४९३ व ५२९ करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख – गुप्त सम्वत् ११७ ( ४३६ – ३७ ई० ) कुलाइकुरै ताम्र-लेख दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख ( प्रथम ) गुप्त सम्वत् १२४ ( ४४३ – ४४ ई० ) दामोदरपुर ताम्रपत्र लेख (द्वितीय) – गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७-४८ ई० ) मथुरा बुद्ध-मूर्ति लेख – गुप्त सम्वत् १२५ ( ४४४ ई० ) बैग्राम ताम्र-लेख – गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७ – ४८ ई० ) जगदीशपुर ताम्रलेख; गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७ – ४८ ई० )  

मनकुँवर अभिलेख – गुप्त सम्वत् १२९ ( ४४८ – ४९ ई० ) Read More »

जगदीशपुर ताम्रलेख; गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७ – ४८ ई० )

भूमिका जगदीशपुर ताम्रलेख एक ताम्र-फलक पर अंकित है जिसे १९६२ ई० में राजशाही (बंगलादेश) के वारेन्द्र रिसर्च सोसाइटी ने राजशाही जिले के ही जगदीशपुर ग्राम के किसी व्यक्ति से प्राप्त किया था। कहा जाता है कि बहुत वर्ष पूर्व वह कुआँ खोदते समय १५ फुट की गहराई पर मिला था; किन्तु यह कथन बहुत विश्वसनीय नहीं जान पड़ता। ताम्र पत्र पर लेख के अक्षर अनेक स्थलों पर अस्पष्ट हैं और पाठ में भूलें और छूट काफी हैं। लगता है कि इसका लेखक अल्पज्ञ था  क्योंकि इसमें भाषाई त्रुटियाँ हैं। इसे सर्वप्रथम शचीन्द्रनाथ सिद्धान्त ने प्रकाशित किया था किन्तु उनका पाठ सन्तोषजनक नहीं है। तत्पश्चात् दिनेशचन्द्र सरकार ने अपने विवेचन के साथ पाठ प्रस्तुत किया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- जगदीशपुर ताम्रलेख [ Jagadishpur Copper-plate Inscription ] स्थान :- जगदीशपुर; बाँग्लादेश। भाषा :- संस्कृत ( अशुद्ध ) लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७-४८ ई० ), कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल विषय :- धार्मिक कार्य के लिये भूमि विक्रय की विज्ञप्ति मूलपाठ १. स्वाति [॥] शृंगवेरवैथेय-पूर्णकौशिकायाः भट्टरक-पादानुध्यातः आयुक्त-काच्युतो- २. धिकरणञ्च गुल्मगन्धिके संगोहालिके च ब्राह्मणादीन्प्रधान कुटुम्बिनः कुशल- ३. माशास्य बोधन्ति [।] विदितम्बोस्तु यथा पुण्ड्रवर्धने ये मूलकवस्तुका-वास्तव्यकुटु- ४. म्बि-क्षेमाकः गुल्मगन्धिका-वास्तव्य-भोयिलः तत्रैव वास्तव्य-महीदासाविह वीथी महत्त- ५. र-कुमारवेदेव-गण्ड-प्रजापति-ज्येष्ठदाम-कुटुम्बि-यशोविष्णु-उमायशो-हरिशर्म्म- ६. सर्प्पपालित-हिरण्यगुप्त-कुमारयश कुमारभूति-शिवकुण्ड-शिवापर-शिव-सोमविष्णु ७. सत्यविष्णु-कङ्कुटि-नन्ददामा-वीरनाग-नारायणदास-रुद्र-भव-गुह-अच्युत-कुवेर-शर्व्वनाग-भव- ८. नाग-श्रीदत्त-भवदत्त-धनविष्णु-गुणरथ-नदरदेव-पुरोगाः वयञ्च विज्ञापिताः [I] इच्छामः दक्षि- ९. णांशकेवीथ्या-मेचिकाम्र-सिद्धायतने भगवतान्नमर्हताङ्कारितक-विहारे गुल्मगन्धिके चार्हतान्पूजा- १०. र्त्थं कारितक-प्रान्त-विहरिक तत्रैव गुल्मगन्धिके भगवतस्सहस्ररश्मेः कारितक देवकुले च बलि-चरु-सत्र- ११. प्रवर्त्तणाय खण्ड-फुट्ट-प्रतिसंस्कार-करणाय गन्ध-धूप-तैलोपयोगाय शश्व-त्कालोपभोग्याक्षयनजी- १२. व्यामप्रतिकर-खिलक्षेत्रस्य कुल्यवापेकं क्रीत्वा दातुं [।] युष्माकञ्च वीध्यामनुवृत्तः द्विदीनारिक्यो प्रतिकर- १३. खिलक्षेत्रस्य कुल्यवाप-विक्रयः [I] तदर्हथास्माभिर्हस्ताद्दीनार-द्वयं गृहीत्वा क्षेत्रस्य कुल्यवापमेकं १४. दातुमिति [।] यतो एतद्विज्ञाप्यमु[प]ल[भ्य] पुस्तपाल-सिंहनन्दि-यशोदा-मयोरवधारणया- १५. स्त्य[यम]स्मद्वीथ्यनुवृतः द्विन्दीनारिक्याप्र[तिकर]-खिल क्षेत्रस्य कुल्यवाप विक्रयस्तद्दीयतान्न १६. विरोधः कश्चिदित्यवस्थाप्य क्षेमाक-भोयिल-महिदासयोर्हस्तात्कुलिक-भीमेनोपसंगृहीतकदीनार- १७. द्वयमेतत्क्रीत्वा क्षेमाक-भोयिल-महीदासयो षड्द्रोणवापाः श्रमणकाचार्ये बलकुण्डस्य समा- १८. वेशिताः [।] भोयिलेनापि साम्बपुरस्यार्थे द्रोणवाप-द्वयं तच्त्रा[च] देवत-कुल समीपे पुष्पवाटिका-तलवा- १९. टक-निमित्तं च द्रोणवापमेकं कारितमित्येत् क्षेत्रं गुल्मगन्धिकायां पूर्व्वोत्तत्तरांया दिशि सप्त द्रोणवा- २०. पाः देवकुल-समीपे च द्रोणवापमेकं [।] लिख्यम(ते)त्र सीमा पूर्व्वण पुष्करिण्याः कन्दरः सीमा च दक्षिणे- २१. न धनविष्णु-पुष्करिण्या देव-कन्दरः सीमा च पश्चिमेनापि नाभ्रक-सतक सीमा उत्तरेणापि ………. तकु- २२. ण्डः सीमा इत्येत् चतुस्सीमा-नियमित-क्षेत्रं समुस्थितं कालं येप्यन्ये विषयपतयः आयु- २३. क्तकाः कुटम्बिनोधिकरणिका वा सम्व्यवहारिणो भविष्यन्ति [तै]रपि भूमिदान फल[वे]- २४. क्ष्याक्षयनीव्यानुपालनीया [।] उक्तञ्च भगवता व्यासेन [।] स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां [।] २५. स विष्ठायां कृमिर्भूत्वा पितृभिस्सह पच्यते [॥] षष्टि-वर्ष-सहस्राणि स्वर्ग्गे वसति भूमि- २६. दः [।] आक्षेप्ता चानुद्रमन्ता च तान्येव नरके वसेत् [॥] इयं राजशतैर्द्दत्वा दीयतै च पुनः पुनः [I] यस्य २७. यस्य यदा भूमि तस्य तस्य तदा फलं [॥] विन्ध्याटवीष्वनंभस्सु शुष्ककोटरवासिनः [।] कृष्णाह- २८. यो भिजायन्ति भूमिदायां हरन्ति [ये] इति [॥] सं० १००[+]२०[+]८ चैत्र-दि २० लिखितं रुद्रदासेन तापि २९. [तं] [सुसिंहेनमिति] [॥] हिन्दी अनुवाद स्वस्ति। शृंगवेर-वीथी स्थित पूर्णकौशिक के भट्टारक-पादानुध्यात आयुक्तक अच्युत [अपने] अधिकरण [सहित] गुल्मगन्धिक और संघोलिक के ब्राह्मण आदि प्रधान कुटम्बियों की कुशल कामना करते हैं। [उन्हें] ज्ञात हो कि पुण्ड्रवर्धन के मूलकवस्तु निवासी कुटुम्बी क्षेमाक, गुल्मगन्धिक निवासी भोयिल और महीदास ने हमें (अधिकरण के सदस्यों) अर्थात् वीथीमहत्तर कुमारदेव, गण्ड, प्रजापति, ज्येष्ठदामन, कुटुम्बि यशोविष्णु, उमायशस, हरिशर्मण, सर्पपालित, हिरण्यगुप्त, कुमारयशस, कुमारभूति, शिवकुण्ड, शिव, शिव (द्वितीय), सोमविष्णु, सत्यविष्णु, कंकुटि, नन्ददाम, वीरनाग, नारायणदास, रुद्र, भव, गुह, अच्युत, कुबेर, शर्वनाग, भवनाग, श्रीदत्त, भवदत्त, धनविष्णु, गुणरथ और नरदेव को सूचित किया है। कि — हम वीथी के दक्षिणी भाग में स्थित मचिकाम्र के सिद्धायतन में भगवान् अर्हत के निमित्त बने विहार, (२) गुल्मगन्धिका स्थित अर्हत की उपासना के निमित्त बने विहारिका और (३) गुल्मगन्धिका स्थित सहस्ररश्मि (सूर्य) के मन्दिर को बलि, चरु, सत्र तथा इन स्थानों की मरम्मत के निमित्त अक्षय-नीविस्वरूप दान देने के लिये एक कुल्यवाप अप्रतिकर भूमि क्रय करना चाहते हैं। आप लोगों की वीथी में उक्त प्रकार की एक कुल्यवाप भूमि के लिये दो दीनार [मूल्य] प्रचलित है। अतः आप लोग हमसे दो दीनार लेकर हमें एक कुल्यवाप भूमि देने [की कृपा करें]। इस प्रकार का आवेदन प्राप्त होने पर पुस्तपाल सिंहनन्दिन और यशोदाम ने पूछने पर बताया कि अप्रतिकर खिल-क्षेत्र (भूमि) के लिये वीथी में दो दीनार प्रति कुल्यवाप मूल्य प्रचलित है और यह आवेदन तदनुकूल है। इसकी स्थापना हो जाने पर कुलिक भीम ने क्षेमाक, भोयिल और महीदास से दो दीनार प्राप्त किया। इन क्रीत भूमि में से क्षेमाक, भोयिल और महीदास ने छ द्रोणवाप (३/४ कुल्यवाप) श्रमणक आचार्य बलकुण्ड के सुपुर्द किया। भोयिल ने दो द्रोणवाप भूमि, जो देवकुल के निकट है, पुष्पवाटिका तथा तलवाटक के निमित्त साम्बपुर को दिया। इस क्षेत्र में से सात द्रोणवाप गुल्मगन्धिका के उत्तर-पूर्व भाग में तथा एक द्रोणवाप देवकुल के निकट है। उसकी सीमा इस प्रकार लिखी जा रही है — पूर्व में पुष्करण का कन्दर; दक्षिण की ओर धनविष्णु के पुष्करणी का देवकन्दर, पश्चिम की ओर नाभ्रक की सम्पत्ति तथा उत्तर की ओर ……….. कुण्ड। इस प्रकार चारों ओर से सीमाबद्ध क्षेत्र को, जिस समय जो भी विषयपति, आयुक्तक, अधिकरण के कुटुम्बी एवं सम्व्यवहारी हों, वे इस भूमिदान [पत्र] द्वारा प्रदत्त अक्षयनीवी [मानकर] उसका पालन करें। भगवान् व्यास ने कहा है — जो व्यक्ति स्वदत्त अथवा परदत्त भूमि का हरण करता है वह पितरों-सहित विष्ठा का कृमि होता है। भूमिदान देनेवाला छः सहस्र वर्ष तक स्वर्गवास करता है; जो उसका अपहरण करता है वह उतने ही समय तक नरक में रहता है। सैकड़ों राजाओं ने दान दिया है और बराबर देते रहे हैं। जो जिस रूप में दान देता है उसे उसी प्रकार का फल मिलता है। भूमि-दान का अपहर्ता विन्ध्यवासी के शुष्क वृक्ष-कोटर में रहनेवाले काले साँपों के रूप में जन्म लेता है। हिन्दी अनुवाद जगदीशपुर ताम्रलेख धनैदह ताम्रपत्र ( गुप्त सम्वत् ११३ ), कुलाइकुरै, दामोदरपुर और बैग्राम अभिलेखों के समान ही धार्मिक कार्य के निमित्त भू-विक्रय की विज्ञप्ति है। इसे कुलाइकुरै के समान ही आयुक्तक अच्युत और उसके अधिकरण ने प्रसारित किया था। कुलाइकुरै लेख में अधिकरण के सदस्यों के रूप में जिन नामों का उल्लेख है, उनमें आठ को वीथी-महत्तर कहा गया है, शेष की चर्चा कुटुम्बिन के रूप में हुई है।जगदीशपुर ताम्रलेख में ३२ नाम हैं जिनमें ४ ही वीथी-महत्तर हैं, शेष कुटुम्बिन हैं। दोनों की नामावली में १७ (१-४, ६-८ १०-११, १३-१७ और २७) नाम एक-से हैं इनसे ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकरण की जिस बैठक में जिस क्रय के आवेदन-पत्र पर विचार किया जाता था, उसकी विज्ञप्ति में उस बैठक में उपस्थित सदस्यों के ही नामों का उल्लेख किया जाता था। दोनों लेखों के देखने से अधिकरण के सम्बन्ध में एक बात और भी

जगदीशपुर ताम्रलेख; गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७ – ४८ ई० ) Read More »

Scroll to Top