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अशोक का सातवाँ स्तम्भलेख

भूमिका सप्तस्तम्भ लेखों में से सातवाँ स्तम्भलेख अशोक के अन्य स्तम्भलेखों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह मात्र दिल्ली-टोपरा स्तम्भ पर ही अंकित है। दिल्ली-टोपरा पर खुदे लेख अन्यत्र छः स्थानों से मिले स्तम्भलेखों में सबसे प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। यही एकमात्र ऐसा स्तम्भ हैं जिसपर सातों लेखों का एक साथ अंकन मिलता है। शेष पाँच पर मात्र छः लेख ही प्राप्त होते हैं। मध्यकाल के प्रसिद्ध इतिहासकार शम्स-ए-शिराज़ के अनुसार यह स्तम्भ मूलतः टोपरा में था। इसे दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने वहाँ से लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया था। तबसे इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भलेख के नाम से जाना जाने लगा। इस स्तम्भ के कुछ अन्य नाम भी हैं; यथा – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि। सातवाँ स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का सातवाँ स्तम्भलेख या सप्तम स्तम्भलेख ( Ashoka’s Seventh Pillar-Edict ) स्थान – दिल्ली-टोपरा संस्करण। यह मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया था। तभी से इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाने लगा। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल, अशोक के राज्याभिषेक के २६ वर्ष बाद अर्थात् २७वें वर्ष। विषय – इस स्तम्भलेख में अशोक के विविध लोककल्याणकारी कार्यों की सूची मिलती है। यह अशोक के स्तम्भ लेखों में से सबसे बड़ा स्तम्भलेख है। सातवाँ स्तम्भलेख : मूलपाठ [ दिल्ली-टोपरा संस्करण ] १ – देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा [ । ] ये अतिकन्तं २ – अन्तलं लाजाने हुसु हेवं इछिसु कथं जने ३ – धम्म-वढिया वढेया [ । ] नो चु जने अनुलुपाया धम्म-वढिया ४ – वढिया [ । ] एतं देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा [ । ] एस मे ५ – हुथा [ । ] अतिकन्तं च अन्तंलं हेवं इछिसु लाजाने कथं जने ६ – अनुलुपाया धम्म-वढिया वढेया ति [ । ] नो च जने अनुलुपाया ७ – धम्म – वढिया वढिया [ । ] से किनसु जने अनुपटिपजेया [ । ] ८ – किनसु जने अनुलुपाया धम्म-वढिया वढेया ति [ । ] किनसु कानि ९ – अभ्युंनामहेयं धम्म वढिया ति [ । ] एतं देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं १० – आहा [ । ] में हुथा [ । ] धम्म-सावनानि सावापयामि धम्मानुसथिनि ११ – अनुसासामि [ । ] एतं जने सुतु अनुपटीपजीसति अभ्युंनमिसति १२ – धम्म-वढिया च वाढं वढिसति [ । ] एताये मे पठाये धम्म-सावनानि सावापितानि धम्मानुसथिनि विविधानि आनपितानि य [ था ] [ । ] मा पि बहुने जनसि आयता ए ते पलियोवदिसन्ति पि पविथलिसन्ति पि [ । ] लजूका पि बहुकेसु पान-सत-सहसेसु आयता [ । ] ते पि मे आनपिता हेवं च पलियोवदाथ १३ – जनं धम्म-युतं [ । ] देवानंपिये पियदसि हेवं आहा [ । ] एतमेव मे अनुवेखमाने धम्म-थम्भानि कटानि धम्म-महामाता कटा धम्म [ सावने ] कटे [ । ] देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा [ । ] मगेसु पि मे निगोहानि लोपापितानि छायोपगानि होसन्ति पसुमुनिसानं अम्बा-वडिक्या लोपापिता [ । ] अढकोसिक्यानि पि मे उदुपानानि १४ – खानापापितानि निंसिढया च कालापिता [ । ] आपानानि में बहुकानि तत तत कालापितानि पटी भोगाये पसु मुनिसानं [ । ] ल [ हुके ] [ सु ] एक पटीभोगे नाम [ । ] विविधाया हि सुखायनाया पुलिमेहि पि लाजीहि ममया च सुखयिते लोके [ । ] इमं चु धम्मानुपटीपती अनुपटीपजन्तु ति एकदथा मे १५ – एस कटे [ । ] देवानंपिये पियदसि हेवं आहा [ । ] धम्म-महामाता पि मे ते बहुविधेसु अठेसु आनुगहिकेसु वियापटासे पवजीतानं चेव गिहिथानं चन [ च ] सव- [ पांस ] डेसु पि च वियापटासे [ । ] संघठसि पि मे कटे इमे वियापटा होहन्ति ति हेमेव बाभनेस आजीविकेसु पि मे कटे १६ – इमे वियापटा होहन्ति ति निगंठेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहन्ति नाना-पासण्डेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहन्ति ति पटिविसिठं पटीविसिठं तेसु तेसु ते ते [ महा ] माता [ । ] धम्म-महामाता चु मे एतेसु चेव वियापटा सवेसु च अन्नेसु पासण्डेसु [ । ] देवानं पिये पियदसि लाजा हेवं आहा [ । ] १७ – एते च अन्ने च बहुका मुखा दानविसगसि वियापटासे मम चेव देविनं च [ । ] सवसि च मे ओलोधनसि ते बहुविधेन आकालेन तानि तानि तुठायतनानि पटी [ — ] [ दयन्ति ] हिद चेव दिसासु च [ । ] दालकानां पि च मे कटे अन्नानं च देवि-कुमालानं इमे दानविसगेसु वियापटा होहन्ति ति १८ – धम्मापदानठाये धम्मानुपटिपतिये [ । ] एस हि धम्मापदाने धम्मपटीपति च या इयं दया दाने सचे सोचवे मदवे साधवे च लोकस हेवं वढिसति ति [ । ] देवानंपिये [ पियदसि ] लाजा हेवं आहा [ । ] यानि हि कानिचि ममिया साधवानि कटानि तं लोके अनूपटीपन्ने तं च अनुविधियन्ति [ । ] तेन वढिता च १९ – वढिसन्ति च मातापितिसु सुसुसाया गुलुसु वयो-महालकानं अनुपटीपतिया बाभन-समनेसु कपन-वलाकेसु आव दास-भटकेसु सम्पटीपतिया [ । ] देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा [ । ] मुनिसानं चु या इयं धम्मवढि वढिता दुवेहि येव आकालेहि धम्म नियमेन च निझतिया च [ । ] २० – तत चु लहु से धम्म-नियमे निझतिया व भुये [ । ] धम्म नियमे चु खो एस ये मे इयं कटे इमानि च इमानि जातानि अवधियानि [ । ] अन्नानि पि चु बहुकानि धम्म-नियमानि यानि से कटानि [ । ] निझतिया व चु भुये मुनिसानं धम्म-वढि वढिता अविहिंसाये भूतानं २१ – अनालम्भाये पानान [ । ] से एताये अथाये इयं कटे पुता-पपोति के चन्दम-सुलियिके होतु ति तथा च अनुपटीपजन्तु ति [ । ] हेवं हि अनुपटीपजन्तं हिदत-पालते आलधे होति [ । ] सतविसति-वसाभिसितेन मे इयं धम्मलिपि लिखापापिता ति [ । ] एतं देवानंपिये आहा [ । ] इयं २२ – धम्मलिपि अत अथि सिला-थम्भानि वा सिला-फलकानि वा तत कटविया एन एस चिलठितिके सिया [ । ] संस्कृत छाया देवानांप्रिय प्रियदर्शी राजा एवमाह। वदतिक्रान्तमन्तरं राजानोऽभवन्तेवमैच्छन् कथं जनं धर्मवद्धिर्वर्धनीया। न तु जनेऽनुरूपया धर्मवद्धिर्वधिता। अत्र देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवमाह। एतन्ते भूतम्। अतिक्रान्तमनरमेवैमैच्छन् राजनः कथं जनेऽनुरूपा धर्मवद्धिर्वर्धनीयेति। न च जनेऽनुरूपा धर्मवद्धिर्वधिता। तत्केनस्थित् जनोऽनुप्रतिपद्यते केनस्थित् जनेऽनुरूपा धर्मवद्धिर्वर्धनीयेति। केनस्थि केषामभ्युमन्नमयेहं धर्मवद्धिमिति। अत्र देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजैवमाह। एतन्मे भूतम्। धर्मश्रावणानि, श्रावयामि, धर्मानुशिष्टीरनुशास्मि। एतानि जन, श्रुत्वा अनुप्रतियत्स्यते, अभ्पुन्नस्यति धर्मवद्धिश्च वाढं वर्धिष्यते। एतस्मै मया अर्थाय धर्मश्रावणानि श्रावितानि धर्मानुशिष्टयो विविधा आज्ञापिताः। यथा मे पुरुषा अपि बहुषु जनेष्वायत्ताः, एते परितो वदिष्यन्त्यपि प्रविस्तारयिष्यन्तपि। रज्जुका

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अशोक का छठवाँ स्तम्भलेख

भूमिका सप्तस्तम्भ लेखों में से छठवाँ स्तम्भलेख अशोक द्वारा धर्मलिपि लिखवाने के प्रयोजन का उल्लेख किया है। दिल्ली-टोपरा पर अंकित लेख अन्यत्र छः स्थानों से मिले स्तम्भलेखों में सबसे प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। यह एकमात्र ऐसा स्तम्भ हैं जिसपर सातों लेखों का एक साथ अंकन मिलता है। शेष पाँच पर मात्र छः लेख ही मिलते हैं। मध्यकाल के इतिहासकार शम्स-ए-शिराज़ के अनुसार यह स्तम्भ मूलतः टोपरा में था। इसे फिरोजशाह तुगलक ने वहाँ से लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया था। तभी से इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भलेख के नाम से जाना जाने लगा। इस स्तम्भ के कुछ अन्य नाम भी हैं; यथा – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि। छठवाँ स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का छठवाँ स्तम्भलेख या पञ्चम स्तम्भलेख ( Ashoka’s Sixth Pillar-Edict ) स्थान – दिल्ली-टोपरा संस्करण। यह मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया था। तभी से इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाने लगा। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल, अशोक के राज्याभिषेक के २६ वर्ष बाद अर्थात् २७वें वर्ष। विषय – इस स्तम्भलेख में अशोक ने धर्मलिपि को लिखवाने का प्रयोजन स्पष्ट किया है। छठवाँ स्तम्भलेख : मूलपाठ १ – देवानंपिये पियदसि लाज हेवं अहा [ । ] दुवाडस— २ – वस—अभिसितेन मे धम्मलिपि लिखापिता लोकसा ३ – हित—सुखाये [ । ] से तं अपहटा तं तं धम्म—वढि पापोवा [ । ] ४ – हेवं लोकसा हित—सुखे ति पटिवेखामि अथ इयं ५ – नातिसु हेवं पतियासंनेसु हेवं अपकठेसु ६ – किंमं कानि सुखं अवहामी ति तथा च विदहामी [ । ] हेमेवा ७ – सव—निकायेसु पटिवेखामि [ । ] सब पासण्डा पि मे पूजिता ८ – विविधाय पुजाया [ । ] ए चु इयं अतना पचूपगमने ९ – से मे मोख्यमुते [ । ] सडवीसति वस अभिसितेन मे १० – इयं धम्मलिपि लिखापिता [ । ] संस्कृत छाया देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवमाह। द्वादशवर्षाभिषिक्तेन मया धर्मलिपिलेखिता लोकस्य हितसुखायः, तत्रदपहृत्य सा सा धर्मवृद्धिः प्राप्ताया। एवं लोकस्य हितसुखे इति प्रत्यवेक्षे ययेदं ज्ञातियु एवं प्रत्यासन्नेषु एवमपकृष्टेषु किं केषां सुखमावहामीति तथा च विदधे। एवमेव सर्वनिकायेषु प्रत्येवेक्षे। सर्वपाषण्डा अपि मे पूजिता विविधया पूजया। यत्त्विदमात्मना प्रत्युपगमनं तन्मे मुख्यमतम्। षड्विंशतिवर्षाभिषिक्तेन मयेयं धर्मलिपिर्लेखिता॥ हिन्दी अनुवाद देवाताओं के प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा कि — राज्याभिषेक के बारह वर्ष बाद जनता के हित [ एवं ] सुख के लिए धर्मलिपि लिखवायी गयी [ जिससे ] वह [ लोक, मनुष्य ] उसका ( धर्मलिपि का ) पालन ( अप्रहरण ) कर उस-उस ( विविध तरह की ) धर्मवृद्धि को प्राप्त हो। ‘इस तरह लोकहित [ एवं ] सुख ( होगा )’, [ ऐसा विचारकर मैं ] जिस तरह सम्बन्धियों पर ध्यान देता हूँ, उसी तरह समीप के लोगों पर [ और ] उसी तरह दूर के लोगों पर [ भी ध्यान देता हूँ ], जिससे [ मैं ] उनको सुख पहुँचाऊँ एवं मैं वैसा ही करता हूँ। इसी तरह ( मैं ) सब निकायों ( स्वायत्त-शासनप्राप्त स्थानीय संस्थाओं ) पर ध्यान रखता हूँ। सभी पाषण्ड ( पन्थ ) भी मेरे द्वारा विविध पूजाओं से पूजित हुए हैं। परन्तु [ पन्थों के यहाँ ] आत्म-प्रत्युपगमन अर्थात् स्वयं को जाना मेरे द्वारा मुख्य [ कर्त्तव्य ] माना गया है। छब्बीस वर्षों से अभिषिक्त मेरे द्वारा यह धर्मलिपि लिखवायी गयी है। टिप्पणी छठवाँ स्तम्भलेख अशोक के धर्मलिपि लिखवाने के प्रयोजन को स्पष्ट करता है। साथ ही इसमें राजा और प्रजा के सम्बन्ध को अशोक ने इनपे दृष्टिकोण से परिचित कराया है। यहाँ एक प्रमुख बात यह है कि इस स्तम्भलेख से हमें ज्ञात होता है कि अशोक ने अभिलेख लिखवाने की प्रक्रिया को अपने अभिषेक के बारह वर्ष अभिषिक्त रहते हुए ( अर्थात्  १३वें वर्ष से ) प्रारम्भ करवाया था। पहला स्तम्भलेख दूसरा स्तम्भलेख तीसरा स्तम्भलेख चौथा स्तम्भलेख पाँचवाँ स्तम्भलेख

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अशोक का पाँचवाँ स्तम्भलेख

भूमिका सप्तस्तम्भ लेखों में से पाँचवाँ स्तम्भलेख अशोक द्वारा जीवहिंसा को रोक देने से सम्बन्धित है। दिल्ली-टोपरा पर अंकित अन्यत्र छः स्थानों से मिले स्तम्भलेखों में सबसे प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। यहीं एकमात्र ऐसा स्तम्भ हैं जिसपर सातों लेख एक साथ पाये जाते हैं शेष पाँच पर छः लेख ही मिलते हैं। शम्स-ए-शिराज़ ( मध्यकालीन इतिहासकार ) के अनुसार यह स्तम्भ मूलतः टोपरा में था। इसको फिरोजशाह तुगलक ने वहाँ से लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवाया था। तबसे इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ नाम से जाना जाने लगा। इस स्तम्भ के कुछ अन्य नाम हैं; यथा – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि। पाँचवाँ स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का पाँचवाँ स्तम्भलेख या पञ्चम स्तम्भलेख ( Ashoka’s Fifth Pillar-Edict ) स्थान – दिल्ली-टोपरा संस्करण। यह मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया था। तबसे इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाने लगा। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल, अशोक के राज्याभिषेक के २६ वर्ष बाद अर्थात् २७वें वर्ष। विषय – जीवहिंसा पर प्रतिबंध से सम्बन्धित है। पाँचवाँ स्तम्भलेख : मूलपाठ १ – देवानंपिये पियदसि लाल हेवं अहा [ । ] सड़वीसतिवस- २ – अभिसितेन मे इमानि जातानि अवधियानि कटानि [ । ] सेयथा ३ – सुके सालिका अलुने चकवाके हंसे नंदीमुखे गेलाटे ४ – जतूका अम्बा कपीलिका दली अनठिकमछे वेदवेयके ५ – गंगा-पुपुटके संकुज-मछे कफट-सेयके पंन-ससे सिमले ६ – संडके ओकपिंडे पलसते सेत-कपोते गाम-कपोते ७ – सवे चतुपदे ये पटिभोगं नो एति न च खादियती [ । ] अजका नानि ८ – एलका चा सूकली च गभिनी न पायमीना व अवधिया पोतके ९ – पिच कानि आसंमासिके [ । ] वधि-कुकुटे नो कटविये [ । ] तुसे सजीवे १० – नो झापेतविये [ । ] दावे अनठाये वा विहिसाये वा नो झापेतविये [ । ] ११ – जीवेन जीवे नो पुसितविये [ । ] तीसु चातुंमासीसु तिसायं पुंनमासियं १२ – तिंनि दिवसानि चावुदसं पंनडसं पटिपदाये धुवाये चा १३ – अनुपोसथं मछे अवधिये नो पि विकेतविये [ । ] एतानि येवा दिवसानि १४ – नाग वनसि केवट भोगसि यानि अन्नानि पि जीव-निकायानि १५ – न हतंवियानि [ । ] अठमी-पखाये चावुदसाये पंनडसाये तिसाये १६ – पुनावसुने तीसु चातुंमासीसु सुदिवसाये गोने नो नीलखितविये १७ – अजके एलके सूकले ए वापि अन्ने नीलखियति नो नीलखितविये [ । ] १८ – तिसाये पुनावसुने चातुंमासिये चातुंमासि-पखाये अस्वसा गोनसा १९ – लखने नो कटविये [ । ] याव-सड़वीसति-वस अभिसितेन मे एताये २० – अन्तलिकाये पंनवीसति बन्धनमोखानि कटानि [ । ] संस्कृत छाया देवानांप्रिय: प्रियदर्शी राजा एवं आह। षड्शिंतिवर्षाभिषिक्तेन मया इमानि जातानि अवध्यानि कृतानि तानि यथा शुकः सारिका, अरुणः, चक्रवाक, हंसः नन्दीमुखः, गेलाट, जातुकाः, अम्बाकपीलिका, दुडिः, अनास्थिकमत्स्यः, वेदवेयकः, गंगाकुकुटः, संकुजमत्स्यः, कमठः, शल्यः, पर्णशिशः, स्मरः, षडकः, आकपिण्डः, पषतः, श्वेतकपोतः, ग्रामकपोतः, सर्वे चतुष्पदाः ये परिभोगं न यन्ति न खाद्यन्ते। एडका शूकरी च गर्भिणी वा पयस्विनी वा अवध्या। पोतका अपि च आषाण्मासिकाः। वध्रि कुक्कुटः न कर्तव्यः। तुष सजीवः न दाहितव्यः। दावः अनर्थाय वा विहिंसायै वा नो दाहयितव्यः। जीवेन जीवः न पोषितव्यः। तिससु चातुर्मासीषु तिष्यायां पौर्णमास्यां त्रिषु दिवसेषु — चतुर्दशे, पञ्चदशे प्रतिपदि च ध्रुवायाः अनुपवसथं मत्स्यः अवध्यः, नो अपिविकेतव्यः। एतान् एव दिवसान्, नागवने, कैवर्त-भोगे, ये अन्ये अपि जीव निकायाः नो हन्तव्याः। अष्टमी-पक्षे, चतुर्दश्यां, पंचदश्यां, तिष्यायां, पुनर्वसौ तिसषु, चातुर्मासीषु सुदिवसे गौः न निर्लक्षयितव्याः। तिष्यायां पुनर्वसौ, चातुर्मास्या, चातुर्मासीपक्षे च अश्वस्य गो; च दग्यशलाकया लक्षणं नो कर्तव्यम्। यावत् षडविंशति वर्षाभिषिक्तेन मया एतस्याम् अन्तरिकायां पंचविशतिः बन्धन मोक्षाः कृताः॥ हिन्दी अनुवाद १ – देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा — छब्बीस वर्षों से २ – अभिषिक्त होने पर इन जीवधारियों को मैंने अवध्य घोषित किया। वे हैं — ३ – शुक, सारिका, लाल पक्षी, चकवा, हंस, नन्दीमुख (मैना का एक प्रकार) गेलाट ४ – गीदड़, रानीचींटी, कछुई, अस्थिरहित ( बिना काँटे की ) मछली, वेद वेयक ५ – गंगा-कुक्कुट, संकुजमत्स्य, कछुआ, साही, नपुंसक शश, बारहसिंगा, ६ – साँड, गोधा, मग, सफेद कबूतर, ग्राम कपोत ७ – और सभी प्रकार के चौपाये जो न उपयोग में आते हैं न खाए जाते हैं। ८ – गर्भिणी अथवा दूध पिलाती हुई बकरी, भेडे, शूकरी अवध्य बताई गयीं। इनके बच्चे भी ९ – जो एक महीने के होते थे ये भी। कुक्कुट की बधिया नहीं करनी चाहिए। सजीव भूसी १० – नहीं जलानी चाहिए। व्यर्थ के लिए या हिंसा के लिए जंगल नहीं जलाना चाहिए। ११ – जीव से जीव का पोषण नहीं करना चाहिए। तीनों चौमासों में तिष्य पूर्णमासी को १२ –  तीन दिन — चतुर्दशी, पूर्णिमा और प्रतिपदा, निश्चितरूप से १३ – उपवास के दिन मछलियाँ नहीं मारनी चाहिए और न बेचनी चाहिए। इन दिनों १४ – नागवनी, मछलियों के तालाब में जो भी दूसरे जीव हों १५ – उन्हें नहीं मारना चाहिए। प्रत्येक पक्ष की पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, तिष्य १६ – पुनर्वसु, तीन चातुर्मासों के शुक्ल-पक्ष में गौ को दागना नहीं चाहिए। १७ – बकरा, भेड़, सूअर अथवा और जो पशु दागे जाते हैं उनको भी दागना नहीं चाहिए। १८ – तिष्य, पुनर्वसु, प्रत्येक चतुर्मास की पूर्णिमा के दिन और प्रत्येक चतुर्मास के शुक्ल पक्ष में अश्व और गौ को १९ – दागना नहीं चाहिए। छब्बीस वर्ष अभिषिक्त होने पर मैंने इस बीच २० – पच्चीस बार बन्धन-मोक्ष ( बन्दियों को मुक्त ) किया। टिप्पणी सम्राट अशोक के चौदह बृहद् शिला प्रज्ञापनों के प्रथम शिलालेख में जीवहिंसा निषेध की बात की गयी थी। साथ ही सम्राट ने यह आश्वासन दिया था कि भविष्य में इसपर भी प्रतिबंध लगाया जायेगा। वह समय कब आया? इसी का उत्तर यह ( पाँचवाँ स्तम्भलेख ) लेख देता है। अपने अभिलेख के २६ वर्ष बाद ( अर्थात् २७वें वर्ष ) सम्राट अशोक ने निर्दिष्ट जीवों की हिंसा पर प्रतिबंध लगा दिया अथवा सीमित कर दिया। यह अभिलेख अशोक के प्राणिमात्रों प्रति दया को दर्शाता है। पाँचवाँ स्तम्भलेख एक लम्बी सूची देता है कि किन जीवों को न मारे, कब न मारें, उनको दागा न जाय। इस तरह यह ( पाँचवाँ स्तम्भलेख ) पूर्णरूप से जीवहिंसा नियंत्रकों जुड़ा हुआ है। पहला स्तम्भलेख दूसरा स्तम्भलेख तीसरा स्तम्भलेख चौथा स्तम्भलेख

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अशोक का चौथा स्तम्भलेख

भूमिका सप्तस्तम्भ लेखों में से चौथा स्तम्भलेख अशोक के अधिकारी रज्जुक के अधिकार और दायित्व के सम्बन्ध में बात करता है। दिल्ली-टोपरा स्तम्भलेख छः स्तम्भलेखों में सबसे प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। यहीं एकमात्र ऐसा स्तम्भ हैं जिसपर सातों लेख एक साथ पाये जाते हैं शेष पाँच पर छः लेख ही मिलते हैं। मध्यकालीन इतिहासकार शम्स-ए-शिराज़ के अनुसार यह स्तम्भ मूलतः टोपरा में था। इसको फिरोजशाह तुगलक ने लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवाया था। इसलिए इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाने लगा। इस स्तम्भ के कुछ अन्य नाम भी हैं; यथा – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि। चौथा स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का चौथा स्तम्भलेख या चतुर्थ स्तम्भलेख ( Ashoka’s Fourth Pillar-Edict ) स्थान – दिल्ली-टोपरा संस्करण। यह मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया। तबसे इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ भी कहते है। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल, अशोक के राज्याभिषेक के २६ वर्ष बाद अर्थात् २७वें वर्ष। विषय – रज्जुक के अधिकार और कर्त्तव्य का विवरण। चौथा स्तम्भलेख : मूल-पाठ १ – देवानंपिये पियदसि लाज हेवं आहा [ । ] सड़वीसति-यस- ( सड़लीसतिवस- ) २ – अभिसितेन मे इयं धंम-लिपि लिखापिता [ । ] लजका ( लजूका ) से ( मे ) ३ – बहूसु पान-सत-सहसेसु ( पान-सत सहेसु ) जनसि आयता [ । ] तेसं ये अभिहाले वा ४ – दंडे वा अत-पतिये मे कटे [ । ] किति लजूका अस्वथ अभीता ५ – कंमानि पवतयेवू जनस जानपदसा हित-सुखं उपदहेवू ६ – अनुगहिनेवु च [ । ] सुखीयन-दुखीयनं जानिसंति धंमयुतेन च ७ – वियोवदिसंति ( वियोवढिसंति ) जनं जानपदं ( जनपदं ) [ । ] किंति हिदतं च पालतं च ८ – आलाधयेवू ति [ । ] लजूका पि लधंति पटिचलितवे मं [ । ] पुलिसानि पि मे मं [ । ] ९ – छंदंनानि पटिचलिसंति [ । ] ते पि च कानि वियोवदिसंति ( बियोवदिसंति ) येन मं लजूका १० – चघंति अलाधयितदे [ । ] अथा हि पजं वियताये धातिये निसिजितु ११ – अस्वथे होति वियत धाति चद्यति मे पजं सुख पलिहटवे १२ – हेवं मम लजूका कटा जानपदस हित-सुखाये [ । ] पेन एते अभीता १३ – अस्वथ संतं अविमना कंमानि पवतयेवू ति एतेन मे लजूकानं १४ – अभिहाले व दंडे वा अत-पतिये कटे [ । ] इछितविये हि एसा [ । ] किंति १५ – वियोहाल समता च सिय दंड समता चा [ । ] अब इते पि च मे आवति [ । ] १६ – बंधन-बधानं मुनिसानं तीलित दंडानं पत वधानं तिंनि दिवसानि १७ – मे योते दिंने [ । ] नातिका व कानि निझपयिसंति जीविताये तानं १८ – नासंतं वा निझपयिता दानं दाहंति पालतिकं उपवासं व कछंति [ । ] १९ – इछा हि मे हेवं निलुधसि पि कालसि पालतं आलाधयेवू ति [ । ] जनस च २० – बढति विविधे धंम चलने संयमे दान सविभागे ति [ ॥ ] संस्कृत छाया देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवम् आह। षड्विंशतिवर्षाभिषिक्तेन मया इयं धर्मलिपि लेखिता। रज्जुकाः मे बहुषु प्राणशतसहस्रेषु जनेषु आयताः। तेषां यः अभिहारः वा दण्डः वा आत्मप्रत्ययः मयाकृतः किमितिरज्जुकाः आश्वस्ताः अभीताः कर्माणि प्रवर्तयेयुः जनस्य जानपदस्य हितसुखं उपदध्युः अनुगह्णीयु: च सुखीयनं दुखीयनं ज्ञास्यन्ति धर्मषुतेन च व्यपदेक्ष्यन्ति जनं जानपदं किमिति — इहत्यं पारत्र्यं च आराधयेयुः इति। रज्जुकाः अपि च चेष्टन्ते परिचरितुं माम्। पुरुषा अपि मे छन्दनानि परिचरिष्यन्ति। ते अपि च कान् व्यपदेक्ष्यन्ति येन मां रज्जुकाः चेष्टन्ते आराधयितुम्। यथा हि प्रजां व्यक्तायै धात्र्यै निसज्य आश्वस्तः भवति — व्यक्ता धात्री चेष्टन्ते मे प्रजायैः सुखं परिदातुम् इति एवं मम रज्जुकाः कृताः जानपदस्य हित सुखाय येन एते अभीताः आश्वस्ताः सन्तः अविमनसः कर्माणि प्रवर्तयेयुः इति। एतेन वा रज्जुकानाम् अभिहारः वा दण्डःवा आत्मप्रत्ययः कृतः। इच्छितव्या हि एषा किमिति-व्यवहार समता व स्यात् दण्डसमता च। यावत् इतः अपि च मे आज्ञाप्ति बन्धन-बद्धानां मनुष्याणां निर्णीत-दण्डानां प्रतिविधानं श्रीणि दिवसानि मया यौतकं दत्तम्। ज्ञातिका वा तान् निध्यापयिष्यन्ति जीविताय तेषां नाशन्तं वा निश्यायत्तः दानं ददाति परात्रिकम् उपवासं वा करिष्यन्ति। इच्छाहि मे एवं निरुद्धे अपि काले पारत्र्यम् आराधयेयुः इति। जनस्य च वर्धेत विविधंधर्माचरणं संयमः दानस्य विभागः इति। हिन्दी अर्थान्तर १ – देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा — छब्बीस वर्षों से २ – अभिषिक्त होने पर मेरे द्वारा यह धर्मनिपि लिखवाई गई है। मेरे रज्जुक ३ – कई लाख प्राणियों एवं लोगों के लिए नियुक्त हैं। उनका जो अभियोग लगाने का अधिकार अथवा ४ – दण्ड का अधिकार है उसमें उन्हें मेरे द्वारा स्वतन्त्रता दी गई है क्योंकि रज्जुक और निर्भय होकर ४ – कार्य में प्रदत्त ( संलग्न ) हों, जनता और जनपदों के हित एवं सुख पहुंचाने की व्यवस्था करें। ६ – और उनपर कृपा करें। ये सुख एवं दुःख के कारणों को जानेंगे तथा अधिकारियों द्वारा ७ – जनपद के लोगों को उपदेश करेंगे कि लोग इहलौकिक और पारलौकिक कल्याण की प्राप्ति के लिए ८ – प्रयत्न करें। रज्जुक भी मेरी सेवा के लिए चेष्टा करते हैं। मेरे राजपुरुष भी ९ – मेरी इच्छाओं का पालन करेंगे। ये कुछ लोगों को उपदेश करेंगे जिससे रज्जुक मुझे १० – प्रसन्न करने की चेष्टा करेंगे। जिस प्रकार योग्य धाय के हाथ में सन्तान सौंपकर ११ – माता-पिता निश्चिन्त होते हैं। योग्य धाय चेष्टा करती है मेरे सन्तान को सुख प्रदान करने के लिए। १२ – इसी प्रकार जनपद के हित सुख के लिए रज्जुक नियुक्त हुए हैं। जिनसे निर्भय १३ – और आश्वस्त होते हुए प्रसन्नचित कर्मों में प्रवत्त हों। इसीलिए मेरे द्वारा रज्जुकों को १४ – अभियोग लगाने एवं दण्ड देने के अधिकार में स्वायत्तता दी गयी है। इसकी इच्छा करनी चाहिए। १५ – उनमें व्यवहार समता और दण्ड समता होनी चाहिए। यह मेरी आज्ञा है। १६ – कारावास में बंधे तथा मृत्युदण्ड पाए हुए लोगों को मेरे द्वारा तीन दिनों की १७ – छूट दी गई है। इसी बीच उनके स्वजन उनका जीवन बचाने के लिए राजुओं को इस पर पुनर्विचार के लिए आकृष्ट करेंगे। १८ – अथवा उनके जीवन के अन्त तक ध्यान करते हुए दान देंगे पारलौकिक कल्याण के लिए अथवा उपवास करेंगे। १९ – मेरी ऐसी इच्छा है कि कारावास में रहकर भी लोग परलोक का ध्यान करें कि २० – लोगों में धर्माचरण, संयम और दान वितरण बढ़े। टिप्पणी

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अशोक का तीसरा स्तम्भलेख

भूमिका सप्तस्तम्भ लेखों में से तीसरा स्तम्भलेख अशोक द्वारा पाप क्या है? इसको बताया गया है। साथ ही आत्मनिरीक्षण को प्रोत्साहित किया गया है। दिल्ली-टोपरा स्तम्भलेख सबसे प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। इसकी प्रसिद्ध इसलिए है क्योंकि केवल इसी पर अशोक के सातों लेख अंकित है जबकि अन्य स्तम्भों पर छः लेख ही प्राप्त होते हैं। मध्यकालीन इतिहासकार शम्स-ए-शिराज़ के अनुसार टोपरा से इसको फिरोजशाह तुगलक ने लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित संस्थापित करवाया था। इसी कारण इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाता है। इस स्तम्भ के कुछ अन्य नाम भी हैं; जैसे – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि। तीसरा स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का तीसरा स्तम्भलेख या तृतीय स्तम्भलेख ( Ashoka’s Third Pillar-Edict ) स्थान – दिल्ली-टोपरा संस्करण। यह मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया था। इसीलिए इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ भी कहते है। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल विषय – कौन-कौन से पाप हैं, इसकी व्याख्या। आत्मनिरीक्षण करने का सुझाव। तीसरा स्तम्भलेख : मूलपाठ १ – देवानं पिये पियदसि लाज हेवं अहा [ । ] कयानंमेव देखति इयं २ – कयाने कटे ति [ । ] नो मिन१ पापं देखति इयं मे पापे कटे ति इयं वा आसिनवे ३ – नामा ति [ । ] दुपटिवेखे चु खो एसा [ । ] हे चु खो एस देखिये [ । ] इमानि ४ – आसिनव-गामिनि नाम अथ चंडिये निठूळिये ( निठूलिये ) कोधे माने इस्या ५ – कालनेन व हकं मा पळिभसयिसं ( पलिभसयिसं ) [ । ] एस ( एक ) वाढ़ देखिये [ । ] इयं में ६ – हिदतिकाये इयंमन मे पाळतिकाये ( पालतिकाये ) [ ॥ ] १मेरठ संस्करण में ‘मिना’ पाठ मिलता है। संस्कृत छाया देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवं आह। कल्याणं एवं पश्यति इदं मया कल्याणं कृतं इति। नो मनाक पापं कृतं इति इदं वा आसिनवं नाम इति। दुष्प्रत्यवेक्ष्यं तु खलु एतत्। एवं तु खलु एतत् पश्येत् इमानि आसिनवगामीनि नाम यथा चाण्ड्यं, नैठुर्य, क्रोधः, मानः, ईर्ष्या कारणेन एवं अहं मा परिभ्रंशयिष्यामि। सतत् वाढं पश्येत् इदं मे एहिकाय इद अन्यत् मे पारत्रिकाय। हिन्दी अनुवाद १ – देवानांप्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा – मनुष्य कल्याण ही देखता है। मैंने यह २ – कल्याण किया। वह थोड़ा भी पाप नहीं देखता कि यह पाप मैंने किया या यह पाप है। ३ – यह सचमुच कठिनाई से देखा जा सकता है पर इसे अवश्य देखना चाहिए कि यह ४ – पाप की ओर ले जाते है — चण्डता, निष्ठुरता, क्रोध, अभिमान, ईर्ष्या ५ – इनके कारण मैं अपने को भ्रष्ट कर दूँ इसे गम्भीरता से देखना चाहिए कि ये ६ – मेरे इस लोक के लाभ के लिए हैं और ये परलोक के कल्याण के लिए है। टिप्पणी इस स्तम्भलेख ( दूसरा स्तम्भलेख ) में अशोक ने अत्मनिरीक्षण करने को कहा है। आगे वे इसका कारण यह बताते हैं कि मनुष्य अपने अच्छे कर्मों को तो देखता है परन्तु कुकृत्यों की अवहेलना कर देता है। इसीलिए उसको आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। आगे वे कहते हैं कि वस्तुतः कृत कर्मों का को इस दृष्टिकोण से देखना चाहिए कि अमुक कर्म लौकिक और पारलौकिक दृष्टि से अच्छा है अथवा नहीं। जिस प्रकार दूसरे स्तम्भलेख में अशोक ने धर्मिक कृत्यों को गिनाया है ठीक उसी तरह अकरणीय पाप कर्मों को भी यहाँ वर्णित किया है; यथा – चण्डता, निष्ठुरता, क्रोध, मान और ईर्ष्या। पहला स्तम्भलेख दूसरा स्तम्भलेख

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अशोक का दूसरा स्तम्भलेख

भूमिका सप्तस्तम्भ लेखों में से दूसरा स्तम्भलेख अशोक द्वारा जीव हिंसा न करने को कहा गया है। इसमें वे कहते हैं कि धर्म क्या है? फिर आगे वे इसका उत्तर भी देते हैं। दिल्ली-टोपरा स्तम्भ लेख सबसे प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। इसकी प्रसिद्ध का कारण यह है कि केवल इसी पर अशोक के सातों लेख अंकित है जबकि अन्य स्तम्भों पर छः लेख ही प्राप्त होते हैं। मध्यकालीन इतिहासकार शम्स-ए-शिराज़ के अनुसार टोपरा से इसको फिरोजशाह तुगलक ने लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित स्थापित करवा दिया था। इसीलिए इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाता है। इसके कुछ अन्य नाम भी हैं; जैसे – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि। दूसरा स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम – दूसरा स्तम्भलेख या अशोक का द्वितीय स्तम्भलेख ( Ashoka’s Second Pillar Edict ) स्थान – यह मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित कराया। इसी से इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ भी कहते है। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल विषय – जीवहिंसा का विरोध, धर्म की परिभाषा। दूसरा स्तम्भलेख : मूलपाठ १ – देवानंपिये पियदसि लाज २ – हेवं आहा [ । ] धंमे साधू [ । ] कियं चु धंमे ति [ । ] अपासिनवे बहुकयाने ३ – दया दाने सचे सोचये [ । ] चखुदाने पि में बहुविधे दिंने [ । ] दुपद- ४ – चतुपदेसु पखि वालिचलेसु विविधे में अनुगहे कटे आ पान- ५ – दाखिनाये [ । ] अंनानि पि च मे बहूनि कयानि कटानि [ । ] एताये मे ६ – अठाये इयं धंम लिपि लिखापि हेवं अनुपटिपजन्तु चिलं- ७ – थितिका च होतू ती ति [ । ] ये च हेवं संपटिपजीसति से सुकटं कंछती ति [ । ] संस्कृत छाया देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवं आह। धर्मः साधु। कियान तु धर्मः इति? अल्पासिनवं, बहुकल्याणं, दया, दानं, सत्यं शौचम्। चक्षुदानम् अपि मया बहुविधं दत्तम्। द्विपदचतुष्पदेषु पक्षिवारिचरेषु विविधः मया अनुग्रहः कृतः आ प्राणदाक्षिण्यात्। अन्यानि अपि च मया बहूनि कल्याणानि कृतानि। एतस्मै मया अर्थाय इयं धर्मलिपिः लेखिता — एवम् अनुप्रतिपद्यताम् चिरस्थितिका च भवतु इति। यः च एवं सम्प्रतिपेत्स्यते सः सुकृतं करिष्यति इति। अनुवाद १ – देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा २ – इस प्रकार कहता है — धर्म साधु ( उत्तम ) है। किन्तु धर्म क्या है ? कम [ से कम ] पाप, बहुत कल्याण, ३ – दया, दान, सत्य और शौच ( पवित्रता )। मेरे द्वारा बहुत से चक्षुदान भी किया गया है। द्विपदों, ४ – चतुष्पदों, पक्षियों ( और ) वारिचरों ( जलचर प्राणियों ) पर मेरे द्वारा विविध अनुग्रह-प्राण ५ – दक्षिणा तक किये गये हैं। अन्य भी बहुत कल्याण मेरे द्वारा किये गये हैं। इस अर्थ ( उद्देश्य ) से ६ – मेरे द्वारा यह धर्मलिपि लिखवायी गयी ( है कि लोग ) इसी प्रकार ७ – अनुसरण करें [ और यह ] चिरस्थित हो। जो इस प्रकार सम्यक् रूप से प्रतिपादन करेगा, वह सुकृत ( पुण्य ) करेगा। टिप्पणी इस अभिलेख में अशोक ने धर्म की परिभाषा की है और अपने द्वारा किये गये कल्याणकारी कार्यों का उल्लेख करते हुए कहा है कि लोग उसका अनुकरण करें। यह अशोक का सबसे छोटा स्तम्भलेख है। अशोक ने स्तम्भलेख में जीव हत्या का विरोध किया है। बौद्ध ग्रंथ दीयनिकाय के सिगालवादसूत्त में भी इसी प्रकार का विचार मिलता है। ब्राह्मण ग्रंथ याज्ञवल्क्य स्मृति में इस तरह व्यक्त किया गया है — अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनियहः। दानं दमो दया क्षान्ति सर्वेषां धर्मसाधनमा॥ विष्णुपुराण में इसको इस तरह कहा गया है — एवं क्षमा सत्यं दमः शौचं दानमिन्द्रियसंयमः। अहिंसा गुरुशुश्रूषा तीर्थानुसरण दया॥ आर्जवं लोभशून्यत्वंन देवब्राह्मणपूजनम्। अन्भ्यसूया च तथा धर्मद्धः सामान्य उच्यते॥ अशोक का पहला स्तम्भलेख

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अशोक का पहला स्तम्भलेख

भूमिका पहला स्तम्भलेख, अशोक के सप्त स्तम्भ लेखों में से पहला अंकित अभिलेख है। इसको उन्होंने २६ वर्ष से अभिषिक्त रहते हुए अर्थात् २७वें वर्ष लिखवाया था। दिल्ली-टोपरा स्तम्भ लेख सर्वाधिक प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। इसकी प्रसिद्ध का कारण यह है कि मात्र इसी पर अशोक के सातों लेख अंकित है जबकि अन्य स्तम्भों पर छः लेख ही मिलते हैं। मध्यकालीन इतिहासकार शम्स-ए-शिराज़ के अनुसार टोपरा से इसको फिरोजशाह तुगलक ने लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया। तबसे इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाने लगा। इसके अन्य नाम हैं – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि। पहला स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम – पहला स्तम्भलेख या सात स्तम्भ लेख में से पहला लेख ( Ashoka’s Seven Pillar Edict – One ) स्थान – मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित कराया। इसी से इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ भी कहते है। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – अशोक ने २६ वर्षों से अभिषिक्त रहते हुए अर्थात् २७वें वर्ष यह अभिलेख लिखवाया। विषय – धर्म के अनुसार शासन, पोषण व विधि बनाने का विवरण। पहला स्तम्भलेख : मूलपाठ १ – देवानंपिये पियदसि लाज हेवं आहा [ । ] सडवीसति- २ – वस अभिसितेन मे इयं धंम-लिपि लिखापिता [ ।] ३ – हिदत- पालते दुसंपटिपादये अंनत अगाया धम कामताया ४ – अगाय पलीखाया अगाय सुसू साया अनेगन भयेना ५ – अगेन उसाहेना [।] एस चु खो मम अनुसथिया ६ – धंमापेखा धंम-कामता चा सुवे सुवे वढिता वढीसति चेवा [।] ७ – पुलिसा पि च मे उकसा चा गेवया चा मझिमा चा अनुविधीयंती ८ – संपटिपादियंति चा अलं च पलं समादपयितवे [।] हेमेवा अंत- ६ – महामाता पि [ । ] एस हि विधि या इयं धंमेन पालना धंमेन विधाने १० – धंमेन सुखियना धंमेन गोतो ति [ । ] संस्कृत रूपान्तरण देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवम् आह। षड्विंशति वर्षाभिषिक्तेन मया इयं धमलिपि लेखिता। इहत्य-पारत्र्यं दुःसम्प्रतिपाद्यम् अनयत्र अग्रयायाः धर्मकामतायाः अग्रयायाः परीक्षायाः अग्रयाया: शुश्रूषायाः अग्रयात् भयात् अग्रयात् उत्साहात्। एषा तु खलु मम अनशिष्टेः, धर्मापेक्षा, धर्मकामता च श्वः श्वः वर्द्धिता वर्द्धिष्यति चैव। पुरुषा अपि च मे उत्कृष्टा च गम्याः मध्यमाः च अनविदधति सम्प्रतिपादयन्ति च अलं चपलं समादातुम्। एवमेव अन्तमहामात्रापि। एषाहि विधिः या इयं धर्मेण पालना धर्मेण विधानं धर्मेण सुखीयन धर्मेण गुप्तिः इति। हिन्दी अनुवाद १ – देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है — छब्बीस २ – वर्षों से अभिषिक्त मुझ द्वारा यह धर्मलिपि लिखवायी गयी। ३ – अत्यन्त धर्मकामता ( धर्मानुराग )’ ४-५ अत्यन्त ( आत्म-परीक्षा, अत्यन्त शुश्रूषा, अत्यन्त भय [ और ] अत्यन्त उत्साह के बिना ऐहिक और पारलौकिक [ उद्देश्य ] दुष्कर हैं ( कठिनाईपूर्वक प्रतिपादित होनेवाले हैं )। ६ – किन्तु मेरे अनुशासन से वह धर्मापेक्ष ( धर्म का आदर ) और धर्मकामता ( धर्मानुराग ) दिन-दिन वर्धित हुई है और वर्धित ही होगी। ७ – मेरे उत्कृष्ट, निकृष्ट और मध्यम पुरुष ( राजकर्मचारी ) भी ( धर्म का ) अनुविधान ( पालन ) करते हैं। ८ – सम्यक् रूप से प्रतिपादन करते हैं और चपल [ व्यक्ति ] को वशीभूत करने में समर्थ हैं। ९ – इसी प्रकार अन्तमहामात्र भी [ करते हैं ]। यही कानून है – धर्मपूर्वक पालन; धर्मपूर्वक विधान (कानून-निर्माण); १०. धर्मपूर्वक सुखप्रदान और धर्मपूर्वक गुप्त ( रक्षा )। टिप्पणी यह स्तम्भ लेख अशोक ने अपने छब्बीस वर्ष से अभिषिक्त रहते हुए कराया अर्थात् २७वें वर्ष में। इसमें उसने इहलौकिक और पारलौकिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए धर्मकामता ( धर्म के प्रति निष्ठा ), आत्म-परीक्षा व पर-सेवा और भय व उत्साह को आवश्यक बताया है और यह भी कहा है कि उसके अनुशासन से लोग इन बातों का पालन कर धर्म में हो रहे हैं। उसे निरन्तर करने पर उसने बल दिया है। ब्रह्मगिरि शिलालेख

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ब्रह्मगिरि शिलालेख

भूमिका वर्तमान कर्नाटक प्रान्त के चित्तलदुर्ग जनपद से ब्रह्मगिरि शिलालेख मिला है। इसी के आसपास ही अशोक के अन्य शिलालेख ( सिद्धपुर, जटिंगरामेश्वर और मास्की ) भी प्राप्त हुए हैं। ब्रह्मगिरि शिलालेख से पता चलता है कि दक्षिण भारत में मौर्य प्रांत की राजधानी सुवर्णगिरि थी जहाँ एक कुमार रहता था। इस लेख में सम्राट अशोक ने दावा किया है कि धर्म प्रचार करके उसने जम्बू द्वीप के लोगों को देवताओं से मिला दिया है। ब्रह्मगिरि शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का ब्रह्मगिरि शिलालेख; अशोक का ब्रह्मगिरि लघु शिलालेख ( Ashoka’s Brahmagiri Minor Rock Edict ) स्थान – ब्रह्मगिरि, चित्तलदुर्ग या चित्रदुर्ग जनपद; कर्नाटक भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी विषय – पराक्रम फल की व्याख्या, धर्म क्या है? इसका विवरण। ब्रह्मगिरि शिलालेख : मूलपाठ १ – सुवंणगिरीते अयपुतस महामाताणं च वचनेन इसिलसि महामाता आरोगियं वतविया हेवं च वतविया [ । ] देवाणं पिये आणपयति [ । ] २ – अधिकानि अढ़ातियानि वसानि य हंक [ …… ] सके [ । ] नो तु खो बाढ़े प्रकंते हुसं [ । ] एकं सवछरे सातिरेके तुखो सवछरे ३ – यं मया संघे उपयीते बाढ़ं च मे पकंते [ । ] इमिना चु कालेन अमिसा समाना मुनिसा जुंबुदीपसि ४ – मिसा देवेहि [ । ] पकमस हि इयं फले [ । ] नो हीयं सक्ये महात्पेनेव पापोतवे [ । ] कामं तु खो खुदकन पि ५ – पकमि ……… णेण विपुले स्वगे सक्ये आराधेतवे [ । ] एतायठाय इयं सावणे सावापिते ६ – ……… महात्पा च इमं पकमेयु ति अंता च मे जानेयु चिरठितीके च इयं ७ – पक ……… [ । ] इयं च अठे वढिसिति विपुलं च वढिसिति अवरधिया दियढियं ८. वढिसिति [ । ] इयं च सावणे सावापिते व्यूथेन [ । ] २०० ( + ) ५० ( + ) ६ [ । ] से हेवं देवाणांपिये [ ८वीं पंक्ति के ‘वढिसिति’ शब्द के बाद रूपनाथ और सहसराम में पाठ भिन्न है। ] ९ – आह [ । ] मातापितिसु सुसूसितविये [ । ] हेमेव गरुसु [ । ] प्राणेसु द्रह्यितव्यं [ । ] सचं १० – वतवियं [ । ] से इमे धंमगुणा पवतिततविया [ । ] हेमेव अंतेवासिना ११ – आचरिये अचायितविये ञातिकेस च कं य [ था ] [ रहं पवतितविये [ । ] १२ – एसा पोराणा पकिति दीघावुसे च एस [ । ] हेवं एस कटिविये [ । ] १३ – चपडेन लिखिते लिपिकरेण [ । ] संस्कृत रूपान्तरण सुवर्णगिरितः आर्यपुत्रस्य महामात्राणां व वचनेन ऋषिले महामात्राः आरोग्यं वक्तव्याः। देवानां प्रियः आज्ञापयति। अधिकानि अर्द्धततीयानिवर्षाणि यत् अहं उपासकः। न तु खलुवाढ़ं प्रकान्तः अधूवम् एकं संवत्सरम्। सातिरेकः* तु खलु सवत्सरः यत् मया संघः उपेतः। वाढं च मया प्रक्रान्तम्। अधुना तु काले अमिश्रा समानाः मनुष्याः जम्बुद्वीपे मिश्रा देवैः। प्रक्रमस्य इदं फलम्। नहि इदं शक्यं महात्मनैव प्राप्तम्। कामं तु खलु क्षुद्रकेण अपि प्रक्रममाणेन विपुलः स्वर्गः शक्यः आराधयितुम। एतस्मै अर्थाय इदं श्रावणं श्रावितम्। महात्मानः च इमं प्रक्रमेरन इति अन्ताः च मे जानन्तु चिरास्थितिकः च अयं….। अथ च अर्थः वर्द्धिष्यति विपुलम् अपि च वर्द्धियष्यति आरब्ध्या द्धयर्द्धं वर्द्धिष्यति। इदं च श्रावणं श्रावितम् व्युष्टेन २०० ५० ६। तत् देवानां प्रियः आह। मातपित्रोः शुश्रूषितव्यम्। गुरुत्वं प्राणेषु द्रढायितव्यम्। सत्यं वक्तव्यम्। ते इमे धर्मगुणा: प्रवर्तयिव्याः। एवमेव अन्तेवासिना आचार्यः अपचेतव्यः। ज्ञातिकेषु च कुले यथा प्रयर्त्तयितव्यम्। एषा पुराणी प्रकृतिः दीर्घायुषे च भवति। एतत एव कर्तव्यम्। लिखित पठेन लिपिकरेण। हिन्दी भाषांतरण १ – सुवर्णगिरि से आर्यपुत्र और महामात्रों की आज्ञा से इषिला के महामात्यों का आरोग्य पूँछना चाहिए। देवानांप्रिय की विज्ञप्ति ( आदेश ) है — २ – ढाई वर्षों से अधिक व्यतीत हुए मैं उपासक था। परन्तु अधिक पराक्रम एक वर्ष तक मैंने नहीं किया किन्तु एक वर्ष से कुछ अधिक व्यतीत होने पर ३ – जब मैं संघ ( बौद्ध संघ ) की शरण में आया तब मैंने अधिक पराक्रम किया इस काल में अमिश्र मनुष्य देवों से मिश्र हुए ४ – पराक्रम का यह फल है। केवल बड़े लोग ही इसे प्राप्त नहीं कर सकते। स्वेच्छा से निश्चय करने पर छोटा व्यक्ति भी ५ – विपुल पराक्रम से स्वर्ग प्राप्त कर सकता है। इसीलिए यह धर्म विषय ( श्रावण ) सुनाया गया ६ – कि छोटे और बड़े सभी इसके लिए पराक्रम करें। सीमा के लोग भी इसे जाने और यह चिरस्थायी ७ – पराक्रम हो इससे उद्देश्य बढ़ेगा, प्रचुर रूप में बढ़ेगा एवं पहले की अपेक्षा डेढ़ा ( डेढ़ गुणा ) बढ़ेगा ८ – यह श्रावण २०० ५० ६ ( २५६ ) में सुनाया गया। इसलिए देवों का प्रिय यह कहता है — ९ – माता-पिता की शुश्रूषा करनी चाहिए। इसी तरह गुरुजनों ( श्रेष्ठजनों या बड़ों ) की ( शुश्रूषा या आदर करना चाहिए )। प्राणियों के लिए दृढ़ आदरभाव ( दया की दृढ़ता ) करना चाहिए। सत्य १० – बोलना चाहिए। इन धर्मगुणों का प्रवर्तन करना चाहिए। इसी प्रकार विद्यार्थियों ( अंतेवासी या गुरुकुल में रहने वाले छात्र ) द्वारा ११ – आचार्य का आदर करना चाहिए। स्वजातियों और कुलों से उचित व्यवहार करना चाहिए। १२ – यह पुरातन परम्परा है। इससे दीर्घ आयु प्राप्त होती है। इसलिए इसका पालन होना चाहिए १३ – यह लेख चपड़ या चापड़ ( नामक ) लिपिक पद द्वारा तैयार किया गया। टिप्पणी इस अभिलेख में अशोक ने सामान्य सदाचार की बातें कहीं हैं। ये वही बातें हैं जो उसके धर्म ( धम्म ) का आधार हैं – माता-पिता की सेवा गुरुजनों ( बड़ों ) की सेवा जीवों के लिए दया सत्य बोलना शिष्यों द्वारा आचार्य का आदर सगे-सम्बन्धियों से समुचित व्यवहार भाब्रू शिलालेख रूपनाथ शिलालेख या रूपनाथ लघु शिलालेख

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रूपनाथ शिलालेख या रूपनाथ लघु शिलालेख

रूपनाथ शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – रूपनाथ शिलालेख या रूपनाथ लघु शिलालेख ( Rupnath Minor Rock Edict ) स्थान – रूपनाथ, कटनी, मध्य प्रदेश भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल विषय – सम्राट अशोक का बौद्ध अनुयायी होना। रूपनाथ शिलालेख : मूलपाठ १ – देवानंपिये१ हेवं आहा [ । ]२ सातिरकेकानि अढतियानि व ( सानि ) य सुमि पाकास सके [ । ] नो चु बाढि पकते [ । ] सातिलेके चु छवछरे य समि हकं संघ उपेते २ – बाढि च पकते [ । ] या इमाय कालाय जंबुदिपसि अमिसा देवा हुसु ते दानि मिसा कटा [ । ] पकमसि हि एस फले [ । ] नो व एसा महतता पापोतवे खुदकेन ३ – पि पकममिन नेना सकिये पिपुले पा स्वगे आरोधेवे [ । ] एतिय अठाय च सावने कटे खुदका च उडाला व पकमतु ति अता पि च जानतु इय पकरा व ४ – किति चिर-ठितिके सिया [ । ] इयं हि अठे वढिसिति विपुल च वढिसिति अपलधियेना दियडिंसत [ । ] इयं च अठे पवतिसु लेखापेत वालत [ । ] हध च अथि ५ – साला-ठभे सिला-ठंभसि लाखापेतवय त [ । ] एतिना च वयजनेना यावतक तुपक अहाले सवर विवसेतयाय ति [ । ] व्युठेना सावने कटे [ । ] २०० ( + ) ५० ( + ) ६ स- ६ – त विवासा त [ ॥ ] १मास्की शिलालेख में ‘देवानंपियस असीकस’; और गुर्जरा शिलालेख में ‘देवानंपियस पियदसिनो चसोकराजस’ अंकित है। २ब्रह्मगिरि, सिद्धपुर और जतिंग-रामेश्वर शिलालेख में ‘सुवर्णगिरिते अयपुतस महामातानं च वचनेन इसिलसि महामाता आरोगियं वतिवया’ अंकित है। संस्कृत छाया देवानां प्रियः एवम् आह। सातिरेकाणि अर्द्धततीयानि वर्षाणि प्रकाशं उपासकः। न तु वार्ड प्रक्रान्तः। सातिरेकं तु संवत्सरं यत् अस्मि अहं संघम् उपेतः वाढं द प्रकान्तः। ये अस्मै कालाय जम्बुद्वीपे अमिश्राः देवा आसन ते इदानीं मिश्राः कृताः। प्रक्रमस्य हि एतत् फलम्। न च एतत् महता प्राप्तव्यं क्षुद्रकेन अपि प्रक्रममाणेन शक्यः। विपुलः स्वर्गः आराधयितुं। एतस्मै अर्थय च श्रावणं कृतम्। क्षुद्रका व उदाराः च प्रक्रमन्ताम् इति। अन्ताः अपि न जानन्तु ‘अयं प्रक्रमः एव’ किमिति चिरस्थितिक स्यात्। अयं हि अर्थः वद्धिं वर्द्धिष्यते विपुलं च वर्द्धिष्यते। अयं च अर्थः पर्वतेषु लेखयेत वारतः। इह व अस्ति शिलास्तम्भ। शिलास्तम्भे लेखयितव्यः इति। एतेन व व्यञ्जनेन यावत् युष्माकम् आहारः सर्वत्र विवासयितव्यः इति। व्युष्टेन श्रावणं कृतम् २०० ५०६ शतानि विवासाः इति। हिन्दी अनुवाद १ – देवानां प्रिय ने कहा – ढाई वर्ष से कुछ अधिक व्यतीत हुए मैं प्रकाश रूप में उपासक था। किन्तु मैंने अधिक पराक्रम नहीं किया। किन्तु एक वर्ष से अधिक व्यतीत हुए जबसे मैने संघ की शरण ली है। २ – तब से मैं अधिक पराक्रम करता हूँ। इस समय जो जम्बुद्वीप में देवता मनुष्यों से अमिश्रित ये अब मिश्रित किये गये। यह पराक्रम का ही फल है। यह केवल उच्च पद वाले व्यक्ति से प्राप्त नहीं होता। ३ – छोटे से भी पराक्रम द्वारा विपुल स्वर्ग की प्राप्ति सम्भव है। इस उद्देश्य के लिए धार्मिक कथा की व्यवस्था की गई जिससे क्षुद्र और उदार पराक्रम करें और मेरे सीमा के लोग भी जाने कि यही पराक्रम ४ – स्थायी है। यह उद्देश्य अधिकाधिक बढ़ेगा बहुत बढ़ेगा, कम से कम आधा बढ़ेगा। इसे अवसर के अनुकूल पर्वत पर उत्कीर्ण कराये और साम्राज्य में जहाँ भी ५ – शिलास्तम्भ हो वहाँ लिखवायें इस धर्म लिपि के उद्देश्य के अनुसार सर्वत्र एक अधिकारी भेजा जाय जहाँ तक अधिकार क्षेत्र हो। यह धर्मवार्ता ( श्रावण ) यात्रा के समय किया गया जब २०० ५० ६ ( २५६ ) ६ – रात्रि पड़ाव यात्रा का बीत चुका था।

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भाब्रू शिलालेख

भूमिका भाब्रू शिलालेख ( Bhabru Rock Edict ) अशोक के लघु शिलालेख ( Minor Rock Edict ) वर्ग का अभिलेख है। यह अभिलेख विराट नगर ( वैराठ या बैराठ ) के बीजक डूँगरी से मिला था। इसको कैप्टन बर्ट द्वारा प्राप्त करने के बाद ‘भाब्रू शिविर’ में रखने के कारण इसका यह नाम ( भाब्रू अभिलेख – Bhabru Inscription ) पड़ गया। मूल स्थान के नाम पर इसको बैराठ शिलालेख या भाब्रू-बैराठ शिलालेख भी कहते है। सन् १८४० ई० में अँग्रेज अधिकारी कैप्टन बर्ट ने इसको कोलकाता के एशियाटिक सोसाइटी बंगाल संग्रहालय में सुरक्षित रखवा दिया था।  इस आधार पर इसका एक अन्य नाम बैराठ कोलकाता अभिलेख भी पड़ गया। इसमें बुद्ध, धम्म और संघ ( त्रिरत्न ) का एक साथ उल्लेख सम्राट अशोक का बौद्धावलम्बी होने का अभिलेखीय साक्ष्य प्रस्तुत करता है। इसमें अशोक को मगध का राजा कहकर प्रियदर्शी नाम से सम्बोधित किया गया है। इसके साथ ही बौद्ध संघ के भिक्षु और भिक्षुणियों के आचरण सम्बन्धी दिशा-निर्देश भी मिलते हैं। इस लेख में सात पुस्तकों का उल्लेख है। भाब्रू ( बैराट ) लघु शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – भाब्रू शिलालेख, भाब्रू लघु शिलालेख, भाब्रू-बैराट लघु शिलालेख ( Bhabru Bairat Minor Rock Edit ), बैराठ-कोलकाता शिलालेख स्थान – बैराट या बैराठ, जयपुर; राजस्थान भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – अशोक के राज्याभिषेक का २२वाँ से २४वाँ वर्ष विषय – अशोक का बौद्ध धर्मावलम्बी होने का अभिलेखीय प्रमाण; सात पुस्तकों का उल्लेख, भिक्षुओं व भिक्षुणियों के लिए दिशानिर्देश। खोजकर्ता – कैप्टन बर्ट ( १८३७ ई० ) मूलपाठ १ – प्रियदसि लाजा मागधे संघं अभिवादेतूनं आहा अपाबाधतं च फासुविहालतं चा [ । ] २ – विदिते वे भंते आवतके हमा बुधसि धंमसि संघसी ति गालवे चं प्रसादे च [ । ] ए केचि भंते ३ – भगवता बुधेन भासिते सवे से सुभाषिते वा [ । ] ए चु खो भंते हमियाये दिसेया हेवं संधंमे ४ – चिलठितीके होसती ति अलहामि हकं तं वातवे [ । ] इमानि भंते धंमपलियायानि विनयसमुकसे ५ – अलियवसाणि अनागतभयानि मुनिगाथा मोनेयसूते उपतिसप्रसिनो ए चा लाघुलो- ६ – वादे मुसा-वादं अधिगिच्छ भगवता बुधेन भासिते [ । ] एतानि भंते धंमपलियायानि इछामि ७ – किंति बहुके भिखुपाये चा भिखुनिये चा अभिखिनं सुनेयु चा उपधालयेयू चा [ । ] ८ – हेवंमेवा उपासका चा उपासिका चा [ । ] एतेनि भंते इमं लिखापयामि अभिपेतं में जानंतू ति [ । ] संस्कृत रूपान्तरण प्रियदर्शी राजा मागधः सङ्घमभिवादनमाह अपावाधत्वं च पाशु विहारत्वं च। विदितं वो भदन्त यावदस्माकं बुद्धे धर्मे संघे इति गौरवं च प्रसादश्च। यत्किञ्चितद्भदत्ता भगवता बुद्धेन भाषितं सर्वे तत्सुभाषितं वा। यत्तु खुलु भदन्ता मया दश्यत एवं सद्धर्मश्चिरस्थितिको भविष्यतीत्यर्हाम्यहं तद्वर्तयितुम्। इमे भदन्ता धर्मपर्यायाः — विनयसमुत्कर्षः आर्यवंशः अनागतभयानि मुनिगाथा मौनेयसूत्रमुपतिष्यप्रश्न एवं राहुलोवादो मषावादमधिकृत्य भगवता बुद्धेन भाषितः। एतान्भदन्ता धर्मपर्यायानिच्छामि। किमिति? बहवो भिक्षुका भिक्षुक्यश्च अभीक्ष्णं श्रणुपुरवधारयेयुश्च। एवमेवोपासकाश्चोपासिकाश्च। एतेन भदन्ता इदं लेखयाभ्यभिप्रेतं मे जानन्त्विति। हिन्दी अर्थान्तर १ – प्रियदर्शी राजा ने मगध के संघ को अभिवादन कहा। उसके लिए वह बाधाओं का अन्त और सुख की स्थापना चाहता है। २ – भंते या भदंते ( सम्मान्यजन )! आप लोगों को ज्ञात है कि कितना बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति मेरा आदर और श्रद्धा है। भदन्त! जो कुछ भी ३ – भगवान बुद्ध ने कहा है वह सब सुभाषित है। भदन्त! मैंने जो कुछ भी धर्म के बारे देखा है एवं वह ४ – जिस प्रकार चिरस्थायी होगा वह मैं कहता हूँ। भदन्त! ये धर्मपर्याय ( धर्मग्रंथ ) हैं – विनय समुकस ( पालि — विनयसमुक्कंसः ; संस्कृत — विनय-समुत्कर्षः ) ५ – अलियवस१, अनाअगतभय२, मुनिगाथा, मौनेयसुत्त३, उपतिसपसि४ और राहुलवाद ( लाघुलोवादे५ ) में ६ – मुसा-वादं६ ( मृषावाद) के ऊपर जो भागवान बुद्ध द्वारा कहा गया है। भदन्त! इन धर्म पर्यायों को चाहता हूँ ७ – कि बहुत से भिक्षु और भिक्षुणियाँ इन्हें निरन्तर सुने और इनुको उपधारण करें। ८ – इसी प्रकार उपासक और उपासिका भी। भदन्त! इसीलिए यह लिखवाता हूँ कि लोग मेरा अभिप्राय जानें। १अलियवस ( पालि – अरियवंसः संस्कृत – आर्यवंश ), २अनागतभय ( संस्कृत – अनागतभयानिसूत्र ), ३मोनेयसूत, ( पालि – मोनेय्यसुत्त, संस्कृत – मौयेयसूत्रम् ), ४उपतिसपसिन ( पालि – उपतिस्सपञ्ह, संस्कृत – उपतिष्य प्रश्न: ) और ५लाघुलोवादे ( पालि – राहुलोवाद-सुत्त, संस्कृत – राहुलोवादः ) में ६मुसा-वादं ( संस्कृत – मृषावादः ) भाब्रू शिलालेख  : विश्लेषण यह अभिलेख ऐसा है जिसमें अशोक ने स्पष्ट रूप से बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति अपनी निष्ठा की है। अशोक बौद्ध भिक्षुओं को यह बताने का प्रयास किये हैं कि धर्मग्रन्थ कौन से हैं जिनको भिक्षु-भिक्षुणियों को पढ़ना और तदनुसार आचरण करना चाहिए। सम्राट अशोक की ओर से भिक्षुओं को दिये जाने वाले इस आदेश से ऐसा प्रकट होता है कि वह अपने को बौद्ध भिक्षुओं को अनुशासित करने का अधिकारी समझता था। यह धर्म पर अनुशासन का प्रतीक है। जो भारतीय परम्परा में अन्यत्र नहीं मिलता है। भाब्रू-बैराठ शिलालेख में उल्लिखित ७ ग्रंथ अशोक ने भिक्षु-भिक्षुणियों को जिन सात ग्रन्थों के अध्ययन का आदेश दिया है, वे कौन-कौन से हैं? इन विषय में विद्वानों में काफी मतभेद या विवाद है। इन पर ( सात पुस्तकों )विस्तार के साथ Bimal Churn Law ने अपनी पुस्तक ‘A History Of Pali Literature’ ( Volume  – Two ) तथा Vidhushekhra Bhattacharya की पुस्तक ‘Buddhist Text As Recommended By Ashoka’ में किया है। १ :- विनय समुकस / विनय समुकसे ( विनय समुत्कर्ष ) के सम्बन्ध में विद्वानों में घोर विवाद है। समझा जाता है कि उसका तात्पर्य धम्मचक्क पवत्तनसुत्त, पातिमोक्ख, तुट्टकसुत्त ( सुतनिपात ), सपुरिससुत्त ( मज्झिमनिकाय ), सिगालोवाद सुतन्त ( दीघनिकाय ) या अत्थवसवग्ग ( अंगुत्तरनिकाय ) में से किसी से है। २ :- अलियवस –  सम्भवतः यह अंगुत्तरनिकाय का अरियवंस या अरियवास है। इस सुत्त में बुद्ध ने कहा है कि भिक्षुओं को कपड़े, खाने और रहने के प्रति असन्तोष नहीं प्रकट करना चाहिए। उन्हें जो भोजन व कपड़ा मिले उसी से वे सन्तुष्ट रहें और ध्यान करें। ३ :- अनागतभय – यह अंगुत्तरनिकाय का अनागतभयानि हो सकता है। ४ :- मुनिगाथा – कदाचित् यह सुत्तनिपात का मुनिसुत्त है, जिसमें बुद्ध ने मुनि की व्याख्या की है। ५ :- मौनेयसुत्त – कदाचित् इसका तात्पर्य सुत्तनिपात के नालकसुत्त से है। इसमें भिक्षुओं के आचरण का उल्लेख है। ६ :- उपतिसपसिन – इसे विद्वानों ने मज्झिमनिकाय का रथविनीतसुत्त अनुमान किया है। कुछ

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