अशोक का पहला स्तम्भलेख

भूमिका

पहला स्तम्भलेख, अशोक के सप्त स्तम्भ लेखों में से पहला अंकित अभिलेख है। इसको उन्होंने २६ वर्ष से अभिषिक्त रहते हुए अर्थात् २७वें वर्ष लिखवाया था।

दिल्ली-टोपरा स्तम्भ लेख सर्वाधिक प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। इसकी प्रसिद्ध का कारण यह है कि मात्र इसी पर अशोक के सातों लेख अंकित है जबकि अन्य स्तम्भों पर छः लेख ही मिलते हैं।

मध्यकालीन इतिहासकार शम्स-ए-शिराज़ के अनुसार टोपरा से इसको फिरोजशाह तुगलक ने लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया। तबसे इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाने लगा। इसके अन्य नाम हैं – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि।

पहला स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय

नाम – पहला स्तम्भलेख या सात स्तम्भ लेख में से पहला लेख ( Ashoka’s Seven Pillar Edict – One )

स्थान – मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित कराया। इसी से इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ भी कहते है।

भाषा – प्राकृत

लिपि – ब्राह्मी

समय – अशोक ने २६ वर्षों से अभिषिक्त रहते हुए अर्थात् २७वें वर्ष यह अभिलेख लिखवाया।

विषय – धर्म के अनुसार शासन, पोषण व विधि बनाने का विवरण।

पहला स्तम्भलेख : मूलपाठ

१ – देवानंपिये पियदसि लाज हेवं आहा [ । ] सडवीसति-

२ – वस अभिसितेन मे इयं धंम-लिपि लिखापिता [ ।]

३ – हिदत- पालते दुसंपटिपादये अंनत अगाया धम कामताया

४ – अगाय पलीखाया अगाय सुसू साया अनेगन भयेना

५ – अगेन उसाहेना [।] एस चु खो मम अनुसथिया

६ – धंमापेखा धंम-कामता चा सुवे सुवे वढिता वढीसति चेवा [।]

७ – पुलिसा पि च मे उकसा चा गेवया चा मझिमा चा अनुविधीयंती

८ – संपटिपादियंति चा अलं च पलं समादपयितवे [।] हेमेवा अंत-

६ – महामाता पि [ । ] एस हि विधि या इयं धंमेन पालना धंमेन विधाने

१० – धंमेन सुखियना धंमेन गोतो ति [ । ]

संस्कृत रूपान्तरण

देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवम् आह। षड्विंशति वर्षाभिषिक्तेन मया इयं धमलिपि लेखिता। इहत्य-पारत्र्यं दुःसम्प्रतिपाद्यम् अनयत्र अग्रयायाः धर्मकामतायाः अग्रयायाः परीक्षायाः अग्रयाया: शुश्रूषायाः अग्रयात् भयात् अग्रयात् उत्साहात्। एषा तु खलु मम अनशिष्टेः, धर्मापेक्षा, धर्मकामता च श्वः श्वः वर्द्धिता वर्द्धिष्यति चैव। पुरुषा अपि च मे उत्कृष्टा च गम्याः मध्यमाः च अनविदधति सम्प्रतिपादयन्ति च अलं चपलं समादातुम्। एवमेव अन्तमहामात्रापि। एषाहि विधिः या इयं धर्मेण पालना धर्मेण विधानं धर्मेण सुखीयन धर्मेण गुप्तिः इति।

हिन्दी अनुवाद

१ – देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है — छब्बीस

२ – वर्षों से अभिषिक्त मुझ द्वारा यह धर्मलिपि लिखवायी गयी।

३ – अत्यन्त धर्मकामता ( धर्मानुराग )’

४-५ अत्यन्त ( आत्म-परीक्षा, अत्यन्त शुश्रूषा, अत्यन्त भय [ और ] अत्यन्त उत्साह के बिना ऐहिक और पारलौकिक [ उद्देश्य ] दुष्कर हैं ( कठिनाईपूर्वक प्रतिपादित होनेवाले हैं )।

६ – किन्तु मेरे अनुशासन से वह धर्मापेक्ष ( धर्म का आदर ) और धर्मकामता ( धर्मानुराग ) दिन-दिन वर्धित हुई है और वर्धित ही होगी।

७ – मेरे उत्कृष्ट, निकृष्ट और मध्यम पुरुष ( राजकर्मचारी ) भी ( धर्म का ) अनुविधान ( पालन ) करते हैं।

८ – सम्यक् रूप से प्रतिपादन करते हैं और चपल [ व्यक्ति ] को वशीभूत करने में समर्थ हैं।

९ – इसी प्रकार अन्तमहामात्र भी [ करते हैं ]। यही कानून है – धर्मपूर्वक पालन; धर्मपूर्वक विधान (कानून-निर्माण);

१०. धर्मपूर्वक सुखप्रदान और धर्मपूर्वक गुप्त ( रक्षा )।

टिप्पणी

यह स्तम्भ लेख अशोक ने अपने छब्बीस वर्ष से अभिषिक्त रहते हुए कराया अर्थात् २७वें वर्ष में। इसमें उसने इहलौकिक और पारलौकिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए धर्मकामता ( धर्म के प्रति निष्ठा ), आत्म-परीक्षा व पर-सेवा और भय व उत्साह को आवश्यक बताया है और यह भी कहा है कि उसके अनुशासन से लोग इन बातों का पालन कर धर्म में हो रहे हैं। उसे निरन्तर करने पर उसने बल दिया है।

ब्रह्मगिरि शिलालेख

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