अशोक का छठवाँ स्तम्भलेख

भूमिका

सप्तस्तम्भ लेखों में से छठवाँ स्तम्भलेख अशोक द्वारा धर्मलिपि लिखवाने के प्रयोजन का उल्लेख किया है।

दिल्ली-टोपरा पर अंकित लेख अन्यत्र छः स्थानों से मिले स्तम्भलेखों में सबसे प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। यह एकमात्र ऐसा स्तम्भ हैं जिसपर सातों लेखों का एक साथ अंकन मिलता है। शेष पाँच पर मात्र छः लेख ही मिलते हैं।

मध्यकाल के इतिहासकार शम्स-ए-शिराज़ के अनुसार यह स्तम्भ मूलतः टोपरा में था। इसे फिरोजशाह तुगलक ने वहाँ से लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया था। तभी से इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भलेख के नाम से जाना जाने लगा। इस स्तम्भ के कुछ अन्य नाम भी हैं; यथा – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि।

छठवाँ स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय

नाम – अशोक का छठवाँ स्तम्भलेख या पञ्चम स्तम्भलेख ( Ashoka’s Sixth Pillar-Edict )

स्थान – दिल्ली-टोपरा संस्करण। यह मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया था। तभी से इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाने लगा।

भाषा – प्राकृत

लिपि – ब्राह्मी

समय – मौर्यकाल, अशोक के राज्याभिषेक के २६ वर्ष बाद अर्थात् २७वें वर्ष।

विषय – इस स्तम्भलेख में अशोक ने धर्मलिपि को लिखवाने का प्रयोजन स्पष्ट किया है।

छठवाँ स्तम्भलेख : मूलपाठ

१ – देवानंपिये पियदसि लाज हेवं अहा [ । ] दुवाडस—

२ – वस—अभिसितेन मे धम्मलिपि लिखापिता लोकसा

३ – हित—सुखाये [ । ] से तं अपहटा तं तं धम्म—वढि पापोवा [ । ]

४ – हेवं लोकसा हित—सुखे ति पटिवेखामि अथ इयं

५ – नातिसु हेवं पतियासंनेसु हेवं अपकठेसु

६ – किंमं कानि सुखं अवहामी ति तथा च विदहामी [ । ] हेमेवा

७ – सव—निकायेसु पटिवेखामि [ । ] सब पासण्डा पि मे पूजिता

८ – विविधाय पुजाया [ । ] ए चु इयं अतना पचूपगमने

९ – से मे मोख्यमुते [ । ] सडवीसति वस अभिसितेन मे

१० – इयं धम्मलिपि लिखापिता [ । ]

संस्कृत छाया

देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवमाह। द्वादशवर्षाभिषिक्तेन मया धर्मलिपिलेखिता लोकस्य हितसुखायः, तत्रदपहृत्य सा सा धर्मवृद्धिः प्राप्ताया। एवं लोकस्य हितसुखे इति प्रत्यवेक्षे ययेदं ज्ञातियु एवं प्रत्यासन्नेषु एवमपकृष्टेषु किं केषां सुखमावहामीति तथा च विदधे। एवमेव सर्वनिकायेषु प्रत्येवेक्षे। सर्वपाषण्डा अपि मे पूजिता विविधया पूजया। यत्त्विदमात्मना प्रत्युपगमनं तन्मे मुख्यमतम्। षड्विंशतिवर्षाभिषिक्तेन मयेयं धर्मलिपिर्लेखिता॥

हिन्दी अनुवाद

देवाताओं के प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा कि —

राज्याभिषेक के बारह वर्ष बाद जनता के हित [ एवं ] सुख के लिए धर्मलिपि लिखवायी गयी

[ जिससे ] वह [ लोक, मनुष्य ] उसका ( धर्मलिपि का ) पालन ( अप्रहरण ) कर उस-उस ( विविध तरह की ) धर्मवृद्धि को प्राप्त हो।

‘इस तरह लोकहित [ एवं ] सुख ( होगा )’, [ ऐसा विचारकर मैं ] जिस तरह सम्बन्धियों पर ध्यान देता हूँ, उसी तरह समीप के लोगों पर [ और ] उसी तरह दूर के लोगों पर [ भी ध्यान देता हूँ ], जिससे [ मैं ] उनको सुख पहुँचाऊँ एवं मैं वैसा ही करता हूँ।

इसी तरह ( मैं ) सब निकायों ( स्वायत्त-शासनप्राप्त स्थानीय संस्थाओं ) पर ध्यान रखता हूँ।

सभी पाषण्ड ( पन्थ ) भी मेरे द्वारा विविध पूजाओं से पूजित हुए हैं।

परन्तु [ पन्थों के यहाँ ] आत्म-प्रत्युपगमन अर्थात् स्वयं को जाना मेरे द्वारा मुख्य [ कर्त्तव्य ] माना गया है।

छब्बीस वर्षों से अभिषिक्त मेरे द्वारा यह धर्मलिपि लिखवायी गयी है।

टिप्पणी

छठवाँ स्तम्भलेख अशोक के धर्मलिपि लिखवाने के प्रयोजन को स्पष्ट करता है। साथ ही इसमें राजा और प्रजा के सम्बन्ध को अशोक ने इनपे दृष्टिकोण से परिचित कराया है। यहाँ एक प्रमुख बात यह है कि इस स्तम्भलेख से हमें ज्ञात होता है कि अशोक ने अभिलेख लिखवाने की प्रक्रिया को अपने अभिषेक के बारह वर्ष अभिषिक्त रहते हुए ( अर्थात्  १३वें वर्ष से ) प्रारम्भ करवाया था।

पहला स्तम्भलेख

दूसरा स्तम्भलेख

तीसरा स्तम्भलेख

चौथा स्तम्भलेख

पाँचवाँ स्तम्भलेख

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