अशोक का चौथा स्तम्भलेख

भूमिका

सप्तस्तम्भ लेखों में से चौथा स्तम्भलेख अशोक के अधिकारी रज्जुक के अधिकार और दायित्व के सम्बन्ध में बात करता है।

दिल्ली-टोपरा स्तम्भलेख छः स्तम्भलेखों में सबसे प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। यहीं एकमात्र ऐसा स्तम्भ हैं जिसपर सातों लेख एक साथ पाये जाते हैं शेष पाँच पर छः लेख ही मिलते हैं।

मध्यकालीन इतिहासकार शम्स-ए-शिराज़ के अनुसार यह स्तम्भ मूलतः टोपरा में था। इसको फिरोजशाह तुगलक ने लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवाया था। इसलिए इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाने लगा। इस स्तम्भ के कुछ अन्य नाम भी हैं; यथा – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि।

चौथा स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय

नाम – अशोक का चौथा स्तम्भलेख या चतुर्थ स्तम्भलेख ( Ashoka’s Fourth Pillar-Edict )

स्थान – दिल्ली-टोपरा संस्करण। यह मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया। तबसे इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ भी कहते है।

भाषा – प्राकृत

लिपि – ब्राह्मी

समय – मौर्यकाल, अशोक के राज्याभिषेक के २६ वर्ष बाद अर्थात् २७वें वर्ष।

विषय – रज्जुक के अधिकार और कर्त्तव्य का विवरण।

चौथा स्तम्भलेख : मूल-पाठ

१ – देवानंपिये पियदसि लाज हेवं आहा [ । ] सड़वीसति-यस- ( सड़लीसतिवस- )

२ – अभिसितेन मे इयं धंम-लिपि लिखापिता [ । ] लजका ( लजूका ) से ( मे )

३ – बहूसु पान-सत-सहसेसु ( पान-सत सहेसु ) जनसि आयता [ । ] तेसं ये अभिहाले वा

४ – दंडे वा अत-पतिये मे कटे [ । ] किति लजूका अस्वथ अभीता

५ – कंमानि पवतयेवू जनस जानपदसा हित-सुखं उपदहेवू

६ – अनुगहिनेवु च [ । ] सुखीयन-दुखीयनं जानिसंति धंमयुतेन च

७ – वियोवदिसंति ( वियोवढिसंति ) जनं जानपदं ( जनपदं ) [ । ] किंति हिदतं च पालतं च

८ – आलाधयेवू ति [ । ] लजूका पि लधंति पटिचलितवे मं [ । ] पुलिसानि पि मे मं [ । ]

९ – छंदंनानि पटिचलिसंति [ । ] ते पि च कानि वियोवदिसंति ( बियोवदिसंति ) येन मं लजूका

१० – चघंति अलाधयितदे [ । ] अथा हि पजं वियताये धातिये निसिजितु

११ – अस्वथे होति वियत धाति चद्यति मे पजं सुख पलिहटवे

१२ – हेवं मम लजूका कटा जानपदस हित-सुखाये [ । ] पेन एते अभीता

१३ – अस्वथ संतं अविमना कंमानि पवतयेवू ति एतेन मे लजूकानं

१४ – अभिहाले व दंडे वा अत-पतिये कटे [ । ] इछितविये हि एसा [ । ] किंति

१५ – वियोहाल समता च सिय दंड समता चा [ । ] अब इते पि च मे आवति [ । ]

१६ – बंधन-बधानं मुनिसानं तीलित दंडानं पत वधानं तिंनि दिवसानि

१७ – मे योते दिंने [ । ] नातिका व कानि निझपयिसंति जीविताये तानं

१८ – नासंतं वा निझपयिता दानं दाहंति पालतिकं उपवासं व कछंति [ । ]

१९ – इछा हि मे हेवं निलुधसि पि कालसि पालतं आलाधयेवू ति [ । ] जनस च

२० – बढति विविधे धंम चलने संयमे दान सविभागे ति [ ॥ ]

संस्कृत छाया

देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवम् आह। षड्विंशतिवर्षाभिषिक्तेन मया इयं धर्मलिपि लेखिता। रज्जुकाः मे बहुषु प्राणशतसहस्रेषु जनेषु आयताः। तेषां यः अभिहारः वा दण्डः वा आत्मप्रत्ययः मयाकृतः किमितिरज्जुकाः आश्वस्ताः अभीताः कर्माणि प्रवर्तयेयुः जनस्य जानपदस्य हितसुखं उपदध्युः अनुगह्णीयु: च सुखीयनं दुखीयनं ज्ञास्यन्ति धर्मषुतेन च व्यपदेक्ष्यन्ति जनं जानपदं किमिति — इहत्यं पारत्र्यं च आराधयेयुः इति। रज्जुकाः अपि च चेष्टन्ते परिचरितुं माम्। पुरुषा अपि मे छन्दनानि परिचरिष्यन्ति। ते अपि च कान् व्यपदेक्ष्यन्ति येन मां रज्जुकाः चेष्टन्ते आराधयितुम्। यथा हि प्रजां व्यक्तायै धात्र्यै निसज्य आश्वस्तः भवति — व्यक्ता धात्री चेष्टन्ते मे प्रजायैः सुखं परिदातुम् इति एवं मम रज्जुकाः कृताः जानपदस्य हित सुखाय येन एते अभीताः आश्वस्ताः सन्तः अविमनसः कर्माणि प्रवर्तयेयुः इति। एतेन वा रज्जुकानाम् अभिहारः वा दण्डःवा आत्मप्रत्ययः कृतः। इच्छितव्या हि एषा किमिति-व्यवहार समता व स्यात् दण्डसमता च। यावत् इतः अपि च मे आज्ञाप्ति बन्धन-बद्धानां मनुष्याणां निर्णीत-दण्डानां प्रतिविधानं श्रीणि दिवसानि मया यौतकं दत्तम्। ज्ञातिका वा तान् निध्यापयिष्यन्ति जीविताय तेषां नाशन्तं वा निश्यायत्तः दानं ददाति परात्रिकम् उपवासं वा करिष्यन्ति। इच्छाहि मे एवं निरुद्धे अपि काले पारत्र्यम् आराधयेयुः इति। जनस्य च वर्धेत विविधंधर्माचरणं संयमः दानस्य विभागः इति।

हिन्दी अर्थान्तर

१ – देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा — छब्बीस वर्षों से

२ – अभिषिक्त होने पर मेरे द्वारा यह धर्मनिपि लिखवाई गई है। मेरे रज्जुक

३ – कई लाख प्राणियों एवं लोगों के लिए नियुक्त हैं। उनका जो अभियोग लगाने का अधिकार अथवा

४ – दण्ड का अधिकार है उसमें उन्हें मेरे द्वारा स्वतन्त्रता दी गई है क्योंकि रज्जुक और निर्भय होकर

४ – कार्य में प्रदत्त ( संलग्न ) हों, जनता और जनपदों के हित एवं सुख पहुंचाने की व्यवस्था करें।

६ – और उनपर कृपा करें। ये सुख एवं दुःख के कारणों को जानेंगे तथा अधिकारियों द्वारा

७ – जनपद के लोगों को उपदेश करेंगे कि लोग इहलौकिक और पारलौकिक कल्याण की प्राप्ति के लिए

८ – प्रयत्न करें। रज्जुक भी मेरी सेवा के लिए चेष्टा करते हैं। मेरे राजपुरुष भी

९ – मेरी इच्छाओं का पालन करेंगे। ये कुछ लोगों को उपदेश करेंगे जिससे रज्जुक मुझे

१० – प्रसन्न करने की चेष्टा करेंगे। जिस प्रकार योग्य धाय के हाथ में सन्तान सौंपकर

११ – माता-पिता निश्चिन्त होते हैं। योग्य धाय चेष्टा करती है मेरे सन्तान को सुख प्रदान करने के लिए।

१२ – इसी प्रकार जनपद के हित सुख के लिए रज्जुक नियुक्त हुए हैं। जिनसे निर्भय

१३ – और आश्वस्त होते हुए प्रसन्नचित कर्मों में प्रवत्त हों। इसीलिए मेरे द्वारा रज्जुकों को

१४ – अभियोग लगाने एवं दण्ड देने के अधिकार में स्वायत्तता दी गयी है। इसकी इच्छा करनी चाहिए।

१५ – उनमें व्यवहार समता और दण्ड समता होनी चाहिए। यह मेरी आज्ञा है।

१६ – कारावास में बंधे तथा मृत्युदण्ड पाए हुए लोगों को मेरे द्वारा तीन दिनों की

१७ – छूट दी गई है। इसी बीच उनके स्वजन उनका जीवन बचाने के लिए राजुओं को इस पर पुनर्विचार के लिए आकृष्ट करेंगे।

१८ – अथवा उनके जीवन के अन्त तक ध्यान करते हुए दान देंगे पारलौकिक कल्याण के लिए अथवा उपवास करेंगे।

१९ – मेरी ऐसी इच्छा है कि कारावास में रहकर भी लोग परलोक का ध्यान करें कि

२० – लोगों में धर्माचरण, संयम और दान वितरण बढ़े।

टिप्पणी

चौथे स्तम्भलेख के दो अंश हैं।

  • प्रथम अंश में अशोक ने अपने राजुकों / रज्जुकों ( राज्याधिकारियों ) के अधिकार और कर्त्तव्य की चर्चा की है एवं अपनी आज्ञा को सर्वोपरि बताया है साथ ही यह कहा है कि राजुकों का जनता ( प्रजा ) के साथ वैसा ही सम्बन्ध होना चाहिये जैसा कि धाय व शिशु का होता है। अर्थात् इनका कर्त्तव्य प्रजा की सुख-सुविधा का ध्यान रखना है। इस दृष्टि से अशोक ने व्यवहार और दण्ड में समता का निर्देश दिया है।
  • दूसरे अंश में बंदियों के प्रति किये जानेवाले व्यवहार का उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार बन्धन और मृत्यु-दण्ड पाये कैदियों को अपनी सजा के प्रति पुनर्विचार की अपील करने के लिए तीन दिवस का समय देने की बात कही है। इस अवधि में कोई भी व्यक्ति उनके मामले पर विचार करने का अनुरोध कर सकता था।

दण्डित व्यक्ति के लिए अशोक की धारणा रही है कि वह दान एवं उपवास करे। इससे वह दण्ड की अवधि समाप्त हो जाने के बाद परलोक का लाभ पा सकेगा और उसके इस आचरण का जनता पर भी अच्छा प्रभाव भी पड़ेगा। इस प्रकार चौथा स्तम्भलेख सप्त स्तम्भलेखों में से अपना अलग ही महत्त्व रखता है।

निष्कर्ष

चौथा स्तम्भलेख इसलिए महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि जाति व वर्ण के विशेषाधिकार को दरकिनार करते हुए इसमें व्यवहार और दण्ड समता की बात की गयी है। साथ ही अपने अधिकारियों को अशोक निर्देशित करते हैं कि उनकी प्रजा के प्रति उनका व्यवहार कैसा होना चाहिए। एक अपराधी के लिए भी ऐसी सद्भावना वह भी राजा की ओर से एक दुर्लभ विचार है। यही सब मिलकर अशोक को संसार के महानतम् शासकों में भी अग्रणी स्थान देते हैं।

पहला स्तम्भलेख

दूसरा स्तम्भलेख

तीसरा स्तम्भलेख

सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्थल – ४ ( टोपरा ) 

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