रूपनाथ शिलालेख या रूपनाथ लघु शिलालेख

रूपनाथ शिलालेख : संक्षिप्त परिचय

नाम – रूपनाथ शिलालेख या रूपनाथ लघु शिलालेख ( Rupnath Minor Rock Edict )

स्थान – रूपनाथ, कटनी, मध्य प्रदेश

भाषा – प्राकृत

लिपि – ब्राह्मी

समय – मौर्यकाल

विषय – सम्राट अशोक का बौद्ध अनुयायी होना।

रूपनाथ शिलालेख : मूलपाठ

१ – देवानंपिये हेवं आहा [ । ] सातिरकेकानि अढतियानि व ( सानि ) य सुमि पाकास सके [ । ] नो चु बाढि पकते [ । ] सातिलेके चु छवछरे य समि हकं संघ उपेते

२ – बाढि च पकते [ । ] या इमाय कालाय जंबुदिपसि अमिसा देवा हुसु ते दानि मिसा कटा [ । ] पकमसि हि एस फले [ । ] नो व एसा महतता पापोतवे खुदकेन

३ – पि पकममिन नेना सकिये पिपुले पा स्वगे आरोधेवे [ । ] एतिय अठाय च सावने कटे खुदका च उडाला व पकमतु ति अता पि च जानतु इय पकरा व

४ – किति चिर-ठितिके सिया [ । ] इयं हि अठे वढिसिति विपुल च वढिसिति अपलधियेना दियडिंसत [ । ] इयं च अठे पवतिसु लेखापेत वालत [ । ] हध च अथि

५ – साला-ठभे सिला-ठंभसि लाखापेतवय त [ । ] एतिना च वयजनेना यावतक तुपक अहाले सवर विवसेतयाय ति [ । ] व्युठेना सावने कटे [ । ] २०० ( + ) ५० ( + ) ६ स-

६ – त विवासा त [ ॥ ]

  • मास्की शिलालेख में ‘देवानंपियस असीकस’; और गुर्जरा शिलालेख में ‘देवानंपियस पियदसिनो चसोकराजस’ अंकित है।
  • ब्रह्मगिरि, सिद्धपुर और जतिंग-रामेश्वर शिलालेख में ‘सुवर्णगिरिते अयपुतस महामातानं च वचनेन इसिलसि महामाता आरोगियं वतिवया’ अंकित है।

संस्कृत छाया

देवानां प्रियः एवम् आह। सातिरेकाणि अर्द्धततीयानि वर्षाणि प्रकाशं उपासकः। न तु वार्ड प्रक्रान्तः। सातिरेकं तु संवत्सरं यत् अस्मि अहं संघम् उपेतः वाढं द प्रकान्तः। ये अस्मै कालाय जम्बुद्वीपे अमिश्राः देवा आसन ते इदानीं मिश्राः कृताः। प्रक्रमस्य हि एतत् फलम्। न च एतत् महता प्राप्तव्यं क्षुद्रकेन अपि प्रक्रममाणेन शक्यः। विपुलः स्वर्गः आराधयितुं। एतस्मै अर्थय च श्रावणं कृतम्। क्षुद्रका व उदाराः च प्रक्रमन्ताम् इति। अन्ताः अपि न जानन्तु ‘अयं प्रक्रमः एव’ किमिति चिरस्थितिक स्यात्। अयं हि अर्थः वद्धिं वर्द्धिष्यते विपुलं च वर्द्धिष्यते। अयं च अर्थः पर्वतेषु लेखयेत वारतः। इह व अस्ति शिलास्तम्भ। शिलास्तम्भे लेखयितव्यः इति। एतेन व व्यञ्जनेन यावत् युष्माकम् आहारः सर्वत्र विवासयितव्यः इति। व्युष्टेन श्रावणं कृतम् २०० ५०६ शतानि विवासाः इति।

हिन्दी अनुवाद

१ – देवानां प्रिय ने कहा – ढाई वर्ष से कुछ अधिक व्यतीत हुए मैं प्रकाश रूप में उपासक था। किन्तु मैंने अधिक पराक्रम नहीं किया। किन्तु एक वर्ष से अधिक व्यतीत हुए जबसे मैने संघ की शरण ली है।

२ – तब से मैं अधिक पराक्रम करता हूँ। इस समय जो जम्बुद्वीप में देवता मनुष्यों से अमिश्रित ये अब मिश्रित किये गये। यह पराक्रम का ही फल है। यह केवल उच्च पद वाले व्यक्ति से प्राप्त नहीं होता।

३ – छोटे से भी पराक्रम द्वारा विपुल स्वर्ग की प्राप्ति सम्भव है। इस उद्देश्य के लिए धार्मिक कथा की व्यवस्था की गई जिससे क्षुद्र और उदार पराक्रम करें और मेरे सीमा के लोग भी जाने कि यही पराक्रम

४ – स्थायी है। यह उद्देश्य अधिकाधिक बढ़ेगा बहुत बढ़ेगा, कम से कम आधा बढ़ेगा। इसे अवसर के अनुकूल पर्वत पर उत्कीर्ण कराये और साम्राज्य में जहाँ भी

५ – शिलास्तम्भ हो वहाँ लिखवायें इस धर्म लिपि के उद्देश्य के अनुसार सर्वत्र एक अधिकारी भेजा जाय जहाँ तक अधिकार क्षेत्र हो। यह धर्मवार्ता ( श्रावण ) यात्रा के समय किया गया जब २०० ५० ६ ( २५६ )

६ – रात्रि पड़ाव यात्रा का बीत चुका था।

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