विष्णुगुप्त का दामोदरपुर ताम्रलेख (पाँचवाँ) गुप्त सम्वत् २२४ (५४३ ई० )

भूमिका

विष्णुगुप्त का दामोदरपुर ताम्रलेख अपने क्रम में सुविधा के लिये ५वें क्रमांक पर रखा गया है। यह भी अपने पूर्ववर्ती ताम्रपत्रों तरह भूमिदान और भूमि प्रशासन से सम्बन्धित जानकारी का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसको राधागोविन्द बसाक बसाक महोदय ने प्रकाशित किया है।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- विष्णुगुप्त का दामोदरपुर ताम्रलेख अभिलेख – ५  ( Damodarpur Copper Plate Inscription -5 Of Vishnugupta )

स्थान :- दामोदरपुर, उत्तरी बाँग्लादेश का रंगपुर जनपद।

भाषा :- प्राकृत से प्रभावित संस्कृत

लिपि :- परवर्ती ब्राह्मी

समय :- गुप्त सम्वत् २२४ ( ५४३ ई० )

विषय :- भूमि क्रय करके से सम्बन्धित, विषय की प्रशासनिक जानकारी का स्रोत।

मूलपाठ

एक ओर

१. स[म्व] २०० (+) २० (+) ४ भाद्र-दि ५ परमदैवत-परमभट्टारक-म[हा] राजाधिराज- श्री विष्णु]-

२. गुप्ते पृथिवीपतौ तत्पाद-परिगृहीते पुण्ड्रवर्द्धन-भुक्तावुपरि[क-महाराज]स्य[महा]-

३. राजपुत्र- देवभट्टारकस्य हस्त्यश्च जन-भोगेनानुवहमा [न] के को [वि]र्ष-विष[ये]च त-

४. न्नियुक्तकेह-विषयपति-स्वयम्भुदेवे अधिष्ठानाधिकरणं आर्य्य[न]गर [श्रेष्ठि-रिभु] पाल

५. सार्थवाह- स्थाणुदत्त प्रथमकुलिक-मतिदत्त प्रथमकायस्थ-स्कन्दपाल पुरोगे [स]व्य][वह]रति

६. आयोध्यक-कुलपुत्रक-अमृतदेवेन विज्ञापितमिह विषयेसमुदयबाह्यप्रहत-खिल-[क्षे]त्रा-

७. णां त्रिदीनारिक्य-कुल्यवाप-विक्रयो(ऽ)नुवृत्तः[I] तदर्हथ मत्तो दीनारानुपसंगृह्य मन्मातुः [पु]ण्या-

८. भिवृद्धये अत्रारण्ये भगवतः श्वेतवराहस्वामिनो देवकुले खण्ड-[स्]फुट-प्रति-[सं.] स्का [र]-[क]-

९. रणाय-बलिचरुसत्रप्रवर्त्तन-गव्यधूपष्ःप्रापण-मधुपर्कदीपाद्युप[यो]गा-[य] च

१०. अप्रदा- धर्म्मेण ताम्रपट्टीकृत्य क्षेत्र स्तोकन्दातुमिति [I] यतः प्रथमपुस्तपाल नर[न]न्दि-

११. गोपदत्त-भटनन्दिनामवधारणया युक्ततया ध[र्म्माधि]कार-[बु]द्धया विज्ञापितं [नो] कार्यो

१२. विषय-पतिनां कश्चिद्विरोधः केवलं श्री परमभट्टारकपादेन धर्म्म[फल-ष]

१३. ड्मा वा [गातिः]

दूसरी ओर

१४. इत्यानेनावधारण क्रमेण एतस्मादमृतदेवात्पञ्चदश-दीनारनुपसंगउह्य एतन्मातुः

१५. अनुग्रहेण स्वच्छन्दपादके(ऽ)[र्द्ध)टी-प्रावेश्य-लवङ्गसिकायाञ्च वास्तुभिस्सह कुल्यवाप-द्वयं

१६. साटुवनाश्रमके(ऽ)पि वास्तुना सह कुल्यवाप एकः परस्पतिकायां पञ्च-कुल्यवापकस्योत्त[रे]ण

१७. जम्बून[द्या]: पूर्व्येण कुल्यवाप एकः पूरणवृन्दिकहरौ-पाटक पूर्वेण कुल्यवाप एकः इत्येवं खिल क्षेत्र-

१८. स्य वास्तुना सह पञ्च कुल्यवापाः अप्रदा-धर्म्मेण भग[व]ते श्वेतवराहस्वामिने शश्वत्कालभोग्या दत्ताः [।]

१९. तदुत्तरकालं संव्यवहारिभिः देवभक्तयानुमन्तव्याः [।] अपि च भूमि-[दा]न सम्बद्धाः श्लोका भवन्ति [I]

२०. स्व-दत्तां पर-दत्ताम्वा यो हरेत वसुन्धरां [।]

स विष्ठायां क्रिमिर्भुत्वा पितृभिस्सह पच्यते [॥]

बहुभिर्व्वसुधा दत्ता

२१. राजभिस्सगरादिभिः [।]

यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं [॥]

षष्टिं वर्ष्ष-सहस्राणि स्वर्गे मोदति भूमिद [।]

२२. आक्षेप्ता चानुमन्ता च तान्येव नरके वसेदिति [॥]

हिन्दी अनुवाद

संवत् २२४ भाद्र (मास), दिवस ५ पृथ्वीपति महाराजाधिराज श्री [विष्णु] गुप्त के पाद-परिगृहीत, पुण्डवर्धन भुक्ति के उपरिक, महाराज पुत्र देव भट्टारक के हस्ति, अश्व, जन से परिपूरित कोटिवर्ष-विषय में नियुक्त विषयपति, स्वयंभूदेव का अधिकरण। नगरश्रेष्ठि रिभुपाल, सार्थवाह स्थाणुदत्त, प्रथम-कुलिक मतिदत्त, प्रथम- कायस्थ स्कन्दपाल के सम्मुख अयोध्या के कुल पुत्र (निवासी) अमृतदेव ने निवेदन प्रस्तुत किया है कि इस विषय के अन्तर्गत जो समुदयबाह्य अप्रहत खिल-क्षेत्र है, उसे तीन दीनार कुल्यवाप की दर से क्रय करने की अनुमति दी जाय ताकि वे उसे क्रय करके अपनी माता की पुण्य वृद्धि के लिए इस अरण्य (जंगल) में स्थित भगवान् श्वेतवराहस्वामी के मन्दिर को दे सकें [और उस भूमि की आय] देवकुल (मन्दिर) के टूटने-फूटने पर मरम्मत, चरु, सत्र के चलाने और पूजा के निमित्त गव्य, धूप, प्रापण, मधुपर्क, दीप आदि के लिए उपयोग किया जाय। इस भूमि को स्थानान्तरीयण न करने के नियम के अन्तर्गत ताम्र-पट्ट पर निबन्धित किया जाय प्रथम पुस्तपाल नरनन्दिन, गोपदत्त, भट्टनन्दिन से समुचित जानकारी प्राप्त कर धर्मानुकूल इसे विज्ञापित करें। यदि विषयपति को इसमें कुछ आपत्ति हो, तो इसका निर्णय परमभट्टारक (राजा) करें।

जाँच हो जाने के बाद अमृतदेव से पन्द्रह दीनार लेकर स्वछन्दपाटक के अन्तर्गत अर्धटी में सम्मिलित (प्रावेश्य) लवंगसिका में निवास-भूमि (वास्तु) सहित दो कुल्यवाप, साट्वनाश्रम में निवास भूमि सहित (वास्तु) एक कुल्यवाप, परस्पतिकाय में पंच-कुल्यवाप, उसके उत्तर जम्बु नदी के पूर्व एक कुल्यवाप; पूरणवृन्दिकहरी पाटक के पूर्व एक कुल्यवाप, कुल पाँच कुल्यवाप वास्तु सहित खिल क्षेत्र अप्रदा-धर्म के अनुसार भगवान् श्वेतवराहस्वामी के शाश्वतकालीन भोग के लिए दिया गया। आगे होनेवाले सम्व्यवहारियों को देव-भक्ति के साथ इसका अनुमोदन करना चाहिये।

भूमि-दान के सम्बन्ध में श्लोक भी है —

जो स्व-प्रदत्त अथवा पर-दत्त भूमि का हरण करता है, वह पितरों सहित कृमि बनकर विष्ठा में निवास करता है।

सगर आदि बहुत से राजाओं ने दान किया है। जिसने भी जिस रूप में दान किया, उसे उसी रूप में फल प्राप्त होगा। भूमि-दान करनेवाला साठ हजार वर्ष तक स्वर्ग का भोग करता है। जो उसमें आक्षेप करता है और जो उस आक्षेप से सहमति प्रकट करता है वह उसी अवधि तक नरक में वास करता है।

दामोदरपुर ताम्रपत्र प्रथम

दामोदरपुर ताम्रलेख द्वितीय

दामोदरपुर ताम्रपत्र तृतीय

दामोदरपुर ताम्रपत्र चतुर्थ

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