अशोक का बारहवाँ बृहद् शिलालेख

भूमिका

बारहवाँ बृहद् शिलालेख ( Twelfth Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से द्वादश शिला प्रज्ञापन है। मौर्य सम्राट अशोक द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) संस्थापित करवाये गये थे। प्रस्तुत मूलपाठ ‘गिरिनार संस्करण’ का मूलपाठ है। १४ बृहद् प्रज्ञापनों में से गिरनार संस्करण सबसे सुरक्षित अवस्था में पाया गया है। इसलिए चतुर्दश शिला प्रज्ञापनों में से बहुधा इसी संस्करण का उपयोग किया जाता है। तथापि अन्यान्य संस्करणों को मिलाकर पढ़ा जाता रहा है।

बारहवाँ बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय

नाम – अशोक का बारहवाँ बृहद् शिलालेख या द्वादश बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Twelfth Major Rock Edict )

स्थान – गिरिनार संस्करण, गुजरात भारत। शहबाजगढी, पेशावर; पाकिस्तान।

भाषा – प्राकृत

लिपि – ब्राह्मी ( गिरिनार संस्करण )। खरोष्ठी ( शहबाजगढी संस्करण )।

समय – मौर्यकाल

विषय – धर्मिक सहिष्णुता की नीति, वाक् संयम, कुछ नये अधिकारियों की नियुक्ति।

बारहवाँ बृहद् शिलालेख : मूलपाठ ( गिरिनार संस्करण )

१ – देवानं पिये पियदसि राजा सव पासंडानि च पवजितानि च घरस्तानि च पूजयति दानेन च विवधाय च पूजाय पुजयति ने [ । ]

२ – न तु तथा दानं व पूजा व देवानं पियो मंञते यथा किति सारवढी अस सव पासंजानं [ । ] सारवढी तु बहुविधा [ । ]

३ – तसतस तु इदं मूल य वचिगुती किंति आत्पपांसंडपूजा व परपासंडगरहा व नो भवे अपकरणम्हि लुहुका व अस

४ – तम्हि प्रकरणे [ । ] पूजेतया तु एव परपासंडा तेन तेन प्रकरण [ । ] एवं करुं आत्पपासण्डं च वढयति परपासंडस च, उपकरोति [ । ]

५ – तदंञथा करोतो आपत्पासंडं च छणति परपासाण्डस, च पि अपकरोति [ । ] यो हि कोचटि आत्पपासण्डं पूजयति परसासाण्डं व गरहति

६ – सवं आत्पपासण्डभतिया किंति आत्पपासण्डं दिपयेम इति सो च पुन तथ करातो आत्पपासण्डं बाढ़तरं उपहनाति [ । ] त समवायों एव साधु

७ – किंति अञमञंस धंमं स्रुणारु च सुसंसेर च [ । ] एवं हि देवानं पियस इछा किंति सब पासण्डा बहुस्रुता च असु कलाणागमा च असु [ । ]

८ – ये च तत्र प्रसंना तेहि वतय्वं [ । ] देवानं पियो नो तथा दानं व पूजां व मंञते यथा किंति सारवढी अस सर्वपासडानं [ । ] बहुका च एताय

९ – अथा व्यपता धंममहामाता च इथीझख-महामाता च वचभूमीका च अञे च निकाया [ । ] अयं च एतस फल य आत्पपासण्डवढ़ी च होति धंमस च दीपाना [ । ]

बारहवाँ बृहद् शिलालेख : हिन्दी में अनुवाद ( गिरिनार संस्करण )

१ – देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा सब पाषण्डों ( पंथवालों ) को, [ चाहे वे ] प्रव्रजित [ हों, चाहे ] गृहस्थ, दान एवं विविध पूजा द्वारा पूजता है।

२ – परन्तु दान वा पूजा को देवों का प्रिय वैसा नहीं मानता जैसा यह कि सब पाषंडो ( पन्थानुवायी ) की सारवृद्धि हो। सारवृद्धि तो बहु प्रकार के हैं।

३ – परन्तु उसका मूल वचोगुप्ति ( वाक् संयम ) है। यह किस प्रकार? [ इस प्रकार कि ] अपने पाषण्ड ( पन्थ ) की पूजा या दूसरे पाषण्डों ( पन्थों ) की गर्हा ( निन्दा ) न हो एवं बिना प्रसंग के [ उसकी ] लघुता ( हलकाई ) न हो।

४ – उस-उस अवसर पर ( विशेष-विशेष अवसरों पर ) पर-पाषण्ड ( दूसरा पन्थ ) भी उस-उस ढंग से ( भिन्न-भिन्न ढंगों से ) पूजनीय है। ऐसा करता हुआ [ मनुष्य ] अपने पाषण्ड ( पन्थ ) को बढ़ाता है एवं दूसरे पाषण्ड ( पन्थ ) का उपकार करता है।

५ – तद्विपीत करता हुआ [ मनुष्य ] अपने पाषण्ड ( पन्थ ) को क्षीण करता है। और दूसरे पाषण्ड ( पन्थ ) का अपकार करता है। क्योंकि जो कोई अपने पाषण्ड ( पन्थ ) को पूजता है वा दूसरे पाषण्ड ( पन्थ ) की गर्हा ( निन्दा ) करता है,

६ – वह अपने पाषण्ड ( पन्थ ) के प्रति भक्ति से अथवा अपने पाषण्ड ( पन्थ ) को दीप्त ( प्रकाशित ) करने के लिए ही। और वह फिर वैसा करता हुआ अपने पाषण्ड ( पन्थ ) को अधिक हानि पहुँचाता है। इसलिए समवाय ( मेलजोल ) ही अच्छा है।

७ – यह कैसे? ऐसे कि [ लोग ] एक-दूसरे के धर्म को सुनें और शुश्रूषा ( सेवा ) करें। क्योंकि ऐसी ही देवों के प्रिय की इच्छा है। क्या? कि सब पाषण्ड ( पंथवाले ) बहुश्रुत एवं कल्याणागम ( कल्याणकारक ज्ञानवाले ) हों।

८ – और जो वहाँ-वहाँ किसी पंथ में स्थिर हों, वे कहे जायँ ‘देवों का प्रिय दान वा पूजा को वैसा नहीं मानता, जैसा फिर सब पाषण्डों ( पंथों ) की सारवृद्धि को।’

९ – इस अर्थ के लिए बहुत धर्ममहामात्र, स्त्री-अध्यक्ष-महामात्र, व्रजभूमिक एवं अन्य निकाय ( स्वायत्तशासन-प्राप्त स्थानीय संस्थाएँ ) नियुक्त हैं। इसका फल यह है कि पाषण्ड ( पंथ ) की वृद्धि होती है एवं धर्म की दीप्ति [ होती है ]।

मूलपाठ ( शाहबाजगढ़ी संस्करण )

१ – देवानंप्रियो प्रियद्रशि रय सव्र-प्रषंडनि प्रवजितनि ग्रहथनि च पुजेति दनेन विविधये च पुजये ( । ) नो चु तथ दन व पुज व

२ – देवनंप्रियो मञति यथ किति सळ-वढि सिय सव्र-प्रषंडनं ( । ) सळ-वढि तु बहुविध ( । ) तस तु इयो मुळ यं वचोगुति ( । )

३ – किति अत-प्रषंड-पुंज व पर-पषंड-गरहन व नो सिय अपकरणासि लहुक व सिय तसि तसि प्रकरणे ( । ) पुजेतविय व चु पर-प्रषं-

४ – इ तेन तेन अमरेन ( । ) एवं करतं अत-प्रषंडं वढेति पर-प्रषडंस पि च उपकरोति ( । ) तद अञथ करमिनो अत-प्रषंड

५ – क्षणति पर-प्रषडस च अपकरोति ( । ) यो हि कचि अत-प्रषडं पुजेति पर-प्र-षडं गरहति सव्रे अत-प्रषड-भतिय व किति

६ – अत-प्रषंडं दिपियमि ति सो च पुन तथ करंतं सो च पुन तथ करतं बढतरं उपहंति अत-प्रषडं ( । ) सो सयमो वो सधु ( । ) किति अञमञस ध्रमो

७ – श्रुणेयु च सुश्रुषेयु च ति ( । ) एवं हि देवनंप्रियस इछ किति सव्र-प्रषंड बहु-श्रुत च कलणगम च सियसु ( । ) ये च तत्र तत्र

८ – प्रसन तेषं वतवो देवनंप्रियो न तथ दनं व मञति यथ कितिसल-वढि सियति सव्र-प्रषडनं ( । ) बहुक च एतये अठये

९ – वपट धम-महमत्र इस्त्रिधियक्ष-महमत्र ब्रजभूमिक अञे च निकये ( । ) इमं च एतिस फलं यं अत-पषड-वढि भोति

१० – ध्रमस च दिपन ( ॥ )

हिन्दी में भावानुवाद

देवानंप्रिय प्रियदर्शी राजा सब सम्प्रदाय वालों का, चाहे वे त्यागी हों अथवा गृहस्थ, सबका विभिन्न दान एवं पूजा से सत्कार करता है। किन्तु देवताओं का प्रिय इस दान एवं पूजा को इतना अच्छा नहीं समझता जितना इस बात को कि सब धार्मिक पन्थवालों में ‘सारतत्त्व’ बढ़े।

सारतत्त्व वृद्धि कई तरह की है, इसका मूल वाणी संयम ( वाक् संयम ) है — कैसे? लोग समय-असमय अपने सम्प्रदायों का आदर और दूसरे के सम्प्रदाय का अनादर न करें। इसका विपरीत मनुष्यों को अवसर निकाल कर दूसरे सम्रदाय का भी आदर करना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य अपने सम्प्रदाय की उन्नति और दूसरे के सम्प्रदाय का उपकार करता है। इसके विपरीत करता हुआ वह दूसरे सम्प्रदाय का अपकार करता है और अपने सम्प्रदाय को क्षति पहुँचाता है।

जो कोई अपने सम्प्रदाय से प्रेमवश, अपने सम्प्रदाय का गौरव बढ़ाने के विचार से, अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा एवं दूसरे सम्प्रदाय की अपनिन्दा करता है वह वास्तव में स्वयं के ही पन्थ को हानि पहुँचाता है। इसीलिए समवाय शुभ है। दूसरों के धर्म को सुनना एवं सुनाना चाहिए।

देवताओं का प्रिय चाहता है कि सब धार्मिक सम्प्रदाय ज्ञान से परिपूर्ण हों और कल्याणकारी सिद्धान्त वाले हों, तथा जो लोग अपने धर्म में अनुरक्त हों उनको बता दिया जाये कि ‘देवताओं का प्रिय, दान अथवा सम्मान को ऐसा नहीं मानता जैसा सब सम्प्रदायों के सारतत्त्व की वृद्धि और एक-दूसरे के धर्म के ज्ञान को।’ इस उद्देश्य के लिए धर्म-महामात्रों, स्त्र्याध्यक्षों, व्रजभूमिकों और अन्य अधिकारी वर्ग नियुक्त किये गये हैं। इसका फल यह है कि अपने सम्प्रदाय की उन्नति एवं धर्म का प्रकाश होता है।

संस्कृत रूपान्तरण ( शाहबाजगढ़ी संस्करण )

देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा सर्वान् पाषण्डान् प्रव्रजितानं गृहस्थांश्च पूजयति दानेन विविधया च पूजाय। न तु तथा दानं वा पूजां वा देवानां प्रियो मन्यते यथा किमिति। सारवृद्धिः स्यादिसि सर्वपाषण्डानाम्। सारवर्द्धिर्नां बहुविधा। सत्य त्विदं मूल यद् वचोगुप्तिः किमित? तथा आत्मपाषण्डे पूजा वा परपाषण्डगर्हा च न स्यात् अप्रकरणे लघुता वा स्यात्। तस्मिस्तस्मिन् प्रकरणे पूजयितव्यास्तु परपाषण्डास्तेन तेना कारेण। एवं कुर्वन् आत्मपाषण्डान् बाढं बर्धयति परपाषण्डानपि वोपकरोति। तदन्था कुर्वन आत्मपाषण्डं च छिनति परपाषण्डानपि वापकरोति। यो हि कश्चिदात्मपाषण्डान् पूजयति परपाषण्डान् वा गर्हयति सर्व आत्मपाषण्डभक्तया वा किमिति? आत्मपाषण्डादीपयेम। स च पुनस्तथा कुर्वन वाढतरमुपहन्त्यात्मपाषण्डे। समवाय एवं साधुः, किमिति अन्यमनसो धर्म शृणुयुश्चसुश्रूषेरंश्चेति। एवं हि देवानां प्रियस्येच्छा, किमिति? सर्व पाषण्डा बहुश्रुताः कल्याणागमाश्च भवेयुरिति। ये च तत्र तत्र प्रसन्नास्तैर्वक्तव्यम्। देवानां प्रियो न तथा दानं वा मन्यते, यथा किमिति सारवृद्धिः स्यात् सर्वपाषण्डानामिति। बहुकाश्च एतस्मै अथापि वापता धर्ममहामात्राः स्त्र्यध्यक्षमहामात्रा ब्रात्यभूमिका अन्ये चा निकायाः। इदं चैतेषां पदात्मपाषण्डवृद्धिश्च भवति धर्मस्य च दीपाना।

प्रथम बृहद् शिलालेख

द्वितीय बृहद् शिलालेख

तृतीय बृहद् शिलालेख

चतुर्थ बृहद् शिलालेख

पाँचवाँ बृहद् शिलालेख

छठा बृहद् शिलालेख

सातवाँ बृहद् शिलालेख

आठवाँ बृहद् शिलालेख

नवाँ बृहद् शिलालेख

दसवाँ बृहद् शिलालेख

ग्यारहवाँ बृहद् शिलालेख

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