अशोक का नवाँ बृहद् शिलालेख

भूमिका

नवाँ बृहद् शिलालेख ( Ninth Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से नवम् शिला प्रज्ञापन है।  प्रियदर्शी राजा अशोक द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) स्थापित करवाये गये। यहाँ पर ‘गिरिनार संस्करण’ का मूलपाठ उद्धृत किया गया है। गिरनार संस्करण सबसे सुरक्षित अवस्था में पाया गया है। इसलिए चतुर्दश शिला प्रज्ञापनों में प्रायः इस संस्करण का उपयोग किया जाता रहा है। हालाँकि अन्य संस्करणों को मिलाकर पढ़ा जाता रहा है।

नवाँ बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय

नाम – अशोक का नवाँ बृहद् शिलालेख या नवम् बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Ninth Major Rock Edict )

स्थान – गिरिनार, गुजरात

भाषा – प्राकृत

लिपि – ब्राह्मी

समय – मौर्यकाल

विषय – धर्ममंगल के महत्त्व का विवरण

नवाँ बृहद् शिलालेख : मूलपाठ

१ – देवानंपियो पियो प्रियदसि राजा एव आह [ । ] अस्ति जनो उचावचं मंगलं करोते आवाधेसु वा

२ – आवाहवीवाहेसु वा पुत्रवाभेसु वा प्रवासंगिहवा एतम्हि च जनों उचावचं मंगलं करौते [ । ]

३ – एत तु महिडायो बहुकं च बहुविधं च छुदं च निरथं च मंगलं करोति [ । ] त कतव्यमेवतु मंगल [ । ] अपफलं तु खो

४ – एतरिंस मंगलं [ । ] अयं तु महाफले मंगले य धंममंगले [ । ] ततेत दासमतकम्हि सम्यप्रतिपती गुरूनं अपचिति साधु

५ – पाणेसु सयमो साधु बम्हणसमणानं साधु दानं एतंच अञ च एतारिसं धममंगल नाम [ । ] तवतत्यं पिता व

६ – पुतेन व मात्रा वा स्वाभिकेन वा इदं साधु इदं कतव्य मंगलं आवातस अथस निष्टानाय [ । ]

७ – साधु दन इति [ । ] न तु एतरिसं अस्तादानं व अनगहो व यारिसं धंमदान व धमनुगहोव [ । ] त तु खो मित्रनव सुहृदयेन वा

८ – अतिकेन व सहायन व ओवादितत्यं तम्हि पकरणें इदं कचं इदं साधु इति इमिना सक

९ – स्वगं अराधेतु इति [ । ] कि च इमिना कतव्यतरं यथा स्वगारधी [ । ]

संस्कृत-अनुवाद

देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवं आह। अस्ति जनः उच्चवचं मङ्गलं करोति। आवाधे वा आवाधे विवाहे वा पुत्रलाभे वा प्रवासे वा एतस्मिन् च अन्यस्मिन् च जनं उच्चावचं मङ्गलं करोति। अत्र तु महिलाः बहुझं च बहुविधं च क्षुद्रकं च निरर्थकं च मङ्गलम् कुर्वन्ति। तत् कर्तव्यं तु मङ्गलम्। अल्पफलं तु खलु एतादशं मङ्गलम्। इदं तु महाफलं मङ्गलम् यत्र धर्ममङ्गलम्। तत् इदं दास भतकेषु सम्प्रतिपत्तिः गुरुणां अपचितिः साधु प्राणेसु संयमः साधु ब्राह्मणश्रमणेभ्यः साधु दानम्। एतत् च अन्यत च एतादशम् धर्ममङ्गलम् नाम। तत् वक्तव्यम् पित्रा वा पुत्रेण वा भ्राता वा स्वामिकेन वा इदं साधु वा इदं कर्तव्यम् मङ्गलम् यावत् तस्य अर्थस्य निष्ठानाय। अस्ति च अपि उक्तं साधुदानम् इति। न तु एतादशं अस्ति दानं वा अनुग्रहो वा यादशं घर्मदानं वा धर्मानुग्रहो वा। तत् तु खलु मित्रेण व सुहृदयेन वा स्वर्गम् आराधयितुम् इति। किञ्चि अनेन कर्तव्यतरम् यथा स्वर्गालब्धिः।

हिन्दी अनुवाद

१ – देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा। लोग बाधाओं

२ – आवह-विवाह, पुत्रोत्पन्न होने और प्रवास के समय छोटे-बड़े मंगल कार्य करते हैं। इसी प्रकार के अन्य अवसरों पर भी लोग छोटे-बड़े मंगल काम करते हैं।

३ – ऐसे अवसरों पर महिलाएँ बहुत प्रकार के छोटे और निष्प्रयोजन मंगल काम करती हैं। मंगल काम करना तो कर्त्तव्य है। परन्तु ये

४ – मंगल कर्म अल्प फलदाता हैं। धर्ममंगल ही महाफल दाता है। वे हैं — दास और भृत्यों के प्रति शिष्टाचार, श्रेष्ठ जनों का आदर साधु है।

५ – जीवों के प्रति संयम साधु है। ब्राह्मण-श्रमणों को दान देना साधु है। ये और इस तरह के दूसरे धर्म मंगल हैं। इसलिए

६ – पिता, पुत्र, भाई और स्वामी द्वारा कहना चाहिए कि यह साधु है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह मंगल कर्त्तव्य है। ऐसा कहा गया है —

७ – दान देना साधु है। ऐसा कोई दान एवं अनुग्रह नहीं है जैसा धर्मदान तथा धर्मानुग्रह। इसलिए मित्र, सुहृद्

८ – जाति, सहायक सभी को उपदेश करना चाहिए कि इन अवसरों पर यह कर्त्तव्य है, यह साधु है। इससे

९ – स्वर्ग की प्राप्ति सम्भव है। स्वर्ग की प्राप्ति से बढ़कर अन्य क्या अधिक करने योग्य है।

हिन्दी में धाराप्रवाह रूपान्तरण

देवताओं का प्रि प्रियदर्शी राजा इस तरह कहता है — रोगों, विवाहों एवं पुत्रों के जन्म और यात्रा पर मनुष्य अनेक मंगल आचरण करते हैं। इन व ऐसे अवसरों पर लोग अनेक मंगल कृत्य करते हैं। महिलाएँ अनेक प्रकार के क्षुद्र, व निरर्थक काम करती हैं। मंगलाचरण अवश्य करना चाहिए। परन्तु ऐसे मंगल कृत्यों का कोई फल नहीं होता।

किन्तु धर्म मंगल का फल बहुत होता है। ये ( मंगल कार्य ) हैं — दासों एवं सेवकों से शिष्टाचरण और गुरुजनों का आदर श्रेष्ठ है; जीवों के साथ आत्मसंयम का व्यवहार अच्छा ( साधु ) है। ये और ऐसे दूसरे कृत्य धम्ममंगल ( धर्ममंगल ) हैं। इसलिए पिता, पुत्र, भाई, स्वामी से कहना चाहिए — यह श्रेष्ठ कर्म है।

धर्मदान सदृश कोई दान नहीं है। अस्तु मित्र, सहानुभूति रखने वाले सम्बन्धी अथवा साथी को विविध बातों में परस्पर उपदेश करना चाहिए — यह धर्म है; श्रेष्ठ है और इससे स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है। और इसके द्वारा स्वर्ग-प्राप्ति की अपेक्षा अन्य क्या अधिक मिल सकता है।

प्रथम बृहद् शिलालेख

द्वितीय बृहद् शिलालेख

तृतीय बृहद् शिलालेख

चतुर्थ बृहद् शिलालेख

पाँचवाँ बृहद् शिलालेख

छठा बृहद् शिलालेख

सातवाँ बृहद् शिलालेख

आठवाँ बृहद् शिलालेख

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