अशोक का दसवाँ बृहद् शिलालेख

भूमिका

दसवाँ बृहद् शिलालेख ( Tenth Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से दशम् शिला प्रज्ञापन है। अशोक महान द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) स्थापित करवाये गये थे। यहाँ ‘गिरिनार संस्करण’ का मूलपाठ उद्धृत किया गया है। गिरनार संस्करण सुरक्षित अवस्था में पाया जाता है। इसलिए चतुर्दश शिला प्रज्ञापनों में सामान्यतः इस संस्करण का उपयोग किया जाता रहा है। हालाँकि अन्यान्य संस्करणों को मिलाकर पढ़ा जाता रहा है।

दसवाँ बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय

नाम – अशोक का दसवाँ बृहद् शिलालेख या दशम् बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Tenth Major Rock Edict )

स्थान – गिरिनार, गुजरात

भाषा – प्राकृत

लिपि – ब्राह्मी

समय – मौर्यकाल

विषय – सम्राट अशोक द्वारा धर्माचरण और धार्मिक विधियों के लिए सबके प्रेरित करने का उल्लेख

दसवाँ बृहद् शिलालेख : मूलपाठ

१ – देवानां प्रियो प्रियदसि राजा यसो व कीति व न महाथावहा मंञते अञत तदात्पनो दिघाय च मे जनो

२ – धमंसुस्रु सा सुस्रु सतां धंमवुतं च अनुविधियतां [ । ] एतकाय देवानं पियो पियदसि राजा यसो व किति व इछति [ । ]

३ – यं तु किंचि परिकामते देवानं प्रियदसि राजा त सवं पारत्रिकाय किंति सकले अपपरिस्रवे अस [ । ] एस तु परिसंवाद य अपुंञं [ । ]

४ – दुकरं तु खो एतं छुदकेन व जनेन उसटेन व अञत्र अगेन पराक्रमेन सवं परिचजित्पा [ । ] एत तु खो उसटेन दुकरं [ । ]

संस्कृत रूपान्तरण

देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा यशः वा कीर्ति वा न महार्थवतां मन्यते-अन्यत्र तदात्मनः दीर्घाय च मे जनः धर्मशुश्रूषा धर्मोक्त च अनुविधीयताम्। एतस्मै देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा यशः वा कीर्ति वा इच्छति यत् च किञ्चित् प्रक्रमते देवानां प्रियदर्शी राजा तत् सर्व पारत्रिकाय किमित? सकलः अल्पपरिस्रव स्यात्। एषः तु परिस्रवः यत् अपुण्यम्। दुष्करम् तु खलु एतत् क्षुद्रकेण वा जनेन उच्छितेन वा अन्यत्र अग्रयात् पराक्रमात् सर्व परित्यज्य। एतत् तु खलु उच्छितेन दुष्करम्।

हिन्दी अनुवाद

१ – देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा यश वा कीर्ति को अन्यत्र ( परलोक में ) महार्थावह ( बहुत लाभ उपजाने वाला ) नहीं मानता। [ वह ] जो भी यश वा कीर्ति चाहता है। [ वह इसलिए कि ] वर्तमान में और भविष्य में ( दीर्घ [ काल ] के लिए ) मेरे जन ( मेरी प्रजा )

२ – मेरे धर्म की शुश्रूषा करें एवं मेरे धर्मव्रत का अनुविधान ( आचरण ) करें। इसलिए देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा यश वा कीर्ति की अभिलाषा करता है।

३ – जो कुछ भी देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा पराक्रम करता है, वह सब परलोक के लिए हो। क्यों? इसलिए कि सभी निष्पाप हों।

४ – पुण्य न करना ( अपुण्य ) ही दोष ( विघ्न ) है। यह ( अपुण्य से रहित होना ) बिना अगले उत्कृष्ट पराक्रम के [ और बिना ] सब [ अन्य उद्देश्यों ] का परित्याग किये क्षुद्र अथवा बड़े वर्ग ( जन ) से अवश्य कठिन ( दुष्कर ) है। किन्तु यह वास्तव में बड़े के लिए अधिक कठिन है।

हिन्दी में भावानुवाद

देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा यश अथवा कीर्ति को श्रेष्ठ नहीं मानता। इसको वह जो कुछ बड़ी चीज समझता है वह केवल इसलिए कि वर्तमान एवं भविष्य में उसकी प्रजा धर्म को सुनने तथा उसके उपदेशों का पालन करने की इच्छा करे। देवताओं का प्रिय राजा मात्र इस कार्य में यश और कीर्ति चाहता है।

देवताओं का प्रिय राजा जो कुछ उद्यम ( उद्योग ) करता है, वह सब परलोक के लिए है। जिससे प्रजा को कम से कम पाप ( परिस्रव ) प्राप्त हो। परन्तु जहाँ अपुण्य है वहीं पाप है। परन्तु अत्यधिक उद्योग और त्याग के बिना यह छोटे एवं बड़े जन ( अधिकारियों ) के लिए दुष्कर है। परन्तु बड़े जनों ( अधिकारियों ) के लिए यह अत्यंत दुरूह है।

प्रथम बृहद् शिलालेख

द्वितीय बृहद् शिलालेख

तृतीय बृहद् शिलालेख

चतुर्थ बृहद् शिलालेख

पाँचवाँ बृहद् शिलालेख

छठा बृहद् शिलालेख

सातवाँ बृहद् शिलालेख

आठवाँ बृहद् शिलालेख

नवाँ बृहद् शिलालेख

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top