अशोक का ग्यारहवाँ बृहद् शिलालेख

भूमिका

ग्यारहवाँ बृहद् शिलालेख ( Eleventh Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से एकादश शिला प्रज्ञापन है। महान सम्राट अशोक द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) अंकित करवाये गये थे। यह ‘गिरिनार संस्करण’ का मूलपाठ है। १४ बृहद् प्रज्ञापनों में से गिरनार संस्करण अपेक्षाकृत सुरक्षित अवस्था में पाया गया है। इसलिए चतुर्दश शिला प्रज्ञापनों में से सामान्यतः इस संस्करण का उपयोग किया जाता रहा है। फिरभी अन्यान्य संस्करणों को मिलाकर पढ़ा जाता रहा है।

ग्यारहवाँ बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय

नाम – अशोक का ग्यारहवाँ बृहद् शिलालेख या एकादश बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Eleventh Major Rock Edict )

स्थान – गिरिनार, गुजरात

भाषा – प्राकृत

लिपि – ब्राह्मी

समय – मौर्यकाल

विषय – धर्म की व्याख्या। ११वें बृहद् शिलालेख में ९वें बृहद् शिलालेख की बातों की पुनरावृत्ति हुई है। अन्तर यह हो कि – वहाँ इसको ‘धर्म-मंगल’ कहा गया है तो यहाँ ‘धर्म-दान’।

ग्यारहवाँ बृहद् शिलालेख : मूलपाठ

१ – देविनंप्रियो पियदसि राजा एवं आह ( । ) नास्ति एतारिसं दानं यारिसि धंमदानं धंमसंस्तवो वा संविभागो वा धंमसंबंधो व ( । )

२ – तत इदं भवति दास भतकम्हि सम्यप्रतिपती मातरि पितरा साधुं सुस्रुसा मितसस्तुतजातिकानं बाम्हणस्रमणानं साधु दानं

३ – पाषानं अनारसो साधु ( । ) एत वतव्यं पिता व पुत्रेन व भाता व मितस्तुतञातिकेन न आव परीवेसियेहि इद साधु इद कतव्यं ( । )

४ – सो तथा कुरु इलोकचस आरधो होति परत च अनंतं पुइञ भवति तेनं धंमदानेन ( ॥ )

संस्कृत अनुवाद

देवानां प्रिय प्रियदर्शी राजा एवम् आह्। नास्ति एतादशं दानं यादशं धर्मदानं धर्मसंस्तवः वा धर्मसंविभागः वा धर्मसम्बन्धः वा। तत् इदं भवति दासभतकेषु सम्प्रतिपत्तिः मातरि पितरि साधु शुश्रूषा मित्र-संस्तुत-ज्ञातिकेभ्यः ब्राह्मण-श्रमणेभ्यः साधु दानं, प्रणानां अनालम्भः साधु। एतत् वक्तव्यं पित्रा वा पुत्रेण वा भ्राता वा मित्र-संतुत ज्ञातिकैः वा यावत् प्रतिवेश्यैः इदं कर्तव्यम्। स तथा कुर्वन इहलोकः आलब्द्धः भवति परत्र च अनन्तं पुण्यं भवति तेन धर्मदानेन।

हिन्दी अनुवाद

१ – देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा। ऐसा कोई दान नहीं है जैसा धर्मदान, जैसा धर्म मित्रता, जैसी धर्म की उदारता, जैसा धर्म का सम्बन्ध।

२ – दास एवं भृत्यों के साथ शिष्टाचार, माता-पिता की सेवा, मित्र, परिचित, जाति और ब्राह्मण-श्रमणों को दान देना साधु है।

३ – जीवों की अहिंसा ( अबध ) साधु है। पिता, पुत्र, भाई, मित्र, परिचित, जाति और पड़ोसी से यह कहना चाहिए कि — यही साधु है, यही कर्त्तव्य है।

४ – जो ऐसा आचरण करता है उसे इहलोक को सिद्ध करता है और परलोक में भी उसे धर्मदान से अनन्त पुण्य होता है।

हिन्दी में भावानुवाद

देवताओं का प्रिय राजा प्रियदर्शी ऐसा कहता है — ऐसा कोई दान नहीं जैसा धर्म-दान, ऐसी कोई मित्रता नहीं जैसी धर्म से मित्रता, ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं जैसा धर्म से सम्बंध। धर्म यह है कि — दासों एवं सेवकों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाये, माता-पिता की सेवा की जाये, मित्रों, परिचितों, सम्बन्धियों, ब्राह्मणों एवं श्रमणों को दान दिया जाये, जीव-हिंसा न की जाये। पिता, पुत्र, भाई, स्वामी, मित्र, परिचित, सम्बन्धी तथा पड़ोसियों को भी यह कहना चाहिए कि ये पुण्य कार्य है, इसे करना चाहिए। ऐसा करने से मानव को इहलोक में सुख प्राप्त होता है और परलोक में भी बहुत पुण्य प्राप्त होता है।

प्रथम बृहद् शिलालेख

द्वितीय बृहद् शिलालेख

तृतीय बृहद् शिलालेख

चतुर्थ बृहद् शिलालेख

पाँचवाँ बृहद् शिलालेख

छठा बृहद् शिलालेख

सातवाँ बृहद् शिलालेख

आठवाँ बृहद् शिलालेख

नवाँ बृहद् शिलालेख

दसवाँ बृहद् शिलालेख

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