अभिलेख

मणिक्याला अभिलेख ( Manikiala Inscription )

भूमिका कनिष्क के १८वें राज्यवर्ष अर्थात् ९६ ई० का मणिक्याला अभिलेख रावलपिण्डी ( पाकिस्तान ) जिले के मणिक्याला नामक ग्राम से मिले स्तूप समूहों ( एक बड़े स्तूप तथा अनेक छोटे-छोटे स्तूपों तथा विहारों के अवशेष ) से १९३४ ई० में एक छोटे स्तूप के उत्खनन में दस फीट नीचे एक पत्थर पर अंकित मिला था जिसका प्रयोग वहाँ अस्थि-पेटिका के ढक्कन के रूप में हुआ था। यह अभिलेख खरोष्ठी लिपि और प्राकृत भाषा में है। मणिक्याला अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- मणिक्याला अभिलेख ( Manikiala Inscription ) [ माणिक्याला / माणिक्याल / मणिक्याल / मणिक्यल ] स्थान :- मणिक्याला ग्राम, रावलपिण्डी जिला, पंजाब प्रांत, पाकिस्तान भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- ९६ ई० ( कनिष्क प्रथम के शासनकाल का १८वाँ वर्ष ) विषय :- बौद्धधर्म से सम्बंधित मणिक्याला अभिलेख : मूलपाठ १. सं १० [ + ] ४ [ + ] ४ कर्तियस मस [ स ] दिवसे २० [ । ] [ एत्र ] पुर्वए महरजस कणे- २. ष्क [ स्य ] गुषण-वंश-संवर्धक लल ३. दडणयगो वेश्पशिस क्षत्रपस ४. होरमु [ र्तो ] स तस अपनगे विहरे ५. होरमुर्तो एत्र णण भगव-बुद्ध-झुव ६. [ प्र ] तिस्तवयति सह तए [ न ] वेश्पशिएण खुदेचिए [ न ] ७. बुरितेण च विहरकर [ व्ह ] एण ८. संवेण च परिवरेण सध [ । ] एतेन कु- ९. शलमूलेन बुधेहि च ष [ व ] एहि [ च ] १०. समं सद भवतु ११. भ्रतर स्वरबुधिस अग्रप [ डि ] अशए १२. सध बुधिलेन नवकर्मिगेण [ ॥ ] मणिक्याला अभिलेख की पंक्तियाँ विभिन्न स्थलों पर अंकित हैं। प्रथम ६ पंक्ति मुख्य अंश में है। पंक्ति ७ से ९ बायीं ओर, पंक्ति १० ऊपर के बायें कोने में, पंक्ति ११ मुख्य लेख के ऊपर की ओर, पंक्ति १२ दायीं ओर पंक्ति २ के ऊपर अंकित है। हिन्दी अनुवाद संवत्सर १८ कार्तिक मास का दिवस २०। इस पूर्वकथित दिवस को महाराज कनिष्क के राज्य में। गुषण-वंश-संवर्धक, लल ( ? ) दण्डनायक, वेश्पसी के क्षत्रप, होरमूर्त१ और उनके आत्मज बिहार होरमुर्त। [ उन्होंने ] यहाँ तीन [ अन्य व्यक्तियों ] विश्वसिक खुदचियन्, बुरित और बिहरकर व्यएण तथा [ अपने ] परिवार के साथ भगवान् बुद्ध के अनेक स्तूप स्थापित किये। इनके [ इन स्तूपों के ] निर्माण का जो कुशलमूल ( पुण्य ) हो, ( उसमें ) बुद्धों, श्रावकों और अन्य लोगों के साथ भ्राता स्वरबुद्ध का मुख्य भाग हो। नवकर्मिक बुद्धिल के साथ। इसका एक अन्य अर्थ भी सम्भव है कुषाण वंश-संवर्धक लल, दण्डनायक वेश्पसी, क्षत्रप होरमूर्त। इस तरह इसमें तीन व्यक्तियों के नाम प्रतीत होते हैं। किन्तु आगे की पंक्ति में तीन अन्य व्यक्तियों के नामोल्लेख के परिप्रेक्ष्य में यहाँ तीन व्यक्तियों के नामों की सम्भावना नहीं है। पूरा वाक्य होरमूर्त का विशेषण ही प्रतीत होता है।१ मणिक्याला अभिलेख : विश्लेषण मणिक्याला अभिलेख स्तूप निर्माण सम्बन्धी सामान्य सूचना-पत्र है। इस प्रकार इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि एक विदेशी ने अभिलेख में उल्लिखित स्तूपों का निर्माण करवाया था। इससे बौद्ध धर्म के प्रति विदेशियों का आकर्षण प्रकट होता है। दानदाताओं के उल्लेख की दृष्टि से ही यह अभिलेख विशेष विचारणीय है। पंक्ति – ११ से ऐसा ज्ञात होता है कि जिसने इस अभिलेख को अंकित कराया, उसने अपने भाई होरमुर्त के पुण्य लाभ के लिए स्तूप बनवाये थे। उसने इस काम में तीन अन्य व्यक्तियों को सहयोगी बनाया था ( पंक्ति ६-८ )। उस व्यक्ति की चर्चा, जिसने स्तूप बनवाये और अभिलेख अंकित कराया, पंक्ति २-५ में है। यही विचारणीय अंश है। यह अंश इस प्रकार है — गुषण वंश-संवर्धक लल दडणयगो वेश्पशिस क्षत्रपस होरमुर्तो स तस अपनगे विहरे होरमुर्तो। स्टेन कोनो ने इसका अनुवाद ‘The general Lala, the scion of the Gushana race, the donation- master in his own Vihar’ किया है। इसका भाव है— दण्डनायक लल, गुषण-वंश की शाखावाला, क्षत्रप वेश्पसी का दानपति — वह अपने ही विहार में अपना दानपति है। इससे ऐसा प्रकट होता है कि अभिलेख और स्तूपों का निर्माता दण्डनायक लल था, वह गुषण वंश का था और क्षत्रप वेश्पसी का दानपति था और उसका अपना विहार था जिसका वह स्वयं ही दानपति था। इसमें दानपति ( Donation master ) शब्द का प्रयोग स्टेन कोनो ने होरमुर्त के लिए किया है। यह अनुवाद उन्हें लूडर्स ने सुझाया था। होर शब्द खोतानी-शक भाषा में दान ( gift ) के लिए प्रयुक्त पाया गया है। किन्तु पति के अर्थ में शक भाषा में मुर्त जैसा कोई शब्द नहीं है। स्वामी के अर्थ में मुरुण्ड शब्द मिलता है। उसी से यह शब्द निकला होगा ऐसा लूडर्स का अनुमान है। दानपति शब्द की कल्पना उन्होंने इसलिए की कि उन्हें तक्षशिला ताम्रलेख में महादानपति शब्द देखने को मिला था। यदि यह मान लिया जाय कि होरमुर्त का अभिप्राय दानपति है तो प्रश्न उठता है कि उसका यहाँ अभिप्राय क्या है? दानपति का अर्थ होता है — उदारदानी या महादानी — और ठीक इसी भाव में महादानपति का प्रयोग तक्षशिला ताम्रलेख में पतिक के लिए हुआ है। यहाँ ‘क्षत्रप वेश्पसी का दानपति’ कहा गया है। इस कथन से उदारदानी अथवा महादानी का भाव प्रकट नहीं होता है। इससे तो यह ज्ञात होता है कि यह कोई प्रशासनिक पद होगा। इस पदाधिकारी के जिम्मे राज्य की ओर से दान देने की व्यवस्था रही होगी। पर इस नाम के पदाधिकारी का परिचय किसी भी सूत्र से प्राप्त नहीं होता। यदि मान लें कि क्षत्रप वेश्पसी के यहाँ इस प्रकार का कोई पदाधिकारी था तो अभिलेख में दूसरी जगह ( पंक्ति ५ ) होरमुर्त की इस व्याख्या — वह अपने ही विहार में अपना दानपति था के स्पष्टीकरण की समस्या सामने उपस्थित होती है। विहारों में दान प्राप्त किया जाता था, दान दिया नहीं जाता था। वहाँ दान प्राप्त कर सुरक्षित रखनेवाले अधिकारी की आवश्यकता थी। निःसन्देह विहारों के इस अधिकारी का पदनाम ( designation ) राजकीय दान-व्यवस्थापक के नाम से भिन्न होना चाहिए। यह अकल्पनीय है कि दोनों पद एक ही नाम — होरमुर्त से पुकारा जाता रहा हो। अतः होरमुर्त से यहाँ किसी पद का अभिप्राय नहीं हो सकता है। होरमुज और होरमुरण्ड के रूप में होरमुर्द मथुरा के जमालपुर टीले से प्राप्त कई स्तम्भ लेखों में पाया गया है और वहाँ यह व्यक्तिवाचक नाम है। इन

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सुई-विहार अभिलेख ( Sui-Vihar Inscription )

भूमिका सुई-विहार अभिलेख पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के बहावलपुर से दक्षिण-पश्चिम में लगभग २६ किमी० ( ≈ १६ मील ) की दुरी पर पाया गया है। इसकी भाषा संस्कृत प्रभावित प्राकृत है और लिपि खरोष्ठी है। यह अभिलेख ताम्रपत्र पर अंकित कनिष्क प्रथम के राज्यारोहण के ११वें वर्ष अर्थात् ८९ ई० का है। इस स्थान पर सुई-विहार ( सूची-विहार ) नाम का एक स्तूप था। इसी भग्न स्तूप से १८६६ ई० में ७६.२ सेमी० ( ३० इंच ) का वर्गाकार ताम्रपत्र मिला है। यह लेख ४ पंक्ति का है। सम्भवतः अब यह कोलकाता के एसियाटिक सोसाइटी के संग्रह में है। सुई-विहार अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- सुई-विहार अभिलेख ( Sui-Vihar Inscription ), कनिष्क प्रथम के ११वें शासनकाल का सुई-विहार ताम्रपत्र अभिलेख ( Sui-Vihar Copper Plate Inscription of the 11th reign of Kanishka I ) स्थान :- सुई-विहार स्तूप, बहावलपुर, पंजाब, पाकिस्तान भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित ) लिपि :- खरोष्ठी समय :- ८९ ई० ( कनिष्क प्रथम के शासनकाल का ११वाँ वर्ष ) विषय :- बौद्ध धर्म से सम्बंधित सुई-विहार अभिलेख : मूलपाठ १. महरजस्य रजतिरजस्य देवपुत्रस्य क [ निष्कस्य ] संव [ त्स ] रे एकदशे सं १० [ + ] १ दइसिंकस्य मस [ स्य ] दिवसे अठविशे दि २० [ + ] ४ [ + ] ४ २. [ अ ] त्र दिवसे भिक्षुस्य नगदतस्य ध [ र्म ] कथितस्य अचर्यदमत्रत-शिष्यस्य अचर्य-भवे-प्रशिष्यस्य यठिं अरोपयत इह दमने ३. विहरस्वमिणिं उपसिक [ व ] लनंदि- [ कु ] टिंबिनि बलजय-मत च इमं यठि-प्रतिठनं ठप [ इ ] चं अनु परिवरं ददरिं [ । ] सर्वसत्वनं ४. हित-सुखय भवतु [ ॥ ] हिन्दी अर्थांतर महाराज रजतिराज देवपुत्र कनिष्क के संवत् ग्यारह (११) के दैशिक१ नामक मास का २८वाँ दिवस। इस दिन आचार्य भव के प्रशिष्य, आचार्य दमत्रात के शिष्य, धर्म-कथिन ( धर्मोपदेशक ) भिक्षु नागदत्त की यष्टि यहाँ दमन में आरोपित की जाती है। बलनन्दि की कुटुम्बिनी ( भार्या ) बलजय की माता, उपासिका विहारस्वामिनी ने इस यष्टि-प्रतिष्ठान को स्थापित किया [ और ] परिवार सहित दिया। [ इससे ] सर्वसत्यों ( जीवों ) का हित, सुख हो। यह यूनानी ( मकदूनी, मैसिडोनियन ) मास का नाम है जोकि भारतीय पंचांग के ज्येष्ठ-आषाढ़ में पड़ता था।१ सुई-विहार ताम्रपत्र अभिलेख : विश्लेषण इस लेख से ऐसा ज्ञात होता है कि उपासिका विहारस्वामिनी को भिक्षु नागदत्त ने धर्म का उपदेश ( बौद्ध धर्म का ) दिया था। उनके देहावसान के बाद उसने उनकी स्मृति में यष्टि ( लाट, स्तम्भ ) स्थापित किया गया। इससे धार्मिक जनों की स्मारक-स्तम्भ स्थापित करने की बात ज्ञात होती है। सुई-विहार कदाचित् सूची-विहार है। हो सकता है सूची का तात्पर्य इसी स्तम्भ से हो और स्तम्भ तथा विहार के होने के कारण इस स्थान को सूची-विहार अर्थात् सुई-विहार कहा जाने लगा हो। इस प्रकार जहाँ यह अभिलेख मिला है उसके निकट ही यह स्तम्भ रहा होगा। सुई-विहार का ही पुराना नाम कदाचित् दमन रहा होगा। सुईविहार ताम्रपत्र लेख से यह भी अनुमान लगाया जाता है कि धार्मिक शिक्षा के लिए आचार्यों की परम्परा इस समय तक बनने लगी थी। इससे आचार्य भव, उनके गुरु आचार्य दमत्रात और उनके गुरु धर्मकथिन भिक्षु नागदत्त की परम्परा ज्ञात होती है। सुई विहार ताम्रपत्र अभिलेख में परिवार के मुखिया बलनन्दि, उनकी भार्या जिनको कि उपासिका, विहारस्वामिनी और बलजय की माता बताया गया का विवरण मिलता है।

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श्रावस्ती बोधिसत्त्व अभिलेख

भूमिका श्रावस्ती बोधिसत्त्व अभिलेख उत्तर प्रदेश श्रावस्ती जनपद के सहेत-महेत नामक स्थान से मिला है। सहेत- महेत ( प्राचीन श्रावस्ती ) से प्राप्त बोधिसत्त्व की प्रतिमा और उसके छत्र पर यह अंकित है। इन पर सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख के समान ही ब्राह्मी लिपि में संस्कृत से प्रभावित प्राकृत भाषा में में अभिलेख है और विषय भी लगभग समान है । श्रावस्ती बोधिसत्त्व अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- श्रावस्ती बोधिसत्त्व अभिलेख ( Shravasti Bodhisattva Inscription ), सहेत-महेत बोधिसत्त्व अभिलेख ( Sahet-Mahet Bodhisattva Inscription ), कनिष्क का श्रावस्ती बोधिसत्त्व अभिलेख ( Shravasti Bodhisattva Inscription of Kanishka ) स्थान :- सहेत-महेत ( प्राचीन श्रावस्ती ), श्रावस्ती जनपद, उत्तर प्रदेश। भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित ) लिपि :- ब्राह्मी समय :- कनिष्क का शासनकाल ( प्रथम शताब्दी ई० ) विषय :- बौद्धधर्म से सम्बन्धित श्रावस्ती बोधिसत्त्व अभिलेख : मूलपाठ ( छत्र पर अंकित ) १. [ महाराजस्य ] … [ दे ] — २. [ वपुत्रस्य कणिष्कस्य ] [ सं……दि…… ] ३. [ भिक्षुस्य पुष्यबुद्धिस्य ] [ सद्ध्ये ] विहारि — ४. [ स्य भिक्षुस्य … सद्धध्येयविहारि ] ५. स्य [ भिक्षुस्य बलस्य त्रेपिट ] कस्य ६. शावस्तिये [ भगवतो ] [ च ] क [ मे ] कोसंब — ८. [ कुटिये ] [ अचार्य्याणं सर्वास्ति ] वादिनं ९. [ परिग्रहे ] [ ॥ ] ( मूर्ति पर अंकित ) १. [ महाराजस्य देवपुत्रस्य कणिष्कस्य सं.. ..दि ] १० [ + ] ६ [ । ] एतए पूर्वये भिक्षुस्य पुष्य [ बु ] — २. [ द्धिस्य ] सद्ध्येविहारिस्य भिक्षुस्य ब [ ल ] स्य त्रेपटिकस्य दान बोधिसत्वो छत्रंदाण्डश्च शावतस्तिये भगवतो चंकमे ३. कोसंबकुटिये [ अचर्य्या ] णां सर्वस्तिवादिनं परिगहे [ । ] हिन्दी अनुवाद [ महाराज देवपुत्र कनिष्क का राज्य संवत्सर का दिन ] इस पूर्वकथित दिन को भिक्षु पुष्यवृद्ध के साथ तीर्थयात्रा पर निकले त्रिपिटकविद् भिक्षु बल का दान- बोधिसत्त्व [ की मूर्ति ] और दण्ड श्रावस्ती के भगवान् के चंक्रम में के सम्बकुटी में [ स्थापित ] सर्वास्तिवादिन आचार्यों के परिग्रह के लिए। सहेत-महेत अभिलेख : विश्लेषण छत्र-दण्ड पर अंकित अभिलेख अत्यन्त क्षतिग्रस्त है परन्तु जो उपलब्ध है उससे यह ज्ञात होता है कि वह मूर्ति पर अंकित अभिलेख की थोड़े-बहुत अन्तर के साथ उसकी प्रतिलिपि ही लगती है। इस अभिलेख की प्रत्येक पंक्ति में १२ अक्षर होने की कल्पना होती है। इससे अनुमान होता है कि प्रथम पंक्ति में ‘महाराजस्य रजतिराजस्य दे’ रहा होगा। द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ पंक्ति से ऐसा अनुमान होता है कि वहाँ सार्द्धबिहारी ( तीर्थयात्रा के साथी ) के रूप में एक नहीं, दो भिक्षुओं का नाम था। एक तो पुष्यवृद्ध ही रहे होंगे और दूसरे का नाम उपलब्ध नहीं है। इन लेखों का महत्त्व इस बात में है कि इनसे सिद्ध होता है कि सहेत-महेत के ध्वंसावशेष ही प्राचीन श्रावस्ती है। लेख में सर्वास्तिवादिन१ आचार्यों का उल्लेख है। इससे ऐसा जान पड़ता है कि इस सम्प्रदाय की शिक्षा के लिए यहाँ नियमित व्यवस्था थी और उसके लिए आचार्य नियुक्त किये जाते थे। सर्वास्तिवादिन का विवरण हमें मथुरा के सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख में भी प्राप्त होता है।

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सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख

भूमिका सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख कनिष्क के तृतीय राज्यवर्ष का है। यह अभिलेख संस्कृत प्रभावित प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में अंकित है। यह अभिलेख सारनाथ के एक बोधिसत्त्व ( बोधिसत्व  ) की प्रतिमा और उसके छत्र पर अंकित है और वर्तमान में या सारनाथ संग्रहालय में सुरक्षित है। सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख ( Sarnath Bodhisattva Inscription ), कनिष्क प्रथम कालीन सारनाथ बौद्ध प्रतिमा अभिलेख ( Sarnath Buddhist Image Inscription of the time of Kanishka – I ) स्थान :- सारनाथ, वाराणसी जनपद, उत्तर प्रदेश भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित ) लिपि :- ब्राह्मी समय :- ८१ ई०, ( कनिष्क के राज्यारोहण का तृतीय वर्ष अर्थात् सं० ३ + ७८ शक सं० = ८१ ई० ) विषय :- भिक्षु बल द्वारा विभिन्न लोगों के साथ, छत्र और यष्टि की स्थापना, लोगों की सुख-शान्ति व हित के लिये। सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख : मूलपाठ प्रथम १. महारजस्य कणिष्कस्य सं- ३१ हे ३ दि० २० [ + ] २ २. एताये पूर्वये भिक्षुस्य पुष्पबुद्धिस्य सद्ध्येवि- ३. हारिस्य भिक्षुस्य बलस्य त्रेपिटकस्य ४. बोधिसत्त्वो छत्रयष्टि [ च ] प्रतिष्ठापितो ५. बाराणसिये भगवतो चंकमे महा माता [ ा  ] – ६. पितिहि सहा उपद्ध्याचर्येहि सद्ध्येविहारि- ७. हि अंतेवासिकेहि च सहा बुद्धमित्रये त्रेपिटिक- ८. ये सहा क्षत्रपेण वनस्परेन खरपल्ला- ९. नेन च सहा च [ तु ] हि परिषाहि सर्वसत्वं १०. हितासुखार्थं ( ॥ ) कुछ विद्वान इसको २ पढ़ते हैं।१ संस्कृत छाया महाराजस्य कनिष्कस्य संवत्सरे ३ हेमन्त ३ दिवसे २२ एतस्यां पूर्वायां भिक्षौ पुष्यबुद्धे सार्द्धं विहारिण: भिक्षो बलस्य त्रैपिटकस्य बोधिसत्व: छत्रयष्टिः च प्रतिष्ठापितौ वाराणस्यां भगवतः चंक्रमे सह मातृपितृभ्यां सह उपाध्याचार्यै: सार्द्ध विहारिभिः अन्तेवासिकै: च सहबुद्धमित्रया त्रैपिटक्या सह क्षत्रपेण वनस्परेण खरपल्‍लानेन च सह च चतसृभिः परिषभि-सर्वसत्त्वानां हितसुखार्थम्‌॥ हिन्दी अनुवाद महाराज कनिष्क के [ राज्य ] संवत्सर ३ [ का ] हेमन्त [ ऋतु का मास ] ३ का दिन २२। इस पूर्वकथित दिवस को भिक्षु पुष्यवृद्ध के साथ तीर्थ-यात्रा पर निकले हुए त्रिपिटकविद् भिक्षु बल ने बोधिसत्त्व [ की मूर्ति ] तथा छत्रयष्टि वाराणसी में भगवान् के चक्रम [ गन्धकुटी विहार के प्रांगण ]२ में माता-पिता के साथ, उपाध्याय आचार्य के साथ, बिहार के अन्तेवासियों के साथ और त्रिपिटकविद् बुद्धमित्र के साथ और क्षत्रप वनस्पर तथा खरपल्लान३ के साथ और परिषद् चतुर्वर्ग४ के साथ सर्वसत्वों ( जीवों ) के हित और सुख के लिए स्थापित किया। महावंश के अनुसार चंक्रम विहार की उस समतल भूमि को कहते हैं जिसका उपयोग टहलने अथवा उपासना के लिए किया जाता है।२ अभिलेख के दूसरे अंश से ज्ञात होता है कि खरपल्लान महाक्षत्रप था।३ बौद्धों के चार वर्ग हैं :- भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक और उपासिका।४ द्वितीय १. भिक्षुस्य बलस्य त्रेपिटकस्य बोधिसत्वो प्रतिष्ठापितो। २. महाक्षत्रपेन खरपल्लानेन सहा क्षत्रपेन वनष्परेन॥ संस्कृत छाया भिक्षा: बलस्य त्रैपिटकस्य बोधिसत्त्व: प्रतिष्ठापितः। महाक्षत्रपेण खरपलल्‍लानेन सह क्षत्रपेण वनस्परेण। हिन्दी अनुवाद त्रिपिटकविद् भिक्षु बल द्वारा प्रतिष्ठापित बोधिसत्त्व। महाक्षत्रप खरपल्लान और क्षत्रप वनस्पर के साथ॥ तृतीय १. महाराजस्य क [ णिकस्य ] सं ३ हे ३ दि २० [ + ] [ २ ] २. एतये पूर्वये भिक्षुस्य बलस्य त्रेपिट [ कस्य ] ३. बोधिसत्वो छत्रय [ ष्टि ] [ च ] प्रतिष्ठापितो [ । ] संस्कृत छाया महाराजस्य कनिष्कस्य संवत्सरे ३ हेमन्त ३ दिवसे २२ एतस्यां पूर्वायं भिक्षो: बलस्य त्रैपिटकस्य बोधिसत्त्व: छत्रयष्टि: प्रतिष्ठापितौ॥ हिन्दी अनुवाद महाराज कनिष्क के [ राज्य ] संवत्सर ३ [ का ] हेमन्त [ ऋतु का मास ] ३ का दिन २२। इस पूर्वकथित दिन को त्रिपिटकविद् भिक्षु बल द्वारा प्रतिष्ठापित बोधिसत्त्व और छत्र यष्टि। सारनाथ बोधिसत्त्व अभिलेख : महत्त्व यह अभिलेख तीन खण्डों का है। पहला बड़ा है तथा शेष दो अत्यन्त छोटे हैं। इसमें केवल बौद्ध धर्म स्थल, देवता आदि की चर्चा की गयी है।यह कनिष्क सं० ३ के हेमन्त ऋतु के २२वें दिन उत्कीर्ण कराया गया था। इस अभिलेख में छत्र की भी चर्चा है जो प्राप्त नहीं हो सका हैं। परन्तु प्रतिमा और यष्टि ही मिले हैं और वो अलग-अलग मिले हैं। यह अभिलेख कनिष्क के शासनकाल का दूसरा अभिलेख माना जाता है। अभी हाल में कौशाम्बी से कनिष्क के शासनकाल के दूसरे वर्ष का अभिलेख मिल जाने से पहला अभिलेख का स्थान कौशाम्बी अभिलेख को माना जाता है। शक सम्वत् और कनिष्क फ्लीट और केनेडी के अनुसार कनिष्क प्रथम का राज्यारोहण ५७ ई०पू० में हुआ और वही विक्रम सम्वत् का प्रवर्तक है। रमेशचन्द्र मजूमदार उसके राज्याभिषेक की तिथि २४८ ई० मानकर उसको त्रैकुटक-कलचुरि-चेदि सम्वत् का प्रवर्तनकर्ता बताते हैं। मार्शल, स्टेन कोनो और स्मिथ कनिष्क के राज्याभिषेक की तिथि १२५ ई० बताते हैं घिर्शमन १४४ ई० बताते हैं। परन्तु उपर्युक्त सभी तिथियाँ तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती हैं। फार्ग्गूसन, ओल्डेनवर्ग, थामस, बनर्जी, रैप्सन और हेमचंद्रराय चौधरी कनिष्क के राज्याभिषेक की तिथि ७८ ई० मानते हैं। इससे ए०एल० बॉशम भी सहमत हैं। इन विद्वानों की मत है कि कालान्तर में शकों द्वारा इसके निरन्तर प्रयोग से यही सम्वत् शक सम्वत् के नाम से प्रसिद्ध हो गया। वर्तमान में यही भारत का राष्ट्रीय सम्वत् है। राज्य विस्तार की जानकारी सारनाथ बोधिसत्त्व प्रतिमा अभिलेख के साथ अन्य पुरातात्त्विक साक्ष्यों व अभिलेखों को मिलाकर विचार करने पर कनिष्क प्रथम के पूर्वी राज्य विस्तार का ज्ञान होता है। प्रस्तुत अभिलेख ही कनिष्क प्रथम के राज्यारोहण के तृतीय शासनकाल का है अर्थात् ८१ ई०। बिहार तथा उत्तर बंगाल से उसके शासन काल के बहुसंख्यक सिक्के मिलते हैं। ‘श्रीधर्मपिटकनिदानसूत्र’ के चीनी भाषा में अनुवाद से ज्ञात होता है कि कनिष्क ने पाटलिपुत्र के राजा पर आक्रमण कर उसे बुरी तरह परास्त किया तथा हर्जाने के रूप में एक बहुत बड़ी क्षतिपूर्ति को माँग की। परन्तु इसके बदले में वह अश्वघोष लेखक, बुद्ध का भिक्षा पात्र और एक अद्भुत मुर्गां पाकर ही संतुष्ट हो गया। स्पूनर ने पाटलिपुत्र की खुदाई के दौरान कुछ कुषाण सिक्के प्राप्त किये थे। सिक्कों का एक ढेर बक्सर से मिला है। वैशाली और कुम्रहार से भी कुषाण सिक्के मिलते हैं। बोधगया से हुविष्क के समय का मृण्मूर्तिफलक ( Terracotta Plaque ) मिला है। ये सभी साक्ष्य बिहार पर कनिष्क के अधिकार को पुष्टि करते हैं। बिहार के आगे बंगाल के कई स्थानों, जैसे- तामलुक ( ताम्रलिप्ति ) और महास्थान से कनिष्क के सिक्के मिलते है। दक्षिण-पूर्व में उड़ीसा प्रान्त के मयूरभंज, शिशुपालगढ़, पुरी गंजाम आदि से कनिष्क के सिक्के मिलते हैं। किन्तु मात्र सिक्कों के प्रसार

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रेह अभिलेख ( Reh Inscription )

भूमिका रेह अभिलेख उत्तर प्रदेश के फतहपुर जिले में रेह नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। यह अभिलेख एक शिवलिंग पर अंकित है। इसकी भाषा प्राकृत और लिपि ब्राह्मी है। इस शिवलिंग का निचला भाग अनुपलब्ध होने के कारण अभिलेख की केवल आरम्भिक तीन पंक्तियाँ और चौथी पंक्ति के कतिपय लिपि-चिह्न ही बचे हैं। रेह अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- रेह अभिलेख ( Rah Inscription ) स्थान :- रेह, फतेहपुर जनपद, उत्तर प्रदेश भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- कुषाणकाल, विम कडफिसेस विषय :- शैव धर्म से सम्बंधित रेह अभिलेख : मूलपाठ १.  महरजस रजति रजस २.  महंतस त्रतरस धम्मि- ३.  कस जयंतस च अप्र- ४.  ……………………… हिन्दी अनुवाद महाराज रजतिराज महान्, त्राता, धार्मिक, जयन्त और अप्र [ … ] रेह अभिलेख : विश्लेषण रेह अभिलेख पर तीन पंक्ति ही पूर्ण रूप से मिली है। चौथी पंक्ति अपठित है। इस पर किसी राजा का नाम नहीं प्राप्त होने से विरुद के आधार पर विद्वानों ने इसके राजा की पहचान करने का प्रयास किया है। विवाद मुख्य रूप से मिनाण्डर और विम कडफिसेस के मध्य है कि रेह अभिलेख किसका है? क्या यह मिनांडर का अभिलेख है? इस अभिलेख को प्रयाग विश्वविद्यालय के प्राध्यापक गोवर्धनराय शर्मा ने प्रकाशित किया है और चतुर्थ पंक्ति के लिये अपना अनुमानित पाठ [ जितस ] मिनन्द- ( दे? ) रस प्रस्तुत किया है। इस प्रकार उन्होंने इसे यवन-नरेश मिनेन्द्र ( Menander ) का लेख बताया है। इस अभिलेख को गंगा घाटी में यवनों के प्रवेश का प्रमाण माना है। जी०आर० शर्मा की यवन आक्रमण की अवधारणा को बी०एन० मुखर्जी और रिचर्ड सैलोमन ( Richard Salomon ) सरीखे विद्वानों ने भ्रामक व गलत बताया गया है। शर्मा के अनुसार अभिलेख में आये हुए विरुद यवन विरुदों BASILIOS BASILION MEGALAU SOTOROS DIKAIOU KAI ANEKETAU के अविरल प्राकृत अनुवाद है और वे विरुद मिनेन्द्र ( Menander ) के हैं । इस प्रसंग में ज्ञातव्य यह है कि BASILIOS BASILION और उसके समानान्तर विरुद रजतिराज का प्रयोग युक्रितिद ( Eucratideo ) के कुछ सिक्कों के अतिरिक्त किसी अन्य यवन-नरेश द्वारा हुआ ही नहीं किया गया है। महरज रजतिरज का संयुक्त प्रयोग तो शक पह्लव शासकों से पूर्व सर्वथा अज्ञात ही था। अन्य विरुदों में भी त्रातर और ध्रमिक दो ही विरुद ऐसे हैं जिनका प्रयोग मिनेन्द्र ( Menander ) के सिक्कों पर किया गया है, उन पर भी ये दोनों विरुद कभी एक साथ नहीं देखे गये हैं। शेष विरुदों का प्रयोग अन्य यवन-शासकों ने ही किया है। परन्तु उन्होंने भी सदैव अलग-अलग ही किया है, कभी एक साथ नहीं। समूची विरुदावली किसी भी यवन-शासक के लिये कभी प्रयोग में आयी ही नहीं है। इस प्रकार यह अभिलेख मिनेन्द्र ( Menander ) तो क्या किसी भी यवन-शासक का अनुमान किया ही नहीं जा सकता है। अतः जी०आर० शर्मा की कल्पना सर्वथा निराधार है। क्या यह विम कडफिसेस का अभिलेख है? उत्तर-पश्चिमी अफगानिस्तान स्थित कामरा नामक स्थान से मिले एक अभिलेख में प्रस्तुत अभिलेख की समूची विरुदावली का उल्लेख लगभग अविकल रूप से एक कुषाण-शासक के प्रसंग में हुआ है। उस परिप्रेक्ष्य में यह अनुमान सहजभाव से किया जा सकता है कि यह अभिलेख भी किसी कुषाण-नरेश का हो। अभिलेख का अगला अंश अनुपलब्ध होने के बावजूद अन्य साक्ष्यों के सहारे निश्चितरूप से कहा जा सकता है कि अभिलेख विम कदफिसेस का होगा। अभिलेख में आये विरुद ‘महन्तस त्रतरस’, Soter megas की याद दिलाते हैं। Soter megas नामधारी सिक्के विम कदफिस के अनुमान किये जाते हैं। वे सिक्के विम कदफिस के हों या न हों यह तो तथ्य है ही कि Soter ( त्राता, त्रतर ) विरुद का प्रयोग विम ने अपने नामवाले सिक्कों पर किया है; और यह विरुद परवर्ती सभी शासक के लिए अनजाना है। दूसरी ओर विम कदफिस का कोई भी पूर्ववर्ती कुषाण गंगा-यमुना के काँठे में कभी आया ही नहीं था। अतः इसे विम कदफिस के अतिरिक्त किसी दूसरे शासक के होने की सम्भावना प्रकट करने की कहीं भी कोई गुंजाइश नहीं है। विम कदफिसेस के अभिलेख के रूप में लेख का महत्त्व इस बात में है कि वह इस बात का द्योतक है विम कदफिस के काल में ही कुषाणों का प्रवेश गंगा-यमुना काँठे में हो गया था। इस लेख के प्रकाश में आने से हमारे इस अनुमान को बल प्राप्त होता है कि हाथीगुम्फा अभिलेख * में विम कदफिस ( विमक, विमिक ) का उल्लेख है। इस अभिलेख में उसका मगध तक बढ़ जाना पूर्णतः सम्भव है। घाता पयिता राजगहं उपपीडपयति [ । ] एतिनं च कंमपदान संनादेन [ संवित ] सेन-वाहने विपमुचितु मधुरं अपयातो यवनरा [ ज ] [ विमिक ]…….. यछति………. पलव [ भार ] * ( हिन्दी अनुवाद :- पर घात ( आक्रमण ) कर राजगृह [ के राजा ] को उत्पीड़ित ( त्रस्त ) करते हैं। इन दुष्कर कर्मों को सम्पादित करते देखकर, उसकी सेना और वाहनों से भयभीत होकर यवनराज विमक मथुरा भाग जाता है। …… [ तब ] वह ( खारवेल ) पल्लव [ भार ] से युक्त )

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तक्षशिला रजतपत्र अभिलेख

भूमिका तक्षशिला रजतपत्र अभिलेख जॉन मार्शल को १९१४ में धर्मराजिका स्तूप के पश्चिम चिर नामक टीले से प्राप्त हुई है। इस चिर टीले से एक सेलखड़ी ( Steatite ) की मंजूषा के अन्दर दूसरी रजत-मंजूषा प्राप्त हुई है। इस चाँदी की मंजूषा के भीतर एक रजतपत्र ( चाँदी-पत्र ) और स्वर्ण-डिबिया थी। स्वर्ण-डिबिया में धातु-अवशेष ( अस्थि-अवशेष ) रखे थे। रजतपत्र पर प्राकृत भाषा और खरोष्ठी लिपि में यह लेख अंकित है। तक्षशिला रजतपत्र अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- तक्षशिला रजतपत्र अभिलेख ( Taxila Silver Scroll Inscription ) स्थान :- तक्षशिला के धर्मराजिका स्तूप के चिर टीले से, रावलपिण्डी जनपद, पाकिस्तान भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- कुषाणकाल ( अनिर्दिष्ट सम्वत् १३६ ) विषय :- इन्तप्रिय के पुत्र द्वारा लोककल्याण और धर्म-अर्जन हेतु तक्षशिला धर्मराजिका स्तूप में बुद्ध के धातु अवशेष की स्थापना तक्षशिला रजतपत्र अभिलेख : मूलपाठ १. स १ [ + ] १०० [ + ] २० [ + ] १० [ + ] ४ [ + ] १ [ + ] १ अयस अषडस मसस दिवसे १० [ + ] ४ [ + ] इश दिवसे प्रदिस्तवित भगवतो धतु- [ ओ ] उर [ स ]- २. केण इतव्हिअ-पुत्रण१ बहलिएण णोअचए णगरे वस्तवेण [ । ] तेण इमे प्रदिस्तवित भगवतो धतुओ धमर- ३. इए तक्षशिलए तणुवए बोसिसत्व-गहमि महरजस रजतिरजस देवपुत्र खुषणस अरोग-दक्षिणे ४. सर्वे-बुधण पुयए प्रचग-बुधण पुयए अरहतण पुयए सर्व-सत्वण पुयाए मत-पितु पुयए मित्रमच-ञति-स- ५. लोहितण पुयए अत्वणो अरोग-दक्षिणए णि [ व ] णए [ । ] होतु अ [ व ] दे सम-परिचगो [ । ] लोतव्हिय भी पढ़ा गया है।१ संस्कृत छाया संवत्सरे १३६ अयस्य आषाढ़स्य मास्य दिवसे १५ अस्मिन्‌ दिवसे प्रतिष्ठापिता भागवत धातवः। उरशा देशीयेन इन्तप्रिय पुत्रेण बाहलिकेन नवाजये नगरे वास्तव्येन। तेन इमे प्रतिस्ठापिताः धर्मराजिके तक्षशिलायां तनुवके बोधिसत्त्वगृहे महराजस्य राजातिराजस्य देवपुत्रस्य कुषाणस्य आरोग्य दक्षिणायै सर्वबुद्धानां पूजायै प्रत्येकबुद्धानां पूजायै, अर्हतानां, पूजायै, सर्वसत्त्वानां पूजायै, मातापित्रोः पूजायै मित्रामात्य ज्ञाति-सलोहितानां पूजायै, आत्मन: आरोग्यदक्षिणायै निर्वाणाय। भवतु आयातः सम्यक्‌ परित्याग:। हिन्दी अनुवाद अय के सं [ वत्सर ] १३६ आषाढ़ मास का १५। इस दिन नवाजये ( णोअचए? ) निवासी उरशकी२ इन्तप्रिय के पुत्र बाहलिक३ द्वारा भगवान् [ बुद्ध ] के धातु ( अस्थि-अवशेष ) की स्थापना ( प्रतिष्ठा ) की गयी। उसके द्वारा भगवान् ( बुद्ध ) की धातु की प्रतिष्ठा तक्षशिला स्थित धर्मराजिका४ में स्व-निर्मित बोधिसत्त्व-गृह में महाराज रजतिराज देवपुत्र खुषण के आरोग्य-दक्षिणा ( स्वास्थ्य-कामना ) के लिए की गयी। सर्वबुद्धों की पूजा के निमित्त प्रत्येक बुद्धों की पूजा के निमित्त; अर्हतों की पूजा के निमित्त; माता-पिता की पूजा के निमित्त; मित्र-अमात्य ( बन्धु-बान्धवों ), जाति-बिरादरी के लोगों और रक्त सम्बन्धियों की पूजा के निमित्त, अपनी आरोग्य-दक्षिणा ( स्वास्थ्य-कामना ) के निमित्त यह सद्दान ( दक्षिणा ) निर्वाण प्रदान करे। कुछ विद्वान उरशकी का तात्पर्य उरश देश-निवासी से लेते हैं। हो सकता है इन्तप्रिय उरश देश का मूल निवासी हो। उसका पुत्र बाहलिक नवाजये में आकर रहने लगा हो।२ कुछ विद्वान बाहलिक का तात्पर्य बाह्लीक देश लेते हैं। यदि वस्तुतः ऐसा हो तो इन्तप्रिय के पुत्र का नाम क्या होगा और वह लेख में कहाँ है, यह विचारणीय हो जाता है।३ धर्मराजिका से यहाँ तात्पर्य स्तूप से है, ऐसा विद्वानों का अनुमान है। दिव्यावदान में कहा गया है कि धर्मराज अशोक ने ८४,००० धर्म-राजिकाएँ स्थापित करायी थीं। इससे प्रकट होता है कि धर्मराजिका कदाचित् ऐसे स्तूपों को कहते थे जो बुद्ध ( धर्मराज ) के अस्थि-अवशेषों पर निर्मित की गयी थीं।४ तक्षशिला रजतपत्र अभिलेख : महत्त्व धार्मिक महत्त्व बुद्ध के अवशेष की प्रतिष्ठा के उल्लेख के कारण इस अभिलेख का धार्मिक दृष्टि से जो महत्त्व है। साथ ही इसमें बौद्धधर्म से सम्बंधित कुछ पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग तक्षशिला रजतपत्र अभिलेख का महत्त्व और बढ़ा देता है। ये शब्द हैं :- बोधिसत्व, सर्व बुद्ध, प्रत्येक बुद्ध और अर्हत। इससे ज्ञात होता है कि बौद्ध धर्म में इनकी कल्पना इस अभिलेख के काल तक की जा चुकी थी। बोधिसत्व :- बुद्ध प्राप्ति की राह में लगे हुए बोधिसत्व कहलाते हैं। इनका स्थान गृहस्थ से ऊपर और बुद्ध से नीचे होता है। सर्व बुद्ध :- इसका अर्थ है मानुषी बुद्ध। इनकी संख्या आठ बतायी गयी है — शिखिन, कश्यप, कनकमुनि, क्रकुच्छंद, प्रभूतरत्न, रत्नसम्भव, विश्वभू और विपश्चिय। भरहुत स्तूप पर सप्त मानुषी बुद्धों का प्रतीकात्मक अंकन सात वृक्षों के रूप में मिलता है। प्रत्येक बुद्ध :- वे जो बिना बुद्ध के सहयोग के बुद्धत्व को उपलब्ध होने में सक्षम होते हैं। साथ ही वे किसी अन्य को बुद्ध बनने में सहायक भी नहीं बनते प्रत्येक बुद्ध कहलाते हैं। अर्हत :- ये रागद्वेष रहित व सर्वत्र पूजनीय होते हैं। इसके अतिरिक्त इसमें बोधिसत्त्व-गृह ( बोधिसत्व गहमि ) का उल्लेख विचारणीय है। बौद्धधर्म के अनुसार अस्थि-अवशेष मंजूषा में रख कर स्तूपों में प्रतिष्ठापित किये जाते थे। किन्तु यहाँ उनके बोधिसत्त्व-गृह में प्रतिष्ठापित किये जाने का उल्लेख है। मंजूषा, जिस पर यह लेख अंकित है वह किसी स्तूप में नहीं, वरन् एक कमरे में पीछे की दीवार के निकट जमीन में एक फुट नीचे मिला था। इससे ज्ञात होता है कि अस्थि-अवशेष स्तूप से भिन्न कमरे जैसे किसी वास्तु में भी प्रतिष्ठापित किये जाते थे। परन्तु ऐसी बात किसी अन्य सूत्र से ज्ञात नहीं होती। यहाँ इस वस्तु को बोधिसत्त्व-गृह कहा गया है। बोधिसत्त्व बुद्धत्व प्राप्ति से पूर्व की स्थिति है। बोधिसत्त्वों की मूर्तियाँ कुषाण काल में प्राप्त होती हैं। सम्भव है, बोधिसत्त्व की इन मूर्तियों को जिस स्थान पर प्रतिष्ठित करते रहे हों उन्हें बोधिसत्व-गृह कहते हों और ऐसे ही किसी गृह में यह अस्थि-मंजूषा प्रतिष्ठापित की गयी हो। बौद्धस्तूप के निर्माण का यहाँ उल्लेख है।इसके लिए ‘धमरइए’ शब्द का प्रयोग मिलता है।इसका अर्थ है धर्मराजिका स्तूप। परन्तु वोजेल ने इसका अर्थ किया है धर्मराजा अशोक द्वारा बनवाये गये स्तूपों में से एक। दूसरी ओर कोनो ने धर्मराजबुद्ध के अवशेष रखे जाने के लिए बने स्तूप के संदर्भ में इसका अर्थ लिया है। राजनीतिक महत्त्व इन धर्म-सम्बन्धी तथ्यों की अपेक्षा तक्षशिला रजतपत्र अभिलेख की चर्चा लेख में अंकित संवत्सर के साथ प्रयुक्त ‘अयस’ शब्द को लेकर की जाती रही है। जॉन मार्शल का कहना था कि ‘अयस’ अय का षष्ठी विभक्ति का रूप है और इसका प्रयोग यह व्यक्त करने के लिए किया गया है कि इस संवत्सर की स्थापना अय ( Azes ) ने की थी। इसे रैप्सन और रामप्रसाद चन्दा भी स्वीकार करते

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पंजतर अभिलेख

भूमिका पंजतर अभिलेख वर्तमान पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के बुनेर जिले में स्वात और सिन्धु नदी के बीच पहाड़ की तल में स्थित पंजतर नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। शैव धर्म से सम्बंधित यह अभिलेख खरोष्ठी लिपि और प्राकृत भाषा में है। पंजतर अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- पंजतर अभिलेख ( Panjtar Inscription ), कुषाण राजा का पंजतर प्रस्तर अभिलेख ( Panjtar Stone Inscription of a Kushan King ) स्थान :- पंजतर, बुनेर जिला, खैबर पख्तूनख्वा प्रांत, पाकिस्तान ( Panjtar, Buner district, Khyber Pakhtunkhwa, Pakistan ) भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- सं० १२२ ( ६५ ई० ) विषय :- महाराज कुषाण के राज्यकाल में मोयिक द्वारा शिव मंदिर का निर्माण और दो वृक्षों दान। विदेशियों के भारतीयकरण का साक्ष्य। पंजतर अभिलेख : संक्षिप्त परिचय १. सं १ [ + ] १०० [ + ] २० [ + ] १ [ + ] १ श्रवणस मसस दि प्रढमे १ महरयस गुषणस रजमि २. स्पसु अस प्रच— [ देशो ] मोइके उरुभुज-पुत्रे करविदे शिवथले [ । ] तत्र देमे ३. दनभि तरक १ [ + ] १ [ । ] पञकरे णेव अमत शिवथल रम….. म। संस्कृत अनुवाद संवत्सरे १२२ श्रावणमासस्य दिवसे प्रथमे महाराजस्य कुषाणस्य राज्ये स्वसुवस्य पूर्वभागः मोइकेन उरुमुज-पुत्रेण कारित शिवे मन्दिरम्। तत्र मे दाने द्वौ वृक्षौ। पुण्यकरं चिरस्थिकं शिवास्थानम्। हिन्दी अनुवाद संवत् १२२ के श्रावण मास के प्रथम दिन महाराज गुषण के राज्य [ के अन्तर्गत ] स्वसुव के पूर्व भाग में हुरमुजपुत्र मोयिक ने शिवस्थल बनवाया। वहाँ देमे? ने २ वृक्ष [ दान ] दिया। चिरस्थित ( अमृत ) शिवस्थल में पुष्यकार्य…..। पंजतर अभिलेख : विश्लेषण इस अभिलेख का निचला अंश खण्डित है। इसलिए तृतीय पंक्ति का तात्पर्य स्पष्ट नहीं हो पाया है। परन्तु पंक्ति २ से हुरमुजपुत्र मोयिक ( उरमुज-पुत्र मोयिक ) द्वारा शिवस्थल निर्माण कराये जाने की बात स्पष्ट है। इस तरह भारतीय उप-महाद्वीप के पश्चिमोत्तर प्रदेश ( वर्तमान अफगानिस्तान व पाकिस्तान; तत्कालीन गांधार और कम्बोज ) में शैव-धर्म के प्रचलित रहने का साक्ष्य मिलता है। इस संदर्भ में कुषाण-शासक विम-कदफिसेस ( ६५ – ७८ ई० ) के शैव मतानुयाई होने के कारण को सहज रूप में समझा जा सकता है। गुषण का अर्थ कुषाण है। खरोष्ठी लिपि में आ की मात्रा का अभाव पाया जाता है। प्राकृत भाषा में क को ग रूप में परिवर्तित पाया जाता है। इस तरह गुषण स्पष्टतः कुषाण का प्राकृत रूप है। अब प्रश्न यह है कि यह कौन से कुषाण शासक थे? कुषाण एक राजवंश था। इसलिए यह अभिलेख किसी कुषाण-शासक के शासनकाल का है। परन्तु कुषाण शासक के नाम का उल्लेख पंजतर अभिलेख में नहीं किया गया है। अतः यह निर्णय करना सहज नहीं है कि यह कुषाण-शासक कौन था। हाँ शैव धर्म से सम्बंधित होने के कारण अभिलेख में उल्लिखित शासक सम्भवतः विम कडफिसेस हो, परन्तु यह एक सम्भावना मात्र है।

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शोडास का मथुरा आयागपट्ट अभिलेख

भूमिका शोडास का मथुरा आयागपट्ट अभिलेख, मथुरा के कंकाली-टीला से प्राप्त हुआ है। जैन धर्म से सम्बंधित यह अभिलेख संस्कृत से प्रभावित प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में अंकित है। मथुरा आयागपट्ट अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम : मथुरा आयागपट्ट अभिलेख या मथुरापूजा अभिलेख ( Mathura Votive Tablet Inscription ), शोडासकालीन मथुरापूजा अभिलेख सम्वत् ७२ ( Mathura Votive Tablet Inscription of the time of Shodasa/Sodas – Year 72 ) स्थान :- कंकाली टीला, मथुरा; उत्तर प्रदेश भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित ) लिपि :- ब्राह्मी समय :- प्रथम शताब्दी ई०, अनिर्दिष्ट सम्वत् ७२ विषय :- जैन धर्म के लिए अयागपट्ट या पूजा शिला की स्थापना। जैन भिक्षु की शिष्या अमोहिनी द्वारा जैन आयागपट्ट ( Votive ) की स्थापना। मथुरा आयागपट्ट अभिलेख : मूलपाठ १. नम अरहतो वर्धमानस [ । ] २. स्व [ ा ] मिस महक्षत्रपस शोडासस संवत्सरे ७० [ + ] २ हेमंतमासे २ दिवसे ९ हरिति-पुत्रस पालस भयाये समन-स [ ा ] विकाये ३. कोछिये अमोहिनिये सहा पुत्रेहि पालघोषेन पोठघोषेन धनघोषेन आर्यवति [ प्र ] तिथापिता [ । ] प्रिय……….. ४. आयवंति अरहत-पूजाये [ । ] संस्कृत छाया नमः अर्हते वर्धमानाय। स्वामिनः महाक्षत्रपस्य शोडास्य संवत्सरे ७२ हेमंत मासे २ दिवसे ९ हारीतपुत्रस्य पालस्य भार्याया श्रमण-श्राविकया कौत्स्या अमोहिन्या सह पुत्रेहि पालघोषेण, पीठघोषेण, धनघोषेण आर्यवती प्रतिष्ठापिता। प्रियं आर्यवती अर्हत् पूजायै। हिन्दी अनुवाद १ – नमः अर्हत वर्धमान २ – स्वामी महाक्षत्रप शोडास के संवत्सर ७२ के हेमन्त के द्वितीय मास के दिवस ७ को हारीतिपुत्र पाल की भार्या श्रमण-श्राविका (जैन भिक्षु-शिष्या) के लिए ३ – कौत्स-गोत्रिया अमोहिनी ने अपने पुत्र पालघोष, पीठघोष और घनघोष सहित यह आर्यवती ( आयागपट्ट ) स्थापित किया। [ प्रिय भगवती ] ४ – अर्हत पूजा के निमित्त। ऐतिहासिक महत्त्व इस अभिलेख से मथुरा में जैन धर्म के अस्तित्व का परिचय मिलता है। पर इसका महत्त्व इस पर अंकित तिथि के कारण है। यह तिथि किस सम्वत् का प्रतीक है, यह अभी पूर्णत: निर्धारित नहीं किया जा सका है। परन्तु सम्वत् निर्धारण के लिए जो प्रयास हुए हैं उसमें यह तिथि समाधान में काफी सहायक समझा जाता है। अनुमान है कि यह प्राचीन शक-पह्लव सम्वत् का बोधक है, जिसे कुछ लोग विक्रम संवत्, जिसका आरम्भ ई०पू० ५७ से माना जाता है, अनुमान करते हैं। यह अभिलेख एक पाषाण फलक पर अंकित है। इसपर दासियों से घिरी एक रानी का दृश्य है। एक दासी छत्र लिए खड़ी है। यह धार्मिक प्रकृत का पूर्णरूपेण व्यक्तिगत अभिलेख है। यह अभिलेख जैन धर्म को समर्पित है। इसमें उल्लिखित आर्यवती शब्द का अर्थ है – अयागपट्ट या आपागपट्ट। यह एक ऐसा पट्ट होता है जिसपर अर्हत की प्रतिमा बनी होती है। कंकाली टीला को जैन धर्म का आगार ( Emporium ) माना जाता है। इसका कारण यह है कि कंकाली टीले से जैन धर्म से सम्बंधित विपुल सामग्री की प्राप्ति हुई है। इस टीले का नाम भी जैन धर्म की ६४ योगिनियों में से एक के नाम ‘कंकाली’ के ही नाम पड़ा है। इस अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि शक-क्षत्रपों के शासनकाल में मथुरा में जैन धर्म उन्नत अवस्था में था। मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख में शोडास का उल्लेख एक युवराज के रूप में किया गया है और उसको क्षत्रप कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि शोडास जो कि राजूल ( राजवुल ) का पुत्र था। वह राजूल के बाद शासक ( महाक्षत्रप ) बना।

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मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख

भूमिका मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख प्राकृत भाषा और खरोष्ठी लिपि में है। यह अभिलेख उत्तर प्रदेश के के मथुरा जनपद से मिला है जोकि वर्तमान में लंदन के ब्रिट्रिश संग्रहालय में रखा गया है। यह सिंह स्तम्भ लाल बलुआ पत्थर ( Red Sandstone ) का बना है। यह अभिलेख अव्यवस्थित ढंग लिखा हुआ है जिससे कि इसका उद्वाचन कठिनाई उत्पन्न करता है। अभिलेख-विशारदों ने उसे खंडों में बाँटकर पढ़ने और फिर इन खंडों का तारतम्य बिठाकर व्यवस्थित करके प्रस्तुत करने करने का प्रयास किया है। मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख ( the Mathura Lion Capital Inscription ) स्थान :- मथुरा, उत्तर प्रदेश। वर्तमान में यह लंदन के ब्रिट्रिश संग्रहालय में रखा है। भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- प्रथम शताब्दी विषय :- शक महाक्षत्रप की शासनप्रणाली का ज्ञान, बौद्ध सम्प्रदाय सर्वास्तिवादी व महासंघिक का उल्लेख मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख : मूलपाठ प्रथम (क१) (१) महक्ष [ त्र ] वस रजुलस (२) अग्रमहेषि अयसिअ (३) कमु [ स ] अ धित्र (४) स्वर्र ( र्ह? ) ओस्तस युवरञ (५) मत्र नददि ( सि? ) अकस [ ए? ] (क२) (६) सध मत्र अबुहोल [ ए ] (७) पित्रमहि पिश्प्रस्त्रिअ भ्र- (८) त्र हयुअरन सध हन धि [ त्र ] (९) अतेउरेन होरक-प- (१०) रिवरेन इश्र प्रदूवि-प्रत्रे- (११) श्रे निसिमे शरिर प्रत्रिठवित्रो (१२) भक्रवत्रो शकमुनिस बुधस (१३) म ( ? ) किहि ( ? ) र ( त? ) य सश्प [ अ ] भुसवित ( ? ) (१४) ध्रुव च सधरम च चत्रु- (१५) दिवस सघस सर्व- (१६) स्तिवत्रन परिग्रहे [ ॥ ]१ (ग) (१) कलुइ-अ- (२) वरजो (घ) (१) नउलुदो [ । ]   द्वितीय (ख) (१) महक्षत्रवस (२) वजुलस्य२ पुत्र३ (३) शुडसे क्षत्रवे४ (च१) (१) खर्र ( र्ह ) ओस्तो युवरय (२) खलमस कुमार (३) मंज कनिठ (४) समनमोत्र- (२) (१) क्र [ । ] करित ( ड, ढ़ ) ( १ ) अयरिअस (२) बुधत्रेवस (३) उत्रएन अयिमित ( स ? )- (झ१) (१) गुहविहरे (झ२) (१) धमदन ( ? ) (छ) (१) बुधिलस नक्ररअस (२) भिखुस सर्वस्तिवत्रस [ । ] (ज) (१) महक्ष [ त्र ] वस्य कुसुलअस पदिकस मेव ( ? ) किर (२) मियिकस क्षत्रवस पुयए [ ॥ ] (च३) (१) कमुइओ [ । ] तृतीय (ण) (१) क्षत्रवे शुडिसे (२) इमो पढ्रवि- (३) प्रत्रेश्रो (ट) (१) वेयउदिन कधवरो बसप- (२) रो कध- (३) वरो (४) वियउ- (ठ) (१) र्व……..पलिछिन ( ? ) (२) निसिमो करति नियत्रित्रो (३) सर्वस्तिवत्रन परि ( ? ) ग्रहे (त) (१) अयरिअस बुधिलस नकरकस भिखु- (२) स सर्वस्तिवत्रस पग्र- (३) न महसघिअन प्र- (४) म ( ? ) ञ-वित्रवे खलुलस ( ॥ ) (थ) (१) सर्वबुधन पुय [ । ] धमस (२) पुय [ । ] सघस पुय [ । ] (द) (१) सर्वस सक्रस्त (२) नस पुयए [ । ] (ध) (१) खर्दअस (२) क्षत्रवस [ । ] (न) (१) रक्षिलस (२) क्रोनिनस [ । ] (ठ१) (१) खलशमु- (२) शो [ । ] स्टेन कोनो इसके बाद खण्ड च रखते हैं जो यहाँ समूह २ में रखा गया है।१ रजुलस्य पढ़ा जाना चाहिए।२ स्टेन कोनो इसके बाद खण्ड य को रखते हैं।३ स्टेन फोनो इसके बाद खण्ड घ को रखते हैं।४ हिन्दी अनुवाद प्रथम ( क१) महाक्षत्रप राजुल की अग्रमहिषी, आयस कोमूसा की पुत्री; युवराज खरवस्त की माता, नददियक५ ने ( क२ ) अपनी माता आबुहोलिया, पितामही पिश्पस्पा, भाई हयुअरन के साथ, पुत्री हन [ और ] अन्त:पुर के होरक परिवार के साथ इस पृथ्वी प्रदेश में ( स्थान पर ) निःसीम ( स्तूप ) में भगवान् शाक्यमुनि बुद्ध का शरीर ( देहावशेष ) सबके मुक्ति निमित्त उत्थापित ( प्रतिष्ठित ) किया ………. ६ स्तूप और संघाराम को चारों दिशाओं के ( समस्त ) सर्वास्तिवादियों को प्रदान किया। ( ग ) कालुय्यवर [ और ] (घ) नवूलूद [ ने इसका निर्माण किया अथवा इसे लिखा ? ]। द्वितीय ( ख ) महाक्षत्रप राजुल पुत्र क्षत्रप शोडास [ आदेश करते हैं ] [ और ] ( च ) युवराज खरवस्त, कुमार खलामस, कनिष्ठ [ सबसे छोटे भाई ] मच इसका अनुमोदन करते हैं- ( ड, ढ़ ) आचार्य बुद्धदेव के शिष्य उदयन अजमित्र ( ? ) के ( झ ) गुहाविहार के धर्मदान को। ( छ ) सर्वास्तिवादिन भिक्षु नगर निवासी बुधिल को। ( ज ) महाक्षत्रप कुसुलक के पतिक के, मेनिक के, मियक के पूजा स्वरूप ( च३ ) कामूयिय [ ने इसको लिखा ? ]। तृतीय ( ण ) क्षत्रप शोडास [ आदेश देते हैं ] -इस प्रदेश में ( ट, ठ ) विजयोदीर्ण स्कन्धावार और पुसापुर स्कन्धावार [ में ] स्थित विजयोर्व…..परीक्षिण ( नामक पुरुष ) ने निःसीम ( स्तूप ) बनवाया और ( उसे ) सर्वास्तिवादियों को दिया ( त ) आचार्य नगर-निवासी भिक्षु बुधिल को प्रदान किया ताकि महासांधिकों को सत्य की शिक्षा दें७ ( थ ) सर्व बुद्ध की पूजा, धर्म की पूजा, संघ की पूजा। ( द ) सर्व-शक संस्थान की पूजा के निमित्त ( ध, न ) क्षत्रप खर्दक के, रक्षिल के और क्रोणिन के [ पूजा के लिए ]। (ठ १) खलमुख [ ने लिखा ? ]। स्टेन कोनो ने इसको इस प्रकार ग्रहण किया है-महाक्षत्रप राजुल की अग्रमहिषी, अवसिय कमुइया, युवराज खरोस्ट की पुत्री, नददियक की माता। इस अर्थ के प्रस्तुत करने में उनका तर्क यह है कि नददियक का नाम अग्रमहिषी से दूर है। किन्तु यह कोई तर्क नहीं है। संगत क्रम यही है कि पूर्व सम्बन्धियों का उल्लेख कर तब अपने नाम का परिचय दिया जाय।५ पंक्ति १३ का पाठ स्पष्ट नहीं है।६ इस पंक्ति का अर्थ बहुत स्पष्ट नहीं है।७ विश्लेषण क्रमबद्ध पंक्तियों के अभाव में लेख व्यवस्थित ढंग से नहीं पढ़ा जा सका है। यद्यपि निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता, परन्तु प्रतीत होता है कि इसमें तीन स्वतन्त्र लेख हैं इसी रूप में विद्वानों ने मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख का अनुवाद प्रस्तुत किया है। प्रथम लेख से प्रकट होता है कि महाक्षत्रप राजुल ( रजुबुल ) की अग्रमहिषी ने अपने कतिपय सम्बन्धियों के सहयोग से बुद्ध के अवशेष पर स्तूप का निर्माण करवाया था। साथ ही यह भी प्रकट होता है कि स्तूप और संघाराम को उसने सर्वास्तिवादी सम्प्रदाय को भेंटस्वरूप

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तख्तेबाही अभिलेख ( Takht-i-Bahi Inscription )

भूमिका तख्तेबाही अभिलेख पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के मरदान जनपद में है। यह अभिलेख खरोष्ठी लिपि और प्राकृत भाषा में लिखा हुआ है। इस अभिलेख के शिला का प्रयोग पीसने के लिए सिल के रूप में होता था जिसके कारण इसकी तीसरी, चौथी और पाँचवीं पंक्तियाँ घिस गयी हैं और उनका पाठ अनेक स्थलों पर संदिग्ध है। यह अभिलेख लाहौर संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। तख्तेबाही अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- तख्तेबाही अभिलेख या तख्त-ए-बाही अभिलेख ( Takht-i-Bahi Inscription ) या गोण्डोफरनीज का तख्त-ए-बाही अभिलेख ( Takht-i-Bahi Inscription of Gondopohernees ) स्थान :- मरदान जिला, खैबर पख्तूनख्वा प्रांत, पाकिस्तान ( Mardan, Khyber-Pakhtunkhwa, Pakistan ) भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- प्रथम शताब्दी ई० विषय :- राजा द्वारा अपने माता-पिता के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए दान का विवरण विशेष :- तख्त-ए-बाही एक विश्व धरोहर स्थल है। तख्त-ए-बाही का शाब्दिक अर्थ है – ‘पानी के झरने का सिंहासन’ ( throne of the water spring. )। गोण्डोफरनीज / गोण्डोफर्नीज ( Gondophernees ) पह्लव शासक था और तख्तेबाही अभिलेख उसके सम्बन्ध में सूचना देनेवाला एकमात्र अभिलेख है। तख्तेबाही अभिलेख : मूलपाठ १. महरयस गुदुव्हरस वष २० [ + ] ४ [ + ] १ [ + ] १ २. संब [ त्सरए ] [ ति ] शतिमए १ [ + ] १०० [ + ] १ [ + ] १ [ + ] १ वेशखस मसस दिवसे ३. [ प्रठमे ] [ पुञे ] [ ब ] [ ह ] ले पक्षे बलसमिस [ बो ] यणस ४. [ परि ] वर शध-दण स-पुअस केणमिर बोअणस ५. एर्झुण कप …… स पुअए [ । ] मदु- ६. पिदु पुअए [ । ] संस्कृत छाया महरजस गुदुह्वरस्य राज्य वर्षे २६ सम्वत्सरे १०३ वैशाखस्य मासस्य प्रथमे दिवसे पुण्य बहुल पक्षे बलस्वामिने वोयनस्य प्राकारः श्रद्धा दानं सुपुत्रस्य केनमिर वोयनस्य एर्झुन कपस्य च पूजायै, मातापित्रोः पूजायै ( समाननाय )। हिन्दी अनुवाद महाराज गुदुव्हर ( गुदूफर ) के राज्य वर्ष २६१ [ तथा ] संवत् १०३२ के वैशाख मास के प्रथम पुण्य दिवस बहुल पक्ष३ में बोयण के परिवार४ के बलस्वामी५ का यह श्रद्धा-दान पुत्रों सहित केनमिर-बोयन और एर्जुन६ ( कुमार ) कम के पुजा ( सम्मान ) के लिए, माता-पिता के पूजा ( सम्मान ) के लिए है। यहाँ खरोष्ठी की अंक-पद्धति के अनुसार २६ के लिए २० और उसके बाद ६ के लिए ४, १, १, लिखा गया है।१ इसमें १०० के बोध के लिए सौ के चिह्न से पूर्व १ का अंकन उल्लेखनीय है। तीन के लिए तीन बार १ का प्रयोग हुआ है।२ बहुल पक्ष शुक्ल पक्ष के लिए प्रायः लेखों में प्रयुक्त पाया जाता है।३ बलस्वामी बोयन के क्रम में व्यक्तिवाचक अनुमान किया जा सकता है। किन्तु आगे उल्लिखित केनमिर-बोयन को देखते हुए संस्कृतनिष्ठ भारतीय नाम की सम्भावना नहीं जान पड़ती है। अतः यहाँ बलस्वामी विशेषण ही जान पड़ता है और वह सम्भवतः पदबोधक है और इसका अभिप्राय सेनापति से है।४ मूल पाठ [ परि ] वर के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो परिवार के निकट है। इसका सीधा-सादा अर्थ कुल न लेकर स्टेन कोनो ने enclosure, enclosed hall, chapter अथवा chapel किया है। दिनेशचन्द्र सरकार ने उसे प्राकार के अर्थ में ग्रहण किया है और उसका अभिप्राय क्षुद्रवास-गृह बताया है।५ इस एर्जुन उपाधि का प्रयोग मथुरा से प्राप्त एक बुद्धमूर्ति अभिलेख में भी हुआ है।६ तख्तेबाही अभिलेख : विश्लेषण इस अभिलेख में महाराज गुदुव्हर ( गुदूफर ) का उल्लेख है जो दक्षिणी अफगानिस्तान का पह्लव शासक था। उसने सिन्धु घाटी तक अपने राज्य का विस्तार किया था। ईसाई अनुश्रुतियों के अनुसार यह भारत और पार्थिया के सन्त थॉमस का समकालिक कहा जाता है। सन्त थॉमस का भारत में आगमन गोण्डोफर्नीज के शासनकाल में हुआ था। वे ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए आये थे। बाद में वे दक्षिण भारत चले गये थे। ईसाई अनुश्रुतियों के अनुसार दक्षिण भारत में उनकी हत्या कर दी गयी। सन्त थॉमस ईसा मसीह के १२ शिष्यों में से एक थे। गुदुव्हर के सिक्के भी बड़ी मात्रा में प्राप्त होते हैं और उनके आधार पर वह अय ( द्वितीय ) ( Azes II ) का उत्तराधिकारी अनुमान किया जाता है। इस लेख को विशेषता यह है कि इसमें गुदुव्हर के राजवर्ष के साथ-साथ एक अन्य संवत्सर का भी उल्लेख ठीक उसी प्रकार हुआ है जिस प्रकार परवर्तीकालीन गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल के मथुरा स्तम्भलेख में हुआ है। इस संवत्सर का आरम्भ कब हुआ अभी तक निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता। लोग इसे मथुरा के शोडाससकालीन अभिलेख के सम्वत् ७२ और पतिक के तक्षशिला ताम्रलेख के सम्वत् ७८ के क्रम में ही अनुमान करते रहे हैं। दूसरी ओर डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त जी की धारणा है कि यह इन दोनों अभिलेखों के क्रम में न होकर बाजौर अस्थि-मंजूषा अभिलेख के वर्ष ६३ के क्रम में है। इस धारणा का आधार उक्त अभिलेख में उल्लिखित अप्रचराज विजयमित्र और इत्रवर्मन के साथ कतिपय सिक्कों पर अंकित अपचराज इत्रवर्मन और उसके पिता विजयमित्र की पहचान है। इत्रवर्मा के पुत्र के रूप में अस्पवर्मा का उल्लेख कुछ सिक्कों पर हुआ है और वह अय-द्वितीय और गुदूफर के अन्तर्गत स्त्रतग ( Stratogas ) के रूप में जाना-पहचाना है। इस प्रकार हमारे सम्मुख एक क्रम में तीन अप्रचराज इस प्रकार हैं — विजयमित्र = अय — वर्ष ६३    ⇓ इत्रवर्मा    ⇓ अस्पवर्मा = गुदूफर = ७७ ( १०३-२६ = ७७ ) (अज्ञात संवत्) अय वर्ष ६३ में जब बाजौर मंजूषा प्रतिष्ठापित की गयी उस समय इत्रवर्मा कुमार था और उस समय तक उसके पिता विजयमित्र के शासन के २५ वर्ष हो चुके थे। अतः यह सहज अनुमान किया जा सकता है कि एक-दो वर्ष के भीतर ही वह अप्रचराज हुआ होगा। उस समय वह स्वयं काफी वयस्क रहा होगा। यह अनुमान करना अनुचित न होगा कि उसका पुत्र अस्पवर्मा भी उस समय तक युवा हो गया होगा। इस प्रकार वह किसी भी समय अय (द्वितीय) और उसके बाद गुदूफर के अधीन स्त्रतग हो सकता था। गुदूफर का शासन वर्ष ७७ में आरम्भ हुआ था पर आवश्यक नहीं कि शासक होने के साथ ही उसने अय के राज्य-क्षेत्र पर अधिकार किया हो। इस प्रकार स्पष्ट है कि तख्तेबाही के इस अभिलेख की तिथि को

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