अभिलेख

विष्णुगुप्त का नालंदा मुद्रालेख

भूमिका नालंदा के उत्खनन में बहुत सारी मुद्रएँ प्राप्त होती है उन्हीं में से यह भी एक है। विष्णुगुप्त का नालंदा मु्द्रालेख उनमें से एक है परन्तु यह खंडित अवस्था में है। संक्षिप्त परिचय नाम :- विष्णुगुप्त का नालंदा मु्द्रालेख स्थान :- नालंदा, बिहार भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्तकाल, विष्णुगुप्त का शासनकाल विषय :- परवर्ती गुप्तराजवंशावली। मूलपाठ १. [महादेव्यामनन्त देव्यामुत्पन्नो] म[हाराजा][ि]धर[ा]ज श्री[पूरुगुप्तस्तस्य पुत्रस्तत्पादा]- २. [नुध्यातो महादेव्यां श्री चन्द्रदेव्यामुत्पन्नो म]हाराजाधिराज श्री नरसिंह[गुप्त]स्तस्य पुत्रस्तत्पादानु[द्ध्यातो] ३. [महादेव्यां श्री मित्रदेव्यामुत्पन्नो महा]राजाधिराज श्री कुमारगुप्तस्तस्य पुत्रस्तपादानुध्यातो [महा]- ४. [देव्यां श्री — — — — देव्यामुत्प]नः परमभागवतो महाराधिराज श्री विष्णुगुप्त। हिन्दी अनुवाद [महादेवी अनन्तदेवी से उत्पन्न] महाराजाधिराज [श्री पूरुगुप्त; उनके पुत्र एवं पादानुध्यात [महादेवी. श्री चन्द्रदेवी से उत्पन्न] महाराजाधिराज श्री नरसिंहगुप्त; उनके पुत्र एवं पादानुध्यात [महादेवी श्री मित्रदेवी से उत्पन्न] महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त; उनके पुत्र एवं पादानुध्यात [महादेवी श्री देवी से उत्पन्न] परम भागवत महाराजाधिराज श्री विष्णुगुप्त। टिप्पणी विष्णुगुप्त का नालंदा मु्द्रालेख की छाप का यह खण्डित अवस्था में है। यह कुमारगुप्त (तृतीय) की मुहर में अंकित लेख के समान ही रहा होगा। अतः उसी के आधार पर अवशिष्ट अंश का संरक्षण किया गया है। अनुमान होता है कि उक्त लेख के अनुसार आरम्भ की पाँच पंक्तियाँ नहीं हैं, अतः उपलब्ध अंश को छठी पंक्ति मानकर यह मुहर वंश-क्रम की एक अगली पीढ़ी का परिचय देती है। इससे यह बात ज्ञात होती है कि विष्णुगुप्त कुमारगुप्त (तृतीय) का पुत्र था। उसकी माता का नाम अनुपलब्ध अंश में रहा होगा उसके अभाव में उसके सम्बन्ध की कोई जानकारी उपलब्ध करने का सम्प्रति कोई साधन नहीं है। विद्वानों ने इसकी पंक्ति को ६ से प्रारम्भ करके ९ तक माना है। हमने इसको १ से ४ तक क्रमांक दिया है। विष्णुगुप्त का दामोदरपुर ताम्रलेख (पाँचवाँ) गुप्त सम्वत् २२४ (५४३ ई० ) नालंदा विश्वविद्यालय

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विष्णुगुप्त का दामोदरपुर ताम्रलेख (पाँचवाँ) गुप्त सम्वत् २२४ (५४३ ई० )

भूमिका विष्णुगुप्त का दामोदरपुर ताम्रलेख अपने क्रम में सुविधा के लिये ५वें क्रमांक पर रखा गया है। यह भी अपने पूर्ववर्ती ताम्रपत्रों तरह भूमिदान और भूमि प्रशासन से सम्बन्धित जानकारी का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसको राधागोविन्द बसाक बसाक महोदय ने प्रकाशित किया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- विष्णुगुप्त का दामोदरपुर ताम्रलेख अभिलेख – ५  ( Damodarpur Copper Plate Inscription -5 Of Vishnugupta ) स्थान :- दामोदरपुर, उत्तरी बाँग्लादेश का रंगपुर जनपद। भाषा :- प्राकृत से प्रभावित संस्कृत लिपि :- परवर्ती ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् २२४ ( ५४३ ई० ) विषय :- भूमि क्रय करके से सम्बन्धित, विषय की प्रशासनिक जानकारी का स्रोत। मूलपाठ एक ओर १. स[म्व] २०० (+) २० (+) ४ भाद्र-दि ५ परमदैवत-परमभट्टारक-म[हा] राजाधिराज- श्री विष्णु]- २. गुप्ते पृथिवीपतौ तत्पाद-परिगृहीते पुण्ड्रवर्द्धन-भुक्तावुपरि[क-महाराज]स्य[महा]- ३. राजपुत्र- देवभट्टारकस्य हस्त्यश्च जन-भोगेनानुवहमा [न] के को [वि]र्ष-विष[ये]च त- ४. न्नियुक्तकेह-विषयपति-स्वयम्भुदेवे अधिष्ठानाधिकरणं आर्य्य[न]गर [श्रेष्ठि-रिभु] पाल ५. सार्थवाह- स्थाणुदत्त प्रथमकुलिक-मतिदत्त प्रथमकायस्थ-स्कन्दपाल पुरोगे [स]व्य][वह]रति ६. आयोध्यक-कुलपुत्रक-अमृतदेवेन विज्ञापितमिह विषयेसमुदयबाह्यप्रहत-खिल-[क्षे]त्रा- ७. णां त्रिदीनारिक्य-कुल्यवाप-विक्रयो(ऽ)नुवृत्तः[I] तदर्हथ मत्तो दीनारानुपसंगृह्य मन्मातुः [पु]ण्या- ८. भिवृद्धये अत्रारण्ये भगवतः श्वेतवराहस्वामिनो देवकुले खण्ड-[स्]फुट-प्रति-[सं.] स्का [र]-[क]- ९. रणाय-बलिचरुसत्रप्रवर्त्तन-गव्यधूपष्ःप्रापण-मधुपर्कदीपाद्युप[यो]गा-[य] च १०. अप्रदा- धर्म्मेण ताम्रपट्टीकृत्य क्षेत्र स्तोकन्दातुमिति [I] यतः प्रथमपुस्तपाल नर[न]न्दि- ११. गोपदत्त-भटनन्दिनामवधारणया युक्ततया ध[र्म्माधि]कार-[बु]द्धया विज्ञापितं [नो] कार्यो १२. विषय-पतिनां कश्चिद्विरोधः केवलं श्री परमभट्टारकपादेन धर्म्म[फल-ष] १३. ड्मा वा [गातिः] दूसरी ओर १४. इत्यानेनावधारण क्रमेण एतस्मादमृतदेवात्पञ्चदश-दीनारनुपसंगउह्य एतन्मातुः १५. अनुग्रहेण स्वच्छन्दपादके(ऽ)[र्द्ध)टी-प्रावेश्य-लवङ्गसिकायाञ्च वास्तुभिस्सह कुल्यवाप-द्वयं १६. साटुवनाश्रमके(ऽ)पि वास्तुना सह कुल्यवाप एकः परस्पतिकायां पञ्च-कुल्यवापकस्योत्त[रे]ण १७. जम्बून[द्या]: पूर्व्येण कुल्यवाप एकः पूरणवृन्दिकहरौ-पाटक पूर्वेण कुल्यवाप एकः इत्येवं खिल क्षेत्र- १८. स्य वास्तुना सह पञ्च कुल्यवापाः अप्रदा-धर्म्मेण भग[व]ते श्वेतवराहस्वामिने शश्वत्कालभोग्या दत्ताः [।] १९. तदुत्तरकालं संव्यवहारिभिः देवभक्तयानुमन्तव्याः [।] अपि च भूमि-[दा]न सम्बद्धाः श्लोका भवन्ति [I] २०. स्व-दत्तां पर-दत्ताम्वा यो हरेत वसुन्धरां [।] स विष्ठायां क्रिमिर्भुत्वा पितृभिस्सह पच्यते [॥] बहुभिर्व्वसुधा दत्ता २१. राजभिस्सगरादिभिः [।] यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं [॥] षष्टिं वर्ष्ष-सहस्राणि स्वर्गे मोदति भूमिद [।] २२. आक्षेप्ता चानुमन्ता च तान्येव नरके वसेदिति [॥] हिन्दी अनुवाद संवत् २२४ भाद्र (मास), दिवस ५ पृथ्वीपति महाराजाधिराज श्री [विष्णु] गुप्त के पाद-परिगृहीत, पुण्डवर्धन भुक्ति के उपरिक, महाराज पुत्र देव भट्टारक के हस्ति, अश्व, जन से परिपूरित कोटिवर्ष-विषय में नियुक्त विषयपति, स्वयंभूदेव का अधिकरण। नगरश्रेष्ठि रिभुपाल, सार्थवाह स्थाणुदत्त, प्रथम-कुलिक मतिदत्त, प्रथम- कायस्थ स्कन्दपाल के सम्मुख अयोध्या के कुल पुत्र (निवासी) अमृतदेव ने निवेदन प्रस्तुत किया है कि इस विषय के अन्तर्गत जो समुदयबाह्य अप्रहत खिल-क्षेत्र है, उसे तीन दीनार कुल्यवाप की दर से क्रय करने की अनुमति दी जाय ताकि वे उसे क्रय करके अपनी माता की पुण्य वृद्धि के लिए इस अरण्य (जंगल) में स्थित भगवान् श्वेतवराहस्वामी के मन्दिर को दे सकें [और उस भूमि की आय] देवकुल (मन्दिर) के टूटने-फूटने पर मरम्मत, चरु, सत्र के चलाने और पूजा के निमित्त गव्य, धूप, प्रापण, मधुपर्क, दीप आदि के लिए उपयोग किया जाय। इस भूमि को स्थानान्तरीयण न करने के नियम के अन्तर्गत ताम्र-पट्ट पर निबन्धित किया जाय प्रथम पुस्तपाल नरनन्दिन, गोपदत्त, भट्टनन्दिन से समुचित जानकारी प्राप्त कर धर्मानुकूल इसे विज्ञापित करें। यदि विषयपति को इसमें कुछ आपत्ति हो, तो इसका निर्णय परमभट्टारक (राजा) करें। जाँच हो जाने के बाद अमृतदेव से पन्द्रह दीनार लेकर स्वछन्दपाटक के अन्तर्गत अर्धटी में सम्मिलित (प्रावेश्य) लवंगसिका में निवास-भूमि (वास्तु) सहित दो कुल्यवाप, साट्वनाश्रम में निवास भूमि सहित (वास्तु) एक कुल्यवाप, परस्पतिकाय में पंच-कुल्यवाप, उसके उत्तर जम्बु नदी के पूर्व एक कुल्यवाप; पूरणवृन्दिकहरी पाटक के पूर्व एक कुल्यवाप, कुल पाँच कुल्यवाप वास्तु सहित खिल क्षेत्र अप्रदा-धर्म के अनुसार भगवान् श्वेतवराहस्वामी के शाश्वतकालीन भोग के लिए दिया गया। आगे होनेवाले सम्व्यवहारियों को देव-भक्ति के साथ इसका अनुमोदन करना चाहिये। भूमि-दान के सम्बन्ध में श्लोक भी है — जो स्व-प्रदत्त अथवा पर-दत्त भूमि का हरण करता है, वह पितरों सहित कृमि बनकर विष्ठा में निवास करता है। सगर आदि बहुत से राजाओं ने दान किया है। जिसने भी जिस रूप में दान किया, उसे उसी रूप में फल प्राप्त होगा। भूमि-दान करनेवाला साठ हजार वर्ष तक स्वर्ग का भोग करता है। जो उसमें आक्षेप करता है और जो उस आक्षेप से सहमति प्रकट करता है वह उसी अवधि तक नरक में वास करता है। दामोदरपुर ताम्रपत्र प्रथम दामोदरपुर ताम्रलेख द्वितीय दामोदरपुर ताम्रपत्र तृतीय दामोदरपुर ताम्रपत्र चतुर्थ

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कुमारगुप्त तृतीय का भीतरी व नालंदा मुद्रालेख

भूमिका १८८६ ई० के आसपास गाजीपुर (उत्तर प्रदेश) जनपद में सैदपुर के निकट भीतरी ग्राम में मकान के लिए नींव खोदते समय ताँबा-चाँदी मिश्रित धातु की बनी एक मुहर मिली थी। उसे कानपुर के न्यायाधीश सी० जे० निकोल्स को किसी सज्जन ने भेंट की थी। वह अब लखनऊ के राजकीय संग्रहालय में है। उसमें ६२.६७ प्रतिशत ताँबा, ३६.२२५ प्रतिशत चाँदी तथा सोने की हलकी सी झलक है। आकार में यह अण्डाकार, ऊपर-नीचे नुकीली, पौने छ इञ्च लम्बी और साढ़े चार इञ्च चौड़ी है। सर्वप्रथम इस मुहर का उल्लेख विंसेंट स्मिथ ने किया था। उनके साथ ही ए० एफ० आर० हार्न ने भी उसे प्रकाशित किया। तत्पश्चात् जे० एफ० फ्लीट ने उसके सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किये और उसे सम्पादित कर प्रकाशित किया । यह मुहर दो भागों में विभक्त है। ऊपरी भाग में पंख फैलाये गरुड़ का सम्मुख उभरा हुआ अंकन है उनका मानवरूपी मुख भरा हुआ और चौड़ा है, ओठ मोटे हैं; गले में साँप लिपटा हुआ है; उसका फण बायें कन्धे पर उठा हुआ है। गरुड़ के एक ओर चक्र और दूसरी ओर शंख है। अधोभाग में अभिलेख है। भीतरी की इस मुहर की तरह की साढ़े चार इञ्च लम्बी और तीन इञ्च चौड़ी मुहर की मिट्टी की दो छापें नालन्द (बिहार) के उत्खनन में प्राप्त हुई हैं। इनमें एक तो काफी सुरक्षित है, केवल उसका दाहिना किनारा और पीठ का कुछ भाग क्षतिग्रस्त है; दूसरी छाप खण्डित है; उसका केवल आधा दाहिना भाग ही उपलब्ध है। मिट्टी की इन दोनों छापों तथा भितरी धातु-मुहर के अभिलेख पंक्तिवत् एक समान हैं। संक्षिप्त परिचय नाम :- कुमारगुप्त तृतीय का भीतरी मुद्रालेख और नालंदा मुद्रालेख स्थान :- भीतरी, गाजीपुर जनपद; उ० प्र० और नालंदा, बिहार भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्तकाल, कुमारगुप्त तृतीय का शासनकाल विषय :- भीतरी मुद्रालेख और नालंदा मुद्रालेख दोनों में गुप्त राजवंश का विवरण मिलता है। मूलपाठ १. सर्व्वराजोच्छेत्तु पृथिव्यामप्रतिरथस्य महाराज श्री गुप्त प्रपौत्रस्य महाराज श्री घटोत्कच पौत्रस्य महा- २. राजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त पुत्रस्य लिच्छवि-दौहित्रस्य महादेव्यां कुमारदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराज ३. श्री समुद्रगुप्तस्य पुत्रस्तत्परिगृहीतो महादेव्यां दत्तदेव्यामुत्पन्नस्स्वयंचा-प्रतिरथ परमभाग ४. वतो महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्तस्तस्य पुत्रस्तत्पादानुद्ध्यातो महादेव्यां ध्रुवदेव्यामुत्पन्नो महारा- ५. जाधिराज श्री कुमारगुप्तस्तस्य पुत्रस्तत्पादानुद्ध्यातो महादेव्यामनन्तदेव्यामुत्पन्नो महारा ६. जाधिराज श्री पूरुगुप्तस्तस्य पुत्रस्तत्पादानुद्ध्यातो महादेव्यां श्री चन्द्रदेव्यामुत्पन्नो महा- ७. राजाधिराज श्री नरसिंहगुप्तस्तस्य पुत्रस्तत्पादानुद्ध्यातो महादेव्यां श्रीमन्मित्र दे- ८. व्यामुत्पन्न परमभागवतो महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्तः [।] हिन्दी अनुवाद सर्वराजोच्छेता (समस्त राजाओं का उन्मूलन करनेवाला) पृथ्वी पर अप्रतिरथ ( जिसके समान कोई दूसरा न हो), महाराज श्री गुप्त के प्रपौत्र, महाराज घटोत्कच के पौत्र, महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के पुत्र, लिच्छवि-दौहित्र, महादेवी कुमारदेवी के गर्भ से उत्पन्न महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त; उनके महादेवी दत्तदेवी [के गर्भ] से उत्पन्न पुत्र तथा उनके द्वारा परिगृहीत, स्वयं भी अप्रतिरथ, परमभागवत महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त; उनके पुत्र (तथा) उनके पादानुध्यात, महादेवी ध्रुवदेवी [के गर्भ] से उत्पन्न महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त, [उनके पुत्र] [तथा] पादानुध्यात महादेवी अनन्तदेवी [के गर्भ] से उत्पन्न महाराजाधिराज श्री पूरुगुप्त; उनके पुत्र [तथा] पादानुध्यात, महादेवी श्री चन्द्रदेवी [के गर्भ] से उत्पन्न महाराजाधिराज श्री नरसिंहगुप्त; उनके पुत्र तथा पादानुध्यात महादेवी श्रीमती मित्रदेवी [के गर्भ] से उत्पन्न परमभागवत महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त। नालन्दा मुद्रालेख वैन्यगुप्त का नालंदा मुद्राभिलेख स्कंदगुप्त का भीतरी स्तम्भलेख

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नालन्दा मुद्रालेख

भूमिका नरसिंहगुप्त का ‘नालन्दा मुद्रालेख’ नालंदा के ही उत्खनन में मिट्टी पर छपी एक मुहर की छाप प्राप्त हुई है। संक्षिप्त परिचय नाम :- नरसिंहगुप्त का नालन्दा मुद्रालेख स्थान :- नालन्दा बिहार भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्तकाल, नरसिंहगुप्त का शासनकाल विषय :- गुप्त राजवंश की वंशावली मूलपाठ १. [सर्व्वराजोच्छेतुपृथिव्या]मप्रतिस्थस्य महाराज श्रीगुप्त प्रपौत्रस्य महाराज श्रीघटोत्कच [पौ]- २. [त्रस्य महाराजाधिरा]ज श्रीचन्द्रगुप्त पुत्रस्य [लि]च्छवि दौहि[त्र]स्य महादेव्यां कुमारदेव्यामुत्पन्न[-] ३. [स्य महाराजाधिरा]ज श्रीसमुद्रगुप्तस्य पुत्रस्तत्प[रि] गृहीतो महादेव्यान्दत्तदेव्यामुत्पन्न[-] ४. [स्स्वयञ्चाप्रतिरथः परम]भागवतो महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्तस्तस्य पुत्रस्तत्पादानु[-] ५. [द्ध्यातो महादेव्यां] ध्रुवदेव्यामुत्पन्नो महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तस्तस्य पुत्रस्तत्पा[-] ६. [दानुद्ध्यातो म]हादेव्यामनन्तदेव्यामुत्पन्नः महाराजाधिराज पूरुगुप्तस्तस्य पु[-] ७. [त्रस्तत्पादानुद्ध्यातो] महादेव्यां श्रीचन्द्रदेव्यामुत्पन्नः परमभाग[-] ८. [वतो महाराजाधिरा]ज श्रीनरसिंहगुप्तः [।] हिन्दी अनुवाद महाराज श्री गुप्त के प्रपौत्र, महाराज श्री घटोत्कच के पौत्र, लिच्छवि-दौहित्र, महादेवी कुमारदेवी के [गर्भ से] उत्पन्न महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के पुत्र, सर्वराजोच्छेता (समस्त राजाओं का उन्मूलन करनेवाले), पृथ्वी पर अप्रतिरथ, महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त; उनके महादेवी दत्तदेवी [के गर्भ] से उत्पन्न पुत्र, परिगृहीत, एवं स्वयं भी अप्रतिरथ, परमभागवत महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त; उनके पुत्र तथा [उनके] पाद के अनुयायी (पादानुध्यात्) महादेवी ध्रुवदेवी [के गर्भ] से उत्पन्न महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त; उनके पुत्र [तथा उनके] पादानुध्यात्, महादेवी अनन्तदेवी [के गर्भ] से उत्पन्न महाराजाधिराज श्री पूरुगुप्त; उनके पुत्र [तथा उनके] पादानुध्यात् महादेवी [के गर्भ] से उत्पन्न महाराजाधिराज श्री नरसिंहगुप्त। नालंदा मुद्रा अभिलेख नालंदा विश्वविद्यालय

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भानुगुप्त का एरण स्तम्भ-लेख, गुप्त सम्वत् १९१ ( ५१० ई०)

भूमिका भानुगुप्त का एरण स्तम्भ-लेख मध्य प्रदेश के सागर जनपद में स्थित इसी नाम के स्थल ( एरण ) से मिला है। १८७४-७५ अथवा १८७६-७७ ई० में कनिंघम महोदय ने इसे ढूँढ निकाला था। अभिलेख को उन्होंने १८८० ई० में प्रकाशित किया। तदनन्तर जे० एफ० फ्लीट ने इसका सम्पादन करके corpus Inscriptionum Indicarum में प्रकाशित किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- भानुगुप्त का एरण स्तम्भ-लेख [ Eran Pillar Inscription of Bhanugupta ] स्थान :- एरण, सागर जनपद; मध्य प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १९२ ( ५१० ई० ), भानुगुप्त का शासनकाल विषय :- भानुगुप्त कालीन एरण स्तम्भ-लेख सती प्रथा का अभिलेखीय साक्ष्य मूलपाठ १. [स्वस्ति।] संवत्सर शते एकनवत्युत्तरे श्रावण-बहुलपक्ष-स[प्त]म्य[ा] [।] २. संवत् १०० (+) ९० (+) १ श्रावण-ब-दि ७ ॥ सुलक्खशादुत्पन्नो — — ३. राजेति विश्रुतः [।] तस्य पुत्रो (ऽ) तिविक्क्रान्तो नाम्ना राजाथ माधवः॥ गोपराजः ४. सुतस्तस्य श्रीमान्विख्यात-पौरुषः [।] शरभराज-दौहित्तः स्ववश-तिलको[भवद् ?] [II] ५. श्रीभानुगुप्तो जगति प्रवीरो राजा महा(न्) पार्थ-समो(ऽ)ति-शूरः [।] तेनाथ सार्द्धन्त्विह गोपर[जो] ६. मैत्तानुदश्या च कितानुयातः॥ कृत्वा [च] [यु]द्धं सुमहत्प्रकाशं स्वर्ग गतो दिव्य-न[ रे ?] [न्द्र कल्पः] [I] ७. भक्तानुरक्ता च प्रिया च कान्ता भ[ार्याव]ल[ग्न][नुगता[ग्नि]र[ा]शिम् ।। हिन्दी अनुवाद स्वस्ति ! संवत्सर एक सौ एक्यानबे (१९१) श्रवण बहुल (कृष्ण) पक्ष सप्तमी। सुलक्ख वंश में उत्पन्न – – – – राज नाम का एक प्रख्यात राजा हुआ। उसका अत्यन्त विक्रान्त पुत्र राजा माधव हुआ। उसका पुत्र विख्यात पौरुषवाला श्री गोपराज हुआ [जो] शरभराज का दौहित्र और अपने वंश का तिलक था। जगत्-प्रवीर पार्थ (अर्जुन) के समान महान् शूर महाराज श्री भानुगुप्त हैं। उनके साथ गोपराज भी आया और मैत्रों को पराभूत किया। उस प्रसिद्ध युद्ध में लड़ते हुए वह स्वर्ग गया और सर्वोत्तम इन्द्रपद प्राप्त किया भक्तिभाव से अनुरक्त उसकी प्रिया, कान्ता, भार्या, (पत्नी) ने उनका अनुगत बनकर अग्नि में प्रवेश किया। समुद्रगुप्त का एरण प्रशस्ति एरण स्तम्भलेख; गुप्त सम्वत् १६५ ( ४८४ ई० ) एरण

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वैन्यगुप्त का नालंदा मुद्राभिलेख

भूमिका यह नालंदा मुद्राभिलेख वैन्यगुप्त के शासनकाल का है। यह विहार संख्या – १ के उत्खनन में एक मुहर की मिट्टी की छाप का एक खण्डित अंश प्राप्त हुआ है। इस मुहर के निम्नतम एक तिहाई भाग का मध्य त्रिभुजाकार अंश मात्र है और इस पर मुहर का अन्तिम ४ पंक्तियों के कुछ अंश उपलब्ध हैं। इसे हीरानन्द शास्त्री ने प्रकाशित किया है। इसके आरम्भ की ३ पंक्तियों का पाठ अन्य मुहरों के समान ही रहा होगा। संक्षिप्त परिचय नाम :- वैन्यगुप्त का नालंदा मुद्राभिलेख स्थान :- नालंदा, बिहार भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्तकालीन, वैन्यगुप्त के शासनकाल का विषय :- गुप्त राजवंश की वंशावली से सम्बन्धित मूलपाठ १. [वतो महाराजधिराज श्रीचन्द्र] गुप्तस्यपुत्र[स्तत्पादानुध्यातो महादेव्यां ध्रुवदेव्यामुत्पन्नो महारा[-] २. [जाधिराज श्रीकुमारगुप्त]स्तस्य पुत्रस्तत्पादानुद्धतः श्री [महादेव्यामनन्तदेव्यामुत्पन्नो महा[-] ३. [राजाधिराज श्रीपू]रुगुप्तस्तस्य पुत्रस्तत्पादानुद्ध्यातो महादेव्यां श्री[चन्द्रदेव्यामुत्पन्नः] ४. परमभागवतो महाराजाधिराज श्रीवैन्यगुप्तः [।] हिन्दी अनुवाद महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त। उनका पुत्र, उनके पाद का अनुयायी (पादानुध्यात), महादेवी ध्रुवदेवी [के गर्भ] से उत्पन्न महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त उनका पुत्र, उनके पाद का अनुयायी (पादानुध्यात), महादेवी अनन्तदेवी [के गर्भ] से उत्पन्न महाराजाधिराज श्री पूरुगुप्त। उनका पुत्र, उनके पाद का अनुयायी (पादानुध्यात), महादेवी श्री […….] देवी से उत्पन्न परमभागवत महाराजाधिराज श्री वैन्यगुप्त। गुनैधर ताम्रलेख, गुप्त सम्वत् १८८ (५०७ ई०) नालंदा मुद्रा अभिलेख

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नालंदा मुद्रा अभिलेख

भूमिका नालंदा मुद्रा अभिलेख, नालंदा के उत्खनन के समय मिली है। यह मुहर मिट्टी की छाप हैं। यहाँ से कई मुहरें मिली हैं। उसमें से एक यह खंडित छाप है। इसका आधे से अधिक भाग नष्ट हो गया है। इसका मात्र बायीं ओर का अंश शेष है। इसकी अंतिम पंक्ति में गुप्त नरेश ‘बुधगुप्त’ का उल्लेख मिलता है। इसको भीतरी मुहर के आधार पर पठन करने का प्रयास किया गया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- नालंदा मुद्रा अभिलेख स्थान :- नालंदा, बिहार भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्तकाल, बुधगुप्त का शासनकाल विषय :- गुप्त राजवंशावली का उल्लेख मूलपाठ १. [सर्वराजोच्छेतुः पृथिव्यामप्रतिरथस्य महाराज] श्रीगुप्त प्रपौत्रस्य महाराज श्रीघटोत्क[-] २. [च पौत्रस्य महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्त पुत्रस्य लिच्छ]वि-दौहित्रस्य महादेव्यां कुमारदेव्यां उत्प- ३. [न्नस्य महाराजाधिराज श्रीसमुद्रगुप्तस्य पुत्रस्तत्परि]गृहीतो महादेव्यां दत्तदेव्यामुत्पन्नः स्वयं ४. [चाप्रतिरथः परमभागवतो महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्तस्तस्य पुत्रस्तत्पादानुध्यो ५. [महादेव्यां ध्रुवदेव्यामुत्पन्नो महाराजाधिराज] श्रीकुमारगुप्तस्य पुत्रस्तत्पादा[-] ६. नुध्यातो महादेव्यामनन्तदेव्यामुत्पन्नो म[हाराजाधिराज श्रीपूरुगुप्तस्त ७. [त्पादानुध्यातो महादेव्यां श्री] [————]देव्यामुत्पन्न [परमभागवतो महाराजाधिराज] श्रीबुधगुप्तः [I] हिन्दी अनुवाद सब राजाओं के उन्मूलक (सर्वराजोच्छेता), पृथिवी पर अप्रतिरथ (जिसके समान कोई अन्य न हो), महाराज श्री गुप्त के प्रपौत्र, महाराज घटोत्कच के पौत्र महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के पुत्र, लिच्छवि-दौहित्र, महादेवी कुमारदेवी [के गर्भ] से उत्पन्न महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त के पुत्र, उनके द्वारा परिगृहीत, महादेवी दत्तदेवी [के गर्भ] से उत्पन्न स्वयं भी अप्रतिरथ परमभागवत महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त। उनके पुत्र, उनके पाद के अनुयायी (पादानुध्यात), महादेवी ध्रुवदेवी [के गर्भ] से उत्पन्न महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त। उनके पुत्र, उनके पाद के अनुयायी (पादानुध्यात), महादेवी अनन्तदेवी [के गर्भ] से उत्पन्न महाराजाधिराज श्री पूरुगुप्त। उनके पुत्र, उनके पाद के अनुयायी, महादेवी श्री […] देवी [के गर्भ] से उत्पन्न परमभागवत महाराजाधिराज श्री बुधगुप्त। टिप्पणी नालंदा मुद्रा अभिलेख को पूर्णरूपता भितरी मुहर के आधार पर दी गयी है। पंक्ति १-६ तक का लेख उसी के समान है। केवल पंक्ति ७ का अन्तिम अंश नया है इसमें नरसिंहगुप्त के स्थान पर बुधगुप्त का नाम है। हेमचन्द्रराय चौधरी ने युवान-च्वांग के इस कथन के आधार पर कि बुधगुप्त शक्रादित्य का वंशज था, बुधगुप्त को प्रथम कुमारगुप्त का पुत्र अनुमान किया था यही मत रमाशंकर त्रिपाठी ने भी प्रकट किया था। हारग्रीव्ज की धारणा थी कि बुधगुप्त सारनाथ अभिलेख के द्वितीय कुमारगुप्त के पुत्र होंगे। किन्तु इस मुहर के मिल जाने पर ये दोनों ही अनुमान गलत सिद्ध हुए। मुहर के खण्डित होने के कारण बुधगुप्त का पूरुगुप्त के साथ सम्बन्ध बोध करानेवाला अंश अप्राप्य है। पंक्ति ६ और ७ के बीच किसी पंक्ति के होने और उसमें किसी अन्य व्यक्ति के नाम होने की कोई गुंजाइश नहीं है अतः पंक्ति ६ के अन्त में उल्लिखित पुत्र शब्द से बुधगुप्त के पूरुगुप्त का पुत्र होने में कोई सन्देह नहीं है। अस्तु, इस लेख से भितरी मुहर से ज्ञात से नरसिंहगुप्त के अतिरिक्त पूरुगुप्त के एक अन्य पुत्र की जानकारी उपलब्ध होती है। नरसिंहगुप्त और बुधगुप्त भाई-भाई हैं यह निश्चित होने पर भी निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि वे दोनों सगे भाई थे। मुहर के उपलब्ध छाप में माता का नाम अस्पष्ट है। हीरानन्द शास्त्री ने इसे बिना किसी हिचक के महादेवी पढ़ने की चेष्टा की है। अमलानन्द घोष ने चन्द्रदेवी नाम का सुझाव दिया है। इसे भण्डारकर ने भी स्वीकृति दी है। परन्तु दिनेशचन्द्र सरकार का स्पष्ट मत है कि नाम चन्द्रदेवी से सर्वथा भिन्न है उन्हें महादेवी पाठ में भी सन्देह है। नालन्दा से मिली नरसिंहगुप्त के मुहर की छाप से उसकी माता का नाम चन्द्रदेवी निस्संदिग्ध है अतः यदि प्रस्तुत मुहर पर चन्द्रदेवी नाम नहीं है तो कहना होगा कि ये दोनों सहोदर भाई नहीं थे। बुधगुप्त का सारनाथ बुद्ध-मूर्ति-लेख; गुप्त सम्वत् १५७ ( ४७६-७७ ई० ) पहाड़पुर ताम्रलेख; गुप्त सम्वत् – १५९ ( ४७८ ई० ) राजघाट स्तम्भलेख; गुप्त सम्वत् १५९ ( ४७८ ई० ) मथुरा पादासन-लेख; गुप्त सम्वत् १६१ ( ४८० ई० ) दामोदरपुर ताम्र-लेख ( तृतीय ); गुप्त सम्वत् १६३ ( ४८२ ई० ) एरण स्तम्भलेख; गुप्त सम्वत् १६५ ( ४८४ ई० ) शंकरगढ़ ताम्र-लेख; गुप्त सम्वत् १६६ (४८५ ई०) नन्दपुर ताम्र-लेख; गुप्त सम्वत् १६९ ( ४८८ ई० ) भीतरी शिलापट्ट लेख; गुप्त सम्वत् १७० ( ४८९ ई० ) दामोदरपुर ताम्रपत्र (चतुर्थ)

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दामोदरपुर ताम्रपत्र (चतुर्थ)

परिचय दामोदरपुर ताम्रपत्र (चतुर्थ) बांग्लादेश से मिले पाँच अभिलेखों में चौथा है। इसको राधागोविन्द बसाक महोदय ने प्रकाशित किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- दामोदरपुर ताम्रपत्र (चतुर्थ) [ Damodarpur Copper Plate Inscription Of Budhgupta ] स्थान :- दामोदरपुर, उत्तरी बाँग्लादेश का रंगपुर जनपद। भाषा :- संस्कृत लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी समय :- तिथि अनुपलब्ध; बुधगुप्त का शासनकाल विषय :- भूमि क्रय करके अक्षयनीवी दान से सम्बन्धित, विषय की प्रशासनिक जानकारी का स्रोत। मूलपाठ एक ओर १. ……. फाल्गुन-दि १० (+) [५] परमदैवत-परमभट्टारक- महाराजाधिराज श्रीबुधगु[प्ते पृथिवी]- २. [पतौ त]त्पाद-परिगृहीतस्य पुण्ड्रवर्द्धन भुक्ताबुपरिक महाराज जयदत्तस्य भोगेन नुविहमा]- ३. नके [को]टि [वर्ष्ष] विषये च तन्नियुक्तक आयुक्तक भण्डके [अ]धिष्ठानाधिकरणं नगर श्रेष्ठिरिभु- ४. पा[ल] सार्त्थवाह-वसुमित्र प्रथमकुलिक-वरदत्त प्रथमकायस्थ-विप्रपाल पुरोगे च स[म्व्य]वहरति [I] ५. अनेन श्रेष्ठि-रिभुपालेन विज्ञापितं [।] हिमवच्छिखरे कोकामुखस्वामिनः चत्वारः कुल्यवापाः [श्वे]तव- ६. राहस्वामिनो(ऽ)पि सप्त कुल्यवापाः अस्मत्फलाशान्सिना पुन्याभिवृद्धये डोङ्गाग्रामे पूर्वं मया ७. अप्रदा अतिसृष्टकास्तदहन्तत्क्षेत्र-सामीप्य-भूमौ तयोराद्य-कोकामुख-स्वामि-श्वेतवराह- ८. स्वामिनोर्ना[म]ल्लिङ्ग-[क्षोणि] देवकुल-द्वयमेतत्कोष्ठिका-द्वयञ्च कारयितुमिच्छाम्यर्हथ वास्तुनो ९. षट् [कुल्य] वापान्यथाक्रय मर्य्यादया दातुमिति [।] यतः पुस्तपाल-विष्णुदत्त विजय [नन्दि]-स्थानु- १०. नन्दिनामवधारणयावधृतमस्त्यनेन हिमवच्छिखरे तयोः कोकामुख-स्वामि- श्वेतवरा[ह] स्वामि[नोः] ११. अप्रदा क्षेत्र-कुल्यवापा एकदश दत्तकास्तदर्थञ्चेह देवकुल-कोष्ठिका-करणे युक्त[मे]त[द्विज्ञा]- १२. [पितं क्र]मेण तत्क्षे[त्र]-सामीप्य भूमौ वास्तु दातुमित्यनुवृत्त-त्रिदीनारिक्यकु- [ल्यवा]प-विक्रय[मर्थ्या]द- दूसरी ओर १३. [या] ……. रा कुलन — रागर (?) – – – – १४. …….. पु[ष्करि]णी पू[र्वेण] रिभु[पा]ल-पूर्व्वस्तक क्षेत्र] [दक्षिणेन] [पञ्च] १५. [कुल्यापा] दत्ताः [।] [त]दुत्तरकालं [सं.]व्यवहारिभिर्द्देवभ[क्तया]- नुमन्तव्याः [।] [उक्तं] व्यासेन [I] स्व-दत्तां परदत्त- १६.           [म्वा यो हरेत] वसुन्धराम् [I] स विष्टा[यां] [क्रिमिर्भ्भूत्वा] पि[तृ]भिस्स[ह पच्यते[॥] पूर्व्वं-दत्तां द्विजातिभ्यो १७.         [यत्नाद्रक्ष यु]धिष्ठिर [।] मही [महीमतां] श्रेष्ठ दा[नाच्छ्रेयो(ऽ)नुपालनं] [॥] १८. बहु]भिर्व्वासु[धा द]त्ता [राजभिश्च] पुनः पुनः [I] [य]स्य [य]स्य यदा भूमि[स्तस्य तस्य] त[दा] फलमिति [॥] हिन्दी अनुवाद …….. फाल्गुन दिन १५। परमदैवत परमभागवत महाराजाधिराज श्री बुधगुप्त पृथ्वीपति हैं। उनके परिगृहीत पुण्ड्रवर्धन भुक्ति के उपरिक जयदत्त के प्रशासन में समृद्धि प्राप्त करनेवाला कोटिवर्ष विषय; वहाँ उनके द्वारा नियुक्त आयुक्त भंडक के अधिष्ठान के अधिकरण के नगर श्रेष्ठि रिभुपाल, सार्थवाह वसुमित्र, प्रथमकुलिक वरदत्त, प्रथमकायस्थ विप्रपाल और पुरोग यह सूचना देते हैं — यहाँ के श्रेष्ठि रिभुपाल ने निवेदन प्रस्तुत किया है कि पुण्य लाभ की आशा से मैंने हिमवच्छिखर (हिमालय पर्वत शृंखला) में स्थित कोकमुखस्वामी को चार कुल्यवाप और श्वेत- वराहस्वामी को सात कुल्यवाप भूमि डोंगा ग्राम के पूर्व अप्रदा अतिसृष्टक के रूप में दे रखी है। अब मैं उसी भूमि के समीप इस आद्य कोकामुखस्वामी और श्वेत वराहस्वामी के निमित्त इसलिए क्षोणि (अदृश्य पृथिवी) पर दो देवकुल (मन्दिर) और दो कोष्ठक (भण्डार गृह) बनाने के लिए विक्रय-मर्यादा के अनुसार छः कुल्यवाप वास्तुभूमि क्रय करना चाहता हूँ। अतः पुस्तपाल विष्णुदत्त, विजयनन्दि, स्थाणुनन्दिन से पूछने से ज्ञात हुआ कि हिमवच्छिखर में कोकमुखस्वामी और श्वेतवराहस्वामी को जो ग्यारह कुल्यवाप अप्रदा क्षेत्र दिया गया है, उसी के क्रम में देवकुल और कोष्ठक बनाने के निमित्त जिस भूमि की इच्छा की गयी है उसके लिए तीन दीनार प्रति कुल्यवाप [मूल्य] की मर्यादा है। ………….. पुष्करिणी के पूर्व, रिभुपाल द्वारा पहले दी गयी भूमि के दक्षिण [छः कुल्यवाप] दिया गया। भविष्य में होनेवाले संव्यवहारिन (अधिकारी) भक्तिपूर्वक व्यास के इस कथन का परिपालन करें — अपनी या दूसरों को दी गयी भूमि का जो अपहरण करता है वह पितरोंसहित विष्ठा का कीड़ा होता है। पूर्वकाल में ब्राह्मणों को जो भूमि दी गयी है, उसकी रक्षा हे युधिष्ठिर करो। भूमिदान श्रेष्ठ है, उससे भी श्रेष्ठ भूमिदान का अनुपालन है। बहुत सी भूमि राजाओं ने निरन्तर दी है। जो जितनी ही भूमि देता है, उसे उसी के अनुसार फल मिलता है। दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख ( प्रथम ) गुप्त सम्वत् १२४ ( ४४३ – ४४ ई० ) दामोदरपुर ताम्रपत्र लेख (द्वितीय) – गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७-४८ ई० ) दामोदरपुर ताम्र-लेख ( तृतीय ); गुप्त सम्वत् १६३ ( ४८२ ई० )

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भीतरी शिलापट्ट लेख; गुप्त सम्वत् १७० ( ४८९ ई० )

भूमिका उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद से बुधगुप्त का भीतरी शिलापट्ट लेख मिला है। यह ध्यान रहे कि यहीं से स्कंदगुप्त का भीतरी अभिलेख मिला है। प्रस्तुत अभिलेख १९७४-७५ में काशी विश्वविद्यालय के कृष्णकुमार सिन्हा प्राप्त किया था। यह भग्न अवस्था में है। इसको पृथ्वी कुमार अग्रवाल ने प्रकाशित किया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- बुधगुप्त का भीतरी शिलापट्ट लेख या भितरी शिलालेख [ Bhitari Stone Inscription of Budhgupta ] स्थान :- गाजीपुर जनपद; उत्तर प्रदेश भाषा :-  संस्कृत लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १७० ( ४८९ ई० ), बुधगुप्त का शासनकाल विषय :- सम्भवतया सूर्य देव से सम्बन्धित है(?)। मूलपाठ १. …….. सम्ब [ १००][+][७०] महाराजाधि २. [रा]ज श्री बुधगुप्त राज्य [का]ले [।] उत्तरवाटि— ३. कायां पुष्प गृह-[सवितृ] पुष्करिण्याः ४. संलग्नोत्तर पार्श्वे वट्ट-पुष्प गृहकदेव ५. [प्रसारकं गुरु विप्र भावेन कारितक देव… हिन्दी अनुवाद ……संवत् [१७०] महाराजाधिराज श्री बुधगुप्त के राज काल में उत्तर वाटिक स्थित पुष्प गृह और सावित्र पुष्करणी से संलग्न उत्तर भाग में स्थित वट्ट पुष्प गृह के देवता के मन्दिर में गुरु-विप्र के सम्मान में किया गया देव… टिप्पणी बुधगुप्त का भीतरी शिलापट्ट लेख खण्डित होने के कारण उसका प्रयोजन स्पष्ट नहीं है। केवल इतना ही अनुमान किया जा सकता है उत्तर वाटिक नामक स्थान में कोई उद्यान (पुष्प गृह) और उससे संलग्न कोई पुष्करणी (तालाब) थी वहाँ कदाचित कोई सवितृ (सूर्य) का मन्दिर भी उससे उत्तर की ओर सटे वट्ट नामक उद्यान (पुष्पगृह) में स्थित देव-मन्दिर में कोई कार्य सम्पन्न किया गया था। उसी के स्मारक स्वरूप यह स्तम्भ खड़ा किया गया होगा अभी तक वर्ष १६६ का शंकरपुर ताम्रलेख बुधगुप्त के शासन का अन्तिम ज्ञात लेखा था। इस अभिलेख से यदि उसके तिथि का पाठ ठीक है तो उसके शासन काल में ४ वर्ष की वृद्धि होती है। पर उसके चाँदी के सिक्कों के परिप्रेक्ष्य में विशेष महत्त्व का नहीं है। उसके वर्ष १७५ के सिक्के ज्ञात रहे हैं। बुधगुप्त का सारनाथ बुद्ध-मूर्ति-लेख; गुप्त सम्वत् १५७ ( ४७६-७७ ई० ) पहाड़पुर ताम्रलेख; गुप्त सम्वत् – १५९ ( ४७८ ई० ) राजघाट स्तम्भलेख; गुप्त सम्वत् १५९ ( ४७८ ई० ) मथुरा पादासन-लेख; गुप्त सम्वत् १६१ ( ४८० ई० ) दामोदरपुर ताम्र-लेख ( तृतीय ); गुप्त सम्वत् १६३ ( ४८२ ई० ) एरण स्तम्भलेख; गुप्त सम्वत् १६५ ( ४८४ ई० ) शंकरगढ़ ताम्र-लेख; गुप्त सम्वत् १६६ (४८५ ई०) नन्दपुर ताम्र-लेख; गुप्त सम्वत् १६९ ( ४८८ ई० )

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नन्दपुर ताम्र-लेख; गुप्त सम्वत् १६९ ( ४८८ ई० )

भूमिका नन्दपुर ताम्र-लेख १६२९ ई० में कलकत्ता के गणपति सरकार को मुँगेर (बिहार) जिला अन्तर्गत सूरजगढ़ा से दो मील उत्तर-पूर्व नन्दपुर नामक ग्राम स्थित एक जीर्ण मन्दिर के ताक में जड़ा एक ताम्र- फलक मिला था। उसी पर यह लेख अंकित था। इसे न० ज० मजूमदार ने प्रकाशित किया। हाल में मजूमदार द्वारा व्यक्त विचारों की श्रीधर वासुदेव सोहोनी ने आलोचना प्रस्तुत की है। संक्षिप्त परिचय नाम :- नन्दपुर ताम्र-लेख स्थान :- मुंगेर जनपद, बिहार भाषा :- संस्कृत लिपि :- दक्षिणी ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १६९ (४८८:ई०); बुधगुप्त का शासनकाल विषय :- अक्षयनीवी दान से सम्बन्धित मूलपाठ १. स्वस्त्य[म्बि]लग्रामाग्रहारात्मविश्वासमधिकरणाम् जङ्गोयिका ग्रामे ब्राह्मणोत्तरान्संव्यवहा- २. र्यादिकुटुम्बिनः कुशलमनुवर्ण्य बोधयन्ति लिखन्ति च [।] विज्ञापयति नः विषयपति छत्रमहः ३. इच्छाम्यहं स्वपुण्याभिवृद्धये नन्दवैथेय-खटापूरणाग्रहारिक-छान्दोग काश्यप सगोत्र- ब्राह्मणा- ४. ……. स्वामिने पञ्च-महायज्ञ-प्रवर्त्तनाम खिलक्षेत्र-कुल्यवाप-चतुष्टयं क्रीत्वातिस्रष्टुम्[।] ५. युष्मद्विषये च समुदयबह्याद्यस्तम्ब खिल-क्षेत्राणां शश्वदाचन्द्रार्कतारक भोज्या[ना]- ६. मक्षय-नीव्या द्विदीनारिक्य-कुल्यवाप विक्रयो(ऽ) नुवृत्तस्तदर्हथ मत्तो-(ऽ)ष्टौ दीनारानुप- ७. संगृह्य जङ्गोयिका-ग्रामे खिलक्षेत्र-कुल्यवाप-चतुष्टयमक्षय-नीव्यास्ताम्रपट्टेन दातुमिति[।] ८. यतः पुस्तपाल प्रद्योतसिं[ह]-बन्धुदासयोरवधारणयावधृतमस्तीहविषये समुदय- ९. बाह्यास्तम्ब-खिल क्षेत्राणामकिञ्चित्प्रतिकराणां     द्विदीनारिक्य-कुल्यवाप-विक्रयो(ऽ)- नुवृत्तः[।] १०. एवम्विधोत्प्रतिकर-खिलक्षेत्र-विक्रये च न कश्चिद्राजार्थं विरोधः दीयमाने तु परमभट्टारक- ११. पादानां धर्म्म-षड्भागावाप्तिस्तद्दीयतामित्येतस्माद्विषयपति छत्रमहादष्टौ दीनारानुप- १२. संगृह्य जङ्गोयिका-ग्रामे गोरक्षित-ताम्रपट्ट-दक्षिणेन गोपालिभोगायाः पश्चिमेन खिल- १३. क्षेत्र कुल्यवाप-चतुष्टयं दत्तम् [।]कु ४ [ते यूयमेवं विदित्वा कुटुम्बिनां कर्षणाविरोधि- स्थाने १४. दर्व्वीकर्म्म-हस्तेनाष्टक-नवक-नलाभ्यामपविञ्छ्य   चिरकाल-स्थायि-तुषाङ्गारादि- चिह्नैश्चतुर्द्दि- १५. ङ्निप्रमिर्ति-संमानं कृत्वा दास्यथ [।] दत्वा चाक्षयनीवी-धर्मेण शश्वत्कालमनुपालयि- ष्यथ[।] १६. वर्त्तमान-भविष्यैश्च संव्यवहारिभिरेतद्धर्म्मापेक्षयानुपालयितव्य-मिति [।] उक्तञ्च भग- १७.                 [वता] [व्या]से[न] [।] स्व-दत्तां परदत्तां वा यो हेरत वसुन्धरां[।] स विष्ठायां कृमिर्भूत्वा पितृभिः सह १८.                 पच्यते [॥] [षष्टि] वर्ष-सहस्राणि स्वर्गे मोदति भूमिदः [।] आक्षेप्ता चानुमन्ना च तात्येव न- १९.             रके वसेत् [॥] सं १०० (+) ६० (+) ९ वै-शुदि ८ [॥] हिन्दी अनुवाद स्वस्ति। अम्विल ग्राम के अग्रहार से अधिकरण के लोग जंगोयिका ग्राम के ब्राह्मण, संव्यवहारी और कुटुम्बियों की कुशल कामना करते हुए कहते और लिखते हैं — विषयपति छत्रमह ने अपनी पुण्य-वृद्धि के लिये नन्द-वीथी स्थित खटापूरणा के अग्रहारिक छान्दोग[चरण] के काश्यपगोत्री ब्राह्मण …… स्वामी को पंच-महायज्ञ के निमित्त चार कुल्यवाप खिल-क्षेत्र खरीदकर [अग्रहार की] सृष्टि करने की इच्छा प्रकट की है और कहा है कि इस विषय में समुदयबाह्य, आद्यस्तम्ब (झाड़ियों से भरी हुई), खिल-क्षेत्र, जब तक चन्द्र-सूर्य-तारे रहें तब तक भोग के निमित्त अक्षय-नीवी के रूप में दो दीनार प्रति कुल्यवाप की दर से विक्रय की जाती है। अतः इसके निमित्त [मुझसे] आठ दीनार लेकर जंगोयिका ग्राम में चार कुल्यवाप अक्षय-नीवी का ताम्रपट लिखकर दिया जाय। अतः पुस्तपाल प्रद्योतसिंह और बन्धुदास से जाँच करने पर ज्ञात हुआ कि इस विषय में समुदयबाह्यआपस्तम्ब, खिल-क्षेत्र, जिससे कोई प्रतिकर प्राप्त नहीं होता, दो दीनार प्रति कुल्यवाप की दर से विक्रय की जाती है। इस प्रकार अप्रतिकर खिल-क्षेत्र के विक्रय किये जाने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है वरन् इससे परमभट्टारक के पाद को धर्म के छठे अंश की प्राप्ति ही होती है। अतः विषयपति छत्रमह से आठ दीनार लेकर जंगोयिका ग्राम में चार कुल्यवाप खिल-क्षेत्र दिया गया जिसके दक्षिण में ताम्रपट्ट द्वारा दी गयी। भूमि और पश्चिम में गोपाली द्वारा भोगी जानेवाली भूमि है। यह बात आप सबको ज्ञात हो कि कुटुम्बियों की खेतिहर भूमि से अलग (कुटुम्बिनाकर्षणाविरोधी) स्थान में दव-कर्म के अनुसार हाथ से ८६ नल नापकर स्थायी रूप से तुषार अंगार आदि से चारों ओर समान रूप से चिह्न लगाकर भूमि दी गयी। [यह भूमि] अक्षय-नीवी-धर्म के अनुसार शाश्वत काल के लिये दी गयी। वर्तमान और भावी संव्यवहारी धर्म समझकर इसका परिपालन करें। भगवान् व्यास ने कहा है — अपनी अथवा दूसरों की दी हुई भूमि का जो अपहरण करता है वह पितरोंसहित विष्ठा का कीड़ा होता है। भूमि-दान करनेवाला छः हजार वर्ष तक स्वर्ग का उपयोग करता है और उसका अपहरण करनेवाला तथा उसमें सहयोग करनेवाला उतने ही काल तक नरक में वास करता है। संवत् १६९ वैशाख शुदि ८। शंकरगढ़ ताम्र-लेख; गुप्त सम्वत् १६६ (४८५ ई०)

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