अभिलेख

अशोक का बारहवाँ बृहद् शिलालेख

भूमिका बारहवाँ बृहद् शिलालेख ( Twelfth Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से द्वादश शिला प्रज्ञापन है। मौर्य सम्राट अशोक द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) संस्थापित करवाये गये थे। प्रस्तुत मूलपाठ ‘गिरिनार संस्करण’ का मूलपाठ है। १४ बृहद् प्रज्ञापनों में से गिरनार संस्करण सबसे सुरक्षित अवस्था में पाया गया है। इसलिए चतुर्दश शिला प्रज्ञापनों में से बहुधा इसी संस्करण का उपयोग किया जाता है। तथापि अन्यान्य संस्करणों को मिलाकर पढ़ा जाता रहा है। बारहवाँ बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का बारहवाँ बृहद् शिलालेख या द्वादश बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Twelfth Major Rock Edict ) स्थान – गिरिनार संस्करण, गुजरात भारत। शहबाजगढी, पेशावर; पाकिस्तान। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी ( गिरिनार संस्करण )। खरोष्ठी ( शहबाजगढी संस्करण )। समय – मौर्यकाल विषय – धर्मिक सहिष्णुता की नीति, वाक् संयम, कुछ नये अधिकारियों की नियुक्ति। बारहवाँ बृहद् शिलालेख : मूलपाठ ( गिरिनार संस्करण ) १ – देवानं पिये पियदसि राजा सव पासंडानि च पवजितानि च घरस्तानि च पूजयति दानेन च विवधाय च पूजाय पुजयति ने [ । ] २ – न तु तथा दानं व पूजा व देवानं पियो मंञते यथा किति सारवढी अस सव पासंजानं [ । ] सारवढी तु बहुविधा [ । ] ३ – तसतस तु इदं मूल य वचिगुती किंति आत्पपांसंडपूजा व परपासंडगरहा व नो भवे अपकरणम्हि लुहुका व अस ४ – तम्हि प्रकरणे [ । ] पूजेतया तु एव परपासंडा तेन तेन प्रकरण [ । ] एवं करुं आत्पपासण्डं च वढयति परपासंडस च, उपकरोति [ । ] ५ – तदंञथा करोतो आपत्पासंडं च छणति परपासाण्डस, च पि अपकरोति [ । ] यो हि कोचटि आत्पपासण्डं पूजयति परसासाण्डं व गरहति ६ – सवं आत्पपासण्डभतिया किंति आत्पपासण्डं दिपयेम इति सो च पुन तथ करातो आत्पपासण्डं बाढ़तरं उपहनाति [ । ] त समवायों एव साधु ७ – किंति अञमञंस धंमं स्रुणारु च सुसंसेर च [ । ] एवं हि देवानं पियस इछा किंति सब पासण्डा बहुस्रुता च असु कलाणागमा च असु [ । ] ८ – ये च तत्र प्रसंना तेहि वतय्वं [ । ] देवानं पियो नो तथा दानं व पूजां व मंञते यथा किंति सारवढी अस सर्वपासडानं [ । ] बहुका च एताय ९ – अथा व्यपता धंममहामाता च इथीझख-महामाता च वचभूमीका च अञे च निकाया [ । ] अयं च एतस फल य आत्पपासण्डवढ़ी च होति धंमस च दीपाना [ । ] बारहवाँ बृहद् शिलालेख : हिन्दी में अनुवाद ( गिरिनार संस्करण ) १ – देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा सब पाषण्डों ( पंथवालों ) को, [ चाहे वे ] प्रव्रजित [ हों, चाहे ] गृहस्थ, दान एवं विविध पूजा द्वारा पूजता है। २ – परन्तु दान वा पूजा को देवों का प्रिय वैसा नहीं मानता जैसा यह कि सब पाषंडो ( पन्थानुवायी ) की सारवृद्धि हो। सारवृद्धि तो बहु प्रकार के हैं। ३ – परन्तु उसका मूल वचोगुप्ति ( वाक् संयम ) है। यह किस प्रकार? [ इस प्रकार कि ] अपने पाषण्ड ( पन्थ ) की पूजा या दूसरे पाषण्डों ( पन्थों ) की गर्हा ( निन्दा ) न हो एवं बिना प्रसंग के [ उसकी ] लघुता ( हलकाई ) न हो। ४ – उस-उस अवसर पर ( विशेष-विशेष अवसरों पर ) पर-पाषण्ड ( दूसरा पन्थ ) भी उस-उस ढंग से ( भिन्न-भिन्न ढंगों से ) पूजनीय है। ऐसा करता हुआ [ मनुष्य ] अपने पाषण्ड ( पन्थ ) को बढ़ाता है एवं दूसरे पाषण्ड ( पन्थ ) का उपकार करता है। ५ – तद्विपीत करता हुआ [ मनुष्य ] अपने पाषण्ड ( पन्थ ) को क्षीण करता है। और दूसरे पाषण्ड ( पन्थ ) का अपकार करता है। क्योंकि जो कोई अपने पाषण्ड ( पन्थ ) को पूजता है वा दूसरे पाषण्ड ( पन्थ ) की गर्हा ( निन्दा ) करता है, ६ – वह अपने पाषण्ड ( पन्थ ) के प्रति भक्ति से अथवा अपने पाषण्ड ( पन्थ ) को दीप्त ( प्रकाशित ) करने के लिए ही। और वह फिर वैसा करता हुआ अपने पाषण्ड ( पन्थ ) को अधिक हानि पहुँचाता है। इसलिए समवाय ( मेलजोल ) ही अच्छा है। ७ – यह कैसे? ऐसे कि [ लोग ] एक-दूसरे के धर्म को सुनें और शुश्रूषा ( सेवा ) करें। क्योंकि ऐसी ही देवों के प्रिय की इच्छा है। क्या? कि सब पाषण्ड ( पंथवाले ) बहुश्रुत एवं कल्याणागम ( कल्याणकारक ज्ञानवाले ) हों। ८ – और जो वहाँ-वहाँ किसी पंथ में स्थिर हों, वे कहे जायँ ‘देवों का प्रिय दान वा पूजा को वैसा नहीं मानता, जैसा फिर सब पाषण्डों ( पंथों ) की सारवृद्धि को।’ ९ – इस अर्थ के लिए बहुत धर्ममहामात्र, स्त्री-अध्यक्ष-महामात्र, व्रजभूमिक एवं अन्य निकाय ( स्वायत्तशासन-प्राप्त स्थानीय संस्थाएँ ) नियुक्त हैं। इसका फल यह है कि पाषण्ड ( पंथ ) की वृद्धि होती है एवं धर्म की दीप्ति [ होती है ]। मूलपाठ ( शाहबाजगढ़ी संस्करण ) १ – देवानंप्रियो प्रियद्रशि रय सव्र-प्रषंडनि प्रवजितनि ग्रहथनि च पुजेति दनेन विविधये च पुजये ( । ) नो चु तथ दन व पुज व २ – देवनंप्रियो मञति यथ किति सळ-वढि सिय सव्र-प्रषंडनं ( । ) सळ-वढि तु बहुविध ( । ) तस तु इयो मुळ यं वचोगुति ( । ) ३ – किति अत-प्रषंड-पुंज व पर-पषंड-गरहन व नो सिय अपकरणासि लहुक व सिय तसि तसि प्रकरणे ( । ) पुजेतविय व चु पर-प्रषं- ४ – इ तेन तेन अमरेन ( । ) एवं करतं अत-प्रषंडं वढेति पर-प्रषडंस पि च उपकरोति ( । ) तद अञथ करमिनो अत-प्रषंड ५ – क्षणति पर-प्रषडस च अपकरोति ( । ) यो हि कचि अत-प्रषडं पुजेति पर-प्र-षडं गरहति सव्रे अत-प्रषड-भतिय व किति ६ – अत-प्रषंडं दिपियमि ति सो च पुन तथ करंतं सो च पुन तथ करतं बढतरं उपहंति अत-प्रषडं ( । ) सो सयमो वो सधु ( । ) किति अञमञस ध्रमो ७ – श्रुणेयु च सुश्रुषेयु च ति ( । ) एवं हि देवनंप्रियस इछ किति सव्र-प्रषंड बहु-श्रुत च कलणगम च सियसु ( । ) ये च तत्र तत्र ८ – प्रसन तेषं वतवो देवनंप्रियो न तथ दनं व मञति यथ कितिसल-वढि सियति सव्र-प्रषडनं ( । ) बहुक च एतये अठये ९ –

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अशोक का ग्यारहवाँ बृहद् शिलालेख

भूमिका ग्यारहवाँ बृहद् शिलालेख ( Eleventh Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से एकादश शिला प्रज्ञापन है। महान सम्राट अशोक द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) अंकित करवाये गये थे। यह ‘गिरिनार संस्करण’ का मूलपाठ है। १४ बृहद् प्रज्ञापनों में से गिरनार संस्करण अपेक्षाकृत सुरक्षित अवस्था में पाया गया है। इसलिए चतुर्दश शिला प्रज्ञापनों में से सामान्यतः इस संस्करण का उपयोग किया जाता रहा है। फिरभी अन्यान्य संस्करणों को मिलाकर पढ़ा जाता रहा है। ग्यारहवाँ बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का ग्यारहवाँ बृहद् शिलालेख या एकादश बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Eleventh Major Rock Edict ) स्थान – गिरिनार, गुजरात भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल विषय – धर्म की व्याख्या। ११वें बृहद् शिलालेख में ९वें बृहद् शिलालेख की बातों की पुनरावृत्ति हुई है। अन्तर यह हो कि – वहाँ इसको ‘धर्म-मंगल’ कहा गया है तो यहाँ ‘धर्म-दान’। ग्यारहवाँ बृहद् शिलालेख : मूलपाठ १ – देविनंप्रियो पियदसि राजा एवं आह ( । ) नास्ति एतारिसं दानं यारिसि धंमदानं धंमसंस्तवो वा संविभागो वा धंमसंबंधो व ( । ) २ – तत इदं भवति दास भतकम्हि सम्यप्रतिपती मातरि पितरा साधुं सुस्रुसा मितसस्तुतजातिकानं बाम्हणस्रमणानं साधु दानं ३ – पाषानं अनारसो साधु ( । ) एत वतव्यं पिता व पुत्रेन व भाता व मितस्तुतञातिकेन न आव परीवेसियेहि इद साधु इद कतव्यं ( । ) ४ – सो तथा कुरु इलोकचस आरधो होति परत च अनंतं पुइञ भवति तेनं धंमदानेन ( ॥ ) संस्कृत अनुवाद देवानां प्रिय प्रियदर्शी राजा एवम् आह्। नास्ति एतादशं दानं यादशं धर्मदानं धर्मसंस्तवः वा धर्मसंविभागः वा धर्मसम्बन्धः वा। तत् इदं भवति दासभतकेषु सम्प्रतिपत्तिः मातरि पितरि साधु शुश्रूषा मित्र-संस्तुत-ज्ञातिकेभ्यः ब्राह्मण-श्रमणेभ्यः साधु दानं, प्रणानां अनालम्भः साधु। एतत् वक्तव्यं पित्रा वा पुत्रेण वा भ्राता वा मित्र-संतुत ज्ञातिकैः वा यावत् प्रतिवेश्यैः इदं कर्तव्यम्। स तथा कुर्वन इहलोकः आलब्द्धः भवति परत्र च अनन्तं पुण्यं भवति तेन धर्मदानेन। हिन्दी अनुवाद १ – देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा। ऐसा कोई दान नहीं है जैसा धर्मदान, जैसा धर्म मित्रता, जैसी धर्म की उदारता, जैसा धर्म का सम्बन्ध। २ – दास एवं भृत्यों के साथ शिष्टाचार, माता-पिता की सेवा, मित्र, परिचित, जाति और ब्राह्मण-श्रमणों को दान देना साधु है। ३ – जीवों की अहिंसा ( अबध ) साधु है। पिता, पुत्र, भाई, मित्र, परिचित, जाति और पड़ोसी से यह कहना चाहिए कि — यही साधु है, यही कर्त्तव्य है। ४ – जो ऐसा आचरण करता है उसे इहलोक को सिद्ध करता है और परलोक में भी उसे धर्मदान से अनन्त पुण्य होता है। हिन्दी में भावानुवाद देवताओं का प्रिय राजा प्रियदर्शी ऐसा कहता है — ऐसा कोई दान नहीं जैसा धर्म-दान, ऐसी कोई मित्रता नहीं जैसी धर्म से मित्रता, ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं जैसा धर्म से सम्बंध। धर्म यह है कि — दासों एवं सेवकों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाये, माता-पिता की सेवा की जाये, मित्रों, परिचितों, सम्बन्धियों, ब्राह्मणों एवं श्रमणों को दान दिया जाये, जीव-हिंसा न की जाये। पिता, पुत्र, भाई, स्वामी, मित्र, परिचित, सम्बन्धी तथा पड़ोसियों को भी यह कहना चाहिए कि ये पुण्य कार्य है, इसे करना चाहिए। ऐसा करने से मानव को इहलोक में सुख प्राप्त होता है और परलोक में भी बहुत पुण्य प्राप्त होता है। प्रथम बृहद् शिलालेख द्वितीय बृहद् शिलालेख तृतीय बृहद् शिलालेख चतुर्थ बृहद् शिलालेख पाँचवाँ बृहद् शिलालेख छठा बृहद् शिलालेख सातवाँ बृहद् शिलालेख आठवाँ बृहद् शिलालेख नवाँ बृहद् शिलालेख दसवाँ बृहद् शिलालेख

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अशोक का दसवाँ बृहद् शिलालेख

भूमिका दसवाँ बृहद् शिलालेख ( Tenth Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से दशम् शिला प्रज्ञापन है। अशोक महान द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) स्थापित करवाये गये थे। यहाँ ‘गिरिनार संस्करण’ का मूलपाठ उद्धृत किया गया है। गिरनार संस्करण सुरक्षित अवस्था में पाया जाता है। इसलिए चतुर्दश शिला प्रज्ञापनों में सामान्यतः इस संस्करण का उपयोग किया जाता रहा है। हालाँकि अन्यान्य संस्करणों को मिलाकर पढ़ा जाता रहा है। दसवाँ बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का दसवाँ बृहद् शिलालेख या दशम् बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Tenth Major Rock Edict ) स्थान – गिरिनार, गुजरात भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल विषय – सम्राट अशोक द्वारा धर्माचरण और धार्मिक विधियों के लिए सबके प्रेरित करने का उल्लेख दसवाँ बृहद् शिलालेख : मूलपाठ १ – देवानां प्रियो प्रियदसि राजा यसो व कीति व न महाथावहा मंञते अञत तदात्पनो दिघाय च मे जनो २ – धमंसुस्रु सा सुस्रु सतां धंमवुतं च अनुविधियतां [ । ] एतकाय देवानं पियो पियदसि राजा यसो व किति व इछति [ । ] ३ – यं तु किंचि परिकामते देवानं प्रियदसि राजा त सवं पारत्रिकाय किंति सकले अपपरिस्रवे अस [ । ] एस तु परिसंवाद य अपुंञं [ । ] ४ – दुकरं तु खो एतं छुदकेन व जनेन उसटेन व अञत्र अगेन पराक्रमेन सवं परिचजित्पा [ । ] एत तु खो उसटेन दुकरं [ । ] संस्कृत रूपान्तरण देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा यशः वा कीर्ति वा न महार्थवतां मन्यते-अन्यत्र तदात्मनः दीर्घाय च मे जनः धर्मशुश्रूषा धर्मोक्त च अनुविधीयताम्। एतस्मै देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा यशः वा कीर्ति वा इच्छति यत् च किञ्चित् प्रक्रमते देवानां प्रियदर्शी राजा तत् सर्व पारत्रिकाय किमित? सकलः अल्पपरिस्रव स्यात्। एषः तु परिस्रवः यत् अपुण्यम्। दुष्करम् तु खलु एतत् क्षुद्रकेण वा जनेन उच्छितेन वा अन्यत्र अग्रयात् पराक्रमात् सर्व परित्यज्य। एतत् तु खलु उच्छितेन दुष्करम्। हिन्दी अनुवाद १ – देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा यश वा कीर्ति को अन्यत्र ( परलोक में ) महार्थावह ( बहुत लाभ उपजाने वाला ) नहीं मानता। [ वह ] जो भी यश वा कीर्ति चाहता है। [ वह इसलिए कि ] वर्तमान में और भविष्य में ( दीर्घ [ काल ] के लिए ) मेरे जन ( मेरी प्रजा ) २ – मेरे धर्म की शुश्रूषा करें एवं मेरे धर्मव्रत का अनुविधान ( आचरण ) करें। इसलिए देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा यश वा कीर्ति की अभिलाषा करता है। ३ – जो कुछ भी देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा पराक्रम करता है, वह सब परलोक के लिए हो। क्यों? इसलिए कि सभी निष्पाप हों। ४ – पुण्य न करना ( अपुण्य ) ही दोष ( विघ्न ) है। यह ( अपुण्य से रहित होना ) बिना अगले उत्कृष्ट पराक्रम के [ और बिना ] सब [ अन्य उद्देश्यों ] का परित्याग किये क्षुद्र अथवा बड़े वर्ग ( जन ) से अवश्य कठिन ( दुष्कर ) है। किन्तु यह वास्तव में बड़े के लिए अधिक कठिन है। हिन्दी में भावानुवाद देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा यश अथवा कीर्ति को श्रेष्ठ नहीं मानता। इसको वह जो कुछ बड़ी चीज समझता है वह केवल इसलिए कि वर्तमान एवं भविष्य में उसकी प्रजा धर्म को सुनने तथा उसके उपदेशों का पालन करने की इच्छा करे। देवताओं का प्रिय राजा मात्र इस कार्य में यश और कीर्ति चाहता है। देवताओं का प्रिय राजा जो कुछ उद्यम ( उद्योग ) करता है, वह सब परलोक के लिए है। जिससे प्रजा को कम से कम पाप ( परिस्रव ) प्राप्त हो। परन्तु जहाँ अपुण्य है वहीं पाप है। परन्तु अत्यधिक उद्योग और त्याग के बिना यह छोटे एवं बड़े जन ( अधिकारियों ) के लिए दुष्कर है। परन्तु बड़े जनों ( अधिकारियों ) के लिए यह अत्यंत दुरूह है। प्रथम बृहद् शिलालेख द्वितीय बृहद् शिलालेख तृतीय बृहद् शिलालेख चतुर्थ बृहद् शिलालेख पाँचवाँ बृहद् शिलालेख छठा बृहद् शिलालेख सातवाँ बृहद् शिलालेख आठवाँ बृहद् शिलालेख नवाँ बृहद् शिलालेख

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अशोक का नवाँ बृहद् शिलालेख

भूमिका नवाँ बृहद् शिलालेख ( Ninth Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से नवम् शिला प्रज्ञापन है।  प्रियदर्शी राजा अशोक द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) स्थापित करवाये गये। यहाँ पर ‘गिरिनार संस्करण’ का मूलपाठ उद्धृत किया गया है। गिरनार संस्करण सबसे सुरक्षित अवस्था में पाया गया है। इसलिए चतुर्दश शिला प्रज्ञापनों में प्रायः इस संस्करण का उपयोग किया जाता रहा है। हालाँकि अन्य संस्करणों को मिलाकर पढ़ा जाता रहा है। नवाँ बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का नवाँ बृहद् शिलालेख या नवम् बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Ninth Major Rock Edict ) स्थान – गिरिनार, गुजरात भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल विषय – धर्ममंगल के महत्त्व का विवरण नवाँ बृहद् शिलालेख : मूलपाठ १ – देवानंपियो पियो प्रियदसि राजा एव आह [ । ] अस्ति जनो उचावचं मंगलं करोते आवाधेसु वा २ – आवाहवीवाहेसु वा पुत्रवाभेसु वा प्रवासंगिहवा एतम्हि च जनों उचावचं मंगलं करौते [ । ] ३ – एत तु महिडायो बहुकं च बहुविधं च छुदं च निरथं च मंगलं करोति [ । ] त कतव्यमेवतु मंगल [ । ] अपफलं तु खो ४ – एतरिंस मंगलं [ । ] अयं तु महाफले मंगले य धंममंगले [ । ] ततेत दासमतकम्हि सम्यप्रतिपती गुरूनं अपचिति साधु ५ – पाणेसु सयमो साधु बम्हणसमणानं साधु दानं एतंच अञ च एतारिसं धममंगल नाम [ । ] तवतत्यं पिता व ६ – पुतेन व मात्रा वा स्वाभिकेन वा इदं साधु इदं कतव्य मंगलं आवातस अथस निष्टानाय [ । ] ७ – साधु दन इति [ । ] न तु एतरिसं अस्तादानं व अनगहो व यारिसं धंमदान व धमनुगहोव [ । ] त तु खो मित्रनव सुहृदयेन वा ८ – अतिकेन व सहायन व ओवादितत्यं तम्हि पकरणें इदं कचं इदं साधु इति इमिना सक ९ – स्वगं अराधेतु इति [ । ] कि च इमिना कतव्यतरं यथा स्वगारधी [ । ] संस्कृत-अनुवाद देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवं आह। अस्ति जनः उच्चवचं मङ्गलं करोति। आवाधे वा आवाधे विवाहे वा पुत्रलाभे वा प्रवासे वा एतस्मिन् च अन्यस्मिन् च जनं उच्चावचं मङ्गलं करोति। अत्र तु महिलाः बहुझं च बहुविधं च क्षुद्रकं च निरर्थकं च मङ्गलम् कुर्वन्ति। तत् कर्तव्यं तु मङ्गलम्। अल्पफलं तु खलु एतादशं मङ्गलम्। इदं तु महाफलं मङ्गलम् यत्र धर्ममङ्गलम्। तत् इदं दास भतकेषु सम्प्रतिपत्तिः गुरुणां अपचितिः साधु प्राणेसु संयमः साधु ब्राह्मणश्रमणेभ्यः साधु दानम्। एतत् च अन्यत च एतादशम् धर्ममङ्गलम् नाम। तत् वक्तव्यम् पित्रा वा पुत्रेण वा भ्राता वा स्वामिकेन वा इदं साधु वा इदं कर्तव्यम् मङ्गलम् यावत् तस्य अर्थस्य निष्ठानाय। अस्ति च अपि उक्तं साधुदानम् इति। न तु एतादशं अस्ति दानं वा अनुग्रहो वा यादशं घर्मदानं वा धर्मानुग्रहो वा। तत् तु खलु मित्रेण व सुहृदयेन वा स्वर्गम् आराधयितुम् इति। किञ्चि अनेन कर्तव्यतरम् यथा स्वर्गालब्धिः। हिन्दी अनुवाद १ – देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा। लोग बाधाओं २ – आवह-विवाह, पुत्रोत्पन्न होने और प्रवास के समय छोटे-बड़े मंगल कार्य करते हैं। इसी प्रकार के अन्य अवसरों पर भी लोग छोटे-बड़े मंगल काम करते हैं। ३ – ऐसे अवसरों पर महिलाएँ बहुत प्रकार के छोटे और निष्प्रयोजन मंगल काम करती हैं। मंगल काम करना तो कर्त्तव्य है। परन्तु ये ४ – मंगल कर्म अल्प फलदाता हैं। धर्ममंगल ही महाफल दाता है। वे हैं — दास और भृत्यों के प्रति शिष्टाचार, श्रेष्ठ जनों का आदर साधु है। ५ – जीवों के प्रति संयम साधु है। ब्राह्मण-श्रमणों को दान देना साधु है। ये और इस तरह के दूसरे धर्म मंगल हैं। इसलिए ६ – पिता, पुत्र, भाई और स्वामी द्वारा कहना चाहिए कि यह साधु है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह मंगल कर्त्तव्य है। ऐसा कहा गया है — ७ – दान देना साधु है। ऐसा कोई दान एवं अनुग्रह नहीं है जैसा धर्मदान तथा धर्मानुग्रह। इसलिए मित्र, सुहृद् ८ – जाति, सहायक सभी को उपदेश करना चाहिए कि इन अवसरों पर यह कर्त्तव्य है, यह साधु है। इससे ९ – स्वर्ग की प्राप्ति सम्भव है। स्वर्ग की प्राप्ति से बढ़कर अन्य क्या अधिक करने योग्य है। हिन्दी में धाराप्रवाह रूपान्तरण देवताओं का प्रि प्रियदर्शी राजा इस तरह कहता है — रोगों, विवाहों एवं पुत्रों के जन्म और यात्रा पर मनुष्य अनेक मंगल आचरण करते हैं। इन व ऐसे अवसरों पर लोग अनेक मंगल कृत्य करते हैं। महिलाएँ अनेक प्रकार के क्षुद्र, व निरर्थक काम करती हैं। मंगलाचरण अवश्य करना चाहिए। परन्तु ऐसे मंगल कृत्यों का कोई फल नहीं होता। किन्तु धर्म मंगल का फल बहुत होता है। ये ( मंगल कार्य ) हैं — दासों एवं सेवकों से शिष्टाचरण और गुरुजनों का आदर श्रेष्ठ है; जीवों के साथ आत्मसंयम का व्यवहार अच्छा ( साधु ) है। ये और ऐसे दूसरे कृत्य धम्ममंगल ( धर्ममंगल ) हैं। इसलिए पिता, पुत्र, भाई, स्वामी से कहना चाहिए — यह श्रेष्ठ कर्म है। धर्मदान सदृश कोई दान नहीं है। अस्तु मित्र, सहानुभूति रखने वाले सम्बन्धी अथवा साथी को विविध बातों में परस्पर उपदेश करना चाहिए — यह धर्म है; श्रेष्ठ है और इससे स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है। और इसके द्वारा स्वर्ग-प्राप्ति की अपेक्षा अन्य क्या अधिक मिल सकता है। प्रथम बृहद् शिलालेख द्वितीय बृहद् शिलालेख तृतीय बृहद् शिलालेख चतुर्थ बृहद् शिलालेख पाँचवाँ बृहद् शिलालेख छठा बृहद् शिलालेख सातवाँ बृहद् शिलालेख आठवाँ बृहद् शिलालेख

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अशोक का आठवाँ बृहद् शिलालेख

भूमिका आठवाँ बृहद् शिलालेख ( Eighth Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से अष्टम् शिला प्रज्ञापन है।  प्रियदर्शी राजा अशोक द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘१४ बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) लिखवाये गये। यहाँ पर ‘गिरिनार संस्करण’ का मूलपाठ उद्धृत किया गया है। गिरनार संस्करण सबसे सुरक्षित अवस्था में है। इसीलिए १४ शिला प्रज्ञापनों में बहुधा इसी संस्करण का उपयोग किया जाता रहा है। तथापि अन्य संस्करणों को मिलाकर पढ़ा जाता रहा है। आठवाँ बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का आठवाँ बृहद् शिलालेख या अष्टम् बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Eighth Major Rock Edict ) स्थान – गिरनार, सौराष्ट्र भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल विषय – विहार यात्रा के स्थान पर धर्मयात्रा का उल्लेख आठवाँ बृहद् शिलालेख : मूलपाठ १ – अतिकातं अंतरं राजानो विहार-यातां ञयासु [ । ] एत मगव्या अञानि च तारिसानि २ – अभीरमाकिनि अहुंसु [ । ] सो देवानंपियो पियदसि राजा दसवसभिसितो संतो अयाय संबोधि [ । ] ३ – तेनेसा धंम-याता [ । ] एतयं होति बाम्हण-समणानं दसणे च दाने च थैरानं दसणे च ४ – हिरंण-पटिविधानो च जानपदस च जनस दस्पनं धंमानुसस्टी च धंमपरिपुछा च ५ – तदोपया [ । ] एसा भूय-रति भवति देवानंपियसप्रियदसिनो राञो भागे अंञे [ ॥ ] संस्कृत रूपान्तरण अतिक्रान्तम् अनतरं राजानः विहारयात्राम् इयासुः। अत्र मृगया अन्यानि च एतादशानि अभिरामाणि अभूवत्। तत् देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा दशवर्षाभिषिक्तः सन् इयाय सम्बोधिम्। तेन एषा धर्मयात्रा। तत्र इदं भवति ब्राह्मणश्रमणनां दर्शनं च दानं च स्थविराणां दर्शनं च। हिरण्यप्रतिविधानं च जानपदस्य च जनस्य दर्शनं धर्मानुशिष्टिः च धर्मपरिच्छा च। तदुपेया। एषा भूया रतिः भवति देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनः राज्ञः भागः अन्यः। हिन्दी रूपान्तरण १ – बहुत समय बीत गया, राजा लोग विहार-यात्रा करते थे। इसमें मृगया और अन्य तरह के २ – आमोद होते थे। परन्तु देवानां प्रिय प्रियदर्शी राजा अपने अभिषेक के दसवें वर्ष बोधगया गये। ३ – इससे धर्मयात्रा की प्रथा प्रारम्भ हुई। इसमें यह होता था — ब्राह्मण व श्रमणों का दर्शन और उनको दान, वृद्धों का दर्शन तथा ४ – धन से उनके पोषण की व्यवस्था, जनपद के लोगों का दर्शन, धर्म का आदेश एवं धर्म से जुड़े परिप्रश्न। ५ – देवानां प्रिय प्रियदर्शी राजा के शासन के दूसरे भाग में यह प्रचुर रति ( आनन्द ) होती है। हिन्दी में धाराप्रवाह अनुवाद बहुत समय से राजा लोग विहार-यात्रा पर जाते थे। इसमें आखेट और अन्य आमोद-प्रमोद होते थे। देवताओं के प्रिय राजा प्रियदर्शी ने अपने अभिषेक के १० वर्ष बाद संबोधि की यात्रा की। इससे धर्मयात्रा की शुरुआत हुई। इन धर्मयात्राओं में ब्राह्मण एवं श्रमण भिक्षुओं के दर्शन किये जाते हैं और उनको सुवर्ण दान दिया जाता है। जनपदवासियों से मिलना, धर्म सम्बंधी अनुशासन एवं प्रश्न पूछना होता है। तब से देवताओं के प्रिय राजा प्रियदर्शी को दूसरे क्षेत्र में इस तरह की यात्राओं में बहुत आनन्दानुभूति होती है। प्रथम बृहद् शिलालेख द्वितीय बृहद् शिलालेख तृतीय बृहद् शिलालेख चतुर्थ बृहद् शिलालेख पाँचवाँ बृहद् शिलालेख छठा बृहद् शिलालेख सातवाँ बृहद् शिलालेख

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अशोक का सातवाँ बृहद् शिलालेख

भूमिका सातवाँ बृहद् शिलालेख ( Seventh Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से सातवाँ शिला प्रज्ञापन है। देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा अशोक द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) अंकित करवाये। यहाँ पर ‘शाहबाजगढ़ी संस्करण’ का मूलपाठ उद्धृत किया गया है। गिरनार संस्करण सबसे सुरक्षित अवस्था में है। इसीलिए १४ शिला प्रज्ञापनों में बहुधा इसी संस्करण का उपयोग किया गया है। यद्यपि अन्य संस्करणों को मिलाकर पढ़ा जाता रहा है। सातवाँ बृहद् शिलालेख १४ शिला प्रज्ञापनों में सबसे छोटा है। सातवाँ बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का सप्तम् बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Seventh Major Rock Edict ) या सातवाँ बृहद् शिलालेख। स्थान –  शाहबाजगढ़ी, पेशावर; पाकिस्तान। भाषा – प्राकृत लिपि – खरोष्ठी विषय – सब धर्मों के प्रति समभाव और साथ-साथ रहने का विचार। सातवाँ बृहद् शिलालेख : मूलपाठ १ – देवानंप्रियो प्रिय [ द्र ] शि रज सवत्र इछति सव्र— २ – प्रषंड वसेयु [ । ] सवे हि ते समये भव-शुधि च इछंति [ । ] ३ – जनो चु उचवुच-छंदो उचवुच-रगो [ । ] ते सव्रं व एकदेशं व ४ – पि कषंति [ । ] विपुले पि चु दने ग्रस नस्ति समय भव— ५ – शुधि किट्रञत द्रिढ-भवति निचे पढं [ । ] संस्कृत अनुवाद देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा सर्वत्र इच्छति सर्वे पाषण्डाः वसेयुः। सर्वे ते संयमं च भावशुद्धिं च इच्छन्ति। जनः तु उच्चावचछन्दः उच्चावचरागः। ते सर्वं वा कांक्षति एकदेशं वा करिष्यन्ति। विपुलं तु अपि दानं यस्य नास्ति संयमः भावशुद्धिः वा कृतज्ञता वा दृढ़भक्तिता च नित्या वा वाढम्। हिन्दी अनुवाद १ – देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा चाहता है कि २ – सर्वत्र सब पाषंड ( पंथ वाले ) निवास करें। क्योंकि वे सभी ( पाषंड अर्थात् पंथ ) संयम एवं भावशुद्धि चाहते हैं। ३ – [ अंतर इस कारण होता है कि ] जन ( मनुष्य ) ऊँच-नीच विचार के एवं ऊँच-नीच राग के [ होते हैं ]। [ इससे ] वे पूर्णरूप [ अपने कर्त्तव्य का पालन ] करेंगे या [ उसके ] एक देश ( अंश ) का [ पालन ] करेंगे। ४ – जिसका दान विपुल है, [ परन्तु जिसमें ] संयम, ५ – भावशुद्धि, कृतज्ञता एवं दृढ़भक्ति नहीं है, [ ऐसा मानव ] अत्यंत निम्न या नीच है। धाराप्रवाह हिन्दू रूपान्तरण देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा चाहता है कि सभी स्थान पर सभी सम्प्रदायों के मानव निवास करें क्योंकि सब संयम एवं आत्मशुद्धि के इच्छुक होते हैं। किन्तु भिन्न-भिन्न मानव इन बातों का पूरा अथवा थोड़ा पालन करते हैं, क्योंकि विभिन्न मानवों की इच्छा तथा अनुराग भिन्न-भिन्न हैं। मानव कितना भी दान करे किन्तु उसमें संयम, आत्मशुद्धि नहीं है तो वह निश्चय ही नीच ( अधम ) है। प्रथम बृहद् शिलालेख द्वितीय बृहद् शिलालेख तृतीय बृहद् शिलालेख चतुर्थ बृहद् शिलालेख पाँचवाँ बृहद् शिलालेख छठा बृहद् शिलालेख

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अशोक का छठा बृहद् शिलालेख

भूमिका छठा बृहद् शिलालेख ( Sixth Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से छठवाँ अभिलेख है। प्रियदर्शी राजा अशोक द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) लिखवाये गये। यहाँ पर ‘गिरनार संस्करण’ का मूलपाठ उद्धृत किया गया है। गिरनार संस्करण सबसे सुरक्षित अवस्था में है इसीलिए १४ शिला प्रज्ञापनों में अधिकर इसी संस्करण का उपयोग किया गया है। तथापि अन्य संस्करणों को मिलाकर पढ़ा जाता रहा है। छठा बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का छठा बृहद् शिलालेख अथवा षष्ठम् बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Sixth Major Rock Edict )। स्थान –  गिरिनार, गुजरात। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी विषय – राजा का राज्य के प्रति कर्त्तव्य, राजधर्म और सर्वलोकहित का उल्लेख। मूलपाठ १ – देवानंप्रि [ यो पियद ] सि राजा एवं आह [ । ] अतिक्रांत अन्तर २ – न भूतप्रुव सवे काले अथकंमें व पटिवेदना वा [ । ] त मया एवं कतं [ । ] ३ – सवे काले भुंजमानस में ओरोधनम्हि गभागारम्हि वचम्हि व ४ – विनीतम्हि च उयानेसु चन सर्वत्र पटिवेदका स्टिता अथे में जनस ५ – पटिवेदेथ इति [ । ] सर्वत्र च जनस अथे करोमि [ । ] य च किंचि मुखतो ६ – आञपयामि स्वयं दापकं वा स्रावापकं वा य वा पुन महामात्रेसु ७ – आचायिके अरोपितं भवति ताय अथाय विवादो निझती व सन्तों परिसायं ८ – आनंतर पटिवेदेतव्यं में सर्वत्र सर्वे काले [ । ] एवं मया आञपितं [ । ] नास्ति हि मे तोसो ९ – तस च पुन एस मूले उस्टानं च अथ-संतोरणा च [ । ] नास्ति हि कंमतरं ११ – सर्वलोकहितत्पा [ । ] य च किंति पराक्रमामि अहं किंतु भूतानं आनंणं गछेयं १२ – इध च नानि सुखापयामि परत्रा च स्वगं आराधयंतु [ । ] त एताय अथाय १३ – अयं धंमलिपी लेखपिता किंति चिरं तिस्टेय इति तथा च मे पुत्रा पोता च प्रपोत्रा च १४ – अनुवतरां सवलोकहिताय [ । ] दुकरं तु इदं अञत्र अगेन पराक्रमों [ । ] संस्कृत में अनुवाद देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवमाह। अतिक्रांतमन्तरं न भूतपूर्वे सर्वे कालमर्थकर्म वा प्रतिवेदना वा। तन्मया एवं कृतं सर्वकालम् अदतो मे अवरोधने गर्भागारे वर्चासि विनीते उद्याने सर्वत्र प्रतिवेदका अर्थे जनस्य प्रतिवेदयन्तु मे। सर्वत्र जनस्यार्थे करिष्याम्हम्। यद्यपि च किंचिन्मुखत आज्ञापयाम्हं दापकंवा श्रावकं वा यद्वा पुनर्महात्रैः आत्ययिके आज्ञापितं भवति तस्मै अर्थाय विवादे निर्ध्यातौ वा सत्यां परिषदा आनन्तर्येण प्रतिवेदायितव्यं मे सर्वत्र सर्वकालम्। एवमाज्ञापितं मया। नास्ति हि मे तोषो वा उत्यानाय अर्थसंतरणाय च। कर्त्तव्यं मतं हि मे सर्वलोकहितम्। तस्य पुनरेतन्मूलमुत्थानम् अर्थसंतरणं च। नास्ति हि कर्मान्तरं सर्वलोकहितने। यत्किंचित् पराक्रमेहं, किमित? भूतानामानण्यमेयाम् इह च कांश्चित् सुखयामि परत्र च स्वर्गमाराधयितुम्। तदेतस्मा अर्थायेयं अर्धलिपिलेखिता चिरस्थिका भवतु। तथा च मे पुत्रदारं पराक्रमतां सर्वलोकहिताय। दुष्करं चेदमन्यत्राग्रयात् पराक्रमात्। हिन्दी में रूपान्तरण १ – देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस तरह कहता है — बहुत काल ( समय ) व्यतीत हो गया २ – पूर्व ( पहले ) सब काल में अर्थकर्म ( राजकार्य, शासन सम्बन्धित कार्य ) वा प्रतिवेदना ( प्रजा की पुकार या अन्य सरकारी कार्य का निवेदन, सूचना अथवा खबर ) नहीं होती थी। सो ( इसलिए ) मेरे द्वारा ऐसा किया गया है। ३ – सब काल ( समय ) में भोजन करते हुए, अवरोधन ( अन्तःपुर ), गर्भागार, व्रज ( पशुशाला ) ४ – विनीत ( व्यायामशाला, पालकी ) एवं उद्यान [ उद्यानों ] में [ होते हुए ] मुझे सर्वत्र प्रतिवेदक ( निवेदक ) उपस्थित होकर मेरे जन ( प्रजा ) के अर्थ ( शासन सम्बन्धित कार्य ) का ५ – प्रतिवेदन ( निवेदन ) करें। मैं सर्वत्र ( सभी स्थानों पर ) जन ( जनता, प्रजा ) का अर्थ ( शासन सम्बन्धित कार्य ) करता हूँ ( करूँगा ) जो कुछ भी मैं मुख से ( मौखिक रूप से )। ६ – दापक ( दान ) वा श्रावक ( घोषणा ) के लिए आज्ञा देता हूँ या पुनः महामात्रों पर ७ – अत्यंत आवश्यकता पर जो [ अधिकार अथवा कार्यभार ] आरोपित होता है ( दिया जाता है ) उस अर्थ ( शासन सम्बन्धित कार्य ) के लिए परिषद् से विवाद ८ – वा पुनर्विचार होने पर बिना विलम्ब के मुझे सर्वत्र सब काल में प्रतिवेदन ( निवेदन ) किया जाय। मेरे द्वारा ऐसी आज्ञा दी गयी है। ९ – मुझे वस्तुतः उत्थान ( उद्योग ) एवं अर्थसन्तरण ( राजशासनरूपी सरिता को अच्छी तरह तैरकर पार करने ) में तोष ( संतोष ) नहीं है। सर्वलोकहित वस्तुतः ( वास्तव में ) मेरे द्वारा कर्त्तव्य माना गया है। १० – पुनः उसके मूल उत्थान ( उद्योग ) और अर्थसन्तरण ( कुशलता से राजकार्य का संचालन ) हैं। सचमुच सर्वलोकहित के अलावा दूसरा [ कोई अधिक उपादेय या उपयोगी ] कार्य या काम नहीं है। ११ – जो कुछ भी मैं पराक्रम करता हूँ, वह क्यों? इसलिए कि भूतों ( जीवधारियों या प्राणियों ) से उऋणता को प्राप्त होऊँ ( या उऋण हो जाऊँ ) और १२ – यहाँ ( इस लोक में ) कुछ [ जीवों या प्राणियों ] को सुखी करूँ और अन्यत्र ( परलोक मे ) वे स्वर्ग को प्राप्त करें। इस अर्थ ( प्रयोजन ) से १३ – यह धर्मलिपि लिखवायी गयी कि [ यह ] चिरस्थित हो तथा सब प्रकार मेरे स्त्री, पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र १४ – सब लोगों के हित के लिए पराक्रम अनुसरण करें। बिना उत्कृष्ट पराक्रम के यह ( सर्वलोकहित ) वास्तव में ( वस्तुतः ) कठिन ( दुष्कर ) है। धारा प्रवाह हिन्दी अनुवाद देवताओं के प्रिय राजा ये कहता है — पुरातन समय से ही यह पूर्व में कभी नहीं हुआ कि सब समय राजकार्य व राजकीय समाचार राजा के सामने प्रस्तुत किये गये हों। अस्तु मैंने यह व्यवस्था दी कि हर समय एवं हर स्थान पर चाहे मैं भोजन कर रहा हूँ, चाहे महल में, अंतःपुर में, अश्व के पीठ पर और चाहे बगीचे में होऊँ; सभी स्थान पर राजकीय प्रतिवेदक मुझे प्रजा के कार्य की सूचना दें। सभी स्थान पर ( सर्वत्र ) मैं प्रजा-कार्य करता हूँ। यदि मैंने स्वयं किसी सूचना या बात के जारी अथवा उद्घोषणा करने का आदेश दिया हो, या यदि कोई आकस्मिक ( अचानक ) कार्य महामात्रों पर आन पड़े और परिषद

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अशोक का पाँचवाँ बृहद् शिलालेख

भूमिका पाँचवाँ बृहद् शिलालेख ( Fifth Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से पञ्चम अभिलेख है। मौर्य सम्राट अशोक द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) अंकित करवाये गये। यहाँ पर ‘मानसेहरा संस्करण’ का मूलपाठ उद्धृत किया गया है। यद्यपि  गिरनार संस्करण सबसे सुरक्षित अवस्था में है फिरभी अन्य संस्करणों को मिलाकर पढ़ा जाता रहा है। पाँचवाँ बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का पाँचवाँ बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Fifth Major Rock Edict ) या पंचम / पञ्चम बृहद् शिलालेख या पाँचवाँ बृहद् शिला प्रज्ञापन। स्थान – मानसेहरा, हजारा जनपद; पाकिस्तान। भाषा – प्राकृत। लिपि – ब्राह्मी। समय – अशोक के सिंहासनारोहण के १२ वर्ष के बाद अर्थात् १३वाँ वर्ष ( २५६ ई०पू० ) विषय – सम्राट अशोक द्वारा धर्म का संदेश और उसके महत्त्व का रेखांकन। पाँचवाँ बृहद् शिलालेख : मूलपाठ १ – देवानंप्रियेन१ प्रियद्रशि रज एवं अह [ । ] कलणं दुकरं [ । ] ये अदिकरे कयणसे से दुकरं करोति [ । ] तं मय वहु कयणे कटे [ । ] तं मअ पुत्र २ – नतरे [ च ] परं च तेन ये अपतिये में अवकपं तथं अनुवटिशति से सुकट कषति [ । ] ये चु अत्र देश पि हपेशति से दुकट कषति [ । ] ३ – पपे हि नम सुपदरे व [ । ] से अतिक्रतं अन्तरं न भुतप्रुव ध्रममहमत्र नम [ । ] से त्रेडशवषभिसितेन  मय ध्रममहमत्र कट [ । ] से सव्रपषडेषु ४ – वपुट ध्रमधिथनये च ध्रमवध्रिय हिदसुखये च ध्रमयुतस योन-कम्बोज-गधरन रठिकपितिनिकन ये व पि अञे अपरत [ । ] भटमये- ५ – षु ब्रमणिम्येषु अनथेषु वुध्रषु-हिदसुखये ध्रमयुत अपलिबोधये वियपुट ते [ । ] बधनबधस पटिविधनये अपलिबोधसे मोछये च इयं ६ – अनुबध प्रजवति कट्रभिकर ति व महल के ति व वियप्रट ते [ । ] हिदं बहिरेषु च नगरेषु सव्रेषु ओरोधनेषु भतन च स्पसुन च ७ – येव पि अञे ञतिके सव्रत वियपट [ । ] ए इयं ध्रमनिशितो ति व ध्रमधिथने ति व दनसंयुते ति सव्रत विजितसि मअ ध्रमयुतसि विपुट ते ८ – ध्रममहमत्र [ । ] एतये अथ्रये अयि ध्रमदिपि लिखित चिर-ठितिक होतु तथ च मे प्रज अनुवटतु [ । ] संस्कृत रूपान्तरण देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवं आह। कल्याणं दुष्करं। यो यदि कुर्यात कल्याणस्य स दुष्करं करोति। तस्मा बहु कल्याणं कृतं तन्मम पुत्राश्च नप्तारश्च परं च तानि हि यान्यपत्यानि मे यावत्कल्पं तथा अनुवर्तिष्यन्ते तत्सुकृतं करिष्यन्ति। यः तु अत्र देशमपि हापयिष्यति स दुष्कृतं करिष्यति। पापं हि नाम सुप्रचारम्। तदतिक्रान्तमन्तरं न भूतपूर्वाः धर्ममहामात्राः नाम। त्रयोदश वर्षाभिषिक्तेन मया धर्ममहामात्राः कृता। ते सर्व पार्षदेषु व्यापताः धर्माधिष्ठानाय चधर्म-वद्धड्या हित सुखाय च धर्मयुक्तस्य यवनकम्बोज गांधाराणाम् राष्ट्रिक पिटनिकानाम्, ये वापि अन्ये अपरान्ताः। भतार्येषु ब्राह्मणेभ्येषु अनाथेषु वद्धेषु हित सुखाय धर्म युक्तस्य अपरिवाधाय व्यापताः ते बन्धनवधस्य प्रतिविधानाय अपरिवाधाय मोक्षाय च। एवमनुबन्धं प्रजावन्त इति वा कृताधिकारा इति वा महान्त इति व व्यापताः। त इह वाह्येषु च नगरेषु सर्वेषु अवरोधनेषु भ्रातणां स्वसणां च ये वापि अन्ये ज्ञातिषु सर्वत्र व्यापताः। एवं धर्मनिश्चिता इतिवा दान संयुक्ता इति वा सर्वत्र विजिते मम धर्मयुक्त व्याप्तठास्ते धर्ममहामात्राः। एतस्मै अर्थाय इयं धर्मलिपिलेखिता चिरस्थितिका भवतु। तथा च मे प्रजा अनुवर्तन्ताम्। हिन्दी में अनुवाद १ – देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा इस तरह कहते हैं — कल्याण दुष्कर है। जो कल्याण का आदिकर्ता है, वह दुष्कर [ कार्य ] करता है। सो मैंने अनेक कल्याणकारी कार्य किये है। २ – इसलिए जो मेरे पुत्र व पौत्र हैं और आगे उनके द्वारा जो मेरे अपत्य ( लड़के, वंशज ) होंगे [ वे ] यावत्कल्प ( कल्पान्त तक ) वैसा अनुसरण करेंगे, तब वे सुकृत ( पुण्य ) करेंगे। परन्तु जो इसमें से ( यहाँ ) [ एक ] देश ( अंश ) को भी हानि पहुँचायेगा, वह दुष्कृत ( पाप ) करेगा। ३ – पाप वस्तुतः सहज में फैलनेवाला ( सुकर ) है। बहुत काल बीत गया, पहले धर्ममहामात्र नहीं होते थे। सो १३ वर्षों से अभिषिक्त मुझ द्वारा धर्ममहामात्र ( नियुक्त ) किये गये। ४ – वे सब पाषण्डों ( पन्थों ) पर धर्माधिष्ठान और धर्मवृद्धि के लिए नियुक्त हैं। ( वे ) यवनों, कंबोजों, राष्ट्रिकों और पितिनिकों के मध्य और अन्य भी जो अपरान्त ( के रहने वाले ) हैं उनके बीच धर्मायुक्तों या धर्मायुक्तों ( धर्मविभाग के राजकर्मियों या ‘धर्म’ के अनुसार आचरण करने वालों ) के हित ( और ) सुख के लिए [ नियुक्त हैं ]। ५ – वे भृत्यों ( वेतनभोगी नौकरों ), आर्यों ( स्वामियों ), ब्राह्मणों, इभ्यों ( गृहपतियों, वैश्यों ), अनाथों एवं वृद्ध ( बड़ों ) के बीच धर्मयुक्तों के हित-सुख और अपरिबाधा के लिए नियुक्त हैं। वे बन्धनबद्धों ( कैदियों ) के प्रतिविधान ( अर्थसाहाय्य, अपील ) के लिए, अपरिबाधा के लिए और मोक्ष के लिए नियुक्त हैं, ६ – यदि वे [ बन्धनबद्ध मनुष्य ] अनुबद्धप्रजावान्  ( अनुब्रद्धप्रज ) ( सन्तानों में अनुरक्त, सन्तानों वाले ), कृताभिकार ( विपत्तिग्रस्त ) या महल्लक ( वयोवृद्ध ) हों। वे यहाँ ( पाटलिपुत्र में ) और अब बाहरी नगरों में मेरे भ्राताओं के, [ मेरी ] बहनों ( भगिनियों ) के ७ – और अन्य जो [ मेरे ] सम्बंधी हों उनके अवरोधनों ( अन्तःपुरों ) पर सर्वत्र नियुक्त हैं। वे धर्ममहामात्र सर्वत्र मेरे विजित में ( समस्त पृथ्वी पर ) धर्मयुक्तों पर, यह निश्चय करने के लिए कि [ मनुष्य ] धर्मनिश्रित हैं या धर्माधिष्ठित हैं या दानसंयुक्त हैं, नियुक्त हैं। ८ – इस अर्थ से यह धर्मलिपि लिखवायी गयी [ कि वह ] चिरस्थित ( चिरस्थायी ) हो और मेरी प्रजा ( उसका ) वैसा अनुवर्तन ( अनुसरण ) करे। हिन्दी में धाराप्रवाह अनुवाद राजाओं का प्रिय राजा प्रियदर्शी यह कहता है — कल्याण दुष्कर ( कठिन ) है, जो पहली बार ऐसा कोई कार्य करता है, वह दुःसाध्य कर्म करता है। मैंने अनेक कल्याणकारी कार्य किये है। यदि मेरे पुत्र, पौत्र और वंशज कल्पान्त तक, ऐसा करेंगे तो यह एक सुकृत ( पुण्य ) कार्य होगा। किन्तु जो थोड़ा भी [ धर्म का ] त्याग करेंगे वे पाप के भागी बनेंगे। पाप करना आसान है। प्राचीनकाल से ही धर्ममहामात्र कभी धर्ममहामात्र नियुक्त नहीं हुए थे। मैंने अपने राज्याभिषेक के १३वें वर्ष धर्ममहामात्र नियुक्त किये हैं। वे ( धर्ममहामात्र ) धर्मस्थापना और धर्म-वृद्धि के लिए एवं

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अशोक का चतुर्थ बृहद् शिलालेख

भूमिका चतुर्थ बृहद् शिलालेख ( Fourth Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से चौथा अभिलेख है। मौर्य सम्राट अशोक द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चतुर्दश बृहद् शिलालेख’ या चौदह बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) अंकित करवाये गये। गुजरात का ‘गिरनार संस्करण’ इसमें से सबसे सुरक्षित है। अधिकतर विद्वानों ने इसका ही प्रयोग किया है। इसके साथ ही यदा-कदा अन्य संस्करणों का भी उपयोग किया गया है। संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का चतुर्थ बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Fourth Major Rock-Edict ) स्थान – गिरनार, जूनागढ़ जनपद, गुजरात। भाषा – प्राकृत। लिपि – ब्राह्मी। समय – अशोक के सिंहासनारोहण के १२ वर्ष के बाद। विषय – सम्राट अशोक द्वारा धर्म का संदेश और उसके महत्त्व का रेखांकन। मूलपाठ : चतुर्थ बृहद् शिलालेख १ – अतिकातं अंतरं बहुनि बाससतानि वढितो एवं प्राणारंभो विहिंसा च भूतानं ज्ञातीसु २ – असंप्रतिपती ब्राह्मण-स्रमणानं असंप्रतीपती [ । ] त अज देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो ३ – धंम-चरणेन भेरीघोसो अहो धम्मघोसो [ । ] विमानदसंणा च हस्तिदसणा च ४ – अगिखंधानि च अञानि च दिव्यानि रूपानि दसयित्पा जनं यारिसे बहूहि वास-सतेहि ५ – न भूत-पूवे तारिसे अज वढिते देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो धंमानुसस्टिया अनारं ६ – भो प्राणानं अविहीसा भूतानं ञातीनं संपटिपती ब्रह्मण-समणानं संपटिपती मातरि-पितरि ७ – सुस्रुसा थैरसुस्रुसा [ । ] एस अञे च बहुविधे धंमचरणे वढिते [ । ] वढयिसति चेव देवानंप्रियो। ८ – प्रियदसि राजा धंमचरण इदं [ । ] पुत्रा च पोत्रा च प्रपोत्रा च देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो ९ – प्रवधयिसंति इदं धंमचरण आव सवटकपा धंमम्हि सीलम्हि तिस्टंतो धंमं अनुसासिसंति [ । ] १० – एस हि सेस्टे कंमे य धंमानुसासनं [ । ] धंमाचरणे पि न भवति असीलस [ । ] त इमम्हि अथम्हि ११ – वधी च अहीनी च साधु [ च ] एताय अथाय इदं लेखापितं इमस अथस वधि युजंतु हीनि च १२ – मा लोचेतव्या [ । ] द्वादसवासाभिसितेन देवानंप्रियेन प्रियदसिना राञा इदं लेखापितं [ । ] संस्कृत पाठ अतिक्रान्तमन्तरनं बहूनि वर्षशतानि वर्धितः एव प्राणालम्भ विहिंसा च भूतानां ज्ञातीनामसम्प्रतिपत्तिः श्रमणब्राह्मणामसम्प्रतिपत्तिः। तद्द्य देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनो राज्ञो धर्मचरणेन भेरीघोषोऽथो धर्मघोषो विमान दर्शनानि हस्तिनोऽग्निस्कन्धा अन्यानि च दिव्यानि रूपाणि दर्शयितुं जनस्य। यादशं बहुभिर्वषशतैर्न भूतपूर्व तादशमद्य वर्धितो देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनो राज्ञो धर्मानुशिष्ट्या अनालम्भः प्राणानामविहिंसा भूतानां ज्ञातिषु संप्रतिपत्तिब्रर्ह्मिणश्रमणानां संप्रतिपत्तिर्मातापित्रोः शुश्रूषा एतच्चान्यच्च बहुविधं धर्मचरणं वर्धितम्। वर्धियिष्यति चैव देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजेदं धर्मचरणम्। पुत्राश्च नप्ताश्च प्रनप्ताश्च देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनो राज्ञः प्रवर्धायिष्यन्ति चैव धर्माचरणमिदं यावत्कल्पं धर्मे शीले च तिष्ठन्ती धर्ममनुशासिष्यन्ति। एदद्धि श्रेष्ठं कर्म यद्धमानुशासनं, धर्मचरणमपि न भवत्यशीलस्य। तदस्यार्थस्य वृद्धि युञ्जन्तु हानिं च मा आलोचयन्तु। द्वादशवर्षाभिषिक्तेन देवानां प्रियेण प्रियदर्शिना राज्ञा लेखितम्। हिन्दी अनुवाद १ – बहुत काल बीत गया, बहुत सौ वर्ष [ बीत गये, परन्तु ] प्राणि-वध, भूतों की विहिंसा, सम्बन्धियों के साथ २ – अनुचित व्यवहार [ एवं ] श्रमणों व ब्राह्मणों के साथ अनुचित व्यवहार बढ़ते गये। इसलिए आज देवों के प्रियदर्शी राजा के ३ – धर्माचरण से भेरीघोष-जनों ( मनुष्यों ) को विमान-दर्शन, हस्तिदर्शन, ४ – अग्नि-स्कन्ध ( ज्योति-स्कन्ध ) और अन्य दिव्य रूप दिखाकर धर्मघोष हो गया। जिस प्रकार अनेक वर्षों से ५ – पहले कभी न हुआ था, उस प्रकार आज देवों के प्रियदर्शी राजा के धर्मानुशासन से ६ – प्राणियों का अनालम्भ ( न मारा जाना ), भूतों ( जीवों ) की अविहिंसा, सम्बंधियों के प्रति उचित व्यवहार, ब्राह्मणों [ तथा ] श्रमणों के प्रति सही व्यवहार, माता [ एवं ] पिता की ७ – सुश्रूषा [ और ] वृद्ध ( स्थविरों ) की सुश्रूषा में वृद्धि आ गयी है। ये और अन्य प्रकार के धर्म-आचरण में वृद्धि हुई है। ८ – देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस धर्माचरण को [ और भी ] बढ़ायेगा। देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा के पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र भी ९ – इस धर्माचरण को यावत्कल्प बढ़ायेंगे। धर्म और शील में [ वे स्वयं स्थित ] रहते हुए धर्म के अनुसार आचरण करेंगे। १० – यह धर्मानुशासन ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है; परन्तु अशील ( व्यक्ति ) का धर्माचरण भी नहीं होता। सो इस अर्थ ( उद्देश्य ) की ११ – वृद्धि एवं अहानि अच्छी है। इस अर्थ के लिए यह लिखा ( लिखवाया ) गया [ कि लोग ] इस अर्थ ( उद्देश्य ) की वृद्धि में जुट जायें १२ – और हानि न देखें। बारह वर्षों से अभिषिक्त देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा यह लिखवाया गया। धाराप्रवाह हिन्दी भाषा में रूपान्तरण बहुत समय बीत गया, सहस्रों वर्षों से जीव-हत्या, जीव-हिंसा, सम्बन्धियों, ब्राह्मणों और श्रमणों का अनादर ही होता गया। परन्तु अब देवताओं के प्रिय, प्रियदर्शी राजा के धर्म आचरण के भेरीनाद द्वारा धर्म का उद्घोष होता है, एवं पहले लोगों को विमान, हस्ति, अग्नि स्कन्ध तथा अन्य दिव्य रूपों के दर्शन कराये जाते हैं। जैसा सहस्रों वर्षों में पूर्वमें पहले कभी नहीं हुआ; आजकल देवताओं के प्रिय राजा प्रियदर्शी के धर्म अनुशासन से जीवों की अहिंसा, प्राणियों की रक्षा, सम्बन्धियों, ब्राह्मणों और श्रमणों का आदर, माता व पिता एवं वृद्धों की सेवा सहित अन्य धर्म आचरण में अनेक तरह से वृद्धि हुई है। देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस धर्म के आचरण को और भी बढ़ायेगा एवं उसके पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र भी इसे कल्पान्त तक बढ़ायेंगे और शीलाचरण करते हुए धर्मानुशासन का प्रचार करेंगे। धर्म का अनुशासन ही अच्छा काम है और शील-हीन ( व्यक्ति ) के लिए धर्म का आचरण बहुत कठिन है। इस धर्म के अनुशासन का अह्रास और सदैव वृद्धि ही श्रेष्ठ है। इसीलिए यह धर्मलिपि लिखवायी गयी है ताकि लोग इस उद्देश्य की वृद्धि में लगे एवं उसमें कमी न होने दें। १२ वर्षों से अभिषिक्त देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने यह लेख अंकित करवाया। प्रथम बृहद् शिलालेख द्वितीय बृहद् शिलालेख तृतीय बृहद् शिलालेख सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्थल – ३ ( गिरनार )

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अशोक का तृतीय बृहद् शिलालेख

भूमिका तृतीय बृहद् शिलालेख ( Third Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से तीसरा लेख है। सम्राट अशोक द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) स्थापित करवाये गये। ‘गिरनार संस्करण’ इसमें से सबसे सुरक्षित है। इसलिए अधिकतर विद्वानों ने इसका ही प्रयोग किया है। इसके साथ ही यदा-कदा अन्य संस्करणों का भी उपयोग किया गया है। तृतीय बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का तृतीय बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Third Major Rock-Edict ) स्थान – गिरनार, जूनागढ़ जनपद, गुजरात। भाषा – प्राकृत। लिपि – ब्राह्मी। समय – अशोक के सिंहासनारोहण के १२ वर्ष के बाद। विषय – युक्त, राजुक, प्रादेशिक को अपने-अपने कार्यक्षेत्र में प्रत्येक पाँचवें वर्ष जा-जाकर उपदेश देने का निर्देश। मूलपाठ १ – देवानं प्रियदसि राजा एवं आह [ । ] द्वादसवासाभिसितेन मया इदं आञपितं [ । ] २ – सर्वत विजिते मम युता च राजुके प्रादेसिके च पंचसु पंचसु वासेसु अनुसं— ३ – यानं नियातु एतायेव अथाय इमाय धंमानुसस्टिय यथा अञा— ४ – य पि कंपाय [ । ] साधु मातिर च पितरि च सुस्रूसा मिता-संस्तुत-ञातीनं ब्राह्मण— ५ – समणानं साधु दानं प्राणानं साधु अनारंभो अपव्ययता अपभांडता साधु [ । ] ६ – परिसा पि युते आञपयिसति गणनायं हेतुतो च व्यंजनतो च [ । ] संस्कृत पाठ देवानांप्रियः प्रियदर्शी राजा एवमाह। द्वादशवर्षाभिषिक्तेन मया इदमाज्ञप्तम्। सर्वत्र विजिते मम युक्ताः राजुकाः प्रादेशिकाश्च पञ्चसु पञ्चसु वर्षेषु अनुसंयानाय निर्वान्तु, एतस्मै अर्थाय अस्मै धर्मानुशस्तये यथा अन्यस्मा अपि कर्मणे। साधुः मातुपित्रयोः शुश्रूषा। मित्रसंस्तुतज्ञातीनां च ब्राह्मण श्रमणानां च साधु दानम्। प्राणानामनालम्भः साधू। अपव्ययता अल्पभाण्डता साधु। परिषदोऽपि च युक्तान् गणने आज्ञापयिष्यन्ति हेतुतश्च वयञ्जनतश्च। हिन्दी अनुवाद १ – देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है – बारह वर्षों से अभिषिक्त हुए मुझ द्वारा यह आज्ञा गयी— २ – मेरे विजित ( राज्य ) में सर्वत्र युक्त, राजुक एवं प्रादेशिक पाँच-पाँच वर्षों में जैसे अन्य [ शासन सम्बन्धित ] कार्यों के लिए दौरा करते हैं, वैसे ही ३ – इस धर्मानुशासन के लिए भी अनुसंयान ( दौरे ) पर निकलें [ ताकि देखें ] ४ – माता व पिता की शुश्रूषा अच्छी है; मित्रों प्रशंसितों ( परिचितों ), सम्बन्धियों और ब्राह्मणों [ और ] ५ – श्रमणों को दान देना अच्छा है। प्राणियों ( जीवों ) को न मारना अच्छा है। थोड़ा व्यय करना एवं थोड़ा संचय करना अच्छा है। ६ – परिषद् भी युक्तियों को [ इसके ] हेतु ( कारण, उद्देश्य ) एवं व्यंजन ( अर्थ ) के अनुसार गणना ( हिसाब जाँचने, आय-व्यय-पुस्तक के निरीक्षण ) की आज्ञा देगी। धाराप्रवाह हिन्दी रूपान्तरण देवताओं का प्रिय, प्रियदर्शी राजा ऐसा कहता है — अपने राज्याभिषेक के १२वें वर्ष बाद मैंने यह आदेश दिया — मेरे राज्य में सर्वत्र युक्त, राजुक एवं प्रादेशिक प्रति ५वें वर्ष अन्य कार्यों के साथ-साथ यह धर्मानुशासन बताने के लिए भी दौरे पर जायें — माता व पिता की शुश्रूषा करना अच्छा है। मित्रों, परिचितों एवं सम्बन्धियों, ब्राह्मणों व श्रमणों के प्रति उदारता अच्छी है, अल्प व्यय तथा अल्प संचय अच्छा है। परिषद युक्तों को इसका, शब्दों एवं भावनाओं दोनों के अनुसार ब्यौरा रखने की अनुमति दे। अशोक का प्रथम बृहद् शिलालेख अशोक का द्वितीय बृहद् शिलालेख सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्थल – ३

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