अभिलेख

अशोक का तीसरा स्तम्भलेख

भूमिका सप्तस्तम्भ लेखों में से तीसरा स्तम्भलेख अशोक द्वारा पाप क्या है? इसको बताया गया है। साथ ही आत्मनिरीक्षण को प्रोत्साहित किया गया है। दिल्ली-टोपरा स्तम्भलेख सबसे प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। इसकी प्रसिद्ध इसलिए है क्योंकि केवल इसी पर अशोक के सातों लेख अंकित है जबकि अन्य स्तम्भों पर छः लेख ही प्राप्त होते हैं। मध्यकालीन इतिहासकार शम्स-ए-शिराज़ के अनुसार टोपरा से इसको फिरोजशाह तुगलक ने लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित संस्थापित करवाया था। इसी कारण इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाता है। इस स्तम्भ के कुछ अन्य नाम भी हैं; जैसे – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि। तीसरा स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का तीसरा स्तम्भलेख या तृतीय स्तम्भलेख ( Ashoka’s Third Pillar-Edict ) स्थान – दिल्ली-टोपरा संस्करण। यह मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया था। इसीलिए इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ भी कहते है। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल विषय – कौन-कौन से पाप हैं, इसकी व्याख्या। आत्मनिरीक्षण करने का सुझाव। तीसरा स्तम्भलेख : मूलपाठ १ – देवानं पिये पियदसि लाज हेवं अहा [ । ] कयानंमेव देखति इयं २ – कयाने कटे ति [ । ] नो मिन१ पापं देखति इयं मे पापे कटे ति इयं वा आसिनवे ३ – नामा ति [ । ] दुपटिवेखे चु खो एसा [ । ] हे चु खो एस देखिये [ । ] इमानि ४ – आसिनव-गामिनि नाम अथ चंडिये निठूळिये ( निठूलिये ) कोधे माने इस्या ५ – कालनेन व हकं मा पळिभसयिसं ( पलिभसयिसं ) [ । ] एस ( एक ) वाढ़ देखिये [ । ] इयं में ६ – हिदतिकाये इयंमन मे पाळतिकाये ( पालतिकाये ) [ ॥ ] १मेरठ संस्करण में ‘मिना’ पाठ मिलता है। संस्कृत छाया देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवं आह। कल्याणं एवं पश्यति इदं मया कल्याणं कृतं इति। नो मनाक पापं कृतं इति इदं वा आसिनवं नाम इति। दुष्प्रत्यवेक्ष्यं तु खलु एतत्। एवं तु खलु एतत् पश्येत् इमानि आसिनवगामीनि नाम यथा चाण्ड्यं, नैठुर्य, क्रोधः, मानः, ईर्ष्या कारणेन एवं अहं मा परिभ्रंशयिष्यामि। सतत् वाढं पश्येत् इदं मे एहिकाय इद अन्यत् मे पारत्रिकाय। हिन्दी अनुवाद १ – देवानांप्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा – मनुष्य कल्याण ही देखता है। मैंने यह २ – कल्याण किया। वह थोड़ा भी पाप नहीं देखता कि यह पाप मैंने किया या यह पाप है। ३ – यह सचमुच कठिनाई से देखा जा सकता है पर इसे अवश्य देखना चाहिए कि यह ४ – पाप की ओर ले जाते है — चण्डता, निष्ठुरता, क्रोध, अभिमान, ईर्ष्या ५ – इनके कारण मैं अपने को भ्रष्ट कर दूँ इसे गम्भीरता से देखना चाहिए कि ये ६ – मेरे इस लोक के लाभ के लिए हैं और ये परलोक के कल्याण के लिए है। टिप्पणी इस स्तम्भलेख ( दूसरा स्तम्भलेख ) में अशोक ने अत्मनिरीक्षण करने को कहा है। आगे वे इसका कारण यह बताते हैं कि मनुष्य अपने अच्छे कर्मों को तो देखता है परन्तु कुकृत्यों की अवहेलना कर देता है। इसीलिए उसको आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। आगे वे कहते हैं कि वस्तुतः कृत कर्मों का को इस दृष्टिकोण से देखना चाहिए कि अमुक कर्म लौकिक और पारलौकिक दृष्टि से अच्छा है अथवा नहीं। जिस प्रकार दूसरे स्तम्भलेख में अशोक ने धर्मिक कृत्यों को गिनाया है ठीक उसी तरह अकरणीय पाप कर्मों को भी यहाँ वर्णित किया है; यथा – चण्डता, निष्ठुरता, क्रोध, मान और ईर्ष्या। पहला स्तम्भलेख दूसरा स्तम्भलेख

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अशोक का दूसरा स्तम्भलेख

भूमिका सप्तस्तम्भ लेखों में से दूसरा स्तम्भलेख अशोक द्वारा जीव हिंसा न करने को कहा गया है। इसमें वे कहते हैं कि धर्म क्या है? फिर आगे वे इसका उत्तर भी देते हैं। दिल्ली-टोपरा स्तम्भ लेख सबसे प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। इसकी प्रसिद्ध का कारण यह है कि केवल इसी पर अशोक के सातों लेख अंकित है जबकि अन्य स्तम्भों पर छः लेख ही प्राप्त होते हैं। मध्यकालीन इतिहासकार शम्स-ए-शिराज़ के अनुसार टोपरा से इसको फिरोजशाह तुगलक ने लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित स्थापित करवा दिया था। इसीलिए इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाता है। इसके कुछ अन्य नाम भी हैं; जैसे – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि। दूसरा स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम – दूसरा स्तम्भलेख या अशोक का द्वितीय स्तम्भलेख ( Ashoka’s Second Pillar Edict ) स्थान – यह मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित कराया। इसी से इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ भी कहते है। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल विषय – जीवहिंसा का विरोध, धर्म की परिभाषा। दूसरा स्तम्भलेख : मूलपाठ १ – देवानंपिये पियदसि लाज २ – हेवं आहा [ । ] धंमे साधू [ । ] कियं चु धंमे ति [ । ] अपासिनवे बहुकयाने ३ – दया दाने सचे सोचये [ । ] चखुदाने पि में बहुविधे दिंने [ । ] दुपद- ४ – चतुपदेसु पखि वालिचलेसु विविधे में अनुगहे कटे आ पान- ५ – दाखिनाये [ । ] अंनानि पि च मे बहूनि कयानि कटानि [ । ] एताये मे ६ – अठाये इयं धंम लिपि लिखापि हेवं अनुपटिपजन्तु चिलं- ७ – थितिका च होतू ती ति [ । ] ये च हेवं संपटिपजीसति से सुकटं कंछती ति [ । ] संस्कृत छाया देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवं आह। धर्मः साधु। कियान तु धर्मः इति? अल्पासिनवं, बहुकल्याणं, दया, दानं, सत्यं शौचम्। चक्षुदानम् अपि मया बहुविधं दत्तम्। द्विपदचतुष्पदेषु पक्षिवारिचरेषु विविधः मया अनुग्रहः कृतः आ प्राणदाक्षिण्यात्। अन्यानि अपि च मया बहूनि कल्याणानि कृतानि। एतस्मै मया अर्थाय इयं धर्मलिपिः लेखिता — एवम् अनुप्रतिपद्यताम् चिरस्थितिका च भवतु इति। यः च एवं सम्प्रतिपेत्स्यते सः सुकृतं करिष्यति इति। अनुवाद १ – देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा २ – इस प्रकार कहता है — धर्म साधु ( उत्तम ) है। किन्तु धर्म क्या है ? कम [ से कम ] पाप, बहुत कल्याण, ३ – दया, दान, सत्य और शौच ( पवित्रता )। मेरे द्वारा बहुत से चक्षुदान भी किया गया है। द्विपदों, ४ – चतुष्पदों, पक्षियों ( और ) वारिचरों ( जलचर प्राणियों ) पर मेरे द्वारा विविध अनुग्रह-प्राण ५ – दक्षिणा तक किये गये हैं। अन्य भी बहुत कल्याण मेरे द्वारा किये गये हैं। इस अर्थ ( उद्देश्य ) से ६ – मेरे द्वारा यह धर्मलिपि लिखवायी गयी ( है कि लोग ) इसी प्रकार ७ – अनुसरण करें [ और यह ] चिरस्थित हो। जो इस प्रकार सम्यक् रूप से प्रतिपादन करेगा, वह सुकृत ( पुण्य ) करेगा। टिप्पणी इस अभिलेख में अशोक ने धर्म की परिभाषा की है और अपने द्वारा किये गये कल्याणकारी कार्यों का उल्लेख करते हुए कहा है कि लोग उसका अनुकरण करें। यह अशोक का सबसे छोटा स्तम्भलेख है। अशोक ने स्तम्भलेख में जीव हत्या का विरोध किया है। बौद्ध ग्रंथ दीयनिकाय के सिगालवादसूत्त में भी इसी प्रकार का विचार मिलता है। ब्राह्मण ग्रंथ याज्ञवल्क्य स्मृति में इस तरह व्यक्त किया गया है — अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनियहः। दानं दमो दया क्षान्ति सर्वेषां धर्मसाधनमा॥ विष्णुपुराण में इसको इस तरह कहा गया है — एवं क्षमा सत्यं दमः शौचं दानमिन्द्रियसंयमः। अहिंसा गुरुशुश्रूषा तीर्थानुसरण दया॥ आर्जवं लोभशून्यत्वंन देवब्राह्मणपूजनम्। अन्भ्यसूया च तथा धर्मद्धः सामान्य उच्यते॥ अशोक का पहला स्तम्भलेख

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अशोक का पहला स्तम्भलेख

भूमिका पहला स्तम्भलेख, अशोक के सप्त स्तम्भ लेखों में से पहला अंकित अभिलेख है। इसको उन्होंने २६ वर्ष से अभिषिक्त रहते हुए अर्थात् २७वें वर्ष लिखवाया था। दिल्ली-टोपरा स्तम्भ लेख सर्वाधिक प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। इसकी प्रसिद्ध का कारण यह है कि मात्र इसी पर अशोक के सातों लेख अंकित है जबकि अन्य स्तम्भों पर छः लेख ही मिलते हैं। मध्यकालीन इतिहासकार शम्स-ए-शिराज़ के अनुसार टोपरा से इसको फिरोजशाह तुगलक ने लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया। तबसे इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाने लगा। इसके अन्य नाम हैं – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि। पहला स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम – पहला स्तम्भलेख या सात स्तम्भ लेख में से पहला लेख ( Ashoka’s Seven Pillar Edict – One ) स्थान – मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित कराया। इसी से इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ भी कहते है। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – अशोक ने २६ वर्षों से अभिषिक्त रहते हुए अर्थात् २७वें वर्ष यह अभिलेख लिखवाया। विषय – धर्म के अनुसार शासन, पोषण व विधि बनाने का विवरण। पहला स्तम्भलेख : मूलपाठ १ – देवानंपिये पियदसि लाज हेवं आहा [ । ] सडवीसति- २ – वस अभिसितेन मे इयं धंम-लिपि लिखापिता [ ।] ३ – हिदत- पालते दुसंपटिपादये अंनत अगाया धम कामताया ४ – अगाय पलीखाया अगाय सुसू साया अनेगन भयेना ५ – अगेन उसाहेना [।] एस चु खो मम अनुसथिया ६ – धंमापेखा धंम-कामता चा सुवे सुवे वढिता वढीसति चेवा [।] ७ – पुलिसा पि च मे उकसा चा गेवया चा मझिमा चा अनुविधीयंती ८ – संपटिपादियंति चा अलं च पलं समादपयितवे [।] हेमेवा अंत- ६ – महामाता पि [ । ] एस हि विधि या इयं धंमेन पालना धंमेन विधाने १० – धंमेन सुखियना धंमेन गोतो ति [ । ] संस्कृत रूपान्तरण देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवम् आह। षड्विंशति वर्षाभिषिक्तेन मया इयं धमलिपि लेखिता। इहत्य-पारत्र्यं दुःसम्प्रतिपाद्यम् अनयत्र अग्रयायाः धर्मकामतायाः अग्रयायाः परीक्षायाः अग्रयाया: शुश्रूषायाः अग्रयात् भयात् अग्रयात् उत्साहात्। एषा तु खलु मम अनशिष्टेः, धर्मापेक्षा, धर्मकामता च श्वः श्वः वर्द्धिता वर्द्धिष्यति चैव। पुरुषा अपि च मे उत्कृष्टा च गम्याः मध्यमाः च अनविदधति सम्प्रतिपादयन्ति च अलं चपलं समादातुम्। एवमेव अन्तमहामात्रापि। एषाहि विधिः या इयं धर्मेण पालना धर्मेण विधानं धर्मेण सुखीयन धर्मेण गुप्तिः इति। हिन्दी अनुवाद १ – देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है — छब्बीस २ – वर्षों से अभिषिक्त मुझ द्वारा यह धर्मलिपि लिखवायी गयी। ३ – अत्यन्त धर्मकामता ( धर्मानुराग )’ ४-५ अत्यन्त ( आत्म-परीक्षा, अत्यन्त शुश्रूषा, अत्यन्त भय [ और ] अत्यन्त उत्साह के बिना ऐहिक और पारलौकिक [ उद्देश्य ] दुष्कर हैं ( कठिनाईपूर्वक प्रतिपादित होनेवाले हैं )। ६ – किन्तु मेरे अनुशासन से वह धर्मापेक्ष ( धर्म का आदर ) और धर्मकामता ( धर्मानुराग ) दिन-दिन वर्धित हुई है और वर्धित ही होगी। ७ – मेरे उत्कृष्ट, निकृष्ट और मध्यम पुरुष ( राजकर्मचारी ) भी ( धर्म का ) अनुविधान ( पालन ) करते हैं। ८ – सम्यक् रूप से प्रतिपादन करते हैं और चपल [ व्यक्ति ] को वशीभूत करने में समर्थ हैं। ९ – इसी प्रकार अन्तमहामात्र भी [ करते हैं ]। यही कानून है – धर्मपूर्वक पालन; धर्मपूर्वक विधान (कानून-निर्माण); १०. धर्मपूर्वक सुखप्रदान और धर्मपूर्वक गुप्त ( रक्षा )। टिप्पणी यह स्तम्भ लेख अशोक ने अपने छब्बीस वर्ष से अभिषिक्त रहते हुए कराया अर्थात् २७वें वर्ष में। इसमें उसने इहलौकिक और पारलौकिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए धर्मकामता ( धर्म के प्रति निष्ठा ), आत्म-परीक्षा व पर-सेवा और भय व उत्साह को आवश्यक बताया है और यह भी कहा है कि उसके अनुशासन से लोग इन बातों का पालन कर धर्म में हो रहे हैं। उसे निरन्तर करने पर उसने बल दिया है। ब्रह्मगिरि शिलालेख

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ब्रह्मगिरि शिलालेख

भूमिका वर्तमान कर्नाटक प्रान्त के चित्तलदुर्ग जनपद से ब्रह्मगिरि शिलालेख मिला है। इसी के आसपास ही अशोक के अन्य शिलालेख ( सिद्धपुर, जटिंगरामेश्वर और मास्की ) भी प्राप्त हुए हैं। ब्रह्मगिरि शिलालेख से पता चलता है कि दक्षिण भारत में मौर्य प्रांत की राजधानी सुवर्णगिरि थी जहाँ एक कुमार रहता था। इस लेख में सम्राट अशोक ने दावा किया है कि धर्म प्रचार करके उसने जम्बू द्वीप के लोगों को देवताओं से मिला दिया है। ब्रह्मगिरि शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का ब्रह्मगिरि शिलालेख; अशोक का ब्रह्मगिरि लघु शिलालेख ( Ashoka’s Brahmagiri Minor Rock Edict ) स्थान – ब्रह्मगिरि, चित्तलदुर्ग या चित्रदुर्ग जनपद; कर्नाटक भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी विषय – पराक्रम फल की व्याख्या, धर्म क्या है? इसका विवरण। ब्रह्मगिरि शिलालेख : मूलपाठ १ – सुवंणगिरीते अयपुतस महामाताणं च वचनेन इसिलसि महामाता आरोगियं वतविया हेवं च वतविया [ । ] देवाणं पिये आणपयति [ । ] २ – अधिकानि अढ़ातियानि वसानि य हंक [ …… ] सके [ । ] नो तु खो बाढ़े प्रकंते हुसं [ । ] एकं सवछरे सातिरेके तुखो सवछरे ३ – यं मया संघे उपयीते बाढ़ं च मे पकंते [ । ] इमिना चु कालेन अमिसा समाना मुनिसा जुंबुदीपसि ४ – मिसा देवेहि [ । ] पकमस हि इयं फले [ । ] नो हीयं सक्ये महात्पेनेव पापोतवे [ । ] कामं तु खो खुदकन पि ५ – पकमि ……… णेण विपुले स्वगे सक्ये आराधेतवे [ । ] एतायठाय इयं सावणे सावापिते ६ – ……… महात्पा च इमं पकमेयु ति अंता च मे जानेयु चिरठितीके च इयं ७ – पक ……… [ । ] इयं च अठे वढिसिति विपुलं च वढिसिति अवरधिया दियढियं ८. वढिसिति [ । ] इयं च सावणे सावापिते व्यूथेन [ । ] २०० ( + ) ५० ( + ) ६ [ । ] से हेवं देवाणांपिये [ ८वीं पंक्ति के ‘वढिसिति’ शब्द के बाद रूपनाथ और सहसराम में पाठ भिन्न है। ] ९ – आह [ । ] मातापितिसु सुसूसितविये [ । ] हेमेव गरुसु [ । ] प्राणेसु द्रह्यितव्यं [ । ] सचं १० – वतवियं [ । ] से इमे धंमगुणा पवतिततविया [ । ] हेमेव अंतेवासिना ११ – आचरिये अचायितविये ञातिकेस च कं य [ था ] [ रहं पवतितविये [ । ] १२ – एसा पोराणा पकिति दीघावुसे च एस [ । ] हेवं एस कटिविये [ । ] १३ – चपडेन लिखिते लिपिकरेण [ । ] संस्कृत रूपान्तरण सुवर्णगिरितः आर्यपुत्रस्य महामात्राणां व वचनेन ऋषिले महामात्राः आरोग्यं वक्तव्याः। देवानां प्रियः आज्ञापयति। अधिकानि अर्द्धततीयानिवर्षाणि यत् अहं उपासकः। न तु खलुवाढ़ं प्रकान्तः अधूवम् एकं संवत्सरम्। सातिरेकः* तु खलु सवत्सरः यत् मया संघः उपेतः। वाढं च मया प्रक्रान्तम्। अधुना तु काले अमिश्रा समानाः मनुष्याः जम्बुद्वीपे मिश्रा देवैः। प्रक्रमस्य इदं फलम्। नहि इदं शक्यं महात्मनैव प्राप्तम्। कामं तु खलु क्षुद्रकेण अपि प्रक्रममाणेन विपुलः स्वर्गः शक्यः आराधयितुम। एतस्मै अर्थाय इदं श्रावणं श्रावितम्। महात्मानः च इमं प्रक्रमेरन इति अन्ताः च मे जानन्तु चिरास्थितिकः च अयं….। अथ च अर्थः वर्द्धिष्यति विपुलम् अपि च वर्द्धियष्यति आरब्ध्या द्धयर्द्धं वर्द्धिष्यति। इदं च श्रावणं श्रावितम् व्युष्टेन २०० ५० ६। तत् देवानां प्रियः आह। मातपित्रोः शुश्रूषितव्यम्। गुरुत्वं प्राणेषु द्रढायितव्यम्। सत्यं वक्तव्यम्। ते इमे धर्मगुणा: प्रवर्तयिव्याः। एवमेव अन्तेवासिना आचार्यः अपचेतव्यः। ज्ञातिकेषु च कुले यथा प्रयर्त्तयितव्यम्। एषा पुराणी प्रकृतिः दीर्घायुषे च भवति। एतत एव कर्तव्यम्। लिखित पठेन लिपिकरेण। हिन्दी भाषांतरण १ – सुवर्णगिरि से आर्यपुत्र और महामात्रों की आज्ञा से इषिला के महामात्यों का आरोग्य पूँछना चाहिए। देवानांप्रिय की विज्ञप्ति ( आदेश ) है — २ – ढाई वर्षों से अधिक व्यतीत हुए मैं उपासक था। परन्तु अधिक पराक्रम एक वर्ष तक मैंने नहीं किया किन्तु एक वर्ष से कुछ अधिक व्यतीत होने पर ३ – जब मैं संघ ( बौद्ध संघ ) की शरण में आया तब मैंने अधिक पराक्रम किया इस काल में अमिश्र मनुष्य देवों से मिश्र हुए ४ – पराक्रम का यह फल है। केवल बड़े लोग ही इसे प्राप्त नहीं कर सकते। स्वेच्छा से निश्चय करने पर छोटा व्यक्ति भी ५ – विपुल पराक्रम से स्वर्ग प्राप्त कर सकता है। इसीलिए यह धर्म विषय ( श्रावण ) सुनाया गया ६ – कि छोटे और बड़े सभी इसके लिए पराक्रम करें। सीमा के लोग भी इसे जाने और यह चिरस्थायी ७ – पराक्रम हो इससे उद्देश्य बढ़ेगा, प्रचुर रूप में बढ़ेगा एवं पहले की अपेक्षा डेढ़ा ( डेढ़ गुणा ) बढ़ेगा ८ – यह श्रावण २०० ५० ६ ( २५६ ) में सुनाया गया। इसलिए देवों का प्रिय यह कहता है — ९ – माता-पिता की शुश्रूषा करनी चाहिए। इसी तरह गुरुजनों ( श्रेष्ठजनों या बड़ों ) की ( शुश्रूषा या आदर करना चाहिए )। प्राणियों के लिए दृढ़ आदरभाव ( दया की दृढ़ता ) करना चाहिए। सत्य १० – बोलना चाहिए। इन धर्मगुणों का प्रवर्तन करना चाहिए। इसी प्रकार विद्यार्थियों ( अंतेवासी या गुरुकुल में रहने वाले छात्र ) द्वारा ११ – आचार्य का आदर करना चाहिए। स्वजातियों और कुलों से उचित व्यवहार करना चाहिए। १२ – यह पुरातन परम्परा है। इससे दीर्घ आयु प्राप्त होती है। इसलिए इसका पालन होना चाहिए १३ – यह लेख चपड़ या चापड़ ( नामक ) लिपिक पद द्वारा तैयार किया गया। टिप्पणी इस अभिलेख में अशोक ने सामान्य सदाचार की बातें कहीं हैं। ये वही बातें हैं जो उसके धर्म ( धम्म ) का आधार हैं – माता-पिता की सेवा गुरुजनों ( बड़ों ) की सेवा जीवों के लिए दया सत्य बोलना शिष्यों द्वारा आचार्य का आदर सगे-सम्बन्धियों से समुचित व्यवहार भाब्रू शिलालेख रूपनाथ शिलालेख या रूपनाथ लघु शिलालेख

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रूपनाथ शिलालेख या रूपनाथ लघु शिलालेख

रूपनाथ शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – रूपनाथ शिलालेख या रूपनाथ लघु शिलालेख ( Rupnath Minor Rock Edict ) स्थान – रूपनाथ, कटनी, मध्य प्रदेश भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल विषय – सम्राट अशोक का बौद्ध अनुयायी होना। रूपनाथ शिलालेख : मूलपाठ १ – देवानंपिये१ हेवं आहा [ । ]२ सातिरकेकानि अढतियानि व ( सानि ) य सुमि पाकास सके [ । ] नो चु बाढि पकते [ । ] सातिलेके चु छवछरे य समि हकं संघ उपेते २ – बाढि च पकते [ । ] या इमाय कालाय जंबुदिपसि अमिसा देवा हुसु ते दानि मिसा कटा [ । ] पकमसि हि एस फले [ । ] नो व एसा महतता पापोतवे खुदकेन ३ – पि पकममिन नेना सकिये पिपुले पा स्वगे आरोधेवे [ । ] एतिय अठाय च सावने कटे खुदका च उडाला व पकमतु ति अता पि च जानतु इय पकरा व ४ – किति चिर-ठितिके सिया [ । ] इयं हि अठे वढिसिति विपुल च वढिसिति अपलधियेना दियडिंसत [ । ] इयं च अठे पवतिसु लेखापेत वालत [ । ] हध च अथि ५ – साला-ठभे सिला-ठंभसि लाखापेतवय त [ । ] एतिना च वयजनेना यावतक तुपक अहाले सवर विवसेतयाय ति [ । ] व्युठेना सावने कटे [ । ] २०० ( + ) ५० ( + ) ६ स- ६ – त विवासा त [ ॥ ] १मास्की शिलालेख में ‘देवानंपियस असीकस’; और गुर्जरा शिलालेख में ‘देवानंपियस पियदसिनो चसोकराजस’ अंकित है। २ब्रह्मगिरि, सिद्धपुर और जतिंग-रामेश्वर शिलालेख में ‘सुवर्णगिरिते अयपुतस महामातानं च वचनेन इसिलसि महामाता आरोगियं वतिवया’ अंकित है। संस्कृत छाया देवानां प्रियः एवम् आह। सातिरेकाणि अर्द्धततीयानि वर्षाणि प्रकाशं उपासकः। न तु वार्ड प्रक्रान्तः। सातिरेकं तु संवत्सरं यत् अस्मि अहं संघम् उपेतः वाढं द प्रकान्तः। ये अस्मै कालाय जम्बुद्वीपे अमिश्राः देवा आसन ते इदानीं मिश्राः कृताः। प्रक्रमस्य हि एतत् फलम्। न च एतत् महता प्राप्तव्यं क्षुद्रकेन अपि प्रक्रममाणेन शक्यः। विपुलः स्वर्गः आराधयितुं। एतस्मै अर्थय च श्रावणं कृतम्। क्षुद्रका व उदाराः च प्रक्रमन्ताम् इति। अन्ताः अपि न जानन्तु ‘अयं प्रक्रमः एव’ किमिति चिरस्थितिक स्यात्। अयं हि अर्थः वद्धिं वर्द्धिष्यते विपुलं च वर्द्धिष्यते। अयं च अर्थः पर्वतेषु लेखयेत वारतः। इह व अस्ति शिलास्तम्भ। शिलास्तम्भे लेखयितव्यः इति। एतेन व व्यञ्जनेन यावत् युष्माकम् आहारः सर्वत्र विवासयितव्यः इति। व्युष्टेन श्रावणं कृतम् २०० ५०६ शतानि विवासाः इति। हिन्दी अनुवाद १ – देवानां प्रिय ने कहा – ढाई वर्ष से कुछ अधिक व्यतीत हुए मैं प्रकाश रूप में उपासक था। किन्तु मैंने अधिक पराक्रम नहीं किया। किन्तु एक वर्ष से अधिक व्यतीत हुए जबसे मैने संघ की शरण ली है। २ – तब से मैं अधिक पराक्रम करता हूँ। इस समय जो जम्बुद्वीप में देवता मनुष्यों से अमिश्रित ये अब मिश्रित किये गये। यह पराक्रम का ही फल है। यह केवल उच्च पद वाले व्यक्ति से प्राप्त नहीं होता। ३ – छोटे से भी पराक्रम द्वारा विपुल स्वर्ग की प्राप्ति सम्भव है। इस उद्देश्य के लिए धार्मिक कथा की व्यवस्था की गई जिससे क्षुद्र और उदार पराक्रम करें और मेरे सीमा के लोग भी जाने कि यही पराक्रम ४ – स्थायी है। यह उद्देश्य अधिकाधिक बढ़ेगा बहुत बढ़ेगा, कम से कम आधा बढ़ेगा। इसे अवसर के अनुकूल पर्वत पर उत्कीर्ण कराये और साम्राज्य में जहाँ भी ५ – शिलास्तम्भ हो वहाँ लिखवायें इस धर्म लिपि के उद्देश्य के अनुसार सर्वत्र एक अधिकारी भेजा जाय जहाँ तक अधिकार क्षेत्र हो। यह धर्मवार्ता ( श्रावण ) यात्रा के समय किया गया जब २०० ५० ६ ( २५६ ) ६ – रात्रि पड़ाव यात्रा का बीत चुका था।

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भाब्रू शिलालेख

भूमिका भाब्रू शिलालेख ( Bhabru Rock Edict ) अशोक के लघु शिलालेख ( Minor Rock Edict ) वर्ग का अभिलेख है। यह अभिलेख विराट नगर ( वैराठ या बैराठ ) के बीजक डूँगरी से मिला था। इसको कैप्टन बर्ट द्वारा प्राप्त करने के बाद ‘भाब्रू शिविर’ में रखने के कारण इसका यह नाम ( भाब्रू अभिलेख – Bhabru Inscription ) पड़ गया। मूल स्थान के नाम पर इसको बैराठ शिलालेख या भाब्रू-बैराठ शिलालेख भी कहते है। सन् १८४० ई० में अँग्रेज अधिकारी कैप्टन बर्ट ने इसको कोलकाता के एशियाटिक सोसाइटी बंगाल संग्रहालय में सुरक्षित रखवा दिया था।  इस आधार पर इसका एक अन्य नाम बैराठ कोलकाता अभिलेख भी पड़ गया। इसमें बुद्ध, धम्म और संघ ( त्रिरत्न ) का एक साथ उल्लेख सम्राट अशोक का बौद्धावलम्बी होने का अभिलेखीय साक्ष्य प्रस्तुत करता है। इसमें अशोक को मगध का राजा कहकर प्रियदर्शी नाम से सम्बोधित किया गया है। इसके साथ ही बौद्ध संघ के भिक्षु और भिक्षुणियों के आचरण सम्बन्धी दिशा-निर्देश भी मिलते हैं। इस लेख में सात पुस्तकों का उल्लेख है। भाब्रू ( बैराट ) लघु शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – भाब्रू शिलालेख, भाब्रू लघु शिलालेख, भाब्रू-बैराट लघु शिलालेख ( Bhabru Bairat Minor Rock Edit ), बैराठ-कोलकाता शिलालेख स्थान – बैराट या बैराठ, जयपुर; राजस्थान भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – अशोक के राज्याभिषेक का २२वाँ से २४वाँ वर्ष विषय – अशोक का बौद्ध धर्मावलम्बी होने का अभिलेखीय प्रमाण; सात पुस्तकों का उल्लेख, भिक्षुओं व भिक्षुणियों के लिए दिशानिर्देश। खोजकर्ता – कैप्टन बर्ट ( १८३७ ई० ) मूलपाठ १ – प्रियदसि लाजा मागधे संघं अभिवादेतूनं आहा अपाबाधतं च फासुविहालतं चा [ । ] २ – विदिते वे भंते आवतके हमा बुधसि धंमसि संघसी ति गालवे चं प्रसादे च [ । ] ए केचि भंते ३ – भगवता बुधेन भासिते सवे से सुभाषिते वा [ । ] ए चु खो भंते हमियाये दिसेया हेवं संधंमे ४ – चिलठितीके होसती ति अलहामि हकं तं वातवे [ । ] इमानि भंते धंमपलियायानि विनयसमुकसे ५ – अलियवसाणि अनागतभयानि मुनिगाथा मोनेयसूते उपतिसप्रसिनो ए चा लाघुलो- ६ – वादे मुसा-वादं अधिगिच्छ भगवता बुधेन भासिते [ । ] एतानि भंते धंमपलियायानि इछामि ७ – किंति बहुके भिखुपाये चा भिखुनिये चा अभिखिनं सुनेयु चा उपधालयेयू चा [ । ] ८ – हेवंमेवा उपासका चा उपासिका चा [ । ] एतेनि भंते इमं लिखापयामि अभिपेतं में जानंतू ति [ । ] संस्कृत रूपान्तरण प्रियदर्शी राजा मागधः सङ्घमभिवादनमाह अपावाधत्वं च पाशु विहारत्वं च। विदितं वो भदन्त यावदस्माकं बुद्धे धर्मे संघे इति गौरवं च प्रसादश्च। यत्किञ्चितद्भदत्ता भगवता बुद्धेन भाषितं सर्वे तत्सुभाषितं वा। यत्तु खुलु भदन्ता मया दश्यत एवं सद्धर्मश्चिरस्थितिको भविष्यतीत्यर्हाम्यहं तद्वर्तयितुम्। इमे भदन्ता धर्मपर्यायाः — विनयसमुत्कर्षः आर्यवंशः अनागतभयानि मुनिगाथा मौनेयसूत्रमुपतिष्यप्रश्न एवं राहुलोवादो मषावादमधिकृत्य भगवता बुद्धेन भाषितः। एतान्भदन्ता धर्मपर्यायानिच्छामि। किमिति? बहवो भिक्षुका भिक्षुक्यश्च अभीक्ष्णं श्रणुपुरवधारयेयुश्च। एवमेवोपासकाश्चोपासिकाश्च। एतेन भदन्ता इदं लेखयाभ्यभिप्रेतं मे जानन्त्विति। हिन्दी अर्थान्तर १ – प्रियदर्शी राजा ने मगध के संघ को अभिवादन कहा। उसके लिए वह बाधाओं का अन्त और सुख की स्थापना चाहता है। २ – भंते या भदंते ( सम्मान्यजन )! आप लोगों को ज्ञात है कि कितना बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति मेरा आदर और श्रद्धा है। भदन्त! जो कुछ भी ३ – भगवान बुद्ध ने कहा है वह सब सुभाषित है। भदन्त! मैंने जो कुछ भी धर्म के बारे देखा है एवं वह ४ – जिस प्रकार चिरस्थायी होगा वह मैं कहता हूँ। भदन्त! ये धर्मपर्याय ( धर्मग्रंथ ) हैं – विनय समुकस ( पालि — विनयसमुक्कंसः ; संस्कृत — विनय-समुत्कर्षः ) ५ – अलियवस१, अनाअगतभय२, मुनिगाथा, मौनेयसुत्त३, उपतिसपसि४ और राहुलवाद ( लाघुलोवादे५ ) में ६ – मुसा-वादं६ ( मृषावाद) के ऊपर जो भागवान बुद्ध द्वारा कहा गया है। भदन्त! इन धर्म पर्यायों को चाहता हूँ ७ – कि बहुत से भिक्षु और भिक्षुणियाँ इन्हें निरन्तर सुने और इनुको उपधारण करें। ८ – इसी प्रकार उपासक और उपासिका भी। भदन्त! इसीलिए यह लिखवाता हूँ कि लोग मेरा अभिप्राय जानें। १अलियवस ( पालि – अरियवंसः संस्कृत – आर्यवंश ), २अनागतभय ( संस्कृत – अनागतभयानिसूत्र ), ३मोनेयसूत, ( पालि – मोनेय्यसुत्त, संस्कृत – मौयेयसूत्रम् ), ४उपतिसपसिन ( पालि – उपतिस्सपञ्ह, संस्कृत – उपतिष्य प्रश्न: ) और ५लाघुलोवादे ( पालि – राहुलोवाद-सुत्त, संस्कृत – राहुलोवादः ) में ६मुसा-वादं ( संस्कृत – मृषावादः ) भाब्रू शिलालेख  : विश्लेषण यह अभिलेख ऐसा है जिसमें अशोक ने स्पष्ट रूप से बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति अपनी निष्ठा की है। अशोक बौद्ध भिक्षुओं को यह बताने का प्रयास किये हैं कि धर्मग्रन्थ कौन से हैं जिनको भिक्षु-भिक्षुणियों को पढ़ना और तदनुसार आचरण करना चाहिए। सम्राट अशोक की ओर से भिक्षुओं को दिये जाने वाले इस आदेश से ऐसा प्रकट होता है कि वह अपने को बौद्ध भिक्षुओं को अनुशासित करने का अधिकारी समझता था। यह धर्म पर अनुशासन का प्रतीक है। जो भारतीय परम्परा में अन्यत्र नहीं मिलता है। भाब्रू-बैराठ शिलालेख में उल्लिखित ७ ग्रंथ अशोक ने भिक्षु-भिक्षुणियों को जिन सात ग्रन्थों के अध्ययन का आदेश दिया है, वे कौन-कौन से हैं? इन विषय में विद्वानों में काफी मतभेद या विवाद है। इन पर ( सात पुस्तकों )विस्तार के साथ Bimal Churn Law ने अपनी पुस्तक ‘A History Of Pali Literature’ ( Volume  – Two ) तथा Vidhushekhra Bhattacharya की पुस्तक ‘Buddhist Text As Recommended By Ashoka’ में किया है। १ :- विनय समुकस / विनय समुकसे ( विनय समुत्कर्ष ) के सम्बन्ध में विद्वानों में घोर विवाद है। समझा जाता है कि उसका तात्पर्य धम्मचक्क पवत्तनसुत्त, पातिमोक्ख, तुट्टकसुत्त ( सुतनिपात ), सपुरिससुत्त ( मज्झिमनिकाय ), सिगालोवाद सुतन्त ( दीघनिकाय ) या अत्थवसवग्ग ( अंगुत्तरनिकाय ) में से किसी से है। २ :- अलियवस –  सम्भवतः यह अंगुत्तरनिकाय का अरियवंस या अरियवास है। इस सुत्त में बुद्ध ने कहा है कि भिक्षुओं को कपड़े, खाने और रहने के प्रति असन्तोष नहीं प्रकट करना चाहिए। उन्हें जो भोजन व कपड़ा मिले उसी से वे सन्तुष्ट रहें और ध्यान करें। ३ :- अनागतभय – यह अंगुत्तरनिकाय का अनागतभयानि हो सकता है। ४ :- मुनिगाथा – कदाचित् यह सुत्तनिपात का मुनिसुत्त है, जिसमें बुद्ध ने मुनि की व्याख्या की है। ५ :- मौनेयसुत्त – कदाचित् इसका तात्पर्य सुत्तनिपात के नालकसुत्त से है। इसमें भिक्षुओं के आचरण का उल्लेख है। ६ :- उपतिसपसिन – इसे विद्वानों ने मज्झिमनिकाय का रथविनीतसुत्त अनुमान किया है। कुछ

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अशोक का दूसरा पृथक कलिंग अभिलेख

भूमिका कलिंग अभिलेख अशोक की कलिंग के प्रति नीति का परिचायक है। इसमें वह सभी प्रजा को अपनी सन्तान घोषित करता है। मौर्य सम्राट अशोक के चौदह बृहद् शिलालेखों ( Major Rock Edits ) आठ स्थानों से मिले हैं। इनमें से दो स्थान वर्तमान ओडिशा प्रांत ( प्राचीन कलिंग ) के धौली और जौगढ़ में मिले हैं। धौली और जौगढ़ में ११वें से १३वें बृहद् शिलालेख की जगह दो अलग प्रकार के अभिलेख अंकित है। इसीलिए इन्हें दो पृथक कलिंग शिलालेख या पृथक कलिंग शिला प्रज्ञापन ( Two separate Kalinga Rock Edits ) कहते हैं। प्रथम पृथक कलिंग अभिलेख में २६ पंक्तियाँ हैं। द्वितीय पृथक कलिंग अभिलेख या कलिंग शिलालेख में १६ पंक्तियाँ हैं। परन्तु यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है है कि इन दोनों को मिलाकर विश्लेषण करने पर पूरी बात स्पष्ट होती है। इसमें अशोक द्वारा अन्तों ( अर्थात् सीमान्तवासियों और जनपदवासियों ) के लिए आदेश, कलिंग के प्रति नीति के विवरण के अलावा कलिंग के नगर व्यावहारिक के न्याय के सम्बन्ध में उदार और निष्पक्ष रहने का भी दिशानिर्देश दिया गया है। इन दोनों पृथक कलिंग प्रज्ञापनों ( अभिलेखों ) में अशोक ने वहाँ के महामात्रों को सम्बोधित किया गया है। धौली संस्करण वाला लेख तोसली के महामात्र को और जौगड़ संस्करण वाला समापा के महामात्र को सम्बोधित है। धौली ही प्राचीन तोसली जान पड़ता है। समापा जौगड़ पहाड़ी के निकट रहा होगा। संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का द्वितीय पृथक कलिंग शिलालेख या कलिंग शिलालेख या कलिंग का द्वितीय शिलालेख स्थान – जौगढ़ संस्करण, गंजाम जनपद; ओडिशा भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी विषय – सभी प्रजा मेरी सन्तान है। सीमान्त नीति, राज्य अधिकारियों को निर्देश व धर्म कार्य। मूलपाठ ( कलिंग अभिलेख : जौगढ़ संस्करण ) १ – देवानं हेयं आ [ ह ] [ । ] समापायं महमता१ लाजवचनिक वतविया [ । ] अं किछि दखामि हकं तं इछामि हकं तं इछामि हकं [ किं ] ति कं कमन २ – पटिपातयेहं दुवालते च आलभेहं [ । ] एस च मे मोखियमत दुवाल एतस अथस सं तुफेसु अनुसथि [ । ] सव-मुनि- ३ – सा मे पजा [ । ] अथ पजाये इछामि किंति में सवेणा हितसुखेन युजेयू अथ पजाये इछामि किंति मे सवेन हित-सु- ४ – खेन युजेयू ति हिदलोगिक-पाललोकिकेण हेवंमेव में इछ सवमुनिसेसु [ । ] सिया अन्तानं अविजिता- ५ – नं किं-छांजे सु लाजा अफेसू ति [ । ] एताका वा मे इछ अन्तेसु पापुनेयु लाजा हेवं इछति अनविगिन ह्वेयू ६ – ममियाये अस्वसेयु च मे सुखंमेव च लहेयू ममते नो दुखं [ । ] हेवं च पापुनेयु खमिसति ने लाजा ७ – ए सकिये खमितवे ममं निमितं च धंमं चलेयू ति हिदलोगं च पललोगं च आलाधयेयू [ । ] एताये ८ – च अठाये हकं तुफेनि अनुसासामि अनने एतकेन हकं तुफेनि अनुसासितु छंदं च वेदि- ९ – तु आ मम घिति पटिंना च अचल [ । ] व हेवं कटू कंमे चलितविये अस्वासनिया च ते एन ते पापुने- १० – यु अथा पित हेवं ने लाजा ति अथ अतानं अनुकंपति हेवं अफेनि अनुकंपति अथा पजा हे- ११ – वं मये लाजिने [ । ] तुफेनि हकं अनुसासित छांदं च वेदित आ मम धिति पटिंना चा अचल सकल- १२ – देसा आयुतिके होसामी एतसि अथसि [ । ] अलं हि तुफे अस्वासनाये हित-सुखाये च तेसं हिद- १३ – लोगिक-पाललोकिकाये [ । ] वं च कलन्तं स्वगं च अलाधयिसथ मम च आननेयं एसथ [ । ] ए- १४ – ताये च अथाये इयं लिपी लिखित हिद एन महामाता सास्वतं समं युजेयू अस्वासनाये च १५ – धंम-चलनाये च अन्तानं [ । ] इयं च लिपी अनुचातुंमासं सोतविया तिसेन [ । ] अन्तला पि च सीतविया [ । ] १६. खने सन्तं एकेन पि सोतविया [ । ] बेवं च कलन्तं चघथ संपटिपातयितवे [ । ] १ धौली का पाठ : ‘तोसलियं कुमाले महमता च’ संस्कृत छाया देवानां प्रियः एवम् आह। समापायां महामात्राः राजवाचनिकं वक्तव्याः। यत् किंचित् पश्यामि अहं तत् इच्छामि अहं किमिति कं कर्मणा प्रतिपादये द्वारतः च आरभे। एतत् च मे मुख्यमतं द्वारं एतस्य अर्थस्य या युष्मासु अनुशिष्टिः। सर्वे मनुष्याः मे प्रजाः। यथा प्रजायै इच्छामि किमिति मे सर्वेण हितसुखेन युज्येरन इति इहलौकिक पारलौकिकेन, एवम् एवमे इच्छा सर्व मनुष्येषु। स्यात् अन्तानां अविजितानां किं छन्दः स्वित् राजा अस्मासु इति? एतकाः वा इच्छा: अंतेषु प्राप्णुयुः ‘राजा एवम् इच्छति – अनुद्विग्नाः भवेयुः मया आश्वस्युः च। मया सुखम् एव च लभेरन मत्तः न दुःखम्। एवं च प्राप्णुयुः क्षमिष्यते नः राजा यत् शक्यं क्षन्तुम्। मम निमित्तं च धमं चरेयुः इति। इहलोक च परलोक च आराधयेयुः। एतस्मै च अर्थाय अहं युष्मासु अनुशास्मि। अनणः एतकेन अहं — युष्मान् अनुशिष्य इदं च वेदयित्वा या मम धतिः प्रतिज्ञा च अचला। तत् एवं कृत्वा कर्म चरितव्यम्, अश्वासनीयाः च ते येन ते प्राप्णुयः यथा पिता एवं नः राजा इति, यथा आत्मानम् अनुकम्पते एवम् अस्मान् अनुकम्पते, यथा प्रजा एवं वयं राज्ञः इति। युष्मान् अहं अनुशिष्य छंदं च वेदयित्वा या मम घतिः प्रतिज्ञा च अचला सकल देशावत्तिकः भविष्यामि एतस्मिन् अर्थे। अलं हि यूयम् आश्वासनाय हितसुखाय च तेषा इहलौककाय। एवं च कुर्वन्तः स्वर्गं च आराधयिष्यथ मम च आनण्यं एष्यथ। एतस्मै च अर्थाय इयं लिपिः लेखिता इह येन महामात्राः शाश्वतं समयं युञ्जयुः आश्वासनाय च धर्मचरणाय च अन्तानाम् इयं च लिपिः अनुचातुर्मासं श्रोतव्या तिष्येण। अन्तरा अपि च श्रोतव्या। क्षणे सति एकेन अपि श्रोतव्या। एवं च कुर्वन्तः चेष्टध्वं सम्प्रतिपादयुतिम्। हिन्दी अनुवाद : कलिंग अभिलेख १ – देवों का प्रिय इस प्रकार कहता है — समापा में महामात्र ( तोसली संस्करण में — कुमार और महामात्र ) राजवचन द्वारा ( यों ) कहे जायँ – जो कुछ देखता हूँ, उसे मैं चाहता हूँ कि किस प्रकार कर्म द्वारा २ – मैं प्रतिपादित ( सम्पादित ) करूँ तथा [ किस प्रकार तरह-तरह के ] उपायों द्वारा मैं [ उसे ] पूर्ण करूँ। इस अर्थ ( उद्देश्य ) में [ सिद्धि प्राप्ति के लिए ] यह मेरे द्वारा मुख्य उपाय माना गया है कि आप लोगों में अनुशासन ( शिक्षा ) हो। सब मनुष्य ३ – मेरी सन्तान हैं। जिस प्रकार सन्तान के लिए मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा वह सब प्रकार के ४ – इहलौकिक तथा पारलौकिक हित एवं सुख से युक्त हों, उसी प्रकार मेरी इच्छा सब मनुष्यों के सम्बन्ध में है। सम्भवतः अविजित अन्त ( सीमान्त जातियाँ ) यह

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अशोक का पहला पृथक कलिंग शिलालेख

भूमिका कलिंग शिलालेख अशोक की कलिंग के प्रति नीति का परिचायक है। इसमें वह सभी प्रजा को अपनी सन्तान घोषित करता है। सम्राट अशोक के १४ बृहद् शिलालेखों ( Major Rock Edits ) आठ स्थानों से मिले हैं। इनमें से दो स्थान वर्तमान ओडिशा ( प्राचीन कलिंग ) के धौली और जौगढ़ से मिले हैं। धौली और जौगढ़ में ११वें से १३वें बृहद् शिलालेख की जगह दो अलग तरह के अभिलेख खुदे है। इसीलिए इसको दो पृथक कलिंग शिलालेख या पृथक कलिंग प्रज्ञापन ( Two separate Kalinga Rock Edits ) कहते हैं। प्रथम पृथक कलिंग शिलालेख में २६ पंक्तियाँ हैं। द्वितीय पृथक कलिंग शिलालेख में १६ पंक्तियाँ हैं। परन्तु यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है है कि इन दोनों को मिलाकर विश्लेषण करने पर पूरी बात स्पष्ट होती है। इसमें अशोक द्वारा अन्तों ( अर्थात् सीमान्तवासियों एवं जनपदवासियों ) के लिए आदेश, कलिंग के प्रति नीति के विवरण के अलावा कलिंग के नगर व्यावहारिक के न्याय के सम्बन्ध में उदार और निष्पक्ष रहने का भी निर्देश है। इन दोनों पृथक कलिंग प्रज्ञापनों ( अभिलेखों ) में अशोक ने वहाँ के महामात्रों को सम्बोधित किया है। धौली संस्करण वाला लेख तोसली के महामात्र को जबकि जौगड़ संस्करण वाला समापा के महामात्र को सम्बोधित है। धौली ही प्राचीन तोसली जान पड़ता है। समापा जौगड़ पहाड़ी के निकट रहा होगा। संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का प्रथम पृथक कलिंग शिलालेख या कलिंग शिलालेख या कलिंग का प्रथम शिलालेख स्थान – धौली संस्करण, पुरी जनपद, ओडिशा भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी विषय – सभी प्रजा मेरी सन्तान है। सीमान्त नीति, राज्य अधिकारियों को निर्देश व धर्म कार्य। इसी में महामात्रों को प्रत्येक ५ वर्षों पर अनुसंयान पर जाने का निदेश है जबकि उज्जैयिनी व तक्षशिला के कुमार ( प्रादेशिक ) को तीन-तीन वर्षों पर अनुसंयान ( दौरे ) पर जाने का निदेश मिलता है। मूलपाठ ( कलिंग शिलालेख – धौली संस्करण ) १ – देवानंपियस वचनेन तोसलियं महामात नगलवियोहालका २ – वतविय [ । ] अं किछि दखामि हकं तं इछामि किंति कंमन पटिपादयेहं ३ – दुवालते च आलभेह [ । ] एस च मे मोख्य-मत दुवाल एतसि अठसि अं तुफेसु ४ – अनुसथि [ । ] तुफे हि बहूसु पानसहसेसुं आयत पनयं गछेम सु मुनिसानं [ । ] सवे ५ – मुनिसे पजा ममा [ । ] अथा पजाये इछामि हकं किंति सवेन हितसुखेन हिदलोकिक- ६ – पाललोकिकेन यूजेवू ति तथा [ सव ] मुनिसेसु पि इछामि हकं [ 1 ] नो च पापुनाथ आवग- ७ – मुके इयं अठे [ । ] केछ व एक पुलिसे [ पापु ] नाति एतं से पि देसं नो सवं [ । ] देखत हि तुफे एतं ८ – सुविहिता पि [ । ] नितियं एक-पुलिसे पि अधि ये बंधनं वा पळिकिळेसं ( पलिकिलेसं ) वा पापुनाति [ । ] तत होति ९ – अकस्मातेनं बंधनंतिक अंने च [ तत ] बहु जने दविये दुखीयति [ । ] तत इछितविये १० – तुफेहि किंति मझं पटिपादयेमा ति [ । ] इमेहि चु जातेहि नो संपटिपजति इसाय आसुलोपेन ११ – निठूलियेन तूळनाय ( तूलनाय ) अनावूतिय आलसियेन किळमथेन ( किलमथेन ) [ । ] से इछितविये कितिं एते १२ – जाता नो हुवे ममा ति [ । ] एतस च सवस मूले अनासुलोपे अतूळना ( अतूलना ) च [ । ] नितियं ए किळते ( किलन्ते ) सिया १३ – न ते उगछ संचलितविये तु वटितचिये एतविये वा [ । ] हेवमेव ए दखेय तुफाक तेन वतविये १४ – आनं ने देखत हेवं च हेवं च देवानं पियस अनुसथि [ । ] से महाफले एतस संपटिपाद १५ – महा-अपाये असंपटिपति [ । ] विपटिपादयमीने हि एतं नथि स्वगस आलधिनो लाजालधि [ । ] १६ – दु-आहले हि इमस कंमस मे कुते मने-अतिलेके [ । ] संपटिपजमीने चु एतं स्वगं १७ – आलाधयिसथ मम च आननिय एहथ [ । ] इयं च ळिपि ( लिपि ) तिसनखतेन सोतविया [ । ] १८ – अंतला पि च तिसेन खनसि खनसि एकेन पि सोतविय [ । ] हेवं च कळंतं ( कलन्तं ) तुफे १९ – चघथ संपटिपाद यितवे [ । ] एताये अठाये इयं लिपि लिखित हिद एन २० – नगल-विथोहालका ( वियोहालका ) सस्वतं समयं यूजेबू ति [ एन ] जनस अकस्मा पलिबोधे व २१ – अकस्मा पळिकिलेसेव ( पलिकिलेसे ) नो सियाति [ । ] एताये च अठाये हकं [ महा ] मते पंचसु पंचसु वसे- २२ – सु निखामयिसामि ए अखखसे अचंडे सखिनालभे होसति एतं अठं जानितु [ तंपि ] तथा २३ – कलंति अथ मम अनुसथी ति [ । ] उजेनिते पि चु कुमाले एताये व अठाये निखामयिस [ ति अनुवासं ] २४ – हेदिसमेव वगं नो च तिकामयिसति तिंनि वसानि [ । ] हेमेव तखसिलाते पि [ । ] अदा अ [ नुवासं ] २५ – ते महामता निखमिसंति अनुसयानं तदा अहापयितु अतने कंमं एतं पि जानिसंति २६ – तं पि तथा कलंति अथ लाजिने अनुसथी ति [ । ] संस्कृत छाया देवानां प्रियः एवम् आह। समापायां महामात्रा: नगरव्यवहाराकाः एवं वक्तव्या:। यत् किंचित पश्यामि अहं तत् इच्छामि। किमिति कर्मणा प्रतिपादये द्वारतः च आरभे। एतत् च मे मुख्यमतं द्वारम् यत् युष्मासु अनुशिष्टिः। यूयं हि बहुसु प्राणसहस्रेषु आयताः प्रणयं गच्छेम स्वित मनुष्याणाम्। सर्वमनुष्याः मे प्रजाः। यथा प्रजायै इच्छामि अहं किमिति सर्वेण हितसुखेन यूज्येरन् इति ऐहलौकिक-पारलौकिकेन, एवम् एवमे इच्छा सर्वमनुष्येषु। न च यूयं एतत् प्राप्नुध यावदगमकः अयम् अर्थः। कश्चित् एकः मनुष्यः प्राप्णोति। तत्र भवति अकस्मात् इति तेन बन्धनान्तकम् अन्यः च वर्गः वेदयति। तत्र युष्माभिः इच्छितव्यम् किमित मध्यं प्रतिपादयेमहि। एभिः जातैः न संप्रतिपद्यते ईर्ष्यया, आशुलोपेन, नैष्ठुर्येण त्वरया अनावत्या, आलस्येन कल्मथेन। तत् इच्छितव्यं किमित मे एतानि जातानि न भवेयुः। सर्वस्य तु इदं मूलं अनाशुलोपः अत्वरया च। नीत्या यः क्लान्तः स्यात् न सः संचलितव्यं उत्थातव्यं वर्तयितव्यं अपि एतव्यं नीत्याम्। एतम् एव यः पश्येत् एवम् एवम् च देवानां प्रियस्य अनुशिष्टः इति। एतस्य सम्प्रतिपादः स महाफलः भवति। असम्प्रतिपत्ति महापापः भवति। विप्रतिपाद्यमाने न स्वर्गस्य आलब्द्धिः न राजालद्धिः। द्वयाहरः अस्य कर्मणः स मे कुतः मनोऽतिरेकः। एतस्मिन प्रतिपद्यमाने मम च आनण्य एष्यथ स्वर्गं च आराधयष्यथ। इयं च लिपिः अनुतिष्यं श्रोतव्या। अन्तरा अपि क्षणेन श्रोतव्या एकेन अपि श्रोतव्या। एतस्मै अथर्यि इयं लेखिता लिपिः येन महामात्राः नागरकाः शाश्वतं समयम् एतत् युञ्ज्युः इति येन मनुष्याणां एतस्मै च अर्थाय अहं पञ्चसु पञ्चसु वर्षेषु अनुसंयानं निष्क्रामयिष्यामि महामात्रं अचण्डं अपरुषं तत्

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अशोक का चौदहवाँ बृहद् शिलालेख

भूमिका चौदहवाँ बृहद् शिलालेख ( Fourteenth Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से चतुर्दश शिला प्रज्ञापन है। अशोक महान् ने भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) संस्थापित करवाये थे। प्रस्तुत मूलपाठ ‘गिरिनार संस्करण’ का मूलपाठ है। चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापनों में से गिरनार संस्करण सबसे सुरक्षित अवस्था में पाया गया है। । चौदहवाँ बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का चौदहवाँ बृहद् शिलालेख या चतुर्दश बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Fourteenth Major Rock Edict ) स्थान – गिरिनार, गुजरात भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल विषय – १४वाँ बृहद् शिलालेख सभी १४ शिलालेखों के उपसंहारात्मक स्वरूप का है। इसमें लिपि को धर्मलिपि कहा गया है। चौदहवाँ बृहद् शिलालेख : मूलपाठ १ – [ अयं धंमलिपी देवानं प्रियेन प्रियदसिना राञा लेखापिता ] [ । ] अस्ति एव २ – संखितेन अस्ति मझमेन अस्ति विस्ततन [ । ] न च सवं सवत घटितं [ । ] ३ – महालके हि विजितं बहु च लिखितं लिखापयिसं चेव [ । ] अस्ति च एत कं ४ – पुन पुन वुतं तस तस अथस माधूरताय [ । ] किंति जनो तथा पटिपजेथ [ । ] ५ – तत्र एकदा असमातं लिखितं अस देसं व सछाय कारणं व ६ – अलोचेत्पा लिपिकरणापरधेन व [ । ] संस्कृत छाया इयं धर्म लिपिः देवानां प्रियेण प्रियदर्शिना राज्ञा लेखिता। अस्ति एव संक्षिप्तेन अस्ति मध्यमेन अस्ति विस्ततेन। न च सर्वत्र घटितम्। महल्लकम् हि विजितम्। बहु च लिखितम् लेखयिष्यामि च नित्यम्। अस्ति च एतत् पुनः उक्तं तस्य अर्थस्य माधुर्याय। किमिति? जनः तथा प्रतिपद्येत। अत्र एकदा असमाप्तं लिखितं स्यात् देशं वा संक्षयकारणं वा आलोच्य लिपिकारापराधेन वा। हिन्दी अर्थान्तर १ – यह धर्मलिपि देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा लिखवायी गयी। २ – [ कहीं यह ] संक्षिप्त है, [ कहीं ] मध्यम है [ और कहीं ] विस्तृत है। क्योंकि सर्वत्र सब घटित ( उपयुक्त ) नहीं होते। ३ – [ मेरा ] विजित ( राज्य ) बड़ा ( महान ) है। [ मेरे द्वारा ] बहुत लिखा गया और [ मैं नित्य ( लगातार, बराबर ) लिखवाऊँगा। ४ – यहाँ ( इसमें ) [ कहीं-कहीं एक ही बात ] बार-बार ( पुनः पुनः ) उस अर्थ के मधुरता ( माधुर्य ) के लिए लिखी ( कही ) गयी है। क्यों? [ इसलिए कि ] जन ( लोग, मनुष्य ) वैसा व्यवहार करें। ५ – यह भी हो सकता है कि यहाँ जो कुछ ( एक ) [ आध ] बार असमाप्त ( अधूरा ) लिखा गया हो [ वहाँ ] देश के कारण वा कारण की पूरी ६ – आलोचना के वा लिपिकार के अपराध ( दोष ) से हो। प्रथम बृहद् शिलालेख द्वितीय बृहद् शिलालेख तृतीय बृहद् शिलालेख चतुर्थ बृहद् शिलालेख पाँचवाँ बृहद् शिलालेख छठा बृहद् शिलालेख सातवाँ बृहद् शिलालेख आठवाँ बृहद् शिलालेख नवाँ बृहद् शिलालेख दसवाँ बृहद् शिलालेख ग्यारहवाँ बृहद् शिलालेख बारहवाँ बृहद् शिलालेख तेरहवाँ बृहद् शिलालेख  

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अशोक का तेरहवाँ बृहद् शिलालेख

भूमिका तेरहवाँ बृहद् शिलालेख ( Thirteenth Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से त्रयोदश शिला प्रज्ञापन है। मौर्य सम्राट अशोक महान द्वारा भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ पर ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) संस्थापित करवाये गये थे। प्रस्तुत मूलपाठ ‘शाहबाजगढी संस्करण’ का मूलपाठ है। १४ बृहद् प्रज्ञापनों में से गिरनार संस्करण सबसे सुरक्षित अवस्था में पाया गया है। इसलिए चतुर्दश शिला प्रज्ञापनों में से बहुधा इसी संस्करण का उपयोग किया जाता है। तथापि अन्यान्य संस्करणों को मिलाकर पढ़ा जाता रहा है, जैसे कि यहाँ पर शाहबाजगढी संस्करण उद्धृत है। तेरहवाँ बृहद् शिलालेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का तेरहवाँ बृहद् शिलालेख या त्रयोदश बृहद् शिलालेख ( Ashoka’s Thirteenth Major Rock Edict ) स्थान – शहबाजगढी, पेशावर; पाकिस्तान भाषा – प्राकृत लिपि – खरोष्ठी समय – मौर्यकाल विषय – धर्मिक भावना का जागरण; कलिंग युद्ध; सीमान्त राज्य; राजा के धार्मिक विचार, प्रशासनिक और सामाजिक दृष्टिकोण का विवरण। तेरहवाँ बृहद् शिलालेख : मूलपाठ १ – अढवषअभिंसितस देवन प्रियस प्रिअद्रशिस रञो कलिग विजित [ । ] दिअढमत्रे प्रणशतमहस्रे ये ततो अपवुढे शतसहस्रमत्रे तत्र हते बहुतवतके व मुटे [ । ] २ – ततो पचो अधुन लधेषु कलिगेषु तिव्रे ध्रमशिलनं ध्रमकमत ध्रमनुशस्ति च देवनं प्रियसर [ । ] सो अस्ति अनुसोचनं देवनं प्रियस विजिनिति कलिगनि [ । ] ३ – अविजतं हि विजिनमनो यो तत्र वध न मरणं व अपवहो व जनस तं बढं वेदनियमतं गुरुमतं च देवनं प्रियस [ । ] इदं पि चु ततो गुरुमततरं देवनं प्रियस [ । ] व तत्र हि ४ – वसति ब्रमण व श्रमण व अंञे व प्रषंड ग्रहथ व येसु विहित एष अग्रभुटि-सुश्रुत मतपितुषु सुश्रुष गुरुनं सुश्रुष मित्रसंस्तुतसहयञ्तिकेषु दसभटकनं संमप्रतिपति द्रिढभतित तेषं तत्र भोति अपग्रथो व वधो व अभिरतन व निक्रमणं [ । ] येषं व संविहितनं [ सि ] नहो अविप्रहिनो ए तेष मित्रसंस्तुतसहञतिक वसन ५ – प्रपुणति तत्र तं पि तेष वो अपघ्रथो भोति [ । ] प्रतिभंग च एतं सव्रं मनुशनं गुरुमतं च देवनं प्रियस [ । ] नस्ति च एकतरे पि प्रषंडस्पि न नम प्रसदो [ । ] सो यमत्रो जनो तद कलिगे हतो च मुटो च अपवुढ च ततो ६ – शतभगे व सहस्रभगं व अज गुरुमतं वो देवनं प्रियस [ । ] यो पि च अपकरेयति छमितवियमते वे देवनं प्रियस यं शको छमनये [ । ] य पि च अटवि देवनं प्रियस विजिते भोति त पि अनुनेति अपुनिझपेति [ । ] अमुतपे पि च प्रभवे ७ – देवनं प्रियस वुचति तेष किति अवत्रपेयु न च हंञेयसु [ । ] इछति हि देवनं प्रियो सव्रभुतन अछति संयमं समचरियं रभसिये [ । ] एषे च मुखमुते विजये देवनं प्रियस यो ध्रमविजयो [ । ] सो चन पुन लधो देवनं प्रियस इह च अन्तेषु ८ – अषपु पि योजन शतेषु यत्र अन्तियोको नम योनरज परं च तेन अन्तियोकेत चतुरे ४ रजनि तुरमये नम अन्तिकिनि नम मक नम अलिकसुदरो नम निज चोड पण्ड अब तम्बपंनिय [ । ] एवमेव हिद रज विषवस्पि योन-कंबोयेषु नमभ नभितिन ९ – भोज-पितिनिकेषु अन्ध्रपलिदेषु सवत्र देवनं प्रियस ध्रुमनुशस्ति अनुवटन्ति [ । ] यत्र पि देवनं प्रियस दुत न व्रचन्ति ते पि श्रुतु देवनं प्रियस ध्रमवुटं विधेनं ध्रुमनुशस्ति ध्रमं अनुविधियन्ति अनुविधियशन्ति च [ । ] यो च लधे एतकेन भोति सवत्र विजयो सवत्र पुन १० – विजयो प्रतिरसो सो [ । ] लघ भोति प्रति ध्रमविजयस्पि [ । ] लहुक तु खो स प्रित [ । ] परत्रिकेव महफल मेञति देवन प्रियो [ । ] एतये च अठये अयो ध्रमदिपि दि पस्त [ । ] किति पुत्र पपोत मे असु नवं विजयं म विजेतविअ मञिषु [ । ] स्पकस्पि यो विजये छन्ति च लहुदण्डतं च रोचेतु [ । ] तं एवं विज [ यं ] मञ [ तु ] ११ – यो ध्रुमविजयो [ । ] सो हिदलोकिको परलोकिको [ । ] सव्र च निरति भोतु य स्रमरति [ । ] स हि हिदलोकिक परलोकिक [ । ] तेरहवाँ बृहद् शिलालेख : संस्कृत छाया अष्टवर्षाभिषिक्तस्य देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिना राज्ञेः कलिंगा विजिताः। अधयर्धमानं प्राणशतसहस्रं शतसहस्रमात्रास्तमहता बहुतावत्का व मताः। ततः पश्चात् अधुना लब्द्धेषु कलिंगेषु तीव्रं धर्मशीलनं, धर्मकामता, धर्मानुशस्तिः च देवानां प्रियस्य। तत् अस्ति अनुशोचनं देवानां प्रियस्य विजित्य कलिंगान। अविजिते हि विजीयमाने यतत्र वधो वा मरण वा अपवहो वा जनस्य। तद्वाढं वेदनीयमतो गुरुमतं च देवानां प्रियस्य। इदमसि च तु ततो गुरुमततरं देवानां प्रियस्य। ये तत्र वसन्ति ब्राह्मणा वा श्रमणा वा अन्ये वा पाषण्डा गृहस्थासवा येषु विहितैसा अग्रबुद्धशुश्रुषा माता-पितशुश्रूया गुरुणांशुश्रूषा मित्रसंस्तुत सहायज्ञतिषु दासभतकेषु सम्यकप्रतिपत्तिर्दढ़भक्तिता। तेषां तत्र भवति उपघातो वा वधो वा अभिरतानां वा निष्क्रमणम् येषां वापि संविहितानां स्नेहः अविप्रहीन एतेषां मित्रसंस्तुत सहाय ज्ञातीया व्यसनं प्राप्नुवन्ति तत्सोपि तेषामेव उपघातो भवति। प्रतिभागं चैतत सर्वे मनुष्याणां गुरुमतं च देवानां प्रियस्य। नास्ति च एकतरे अपि पार्षदे न नाम प्रसादः। तत यन्मात्रः जनः तदा कलिंगे हृतः च मतः च अपवाढेः च ततः शतभागो वा सहस्र भागो वा अद्य गुरुमत एव देवानां प्रियस्य। योऽपि च अपकरोति क्षन्तव्य एव मतो देवानांप्रियस्य यः शक्यः क्षमषाय। योपिचाटविकः देवानां प्रियस्य विजितो भवति तपप्यनुनयत्यनुनिध्यायति। अनुतायेऽपि च प्रभावो देवानां प्रियस्य उच्यते तस्य। किमित्यपत्रपेरन्न च हन्येस्। इच्छति हि देवानां प्रियः सर्वभूतानमक्षति संयम समचर्या मोदवत्तिम्। एतञ्चमुख्यारत विजये देवानां प्रियस्य यो धर्मविजयः। सच पुनः लब्धो देवानां प्रियस्येह च सर्वेषु चान्तेष्टष्टस्वपि योजन शतेषु यत्र अन्तियोको नाम यवन राजः परं च तस्माद् अन्तियोका चत्वारो राजानस्तुरमयो नाम अन्तिकोनो नाम मगो नाम अलिकसुन्दरो नाम नीचाः चोडाः पाण्ड्याः एवं ताम्रपर्णीयाः। एवमेव इह राज्य विषयेषु यवन कम्बोजेषु नाभके नामप्रान्तेषु भोज पितिनिक्येषु आन्ध्रपुलिन्देषु सर्वत्र देवानां प्रियस्य धर्मानुशिष्टिमनुवर्तते। यत्राति द्वता देवानां प्रियस्य न यान्ति तत्रापि श्रुत्वा देवानां प्रियस्य धर्मवत्तं निधानं धर्मानुशिष्टिं धर्ममनुविधत्यनुविधास्यन्ति च। यत्रलब्धं एतावता भवति सर्वत्र विजयः प्रीतिरसः सः। गाढ़ा सा भवति प्रीतिः। पारमिकमेव महाफलं मन्यते देवानां प्रियः एतस्मे चार्व्यापयं धर्मलिपिः लिखिता। किमिति? पुत्राः प्रपौत्रा मे शृणुयुः नवं विजयं मा विजेतव्यं मन्येरन्। शराकर्षिणो विजये शान्ति च लघुदण्डतां च रोचयन्ताम्। तमेव च विजयं मन्यतां यो धर्मविजयः। स एहलौकिक-पारलौकिकः। सवचि निरतर्भवतु या उद्यमरतिः। सा हि ऐहलौकिकपारलौकिकी। हिन्दी अनुवाद १ – आठ वर्षों से अभिषिक्त देवों के प्रियदर्शी राजा से कलिंग विजित हुआ। डेढ़ लाख प्राणी यहाँ से बाहर ले जाये गये ( बन्दी बना लिये गये ), सौ हजार ( एक लाख ) वहाँ आहत ( घायल या हताहत ) हुए; [ तथा ] उससे [ भी ] अधिक बहुत अधिक संख्या में मरे। २ – तत्पश्चात् अब कलिंग के उपलब्ध होने

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