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पंजतर अभिलेख

भूमिका पंजतर अभिलेख वर्तमान पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के बुनेर जिले में स्वात और सिन्धु नदी के बीच पहाड़ की तल में स्थित पंजतर नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। शैव धर्म से सम्बंधित यह अभिलेख खरोष्ठी लिपि और प्राकृत भाषा में है। पंजतर अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- पंजतर अभिलेख ( Panjtar Inscription ), कुषाण राजा का पंजतर प्रस्तर अभिलेख ( Panjtar Stone Inscription of a Kushan King ) स्थान :- पंजतर, बुनेर जिला, खैबर पख्तूनख्वा प्रांत, पाकिस्तान ( Panjtar, Buner district, Khyber Pakhtunkhwa, Pakistan ) भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- सं० १२२ ( ६५ ई० ) विषय :- महाराज कुषाण के राज्यकाल में मोयिक द्वारा शिव मंदिर का निर्माण और दो वृक्षों दान। विदेशियों के भारतीयकरण का साक्ष्य। पंजतर अभिलेख : संक्षिप्त परिचय १. सं १ [ + ] १०० [ + ] २० [ + ] १ [ + ] १ श्रवणस मसस दि प्रढमे १ महरयस गुषणस रजमि २. स्पसु अस प्रच— [ देशो ] मोइके उरुभुज-पुत्रे करविदे शिवथले [ । ] तत्र देमे ३. दनभि तरक १ [ + ] १ [ । ] पञकरे णेव अमत शिवथल रम….. म। संस्कृत अनुवाद संवत्सरे १२२ श्रावणमासस्य दिवसे प्रथमे महाराजस्य कुषाणस्य राज्ये स्वसुवस्य पूर्वभागः मोइकेन उरुमुज-पुत्रेण कारित शिवे मन्दिरम्। तत्र मे दाने द्वौ वृक्षौ। पुण्यकरं चिरस्थिकं शिवास्थानम्। हिन्दी अनुवाद संवत् १२२ के श्रावण मास के प्रथम दिन महाराज गुषण के राज्य [ के अन्तर्गत ] स्वसुव के पूर्व भाग में हुरमुजपुत्र मोयिक ने शिवस्थल बनवाया। वहाँ देमे? ने २ वृक्ष [ दान ] दिया। चिरस्थित ( अमृत ) शिवस्थल में पुष्यकार्य…..। पंजतर अभिलेख : विश्लेषण इस अभिलेख का निचला अंश खण्डित है। इसलिए तृतीय पंक्ति का तात्पर्य स्पष्ट नहीं हो पाया है। परन्तु पंक्ति २ से हुरमुजपुत्र मोयिक ( उरमुज-पुत्र मोयिक ) द्वारा शिवस्थल निर्माण कराये जाने की बात स्पष्ट है। इस तरह भारतीय उप-महाद्वीप के पश्चिमोत्तर प्रदेश ( वर्तमान अफगानिस्तान व पाकिस्तान; तत्कालीन गांधार और कम्बोज ) में शैव-धर्म के प्रचलित रहने का साक्ष्य मिलता है। इस संदर्भ में कुषाण-शासक विम-कदफिसेस ( ६५ – ७८ ई० ) के शैव मतानुयाई होने के कारण को सहज रूप में समझा जा सकता है। गुषण का अर्थ कुषाण है। खरोष्ठी लिपि में आ की मात्रा का अभाव पाया जाता है। प्राकृत भाषा में क को ग रूप में परिवर्तित पाया जाता है। इस तरह गुषण स्पष्टतः कुषाण का प्राकृत रूप है। अब प्रश्न यह है कि यह कौन से कुषाण शासक थे? कुषाण एक राजवंश था। इसलिए यह अभिलेख किसी कुषाण-शासक के शासनकाल का है। परन्तु कुषाण शासक के नाम का उल्लेख पंजतर अभिलेख में नहीं किया गया है। अतः यह निर्णय करना सहज नहीं है कि यह कुषाण-शासक कौन था। हाँ शैव धर्म से सम्बंधित होने के कारण अभिलेख में उल्लिखित शासक सम्भवतः विम कडफिसेस हो, परन्तु यह एक सम्भावना मात्र है।

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शोडास का मथुरा आयागपट्ट अभिलेख

भूमिका शोडास का मथुरा आयागपट्ट अभिलेख, मथुरा के कंकाली-टीला से प्राप्त हुआ है। जैन धर्म से सम्बंधित यह अभिलेख संस्कृत से प्रभावित प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में अंकित है। मथुरा आयागपट्ट अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम : मथुरा आयागपट्ट अभिलेख या मथुरापूजा अभिलेख ( Mathura Votive Tablet Inscription ), शोडासकालीन मथुरापूजा अभिलेख सम्वत् ७२ ( Mathura Votive Tablet Inscription of the time of Shodasa/Sodas – Year 72 ) स्थान :- कंकाली टीला, मथुरा; उत्तर प्रदेश भाषा :- प्राकृत ( संस्कृत प्रभावित ) लिपि :- ब्राह्मी समय :- प्रथम शताब्दी ई०, अनिर्दिष्ट सम्वत् ७२ विषय :- जैन धर्म के लिए अयागपट्ट या पूजा शिला की स्थापना। जैन भिक्षु की शिष्या अमोहिनी द्वारा जैन आयागपट्ट ( Votive ) की स्थापना। मथुरा आयागपट्ट अभिलेख : मूलपाठ १. नम अरहतो वर्धमानस [ । ] २. स्व [ ा ] मिस महक्षत्रपस शोडासस संवत्सरे ७० [ + ] २ हेमंतमासे २ दिवसे ९ हरिति-पुत्रस पालस भयाये समन-स [ ा ] विकाये ३. कोछिये अमोहिनिये सहा पुत्रेहि पालघोषेन पोठघोषेन धनघोषेन आर्यवति [ प्र ] तिथापिता [ । ] प्रिय……….. ४. आयवंति अरहत-पूजाये [ । ] संस्कृत छाया नमः अर्हते वर्धमानाय। स्वामिनः महाक्षत्रपस्य शोडास्य संवत्सरे ७२ हेमंत मासे २ दिवसे ९ हारीतपुत्रस्य पालस्य भार्याया श्रमण-श्राविकया कौत्स्या अमोहिन्या सह पुत्रेहि पालघोषेण, पीठघोषेण, धनघोषेण आर्यवती प्रतिष्ठापिता। प्रियं आर्यवती अर्हत् पूजायै। हिन्दी अनुवाद १ – नमः अर्हत वर्धमान २ – स्वामी महाक्षत्रप शोडास के संवत्सर ७२ के हेमन्त के द्वितीय मास के दिवस ७ को हारीतिपुत्र पाल की भार्या श्रमण-श्राविका (जैन भिक्षु-शिष्या) के लिए ३ – कौत्स-गोत्रिया अमोहिनी ने अपने पुत्र पालघोष, पीठघोष और घनघोष सहित यह आर्यवती ( आयागपट्ट ) स्थापित किया। [ प्रिय भगवती ] ४ – अर्हत पूजा के निमित्त। ऐतिहासिक महत्त्व इस अभिलेख से मथुरा में जैन धर्म के अस्तित्व का परिचय मिलता है। पर इसका महत्त्व इस पर अंकित तिथि के कारण है। यह तिथि किस सम्वत् का प्रतीक है, यह अभी पूर्णत: निर्धारित नहीं किया जा सका है। परन्तु सम्वत् निर्धारण के लिए जो प्रयास हुए हैं उसमें यह तिथि समाधान में काफी सहायक समझा जाता है। अनुमान है कि यह प्राचीन शक-पह्लव सम्वत् का बोधक है, जिसे कुछ लोग विक्रम संवत्, जिसका आरम्भ ई०पू० ५७ से माना जाता है, अनुमान करते हैं। यह अभिलेख एक पाषाण फलक पर अंकित है। इसपर दासियों से घिरी एक रानी का दृश्य है। एक दासी छत्र लिए खड़ी है। यह धार्मिक प्रकृत का पूर्णरूपेण व्यक्तिगत अभिलेख है। यह अभिलेख जैन धर्म को समर्पित है। इसमें उल्लिखित आर्यवती शब्द का अर्थ है – अयागपट्ट या आपागपट्ट। यह एक ऐसा पट्ट होता है जिसपर अर्हत की प्रतिमा बनी होती है। कंकाली टीला को जैन धर्म का आगार ( Emporium ) माना जाता है। इसका कारण यह है कि कंकाली टीले से जैन धर्म से सम्बंधित विपुल सामग्री की प्राप्ति हुई है। इस टीले का नाम भी जैन धर्म की ६४ योगिनियों में से एक के नाम ‘कंकाली’ के ही नाम पड़ा है। इस अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि शक-क्षत्रपों के शासनकाल में मथुरा में जैन धर्म उन्नत अवस्था में था। मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख में शोडास का उल्लेख एक युवराज के रूप में किया गया है और उसको क्षत्रप कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि शोडास जो कि राजूल ( राजवुल ) का पुत्र था। वह राजूल के बाद शासक ( महाक्षत्रप ) बना।

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मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख

भूमिका मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख प्राकृत भाषा और खरोष्ठी लिपि में है। यह अभिलेख उत्तर प्रदेश के के मथुरा जनपद से मिला है जोकि वर्तमान में लंदन के ब्रिट्रिश संग्रहालय में रखा गया है। यह सिंह स्तम्भ लाल बलुआ पत्थर ( Red Sandstone ) का बना है। यह अभिलेख अव्यवस्थित ढंग लिखा हुआ है जिससे कि इसका उद्वाचन कठिनाई उत्पन्न करता है। अभिलेख-विशारदों ने उसे खंडों में बाँटकर पढ़ने और फिर इन खंडों का तारतम्य बिठाकर व्यवस्थित करके प्रस्तुत करने करने का प्रयास किया है। मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख ( the Mathura Lion Capital Inscription ) स्थान :- मथुरा, उत्तर प्रदेश। वर्तमान में यह लंदन के ब्रिट्रिश संग्रहालय में रखा है। भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- प्रथम शताब्दी विषय :- शक महाक्षत्रप की शासनप्रणाली का ज्ञान, बौद्ध सम्प्रदाय सर्वास्तिवादी व महासंघिक का उल्लेख मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख : मूलपाठ प्रथम (क१) (१) महक्ष [ त्र ] वस रजुलस (२) अग्रमहेषि अयसिअ (३) कमु [ स ] अ धित्र (४) स्वर्र ( र्ह? ) ओस्तस युवरञ (५) मत्र नददि ( सि? ) अकस [ ए? ] (क२) (६) सध मत्र अबुहोल [ ए ] (७) पित्रमहि पिश्प्रस्त्रिअ भ्र- (८) त्र हयुअरन सध हन धि [ त्र ] (९) अतेउरेन होरक-प- (१०) रिवरेन इश्र प्रदूवि-प्रत्रे- (११) श्रे निसिमे शरिर प्रत्रिठवित्रो (१२) भक्रवत्रो शकमुनिस बुधस (१३) म ( ? ) किहि ( ? ) र ( त? ) य सश्प [ अ ] भुसवित ( ? ) (१४) ध्रुव च सधरम च चत्रु- (१५) दिवस सघस सर्व- (१६) स्तिवत्रन परिग्रहे [ ॥ ]१ (ग) (१) कलुइ-अ- (२) वरजो (घ) (१) नउलुदो [ । ]   द्वितीय (ख) (१) महक्षत्रवस (२) वजुलस्य२ पुत्र३ (३) शुडसे क्षत्रवे४ (च१) (१) खर्र ( र्ह ) ओस्तो युवरय (२) खलमस कुमार (३) मंज कनिठ (४) समनमोत्र- (२) (१) क्र [ । ] करित ( ड, ढ़ ) ( १ ) अयरिअस (२) बुधत्रेवस (३) उत्रएन अयिमित ( स ? )- (झ१) (१) गुहविहरे (झ२) (१) धमदन ( ? ) (छ) (१) बुधिलस नक्ररअस (२) भिखुस सर्वस्तिवत्रस [ । ] (ज) (१) महक्ष [ त्र ] वस्य कुसुलअस पदिकस मेव ( ? ) किर (२) मियिकस क्षत्रवस पुयए [ ॥ ] (च३) (१) कमुइओ [ । ] तृतीय (ण) (१) क्षत्रवे शुडिसे (२) इमो पढ्रवि- (३) प्रत्रेश्रो (ट) (१) वेयउदिन कधवरो बसप- (२) रो कध- (३) वरो (४) वियउ- (ठ) (१) र्व……..पलिछिन ( ? ) (२) निसिमो करति नियत्रित्रो (३) सर्वस्तिवत्रन परि ( ? ) ग्रहे (त) (१) अयरिअस बुधिलस नकरकस भिखु- (२) स सर्वस्तिवत्रस पग्र- (३) न महसघिअन प्र- (४) म ( ? ) ञ-वित्रवे खलुलस ( ॥ ) (थ) (१) सर्वबुधन पुय [ । ] धमस (२) पुय [ । ] सघस पुय [ । ] (द) (१) सर्वस सक्रस्त (२) नस पुयए [ । ] (ध) (१) खर्दअस (२) क्षत्रवस [ । ] (न) (१) रक्षिलस (२) क्रोनिनस [ । ] (ठ१) (१) खलशमु- (२) शो [ । ] स्टेन कोनो इसके बाद खण्ड च रखते हैं जो यहाँ समूह २ में रखा गया है।१ रजुलस्य पढ़ा जाना चाहिए।२ स्टेन कोनो इसके बाद खण्ड य को रखते हैं।३ स्टेन फोनो इसके बाद खण्ड घ को रखते हैं।४ हिन्दी अनुवाद प्रथम ( क१) महाक्षत्रप राजुल की अग्रमहिषी, आयस कोमूसा की पुत्री; युवराज खरवस्त की माता, नददियक५ ने ( क२ ) अपनी माता आबुहोलिया, पितामही पिश्पस्पा, भाई हयुअरन के साथ, पुत्री हन [ और ] अन्त:पुर के होरक परिवार के साथ इस पृथ्वी प्रदेश में ( स्थान पर ) निःसीम ( स्तूप ) में भगवान् शाक्यमुनि बुद्ध का शरीर ( देहावशेष ) सबके मुक्ति निमित्त उत्थापित ( प्रतिष्ठित ) किया ………. ६ स्तूप और संघाराम को चारों दिशाओं के ( समस्त ) सर्वास्तिवादियों को प्रदान किया। ( ग ) कालुय्यवर [ और ] (घ) नवूलूद [ ने इसका निर्माण किया अथवा इसे लिखा ? ]। द्वितीय ( ख ) महाक्षत्रप राजुल पुत्र क्षत्रप शोडास [ आदेश करते हैं ] [ और ] ( च ) युवराज खरवस्त, कुमार खलामस, कनिष्ठ [ सबसे छोटे भाई ] मच इसका अनुमोदन करते हैं- ( ड, ढ़ ) आचार्य बुद्धदेव के शिष्य उदयन अजमित्र ( ? ) के ( झ ) गुहाविहार के धर्मदान को। ( छ ) सर्वास्तिवादिन भिक्षु नगर निवासी बुधिल को। ( ज ) महाक्षत्रप कुसुलक के पतिक के, मेनिक के, मियक के पूजा स्वरूप ( च३ ) कामूयिय [ ने इसको लिखा ? ]। तृतीय ( ण ) क्षत्रप शोडास [ आदेश देते हैं ] -इस प्रदेश में ( ट, ठ ) विजयोदीर्ण स्कन्धावार और पुसापुर स्कन्धावार [ में ] स्थित विजयोर्व…..परीक्षिण ( नामक पुरुष ) ने निःसीम ( स्तूप ) बनवाया और ( उसे ) सर्वास्तिवादियों को दिया ( त ) आचार्य नगर-निवासी भिक्षु बुधिल को प्रदान किया ताकि महासांधिकों को सत्य की शिक्षा दें७ ( थ ) सर्व बुद्ध की पूजा, धर्म की पूजा, संघ की पूजा। ( द ) सर्व-शक संस्थान की पूजा के निमित्त ( ध, न ) क्षत्रप खर्दक के, रक्षिल के और क्रोणिन के [ पूजा के लिए ]। (ठ १) खलमुख [ ने लिखा ? ]। स्टेन कोनो ने इसको इस प्रकार ग्रहण किया है-महाक्षत्रप राजुल की अग्रमहिषी, अवसिय कमुइया, युवराज खरोस्ट की पुत्री, नददियक की माता। इस अर्थ के प्रस्तुत करने में उनका तर्क यह है कि नददियक का नाम अग्रमहिषी से दूर है। किन्तु यह कोई तर्क नहीं है। संगत क्रम यही है कि पूर्व सम्बन्धियों का उल्लेख कर तब अपने नाम का परिचय दिया जाय।५ पंक्ति १३ का पाठ स्पष्ट नहीं है।६ इस पंक्ति का अर्थ बहुत स्पष्ट नहीं है।७ विश्लेषण क्रमबद्ध पंक्तियों के अभाव में लेख व्यवस्थित ढंग से नहीं पढ़ा जा सका है। यद्यपि निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता, परन्तु प्रतीत होता है कि इसमें तीन स्वतन्त्र लेख हैं इसी रूप में विद्वानों ने मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख का अनुवाद प्रस्तुत किया है। प्रथम लेख से प्रकट होता है कि महाक्षत्रप राजुल ( रजुबुल ) की अग्रमहिषी ने अपने कतिपय सम्बन्धियों के सहयोग से बुद्ध के अवशेष पर स्तूप का निर्माण करवाया था। साथ ही यह भी प्रकट होता है कि स्तूप और संघाराम को उसने सर्वास्तिवादी सम्प्रदाय को भेंटस्वरूप

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तख्तेबाही अभिलेख ( Takht-i-Bahi Inscription )

भूमिका तख्तेबाही अभिलेख पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के मरदान जनपद में है। यह अभिलेख खरोष्ठी लिपि और प्राकृत भाषा में लिखा हुआ है। इस अभिलेख के शिला का प्रयोग पीसने के लिए सिल के रूप में होता था जिसके कारण इसकी तीसरी, चौथी और पाँचवीं पंक्तियाँ घिस गयी हैं और उनका पाठ अनेक स्थलों पर संदिग्ध है। यह अभिलेख लाहौर संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। तख्तेबाही अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- तख्तेबाही अभिलेख या तख्त-ए-बाही अभिलेख ( Takht-i-Bahi Inscription ) या गोण्डोफरनीज का तख्त-ए-बाही अभिलेख ( Takht-i-Bahi Inscription of Gondopohernees ) स्थान :- मरदान जिला, खैबर पख्तूनख्वा प्रांत, पाकिस्तान ( Mardan, Khyber-Pakhtunkhwa, Pakistan ) भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- प्रथम शताब्दी ई० विषय :- राजा द्वारा अपने माता-पिता के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए दान का विवरण विशेष :- तख्त-ए-बाही एक विश्व धरोहर स्थल है। तख्त-ए-बाही का शाब्दिक अर्थ है – ‘पानी के झरने का सिंहासन’ ( throne of the water spring. )। गोण्डोफरनीज / गोण्डोफर्नीज ( Gondophernees ) पह्लव शासक था और तख्तेबाही अभिलेख उसके सम्बन्ध में सूचना देनेवाला एकमात्र अभिलेख है। तख्तेबाही अभिलेख : मूलपाठ १. महरयस गुदुव्हरस वष २० [ + ] ४ [ + ] १ [ + ] १ २. संब [ त्सरए ] [ ति ] शतिमए १ [ + ] १०० [ + ] १ [ + ] १ [ + ] १ वेशखस मसस दिवसे ३. [ प्रठमे ] [ पुञे ] [ ब ] [ ह ] ले पक्षे बलसमिस [ बो ] यणस ४. [ परि ] वर शध-दण स-पुअस केणमिर बोअणस ५. एर्झुण कप …… स पुअए [ । ] मदु- ६. पिदु पुअए [ । ] संस्कृत छाया महरजस गुदुह्वरस्य राज्य वर्षे २६ सम्वत्सरे १०३ वैशाखस्य मासस्य प्रथमे दिवसे पुण्य बहुल पक्षे बलस्वामिने वोयनस्य प्राकारः श्रद्धा दानं सुपुत्रस्य केनमिर वोयनस्य एर्झुन कपस्य च पूजायै, मातापित्रोः पूजायै ( समाननाय )। हिन्दी अनुवाद महाराज गुदुव्हर ( गुदूफर ) के राज्य वर्ष २६१ [ तथा ] संवत् १०३२ के वैशाख मास के प्रथम पुण्य दिवस बहुल पक्ष३ में बोयण के परिवार४ के बलस्वामी५ का यह श्रद्धा-दान पुत्रों सहित केनमिर-बोयन और एर्जुन६ ( कुमार ) कम के पुजा ( सम्मान ) के लिए, माता-पिता के पूजा ( सम्मान ) के लिए है। यहाँ खरोष्ठी की अंक-पद्धति के अनुसार २६ के लिए २० और उसके बाद ६ के लिए ४, १, १, लिखा गया है।१ इसमें १०० के बोध के लिए सौ के चिह्न से पूर्व १ का अंकन उल्लेखनीय है। तीन के लिए तीन बार १ का प्रयोग हुआ है।२ बहुल पक्ष शुक्ल पक्ष के लिए प्रायः लेखों में प्रयुक्त पाया जाता है।३ बलस्वामी बोयन के क्रम में व्यक्तिवाचक अनुमान किया जा सकता है। किन्तु आगे उल्लिखित केनमिर-बोयन को देखते हुए संस्कृतनिष्ठ भारतीय नाम की सम्भावना नहीं जान पड़ती है। अतः यहाँ बलस्वामी विशेषण ही जान पड़ता है और वह सम्भवतः पदबोधक है और इसका अभिप्राय सेनापति से है।४ मूल पाठ [ परि ] वर के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो परिवार के निकट है। इसका सीधा-सादा अर्थ कुल न लेकर स्टेन कोनो ने enclosure, enclosed hall, chapter अथवा chapel किया है। दिनेशचन्द्र सरकार ने उसे प्राकार के अर्थ में ग्रहण किया है और उसका अभिप्राय क्षुद्रवास-गृह बताया है।५ इस एर्जुन उपाधि का प्रयोग मथुरा से प्राप्त एक बुद्धमूर्ति अभिलेख में भी हुआ है।६ तख्तेबाही अभिलेख : विश्लेषण इस अभिलेख में महाराज गुदुव्हर ( गुदूफर ) का उल्लेख है जो दक्षिणी अफगानिस्तान का पह्लव शासक था। उसने सिन्धु घाटी तक अपने राज्य का विस्तार किया था। ईसाई अनुश्रुतियों के अनुसार यह भारत और पार्थिया के सन्त थॉमस का समकालिक कहा जाता है। सन्त थॉमस का भारत में आगमन गोण्डोफर्नीज के शासनकाल में हुआ था। वे ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए आये थे। बाद में वे दक्षिण भारत चले गये थे। ईसाई अनुश्रुतियों के अनुसार दक्षिण भारत में उनकी हत्या कर दी गयी। सन्त थॉमस ईसा मसीह के १२ शिष्यों में से एक थे। गुदुव्हर के सिक्के भी बड़ी मात्रा में प्राप्त होते हैं और उनके आधार पर वह अय ( द्वितीय ) ( Azes II ) का उत्तराधिकारी अनुमान किया जाता है। इस लेख को विशेषता यह है कि इसमें गुदुव्हर के राजवर्ष के साथ-साथ एक अन्य संवत्सर का भी उल्लेख ठीक उसी प्रकार हुआ है जिस प्रकार परवर्तीकालीन गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल के मथुरा स्तम्भलेख में हुआ है। इस संवत्सर का आरम्भ कब हुआ अभी तक निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता। लोग इसे मथुरा के शोडाससकालीन अभिलेख के सम्वत् ७२ और पतिक के तक्षशिला ताम्रलेख के सम्वत् ७८ के क्रम में ही अनुमान करते रहे हैं। दूसरी ओर डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त जी की धारणा है कि यह इन दोनों अभिलेखों के क्रम में न होकर बाजौर अस्थि-मंजूषा अभिलेख के वर्ष ६३ के क्रम में है। इस धारणा का आधार उक्त अभिलेख में उल्लिखित अप्रचराज विजयमित्र और इत्रवर्मन के साथ कतिपय सिक्कों पर अंकित अपचराज इत्रवर्मन और उसके पिता विजयमित्र की पहचान है। इत्रवर्मा के पुत्र के रूप में अस्पवर्मा का उल्लेख कुछ सिक्कों पर हुआ है और वह अय-द्वितीय और गुदूफर के अन्तर्गत स्त्रतग ( Stratogas ) के रूप में जाना-पहचाना है। इस प्रकार हमारे सम्मुख एक क्रम में तीन अप्रचराज इस प्रकार हैं — विजयमित्र = अय — वर्ष ६३    ⇓ इत्रवर्मा    ⇓ अस्पवर्मा = गुदूफर = ७७ ( १०३-२६ = ७७ ) (अज्ञात संवत्) अय वर्ष ६३ में जब बाजौर मंजूषा प्रतिष्ठापित की गयी उस समय इत्रवर्मा कुमार था और उस समय तक उसके पिता विजयमित्र के शासन के २५ वर्ष हो चुके थे। अतः यह सहज अनुमान किया जा सकता है कि एक-दो वर्ष के भीतर ही वह अप्रचराज हुआ होगा। उस समय वह स्वयं काफी वयस्क रहा होगा। यह अनुमान करना अनुचित न होगा कि उसका पुत्र अस्पवर्मा भी उस समय तक युवा हो गया होगा। इस प्रकार वह किसी भी समय अय (द्वितीय) और उसके बाद गुदूफर के अधीन स्त्रतग हो सकता था। गुदूफर का शासन वर्ष ७७ में आरम्भ हुआ था पर आवश्यक नहीं कि शासक होने के साथ ही उसने अय के राज्य-क्षेत्र पर अधिकार किया हो। इस प्रकार स्पष्ट है कि तख्तेबाही के इस अभिलेख की तिथि को

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तक्षशिला ताम्रलेख

भूमिका तक्षशिला ताम्रलेख १४ इंच लम्बे और ३ इंच चौड़े ताम्रपत्र पर अंकित है। यह आभिलेख तीन टुकड़ों में खण्डित है। इसे तक्षशिला, रावलपिंडी, पाकिस्तान में कहीं मिला था और इसके प्राप्ति स्थान को निश्चित रूप से नहीं जाना जा सका है। वर्तमान में यह ताम्रलेख लन्दन के रायल एसियाटिक सोसाइटी में सुरक्षित है। यह लेख खरोष्ठी लिपि और प्राकृत भाषा में पाँच पंक्तियों में अंकित है। इसमें अक्षर की रेखाएँ बिन्दुओं द्वारा अंकित की गयी हैं। तक्षशिला ताम्रलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- तक्षखिला ताम्रलेख ( Taxila Copper plate ), पतिक का तक्षशिला ताम्रलेख ( Patika copper plate ), मोगा अभिलेख ( Moga inscription ) स्थान :- तक्षशिला, रावलपिंडी; पाकिस्तान। वर्तमान में रॉयल एशियाटिक सोसायटी, लंदन में है। भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- प्रथम शताब्दी ई०पू० से पहली शताब्दी ई० के मध्य विषय :- बौद्ध धर्म से सम्बंधित तक्षशिला ताम्रलेख : मूलपाठ १. [ संवत्स ] रये अठसततिमए २० [+] २० [+] २० [+] १० [+] ४ [+] ४ महरयस महंतस [ मो ] गस  प [ ने ] मस मसस दिवसे पंचमे ४ [+] १ [ । ] एतये पुर्वये क्षहर [ तस ] २. चुख्ससच क्षत्रपस लिअको कुसुलुको नम तस पुत्रो [ पति ] [ को ] [ । ] तखशिलये नगरे उतरेण प्रचु-देशो क्षेम नम [ । ] अत्र ३. [ दे ] शे पतिको अप्रतिठवित भगवत शकमुनिस शरिरं [ प्र ] [ ति ] थ- [ वेति ] [ सं ] घरमं च सर्व-बुधन पुयए मत-पितरं पुययं [ तो ] ४. क्षत्रपस स-पुत्र-दरस अयु-बल वर्धिए भ्रतर सर्व [ च ] [ ञतिग ] घवस च पुययंतो महदनपति पतिक सज उव [ झ ] ए [ न ] ५. रोहिणिमित्रेण य इम [ मि? ] संघरमे नवकमिक [ । ] ६. पतिकस क्षत्रप लिअक [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद महाराज महान् मोग के संवत्सर अठत्तर ( ७८ )१ के पनेमास२ नामक मास के पाँचवें दिवस को। इस पूर्व कथित [ तिथि ] को चुख्स का क्षहरात और क्षत्रप लियक कुसुलक नामक [ था ] उसका पुत्र पतिक [ है ]। तक्षशिला नगर३ की उत्तर दिशा में क्षेम नाम ( का ) पूर्वप्रदेश [ है ]। इस देश में पतिक ने अप्रतिष्ठित ( जो पहले प्रतिष्ठित नहीं हुआ था ) भगवान् शाक्य मुनि का शरीर ( अस्थि-अवशेष ) एवं संघाराम प्रतिष्ठित किया सर्व बुद्धों की पूजा के लिए, माता-पिता की पूजा के लिए, पुत्र-पुत्री सहित क्षत्रप के आयुर्बल के लिए, सभी भाइयों, जातिवासियों ( ज्ञातिक ) और पड़ोसियों ( अधिवासी ) के लिए। महादानपति पतिक ने उपाध्याय रोहिणीमित्र के साथ, जो इस संघाराम का नवकर्मिक ( निर्माण-कार्य की व्यवस्था करनेवाला ) है, पूजा कर। पतिक का क्षत्रप लियक। यहाँ खरोष्ठी की अंक-लेखन पद्धति द्रष्टव्य है। ७८ के लिए तीन बार २०, फिर १० और दो बार ४ लिखा गया है।१ यह यूनानी ( मेसिडोनियन ) मास का नाम है। यह मास भारतीय गणना के अनुसार आषाढ़-श्रावण के महीनों में पड़ता है।२ दिनेशचन्द्र सरकार तक्षशिला नगर का सम्बन्ध पतिक से जोड़ते हैं – पतिकः तक्षशिलायां नगरे [ स्थितः ] (पतिक जो तक्षशिला नगर में स्थित था)। किन्तु डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त तक्षशिला का सम्बन्ध अगले अंश से जोड़ते हैं।३ तक्षशिला ताम्रपत्र : विश्लेषण तक्षशिला ताम्रपत्र से शक शासकों द्वारा बौद्ध धर्म के प्रति निष्ठा का परिचय मिलता है। परन्तु इसका महत्त्व राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से ही विशेष आँका जाता है। इस अभिलेख में जिस महाराज महान् मोग ( Moga ) का उल्लेख है, उसकी पहचान सिक्कों से ज्ञात मोअ ( Maues ) से की जाती है। इन सिक्कों पर खरोष्ठी लेख रजतिरजस महतस मोअस प्राप्त होता है। किन्तु निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि अभिलेख का मोग और सिक्कों का मोअ एक ही है। कोई कारण नहीं है कि एक ही व्यक्ति को एक स्थान पर मोग और दूसरे स्थान पर मोअ लिखा जाय। इसके साथ-साथ अभिलेख में वर्णित सम्वत् के सम्बन्ध में भी प्रश्न उठता है। यह संवत् मोग का अपना है अथवा कनिष्क सम्वत् की तरह पहले से चला आता हुआ संवत् है और मोग के शासन- काल में उक्त संवत्सर में अभिलेख के अंकित होने मात्र का द्योतक है। इन दोनों ही बातें अभी तक अनुत्तरित हैं। इस अभिलेख का सम्बन्ध मुख्य रूप से लियक कुसुल और पतिक नामक दो व्यक्तियों से है। इस अभिलेख में लियक कुसुल को क्षहरात और क्षत्रप कहा गया है और पतिक को केवल महादानपति कहा गया है। इससे प्रकट होता है कि इस अभिलेख के अंकन के समय वह कोई शासनिक अधिकारी नहीं था। क्षहरात शकों के किसी शाखा, वंश अथवा कुल का नाम था। पश्चिमी शक क्षत्रप भूमक और नहपान ने अपने सिक्कों पर अपने को क्षहरात कहा है। वंश के रूप में क्षहरात का उल्लेख सातवाहन-नरेश पुलुमावि के नासिक अभिलेख में भी हुआ है। कुछ विद्वानों की धारणा है कि जिस कुसुलक और पतिक का उल्लेख मथुरा सिंह-स्तम्भशीर्ष-अभिलेख में हुआ है, उन्हीं का उल्लेख इस अभिलेख में भी है। कुछ लोग कुसुलक को वंश अथवा कुल का नाम अनुमान करते हैं। उनके अनुसार इस लेख के पतिक के पिता का नाम लियक था। मथुरा सिंह-स्तम्भशीर्ष-अभिलेख में पिता का नाम नहीं है । वहाँ केवल ‘कुसुल’ का उल्लेख है जो सन्दर्भ के अनुसार वंश-बोधक की अपेक्षा व्यक्तिवाचक है। यदि इसे वंश-बोधक स्वीकार करें तब भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वह लियक का ही पुत्र था। लियक कुजूल की पहचान लोग कुछ सिक्कों पर अंकित लियक कुजूल ( Liako Kozoylo ) से करते हैं। ये सिक्के यवन यूक्रितिद के सिक्कों के अनुकरण पर बने जान पड़ते हैं। परन्तु इस आधार पर लियक का समय निर्धारित नहीं किया जा सका। लियक कुसुलक के सम्बन्ध में इतनी सूचना और उपलब्ध है कि वह चुख्स का शासक था। चुख्स की पहचान के लिए बुह्लर ने संस्कृत शब्द चोस्क की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। त्रिकाण्डशेष नामक कोष के अनुसार घोड़ों को चोस्क कहते थे। जिस प्रकार सिन्धु के घोड़ों को सैन्धव कहते हैं उसी प्रकार चोस्क का प्रयोग भी सिन्धु नदी के तटवर्ती प्रदेश से आनेवाले घोड़ों के लिए किया गया हो तो आश्चर्य की बात नहीं। अतः इस आधार पर बुह्लर क्षत्रप लियक कुसुलक को सिन्धु तक विस्तृत पूर्वी पंजाब का शासक अनुमान करते हैं। आरेल

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बाजौर अस्थि-मंजूषा अभिलेख

भूमिका बाजौर अस्थि-मंजूषा अभिलेख बाजौर क्षेत्र से प्राप्त हुई है। यह अभिलेख सेलखड़ी (steatite) की बनी एक अस्थि-मंजूषा पर अंकित है। अब यह एक निजी संग्रह में है। इस पर खरोष्ठी लिपि में उत्तर-पश्चिमी भारतीय प्राकृत भाषा में यह अभिलेख अंकित है। इसका पाठ पहले सर हेराल्ड बेली ने प्रस्तुत किया था बाद में उसे ऐतिहासिक विवेचन के साथ ब्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी ने प्रकाशित किया। बाजौर अस्थि-मंजूषा अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- बाजौर अस्थि-मंजूषा अभिलेख स्थान :- बाजौर, पाकिस्तान भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- मौर्योत्तरकाल लगभग प्रथम / द्वितीय शताब्दी ई०पू० विषय :- बौद्ध धर्म से सम्बंधित मूलपाठ १. इमे च शरिर मुर्यक-लिखते थुबुते किड-पडिबरिय अवियिए, अतेथि-भजिभमि प्रतिथवणभि प्रतिथविस २. वसिय पंचविसो ३. संवत्सरये चेशठिये २० [+] २०[+] २०[+] ३ महरयस अवस अतिदस कर्तिकस मसस दिवसये षोडसे इमेणं चेथिके क्षणे इत्र (अथवा द्र) वर्मे कुमार अप्रच-राज-पुत्रे ४. इमे भगवतो शकमुणिस शरिर प्रतिथवेति थियये गभिरये अप्रथित-वित-प्रवे पतेशे बुमुपुज प्रसवति सथ मदुण रुखणक अज पुत्रिये अपचराज-भर्यये ५. सध मडलेण रमकेण सध मडलणी एदषकये सध स्पसदरेहि वस-वदतये महपिद एणकये चधिनि एयउतरये ६. पिदु अ पुयये विष्णुवर्मस अवच-रयस ७. भुद वग स्त्रतग पुयइते विजय मिरोय अवचराय-मदुक सभयेदत पुयि [त]। हिन्दी अनुवाद और मुर्यक-लयण (गुहा) विहार [में] जो स्तूप बना था और [ उस स्तूप ] के ऊँचे मध्य भाग में जो यह अस्थि-अवशेष (relics) स्थापित [था] भगवत् शाक्यमुनि के उस अवशेष को वर्ष २५ [ और ] महाराज अय (अतीत) के ६३वें वर्ष के कार्तिक मास के १६वें दिन, इस शुभ घड़ी में अप्रचराज के पुत्र कुमार इत्रवर्मन ने प्रतिष्ठापित किया । [ इस प्रकार उसने ] उस क्षेत्र में [ जहाँ अवशेष रखा गया था ] स्थायी और गहरा तड़ाग (Cistern) बनाया। पुण्यलाभ के लिए अपने मामा रमक, मामी एडषक, बहन [और] पत्नी वासवदत्ता के साथ, अपने पूज्य (अणिक), पितामह चघिन और [अपने] पूज्य पिता अप्रचराज के भाई वग और स्त्रतक विष्णुवर्मा और अप्रचराज की माता, इन सबके पुण्य के लिए [भी]। टिप्पणी पुण्यलाभ के लिए किसी स्तूप में, एक दूसरे स्तूप से लाकर अस्थि-मंजूषा प्रतिष्ठित करने की सामान्य घोषणा इस अभिलेख द्वारा की गयी है। किन्तु इतिहास की दृष्टि से कुछ बातें विशेष रूप से विचारणीय हैं। पहली बात, तो यह है कि इस अभिलेख में संवत्सर के प्रसंग में महाराज अय का उल्लेख हुआ है। इस अभिलेख के प्रकाश में आने से पहले दो अन्य अभिलेख मिल चुके थे जिसमें संवत्सर के साथ अय का नाम जुड़ा हुआ था। एक तो कलवान से मिला था जिसमें संवत्सरये १३४ अजस श्रवणमासस दिवसे चेविथे का उल्लेख हैं। दूसरा अभिलेख तक्षशिला से प्राप्त एक मंजूषा के भीतर रखे रजत-पत्र पर अंकित है। इसमें सं० १३६ अयस अषड़समसस दिवसे १० लिखा है। दूसरी बात, इन दोनों अभिलेखों में अयस के व्यक्तिवाचक नाम होने के प्रति सन्देह प्रकट किया जाता रहा है। अतः इस अभिलेख के प्रकाश में आने से यह स्पष्ट हो गया कि अय नामक शासक के राज्यगणना से संवत्सर का प्रचलन हुआ था। अफगानिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तानवाले भू-भाग में अय नाम के दो शक-पह्लव शासक हुए थे, इसका ज्ञान सिक्कों के माध्यम से होता है। अतः स्वाभाविक जिज्ञासा हो सकती है कि इस संवत्सर की गणना का आरम्भ किस अय के शासन काल में हुई, इसका निराकरण इस अभिलेख में प्रयुक्त अयस के साथ प्रयुक्त विशेषण अतीत से हो जाता है। इस शब्द की दो प्रकार से व्याख्या की जा सकती है। एक तो यह कि इस अभिलेख का अंकन द्वितीय अय के समय में हुआ था और उसको दृष्टिगत रखते हुए पूर्ववर्ती अय के लिए दिवंगत के अर्थ में अतीत का प्रयोग किया गया है। किन्तु इस अभिलेख के द्वितीय अय के शासनकाल का अनुमान किये बिना भी इसका तात्पर्य अय प्रथम से लिया जा सकता है। दो अय के अस्तित्व को जानते हुए दोनों में अन्तर करने के लिए अतीत का प्रयोग पूर्वकालिक के रूप में किया जा सकता है। वास्तविक तात्पर्य जो भी हो इस लेख से इतनी बात स्पष्ट है कि अय (प्रथम) के समय से इस प्रदेश में एक कालगणना प्रचलित हुई थी। अय के इस संवत्सर के उल्लेख से पूर्व वर्ष के रूप में २५ की एक संख्या और दी गयी है। इस संख्या को ब्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी ने द्वितीय अय अथवा अयलिश का शासन वर्ष अनुमान किया है। उन्होंने इस अनुमान के लिए इत्रवर्मा के सिक्कों के चित्त भाग के यवन अभिलेख में, जो प्रायः अपाठ्य है, Azzou = Azou लिखे जाने की बात कही है। इस प्रसंग में ध्यातव्य है कि इत्रवर्मा ने अपने को अप्रचराज का पुत्र और कुमार कहा है; किन्तु अपने पिता का नामोल्लेख नहीं किया है। यही नहीं, उनका उल्लेख पंक्ति ६ में भी किया है और वहाँ विष्णुवर्मा के भाई के रूप में; किन्तु वहाँ भी उसने उनका उल्लेख अप्रचरज के रूप में ही किया है। निश्चय ही यह आश्चर्य की बात है। पर नामोल्लेख का उल्लेख न करना अकारण न होगा, पर उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। इस अभिलेख में इत्रवर्मा ने अपने पिता का नामोल्लेख भले ही न किया हो, पर वह अज्ञात नहीं है। इत्रवर्मा ने अपने कतिपय ताँबे के सिक्कों के खरोष्ठी अभिलेख में विजयमित्रस पुत्रस इत्रवर्मस अप्रचरजस लिखा है। स्पष्ट है कि इत्रवर्मा विजयमित्र का पुत्र था और शिनकोट (बाजौर) से मिले एक अन्य शिनकोट मंजूषा अभिलेख में अप्रचराज विजयमित्र का उल्लेख है। उसने अपने पांचवें राजवर्ष में भगवान् शाक्यमुनि के शरीर (अस्थि) को प्रतिष्ठापित किया था। इस अभिलेख के परिप्रेक्ष्य में सहज ही कहा जा सकता है कि प्रस्तुत अभिलेख में क्रम में ही इसमें उसके पुत्र ने इसके २५वें राजवर्ष का उल्लेख किया है। यह अनुमान ब्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी की अय के राजवर्षवाली कल्पना की अपेक्षा अधिक स्वाभाविक और तर्कसंगत है। इत्रवर्मा ने इस अभिलेख में अप्रचराज की पत्नी अर्थात् अपनी माता रूखणक का उल्लेख अज की पुत्री के रूप किया है। इस अज को ब्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी ने शक-पह्नव नरेश अय (द्वितीय) होने का अनुमान किया है। अय प्रथम और द्वितीय के बीच मात्र अयलिश नामक एक शासक का अन्तराल रहा है। इस कारण अय (प्रथम) के ६३वें वर्ष में अय (द्वितीय) के अस्तित्व की कल्पना करने में कोई कठिनाई नहीं है। अतः उसके इत्रमित्र के मातामह होने का अनुमान किया जा सकता है। पर ब्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी को

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स्वातघाटी अस्थि-मंजूषा अभिलेख

भूमिका स्वातघाटी अस्थि-मंजूषा अभिलेख बौद्ध धर्म से सम्बंधित है। यह स्वातघाटी में स्थित पठानों के किसी गाँव मिली थी। यह अस्थि-मंजूषा सेलखड़ी ( steatite ) की बनी हुई थी जो अब लाहौर संग्रहालय में सुरक्षित बतायी जाती है। इस पर ई०पू० पहली शती के खरोष्ठी लिपि और प्राकृत भाषा में छोटा-सा लेख अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- स्वातघाटी अस्थि-मंजूषा अभिलेख स्थान :- स्वात घाटी भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- प्रथम शताब्दी ई०पू० विषय :- बौद्ध धर्म से सम्बन्धित स्वातघाटी अस्थि-मंजूषा अभिलेख : मूलपाठ थेउदोरेन मेरिदर्खेन प्रतिठविद्र इमे शरिर शकमुणिस भगवतो बहुजण- [ हिति ] ये। हिन्दी अनुवाद थियोदोर मेरिदर्ख ने बहुजन हिताय इसमें भगवान् शाक्यमुनि बुद्ध का शरीर ( अस्थि-अवशेष ) प्रतिष्ठापित किया। टिप्पणी इस अभिलेख से इससे ज्ञात होता है कि मेरिदर्ख थियोदोर नामक किसी यवन ने भगवान् बुद्ध के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट कर उनका अस्थि-अवशेष प्रतिष्ठापित करवाया था। मेरिदर्ख एक यवन उपाधि है और इसका प्रयोग जिलाधिकारी के अर्थ में किया जाता है। अतः अनुमान किया जा सकता है कि थियोदोर स्वात घाटी के आसपास के प्रदेश का प्रशासक रहा होगा। उसका शासन-क्षेत्र काबुल अथवा गन्धार होगा। मेरिदर्ख बौद्ध धर्मावलम्बी था। विदेशी भारतीय धर्म के प्रति आकृष्ट होते रहे हैं, यह अभिलेख इस बात का प्रमाण है। इस प्रकार स्वातघाटी अस्थि-मंजूषा अभिलेख से निम्न बातें ज्ञात होती हैं :- मेरिदर्ख एक यवन विरुद थी जो की जिले स्तर के पदाधिकारी के लिए प्रयुक्त होता था। विदेशी लोग भारतीय धर्म व संस्कृति को अपना रहे थे। इस सन्दर्भ में बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख, शिनकोट मंजूषा अभिलेख आदि का भी विशेषरूप से उल्लेख किया जा सकता है। इसके साथ ही मिनाण्डर, कनिष्क, रुद्रदामन इत्यादि शासकों का भी उल्लेख किया जा सकता है।

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शिनकोट मंजूषा अभिलेख

भूमिका शिनकोट मंजूषा अभिलेख अफगानिस्तान ( वर्तमान पाकिस्तान ) में बहने वाली पंजकोर और स्वात नदियों के संगम से लगभग २० मील ( ≈ ३२ किलोमीटर  ) पश्चिमोत्तर में बाजौर के समीप शिनकोट से मिला है। यह अभिलेख एक शेलखड़ी ( steatite ) की मंजूषा के भीतर, बाहर और उसके ढक्कन पर अंकित है। शिनकोट मंजूषा अभिलेख खरोष्ठी लिपि और प्राकृत भाषा में दो खण्डों में अंकित लेख है। दोनों की लिपि एक सी नहीं है। एक अभिलेख के अक्षर बड़े हैं और उसकी खुदाई गहरी हुई है; दूसरे अभिलेख के अक्षर छोटे हैं और उसकी खुदाई हलकी है। लेखों में अक्षर स्वरूपों में भी यत्र-तत्र भिन्नता परिलक्षित होती है। ये तथ्य इस बात के द्योतक हैं कि दोनों लेख एक समय अंकित नहीं किये गये थे। एन० जी० मजूमदार ने, जिन्होंने इस लेख को सर्वप्रथम प्रकाशित किया था, लिपि भेद के आधार पर दोनों अभिलेखों के बीच पचास वर्ष का अन्तर अनुमानित किया है। उनके मतानुसार पहला लेख ई० पू० पहली शती का है। शिनकोट मंजूषा अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- शिनकोट मंजूषा अभिलेख ( Shinkot Casket Inscription ), शिनकोट ( बाजौर ) शेलखड़ी अस्थिमंजूषा अभिलेख [ Sinkot ( Bajaur ) Steatite Casket Inscription ] स्थान :- शिनकोट, बाजौर, उत्तर-पश्चिम फ्रंटियर ( N.F. Frontier ); पाकिस्तान भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- लगभग ११५ से ९० ई०पू० ( मिनाण्डरकालीन ) विषय :- मिनेंद्र के मित्र वियकमित्र के वंशज विजयमित्र द्वारा भगवान बुद्ध के धातु अवशेष की प्रतिष्ठा, पश्चिमोत्तर भारत में यूनानी राज्य की स्थापना और उनके बौद्ध धर्म मानने से भारतीयकरण की प्रक्रिया की जानकारी। शिनकोट मंजूषा अभिलेख : मूलपाठ खण्ड – १ (क) .….. मिनेद्रस महरजस कटिअस दिवस ४ [ + ]  ४ [ + ]  ४ [ + ] १  [ + ] १  प्र [ ण ] — [ स ] मे [ दि ]……१ (ख) ……[ प्रति ] [ थवि ] त  [ । ]२ (ग) प्रण-समे [ द ] [ शरिर ] [ भगव ] [ तो ] शकमुनिस [ । ]३ (घ) वियकमित्रस अप्रचरजस [ । ]४ ढक्कन के किनारे पर अंकित।१ ढक्कन के बीच में अंकित।२ ढक्कन के भीतरी भाग में अंकित।३ मंजूषा के भीतर अंकित इसे स्टेन कोनो रख के पंक्ति २ के अन्तिम दो शब्दों-पञ्चवित्रये और इयो के बीच रखते और पढ़ते हैं।४ खण्ड – २ (क) १. विजय [ मित्रे ] ण २. पते प्रदिथविदे [ । ]५ (ख) १. इमे शरिर पलुगभुद्रओं न सकरे अत्रित [ । ] स शरिअत्रि कलद्रे नो शघ्रों न पिंडोयकेयि पित्रि ग्रिणयत्रि [ । ] २. तस ये पत्रे अपोमुअ६ वषये पंचमये ४ [ + ] १ वेश्रखस मसस दिवस पंचविश्रए इयो ३. प्रत्रिथवित्रे विजयमित्रेन अप्रचरजेन भग्रवतु शकिमुणिस समसंबुधस शरिर [ । ]७ (ग) विश्पिलेन अणंकतेन लिखित्रे [ । ]८ ढक्कन के बीच में अंकित।५ अभिलेख में अपोमुअ शब्द का प्रयोग वर्ष के पूर्व हुआ है। यह वर्ष का विशेषण होना चाहिए, जो व्यक्तिबोधक संज्ञा या सर्वनाम होगा । हमने इसे सर्वनाम के रूप में ‘अपने’ अर्थ में ग्रहण किया है।६ मंजूषा के भीतर अङ्कित।७ मंजूषा के पीछे अङ्कित।८ संस्कृत छाया [खण्ड-१] (क) संवत्सरे … मीनेन्द्रस्य महाराजस्य कार्तिकस्य [ मासस्य ] दिवसे १४ प्राण-समेतं शरीरं (ख) [ भगवतः शाक्यमुनेः। ]प्रतिष्ठापितम्। (ग) प्राणसमेतं शरीरं भगवतः शाक्यमुनेः। (घ) वीर्यकमित्रस्य अप्रत्यग्राजस्य [खण्ड-२] (क-१) विजयमित्रेण … (क-२) पात्र प्रतिष्ठापितम्।  (ख-१) इदं शरीरं प्रारूगण भूतकं न सत्कारैः आदृतम्। तत् शीर्यते कालतः, न श्रद्धालुः न च पिण्डोदकानि पितृन् ग्राह्यति। (ख-२) तस्य एतत पात्रं ५ वैशाखस्य मासस्य दिवसे २५ इह (ख-३)प्रतिष्ठापितं विजयमित्रेन। अप्रत्यग्रोजन, भगवतः शाक्यमुनेः सम्यक संबुद्धस्य नवं शवीरं अस्मिन पात्रे प्रतिष्ठापितम्। (ग) आज्ञाकारिणा विष्पिलेन लिखितम्॥ हिन्दी अनुवाद खण्ड – १ (क) [ संवत्सर ]……….. मिनेन्द्र महाराज के कार्तिक [ मास ] के दिवस १४ को प्राण समेत (ख) [ भगवान् शाक्य मुनि का ] प्राण समेत [ शरीर ] प्रतिष्ठापित किया। (ग) प्राण समेत शरीर ( देहावशेष ) भगवत शाक्य मुनि का (घ) अप्रचराज वीर्यकमित्र का। खण्ड – २ (क) विजयमित्र……ने पात्र प्रतिष्ठापित किया। (ख१) यह शरीर ( अस्थिपात्र ) प्ररुग्णभूत ( खण्डित ) होने [ के कारण ] सत्कार और आदर [ के योग्य ] नहीं [ रह गया था ]। उस काल में कोई [ व्यक्ति ऐसा भी न था ] जो श्रद्धालु हो और पित्रगणों को पिण्ड और उदक दे सके। तब उस पात्र को अपने ५वें वर्ष के वैशाख मास के २५वें दिवस को अप्रचराज विजयमित्र ने भगवान् शाक्यमुनि के सम्यक् सम्बुद्ध शरीर को प्रतिष्ठापित किया और इस पात्र में स्थापित किया। (ग) आज्ञाकारी विश्पिलेन ने इसे लिखा। शिनकोट मंजूषा अभिलेख : महत्त्व राजनीतिक दृष्टि से इस अभिनेख का विशेष महत्त्व है। यह मिनाण्डर नामक यूनानी शासक का एकमात्र उपलब्ध अभिलेख है। इससे विदित होता है :- मिनाण्डर का अधिकार पश्चिमी सीमा पर स्वातघाटी में बाजौर के क़बायली भूभागों पर था। मिलिंदपण्हों के अनुसार मिनाण्डर की राजधानी स्यालकोट थी। मिनाण्डर की मृत्यु के बाद इस क्षेत्र का शासन उसके सामन्तों के अधिकार में आ गयी। विजयमित्र की पहचान इसके पुत्र इन्दुवर्मा के सिक्कों पर अंकित इस नाम से की गई है। सम्भवतः दोनों ही उसके सामन्त थे जो बुद्ध के अस्थि अवशेषों को एक पेटिका में सुरक्षित कर उस पर लेख लिखवाये थे। शिनकोट मंजूषा अभिलेख और मिलिंदपण्हों मिनाण्डर को बौद्ध धर्मानुयायी बताता है। यहाँ उल्लिखित ‘अप्रचरज’ एक सामन्त उपाधि होगी। धार्मिक दृष्टि से भी इसकी महत्ता है :- इसमें बुद्ध का उल्लेख है तथा इससे बौद्ध धर्म के प्रचार का ज्ञान मिलता है। विदेशियों में भी इस धर्म का प्रचार था तभी यूनानी शासक मिलिन्द भी बौद्ध धर्मानुयायी हो गया था। यहाँ उल्लिखित है कि ब्राह्मणों की भाँति बौद्ध भी अपने पितरों का श्राद्धकर्म करते थे। ‘शघ्रों न पिंडोयकेयि पित्रि ग्रिणयत्रि’ स्पष्ट है कि बौद्धों की जीवन विधि पर हिन्दु का प्रभाव पड़ने लगा था। शिनकोट मंजूषा अभिलेख : विश्लेषण यवन नरेश मिनेन्द्र अर्थात् मिनाण्डर ( Menander ) का उल्लेख करनेवाला अब तक ज्ञात यह एकमात्र अभिलेख है। इस अभिलेख के प्रथम अंश से यह प्रकट होता है कि उसके शासनकाल में भगवान् बुद्ध के अस्थि-अवशेष को मंजूषा में रखकर प्रतिष्ठित किया गया था। स्टेन कोनो का विचार है कि इसे स्वयं मिनेन्द्र ( मिनाण्डर ) ने प्रतिष्ठापित कराया था और शासन-काल उसके एक शताब्दी पश्चात् वियकमित्र ( विजयमित्र ) ने

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गुण्टूपल्ली अभिलेख

भूमिका गुण्टूपल्ली अभिलेख आंध्र प्रदेश में पश्चिमी गोदावरी जनपद ( एलुरू ) के गुण्टूपल्ली नामक ग्राम में स्थित एक प्राचीन ध्वस्त मण्डप के चार स्तम्भों पर समान रूप से अंकित प्राप्त हुआ है। ब्राह्मी लिपि का यह अभिलेख एक स्तम्भ पर पाँच और शेष तीन पर छह पंक्तियों में उत्कीर्ण है। गुण्टूपल्ली अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- गुण्टूपल्ली अभिलेख ( Guntupalli Inscription ) स्थान :- पश्चिमी गोदावरी जिला ( एलुरू ), आंघ्र प्रदेश भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- मौर्योत्तर काल विषय :- मण्डप दान के सम्बन्ध में गुण्टूपल्ली अभिलेख : मूलपाठ १. महाराजस कलिगाधिपतिस २. महिसकाधिपतिस म- ३. हामेखवाहनस- ४. सिरि सदस-लेख- ५. कस चुलगोमस मंड- ६. पो दानं [ । ] हिन्दी अनुवाद कलिंगाधिपति माहिषकाधिपति महामेख ( घ ) वाहन वंश के महासद के लेखक चुलगोम का मण्डप दान। गुण्टूपल्ली अभिलेख : विश्लेषण अपने सामान्य रूप में गुंटूपल्ली अभिलेख एक दान की घोषणा करता है। यह दान सम्भवतः उसी मण्डप का था जिसके स्तम्भों पर यह उत्कीर्ण पाया गया है। इस अभिलेख में प्रयुक्त ‘महाराज कलिंगाधिपति महामेघवाहन’ विरुदों का प्रयोग बहुचर्चित हाथीगुम्फा अभिलेख में खारवेल के लिए हुआ है। इस अभिलेख में वर्णित खारवेल के अभियानों के परिप्रेक्ष्य में लेख के ‘सिरि-सदस लेखक’ का अनुवाद सन्देश लेखक किया गया है और अनुमान प्रकट किया है कि इस अभिलेख में भी ‘महाराज कलिंगाधिपति महामेघवाहन’ का तात्पर्य खारवेल से है। वस्तुत: यह अभिलेख खारवेल का न होकर श्रीसद नामक शासक के काल का है। इस तथ्य की ओर हमारा ध्यान उस समय गया जब आन्ध्र प्रदेश के गुण्टूर जिले में स्थित अमरावती के निकट वड्डमानु नामक ग्राम में स्थित पुरावशेष के उत्खनन से ‘सद’ नामान्त अनेक शासकों के सिक्के प्रकाश में आये। श्रीसद इसी वंश का आदि पुरुष रहा होगा । इस अभिलेख में इसे महामेघवाहन कहा गया है। इससे यह ध्वनित होता है कि श्रीसद का निकट सम्बन्ध हाथीगुम्फा अभिलेख में उल्लिखित खारवेल से था। यह सदवंश उसी से सम्बन्धित था यह बात एक अन्य अभिलेख से भी ज्ञात होता है। जो एक अन्य सदवंशी शासक का है और निकटवर्ती क्षेत्र बेल्लूपुर से प्राप्त हुआ है। इसमें उसे ऐरवंशी ( ऐरण ) कहा गया है और हाथीगुम्फा अभिलेख में खारवेल को भी ऐरण महाराज बताया गया है। गुण्टूपल्ली अभिलेख में श्रीसद को कलिंगाधिपति और महिषकाधिपति कहा गया है। कलिंग की पहचान में कोई कठिनाई नहीं है। उड़ीसा के समुद्रतटवर्ती क्षेत्र को कलिंग कहा जाता है। खारवेल वहाँ का शासक था। अतः यह प्रदेश श्रीसद को खारवेल के बाद ही किसी समय प्राप्त हुआ होगा; किन्तु कलिंगवाले प्रदेश से अब तक ऐसा प्रमाण नहीं प्राप्त हुआ है जिससे इसके इस कथन की पुष्टि हो सके। फिरभी, कलिंग के इतिहास की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सूचना है। दूसरे विरुद ‘महिषकाधिपति’ से ज्ञात होता है कि श्रीसद कलिंग के अतिरिक्त महिषक का भी शासक था। माहिषक का उल्लेख वायुपुराण में महाराष्ट्र और कलिंग के साथ दक्षिणी जनपद के रूप में हुआ है। रामायण में उसे विदर्भ और ऋषिक के साथ दक्षिण देश बताया गया है। महाभारत में माहिषक के अनेक उल्लेख हैं। भीष्मपर्व में उसका उल्लेख द्रविड़ और केरल के साथ दक्षिण देश के रूप में हुआ है। कर्ण और अनुशासनपर्व के उल्लेखों में वह कलिंग और द्रविड़ के साथ जुड़ा हुआ है। अश्वमेघपर्व में अर्जुन द्वारा द्रविड़ और आन्ध्र के साथ माहिषक के पराजित करने की चर्चा है। इन उल्लेखों से ज्ञात होता है कि माहिषक कलिंग, द्रविड़ और महाराष्ट्र से संवृत प्रदेश था। इस प्रकार हम उसे आन्ध्र प्रदेश में गोदावरी घाटी में स्थित उस भू-भाग का अनुमान कर सकते हैं जहाँ से सद वंश के सिक्के और अभिलेख प्राप्त हुए हैं। दूसरे शब्दों में कृष्णा, गुण्टूर और पश्चिमी गोदावरी के संयुक्त भू-भाग को प्राचीन काल में माहिषक कहते रहे होंगे। इस अभिलेख को प्रकाशित करते हुए आर० सुब्रह्मण्यम् ने काशीप्रसाद जायसवाल के इस कथन की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि पृथुण्ड, पृथु-अण्ड है और यह नाम कदाचित नगर की बनावट के कारण पड़ा था। साथ ही उन्होंने यह भी बताया है कि संस्कृत पिथु-अण्ड का तमिल समानार्थी शब्द गुड्डूपल्ली है और यह गुड्डूपल्ली ही गुण्टूपल्ली बन गया जान पड़ता है। इस प्रकार वे गुण्टूपल्ली की पहचान हाथीगुम्फा में उल्लिखित पिथुण्ड से करते हैं। यदि गुण्पल्ली ही पिथुण्ड है तो इस लेख का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। इस पहचान के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सातकर्णि का असिक ( या मूषिक ) नगर, जो कलिंग से पश्चिम था, निश्चय ही गुण्टूपल्ली के उत्तर में रहा होगा, उसे वहीं खोजना चाहिए। जिस मण्डप के स्तम्भों पर यह अभिलेख अंकित है, उसके दाता चुलगोम ने अपने को श्रीसद का लेखक बताया है। यह प्रशासन सम्बन्धी एक नयी सूचना ज्ञात होती है। जिस प्रकार मुगल शासनकाल में राज्य की ओर से प्रमुख नगरों में अखबार-नवीस नियुक्त किये जाते थे, जो वहाँ की घटनाओं और गतिविधियों की सूचना नियमित रूप से पादशाह के पास भेजते थे, उसी प्रकार की व्यवस्था सम्भवतः प्राचीन काल में भी रही होगी। राज्य की ओर से प्रमुख स्थानों पर लेखक रहा करते होंगे। हाथीगुम्फा अभिलेख

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हाथीगुम्फा अभिलेख

भूमिका हाथीगुम्फा अभिलेख उड़ीसा में भुवनेश्वर के निकट खोर्धा जनपद में उदयगिरि पर्वतमाला में अंकित है। उदयगिरि और उससे पास ही खण्डगिरि में मौर्योत्तरकाल में कलिंग नरेश खारवेल ने जैन यतियों ( मुनियों ) के लिए गुफाएँ बनवायीं थीं। उदयगिरि में १९ गुफाएँ और खण्डगिरि में १६ गुफाएँ हैं। उदयगिरि के १९ गुफाओं में से हाथीगुम्फा नामक भी एक है। इसी हाथीगुम्फा के ऊपरी भाग में पाली से मिलती-जुलती प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में यह लेख उत्कीर्ण है। हाथीगुम्फा अभिलेख काल के सम्बन्ध में बहुत मतभेद है। फिरभी लिपिशास्त्र के आधार पर इसका समय प्रथम शताब्दी ई०पू० माना गया है। इसके रचयिता का नाम भी नहीं दिया गया है। सर्वप्रथम १८२५ ई० में हाथीगुम्फा शिलालेख की खोज बिशप स्टर्लिंग ने की। जेम्स प्रिंसेप ने इसका उद्वाचन किया परन्तु वह अशुद्ध था। सन् १८८० ई० में राजेन्द्र लाल मित्र ने इस शिलालेख का पाठ करके प्रकाशित किया परन्तु वह भी अपूर्ण रहा। सन् १८७७ ई० में जनरल कनिंघम और १८८५ ई० में भगवान लाल इन्द्र द्वारा इस अभिलेख का शुद्ध पाठ प्रस्तुत किया गया जिसमें शासक का नाम ‘खारवेल’ शुद्ध रूप पढ़ा गया। पहली बार सन् १९१७ ई० में डॉ० के० पी० जायसवाल ने इस अभिलेख का छायाचित्र ‘जर्नल ऑफ बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी’ में प्रकाशित करवाया। तदुपरान्त आर० डी० बनर्जी, ब्यूलर, फ्लीट, टामस, बी० एम० बरुआ, स्टेनकोनो, डी० सी० सरकार, शशिकांत आदि अनेक विद्वानों ने इस अभिलेख पर शोधपूर्ण कार्य किये। हाथीगुम्फा अभिलेख एक प्रशस्ति के रूप में है। इस अभिलेख का मुख्य उद्देश्य खारवेल के जीवन और उपलब्धियों को सुरक्षित रखना है। हाथीगुम्फा अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- हाथीगुम्फा अभिलेख ( शिलालेख ) या खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख ( Hathigumpha Inscription of Kharvel ) स्थान :- उदयगिरि पहाड़ी, खोर्धा जनपद ( Khordha District ), भुवनेश्वर के समीप, ओडिशा राज्य भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- लगभग पहली शताब्दी ई०पू० का उत्तरार्ध ( मौर्योत्तरकाल ) विषय :- कलिंग नरेश खारवेल का इतिहास हाथीगुम्फा अभिलेख : प्रमुख तथ्य  यह खारवेल के १३ वर्षीय शासन का क्रमिक विवरण प्रस्तुत करता है।  नंदराजा द्वारा नहर ( तनसुलि ) बनवाने का प्राचीनतम् उल्लेख करता है। अर्थात् नहर के सम्बन्ध में जानकारी देने वाला पहला अभिलेखीय साक्ष्य है। यद्यपि गुजरात में निर्मित सुदर्शन झील व नहर इतिहास में सबसे अधिक प्रसिद्ध है क्योंकि इसको चन्द्रगुप्त मौर्य ने बनवाया, अशोक, रुद्रदामन व स्कंदगुप्त ने जीर्णोद्धार कराया था। जिन प्रतिमा का प्रचीनतम् उल्लेख मिलता है। अर्थात् जैन धर्म में मूर्ति पूजा का प्राचीनतम अभिलेखीय साक्ष्य है। भारतवर्ष शब्द का सर्वप्रथम किसी अभिलेख में प्रयोग किया गया है। हाथीगुम्फा अभिलेख : मूलपाठ १. नमो अरहंतानं [ । ] नमो सव-सिधानं [ ॥ ] ऐरेण महाराजेन महामेघवाहनेन चेति-राजवंस-वधनेन पसथ-सुभ-लखनेन चतुरंतलुठ- [ ण ]-गुण-उपितेन कलिंगाधिपतिना सिरि-खारवेलेन २. [ पं ] दरस-वसानि सीरि- [ कडार ] -सरीर वता कीडिता कुमार-कीडिका [ । ] ततो लेख-रूप-गणना-ववहार-विधि-विसारदेन सव विजावदा तेन नव-वसानि योवरज [ प ] सासितं [ । ] संपुणचतुवीसति-वसो तदानि वधमासेसयो-वेनाभिविजयो ततिये ३. कलिंग-राज-वंसे-पुरिस-युगे महाराजाभिसेचनं पापुनाति [ ॥ ] अभिसितमतो च पधमे वसे वात-विहत-गोपुर-पाकार-निवेसनं पटिसंख्यारयति कलिंगनगरि-खिबी [ रं ] [ । ] सितल-तडाग-पाडियों च बंधापयति सवूयान-प [ टि ] संथपनं च ४. कारयति पनतिसाहि-सत सहसेहि पकतियों च रंजयति [ ॥ ] दुतिये च वसे अचितयिता सातकंनि पछिम दिसं हयं-गज-नर-रध बहुलं दंडंपठापयति [ । ] कन्हबेंणां-गताय च सेनाय वितासिति असिकनगर१ [ ॥ ] ततिये पुन वसे ५. गंधव-वेद-बुधो दप-नत-गीत-वादित-संदसनाहि उसव-समाज-कारापनाहि च कीडापयति नगरिं [ ॥ ] तथा चवथे वसे विजा-धराधिवासं अहत-पुवं कलिंग पुव-राज- [ निवेसित ] …… वितधम [ कु ] ट [ सविधिते ] च निखत-छत- ६. भिंगारे [ हि ] त-रतन-सपतेये सव-रठिक-भोजकेपादे वंदापयति [ ॥ ] पंचमे च दानी वसे नंदराज-ति-वस-सतो [ घा ] टितं तनसुलिय-वाटा-पणाडिं नगरं पवेस [ य ] ति सो …… [ । ] [ अ ] भिसितो च [ छठे वसे ] राजसेय२ संदंसयंतो सवकर-वण- ७. अनुगह-अनेकानि सत-सहसानि विसजति पोर जानपदं [ ॥ ] सतमं व वसे [ पसा ] सतो वजिरघर [ वति धुसित धरिनी३ [ । ] सा मतुक पदं पुंनो [ दया तपापुनाति ] [ ॥ ] अठमे च वसे महता-सेन [ । ] य [ अपतिहत-भिति ] गोरधगिरिं ८. घाता पयिता राजगहं उपपीडपयति [ । ] एतिनं च कंमपदान संनादेन [ संवित ] सेन-वाहने विपमुचितु मधुरं अपयातो यवनरा [ ज ] [ विमिक ]४ …….. यछति………. पलव [ भार ] ९. कपरुखे हय -गज-रथ-यह यति सव-घरावासो [ पूजित-ठूप-पूजाय ]५ सव-गहणं च कारयितुं बम्हाणानं ज [ य ] -परिहार ददाति [ ॥ ] अरहत च- [ पूजति। नवमे च वसे सुविजय ] १०. [ ते उभय प्राचीतटे ]६ राज-निवासं महाविजय-पासादं कारयति अठतिसाय सत-सतसेहि [ ॥ ] दसमे च वसे दंड-संधी-सा [ ममयो ] भरध वस-पठानं मही जयनं ( ? ) …… कारापयति [ ॥ ] [ एकादसमे च वसे ] …… प [ । ] या-तानं च म [ नि ] -रतनानि उपलभते [ । ] ११. [ दखिन दिसं ]७ [ मंद ] च अव८ राज निवेसितं पीथुण्डं गदभनंगलेन कासयति [ । ] जन- [ प ] द भावनं च तेरस-बस-सत-कतं भिंदति तमिर-दह-संघातं [ । ] बारसमे च वसे …… [ सह ] सेहि वितासयति उतरापथ-राजानो …… १२. म [ । ] गधानं च विपुलं भयं जनेतो हथसं गंगाय९ पाययति [ । ] म- [ ग ] धं च राजानं बहसतिमितं पादे वंदापयति [ । ] नंदराज-नीतं चका [ लिं ] ग-जिनं संनिवेस१० [ पूजयति। कोसात ] [ गह ] रतन-पडीहारेहि अंग-मगध वसुं च नयति [ ॥ ] १३. …..[ के ] तुं जठर [ लखिल-गोपु ] राणि-सिहराणि निवेसयति सत-विसिकनं [ प ] रिहारेहि [ । ] अमुतमछरियं च हथि-नाव-नीतं परिहरति…… हय हथि-रतन [ मानिक ] पंडराजा [ चेरानि अनेकानि मुत-मनि-रतनानि आहारापयति इध सत [ सहसानि ] १४. ……११  सिनो वसीकारोति [ । ] तेरसमे च वसे सुपवत-विजयचके कुमारीपवते अरहते पखिन सं [ सि ] तेहि काय-निसीदियाय यापुजावकेहि राजभितिना चिन-वतानि वासा- [ सि ] तानि पूजानुरत उवासग-खारवेल-सिरिना जीवदेह- [ सिरिका ] परिखाता [ ॥ ] १५. [ निमतितेन राजा सिरि-खारवेलेन ]१२ सुकत समण सुविहितानं च सवदिसानं ञ [ नि ] नं तपसि-इ [ सि ] न संघियनं अरहतनिसीदिया-समीपे पाभारे वराकार-समुथापिताहि अनेक-योजना-हिताहि [ पनतिसत सहसेहि ] सिलाहि [ सिपिपथभा-निवध-सयनासनां वा ]१३ १६. …… [ पटलके ] चतारे च वेडुरिय-गभे थंमें पतिठापयति [ । ] पानतरोय-सत-सहसेहि मु [ खि

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