बाजौर अस्थि-मंजूषा अभिलेख

भूमिका

बाजौर अस्थि-मंजूषा अभिलेख बाजौर क्षेत्र से प्राप्त हुई है। यह अभिलेख सेलखड़ी (steatite) की बनी एक अस्थि-मंजूषा पर अंकित है। अब यह एक निजी संग्रह में है। इस पर खरोष्ठी लिपि में उत्तर-पश्चिमी भारतीय प्राकृत भाषा में यह अभिलेख अंकित है। इसका पाठ पहले सर हेराल्ड बेली ने प्रस्तुत किया था बाद में उसे ऐतिहासिक विवेचन के साथ ब्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी ने प्रकाशित किया।

बाजौर अस्थि-मंजूषा अभिलेख : संक्षिप्त परिचय

नाम :- बाजौर अस्थि-मंजूषा अभिलेख

स्थान :- बाजौर, पाकिस्तान

भाषा :- प्राकृत

लिपि :- खरोष्ठी

समय :- मौर्योत्तरकाल लगभग प्रथम / द्वितीय शताब्दी ई०पू०

विषय :- बौद्ध धर्म से सम्बंधित

मूलपाठ

१. इमे च शरिर मुर्यक-लिखते थुबुते किड-पडिबरिय अवियिए, अतेथि-भजिभमि प्रतिथवणभि प्रतिथविस

२. वसिय पंचविसो

३. संवत्सरये चेशठिये २० [+] २०[+] २०[+] ३ महरयस अवस अतिदस कर्तिकस मसस दिवसये षोडसे इमेणं चेथिके क्षणे इत्र (अथवा द्र) वर्मे कुमार अप्रच-राज-पुत्रे

४. इमे भगवतो शकमुणिस शरिर प्रतिथवेति थियये गभिरये अप्रथित-वित-प्रवे पतेशे बुमुपुज प्रसवति सथ मदुण रुखणक अज पुत्रिये अपचराज-भर्यये

५. सध मडलेण रमकेण सध मडलणी एदषकये सध स्पसदरेहि वस-वदतये महपिद एणकये चधिनि एयउतरये

६. पिदु अ पुयये विष्णुवर्मस अवच-रयस

७. भुद वग स्त्रतग पुयइते विजय मिरोय अवचराय-मदुक सभयेदत पुयि [त]।

हिन्दी अनुवाद

और मुर्यक-लयण (गुहा) विहार [में] जो स्तूप बना था और [ उस स्तूप ] के ऊँचे मध्य भाग में जो यह अस्थि-अवशेष (relics) स्थापित [था] भगवत् शाक्यमुनि के उस अवशेष को वर्ष २५ [ और ] महाराज अय (अतीत) के ६३वें वर्ष के कार्तिक मास के १६वें दिन, इस शुभ घड़ी में अप्रचराज के पुत्र कुमार इत्रवर्मन ने प्रतिष्ठापित किया ।

[ इस प्रकार उसने ] उस क्षेत्र में [ जहाँ अवशेष रखा गया था ] स्थायी और गहरा तड़ाग (Cistern) बनाया। पुण्यलाभ के लिए अपने मामा रमक, मामी एडषक, बहन [और] पत्नी वासवदत्ता के साथ, अपने पूज्य (अणिक), पितामह चघिन और [अपने] पूज्य पिता अप्रचराज के भाई वग और स्त्रतक विष्णुवर्मा और अप्रचराज की माता, इन सबके पुण्य के लिए [भी]।

टिप्पणी

पुण्यलाभ के लिए किसी स्तूप में, एक दूसरे स्तूप से लाकर अस्थि-मंजूषा प्रतिष्ठित करने की सामान्य घोषणा इस अभिलेख द्वारा की गयी है। किन्तु इतिहास की दृष्टि से कुछ बातें विशेष रूप से विचारणीय हैं।

पहली बात, तो यह है कि इस अभिलेख में संवत्सर के प्रसंग में महाराज अय का उल्लेख हुआ है। इस अभिलेख के प्रकाश में आने से पहले दो अन्य अभिलेख मिल चुके थे जिसमें संवत्सर के साथ अय का नाम जुड़ा हुआ था।

  • एक तो कलवान से मिला था जिसमें संवत्सरये १३४ अजस श्रवणमासस दिवसे चेविथे का उल्लेख हैं।
  • दूसरा अभिलेख तक्षशिला से प्राप्त एक मंजूषा के भीतर रखे रजत-पत्र पर अंकित है। इसमें सं० १३६ अयस अषड़समसस दिवसे १० लिखा है।

दूसरी बात, इन दोनों अभिलेखों में अयस के व्यक्तिवाचक नाम होने के प्रति सन्देह प्रकट किया जाता रहा है। अतः इस अभिलेख के प्रकाश में आने से यह स्पष्ट हो गया कि अय नामक शासक के राज्यगणना से संवत्सर का प्रचलन हुआ था

अफगानिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तानवाले भू-भाग में अय नाम के दो शक-पह्लव शासक हुए थे, इसका ज्ञान सिक्कों के माध्यम से होता है। अतः स्वाभाविक जिज्ञासा हो सकती है कि इस संवत्सर की गणना का आरम्भ किस अय के शासन काल में हुई, इसका निराकरण इस अभिलेख में प्रयुक्त अयस के साथ प्रयुक्त विशेषण अतीत से हो जाता है। इस शब्द की दो प्रकार से व्याख्या की जा सकती है।

  • एक तो यह कि इस अभिलेख का अंकन द्वितीय अय के समय में हुआ था और उसको दृष्टिगत रखते हुए पूर्ववर्ती अय के लिए दिवंगत के अर्थ में अतीत का प्रयोग किया गया है। किन्तु इस अभिलेख के द्वितीय अय के शासनकाल का अनुमान किये बिना भी इसका तात्पर्य अय प्रथम से लिया जा सकता है।
  • दो अय के अस्तित्व को जानते हुए दोनों में अन्तर करने के लिए अतीत का प्रयोग पूर्वकालिक के रूप में किया जा सकता है। वास्तविक तात्पर्य जो भी हो इस लेख से इतनी बात स्पष्ट है कि अय (प्रथम) के समय से इस प्रदेश में एक कालगणना प्रचलित हुई थी।

अय के इस संवत्सर के उल्लेख से पूर्व वर्ष के रूप में २५ की एक संख्या और दी गयी है। इस संख्या को ब्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी ने द्वितीय अय अथवा अयलिश का शासन वर्ष अनुमान किया है। उन्होंने इस अनुमान के लिए इत्रवर्मा के सिक्कों के चित्त भाग के यवन अभिलेख में, जो प्रायः अपाठ्य है, Azzou = Azou लिखे जाने की बात कही है।

इस प्रसंग में ध्यातव्य है कि इत्रवर्मा ने अपने को अप्रचराज का पुत्र और कुमार कहा है; किन्तु अपने पिता का नामोल्लेख नहीं किया है। यही नहीं, उनका उल्लेख पंक्ति ६ में भी किया है और वहाँ विष्णुवर्मा के भाई के रूप में; किन्तु वहाँ भी उसने उनका उल्लेख अप्रचरज के रूप में ही किया है। निश्चय ही यह आश्चर्य की बात है। पर नामोल्लेख का उल्लेख न करना अकारण न होगा, पर उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता।

इस अभिलेख में इत्रवर्मा ने अपने पिता का नामोल्लेख भले ही न किया हो, पर वह अज्ञात नहीं है। इत्रवर्मा ने अपने कतिपय ताँबे के सिक्कों के खरोष्ठी अभिलेख में विजयमित्रस पुत्रस इत्रवर्मस अप्रचरजस लिखा है।

स्पष्ट है कि इत्रवर्मा विजयमित्र का पुत्र था और शिनकोट (बाजौर) से मिले एक अन्य शिनकोट मंजूषा अभिलेख में अप्रचराज विजयमित्र का उल्लेख है। उसने अपने पांचवें राजवर्ष में भगवान् शाक्यमुनि के शरीर (अस्थि) को प्रतिष्ठापित किया था।

इस अभिलेख के परिप्रेक्ष्य में सहज ही कहा जा सकता है कि प्रस्तुत अभिलेख में क्रम में ही इसमें उसके पुत्र ने इसके २५वें राजवर्ष का उल्लेख किया है। यह अनुमान ब्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी की अय के राजवर्षवाली कल्पना की अपेक्षा अधिक स्वाभाविक और तर्कसंगत है।

इत्रवर्मा ने इस अभिलेख में अप्रचराज की पत्नी अर्थात् अपनी माता रूखणक का उल्लेख अज की पुत्री के रूप किया है। इस अज को ब्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी ने शक-पह्नव नरेश अय (द्वितीय) होने का अनुमान किया है। अय प्रथम और द्वितीय के बीच मात्र अयलिश नामक एक शासक का अन्तराल रहा है। इस कारण अय (प्रथम) के ६३वें वर्ष में अय (द्वितीय) के अस्तित्व की कल्पना करने में कोई कठिनाई नहीं है। अतः उसके इत्रमित्र के मातामह होने का अनुमान किया जा सकता है। पर ब्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी को कल्पना स्वीकार करने में परेशानी यह है कि इस अभिलेख में अज का जिस प्रकार विरुदहीन उल्लेख हुआ है, उससे उसके शासक अय (द्वितीय) होने की कोई सम्भावना प्रकट नहीं की जा सकती है। इस सम्बन्ध में डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त का विचार है कि अय (द्वितीय) इस अभिलेख का अज नहीं था। इस प्रकार की कल्पना को अलग रखकर ही इस अभिलेख के ऐतिहासिक महत्त्व पर विचार किया जाना चाहिये।

इस अभिलेख में ऐतिहासिक दृष्टि से विरुद अप्रचराज द्रष्टव्य है। इस सम्बन्ध में शिनकोट मंजूषा अभिलेख उल्लेखनीय है जिसमें अप्रचरज शब्द का प्रयोग है। इत्रमित्र ने इसका प्रयोग अपने पिता के लिए और अपने सिक्कों पर अपने लिए किया है। इसका प्रयोग शिनकोट मंजूषा अभिलेख में वियकमित्र और विजयमित्र के लिए भी हुआ है। जान मार्शल के कथनानुसार इस विरुद का प्रयोग तक्षशिला से मिले एक शिला पर भी है जिसे अवस्वर्मा का अनुमान किया जाता है। इस प्रकार इस विरुद को धारण करनेवालों की एक लम्बी शृंखला है जो उन्हें परस्पर जोड़ती है।

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