अशोक का पाँचवाँ स्तम्भलेख

भूमिका

सप्तस्तम्भ लेखों में से पाँचवाँ स्तम्भलेख अशोक द्वारा जीवहिंसा को रोक देने से सम्बन्धित है।

दिल्ली-टोपरा पर अंकित अन्यत्र छः स्थानों से मिले स्तम्भलेखों में सबसे प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। यहीं एकमात्र ऐसा स्तम्भ हैं जिसपर सातों लेख एक साथ पाये जाते हैं शेष पाँच पर छः लेख ही मिलते हैं।

शम्स-ए-शिराज़ ( मध्यकालीन इतिहासकार ) के अनुसार यह स्तम्भ मूलतः टोपरा में था। इसको फिरोजशाह तुगलक ने वहाँ से लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवाया था। तबसे इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ नाम से जाना जाने लगा। इस स्तम्भ के कुछ अन्य नाम हैं; यथा – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि।

पाँचवाँ स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय

नाम – अशोक का पाँचवाँ स्तम्भलेख या पञ्चम स्तम्भलेख ( Ashoka’s Fifth Pillar-Edict )

स्थान – दिल्ली-टोपरा संस्करण। यह मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया था। तबसे इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाने लगा।

भाषा – प्राकृत

लिपि – ब्राह्मी

समय – मौर्यकाल, अशोक के राज्याभिषेक के २६ वर्ष बाद अर्थात् २७वें वर्ष।

विषय – जीवहिंसा पर प्रतिबंध से सम्बन्धित है।

पाँचवाँ स्तम्भलेख : मूलपाठ

१ – देवानंपिये पियदसि लाल हेवं अहा [ । ] सड़वीसतिवस-

२ – अभिसितेन मे इमानि जातानि अवधियानि कटानि [ । ] सेयथा

३ – सुके सालिका अलुने चकवाके हंसे नंदीमुखे गेलाटे

४ – जतूका अम्बा कपीलिका दली अनठिकमछे वेदवेयके

५ – गंगा-पुपुटके संकुज-मछे कफट-सेयके पंन-ससे सिमले

६ – संडके ओकपिंडे पलसते सेत-कपोते गाम-कपोते

७ – सवे चतुपदे ये पटिभोगं नो एति न च खादियती [ । ] अजका नानि

८ – एलका चा सूकली च गभिनी न पायमीना व अवधिया पोतके

९ – पिच कानि आसंमासिके [ । ] वधि-कुकुटे नो कटविये [ । ] तुसे सजीवे

१० – नो झापेतविये [ । ] दावे अनठाये वा विहिसाये वा नो झापेतविये [ । ]

११ – जीवेन जीवे नो पुसितविये [ । ] तीसु चातुंमासीसु तिसायं पुंनमासियं

१२ – तिंनि दिवसानि चावुदसं पंनडसं पटिपदाये धुवाये चा

१३ – अनुपोसथं मछे अवधिये नो पि विकेतविये [ । ] एतानि येवा दिवसानि

१४ – नाग वनसि केवट भोगसि यानि अन्नानि पि जीव-निकायानि

१५ – न हतंवियानि [ । ] अठमी-पखाये चावुदसाये पंनडसाये तिसाये

१६ – पुनावसुने तीसु चातुंमासीसु सुदिवसाये गोने नो नीलखितविये

१७ – अजके एलके सूकले ए वापि अन्ने नीलखियति नो नीलखितविये [ । ]

१८ – तिसाये पुनावसुने चातुंमासिये चातुंमासि-पखाये अस्वसा गोनसा

१९ – लखने नो कटविये [ । ] याव-सड़वीसति-वस अभिसितेन मे एताये

२० – अन्तलिकाये पंनवीसति बन्धनमोखानि कटानि [ । ]

संस्कृत छाया

देवानांप्रिय: प्रियदर्शी राजा एवं आह। षड्शिंतिवर्षाभिषिक्तेन मया इमानि जातानि अवध्यानि कृतानि तानि यथा शुकः सारिका, अरुणः, चक्रवाक, हंसः नन्दीमुखः, गेलाट, जातुकाः, अम्बाकपीलिका, दुडिः, अनास्थिकमत्स्यः, वेदवेयकः, गंगाकुकुटः, संकुजमत्स्यः, कमठः, शल्यः, पर्णशिशः, स्मरः, षडकः, आकपिण्डः, पषतः, श्वेतकपोतः, ग्रामकपोतः, सर्वे चतुष्पदाः ये परिभोगं न यन्ति न खाद्यन्ते। एडका शूकरी च गर्भिणी वा पयस्विनी वा अवध्या। पोतका अपि च आषाण्मासिकाः। वध्रि कुक्कुटः न कर्तव्यः। तुष सजीवः न दाहितव्यः। दावः अनर्थाय वा विहिंसायै वा नो दाहयितव्यः। जीवेन जीवः न पोषितव्यः। तिससु चातुर्मासीषु तिष्यायां पौर्णमास्यां त्रिषु दिवसेषु — चतुर्दशे, पञ्चदशे प्रतिपदि च ध्रुवायाः अनुपवसथं मत्स्यः अवध्यः, नो अपिविकेतव्यः। एतान् एव दिवसान्, नागवने, कैवर्त-भोगे, ये अन्ये अपि जीव निकायाः नो हन्तव्याः। अष्टमी-पक्षे, चतुर्दश्यां, पंचदश्यां, तिष्यायां, पुनर्वसौ तिसषु, चातुर्मासीषु सुदिवसे गौः न निर्लक्षयितव्याः। तिष्यायां पुनर्वसौ, चातुर्मास्या, चातुर्मासीपक्षे च अश्वस्य गो; च दग्यशलाकया लक्षणं नो कर्तव्यम्। यावत् षडविंशति वर्षाभिषिक्तेन मया एतस्याम् अन्तरिकायां पंचविशतिः बन्धन मोक्षाः कृताः॥

हिन्दी अनुवाद

१ – देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा — छब्बीस वर्षों से

२ – अभिषिक्त होने पर इन जीवधारियों को मैंने अवध्य घोषित किया। वे हैं —

३ – शुक, सारिका, लाल पक्षी, चकवा, हंस, नन्दीमुख (मैना का एक प्रकार) गेलाट

४ – गीदड़, रानीचींटी, कछुई, अस्थिरहित ( बिना काँटे की ) मछली, वेद वेयक

५ – गंगा-कुक्कुट, संकुजमत्स्य, कछुआ, साही, नपुंसक शश, बारहसिंगा,

६ – साँड, गोधा, मग, सफेद कबूतर, ग्राम कपोत

७ – और सभी प्रकार के चौपाये जो न उपयोग में आते हैं न खाए जाते हैं।

८ – गर्भिणी अथवा दूध पिलाती हुई बकरी, भेडे, शूकरी अवध्य बताई गयीं। इनके बच्चे भी

९ – जो एक महीने के होते थे ये भी। कुक्कुट की बधिया नहीं करनी चाहिए। सजीव भूसी

१० – नहीं जलानी चाहिए। व्यर्थ के लिए या हिंसा के लिए जंगल नहीं जलाना चाहिए।

११ – जीव से जीव का पोषण नहीं करना चाहिए। तीनों चौमासों में तिष्य पूर्णमासी को

१२ –  तीन दिन — चतुर्दशी, पूर्णिमा और प्रतिपदा, निश्चितरूप से

१३ – उपवास के दिन मछलियाँ नहीं मारनी चाहिए और न बेचनी चाहिए। इन दिनों

१४ – नागवनी, मछलियों के तालाब में जो भी दूसरे जीव हों

१५ – उन्हें नहीं मारना चाहिए। प्रत्येक पक्ष की पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, तिष्य

१६ – पुनर्वसु, तीन चातुर्मासों के शुक्ल-पक्ष में गौ को दागना नहीं चाहिए।

१७ – बकरा, भेड़, सूअर अथवा और जो पशु दागे जाते हैं उनको भी दागना नहीं चाहिए।

१८ – तिष्य, पुनर्वसु, प्रत्येक चतुर्मास की पूर्णिमा के दिन और प्रत्येक चतुर्मास के शुक्ल पक्ष में अश्व और गौ को

१९ – दागना नहीं चाहिए। छब्बीस वर्ष अभिषिक्त होने पर मैंने इस बीच

२० – पच्चीस बार बन्धन-मोक्ष ( बन्दियों को मुक्त ) किया।

टिप्पणी

सम्राट अशोक के चौदह बृहद् शिला प्रज्ञापनों के प्रथम शिलालेख में जीवहिंसा निषेध की बात की गयी थी। साथ ही सम्राट ने यह आश्वासन दिया था कि भविष्य में इसपर भी प्रतिबंध लगाया जायेगा। वह समय कब आया? इसी का उत्तर यह ( पाँचवाँ स्तम्भलेख ) लेख देता है। अपने अभिलेख के २६ वर्ष बाद ( अर्थात् २७वें वर्ष ) सम्राट अशोक ने निर्दिष्ट जीवों की हिंसा पर प्रतिबंध लगा दिया अथवा सीमित कर दिया।

यह अभिलेख अशोक के प्राणिमात्रों प्रति दया को दर्शाता है। पाँचवाँ स्तम्भलेख एक लम्बी सूची देता है कि किन जीवों को न मारे, कब न मारें, उनको दागा न जाय। इस तरह यह ( पाँचवाँ स्तम्भलेख ) पूर्णरूप से जीवहिंसा नियंत्रकों जुड़ा हुआ है।

पहला स्तम्भलेख

दूसरा स्तम्भलेख

तीसरा स्तम्भलेख

चौथा स्तम्भलेख

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