अभिलेख

भरहुत तोरण अभिलेख

भूमिका भरहुत तोरण अभिलेख मध्यप्रदेश के सतना जनपद में भरहुत नामक स्थान पर मिला है। इसकी खोज अलेक्ज़ेंडर कनिंगहम ने की। इनको यह एक विशाल स्तूप के ध्वंसावशेष मिले थे। उसके अधिकांश स्तम्भ, बाड़ आदि आजकल इण्डियन म्यूजियम कलकत्ता में प्रदर्शित हैं। वहाँ जो अभिलेख प्राप्त हुए हैं उनमें जो सबसे महत्त्व का माना जाता है वह एक तोरण पर अंकित है। यह लेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में है। इसका समय कुछ विद्वान् ईसा पूर्व दूसरी शती मानते हैं। किन्तु दिनेशचन्द्र सरकार के मत में यह ईसा पूर्व प्रथम शती के उत्तरार्द्ध का है। इस लेख का महत्त्व इस बात में है कि इसमें उस प्रदेश के, जिसमें यह लेख प्राप्त हुआ है, कतिपय शासकों के नाम हैं। इस कारण मौर्योत्तर काल के प्रादेशिक इतिहास के निर्माण के लिए यह उपयोगी है। कुछ विद्वान इसे शुङ्ग वंश से सम्बद्ध मानते हैं। भरहुत तोरण अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- भरहुत तोरण अभिलेख स्थान :- भरहुत, सतना जिला, मध्यप्रदेश लिपि :- ब्राह्मी भाषा :- प्राकृत विषय :- शुगकालीन निर्माण सम्बन्धी खोजकर्ता :- अलेक्ज़ेंडर कनिंघम भरहुत तोरण अभिलेख : मूलपाठ १. सुगनं१ रजे रञो गागी-पुतस विसदेवस २. पौतेण गोति-पुतस अगराजुस पूतेण ३. वाछि-पुतेन धनभूतिन कारितं तोरनां ४. सिला-कंमंतो च उपंण [ ॥ ] दिनेशचन्द्र सरकार ने इस उल्लेख से यह भाव ग्रहण किया है कि विश्वदेव विदिशा के उत्तरवर्ती शुङ्गों के अधीन शासक था। दूसरी ओर कनिंघम और राजेन्द्रलाल मित्र ने इसका तात्पर्य श्रुध्न राज्य ग्रहण किया था। अर्थात् दिनेशचन्द्र सरकार ‘सुगनं’ को शुङ्ग जबकि कनिंघम व राजेन्द्रलाल मित्र इसको श्रुध्न अनूदित करते हैं।१ अनुवाद [ शुङ्ग ] के राज्य में राजा गार्गीपुत्र विश्वदेव के पौत्र गोप्तीपुत्र२ अग्रराज३ के पुत्र वात्सीपुत्र-धनभूति द्वारा बनाया तोरण, शिला-कर्मान्त ( सम्भवतः ) बाड़ के स्तम्भ और उष्णीष४। कनिंगहम इसे कौत्सीपुत्र के रूप में ग्रहण करते हैं।२ दिनेशचन्द्र सरकार ने अगराजुस पढ़कर अङ्गारद्युत के रूप में उसका संस्कृतकरण किया है। उनका पाठ संदिग्ध लगता है। अग्रराज नाम अधिक संगत है। कनिंघम और राजेन्द्रलाल मित्र ने भी यही नाम ग्रहण किया है। इस नाम के राजा के अनेक सिक्के कौशाम्बी से प्राप्त हुए हैं और वे जर्नल आफ न्यूमिस्मेटिक सोसाइटी के अंकों में छपे हैं।३ दिनेशचन्द्र सरकार ने ‘उपंण’ का तात्पर्य ‘उत्पन्न’ ग्रहण किया है किन्तु यहाँ उसकी कोई संगति नहीं बैठती है।४ क्या पुष्यमित्र शुंग बौद्ध-द्रोही थे? ऐतिहासिक दृष्टि से इस लेख में शासक के रूप में कुछ व्यक्तियों की जानकारी प्रदान करने के अतिरिक्त कोई विशेष महत्त्व की बात नहीं जान पड़ती। किन्तु इसका महत्त्व तब हो जाता है जब कुछ विद्वान् प्रथम पंक्ति के आरम्भ के दो शब्दों का पाठ ‘सुगनं रजे’ स्वीकार कर उसमें शुङ्गों का उल्लेख देखते हैं। यदि वस्तुतः यहाँ तात्पर्य शुङ्ग राजाओं से है तो यह बात ध्यान देने की हो जाती है कि भारत के भरहुत स्तूप के इस तोरण को शुङ्गवंशी शासकों ने बनवाया था और इसके साथ शुङ्ग-वंश के संस्थापक पुष्यमित्र से सम्बद्ध धारणाओं को लेकर प्रश्न उभरता है। पुष्यमित्र द्वारा किये गये अश्वमेघों ( धनदेव का अयोध्या अभिलेख ) के आधार पर विद्वानों ने यह मत प्रकट किया है कि उसके समय में ब्राह्मण-धर्म का पुनरुद्धार हुआ। वह ब्राह्मण-धर्म का प्रबल समर्थक था। इसके साथ ही कहा जाता है कि वह बौद्ध-धर्म द्वेषी था। इसके समर्थन के लिए विद्वानों ने दिव्यावदान, मंजुश्री-मूलकल्प और तारानाथ के इतिहास का सहारा लिया है। दिव्यावदान में कहा गया है कि पुष्यमित्र ने बौद्ध धर्म का विनाश करने का निश्चय किया; कुक्कुटाराम विहार को ध्वस्त करने की चेष्टा की और शाकल में प्रत्येक श्रमण का सिर काटकर लाने के लिए १०० दीनार के इनाम की घोषणा की। मंजुश्री-मूलकल्प में गोमिमुख नामक राजा द्वारा स्तूप और विहारों को ध्वस्त करने और भिक्षुओं की हत्या करने का उल्लेख है। जायसवाल ने इस गोमिमुख को पुष्यमित्र के रूप में पहचानने की चेष्टा की है। तारानाथ के इतिहास से भी इसी तरह की बात पुष्यमित्र के लिए उद्धृत की जाती है। यदि ये कथन प्रामाणिक है५ तो ऐसे बौद्ध-धर्म-द्वेषी पुष्यमित्र के वंशजों द्वारा भारत में बौद्ध स्तूप का तोरण बनवाया जाना निःसन्देह एक असाधारण बात कही जायगी। अतः इस अभिलेख के प्रमाण से हेमचंद्र रायचौधरी६ सदृश विद्वान् शुंगों को उग्र ब्राह्मणवाद का नेता स्वीकार नहीं करते। वे यह मानते हैं कि पुष्यमित्र के वंशज रूढ़िवादी हिन्दू-धर्म के कट्टर माननेवाले भले ही रहे हों, परन्तु वे ऐसे असहिष्णु नहीं थे जैसा कुछ लेखकों ने चित्रित किया है। The Political and Socio-Religious Condition of Bihar – Dr. Hari Kishore Prasad५ Political History of Ancient India६ जो विद्वान्, पुष्यमित्र के बौद्ध-धर्म के प्रति कठोर दृष्टिकोण होने की बात में विश्वास करते हैं, उन्होंने बौद्ध-धर्म के प्रति सहृदयता के प्रतीक इस लेख को इस बात का द्योतक माना है कि पुष्यमित्र के उत्तराधिकारियों के समय यह भावनाएँ सम्भवतः कम हो गयी थीं और उन्होंने उदारता की नीति अपनायी थी। कुछ विद्वान् इस लेख में ऐसा कुछ भी नहीं देखते जिससे ज्ञात हो कि उसका सम्बन्ध किसी प्रकार शुंगवंश के राजाओं से था। वे ‘सुगनं रजे’ का तात्पर्य मात्र शुंगों का राज्यकाल ग्रहण करते हैं और कहते हैं कि तोरण के निर्माता शुंगवंश के नहीं थे। अतः इस लेख से शुंगवंश के धार्मिक विचारों के सम्बन्ध में किसी प्रकार के भाव की अभिव्यक्ति नहीं होती।

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दशरथ के गुहा अभिलेख

भूमिका दशरथ के गुहा अभिलेख बिहार के जहानाबाद जनपद में नागार्जुनी पहाड़ी की गुफाओं में अंकित हैं। बराबर और नागार्जुनी नामक जुड़वा पहाड़ियों को काटकर मौर्यकाल में गुफाएँ बनवाकर आजीवक सम्प्रदाय को दान में दी गयी थी। इन गुफाओं का निर्माण सम्राट अशोक और उनके पौत्र दशरथ ने करवाया था। इसमें इन दोनों सम्राटों के अभिलेख भी मिलते हैं। बराबर की पहाड़ी में चार गुफाओं का निर्माण कराया गया जबकि नागार्जुनी की पहाड़ी को काटकर तीन गुहाओं का निर्माण कराया गया। बराबर पहाड़ी की गुफाएँ — सुदामा गुफा, कर्ण-चौपड़ गुफा, विश्व-झोपड़ी गुफा और लोमश ऋषि की गुफा। नागार्जुनी पहाड़ी की गुफाएँ — गोपिका गुफा, वहियक गुफा और वडथिका गुफा। दशरथ के गुहा अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- दशरथ के नागार्जुनी गुहालेख ( Dashratha’s Nagarjuni Cave Inscriptions ) या दशरथ के गुहा अभिलेख ( Dashratha’s Cave Inscrioptins ) स्थान :- नागार्जुनी पहाड़ी, जनपद जहानाबाद, बिहार भाषा :- प्राकृत लिपि :- प्राकृत समय :- मौर्यकाल विषय :- आजीवक सम्प्रदाय को गुहादान दशरथ के गुहा अभिलेख का मूलपाठ इन अभिलेखों की संख्या तीन है जो निम्नवत हैं – पहला गुहालेख : मूलपाठ १ — वहियक [ । ] कुभा दषलथेन देवानांपियेना २ — आनन्तलियं अभिषितेना [ आजीवकेहि ]१ ३ — भदन्तेहि२ वाष-निषिदियाये निषिठे ४ — आ-चन्दम-षूलियं [ । ] आजीवकेहि :- यह शब्द प्रायः सभी गुहा अभिलेखों में मिटे पाये जाते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि मौखरि शासक अनन्तवर्मा के समय में, जब इन गुफाओं में कृष्ण और शिव की मूर्तियों की स्थापना की गयी, तब इस शब्द को मिटाया गया होगा।१ भदन्तेहि :- कुछ विद्वानों ने भदन्त को ‘भवद्भय’ के रूप में ग्रहण किया है।२ हिन्दी अनुवाद वहियक गुफा देवताओं के प्रिय दशरथ ने अभिषिक्त होने के तत्काल बाद ( आनन्तर्य, बिना अन्तर ) आजीवक ( भिक्षुओं ) के निषिद्धवास ( वर्षाकाल में जब भिक्षु बाहर नहीं जा सकते थे ) के लिए बनवाया। जब तक सूर्य-चन्द्र रहें। दूसरा गुहालेख : मूलपाठ १ — गोपिका कुभा दषलथेना देवानंपि- २ — येना आनन्तलियं अभिषितेना आजी- ३ — विके [ हि ] भदन्तेहि वात-निषिदियाये ४ — निसिठा आ-चन्दम-षूलियं [ । ] अनुवाद गोपिका गुहा देवताओं के प्रिय दशरथ ने अभिषेक होने के बाद ही आजीवक भदन्तों ( भिक्षुओं ) के निषिद्ध-वास के लिए बनवाया। जब तक चन्द्र-सूर्य रहें। तीसरा अभिलेख : मूलपाठ १ — वडथिका कुभा दषलथेना देवानं- २ — पियेना आनन्तलियं अभिषेतना [ आ ]- ३ — [ जी ] विकेहि भदन्तेहि वा [ ष-निषि ] दियाये ४ — निषिठा आ चन्दम-षूलियं [ ॥ ] अनुवाद वडथिका गुहा देवताओं के प्रिय दशरथ ने अभिषेक होने के बाद ही आजीवक भिक्षुओं के निषिद्धवास के लिए बनवाया। जब तक चन्द्र-सूर्य रहें। टिप्पणी इन गुहा अभिलेखों में अशोक के गुहा अभिलेखों की भाँति ही आजीविकों का उल्लेख है। इस अभिलेख में मात्र आजीविकों का उल्लेख न होकर आजीविकेहि भदन्तेहि है। इसका अर्थ हमने आजीवक भिक्षु किया है; किन्तु इस बात की भी सम्भावना प्रकट की जा सकती है। कि भदन्त का तात्पर्य यहाँ बौद्ध भिक्षुओं से है और उक्त पद का तात्पर्य आजीविक और बौद्ध दोनों से है। लयण दोनों सम्प्रदायों के भिक्षुओं के वर्षावास के लिए बनवाया गया था। अशोक का बराबर गुहालेख

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अशोक का बराबर गुहालेख

भूमिका बराबर गुहालेख ( Barabar Cave Inscriptions ) अशोक के साम्प्रदायिक सौहार्दपूर्ण कृत्यों का साक्ष्य प्रस्तुत करता है। अशोक स्वयं बौद्ध धर्मानुयायी थे, फिरभी बराबर पहाड़ी में उन्होंने आजीवकों के लिए गुफाएँ बनवाकर दान की। बराबर की पहाड़ी को इन गुहालेखों में खलतिक नाम से पुकारा गया है। इसके साथ ही बराबर गुहालेख गुफाओं के नाम ( नयग्रोथ, सुप्रिया ) भी मिलते हैं। बराबर में अशोक के कुल तीन गुहालेख मिलते हैं। बराबर गुहालेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- अशोक का बराबर गुहालेख ( Ashoka’s Barabar Cave Inscriptions ) स्थान :- बराबर पहाड़ी, जिला जहानाबाद ( बिहार ) भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी काल :- मौर्यकाल विषय :- आजीवक सम्प्रदाय को गुहादान पहला बराबर गुहालेख : मूलपाठ १ – लाजिना पियदसिना दुवाइस बसा [ भिसितेना ] २ – [ इयं निगोह ] [ कुमा दिना ] [ आजीविकेहि ] ( । ) हिन्दी अनुवाद १ – बारह वर्षों से अभिषिक्त राजा प्रियदर्शी द्वारा २ – यह नयग्रोथ गुफा आजीवकों को दी गयी। दूसरा बराबर गुहालेख : मूलपाठ १ – लाजिना पियदसिना दुवा- २ – डस-वसाभिसितेना इयं ३ – कुभा खलतिक पवतसि ४ – दिना आजीवि केहि ( । ) हिन्दी अनुवाद १ – राजा प्रियदर्शी द्वारा २ – बारह वर्ष अभिषिक्त होने पर यह ३ – गुफा खलतिक पर्वत में ४ – आजीविका को दी गयी तीसरा बराबर गुहालेख : मूलपाठ १ – लाजा पियदसी एकुनवी- २ – सति वसाभिसिते ज [ लघो ] ३ – [ सागमें ] थातवे इयं कुभा ४ – सुपिये ख [ लतिक पवतसि दि ] ५ – [ ना। ] हिन्दी रूपान्तरण १ – राजा प्रियदर्शी ने उन्नीस २ – वर्ष अभिषिक्त होने पर वर्षा काल ३ – के उपयोग के लिए यह [ सुप्रिया ] गुफा ४ – सुन्दर खलतिक पर्वत पर [ आजीविकों को ] दिया टिप्पणी अशोक के इन गुहा अभिलेखों में आजीविकों को निवास के लिए गुफा दान दिये जाने के उल्लेख है । अशोक ने अपने सातवें स्तम्भलेख में आजीविक सम्प्रदाय का उल्लेख निर्ग्रन्थों और ब्राह्मणों के साथ किया और उनके लिए धर्म-महामात्र नियुक्त करने की बात कही है। परन्तु इससे किसी धर्म के प्रति किसी प्रकार का कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता। यद्यपि अशोक के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उसकी निष्ठा बौद्ध-धर्म के प्रति थी। यह उसके धर्म-शासनों से भी प्रकट होता है; फिर भी उसने बौद्ध भिक्षुओं के लिए किसी गुफा का निर्माण नहीं करवाया। अशोक और उसके पौत्र दशरथ ने आजीविकों के प्रति ही यह उदारता क्यों दिखायी? यह प्रश्न विचारणीय अवश्य है। आजीवक-सम्प्रदाय के संस्थापक मक्खलि ( मंखलि ) गोशालि माने जाते हैं। इस सम्प्रदाय का विकास भगवान् बुद्ध के समय या उससे कुछ पहले हुआ था। परन्तु इसका उल्लेख मौर्यकाल में ही मिलता है और उसके सम्बन्ध की जानकारी बौद्ध-ग्रंथों से होती है। उन ग्रन्थों में इसकी चर्चा प्रसंगवश ही हुई है। पतंजलि के महाभाष्य से प्रकट होता है कि आजीवक लोग भाग्यवादी थे और उनका किसी प्रकार के कारण एवं परिणाम में विश्वास नहीं था। इनके सम्बन्ध में जो कुछ भी जानकारी अब तक उपलब्ध है, उसे ए० एल० बैशम ने अपनी पुस्तक ‘आजीविकाज’१ में संकलित किया है। १History and Doctrines Of The Ajivikas : A Vanished Indian Religion — A. L. Basham. अशोक का सातवाँ स्तम्भलेख

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निग्लीवा स्तम्भलेख

भूमिका निग्लीवा स्तम्भलेख नेपाल की तराई में कपिलवस्तु के उत्तर-पूर्व में स्थित है। निगाली सागर स्तम्भलेख को लघु स्तम्भलेख की श्रेणी में रखा गया है। यहाँ की यात्रा स्वयं सम्राट अशोक ने की थी। इसमें पूर्व बुद्ध ‘कनकमुनि’ का विवरण मिलता है। संक्षिप्त परिचय नाम – निग्लीवा स्तम्भलेख; निगालीसागर लघु स्तम्भलेख ( Nigali Sagar Minor Rock Edict ) स्थान – निगाली सागर, नेपाल की तराई। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी विषय – कनक मुनि का उल्लेख, पूर्व-निर्मित स्तूप का संवर्धन और स्वयं अशोक द्वारा यहाँ आकर इस स्थान के वंदन का विवरण सुरक्षित है। निग्लीवा स्तम्भलेख  : मूलपाठ १ – देवानंपियेन पियदसिन लाज़िम चोदस-वसाभिसितेन २ – बुधस कोनासमुनस थुबे दुतियं वढिते [ । ] ३ – [ वीसति व ]१ साभिसितेन च अतन आगाच महीयते ४ – [ सिलो थमे च उस ] पापिते [ । ]२ १ब्यूह्लर के द्वारा मिटे हुए इस रिक्त की पूर्ति। २रुम्मिनदेई स्तम्भलेख के आधार पर सम्भावित पूर्ति। हिन्दी रूपान्तरण १ – चौदह वर्षों से अभिषिक्त देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने २ -बुद्ध कनकमुनि का स्तूप दूना बढ़ाया ( सम्वर्धन कराकर दूना करा दिया )। ३ – [ और बीस वर्षों से ] अभिषिक्त ( राजा ने ) स्वयं आकर ( इस स्थान की ) पूजा की ४ – ( और शिला-स्तम्भ ) स्थापित करवाया। टिप्पणी निगालीसागर स्तम्भलेख भी रुम्मिनदेई स्तम्भलेख के समान ऐतिहासिक घटना का संकेत देता है। इससे ज्ञात होता है कि अशोक से पहले ही यहाँ पर कनकमुनि का एकस्तूप विद्यमान था। इस स्तूप का संवर्धन कराकर अशोक ने दूना करा दिया था। कनकमुनि के सम्बन्ध में यह बताया जाता है कि ऐसे बुद्ध जो निर्वाण के लिए ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं परन्तु उन्होंने एकान्तवास ही चुना और जनता में प्रचार-प्रसार नहीं किया। यदि यह मान लिया जाय तब यह सिद्ध होता है कि अशोक के समय तक पूर्व-बुद्धो की संकल्पना साकार हो चुकी थी। अशोक ने अपने अभिषेक के १४वें वर्ष इस स्तूप का विस्तार कराया था और २०वें वर्ष यहाँ आकर एक स्तम्भ लगवाया और पूजा की। यह सम्भव है कि जब सम्राट अशोक रुम्मिनदेई गये हों उसी समय यहाँ भी गये हों। रुम्मिनदेई स्तम्भलेख

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सारनाथ स्तम्भलेख

भूमिका सारनाथ स्तम्भलेख इस दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि एक तो महात्मा बुद्ध ने आपना पहला उपदेश ( धर्मचक्रप्रवर्तन ) यहीं पर दिया था। दूसरे; इसमें सम्राट अशोक ने संघभेद को रोकने के लिए आदेश दिया है। सारनाथ को प्रचीनकाल में मृगदाव और ऋषिपत्तन भी कहते थे। सारनाथ स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- सारनाथ स्तम्भलेख, सारनाथ लघु स्तम्भलेख ( Sarnath Minor Rock Edict ) स्थान :- सारनाथ, वाराणसी, उत्तर प्रदेश भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी विषय :- भिक्षु और भिक्षुणियों को आदेश, संघ की रक्षा। सारनाथ स्तम्भलेख : मूल-पाठ १ – देवा [ नंपिये ] २ – ए ळ ३ – पाट [ लि पु त ] [ न स कि ] ये केन पि संघे भेतवे ( । ) ए चुं खो ४ – भिखू वा भिखुनि वा संघं भाखति से ओदातानि दुसानि सनंधापयि या आनावाससि ५ – आवासयिये ( । ) हेवं इयं सासने भिखु-संघसि च भिखुनि-संघसि च विनपयितविये ( । ) ६ – हेवं देवानंपिये आहा ( । ) हेदिसा च इका लिपी तुफाकंतिकं हुवा ति संल्लनसि निखिता ( । ) ७ – इकं च लिपि हेदिसमेव उपासकानंतिकं निखिपाथ ( । ) ते पि च उपासका अनु-पोसथं यावु ८ – एतमेव सासनं विस्वंसयितवे ( । ) अनु-पोसथं च धुवाये इकिके महामाते पोसथाये ९ – याति एतमेव सासनं विस्वंसयितवे आजानितवे च ( । ) आवते च तुफाकं आहाले १० – सवत विवासयाथ तुफे एतेन वियंजनेन ( । ) हेमेव सवेसु कोट-विषवेतु एतेन ११ – वियंजनेन विवासापायाथा ( ॥ )१ १ यह ज्ञापन पाटलिपुत्र के महामात्र को मुख्य रुप से सम्बोधित है परन्तु इसका उपदेश भिक्षु व भिक्षुणी; उपासक व उपासिकाओं; अधिकारियों व जनता को भी दिया गया है। यदि यह कौशाम्बी के महामात्र को आदेशित होता तो पाटलिपुत्र की संगीति का उल्लेख इसमें अवश्य हुआ होता। संस्कृत रूपान्तरण देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा आज्ञापयति ( पाटलिपुत्रे महामात्राः ते मया संघः समग्रः कृतः ) पाटलिपुत्रे तथाऽन्यत्र वा न येन केनापि संघो भक्तव्यः। यः तु खलु भिक्षुः वा भिक्षुणी वा संघं भनक्ति सः अवदाताणि दूष्याणि संनिधाप्याऽनावासमावासयितव्यः। एवं इदं शासनं भिक्षु संघे च भिक्षुणी संघे च विज्ञापयितव्यम्। एवं देवानां प्रिय आह। ईदशी चैका लिपिः युष्मदन्तिके भवत्विति संसरणे निक्षिप्ता एका च लिपि इदशीमेव उपासकान्तिके निक्षिप्तः। तेऽपि च। उपासका अनुपोषधं यान्तु एतदेव शासनं विश्वासयितुम अनुपोष्धं च ध्रुवायामेको महामात्रः पोषधाय याति एतदेव शासनं विश्वासयितुम आज्ञापयितुं च। यावच्च युष्माकं आहारः सर्वत्र विवासयत यूयं एतेन व्यञ्जनेन एवमेव सर्वेषु कोष्ठविषयेष्वेतेन व्यञ्जनेन विवासयत। हिन्दी अर्थान्तर १ – देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा आज्ञा देते हैं। २ – जो पाटलिपुत्र के महामात्र हैं उनके द्वारा संघ को संगठित किया गया है। ३ – पाटलिपुत्र तथा अन्य नगरों में ऐसा करना चाहिए जिससे किसी के द्वारा संघ भेद न हो सके। जो भी कोई ४ – भिक्षु या भिक्षुणी संघ में भेद उत्पन्न करेगा उसे श्वेत वस्त्र धारण कराकर एकान्त स्थान में ५ – रखा जाएगा। यह आज्ञा भिक्षु संघ तथा भिक्षुणी संघ को बता देना चाहिए। ६ – इस प्रकार देवताओं के प्रिय ने कहा। इस प्रकार का एक लेख आप लोगों के समीप इकट्ठा होने के स्थान पर होना चाहिए। ७ – और इसी प्रकार का एक लेख उपासकों ( गृहस्थों ) के पास रखें। वे उपासक भी प्रत्येक उपवास के दिन आवें । ८ – इस शासन में विश्वास करें। उपवास के दिन निश्चय ही प्रत्येक महामात्र उपवास के लिए ९- आयेगा। इस आज्ञापन में विश्वास करने एवं इसे अच्छी तरह जानने के लिए और जितना आप लोगों का आहार कार्यक्षेत्र है। १० – सर्वत्र राजपुरुषों को भेजिए इस शासन का अक्षरानुसार पालन करने के लिए। इसी प्रकार सभी कोटों तथा विषयों में इस शासन के ११ – अक्षरानुसार अधिकारियों को भेजिये। टिप्पणी सारनाथ स्तम्भलेख पाटलिपुत्र के महामात्र को निर्देशित या आदेशित करता है कि संघभेद न होने दिया जाय। साथ ही जो कोई भिक्षु या भिक्षुणी संघभेद का कारण बने उसे दण्ड दिया जाय। यह दण्ड होगा कि उसे श्वेत वस्त्र पहनाकर एकांतवास दिया जाय। इस प्रकार अशोक द्वारा बौद्ध संघ में उठ रहे विवादों और विघनात्मक शक्तियों को नियंत्रित करने का प्रयास का साक्ष्य यह अभिलेख है। रुम्मिनदेई स्तम्भलेख

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रुम्मिनदेई स्तम्भलेख

भूमिका रुम्मिनदेई स्तम्भलेख अशोक द्वारा स्थापित स्तम्भलेखों में से ‘लघु स्तम्भलेख’ ( minor pillar-edict ) श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। यह हिमालय के तराई क्षेत्र में पाया गया है अतः इसके साथ-साथ निगालीसागर लघु स्तम्भलेख को कभी-कभी ‘तराई स्तम्भलेख’ भी कह दिया जाता है। इस अभिलेख से कई बातों की सूचना मिलती है; यथा – यह स्थल गौतमबुद्ध की जन्मस्थली है, स्वयं सम्राट अशोक यहाँ पर आये थे इत्यादि। रुम्मिनदेई स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- रुम्मिनदेई स्तम्भलेख या रुम्मिनदेई लघु स्तम्भलेख ( Rummindei Minor Pillar-Edict )।  इसको लुम्बिनी स्तम्भलेख और पडेरिया स्तम्भलेख भी कहा जाता है। स्थान :- पडेरिया या परेरिया के निकट रुम्मिनदेई मन्दिर, नेपाल तराई  ( उत्तर प्रदेश के नौतनवा रेलवे स्टेशन से कुछ दूरी पर उत्तर में स्थित है। )। भाषा :- प्राकृत। लिपि :- ब्राह्मी। समय :- अशोक के राज्याभिषेक का २०वाँ वर्ष लगभग २४९ ई०पू० विषय :- अशोक द्वारा बुद्ध के जन्मस्थान की यात्रा के स्मारक में स्तम्भ स्थापना और वहाँ के आठवाँ भाग मुक्त करना। रुम्मिनदेई स्तम्भलेख : मूलपाठ १ – देवानंपियेन पियदसिन लाजिन वीसति-वसाभिसितेन २ – अतन आगाच महीयिते हिद बुधे जाते सक्य-मुनी ति [ । ] ३ – सिला-विगड-भीचा१ कालापित सिला-थमे ( -थभे ) च उसपापिते [ । ] ४ – हिंद भगवं२ जाते ति लुंमिनि-गामे उबलिके कटे ५ – अठ-भागिये च [ ॥ ] १कारपेण्टर तथा हुल्श का पाठ : सिला विगडभी चा = ‘एक अश्व धारण करने वाला प्रस्तर।’ परन्तु यह पाठ उचित नहीं लगता। २भगवं = भगवान; जिसमें ईश्वरीय गुण, धर्म, यश, श्री आदि हों। संस्कृत छाया देवानां प्रियेण प्रियदर्शिना राज्ञा विशतिवर्षाभिषिक्तेन आत्मनागत्य महीयितमिह बुद्धो जातः शाक्यमुनिरिति। शिला विकृतभित्तिश्च कारिता शिला स्तम्भश्चोत्थापित इह भगवज्जात इति लुम्बिनी ग्रामः उद्वलिकः कृतोऽष्टभागी ची। हिन्दी अनुवाद १ – राज्याभिषेक के बीस वर्ष बाद देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा २ – यहाँ स्वयं आकर पूजा की गयी क्योंकि यहीं बुद्ध शाक्यमुनि जन्म लिये थे। ३ – यहाँ पत्थर की दृढ़ दीवार बनवायी गयी एवं शिला-स्तम्भ खड़ा किया गया ४ – क्योंकि यहाँ भगवान बुद्ध उत्पन्न हुए थे। अतएव लुम्बिनी ग्राम को करमुक्त किया गया ५ – और अष्टभागो ( अष्टभागिक ) बनाया गया। टिप्पणी यह लघु स्तम्भलेख अन्य सभी लेखों से सर्वथा भिन्न है। इसमें सम्राट अशोक ने किसी भी रूप में धर्म का प्रतिपादन न कर एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य का उल्लेख किया है इससे ज्ञात होता है कि जिस क्षेत्र में यह स्तम्भ स्थापित है, वह क्षेत्र लुम्बिनी है। यहाँ पर गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था। यहाँ पर सम्राट अशोक ने अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में आकर पूजा की थी और वहाँ भगवान् बुद्ध की जन्मस्थली को पत्थर की विशाल दीवार से घिरवाया था। अशोक ने यहाँ पर एक स्तम्भ स्थापित किया था। यह एकमात्र आर्थिक अभिलेख है। क्योंकि अशोक ने लुम्बिनी ग्राम को करमुक्त ( उद्दबलिक ) कर दिया था और शस्य-कर घटाकर अष्टमांश ( १/८ ) कर दिया।

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अशोक का सातवाँ स्तम्भलेख

भूमिका सप्तस्तम्भ लेखों में से सातवाँ स्तम्भलेख अशोक के अन्य स्तम्भलेखों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह मात्र दिल्ली-टोपरा स्तम्भ पर ही अंकित है। दिल्ली-टोपरा पर खुदे लेख अन्यत्र छः स्थानों से मिले स्तम्भलेखों में सबसे प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। यही एकमात्र ऐसा स्तम्भ हैं जिसपर सातों लेखों का एक साथ अंकन मिलता है। शेष पाँच पर मात्र छः लेख ही प्राप्त होते हैं। मध्यकाल के प्रसिद्ध इतिहासकार शम्स-ए-शिराज़ के अनुसार यह स्तम्भ मूलतः टोपरा में था। इसे दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने वहाँ से लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया था। तबसे इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भलेख के नाम से जाना जाने लगा। इस स्तम्भ के कुछ अन्य नाम भी हैं; यथा – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि। सातवाँ स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का सातवाँ स्तम्भलेख या सप्तम स्तम्भलेख ( Ashoka’s Seventh Pillar-Edict ) स्थान – दिल्ली-टोपरा संस्करण। यह मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया था। तभी से इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाने लगा। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल, अशोक के राज्याभिषेक के २६ वर्ष बाद अर्थात् २७वें वर्ष। विषय – इस स्तम्भलेख में अशोक के विविध लोककल्याणकारी कार्यों की सूची मिलती है। यह अशोक के स्तम्भ लेखों में से सबसे बड़ा स्तम्भलेख है। सातवाँ स्तम्भलेख : मूलपाठ [ दिल्ली-टोपरा संस्करण ] १ – देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा [ । ] ये अतिकन्तं २ – अन्तलं लाजाने हुसु हेवं इछिसु कथं जने ३ – धम्म-वढिया वढेया [ । ] नो चु जने अनुलुपाया धम्म-वढिया ४ – वढिया [ । ] एतं देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा [ । ] एस मे ५ – हुथा [ । ] अतिकन्तं च अन्तंलं हेवं इछिसु लाजाने कथं जने ६ – अनुलुपाया धम्म-वढिया वढेया ति [ । ] नो च जने अनुलुपाया ७ – धम्म – वढिया वढिया [ । ] से किनसु जने अनुपटिपजेया [ । ] ८ – किनसु जने अनुलुपाया धम्म-वढिया वढेया ति [ । ] किनसु कानि ९ – अभ्युंनामहेयं धम्म वढिया ति [ । ] एतं देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं १० – आहा [ । ] में हुथा [ । ] धम्म-सावनानि सावापयामि धम्मानुसथिनि ११ – अनुसासामि [ । ] एतं जने सुतु अनुपटीपजीसति अभ्युंनमिसति १२ – धम्म-वढिया च वाढं वढिसति [ । ] एताये मे पठाये धम्म-सावनानि सावापितानि धम्मानुसथिनि विविधानि आनपितानि य [ था ] [ । ] मा पि बहुने जनसि आयता ए ते पलियोवदिसन्ति पि पविथलिसन्ति पि [ । ] लजूका पि बहुकेसु पान-सत-सहसेसु आयता [ । ] ते पि मे आनपिता हेवं च पलियोवदाथ १३ – जनं धम्म-युतं [ । ] देवानंपिये पियदसि हेवं आहा [ । ] एतमेव मे अनुवेखमाने धम्म-थम्भानि कटानि धम्म-महामाता कटा धम्म [ सावने ] कटे [ । ] देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा [ । ] मगेसु पि मे निगोहानि लोपापितानि छायोपगानि होसन्ति पसुमुनिसानं अम्बा-वडिक्या लोपापिता [ । ] अढकोसिक्यानि पि मे उदुपानानि १४ – खानापापितानि निंसिढया च कालापिता [ । ] आपानानि में बहुकानि तत तत कालापितानि पटी भोगाये पसु मुनिसानं [ । ] ल [ हुके ] [ सु ] एक पटीभोगे नाम [ । ] विविधाया हि सुखायनाया पुलिमेहि पि लाजीहि ममया च सुखयिते लोके [ । ] इमं चु धम्मानुपटीपती अनुपटीपजन्तु ति एकदथा मे १५ – एस कटे [ । ] देवानंपिये पियदसि हेवं आहा [ । ] धम्म-महामाता पि मे ते बहुविधेसु अठेसु आनुगहिकेसु वियापटासे पवजीतानं चेव गिहिथानं चन [ च ] सव- [ पांस ] डेसु पि च वियापटासे [ । ] संघठसि पि मे कटे इमे वियापटा होहन्ति ति हेमेव बाभनेस आजीविकेसु पि मे कटे १६ – इमे वियापटा होहन्ति ति निगंठेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहन्ति नाना-पासण्डेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहन्ति ति पटिविसिठं पटीविसिठं तेसु तेसु ते ते [ महा ] माता [ । ] धम्म-महामाता चु मे एतेसु चेव वियापटा सवेसु च अन्नेसु पासण्डेसु [ । ] देवानं पिये पियदसि लाजा हेवं आहा [ । ] १७ – एते च अन्ने च बहुका मुखा दानविसगसि वियापटासे मम चेव देविनं च [ । ] सवसि च मे ओलोधनसि ते बहुविधेन आकालेन तानि तानि तुठायतनानि पटी [ — ] [ दयन्ति ] हिद चेव दिसासु च [ । ] दालकानां पि च मे कटे अन्नानं च देवि-कुमालानं इमे दानविसगेसु वियापटा होहन्ति ति १८ – धम्मापदानठाये धम्मानुपटिपतिये [ । ] एस हि धम्मापदाने धम्मपटीपति च या इयं दया दाने सचे सोचवे मदवे साधवे च लोकस हेवं वढिसति ति [ । ] देवानंपिये [ पियदसि ] लाजा हेवं आहा [ । ] यानि हि कानिचि ममिया साधवानि कटानि तं लोके अनूपटीपन्ने तं च अनुविधियन्ति [ । ] तेन वढिता च १९ – वढिसन्ति च मातापितिसु सुसुसाया गुलुसु वयो-महालकानं अनुपटीपतिया बाभन-समनेसु कपन-वलाकेसु आव दास-भटकेसु सम्पटीपतिया [ । ] देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा [ । ] मुनिसानं चु या इयं धम्मवढि वढिता दुवेहि येव आकालेहि धम्म नियमेन च निझतिया च [ । ] २० – तत चु लहु से धम्म-नियमे निझतिया व भुये [ । ] धम्म नियमे चु खो एस ये मे इयं कटे इमानि च इमानि जातानि अवधियानि [ । ] अन्नानि पि चु बहुकानि धम्म-नियमानि यानि से कटानि [ । ] निझतिया व चु भुये मुनिसानं धम्म-वढि वढिता अविहिंसाये भूतानं २१ – अनालम्भाये पानान [ । ] से एताये अथाये इयं कटे पुता-पपोति के चन्दम-सुलियिके होतु ति तथा च अनुपटीपजन्तु ति [ । ] हेवं हि अनुपटीपजन्तं हिदत-पालते आलधे होति [ । ] सतविसति-वसाभिसितेन मे इयं धम्मलिपि लिखापापिता ति [ । ] एतं देवानंपिये आहा [ । ] इयं २२ – धम्मलिपि अत अथि सिला-थम्भानि वा सिला-फलकानि वा तत कटविया एन एस चिलठितिके सिया [ । ] संस्कृत छाया देवानांप्रिय प्रियदर्शी राजा एवमाह। वदतिक्रान्तमन्तरं राजानोऽभवन्तेवमैच्छन् कथं जनं धर्मवद्धिर्वर्धनीया। न तु जनेऽनुरूपया धर्मवद्धिर्वधिता। अत्र देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवमाह। एतन्ते भूतम्। अतिक्रान्तमनरमेवैमैच्छन् राजनः कथं जनेऽनुरूपा धर्मवद्धिर्वर्धनीयेति। न च जनेऽनुरूपा धर्मवद्धिर्वधिता। तत्केनस्थित् जनोऽनुप्रतिपद्यते केनस्थित् जनेऽनुरूपा धर्मवद्धिर्वर्धनीयेति। केनस्थि केषामभ्युमन्नमयेहं धर्मवद्धिमिति। अत्र देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजैवमाह। एतन्मे भूतम्। धर्मश्रावणानि, श्रावयामि, धर्मानुशिष्टीरनुशास्मि। एतानि जन, श्रुत्वा अनुप्रतियत्स्यते, अभ्पुन्नस्यति धर्मवद्धिश्च वाढं वर्धिष्यते। एतस्मै मया अर्थाय धर्मश्रावणानि श्रावितानि धर्मानुशिष्टयो विविधा आज्ञापिताः। यथा मे पुरुषा अपि बहुषु जनेष्वायत्ताः, एते परितो वदिष्यन्त्यपि प्रविस्तारयिष्यन्तपि। रज्जुका

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अशोक का छठवाँ स्तम्भलेख

भूमिका सप्तस्तम्भ लेखों में से छठवाँ स्तम्भलेख अशोक द्वारा धर्मलिपि लिखवाने के प्रयोजन का उल्लेख किया है। दिल्ली-टोपरा पर अंकित लेख अन्यत्र छः स्थानों से मिले स्तम्भलेखों में सबसे प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। यह एकमात्र ऐसा स्तम्भ हैं जिसपर सातों लेखों का एक साथ अंकन मिलता है। शेष पाँच पर मात्र छः लेख ही मिलते हैं। मध्यकाल के इतिहासकार शम्स-ए-शिराज़ के अनुसार यह स्तम्भ मूलतः टोपरा में था। इसे फिरोजशाह तुगलक ने वहाँ से लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया था। तभी से इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भलेख के नाम से जाना जाने लगा। इस स्तम्भ के कुछ अन्य नाम भी हैं; यथा – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि। छठवाँ स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का छठवाँ स्तम्भलेख या पञ्चम स्तम्भलेख ( Ashoka’s Sixth Pillar-Edict ) स्थान – दिल्ली-टोपरा संस्करण। यह मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया था। तभी से इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाने लगा। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल, अशोक के राज्याभिषेक के २६ वर्ष बाद अर्थात् २७वें वर्ष। विषय – इस स्तम्भलेख में अशोक ने धर्मलिपि को लिखवाने का प्रयोजन स्पष्ट किया है। छठवाँ स्तम्भलेख : मूलपाठ १ – देवानंपिये पियदसि लाज हेवं अहा [ । ] दुवाडस— २ – वस—अभिसितेन मे धम्मलिपि लिखापिता लोकसा ३ – हित—सुखाये [ । ] से तं अपहटा तं तं धम्म—वढि पापोवा [ । ] ४ – हेवं लोकसा हित—सुखे ति पटिवेखामि अथ इयं ५ – नातिसु हेवं पतियासंनेसु हेवं अपकठेसु ६ – किंमं कानि सुखं अवहामी ति तथा च विदहामी [ । ] हेमेवा ७ – सव—निकायेसु पटिवेखामि [ । ] सब पासण्डा पि मे पूजिता ८ – विविधाय पुजाया [ । ] ए चु इयं अतना पचूपगमने ९ – से मे मोख्यमुते [ । ] सडवीसति वस अभिसितेन मे १० – इयं धम्मलिपि लिखापिता [ । ] संस्कृत छाया देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवमाह। द्वादशवर्षाभिषिक्तेन मया धर्मलिपिलेखिता लोकस्य हितसुखायः, तत्रदपहृत्य सा सा धर्मवृद्धिः प्राप्ताया। एवं लोकस्य हितसुखे इति प्रत्यवेक्षे ययेदं ज्ञातियु एवं प्रत्यासन्नेषु एवमपकृष्टेषु किं केषां सुखमावहामीति तथा च विदधे। एवमेव सर्वनिकायेषु प्रत्येवेक्षे। सर्वपाषण्डा अपि मे पूजिता विविधया पूजया। यत्त्विदमात्मना प्रत्युपगमनं तन्मे मुख्यमतम्। षड्विंशतिवर्षाभिषिक्तेन मयेयं धर्मलिपिर्लेखिता॥ हिन्दी अनुवाद देवाताओं के प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा कि — राज्याभिषेक के बारह वर्ष बाद जनता के हित [ एवं ] सुख के लिए धर्मलिपि लिखवायी गयी [ जिससे ] वह [ लोक, मनुष्य ] उसका ( धर्मलिपि का ) पालन ( अप्रहरण ) कर उस-उस ( विविध तरह की ) धर्मवृद्धि को प्राप्त हो। ‘इस तरह लोकहित [ एवं ] सुख ( होगा )’, [ ऐसा विचारकर मैं ] जिस तरह सम्बन्धियों पर ध्यान देता हूँ, उसी तरह समीप के लोगों पर [ और ] उसी तरह दूर के लोगों पर [ भी ध्यान देता हूँ ], जिससे [ मैं ] उनको सुख पहुँचाऊँ एवं मैं वैसा ही करता हूँ। इसी तरह ( मैं ) सब निकायों ( स्वायत्त-शासनप्राप्त स्थानीय संस्थाओं ) पर ध्यान रखता हूँ। सभी पाषण्ड ( पन्थ ) भी मेरे द्वारा विविध पूजाओं से पूजित हुए हैं। परन्तु [ पन्थों के यहाँ ] आत्म-प्रत्युपगमन अर्थात् स्वयं को जाना मेरे द्वारा मुख्य [ कर्त्तव्य ] माना गया है। छब्बीस वर्षों से अभिषिक्त मेरे द्वारा यह धर्मलिपि लिखवायी गयी है। टिप्पणी छठवाँ स्तम्भलेख अशोक के धर्मलिपि लिखवाने के प्रयोजन को स्पष्ट करता है। साथ ही इसमें राजा और प्रजा के सम्बन्ध को अशोक ने इनपे दृष्टिकोण से परिचित कराया है। यहाँ एक प्रमुख बात यह है कि इस स्तम्भलेख से हमें ज्ञात होता है कि अशोक ने अभिलेख लिखवाने की प्रक्रिया को अपने अभिषेक के बारह वर्ष अभिषिक्त रहते हुए ( अर्थात्  १३वें वर्ष से ) प्रारम्भ करवाया था। पहला स्तम्भलेख दूसरा स्तम्भलेख तीसरा स्तम्भलेख चौथा स्तम्भलेख पाँचवाँ स्तम्भलेख

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अशोक का पाँचवाँ स्तम्भलेख

भूमिका सप्तस्तम्भ लेखों में से पाँचवाँ स्तम्भलेख अशोक द्वारा जीवहिंसा को रोक देने से सम्बन्धित है। दिल्ली-टोपरा पर अंकित अन्यत्र छः स्थानों से मिले स्तम्भलेखों में सबसे प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। यहीं एकमात्र ऐसा स्तम्भ हैं जिसपर सातों लेख एक साथ पाये जाते हैं शेष पाँच पर छः लेख ही मिलते हैं। शम्स-ए-शिराज़ ( मध्यकालीन इतिहासकार ) के अनुसार यह स्तम्भ मूलतः टोपरा में था। इसको फिरोजशाह तुगलक ने वहाँ से लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवाया था। तबसे इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ नाम से जाना जाने लगा। इस स्तम्भ के कुछ अन्य नाम हैं; यथा – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि। पाँचवाँ स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का पाँचवाँ स्तम्भलेख या पञ्चम स्तम्भलेख ( Ashoka’s Fifth Pillar-Edict ) स्थान – दिल्ली-टोपरा संस्करण। यह मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया था। तबसे इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाने लगा। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल, अशोक के राज्याभिषेक के २६ वर्ष बाद अर्थात् २७वें वर्ष। विषय – जीवहिंसा पर प्रतिबंध से सम्बन्धित है। पाँचवाँ स्तम्भलेख : मूलपाठ १ – देवानंपिये पियदसि लाल हेवं अहा [ । ] सड़वीसतिवस- २ – अभिसितेन मे इमानि जातानि अवधियानि कटानि [ । ] सेयथा ३ – सुके सालिका अलुने चकवाके हंसे नंदीमुखे गेलाटे ४ – जतूका अम्बा कपीलिका दली अनठिकमछे वेदवेयके ५ – गंगा-पुपुटके संकुज-मछे कफट-सेयके पंन-ससे सिमले ६ – संडके ओकपिंडे पलसते सेत-कपोते गाम-कपोते ७ – सवे चतुपदे ये पटिभोगं नो एति न च खादियती [ । ] अजका नानि ८ – एलका चा सूकली च गभिनी न पायमीना व अवधिया पोतके ९ – पिच कानि आसंमासिके [ । ] वधि-कुकुटे नो कटविये [ । ] तुसे सजीवे १० – नो झापेतविये [ । ] दावे अनठाये वा विहिसाये वा नो झापेतविये [ । ] ११ – जीवेन जीवे नो पुसितविये [ । ] तीसु चातुंमासीसु तिसायं पुंनमासियं १२ – तिंनि दिवसानि चावुदसं पंनडसं पटिपदाये धुवाये चा १३ – अनुपोसथं मछे अवधिये नो पि विकेतविये [ । ] एतानि येवा दिवसानि १४ – नाग वनसि केवट भोगसि यानि अन्नानि पि जीव-निकायानि १५ – न हतंवियानि [ । ] अठमी-पखाये चावुदसाये पंनडसाये तिसाये १६ – पुनावसुने तीसु चातुंमासीसु सुदिवसाये गोने नो नीलखितविये १७ – अजके एलके सूकले ए वापि अन्ने नीलखियति नो नीलखितविये [ । ] १८ – तिसाये पुनावसुने चातुंमासिये चातुंमासि-पखाये अस्वसा गोनसा १९ – लखने नो कटविये [ । ] याव-सड़वीसति-वस अभिसितेन मे एताये २० – अन्तलिकाये पंनवीसति बन्धनमोखानि कटानि [ । ] संस्कृत छाया देवानांप्रिय: प्रियदर्शी राजा एवं आह। षड्शिंतिवर्षाभिषिक्तेन मया इमानि जातानि अवध्यानि कृतानि तानि यथा शुकः सारिका, अरुणः, चक्रवाक, हंसः नन्दीमुखः, गेलाट, जातुकाः, अम्बाकपीलिका, दुडिः, अनास्थिकमत्स्यः, वेदवेयकः, गंगाकुकुटः, संकुजमत्स्यः, कमठः, शल्यः, पर्णशिशः, स्मरः, षडकः, आकपिण्डः, पषतः, श्वेतकपोतः, ग्रामकपोतः, सर्वे चतुष्पदाः ये परिभोगं न यन्ति न खाद्यन्ते। एडका शूकरी च गर्भिणी वा पयस्विनी वा अवध्या। पोतका अपि च आषाण्मासिकाः। वध्रि कुक्कुटः न कर्तव्यः। तुष सजीवः न दाहितव्यः। दावः अनर्थाय वा विहिंसायै वा नो दाहयितव्यः। जीवेन जीवः न पोषितव्यः। तिससु चातुर्मासीषु तिष्यायां पौर्णमास्यां त्रिषु दिवसेषु — चतुर्दशे, पञ्चदशे प्रतिपदि च ध्रुवायाः अनुपवसथं मत्स्यः अवध्यः, नो अपिविकेतव्यः। एतान् एव दिवसान्, नागवने, कैवर्त-भोगे, ये अन्ये अपि जीव निकायाः नो हन्तव्याः। अष्टमी-पक्षे, चतुर्दश्यां, पंचदश्यां, तिष्यायां, पुनर्वसौ तिसषु, चातुर्मासीषु सुदिवसे गौः न निर्लक्षयितव्याः। तिष्यायां पुनर्वसौ, चातुर्मास्या, चातुर्मासीपक्षे च अश्वस्य गो; च दग्यशलाकया लक्षणं नो कर्तव्यम्। यावत् षडविंशति वर्षाभिषिक्तेन मया एतस्याम् अन्तरिकायां पंचविशतिः बन्धन मोक्षाः कृताः॥ हिन्दी अनुवाद १ – देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा — छब्बीस वर्षों से २ – अभिषिक्त होने पर इन जीवधारियों को मैंने अवध्य घोषित किया। वे हैं — ३ – शुक, सारिका, लाल पक्षी, चकवा, हंस, नन्दीमुख (मैना का एक प्रकार) गेलाट ४ – गीदड़, रानीचींटी, कछुई, अस्थिरहित ( बिना काँटे की ) मछली, वेद वेयक ५ – गंगा-कुक्कुट, संकुजमत्स्य, कछुआ, साही, नपुंसक शश, बारहसिंगा, ६ – साँड, गोधा, मग, सफेद कबूतर, ग्राम कपोत ७ – और सभी प्रकार के चौपाये जो न उपयोग में आते हैं न खाए जाते हैं। ८ – गर्भिणी अथवा दूध पिलाती हुई बकरी, भेडे, शूकरी अवध्य बताई गयीं। इनके बच्चे भी ९ – जो एक महीने के होते थे ये भी। कुक्कुट की बधिया नहीं करनी चाहिए। सजीव भूसी १० – नहीं जलानी चाहिए। व्यर्थ के लिए या हिंसा के लिए जंगल नहीं जलाना चाहिए। ११ – जीव से जीव का पोषण नहीं करना चाहिए। तीनों चौमासों में तिष्य पूर्णमासी को १२ –  तीन दिन — चतुर्दशी, पूर्णिमा और प्रतिपदा, निश्चितरूप से १३ – उपवास के दिन मछलियाँ नहीं मारनी चाहिए और न बेचनी चाहिए। इन दिनों १४ – नागवनी, मछलियों के तालाब में जो भी दूसरे जीव हों १५ – उन्हें नहीं मारना चाहिए। प्रत्येक पक्ष की पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, तिष्य १६ – पुनर्वसु, तीन चातुर्मासों के शुक्ल-पक्ष में गौ को दागना नहीं चाहिए। १७ – बकरा, भेड़, सूअर अथवा और जो पशु दागे जाते हैं उनको भी दागना नहीं चाहिए। १८ – तिष्य, पुनर्वसु, प्रत्येक चतुर्मास की पूर्णिमा के दिन और प्रत्येक चतुर्मास के शुक्ल पक्ष में अश्व और गौ को १९ – दागना नहीं चाहिए। छब्बीस वर्ष अभिषिक्त होने पर मैंने इस बीच २० – पच्चीस बार बन्धन-मोक्ष ( बन्दियों को मुक्त ) किया। टिप्पणी सम्राट अशोक के चौदह बृहद् शिला प्रज्ञापनों के प्रथम शिलालेख में जीवहिंसा निषेध की बात की गयी थी। साथ ही सम्राट ने यह आश्वासन दिया था कि भविष्य में इसपर भी प्रतिबंध लगाया जायेगा। वह समय कब आया? इसी का उत्तर यह ( पाँचवाँ स्तम्भलेख ) लेख देता है। अपने अभिलेख के २६ वर्ष बाद ( अर्थात् २७वें वर्ष ) सम्राट अशोक ने निर्दिष्ट जीवों की हिंसा पर प्रतिबंध लगा दिया अथवा सीमित कर दिया। यह अभिलेख अशोक के प्राणिमात्रों प्रति दया को दर्शाता है। पाँचवाँ स्तम्भलेख एक लम्बी सूची देता है कि किन जीवों को न मारे, कब न मारें, उनको दागा न जाय। इस तरह यह ( पाँचवाँ स्तम्भलेख ) पूर्णरूप से जीवहिंसा नियंत्रकों जुड़ा हुआ है। पहला स्तम्भलेख दूसरा स्तम्भलेख तीसरा स्तम्भलेख चौथा स्तम्भलेख

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अशोक का चौथा स्तम्भलेख

भूमिका सप्तस्तम्भ लेखों में से चौथा स्तम्भलेख अशोक के अधिकारी रज्जुक के अधिकार और दायित्व के सम्बन्ध में बात करता है। दिल्ली-टोपरा स्तम्भलेख छः स्तम्भलेखों में सबसे प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। यहीं एकमात्र ऐसा स्तम्भ हैं जिसपर सातों लेख एक साथ पाये जाते हैं शेष पाँच पर छः लेख ही मिलते हैं। मध्यकालीन इतिहासकार शम्स-ए-शिराज़ के अनुसार यह स्तम्भ मूलतः टोपरा में था। इसको फिरोजशाह तुगलक ने लाकर दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवाया था। इसलिए इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ कहा जाने लगा। इस स्तम्भ के कुछ अन्य नाम भी हैं; यथा – भीमसेन की लाट, दिल्ली-शिवालिक लाट, सुनहरी लाट, फिरोजशाह की लाट आदि। चौथा स्तम्भलेख : संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का चौथा स्तम्भलेख या चतुर्थ स्तम्भलेख ( Ashoka’s Fourth Pillar-Edict ) स्थान – दिल्ली-टोपरा संस्करण। यह मूलतः टोपरा, हरियाणा के अम्बाला जनपद में स्थापित था, जिसको दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुग़लक़ ने दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित करवा दिया। तबसे इसको दिल्ली-टोपरा स्तम्भ भी कहते है। भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी समय – मौर्यकाल, अशोक के राज्याभिषेक के २६ वर्ष बाद अर्थात् २७वें वर्ष। विषय – रज्जुक के अधिकार और कर्त्तव्य का विवरण। चौथा स्तम्भलेख : मूल-पाठ १ – देवानंपिये पियदसि लाज हेवं आहा [ । ] सड़वीसति-यस- ( सड़लीसतिवस- ) २ – अभिसितेन मे इयं धंम-लिपि लिखापिता [ । ] लजका ( लजूका ) से ( मे ) ३ – बहूसु पान-सत-सहसेसु ( पान-सत सहेसु ) जनसि आयता [ । ] तेसं ये अभिहाले वा ४ – दंडे वा अत-पतिये मे कटे [ । ] किति लजूका अस्वथ अभीता ५ – कंमानि पवतयेवू जनस जानपदसा हित-सुखं उपदहेवू ६ – अनुगहिनेवु च [ । ] सुखीयन-दुखीयनं जानिसंति धंमयुतेन च ७ – वियोवदिसंति ( वियोवढिसंति ) जनं जानपदं ( जनपदं ) [ । ] किंति हिदतं च पालतं च ८ – आलाधयेवू ति [ । ] लजूका पि लधंति पटिचलितवे मं [ । ] पुलिसानि पि मे मं [ । ] ९ – छंदंनानि पटिचलिसंति [ । ] ते पि च कानि वियोवदिसंति ( बियोवदिसंति ) येन मं लजूका १० – चघंति अलाधयितदे [ । ] अथा हि पजं वियताये धातिये निसिजितु ११ – अस्वथे होति वियत धाति चद्यति मे पजं सुख पलिहटवे १२ – हेवं मम लजूका कटा जानपदस हित-सुखाये [ । ] पेन एते अभीता १३ – अस्वथ संतं अविमना कंमानि पवतयेवू ति एतेन मे लजूकानं १४ – अभिहाले व दंडे वा अत-पतिये कटे [ । ] इछितविये हि एसा [ । ] किंति १५ – वियोहाल समता च सिय दंड समता चा [ । ] अब इते पि च मे आवति [ । ] १६ – बंधन-बधानं मुनिसानं तीलित दंडानं पत वधानं तिंनि दिवसानि १७ – मे योते दिंने [ । ] नातिका व कानि निझपयिसंति जीविताये तानं १८ – नासंतं वा निझपयिता दानं दाहंति पालतिकं उपवासं व कछंति [ । ] १९ – इछा हि मे हेवं निलुधसि पि कालसि पालतं आलाधयेवू ति [ । ] जनस च २० – बढति विविधे धंम चलने संयमे दान सविभागे ति [ ॥ ] संस्कृत छाया देवानां प्रियः प्रियदर्शी राजा एवम् आह। षड्विंशतिवर्षाभिषिक्तेन मया इयं धर्मलिपि लेखिता। रज्जुकाः मे बहुषु प्राणशतसहस्रेषु जनेषु आयताः। तेषां यः अभिहारः वा दण्डः वा आत्मप्रत्ययः मयाकृतः किमितिरज्जुकाः आश्वस्ताः अभीताः कर्माणि प्रवर्तयेयुः जनस्य जानपदस्य हितसुखं उपदध्युः अनुगह्णीयु: च सुखीयनं दुखीयनं ज्ञास्यन्ति धर्मषुतेन च व्यपदेक्ष्यन्ति जनं जानपदं किमिति — इहत्यं पारत्र्यं च आराधयेयुः इति। रज्जुकाः अपि च चेष्टन्ते परिचरितुं माम्। पुरुषा अपि मे छन्दनानि परिचरिष्यन्ति। ते अपि च कान् व्यपदेक्ष्यन्ति येन मां रज्जुकाः चेष्टन्ते आराधयितुम्। यथा हि प्रजां व्यक्तायै धात्र्यै निसज्य आश्वस्तः भवति — व्यक्ता धात्री चेष्टन्ते मे प्रजायैः सुखं परिदातुम् इति एवं मम रज्जुकाः कृताः जानपदस्य हित सुखाय येन एते अभीताः आश्वस्ताः सन्तः अविमनसः कर्माणि प्रवर्तयेयुः इति। एतेन वा रज्जुकानाम् अभिहारः वा दण्डःवा आत्मप्रत्ययः कृतः। इच्छितव्या हि एषा किमिति-व्यवहार समता व स्यात् दण्डसमता च। यावत् इतः अपि च मे आज्ञाप्ति बन्धन-बद्धानां मनुष्याणां निर्णीत-दण्डानां प्रतिविधानं श्रीणि दिवसानि मया यौतकं दत्तम्। ज्ञातिका वा तान् निध्यापयिष्यन्ति जीविताय तेषां नाशन्तं वा निश्यायत्तः दानं ददाति परात्रिकम् उपवासं वा करिष्यन्ति। इच्छाहि मे एवं निरुद्धे अपि काले पारत्र्यम् आराधयेयुः इति। जनस्य च वर्धेत विविधंधर्माचरणं संयमः दानस्य विभागः इति। हिन्दी अर्थान्तर १ – देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा — छब्बीस वर्षों से २ – अभिषिक्त होने पर मेरे द्वारा यह धर्मनिपि लिखवाई गई है। मेरे रज्जुक ३ – कई लाख प्राणियों एवं लोगों के लिए नियुक्त हैं। उनका जो अभियोग लगाने का अधिकार अथवा ४ – दण्ड का अधिकार है उसमें उन्हें मेरे द्वारा स्वतन्त्रता दी गई है क्योंकि रज्जुक और निर्भय होकर ४ – कार्य में प्रदत्त ( संलग्न ) हों, जनता और जनपदों के हित एवं सुख पहुंचाने की व्यवस्था करें। ६ – और उनपर कृपा करें। ये सुख एवं दुःख के कारणों को जानेंगे तथा अधिकारियों द्वारा ७ – जनपद के लोगों को उपदेश करेंगे कि लोग इहलौकिक और पारलौकिक कल्याण की प्राप्ति के लिए ८ – प्रयत्न करें। रज्जुक भी मेरी सेवा के लिए चेष्टा करते हैं। मेरे राजपुरुष भी ९ – मेरी इच्छाओं का पालन करेंगे। ये कुछ लोगों को उपदेश करेंगे जिससे रज्जुक मुझे १० – प्रसन्न करने की चेष्टा करेंगे। जिस प्रकार योग्य धाय के हाथ में सन्तान सौंपकर ११ – माता-पिता निश्चिन्त होते हैं। योग्य धाय चेष्टा करती है मेरे सन्तान को सुख प्रदान करने के लिए। १२ – इसी प्रकार जनपद के हित सुख के लिए रज्जुक नियुक्त हुए हैं। जिनसे निर्भय १३ – और आश्वस्त होते हुए प्रसन्नचित कर्मों में प्रवत्त हों। इसीलिए मेरे द्वारा रज्जुकों को १४ – अभियोग लगाने एवं दण्ड देने के अधिकार में स्वायत्तता दी गयी है। इसकी इच्छा करनी चाहिए। १५ – उनमें व्यवहार समता और दण्ड समता होनी चाहिए। यह मेरी आज्ञा है। १६ – कारावास में बंधे तथा मृत्युदण्ड पाए हुए लोगों को मेरे द्वारा तीन दिनों की १७ – छूट दी गई है। इसी बीच उनके स्वजन उनका जीवन बचाने के लिए राजुओं को इस पर पुनर्विचार के लिए आकृष्ट करेंगे। १८ – अथवा उनके जीवन के अन्त तक ध्यान करते हुए दान देंगे पारलौकिक कल्याण के लिए अथवा उपवास करेंगे। १९ – मेरी ऐसी इच्छा है कि कारावास में रहकर भी लोग परलोक का ध्यान करें कि २० – लोगों में धर्माचरण, संयम और दान वितरण बढ़े। टिप्पणी

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