अभिलेख

तक्षशिला ताम्रलेख

भूमिका तक्षशिला ताम्रलेख १४ इंच लम्बे और ३ इंच चौड़े ताम्रपत्र पर अंकित है। यह आभिलेख तीन टुकड़ों में खण्डित है। इसे तक्षशिला, रावलपिंडी, पाकिस्तान में कहीं मिला था और इसके प्राप्ति स्थान को निश्चित रूप से नहीं जाना जा सका है। वर्तमान में यह ताम्रलेख लन्दन के रायल एसियाटिक सोसाइटी में सुरक्षित है। यह लेख खरोष्ठी लिपि और प्राकृत भाषा में पाँच पंक्तियों में अंकित है। इसमें अक्षर की रेखाएँ बिन्दुओं द्वारा अंकित की गयी हैं। तक्षशिला ताम्रलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- तक्षखिला ताम्रलेख ( Taxila Copper plate ), पतिक का तक्षशिला ताम्रलेख ( Patika copper plate ), मोगा अभिलेख ( Moga inscription ) स्थान :- तक्षशिला, रावलपिंडी; पाकिस्तान। वर्तमान में रॉयल एशियाटिक सोसायटी, लंदन में है। भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- प्रथम शताब्दी ई०पू० से पहली शताब्दी ई० के मध्य विषय :- बौद्ध धर्म से सम्बंधित तक्षशिला ताम्रलेख : मूलपाठ १. [ संवत्स ] रये अठसततिमए २० [+] २० [+] २० [+] १० [+] ४ [+] ४ महरयस महंतस [ मो ] गस  प [ ने ] मस मसस दिवसे पंचमे ४ [+] १ [ । ] एतये पुर्वये क्षहर [ तस ] २. चुख्ससच क्षत्रपस लिअको कुसुलुको नम तस पुत्रो [ पति ] [ को ] [ । ] तखशिलये नगरे उतरेण प्रचु-देशो क्षेम नम [ । ] अत्र ३. [ दे ] शे पतिको अप्रतिठवित भगवत शकमुनिस शरिरं [ प्र ] [ ति ] थ- [ वेति ] [ सं ] घरमं च सर्व-बुधन पुयए मत-पितरं पुययं [ तो ] ४. क्षत्रपस स-पुत्र-दरस अयु-बल वर्धिए भ्रतर सर्व [ च ] [ ञतिग ] घवस च पुययंतो महदनपति पतिक सज उव [ झ ] ए [ न ] ५. रोहिणिमित्रेण य इम [ मि? ] संघरमे नवकमिक [ । ] ६. पतिकस क्षत्रप लिअक [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद महाराज महान् मोग के संवत्सर अठत्तर ( ७८ )१ के पनेमास२ नामक मास के पाँचवें दिवस को। इस पूर्व कथित [ तिथि ] को चुख्स का क्षहरात और क्षत्रप लियक कुसुलक नामक [ था ] उसका पुत्र पतिक [ है ]। तक्षशिला नगर३ की उत्तर दिशा में क्षेम नाम ( का ) पूर्वप्रदेश [ है ]। इस देश में पतिक ने अप्रतिष्ठित ( जो पहले प्रतिष्ठित नहीं हुआ था ) भगवान् शाक्य मुनि का शरीर ( अस्थि-अवशेष ) एवं संघाराम प्रतिष्ठित किया सर्व बुद्धों की पूजा के लिए, माता-पिता की पूजा के लिए, पुत्र-पुत्री सहित क्षत्रप के आयुर्बल के लिए, सभी भाइयों, जातिवासियों ( ज्ञातिक ) और पड़ोसियों ( अधिवासी ) के लिए। महादानपति पतिक ने उपाध्याय रोहिणीमित्र के साथ, जो इस संघाराम का नवकर्मिक ( निर्माण-कार्य की व्यवस्था करनेवाला ) है, पूजा कर। पतिक का क्षत्रप लियक। यहाँ खरोष्ठी की अंक-लेखन पद्धति द्रष्टव्य है। ७८ के लिए तीन बार २०, फिर १० और दो बार ४ लिखा गया है।१ यह यूनानी ( मेसिडोनियन ) मास का नाम है। यह मास भारतीय गणना के अनुसार आषाढ़-श्रावण के महीनों में पड़ता है।२ दिनेशचन्द्र सरकार तक्षशिला नगर का सम्बन्ध पतिक से जोड़ते हैं – पतिकः तक्षशिलायां नगरे [ स्थितः ] (पतिक जो तक्षशिला नगर में स्थित था)। किन्तु डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त तक्षशिला का सम्बन्ध अगले अंश से जोड़ते हैं।३ तक्षशिला ताम्रपत्र : विश्लेषण तक्षशिला ताम्रपत्र से शक शासकों द्वारा बौद्ध धर्म के प्रति निष्ठा का परिचय मिलता है। परन्तु इसका महत्त्व राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से ही विशेष आँका जाता है। इस अभिलेख में जिस महाराज महान् मोग ( Moga ) का उल्लेख है, उसकी पहचान सिक्कों से ज्ञात मोअ ( Maues ) से की जाती है। इन सिक्कों पर खरोष्ठी लेख रजतिरजस महतस मोअस प्राप्त होता है। किन्तु निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि अभिलेख का मोग और सिक्कों का मोअ एक ही है। कोई कारण नहीं है कि एक ही व्यक्ति को एक स्थान पर मोग और दूसरे स्थान पर मोअ लिखा जाय। इसके साथ-साथ अभिलेख में वर्णित सम्वत् के सम्बन्ध में भी प्रश्न उठता है। यह संवत् मोग का अपना है अथवा कनिष्क सम्वत् की तरह पहले से चला आता हुआ संवत् है और मोग के शासन- काल में उक्त संवत्सर में अभिलेख के अंकित होने मात्र का द्योतक है। इन दोनों ही बातें अभी तक अनुत्तरित हैं। इस अभिलेख का सम्बन्ध मुख्य रूप से लियक कुसुल और पतिक नामक दो व्यक्तियों से है। इस अभिलेख में लियक कुसुल को क्षहरात और क्षत्रप कहा गया है और पतिक को केवल महादानपति कहा गया है। इससे प्रकट होता है कि इस अभिलेख के अंकन के समय वह कोई शासनिक अधिकारी नहीं था। क्षहरात शकों के किसी शाखा, वंश अथवा कुल का नाम था। पश्चिमी शक क्षत्रप भूमक और नहपान ने अपने सिक्कों पर अपने को क्षहरात कहा है। वंश के रूप में क्षहरात का उल्लेख सातवाहन-नरेश पुलुमावि के नासिक अभिलेख में भी हुआ है। कुछ विद्वानों की धारणा है कि जिस कुसुलक और पतिक का उल्लेख मथुरा सिंह-स्तम्भशीर्ष-अभिलेख में हुआ है, उन्हीं का उल्लेख इस अभिलेख में भी है। कुछ लोग कुसुलक को वंश अथवा कुल का नाम अनुमान करते हैं। उनके अनुसार इस लेख के पतिक के पिता का नाम लियक था। मथुरा सिंह-स्तम्भशीर्ष-अभिलेख में पिता का नाम नहीं है । वहाँ केवल ‘कुसुल’ का उल्लेख है जो सन्दर्भ के अनुसार वंश-बोधक की अपेक्षा व्यक्तिवाचक है। यदि इसे वंश-बोधक स्वीकार करें तब भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वह लियक का ही पुत्र था। लियक कुजूल की पहचान लोग कुछ सिक्कों पर अंकित लियक कुजूल ( Liako Kozoylo ) से करते हैं। ये सिक्के यवन यूक्रितिद के सिक्कों के अनुकरण पर बने जान पड़ते हैं। परन्तु इस आधार पर लियक का समय निर्धारित नहीं किया जा सका। लियक कुसुलक के सम्बन्ध में इतनी सूचना और उपलब्ध है कि वह चुख्स का शासक था। चुख्स की पहचान के लिए बुह्लर ने संस्कृत शब्द चोस्क की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। त्रिकाण्डशेष नामक कोष के अनुसार घोड़ों को चोस्क कहते थे। जिस प्रकार सिन्धु के घोड़ों को सैन्धव कहते हैं उसी प्रकार चोस्क का प्रयोग भी सिन्धु नदी के तटवर्ती प्रदेश से आनेवाले घोड़ों के लिए किया गया हो तो आश्चर्य की बात नहीं। अतः इस आधार पर बुह्लर क्षत्रप लियक कुसुलक को सिन्धु तक विस्तृत पूर्वी पंजाब का शासक अनुमान करते हैं। आरेल

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बाजौर अस्थि-मंजूषा अभिलेख

भूमिका बाजौर अस्थि-मंजूषा अभिलेख बाजौर क्षेत्र से प्राप्त हुई है। यह अभिलेख सेलखड़ी (steatite) की बनी एक अस्थि-मंजूषा पर अंकित है। अब यह एक निजी संग्रह में है। इस पर खरोष्ठी लिपि में उत्तर-पश्चिमी भारतीय प्राकृत भाषा में यह अभिलेख अंकित है। इसका पाठ पहले सर हेराल्ड बेली ने प्रस्तुत किया था बाद में उसे ऐतिहासिक विवेचन के साथ ब्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी ने प्रकाशित किया। बाजौर अस्थि-मंजूषा अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- बाजौर अस्थि-मंजूषा अभिलेख स्थान :- बाजौर, पाकिस्तान भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- मौर्योत्तरकाल लगभग प्रथम / द्वितीय शताब्दी ई०पू० विषय :- बौद्ध धर्म से सम्बंधित मूलपाठ १. इमे च शरिर मुर्यक-लिखते थुबुते किड-पडिबरिय अवियिए, अतेथि-भजिभमि प्रतिथवणभि प्रतिथविस २. वसिय पंचविसो ३. संवत्सरये चेशठिये २० [+] २०[+] २०[+] ३ महरयस अवस अतिदस कर्तिकस मसस दिवसये षोडसे इमेणं चेथिके क्षणे इत्र (अथवा द्र) वर्मे कुमार अप्रच-राज-पुत्रे ४. इमे भगवतो शकमुणिस शरिर प्रतिथवेति थियये गभिरये अप्रथित-वित-प्रवे पतेशे बुमुपुज प्रसवति सथ मदुण रुखणक अज पुत्रिये अपचराज-भर्यये ५. सध मडलेण रमकेण सध मडलणी एदषकये सध स्पसदरेहि वस-वदतये महपिद एणकये चधिनि एयउतरये ६. पिदु अ पुयये विष्णुवर्मस अवच-रयस ७. भुद वग स्त्रतग पुयइते विजय मिरोय अवचराय-मदुक सभयेदत पुयि [त]। हिन्दी अनुवाद और मुर्यक-लयण (गुहा) विहार [में] जो स्तूप बना था और [ उस स्तूप ] के ऊँचे मध्य भाग में जो यह अस्थि-अवशेष (relics) स्थापित [था] भगवत् शाक्यमुनि के उस अवशेष को वर्ष २५ [ और ] महाराज अय (अतीत) के ६३वें वर्ष के कार्तिक मास के १६वें दिन, इस शुभ घड़ी में अप्रचराज के पुत्र कुमार इत्रवर्मन ने प्रतिष्ठापित किया । [ इस प्रकार उसने ] उस क्षेत्र में [ जहाँ अवशेष रखा गया था ] स्थायी और गहरा तड़ाग (Cistern) बनाया। पुण्यलाभ के लिए अपने मामा रमक, मामी एडषक, बहन [और] पत्नी वासवदत्ता के साथ, अपने पूज्य (अणिक), पितामह चघिन और [अपने] पूज्य पिता अप्रचराज के भाई वग और स्त्रतक विष्णुवर्मा और अप्रचराज की माता, इन सबके पुण्य के लिए [भी]। टिप्पणी पुण्यलाभ के लिए किसी स्तूप में, एक दूसरे स्तूप से लाकर अस्थि-मंजूषा प्रतिष्ठित करने की सामान्य घोषणा इस अभिलेख द्वारा की गयी है। किन्तु इतिहास की दृष्टि से कुछ बातें विशेष रूप से विचारणीय हैं। पहली बात, तो यह है कि इस अभिलेख में संवत्सर के प्रसंग में महाराज अय का उल्लेख हुआ है। इस अभिलेख के प्रकाश में आने से पहले दो अन्य अभिलेख मिल चुके थे जिसमें संवत्सर के साथ अय का नाम जुड़ा हुआ था। एक तो कलवान से मिला था जिसमें संवत्सरये १३४ अजस श्रवणमासस दिवसे चेविथे का उल्लेख हैं। दूसरा अभिलेख तक्षशिला से प्राप्त एक मंजूषा के भीतर रखे रजत-पत्र पर अंकित है। इसमें सं० १३६ अयस अषड़समसस दिवसे १० लिखा है। दूसरी बात, इन दोनों अभिलेखों में अयस के व्यक्तिवाचक नाम होने के प्रति सन्देह प्रकट किया जाता रहा है। अतः इस अभिलेख के प्रकाश में आने से यह स्पष्ट हो गया कि अय नामक शासक के राज्यगणना से संवत्सर का प्रचलन हुआ था। अफगानिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तानवाले भू-भाग में अय नाम के दो शक-पह्लव शासक हुए थे, इसका ज्ञान सिक्कों के माध्यम से होता है। अतः स्वाभाविक जिज्ञासा हो सकती है कि इस संवत्सर की गणना का आरम्भ किस अय के शासन काल में हुई, इसका निराकरण इस अभिलेख में प्रयुक्त अयस के साथ प्रयुक्त विशेषण अतीत से हो जाता है। इस शब्द की दो प्रकार से व्याख्या की जा सकती है। एक तो यह कि इस अभिलेख का अंकन द्वितीय अय के समय में हुआ था और उसको दृष्टिगत रखते हुए पूर्ववर्ती अय के लिए दिवंगत के अर्थ में अतीत का प्रयोग किया गया है। किन्तु इस अभिलेख के द्वितीय अय के शासनकाल का अनुमान किये बिना भी इसका तात्पर्य अय प्रथम से लिया जा सकता है। दो अय के अस्तित्व को जानते हुए दोनों में अन्तर करने के लिए अतीत का प्रयोग पूर्वकालिक के रूप में किया जा सकता है। वास्तविक तात्पर्य जो भी हो इस लेख से इतनी बात स्पष्ट है कि अय (प्रथम) के समय से इस प्रदेश में एक कालगणना प्रचलित हुई थी। अय के इस संवत्सर के उल्लेख से पूर्व वर्ष के रूप में २५ की एक संख्या और दी गयी है। इस संख्या को ब्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी ने द्वितीय अय अथवा अयलिश का शासन वर्ष अनुमान किया है। उन्होंने इस अनुमान के लिए इत्रवर्मा के सिक्कों के चित्त भाग के यवन अभिलेख में, जो प्रायः अपाठ्य है, Azzou = Azou लिखे जाने की बात कही है। इस प्रसंग में ध्यातव्य है कि इत्रवर्मा ने अपने को अप्रचराज का पुत्र और कुमार कहा है; किन्तु अपने पिता का नामोल्लेख नहीं किया है। यही नहीं, उनका उल्लेख पंक्ति ६ में भी किया है और वहाँ विष्णुवर्मा के भाई के रूप में; किन्तु वहाँ भी उसने उनका उल्लेख अप्रचरज के रूप में ही किया है। निश्चय ही यह आश्चर्य की बात है। पर नामोल्लेख का उल्लेख न करना अकारण न होगा, पर उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। इस अभिलेख में इत्रवर्मा ने अपने पिता का नामोल्लेख भले ही न किया हो, पर वह अज्ञात नहीं है। इत्रवर्मा ने अपने कतिपय ताँबे के सिक्कों के खरोष्ठी अभिलेख में विजयमित्रस पुत्रस इत्रवर्मस अप्रचरजस लिखा है। स्पष्ट है कि इत्रवर्मा विजयमित्र का पुत्र था और शिनकोट (बाजौर) से मिले एक अन्य शिनकोट मंजूषा अभिलेख में अप्रचराज विजयमित्र का उल्लेख है। उसने अपने पांचवें राजवर्ष में भगवान् शाक्यमुनि के शरीर (अस्थि) को प्रतिष्ठापित किया था। इस अभिलेख के परिप्रेक्ष्य में सहज ही कहा जा सकता है कि प्रस्तुत अभिलेख में क्रम में ही इसमें उसके पुत्र ने इसके २५वें राजवर्ष का उल्लेख किया है। यह अनुमान ब्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी की अय के राजवर्षवाली कल्पना की अपेक्षा अधिक स्वाभाविक और तर्कसंगत है। इत्रवर्मा ने इस अभिलेख में अप्रचराज की पत्नी अर्थात् अपनी माता रूखणक का उल्लेख अज की पुत्री के रूप किया है। इस अज को ब्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी ने शक-पह्नव नरेश अय (द्वितीय) होने का अनुमान किया है। अय प्रथम और द्वितीय के बीच मात्र अयलिश नामक एक शासक का अन्तराल रहा है। इस कारण अय (प्रथम) के ६३वें वर्ष में अय (द्वितीय) के अस्तित्व की कल्पना करने में कोई कठिनाई नहीं है। अतः उसके इत्रमित्र के मातामह होने का अनुमान किया जा सकता है। पर ब्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी को

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स्वातघाटी अस्थि-मंजूषा अभिलेख

भूमिका स्वातघाटी अस्थि-मंजूषा अभिलेख बौद्ध धर्म से सम्बंधित है। यह स्वातघाटी में स्थित पठानों के किसी गाँव मिली थी। यह अस्थि-मंजूषा सेलखड़ी ( steatite ) की बनी हुई थी जो अब लाहौर संग्रहालय में सुरक्षित बतायी जाती है। इस पर ई०पू० पहली शती के खरोष्ठी लिपि और प्राकृत भाषा में छोटा-सा लेख अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- स्वातघाटी अस्थि-मंजूषा अभिलेख स्थान :- स्वात घाटी भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- प्रथम शताब्दी ई०पू० विषय :- बौद्ध धर्म से सम्बन्धित स्वातघाटी अस्थि-मंजूषा अभिलेख : मूलपाठ थेउदोरेन मेरिदर्खेन प्रतिठविद्र इमे शरिर शकमुणिस भगवतो बहुजण- [ हिति ] ये। हिन्दी अनुवाद थियोदोर मेरिदर्ख ने बहुजन हिताय इसमें भगवान् शाक्यमुनि बुद्ध का शरीर ( अस्थि-अवशेष ) प्रतिष्ठापित किया। टिप्पणी इस अभिलेख से इससे ज्ञात होता है कि मेरिदर्ख थियोदोर नामक किसी यवन ने भगवान् बुद्ध के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट कर उनका अस्थि-अवशेष प्रतिष्ठापित करवाया था। मेरिदर्ख एक यवन उपाधि है और इसका प्रयोग जिलाधिकारी के अर्थ में किया जाता है। अतः अनुमान किया जा सकता है कि थियोदोर स्वात घाटी के आसपास के प्रदेश का प्रशासक रहा होगा। उसका शासन-क्षेत्र काबुल अथवा गन्धार होगा। मेरिदर्ख बौद्ध धर्मावलम्बी था। विदेशी भारतीय धर्म के प्रति आकृष्ट होते रहे हैं, यह अभिलेख इस बात का प्रमाण है। इस प्रकार स्वातघाटी अस्थि-मंजूषा अभिलेख से निम्न बातें ज्ञात होती हैं :- मेरिदर्ख एक यवन विरुद थी जो की जिले स्तर के पदाधिकारी के लिए प्रयुक्त होता था। विदेशी लोग भारतीय धर्म व संस्कृति को अपना रहे थे। इस सन्दर्भ में बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख, शिनकोट मंजूषा अभिलेख आदि का भी विशेषरूप से उल्लेख किया जा सकता है। इसके साथ ही मिनाण्डर, कनिष्क, रुद्रदामन इत्यादि शासकों का भी उल्लेख किया जा सकता है।

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शिनकोट मंजूषा अभिलेख

भूमिका शिनकोट मंजूषा अभिलेख अफगानिस्तान ( वर्तमान पाकिस्तान ) में बहने वाली पंजकोर और स्वात नदियों के संगम से लगभग २० मील ( ≈ ३२ किलोमीटर  ) पश्चिमोत्तर में बाजौर के समीप शिनकोट से मिला है। यह अभिलेख एक शेलखड़ी ( steatite ) की मंजूषा के भीतर, बाहर और उसके ढक्कन पर अंकित है। शिनकोट मंजूषा अभिलेख खरोष्ठी लिपि और प्राकृत भाषा में दो खण्डों में अंकित लेख है। दोनों की लिपि एक सी नहीं है। एक अभिलेख के अक्षर बड़े हैं और उसकी खुदाई गहरी हुई है; दूसरे अभिलेख के अक्षर छोटे हैं और उसकी खुदाई हलकी है। लेखों में अक्षर स्वरूपों में भी यत्र-तत्र भिन्नता परिलक्षित होती है। ये तथ्य इस बात के द्योतक हैं कि दोनों लेख एक समय अंकित नहीं किये गये थे। एन० जी० मजूमदार ने, जिन्होंने इस लेख को सर्वप्रथम प्रकाशित किया था, लिपि भेद के आधार पर दोनों अभिलेखों के बीच पचास वर्ष का अन्तर अनुमानित किया है। उनके मतानुसार पहला लेख ई० पू० पहली शती का है। शिनकोट मंजूषा अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- शिनकोट मंजूषा अभिलेख ( Shinkot Casket Inscription ), शिनकोट ( बाजौर ) शेलखड़ी अस्थिमंजूषा अभिलेख [ Sinkot ( Bajaur ) Steatite Casket Inscription ] स्थान :- शिनकोट, बाजौर, उत्तर-पश्चिम फ्रंटियर ( N.F. Frontier ); पाकिस्तान भाषा :- प्राकृत लिपि :- खरोष्ठी समय :- लगभग ११५ से ९० ई०पू० ( मिनाण्डरकालीन ) विषय :- मिनेंद्र के मित्र वियकमित्र के वंशज विजयमित्र द्वारा भगवान बुद्ध के धातु अवशेष की प्रतिष्ठा, पश्चिमोत्तर भारत में यूनानी राज्य की स्थापना और उनके बौद्ध धर्म मानने से भारतीयकरण की प्रक्रिया की जानकारी। शिनकोट मंजूषा अभिलेख : मूलपाठ खण्ड – १ (क) .….. मिनेद्रस महरजस कटिअस दिवस ४ [ + ]  ४ [ + ]  ४ [ + ] १  [ + ] १  प्र [ ण ] — [ स ] मे [ दि ]……१ (ख) ……[ प्रति ] [ थवि ] त  [ । ]२ (ग) प्रण-समे [ द ] [ शरिर ] [ भगव ] [ तो ] शकमुनिस [ । ]३ (घ) वियकमित्रस अप्रचरजस [ । ]४ ढक्कन के किनारे पर अंकित।१ ढक्कन के बीच में अंकित।२ ढक्कन के भीतरी भाग में अंकित।३ मंजूषा के भीतर अंकित इसे स्टेन कोनो रख के पंक्ति २ के अन्तिम दो शब्दों-पञ्चवित्रये और इयो के बीच रखते और पढ़ते हैं।४ खण्ड – २ (क) १. विजय [ मित्रे ] ण २. पते प्रदिथविदे [ । ]५ (ख) १. इमे शरिर पलुगभुद्रओं न सकरे अत्रित [ । ] स शरिअत्रि कलद्रे नो शघ्रों न पिंडोयकेयि पित्रि ग्रिणयत्रि [ । ] २. तस ये पत्रे अपोमुअ६ वषये पंचमये ४ [ + ] १ वेश्रखस मसस दिवस पंचविश्रए इयो ३. प्रत्रिथवित्रे विजयमित्रेन अप्रचरजेन भग्रवतु शकिमुणिस समसंबुधस शरिर [ । ]७ (ग) विश्पिलेन अणंकतेन लिखित्रे [ । ]८ ढक्कन के बीच में अंकित।५ अभिलेख में अपोमुअ शब्द का प्रयोग वर्ष के पूर्व हुआ है। यह वर्ष का विशेषण होना चाहिए, जो व्यक्तिबोधक संज्ञा या सर्वनाम होगा । हमने इसे सर्वनाम के रूप में ‘अपने’ अर्थ में ग्रहण किया है।६ मंजूषा के भीतर अङ्कित।७ मंजूषा के पीछे अङ्कित।८ संस्कृत छाया [खण्ड-१] (क) संवत्सरे … मीनेन्द्रस्य महाराजस्य कार्तिकस्य [ मासस्य ] दिवसे १४ प्राण-समेतं शरीरं (ख) [ भगवतः शाक्यमुनेः। ]प्रतिष्ठापितम्। (ग) प्राणसमेतं शरीरं भगवतः शाक्यमुनेः। (घ) वीर्यकमित्रस्य अप्रत्यग्राजस्य [खण्ड-२] (क-१) विजयमित्रेण … (क-२) पात्र प्रतिष्ठापितम्।  (ख-१) इदं शरीरं प्रारूगण भूतकं न सत्कारैः आदृतम्। तत् शीर्यते कालतः, न श्रद्धालुः न च पिण्डोदकानि पितृन् ग्राह्यति। (ख-२) तस्य एतत पात्रं ५ वैशाखस्य मासस्य दिवसे २५ इह (ख-३)प्रतिष्ठापितं विजयमित्रेन। अप्रत्यग्रोजन, भगवतः शाक्यमुनेः सम्यक संबुद्धस्य नवं शवीरं अस्मिन पात्रे प्रतिष्ठापितम्। (ग) आज्ञाकारिणा विष्पिलेन लिखितम्॥ हिन्दी अनुवाद खण्ड – १ (क) [ संवत्सर ]……….. मिनेन्द्र महाराज के कार्तिक [ मास ] के दिवस १४ को प्राण समेत (ख) [ भगवान् शाक्य मुनि का ] प्राण समेत [ शरीर ] प्रतिष्ठापित किया। (ग) प्राण समेत शरीर ( देहावशेष ) भगवत शाक्य मुनि का (घ) अप्रचराज वीर्यकमित्र का। खण्ड – २ (क) विजयमित्र……ने पात्र प्रतिष्ठापित किया। (ख१) यह शरीर ( अस्थिपात्र ) प्ररुग्णभूत ( खण्डित ) होने [ के कारण ] सत्कार और आदर [ के योग्य ] नहीं [ रह गया था ]। उस काल में कोई [ व्यक्ति ऐसा भी न था ] जो श्रद्धालु हो और पित्रगणों को पिण्ड और उदक दे सके। तब उस पात्र को अपने ५वें वर्ष के वैशाख मास के २५वें दिवस को अप्रचराज विजयमित्र ने भगवान् शाक्यमुनि के सम्यक् सम्बुद्ध शरीर को प्रतिष्ठापित किया और इस पात्र में स्थापित किया। (ग) आज्ञाकारी विश्पिलेन ने इसे लिखा। शिनकोट मंजूषा अभिलेख : महत्त्व राजनीतिक दृष्टि से इस अभिनेख का विशेष महत्त्व है। यह मिनाण्डर नामक यूनानी शासक का एकमात्र उपलब्ध अभिलेख है। इससे विदित होता है :- मिनाण्डर का अधिकार पश्चिमी सीमा पर स्वातघाटी में बाजौर के क़बायली भूभागों पर था। मिलिंदपण्हों के अनुसार मिनाण्डर की राजधानी स्यालकोट थी। मिनाण्डर की मृत्यु के बाद इस क्षेत्र का शासन उसके सामन्तों के अधिकार में आ गयी। विजयमित्र की पहचान इसके पुत्र इन्दुवर्मा के सिक्कों पर अंकित इस नाम से की गई है। सम्भवतः दोनों ही उसके सामन्त थे जो बुद्ध के अस्थि अवशेषों को एक पेटिका में सुरक्षित कर उस पर लेख लिखवाये थे। शिनकोट मंजूषा अभिलेख और मिलिंदपण्हों मिनाण्डर को बौद्ध धर्मानुयायी बताता है। यहाँ उल्लिखित ‘अप्रचरज’ एक सामन्त उपाधि होगी। धार्मिक दृष्टि से भी इसकी महत्ता है :- इसमें बुद्ध का उल्लेख है तथा इससे बौद्ध धर्म के प्रचार का ज्ञान मिलता है। विदेशियों में भी इस धर्म का प्रचार था तभी यूनानी शासक मिलिन्द भी बौद्ध धर्मानुयायी हो गया था। यहाँ उल्लिखित है कि ब्राह्मणों की भाँति बौद्ध भी अपने पितरों का श्राद्धकर्म करते थे। ‘शघ्रों न पिंडोयकेयि पित्रि ग्रिणयत्रि’ स्पष्ट है कि बौद्धों की जीवन विधि पर हिन्दु का प्रभाव पड़ने लगा था। शिनकोट मंजूषा अभिलेख : विश्लेषण यवन नरेश मिनेन्द्र अर्थात् मिनाण्डर ( Menander ) का उल्लेख करनेवाला अब तक ज्ञात यह एकमात्र अभिलेख है। इस अभिलेख के प्रथम अंश से यह प्रकट होता है कि उसके शासनकाल में भगवान् बुद्ध के अस्थि-अवशेष को मंजूषा में रखकर प्रतिष्ठित किया गया था। स्टेन कोनो का विचार है कि इसे स्वयं मिनेन्द्र ( मिनाण्डर ) ने प्रतिष्ठापित कराया था और शासन-काल उसके एक शताब्दी पश्चात् वियकमित्र ( विजयमित्र ) ने

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गुण्टूपल्ली अभिलेख

भूमिका गुण्टूपल्ली अभिलेख आंध्र प्रदेश में पश्चिमी गोदावरी जनपद ( एलुरू ) के गुण्टूपल्ली नामक ग्राम में स्थित एक प्राचीन ध्वस्त मण्डप के चार स्तम्भों पर समान रूप से अंकित प्राप्त हुआ है। ब्राह्मी लिपि का यह अभिलेख एक स्तम्भ पर पाँच और शेष तीन पर छह पंक्तियों में उत्कीर्ण है। गुण्टूपल्ली अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- गुण्टूपल्ली अभिलेख ( Guntupalli Inscription ) स्थान :- पश्चिमी गोदावरी जिला ( एलुरू ), आंघ्र प्रदेश भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- मौर्योत्तर काल विषय :- मण्डप दान के सम्बन्ध में गुण्टूपल्ली अभिलेख : मूलपाठ १. महाराजस कलिगाधिपतिस २. महिसकाधिपतिस म- ३. हामेखवाहनस- ४. सिरि सदस-लेख- ५. कस चुलगोमस मंड- ६. पो दानं [ । ] हिन्दी अनुवाद कलिंगाधिपति माहिषकाधिपति महामेख ( घ ) वाहन वंश के महासद के लेखक चुलगोम का मण्डप दान। गुण्टूपल्ली अभिलेख : विश्लेषण अपने सामान्य रूप में गुंटूपल्ली अभिलेख एक दान की घोषणा करता है। यह दान सम्भवतः उसी मण्डप का था जिसके स्तम्भों पर यह उत्कीर्ण पाया गया है। इस अभिलेख में प्रयुक्त ‘महाराज कलिंगाधिपति महामेघवाहन’ विरुदों का प्रयोग बहुचर्चित हाथीगुम्फा अभिलेख में खारवेल के लिए हुआ है। इस अभिलेख में वर्णित खारवेल के अभियानों के परिप्रेक्ष्य में लेख के ‘सिरि-सदस लेखक’ का अनुवाद सन्देश लेखक किया गया है और अनुमान प्रकट किया है कि इस अभिलेख में भी ‘महाराज कलिंगाधिपति महामेघवाहन’ का तात्पर्य खारवेल से है। वस्तुत: यह अभिलेख खारवेल का न होकर श्रीसद नामक शासक के काल का है। इस तथ्य की ओर हमारा ध्यान उस समय गया जब आन्ध्र प्रदेश के गुण्टूर जिले में स्थित अमरावती के निकट वड्डमानु नामक ग्राम में स्थित पुरावशेष के उत्खनन से ‘सद’ नामान्त अनेक शासकों के सिक्के प्रकाश में आये। श्रीसद इसी वंश का आदि पुरुष रहा होगा । इस अभिलेख में इसे महामेघवाहन कहा गया है। इससे यह ध्वनित होता है कि श्रीसद का निकट सम्बन्ध हाथीगुम्फा अभिलेख में उल्लिखित खारवेल से था। यह सदवंश उसी से सम्बन्धित था यह बात एक अन्य अभिलेख से भी ज्ञात होता है। जो एक अन्य सदवंशी शासक का है और निकटवर्ती क्षेत्र बेल्लूपुर से प्राप्त हुआ है। इसमें उसे ऐरवंशी ( ऐरण ) कहा गया है और हाथीगुम्फा अभिलेख में खारवेल को भी ऐरण महाराज बताया गया है। गुण्टूपल्ली अभिलेख में श्रीसद को कलिंगाधिपति और महिषकाधिपति कहा गया है। कलिंग की पहचान में कोई कठिनाई नहीं है। उड़ीसा के समुद्रतटवर्ती क्षेत्र को कलिंग कहा जाता है। खारवेल वहाँ का शासक था। अतः यह प्रदेश श्रीसद को खारवेल के बाद ही किसी समय प्राप्त हुआ होगा; किन्तु कलिंगवाले प्रदेश से अब तक ऐसा प्रमाण नहीं प्राप्त हुआ है जिससे इसके इस कथन की पुष्टि हो सके। फिरभी, कलिंग के इतिहास की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सूचना है। दूसरे विरुद ‘महिषकाधिपति’ से ज्ञात होता है कि श्रीसद कलिंग के अतिरिक्त महिषक का भी शासक था। माहिषक का उल्लेख वायुपुराण में महाराष्ट्र और कलिंग के साथ दक्षिणी जनपद के रूप में हुआ है। रामायण में उसे विदर्भ और ऋषिक के साथ दक्षिण देश बताया गया है। महाभारत में माहिषक के अनेक उल्लेख हैं। भीष्मपर्व में उसका उल्लेख द्रविड़ और केरल के साथ दक्षिण देश के रूप में हुआ है। कर्ण और अनुशासनपर्व के उल्लेखों में वह कलिंग और द्रविड़ के साथ जुड़ा हुआ है। अश्वमेघपर्व में अर्जुन द्वारा द्रविड़ और आन्ध्र के साथ माहिषक के पराजित करने की चर्चा है। इन उल्लेखों से ज्ञात होता है कि माहिषक कलिंग, द्रविड़ और महाराष्ट्र से संवृत प्रदेश था। इस प्रकार हम उसे आन्ध्र प्रदेश में गोदावरी घाटी में स्थित उस भू-भाग का अनुमान कर सकते हैं जहाँ से सद वंश के सिक्के और अभिलेख प्राप्त हुए हैं। दूसरे शब्दों में कृष्णा, गुण्टूर और पश्चिमी गोदावरी के संयुक्त भू-भाग को प्राचीन काल में माहिषक कहते रहे होंगे। इस अभिलेख को प्रकाशित करते हुए आर० सुब्रह्मण्यम् ने काशीप्रसाद जायसवाल के इस कथन की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि पृथुण्ड, पृथु-अण्ड है और यह नाम कदाचित नगर की बनावट के कारण पड़ा था। साथ ही उन्होंने यह भी बताया है कि संस्कृत पिथु-अण्ड का तमिल समानार्थी शब्द गुड्डूपल्ली है और यह गुड्डूपल्ली ही गुण्टूपल्ली बन गया जान पड़ता है। इस प्रकार वे गुण्टूपल्ली की पहचान हाथीगुम्फा में उल्लिखित पिथुण्ड से करते हैं। यदि गुण्पल्ली ही पिथुण्ड है तो इस लेख का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। इस पहचान के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सातकर्णि का असिक ( या मूषिक ) नगर, जो कलिंग से पश्चिम था, निश्चय ही गुण्टूपल्ली के उत्तर में रहा होगा, उसे वहीं खोजना चाहिए। जिस मण्डप के स्तम्भों पर यह अभिलेख अंकित है, उसके दाता चुलगोम ने अपने को श्रीसद का लेखक बताया है। यह प्रशासन सम्बन्धी एक नयी सूचना ज्ञात होती है। जिस प्रकार मुगल शासनकाल में राज्य की ओर से प्रमुख नगरों में अखबार-नवीस नियुक्त किये जाते थे, जो वहाँ की घटनाओं और गतिविधियों की सूचना नियमित रूप से पादशाह के पास भेजते थे, उसी प्रकार की व्यवस्था सम्भवतः प्राचीन काल में भी रही होगी। राज्य की ओर से प्रमुख स्थानों पर लेखक रहा करते होंगे। हाथीगुम्फा अभिलेख

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हाथीगुम्फा अभिलेख

भूमिका हाथीगुम्फा अभिलेख उड़ीसा में भुवनेश्वर के निकट खोर्धा जनपद में उदयगिरि पर्वतमाला में अंकित है। उदयगिरि और उससे पास ही खण्डगिरि में मौर्योत्तरकाल में कलिंग नरेश खारवेल ने जैन यतियों ( मुनियों ) के लिए गुफाएँ बनवायीं थीं। उदयगिरि में १९ गुफाएँ और खण्डगिरि में १६ गुफाएँ हैं। उदयगिरि के १९ गुफाओं में से हाथीगुम्फा नामक भी एक है। इसी हाथीगुम्फा के ऊपरी भाग में पाली से मिलती-जुलती प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में यह लेख उत्कीर्ण है। हाथीगुम्फा अभिलेख काल के सम्बन्ध में बहुत मतभेद है। फिरभी लिपिशास्त्र के आधार पर इसका समय प्रथम शताब्दी ई०पू० माना गया है। इसके रचयिता का नाम भी नहीं दिया गया है। सर्वप्रथम १८२५ ई० में हाथीगुम्फा शिलालेख की खोज बिशप स्टर्लिंग ने की। जेम्स प्रिंसेप ने इसका उद्वाचन किया परन्तु वह अशुद्ध था। सन् १८८० ई० में राजेन्द्र लाल मित्र ने इस शिलालेख का पाठ करके प्रकाशित किया परन्तु वह भी अपूर्ण रहा। सन् १८७७ ई० में जनरल कनिंघम और १८८५ ई० में भगवान लाल इन्द्र द्वारा इस अभिलेख का शुद्ध पाठ प्रस्तुत किया गया जिसमें शासक का नाम ‘खारवेल’ शुद्ध रूप पढ़ा गया। पहली बार सन् १९१७ ई० में डॉ० के० पी० जायसवाल ने इस अभिलेख का छायाचित्र ‘जर्नल ऑफ बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी’ में प्रकाशित करवाया। तदुपरान्त आर० डी० बनर्जी, ब्यूलर, फ्लीट, टामस, बी० एम० बरुआ, स्टेनकोनो, डी० सी० सरकार, शशिकांत आदि अनेक विद्वानों ने इस अभिलेख पर शोधपूर्ण कार्य किये। हाथीगुम्फा अभिलेख एक प्रशस्ति के रूप में है। इस अभिलेख का मुख्य उद्देश्य खारवेल के जीवन और उपलब्धियों को सुरक्षित रखना है। हाथीगुम्फा अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- हाथीगुम्फा अभिलेख ( शिलालेख ) या खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख ( Hathigumpha Inscription of Kharvel ) स्थान :- उदयगिरि पहाड़ी, खोर्धा जनपद ( Khordha District ), भुवनेश्वर के समीप, ओडिशा राज्य भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- लगभग पहली शताब्दी ई०पू० का उत्तरार्ध ( मौर्योत्तरकाल ) विषय :- कलिंग नरेश खारवेल का इतिहास हाथीगुम्फा अभिलेख : प्रमुख तथ्य  यह खारवेल के १३ वर्षीय शासन का क्रमिक विवरण प्रस्तुत करता है।  नंदराजा द्वारा नहर ( तनसुलि ) बनवाने का प्राचीनतम् उल्लेख करता है। अर्थात् नहर के सम्बन्ध में जानकारी देने वाला पहला अभिलेखीय साक्ष्य है। यद्यपि गुजरात में निर्मित सुदर्शन झील व नहर इतिहास में सबसे अधिक प्रसिद्ध है क्योंकि इसको चन्द्रगुप्त मौर्य ने बनवाया, अशोक, रुद्रदामन व स्कंदगुप्त ने जीर्णोद्धार कराया था। जिन प्रतिमा का प्रचीनतम् उल्लेख मिलता है। अर्थात् जैन धर्म में मूर्ति पूजा का प्राचीनतम अभिलेखीय साक्ष्य है। भारतवर्ष शब्द का सर्वप्रथम किसी अभिलेख में प्रयोग किया गया है। हाथीगुम्फा अभिलेख : मूलपाठ १. नमो अरहंतानं [ । ] नमो सव-सिधानं [ ॥ ] ऐरेण महाराजेन महामेघवाहनेन चेति-राजवंस-वधनेन पसथ-सुभ-लखनेन चतुरंतलुठ- [ ण ]-गुण-उपितेन कलिंगाधिपतिना सिरि-खारवेलेन २. [ पं ] दरस-वसानि सीरि- [ कडार ] -सरीर वता कीडिता कुमार-कीडिका [ । ] ततो लेख-रूप-गणना-ववहार-विधि-विसारदेन सव विजावदा तेन नव-वसानि योवरज [ प ] सासितं [ । ] संपुणचतुवीसति-वसो तदानि वधमासेसयो-वेनाभिविजयो ततिये ३. कलिंग-राज-वंसे-पुरिस-युगे महाराजाभिसेचनं पापुनाति [ ॥ ] अभिसितमतो च पधमे वसे वात-विहत-गोपुर-पाकार-निवेसनं पटिसंख्यारयति कलिंगनगरि-खिबी [ रं ] [ । ] सितल-तडाग-पाडियों च बंधापयति सवूयान-प [ टि ] संथपनं च ४. कारयति पनतिसाहि-सत सहसेहि पकतियों च रंजयति [ ॥ ] दुतिये च वसे अचितयिता सातकंनि पछिम दिसं हयं-गज-नर-रध बहुलं दंडंपठापयति [ । ] कन्हबेंणां-गताय च सेनाय वितासिति असिकनगर१ [ ॥ ] ततिये पुन वसे ५. गंधव-वेद-बुधो दप-नत-गीत-वादित-संदसनाहि उसव-समाज-कारापनाहि च कीडापयति नगरिं [ ॥ ] तथा चवथे वसे विजा-धराधिवासं अहत-पुवं कलिंग पुव-राज- [ निवेसित ] …… वितधम [ कु ] ट [ सविधिते ] च निखत-छत- ६. भिंगारे [ हि ] त-रतन-सपतेये सव-रठिक-भोजकेपादे वंदापयति [ ॥ ] पंचमे च दानी वसे नंदराज-ति-वस-सतो [ घा ] टितं तनसुलिय-वाटा-पणाडिं नगरं पवेस [ य ] ति सो …… [ । ] [ अ ] भिसितो च [ छठे वसे ] राजसेय२ संदंसयंतो सवकर-वण- ७. अनुगह-अनेकानि सत-सहसानि विसजति पोर जानपदं [ ॥ ] सतमं व वसे [ पसा ] सतो वजिरघर [ वति धुसित धरिनी३ [ । ] सा मतुक पदं पुंनो [ दया तपापुनाति ] [ ॥ ] अठमे च वसे महता-सेन [ । ] य [ अपतिहत-भिति ] गोरधगिरिं ८. घाता पयिता राजगहं उपपीडपयति [ । ] एतिनं च कंमपदान संनादेन [ संवित ] सेन-वाहने विपमुचितु मधुरं अपयातो यवनरा [ ज ] [ विमिक ]४ …….. यछति………. पलव [ भार ] ९. कपरुखे हय -गज-रथ-यह यति सव-घरावासो [ पूजित-ठूप-पूजाय ]५ सव-गहणं च कारयितुं बम्हाणानं ज [ य ] -परिहार ददाति [ ॥ ] अरहत च- [ पूजति। नवमे च वसे सुविजय ] १०. [ ते उभय प्राचीतटे ]६ राज-निवासं महाविजय-पासादं कारयति अठतिसाय सत-सतसेहि [ ॥ ] दसमे च वसे दंड-संधी-सा [ ममयो ] भरध वस-पठानं मही जयनं ( ? ) …… कारापयति [ ॥ ] [ एकादसमे च वसे ] …… प [ । ] या-तानं च म [ नि ] -रतनानि उपलभते [ । ] ११. [ दखिन दिसं ]७ [ मंद ] च अव८ राज निवेसितं पीथुण्डं गदभनंगलेन कासयति [ । ] जन- [ प ] द भावनं च तेरस-बस-सत-कतं भिंदति तमिर-दह-संघातं [ । ] बारसमे च वसे …… [ सह ] सेहि वितासयति उतरापथ-राजानो …… १२. म [ । ] गधानं च विपुलं भयं जनेतो हथसं गंगाय९ पाययति [ । ] म- [ ग ] धं च राजानं बहसतिमितं पादे वंदापयति [ । ] नंदराज-नीतं चका [ लिं ] ग-जिनं संनिवेस१० [ पूजयति। कोसात ] [ गह ] रतन-पडीहारेहि अंग-मगध वसुं च नयति [ ॥ ] १३. …..[ के ] तुं जठर [ लखिल-गोपु ] राणि-सिहराणि निवेसयति सत-विसिकनं [ प ] रिहारेहि [ । ] अमुतमछरियं च हथि-नाव-नीतं परिहरति…… हय हथि-रतन [ मानिक ] पंडराजा [ चेरानि अनेकानि मुत-मनि-रतनानि आहारापयति इध सत [ सहसानि ] १४. ……११  सिनो वसीकारोति [ । ] तेरसमे च वसे सुपवत-विजयचके कुमारीपवते अरहते पखिन सं [ सि ] तेहि काय-निसीदियाय यापुजावकेहि राजभितिना चिन-वतानि वासा- [ सि ] तानि पूजानुरत उवासग-खारवेल-सिरिना जीवदेह- [ सिरिका ] परिखाता [ ॥ ] १५. [ निमतितेन राजा सिरि-खारवेलेन ]१२ सुकत समण सुविहितानं च सवदिसानं ञ [ नि ] नं तपसि-इ [ सि ] न संघियनं अरहतनिसीदिया-समीपे पाभारे वराकार-समुथापिताहि अनेक-योजना-हिताहि [ पनतिसत सहसेहि ] सिलाहि [ सिपिपथभा-निवध-सयनासनां वा ]१३ १६. …… [ पटलके ] चतारे च वेडुरिय-गभे थंमें पतिठापयति [ । ] पानतरोय-सत-सहसेहि मु [ खि

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धनदेव का अयोध्या अभिलेख

भूमिका अयोध्या से पुष्यमित्र शुंग के राज्यपाल धनदेव का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है। इससे पुष्यमित्र द्वारा अश्वमेध यज्ञ किये जाने की जानकारी मिलती है। अयोध्या अभिलेख : संक्षिप्त विवरण नाम – धनदेव का अयोध्या प्रस्तर अभिलेख ( Ayodhya Stone Inscription of Dhandeva ) स्थान – अयोध्या जनपद उत्तर प्रदेश। भाषा – संस्कृत ( अशुद्ध प्राकृत प्रभावित )। लिपि – ब्राह्मी। समय – पुष्यमित्र शुंग का शासनकाल ( द्वितीय शताब्दी ई०पू० ) विषय – पिता फल्गुदेय की मृत्यु पर पुत्र धनदेव द्वारा स्मारक की स्थापना। जिससे पुष्यमित्र के अश्वमेध की जानकारी मिलती है। मूल पाठ १ – कोलाधिपेन द्विरश्वजिनः सेनापतेः१ पुष्यमित्रस्य पष्ठेन२ कोशिकीपुत्रेण धन [ देवेन ]३ २ – धर्मराज्ञा४ पितुः फल्गुदेवस्य केतन५ कारित [ ॥ ] पुष्यमित्र के अश्वमेध यज्ञ का विवरण पतंजलि कृति महाभाष्य और कालिदास कृति मालिविकाग्निमित्र में भी हुआ है परन्तु यहाँ पर भी इसकी उपाधि ‘सेनापति’ ही मिलती है। यह परम्परा हम मध्यकाल में पेशवाओं के सम्बन्ध में देखते है। सिंहासन प्राप्त कर लेने के बाद भी वे पेशवा की उपाधि धारण करते रहे।१ इसका अभिप्राय है मातृपक्ष से पुष्यमित्र से छठे पीढ़ी में न कि पुष्यमित्र का छठा भाई। संस्कृत में इसके लिए ‘पुष्यमित्रित्’ का प्रयोग होना चाहिए परन्तु यह प्रयोग ‘पुष्यमित्रस्य’ पालि प्रभाव के कारण है।२ इसका पाठ कर सकते हैं — धनदेवन, धनदेन, धनकेन, धननन्दिना, धनभूतिना, धनमित्रेण, धनदत्तेन, धनदासेन इत्यादि। पिता नाम फलादेश होने से किन्तु पाठ ठीक प्रतीत होता है। धनदेवेन अयोध्या का स्थानीय शासक लगता है।३ पाठ – धर्मराजेन४ एक भवन या स्तम्भ ध्वज-स्तम्भ में फल्गुदेव की स्मृति में उसकी समाधि भूमि पर बना हुआ।५ हिन्दी रूपान्तरण १ – कोशल के राजा दो अश्वमेध यज्ञ करने वाले सेनापति पुष्यमित्र के छठे कोशिकी के पुत्र धनदेव द्वारा २ – धर्मराज पिता फल्गुदेव का निकेतन बनवाया गया। ऐतिहासिक महत्त्व अयोध्या अभिलेख जनपद ( उ० प्र० ) के अयोध्या से फैजाबाद जाने वाली सड़क पर अयोध्या से लगभग एक मील दूर बने रानोपाली भवन में बाबा सन्तबख्श की समाधि के पूर्वी द्वार के चौखट ललाट ( सिरदल ) से मिला है। ऐसा प्रतीत होता है कि अयोध्या अभिलेख यहीं उत्कीर्ण कराया हुआ मिट्टी में दबा होगा जिसे शिलापट्ट का प्रयोग पीछे अनजाने में इस चौखट में किया गया होगा। इसका उद्धार किसी इतिहास की दृष्टि पड़ने पर हुआ होगा। परन्तु अयोध्या अभिलेख कोशल के राजा धन ( देव ? ) द्वारा खुदवाया गया है जो पुष्यमित्र की पीढ़ी का है। इसमें ‘धन’ के बाद का भाग टूटा है पर इसके पिता का नाम यहाँ है। अतः उसके पुत्र का नाम धनदेव ही रहा होगा। इस नामधारी राजा के सिक्के अयोध्या से प्राप्त हुए हैं और बनारस के राजपाट की खुदायी से इस नाम के राजा की मुहरे भी मिली है। अब यह कल्पना कि धनमित्र, धनदत्त, धनदास अयोध्या के शासक थे के स्थान पर धनदेव नाम ही प्रामाणिक प्रतीत होता है। शुंग वंश के इतिहास में अयोध्या अभिलेख का विशेष महत्व है क्योंकि यही एकमात्र ऐसा अभिलेख प्राप्त हुआ है जिसमें पुष्यमित्र की उपाधि सेनापति दी गयी है और उसके द्वारा किए जाने वाले दो अश्वमेध यज्ञों का उल्लेख मिलता है। साथ ही शुंग राजाओं की धार्मिक नीति तथा वंशपरम्परा पर भी इस प्रस्तर अभिलेख से प्रकाश पड़ता है। यह संस्कृत भाषा का दो पंक्तियों वाला लघु शिलालेख अत्यन्त उपयोगी है। कालिदास के माल्विकाग्निमित्र से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र ने अश्वमेध यज्ञ किया था। इस सन्दर्भ में उसने अपने पुत्र अग्निमित्र को एक पत्र लिखा था जो यज्ञ के उद्देश्य को स्पष्ट करता है उसमें लिखा है – ‘स्वस्ति इस मण्डप से सेनापति पुष्यमित्र विदिशा में स्थित अपने पुत्र आयुष्मान अग्निमित्र को स्नेह से आलिंगन कर यह आदेश देता है — विदित हो राजसूय की दिशा के लिए मेरे द्वारा सैकड़ों राजपुत्रों से प्रवृत्त वसुमित्र की संरक्षता में एक वर्ष के भीतर लौट आने के विधान से यज्ञीय घोड़ा छोड़ा गया था। वह सिन्धु नद के दाहिने तट पर विचरता हुआ अश्वारोही सेना से युक्त यवन शासक द्वारा पकड़ा गया। इसके पश्चात् यवन सेना तथा वसुमित्र की सेना में घनघोर युद्ध हुआ। धनुर्धर वसुमित्र ने शत्रुओं को विजित कर बलपूर्वक मेरा अश्वमेध का घोड़ा छुड़ा लाया। जिस प्रकार अंशुमान द्वारा लाए हुए थोड़े से उनके पिता महासगर ने यज्ञ किया था उसी प्रकार मैं भी यज्ञ करूँगा। इस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए प्रसन्नचित होकर तुम्हें बहुओं के साथ यहाँ आना चाहिए।’ प्रस्तुत अभिलेख में भी पुष्यमित्र के लिए विशेषण प्रयुक्त है — ‘द्विरश्वमेधयाजिनः’ अर्थात् दो अश्वमेध यज्ञ करने वाला। इससे प्रमाणित होता है कि पुष्यमित्र ने दो अश्यमेधयज्ञ किया था जबकि माल्विकाग्निमित्र ( अंक – ५ ) से एक ही अश्वमेधयज्ञ का ज्ञान प्राप्त होता है जो यवनों को वहिष्कृत करने के लिए हुआ था पर यहाँ उल्लिखित दूसरे अश्वमेध यज्ञ का प्रयोजन स्पष्ट नहीं होता है। क्या हाथीगुम्फा अभिलेख का बहस्पतिमित्र और पुष्यमित्र शुंग एक ही थे? डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल ने खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में उल्लिखित बहस्पतिमित्रि की समता पुष्यमित्र से मानकर खारवेल को पुष्यमित्र शुंग का समकालीन बताया है। उनके विचार में चूँकि पुष्यमित्र खारवेल से पराजित हो गया था अतः उसको अपनी प्रतिष्ठा के रक्षार्थ दूसरा अश्वमेध यज्ञ करना पड़ा था। डॉ० राजबलि पाण्डेय के अनुसार जायसवाल की यह प्रतिस्थापना बड़ी ही संदिग्ध है। उनकी दृष्टि में लिपिविज्ञान के आधार पर खारवेल के हाथीगुफा अभिलेख की तिथि पुष्यमित्र के समकालीन नहीं ठहरायी जा सकती। अतः खारवेल को पुष्यमित्र के समकालीन नहीं रखा जा सकता। उसके द्वारा पुष्यमित्र के समय मगध पर आक्रमण का प्रश्न ही नहीं उठता। पुनः हम यह भी कह सकते हैं कि जिस प्रकार नक्षत्र और स्थानी की समता का प्रतिस्थापन कर डॉ जायसवाल ने पुष्यमित्र की समता हाथीगुम्फा अभिलेख में वर्णित वहस्पतिमित्र से स्थापित की है उससे लगता है कि यहाँ पूर्वाग्रहपूर्वक खींचा-तानी की जा रही हो या कोई ज्यामितिक हल निकाला जा रहा हो, जिसे सर्वथा मान्य नहीं ठहराया जा सकता। आगे हाथीगुम्फा अभिलेख के अध्ययन में यह देखेंगे कि वह अन्य प्रमाणों से भी पुष्यमित्र का समकालीन नहीं सिद्ध हो सकता। इसी से डॉ० पाण्डेय के मतानुसार यह “उसका दूसरा यज्ञ पूर्णार्थ ही था क्योंकि दूसरा अश्यमेधयज्ञ पूणार्थ होने का शास्त्रीय विधान है। अयोध्या अभिलेख : दो अश्वमेध यज्ञ डॉ० पुरुषोत्तम लाल भार्गव ने माना है कि पुष्यमित्र ने पहला

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पभोसा गुहा अभिलेख

भूमिका पभोसा गुहा अभिलेख उत्तर प्रदेश के कौशाम्बी जनपद में पभोसा नामक स्थान स्थित एक गुहा की दीवार पर मिला है। यह लेख ब्राह्मी लिपि में प्राकृत से प्रभावित संस्कृत में अंकित है। इस गुहा अभिलेख का समय फुहरर ने ई० पू० दूसरी-पहली शताब्दी अनुमानित किया है। बुह्लर इस अभिलेख का समय १५० ई० पू० बताते हैं। दिनेशचन्द्र सरकार लिपि विशेषताओं के आधार पर इस गुहाभिलेख का समय ई० पू० प्रथम शताब्दी का अन्त मानते हैं। पभोसा गुहा अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- पभोसा गुहा अभिलेख ( Pabhosa Cave Inscription ) स्थान :- पभोसा, कौशाम्बी जनपद, उत्तर प्रदेश भाषा :- संस्कृत ( प्राकृत प्रभावित ) लिपि :- ब्राह्मी समय :- मौर्योत्तर काल विषय :- कौशाम्बी के क्षेत्रीय इतिहास की जानकारी पभोसा गुहा अभिलेख : मूलपाठ प्रथम : मूलपाठ १ — राज्ञो गोपाली-पुत्रस २ — बहसतिमित्रस ३ — मातुलेन गोपालिया- ४ — वैहीदरी-पुत्रेन ५ — आसाढ़सेनेन लेनं ६ — कारितं ऊदाक [ स ] दस- ७ — म-सवरे [ १० अ ] हि [ छि ] त्र अरहं- ८ — [ त ] …… [ ॥  ] हिन्दी अनुवाद राजा गोपालीपुत्र बृहस्पतिमित्र के मातुल [ मामा ] गोपालिका वैहिदरीपुत्र आषाढ़सेन का बनाया लयण। उदाक१ के दसवें संवत्सर में [ अहिच्छत्रा ]२ के अर्हतों ( जैन अथवा बौद्ध ) [ के लिए ]। द्वितीय : मूलपाठ १ — अधिछत्राया राज्ञो शोनकायनी-पुत्रस्य वंगपालस्य २ —पुत्रस्य राज्ञो तेवणीपुत्रस्य भागवतस्य पुत्रेण ३ — वैहिदरी पुत्रेण आषाढ़सेन कारितं [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद अहिच्छत्रा के राजा शौनकायनी पुत्र वंगपाल३ के पुत्र तेवणी-पुत्र भागवत४ के पुत्र वैहिदरीपुत्र आषाढ़सेन द्वारा बनाया गया। उदाक को लोग शुंगवंशी वसुमित्र का उत्तराधिकारी अनुमान करते हैं किन्तु लिपि के आधार पर यह अभिलेख कदापि ई० पू० दूसरी शती में नहीं रखा जा सकता। अतः यह उससे सर्वथा भित्र शासक है। उसे कौशाम्बी का शासक कहा जाता है। यदि वह कौशाम्बी- नरेश था तो निश्चय ही बृहस्पतिमित्र का उत्तरवर्ती होगा और यदि उसी वंश का है तो उसका पुत्र अथवा पौत्र होगा। वैसी अवस्था में समसामयिक राजा आषाढसेन के साथ अपना सम्बन्ध न बताना कुछ असाधारण लगता है। अतः विद्वानों की धारणा है कि आषाढसेन का समसामयिक कौशाम्बी- नरेश उदाक नहीं, वृहस्पतिमित्र है और उदाक अहिच्छत्रा का शासक होगा तथा वह आषाढ़सेन का भ्राता होगा। आषाढ़सेन स्वयं अहिच्छत्रा का शासक नहीं है यह दूसरे अभिलेख में उसके नाम के साथ ‘राजा’ शब्द के अभाव से स्पष्ट है। उदाक जहाँ का भी शासक हो अभी तक उसके नाम के सिक्के कहीं से प्राप्त नहीं हुए हैं।१ यह अनुमानित पाठ है।२ बंगपाल के सिक्के अहिच्छत्रा से प्राप्त हुए हैं। उसके सिके की खप दामगुप्त के सिके पर पुनर्मुद्रित है। इससे ज्ञात होता है कि वह दामगुप्त के पश्चात् शासक हुआ था, इसी कारण अभिलेख में उसके पिता का नाम नहीं है।३ अहिच्छत्रा के सिक्कों में अभी तक भागवत नामक किसी शासक का कोई सिक्का प्राप्त नहीं हुआ है।४ पभोसा गुहा अभिलेख : विश्लेषण अहिच्छत्रा और कौशाम्बी के तत्कालीन प्रादेशिक इतिहास की दृष्टि से ही पभोसा गुहा अभिलेख का महत्त्व है। ये अभिलेख एक ही व्यक्ति से सम्बद्ध हैं। पहले से ज्ञात होता है कि लेख लिखानेवाले राजा आषाढ़सेन का सम्बन्ध अहिच्छत्रा के राजवंश से था। दूसरे लेख से पता चलता होता है कि वह बृहस्पतिमित्र नामक राजा का मातुल ( मामा ) था। कौशाम्बी से बृहस्पतिमित्र नामक शासक के सिक्के बड़ी मात्र में प्राप्त हुए हैं। सम्भव है, इस अभिलेख में उल्लिखित बृहस्पतिमित्र कौशाम्बी नरेश ही हो। इस प्रकार इन अभिलेखों से कौशाम्बी और अहिच्छत्रा के राजवंशों के पारिवारिक सम्बन्ध का परिचय मिलता है। इनकी सहायता से दोनों प्रदेशों के राजवंशों के शासकों की समसामयिकता का विचार किया जा सकता है। इन दोनों अभिलेखों से निम्नलिखित वंशवृक्ष प्राप्त होता है-

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बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख

भूमिका बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख मध्य प्रदेश में विदिशा से कुछ दूर स्थित बेसनगर में एक शिला-स्तम्भ पर अंकित है। यह संस्कृत से प्रभावित प्राकृत भाषा में ब्राह्मी लिपि में लिखा गया है। इसकी लिपि को सामान्यतः ईसा पूर्व दूसरी शती अनुमान किया जाता है किन्तु दिनेशचन्द्र सरकार इसे ई० पू० दूसरी शती के अन्त में रखते हैं। बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख ( Base Nagar Garuada Pillar Inscription ) या हेलियोडोरस गरुड़ स्तम्भ लेख ( Heliodorus Garuda Pillar Inscription ) स्थान :- बेसनगर, विदिशा जनपद, मध्यप्रदेश भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- शुंगवंशी शासक भागभद्र के शासनकाल का १४वाँ वर्ष ( लगभग द्वितीय शताब्दी ई०पू० ) विषय :- यवन राजदूत हेलियोडोरस द्वारा विदिशा में आकर गरुड़ध्वज की स्थापना। बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख : मूलपाठ पाठ – १ १ — [ दे ] वदेवस वा [ सुदेव ] स गरुड़ध्वजे अयं २ — कारिते इ [ अ ] हेलिओदोरेण भाग- ३ — वतेन दियस पुत्रेण तखसिलाकेन ४ — योन दूतेन [ आ ] गतेन महाराजस ५ — अन्तलिकितस उपन्ता सकासं रञो ६ — कासी पु [ त्र ] स१ [ भा ] गभद्रस त्रातारस ७. वसेन च [ तु ] दसेन राजेन बधमानस [ । ] भण्डारकर, ब्लाख आदि के अनुसार कोसीपुतस (कौत्सीपुत्र) पाठ है। किन्तु कौत्सीपुत्र का प्राकृत रूप कोछीपुतस होगा।१ पाठ – २ १ — त्रिनि अमुत-पदानि [ इअ ] [ सु ] -अनुठितानि २ — नेयन्ति ( स्वगं ) दम-चाग अप्रमाद [ । ] संस्कृत अनुवाद पाठ – १ देवदेवस्य वासुदेवस्य गरुडध्वजः अयं कारित इह हेलियोदोरेण भगवतेन दियस्य पुत्रेण तक्षशिलाकेन यवन दूतेन आगतेन महाराज अंतलिकितस्य उपान्तात् सकाश राज्ञः काशीपुत्रस्य भागभद्रस्य त्रातु: वर्षेण चतुद्र्दशेन राज्येन वद्धमानस्य। पाठ – २ त्रीणि अमृत पदानि इह सुअनुष्ठितानि नयन्ति स्वर्ग — दमः त्यागः अप्रमादः। हिन्दी अनुवाद पाठ – १ १ — देवताओं में श्रेष्ठ वासुदेव का यह गरूड-ध्वज २ — स्थापित किया गया हेल्योडोरस द्वारा ३ — दिवस या दिय के पुत्र भागवत धर्मानुयायी तक्षशिला के ४ —यवन दूत ने आकर महाराज ५ — अंतलिकितस के समीप से राजा ६ — काशीपुत्र के भागभद्र के ७ — चौदहवें वर्धमान राज्य काल में [ अर्थात् इस देवदेव वासुदेव के गरुड़ध्वज को मैंने बनवाया। मैं तक्षशिला निवासी भागवत दिय का पुत्र हूँ जो महाराज अन्तलिकिद की ओर से यवनदूत हो यहाँ आया। त्राता राजा काशीपुत्र भागभद्र के १४वें वर्तमान राजवर्ष में। ] पाठ – २ १ — तीन अमृत पद ये सुअनुष्ठान के द्वारा २ — स्वर्ग में ले जाते हैं दम, त्याग और अप्रमाद॥ [ अर्थात् अपने अनुष्ठान से किये गये तीन अमृत पद- दम, त्याग और अप्रमाद से स्वर्ग झुक जाता है॥ ] बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख : विश्लेषण राजनीतिक और धार्मिक इतिहास की दृष्टि से इस अभिलेख का महत्त्व है। राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से बेसनगर गरुड़ध्वज अभिलेख से निम्नलिखित बातें प्रकाश में आती हैं :— (१) इससे यह प्रकट होता है कि उत्तर-पश्चिमी प्रदेश के विदेशी (यवन) शासक मध्य भारत के भारतीय राजाओं के साथ राजनीतिक मैत्री के इच्छुक थे और दोनों राज्यों के बीच राजदूतों का आदान-प्रदान होता था। इस अभिलेख को हेलिओडोरस नामक तक्षशिला निवासी यवन ने अंकित कराया है। हेलियोडोरस यवनराज एन्टियालकीड्स की ओर से राजदूत के रूप में शुंग शासक भागभद्र के विदिशा राजसभा में आया था। (२) जिस समय यह लेख लिखा गया यवन राज्य में एन्टियालकीड्स नामक राजा था। एन्टियालकीड्स के समय के सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। सामान्यतः उसका समय ई०पू० दूसरी शती का अन्तिम चरण समझा जाता है। यदि इसका समय निश्चित हो सकता तो इस भारतीय नरेश के सम्बन्ध में कुछ सहज रूप से अनुमान किया जा सकता था। (३) भारतीय नरेश का उल्लेख काशीपुत्र भागभद्र नाम से हुआ है। यह कौन था निश्चित रूप से कहना कठिन है। मालविकाग्निमित्र के उल्लेख को यदि प्रामाणिक माना जाय तो इस काल में विदिशा वाले क्षेत्र में शुंगवंशी राजा शासन कर रहे थे। अतः इसे कोई शुंगवंशी राजा ही होना चाहिए। किन्तु पुराणों में इस वंश के शासकों की जो नामावली उपलब्ध है, उसमें इस नाम का कोई शासक नहीं है। अतः विद्वानों ने इसके सम्बन्ध में विभिन्न मत प्रकट किये हैं। जान मार्शल ने भागभद्र को वसुमित्र के उत्तराधिकारी, पाँचवें शुंगनरेश के रूप में, जिसका उल्लेख ब्रह्माण्ड पुराण में भद्र और भागवत पुराण में भद्रक अथवा भड़क के रूप में हुआ है, पहचानने का यत्न किया है। किन्तु उसकी यह पहचान इस कारण ग्राह्य नहीं है कि उसका शासन-काल पुराणों में केवल २ अथवा ७ वर्ष बताया गया और भागभद्र का यह अभिलेख चौदहवें शासनवर्ष का है। इसके अतिरिक्त अन्य पुराणों में यह नाम सर्वथा भिन्न है। मत्स्यपुराण की विभिन्न प्रतियों में अन्धक, ध्रुक, वृक, अन्तक, वायुपुराण में अन्ध्रक और विष्णुपुराण में आर्द्रक और ओद्रुक नाम है। इसके आधार पर विद्वानों ने अन्ध्रक नाम शुद्ध होने की कल्पना की है। जायसवाल, भण्डारकर, रामप्रसाद चन्दा आदि विद्वान भागभद्र को नवाँ शुंग-शासक अनुमान करते हैं जिसका उल्लेख प्रायः सभी पुराणों ने भागवत नाम से किया है और उसका शासन काल ३२ वर्ष बताया है। किन्तु इस सम्बन्ध में यह द्रष्टव्य है कि बेसनगर से ही एक अन्य गरुड़स्तम्भ पर भागवत नामक शासक के १२वें राज्यवर्ष का लेख मिला है। यह आश्चर्य की बात होगी कि एक ही स्थान से मिले दो अभिलेखों में एक ही व्यक्ति का नाम भागवत और भागभद्र दो रूपों में लिखा जाय और वह भी केवल दो वर्षों के अन्तर से लिखे गये अभिलेखों में। अतः कुछ अन्य विद्वान भागभद्र को शुंगवंशी शासक नहीं मानते। उनकी धारणा है कि वह कोई स्थानीय शासक होगा। (४) भागभद्र शुंगवंशी अथवा किसी अन्य वंश का हो, इस लेख में उसे त्रातार कहा गया है जो यवन विरुद सोटर (Soter) का पर्याय अथवा समकक्ष है और इसका अर्थ रक्षक (Saviour) होता है। इस विरुद का किसी भारतीय नरेश के लिए प्रयोग असाधारण है। अतः इसका प्रयोग अभिलेख में हेलियोडोरस के आदेश से ही साभिप्राय किया गया होगा। इस विरुद का महत्त्व तब और भी बढ़ जाता है जब हम देखते हैं कि हेलियोडोरस ने अपने नरेश एन्टियालकीड्स के लिए किसी भी यवन विरुद का प्रयोग नहीं किया है। एन्टियालकीड्स तथा उसके तात्कालिक पूर्ववर्तियों में से किसी ने भी इस विरुद का प्रयोग नहीं किया था।

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घोसुण्डी अभिलेख

भूमिका घोसुण्डी अभिलेख चित्तौड़गढ़ जनपद के पास नगरी और घोसुण्डी नामक स्थान प्राप्त हुए हैं। घोसुण्डी ( घोसुंडी ) अभिलेख को हाथीबाड़ा अभिलेख भी कहते हैं। यह भागवत् ( वैष्णव ) धर्म से सम्बंधित है। चित्तौड़गढ़ के निकट नगरी नामक ग्राम से डेढ़ किलोमीटर पूर्व हटकर एक बड़ा आहाता है, जिसके चारों ओर दीवार थी जो अब गिर गयी है। यह आहाता प्राचीन काल में एक नारायणवाटिका था। मुगल काल में, जब अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था, उसकी सेना ने यहाँ पड़ाव डाला था और इस अहाते का उपयोग हाथीखाने के रूप में किया था। तब से इसका नाम हाथीबाड़ा पड़ गया। आज भी यह इसी नाम से प्रसिद्ध है। इस हाथीबाड़ा की उत्तरी दीवार के दाहिने कोने में भीतर की ओर लगा एक शिला-फलक १९३४-३५ ई० में प्राप्त हुआ जिसकी दो पंक्तियों का ब्राह्मी लिपि में एक लेख है। उसके आरम्भ का कुछ अंश अनुपलब्ध है। इसी अभिलेख की एक दूसरी प्रति इससे पूर्व उस स्थान से कुछ दूर घोसुण्डी नामक स्थान में एक कुएँ में लगी प्राप्त हुई थी। इस प्रति में यह लेख तीन पंक्तियों में है। इस कारण इस अभिलेख को कुछ लोग घोसुण्डी अभिलेख के नाम से और कुछ लोग हाथीबाड़ा अभिलेख के नाम से पुकारते हैं। इसी लेख की एक तीसरी प्रति का एक खण्डित अंश १९१५-१६ ई० में और दूसरा खण्डित अंश १९२६-२७ ई० में प्राप्त हुआ था। इन तीनों प्रतियों की सहायता से लेख लगभग सर्वांश में प्राप्त किया जा चुका है। घोसुण्डी अभिलेख : संक्षिप्त परिचय नाम :- घोसुण्डी अभिलेख या हाथीबाड़ा अभिलेख स्थान :- नगरी-घोसुण्डी, चित्तौड़गढ़ जनपद, राजस्थान लिपि :- ब्राह्मी भाषा :- संस्कृत समय :- प्रथम शताब्दी ई०पू० विषय :- भागवत् धर्म सम्बन्धी घोसुण्डी अभिलेख : मूलपाठ१ १ — [ कारितो अयं राज्ञा भाग ] वतेन२ राजायनेन पराशरीपुत्रेण स- २ — [ र्वतातेन अश्वमेध-या ]३ जिना४ भागव [ द् ] भ्यां संकर्षण-वासुदेवाभ्याँ ३ — [ अनिहताभ्याँ सर्वेश्वरा ]५ भ्यां पूजा-शिला-प्रकारो नारायण वाटिका मूलपाठ का संयोजन घोसुण्डी पाठ के अनुसार किया गया है।१ हाथीबाड़ा प्रति में ‘वतेन’ स्पष्ट है। उसके आधार पर इस अनुपलब्ध अंश की कल्पना की गयी है।२ यह अंश हाथीबाड़ा प्रति तथा तीसरी प्रति में उपलब्ध है।३ इस शब्द के पश्चात् हाथीबाह्य प्रति की दूसरी आरम्भ होती है।४ यह अंश हाथीबाड़ा की प्रति में उपलब्ध है।५ हिन्दी अनुवाद अश्वमेध याजिन ( अश्वमेध करनेवाले ) राजा भागवत ( भगवद्-भक्त ) गाजायन पाराशरीपुत्र सर्वतात ने इस पूजाशिला प्राकार को भगवान् संकर्षण-वासुदेव के लिए, जो अनिहत और सर्वेश्वर हैं, बनवाया। घोसुण्डी अभिलेख : विश्लेषण संस्कृत बनाम प्राकृत भाषा घोसुंडी अभिलेख ईसा पूर्व पहली शताब्दी के उत्तरार्ध का अनुमान किया जाता है। इसकी भाषा संस्कृत है।६ संस्कृत में लिखे गये अभिलेखों में कदाचित् यह प्राचीनतम है अथवा प्राचीन दो अभिलेखों में से एक है (दूसरा संस्कृत अभिलेख अयोध्या से प्राप्त हुआ है)। इन अभिलेखों के प्रकाश में आने से पूर्व शक क्षत्रप रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख (१५० ई०) संस्कृत का प्राचीनतम् अभिलेख समझा जाता था। ई० पू० ३०० और १०० ई० के बीच के जो भी अभिलेख प्राप्त हुए हैं, उनकी भाषा प्राकृत थी। इस कारण अनेक विद्वानों की, जिनमें फ्लीट और रीस डेविड्स मुख्य हैं, धारणा थी कि १०० ई० तक बोलचाल की भाषा पाली थी और उस समय तक जनता के बीच संस्कृत का प्रचार-प्रसार न था। उनकी इस धारणा के विरुद्ध यह कहा जाता रहा है कि पतञ्जलि का कहना है कि जिस भाषा का व्याकरण पाणिनि ने प्रस्तुत किया है वह शिष्टजन को भाषा है। उनके इस कथन से ऐसा मालूम होता है कि उनके समय (ई० पू० १५०) में संस्कृत आर्यावर्त के ब्राह्मणों की बोलचाल की भाषा थी। इस लेख के प्रकाश में आ जाने से इस कथन को बल मिलता है। संस्कृत का प्रसार ईसा पूर्व की शताब्दियों में बना हुआ था। पालि-प्राकृत के साथ-साथ देश में संस्कृत भी प्रचलित थी। दिनेशचन्द्र सरकार ने इसे प्राकृत से प्रभावित कहा है जबकि लूहर्स ने इसकी भाषा को मिश्रित बताया है। लूडर्स के कथन का आधार कविराज श्यामदास का पाठ रहा है जो सर्वथा अशुद्ध है। किन्तु सरकार की इस धारणा के लिए कोई आधार नहीं है।६ भागवत् धर्म का प्रमाण इस अभिलेख को भी लोग बेसनगर अभिलेख की तरह ही भागवत् (वैष्णव) – धर्म के ईसा पूर्व की शताब्दी में प्रचलित होने का प्रमाण मानते हैं। किन्तु इससे इतना ही ज्ञात होता है कि वासुदेव तथा संकर्षण की उपासना लोगों में प्रचलित थी। वासुदेव की उपासना विष्णु की उपासना से भिन्न थी। संकर्षण, वासुदेव की भाँति ही वसुदेव के पुत्र कहे जाते हैं। उनका जन्म रोहिणी के गर्भ से हुआ था। वे महाभारत तथा पुराणों में वासुदेव के बड़े भाई कहे गये हैं। किन्तु महाभारत में उनकी चर्चा नगण्य है और यदि कहीं कुछ हुई भी है तो वह उनके छोटे भाई वासुदेव श्रीकृष्ण के आगे फीकी है। किन्तु वीर के रूप में वृष्णियों के बीच संकर्षण अत्यन्त पूज्य थे। उन्हें यह देवत्व किस प्रकार प्राप्त हुआ, कहा नहीं जा सकता। संकर्षण का शाब्दिक अर्थ ‘हल जोतना’ है। इससे जान पड़ता है कि वे कृषि से सम्बद्ध देवता रहे होंगे। इसकी पुष्टि मूर्ति-विधान से भी होती है। वे कृषि के आयुध हल और मूसल लिये व्यक्त किये जाते हैं। पुराणों की एक अनुश्रुति के अनुसार उन्होंने अपने हल से यमुना का मार्ग बदल दिया था और मूसल से हस्तिनापुर को गंगा के निकट पहुँचा दिया था। उनसे सम्बद्ध एक अन्य अनुश्रुति है कि उन्होंने फसल नष्ट करनेवाले द्विविध नामक राक्षस को मार डाला था। ये सब भी उनके कृषि-देवता होने का संकेत करते हैं। किन्तु संकर्षण का विकास नागपूजा से भी सम्बद्ध जान पड़ता है। इसका प्रचार वृष्णियों के प्रदेश मथुरा के आसपास काफी था। संकर्षण को शेषनाग का अवतार कहा जाता है। संकर्षण के मूर्तियों में नाग छत्र इसकी ओर संकेत करता है। संकर्षण की पूजा का उल्लेख अर्थशास्त्र में हुआ है। लगता है, वासुदेव और संकर्षण आरम्भ में अलग-अलग पूजित थे। बाद में वे दोनों एक-दूसरे के निकट आ गये और उनकी एक साथ पूजा होने लगी, जैसा एक लेख तथा अगथुक्लेय के सिक्कों से ज्ञात होता है। ‘पूजा-शिला-प्राकार’ का दो प्रकार से अर्थ किया जा सकता है — (१) पूजा-शिला के चारों ओर दीवार (पूजा-शिलाय: प्राकारः) (२) पूज्य वस्तु के

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