नन्दपुर ताम्र-लेख; गुप्त सम्वत् १६९ ( ४८८ ई० )

भूमिका नन्दपुर ताम्र-लेख १६२९ ई० में कलकत्ता के गणपति सरकार को मुँगेर (बिहार) जिला अन्तर्गत सूरजगढ़ा से दो मील उत्तर-पूर्व नन्दपुर नामक ग्राम स्थित एक जीर्ण मन्दिर के ताक में जड़ा एक ताम्र- फलक मिला था। उसी पर यह लेख अंकित था। इसे न० ज० मजूमदार ने प्रकाशित किया। हाल में मजूमदार द्वारा व्यक्त विचारों की श्रीधर वासुदेव सोहोनी ने आलोचना प्रस्तुत की है। संक्षिप्त परिचय नाम :- नन्दपुर ताम्र-लेख स्थान :- मुंगेर जनपद, बिहार भाषा :- संस्कृत लिपि :- दक्षिणी ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १६९ (४८८:ई०); बुधगुप्त का शासनकाल विषय :- अक्षयनीवी दान से सम्बन्धित मूलपाठ १. स्वस्त्य[म्बि]लग्रामाग्रहारात्मविश्वासमधिकरणाम् जङ्गोयिका ग्रामे ब्राह्मणोत्तरान्संव्यवहा- २. र्यादिकुटुम्बिनः कुशलमनुवर्ण्य बोधयन्ति लिखन्ति च [।] विज्ञापयति नः विषयपति छत्रमहः ३. इच्छाम्यहं स्वपुण्याभिवृद्धये नन्दवैथेय-खटापूरणाग्रहारिक-छान्दोग काश्यप सगोत्र- ब्राह्मणा- ४. ……. स्वामिने पञ्च-महायज्ञ-प्रवर्त्तनाम खिलक्षेत्र-कुल्यवाप-चतुष्टयं क्रीत्वातिस्रष्टुम्[।] ५. युष्मद्विषये च समुदयबह्याद्यस्तम्ब खिल-क्षेत्राणां शश्वदाचन्द्रार्कतारक भोज्या[ना]- ६. मक्षय-नीव्या द्विदीनारिक्य-कुल्यवाप विक्रयो(ऽ) नुवृत्तस्तदर्हथ मत्तो-(ऽ)ष्टौ दीनारानुप- ७. संगृह्य जङ्गोयिका-ग्रामे खिलक्षेत्र-कुल्यवाप-चतुष्टयमक्षय-नीव्यास्ताम्रपट्टेन दातुमिति[।] ८. यतः पुस्तपाल प्रद्योतसिं[ह]-बन्धुदासयोरवधारणयावधृतमस्तीहविषये समुदय- ९. बाह्यास्तम्ब-खिल क्षेत्राणामकिञ्चित्प्रतिकराणां     द्विदीनारिक्य-कुल्यवाप-विक्रयो(ऽ)- नुवृत्तः[।] १०. एवम्विधोत्प्रतिकर-खिलक्षेत्र-विक्रये च न कश्चिद्राजार्थं विरोधः दीयमाने तु परमभट्टारक- ११. पादानां धर्म्म-षड्भागावाप्तिस्तद्दीयतामित्येतस्माद्विषयपति छत्रमहादष्टौ दीनारानुप- १२. संगृह्य जङ्गोयिका-ग्रामे गोरक्षित-ताम्रपट्ट-दक्षिणेन गोपालिभोगायाः पश्चिमेन खिल- १३. क्षेत्र कुल्यवाप-चतुष्टयं दत्तम् [।]कु ४ [ते यूयमेवं विदित्वा कुटुम्बिनां कर्षणाविरोधि- स्थाने १४. दर्व्वीकर्म्म-हस्तेनाष्टक-नवक-नलाभ्यामपविञ्छ्य   चिरकाल-स्थायि-तुषाङ्गारादि- चिह्नैश्चतुर्द्दि- १५. ङ्निप्रमिर्ति-संमानं कृत्वा दास्यथ [।] दत्वा चाक्षयनीवी-धर्मेण शश्वत्कालमनुपालयि- ष्यथ[।] १६. वर्त्तमान-भविष्यैश्च संव्यवहारिभिरेतद्धर्म्मापेक्षयानुपालयितव्य-मिति [।] उक्तञ्च भग- १७.                 [वता] [व्या]से[न] [।] स्व-दत्तां परदत्तां वा यो हेरत वसुन्धरां[।] स विष्ठायां कृमिर्भूत्वा पितृभिः सह १८.                 पच्यते [॥] [षष्टि] वर्ष-सहस्राणि स्वर्गे मोदति भूमिदः [।] आक्षेप्ता चानुमन्ना च तात्येव न- १९.             रके वसेत् [॥] सं १०० (+) ६० (+) ९ वै-शुदि ८ [॥] हिन्दी अनुवाद स्वस्ति। अम्विल ग्राम के अग्रहार से अधिकरण के लोग जंगोयिका ग्राम के ब्राह्मण, संव्यवहारी और कुटुम्बियों की कुशल कामना करते हुए कहते और लिखते हैं — विषयपति छत्रमह ने अपनी पुण्य-वृद्धि के लिये नन्द-वीथी स्थित खटापूरणा के अग्रहारिक छान्दोग[चरण] के काश्यपगोत्री ब्राह्मण …… स्वामी को पंच-महायज्ञ के निमित्त चार कुल्यवाप खिल-क्षेत्र खरीदकर [अग्रहार की] सृष्टि करने की इच्छा प्रकट की है और कहा है कि इस विषय में समुदयबाह्य, आद्यस्तम्ब (झाड़ियों से भरी हुई), खिल-क्षेत्र, जब तक चन्द्र-सूर्य-तारे रहें तब तक भोग के निमित्त अक्षय-नीवी के रूप में दो दीनार प्रति कुल्यवाप की दर से विक्रय की जाती है। अतः इसके निमित्त [मुझसे] आठ दीनार लेकर जंगोयिका ग्राम में चार कुल्यवाप अक्षय-नीवी का ताम्रपट लिखकर दिया जाय। अतः पुस्तपाल प्रद्योतसिंह और बन्धुदास से जाँच करने पर ज्ञात हुआ कि इस विषय में समुदयबाह्यआपस्तम्ब, खिल-क्षेत्र, जिससे कोई प्रतिकर प्राप्त नहीं होता, दो दीनार प्रति कुल्यवाप की दर से विक्रय की जाती है। इस प्रकार अप्रतिकर खिल-क्षेत्र के विक्रय किये जाने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है वरन् इससे परमभट्टारक के पाद को धर्म के छठे अंश की प्राप्ति ही होती है। अतः विषयपति छत्रमह से आठ दीनार लेकर जंगोयिका ग्राम में चार कुल्यवाप खिल-क्षेत्र दिया गया जिसके दक्षिण में ताम्रपट्ट द्वारा दी गयी। भूमि और पश्चिम में गोपाली द्वारा भोगी जानेवाली भूमि है। यह बात आप सबको ज्ञात हो कि कुटुम्बियों की खेतिहर भूमि से अलग (कुटुम्बिनाकर्षणाविरोधी) स्थान में दव-कर्म के अनुसार हाथ से ८६ नल नापकर स्थायी रूप से तुषार अंगार आदि से चारों ओर समान रूप से चिह्न लगाकर भूमि दी गयी। [यह भूमि] अक्षय-नीवी-धर्म के अनुसार शाश्वत काल के लिये दी गयी। वर्तमान और भावी संव्यवहारी धर्म समझकर इसका परिपालन करें। भगवान् व्यास ने कहा है — अपनी अथवा दूसरों की दी हुई भूमि का जो अपहरण करता है वह पितरोंसहित विष्ठा का कीड़ा होता है। भूमि-दान करनेवाला छः हजार वर्ष तक स्वर्ग का उपयोग करता है और उसका अपहरण करनेवाला तथा उसमें सहयोग करनेवाला उतने ही काल तक नरक में वास करता है। संवत् १६९ वैशाख शुदि ८। शंकरगढ़ ताम्र-लेख; गुप्त सम्वत् १६६ (४८५ ई०)

नन्दपुर ताम्र-लेख; गुप्त सम्वत् १६९ ( ४८८ ई० ) Read More »

शंकरगढ़ ताम्र-लेख; गुप्त सम्वत् १६६ (४८५ ई०)

भूमिका शंकरगढ़ ताम्र-लेख जून १९७७ में मध्य प्रदेश के सिद्दी जनपद के गोपद बनास (Gopad Banas ) तहसील के शंकरपुर ग्राम में एक विद्यार्थी को प्राप्त हुआ था। यह लेख २४ x ११ सेंटीमीटर आकार के ताम्रपत्र के एक ओर अंकित है। दाहिने ओर का ऊपर और नीचे का कोना क्षतिग्रस्त है; जिसके कारण प्रथम पंक्ति के चार तथा द्वितीय पंक्ति का एक तथा अन्तिम पंक्ति के दो-तीन अक्षर अनुपलब्ध हैं। बायीं ओर ५वीं और छठीं पंक्ति के बीच मुद्रा पिरोने के लिये एक छिद्र है। इसको बालचन्द्र जैन ने सम्पादित करके प्रकाशित किया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- शंकरगढ़ ताम्र-लेख [ Shankargarh Copper-plate Inscription ] स्थान :- गोपद बनास ( Gopad Banas ) तहसील, सीधी जनपद ( Sidhi District ); मध्य प्रदेश। भाषा :- संस्कृत लिपि :- उत्तर ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १६६ (४८५ ई०); बुधगुप्त का शासनकाल विषय :- अग्रहार दान से सम्बन्धित मूलपाठ १. सिद्धम् [।] संवत्सर-शतेषट्-षष्ट्युत्तरे महा-माघ संवत्सरे श्रावण[पंच]- २. म्याम् परमदेव-बुधगुप्ते राजनि [।] अस्यां दिवस-पूर्वायां श्रीमहाराज- ३. सालन-कुलोद्भवेन श्री महाराज गीतवर्म-पौत्रेण श्री-महाराज-विजयवर्म्म सुते[न्] ४. महादेव्यां शर्वस्वामिन्यां-उत्पन्नेन श्री-महाराज-हरिवर्म्मणा। अस्य ब्राह्मण-कौत्स- ५. सगोत्र-गोस्वामिनेतच्चित्रपल्य ताम्रपट्टेनाग्रहारोति श्रृष्टः अकरः अचाट-भट-प्रा- ६. वेश्यः [।] चन्द्र-तारार्क-समकालीयः [।] उक्तञ्च भगवता व्यासेन[:] [।] स्वदत्ता- परदत्तां-वा यो ७.                  हरेत वसुन्धरां[।] स विष्ठायां क्रिमिर्भूत्वा पितृभिः सह पच्यते [।] बहुभिर्वसुधा ८.               भुक्तराजभिः सगरादिभिः [।] यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् [॥] ९. कुमारामात्य-भगवद्रुद्रछदिभोगिक महाप्रतिहारलवणः बपिद्रा भोगिके[न] १०. दूतकेन [।] लिखितम् रुयष्टराजेन नागशर्म-सुतेन॥ हिन्दी अनुवाद सिद्धि हो। संवत्सर एक सौ छासठ (१६६) महामाघ संवत्सर के श्रावण की पंचमी को परमदेव बुधगुप्त के राज्य में। इस पूर्वकथित तिथि को श्री महाराज सालन [के] कुल में उत्पन्न श्री महाराज गीतवर्मा के पौत्र, श्रीमहाराज विजयवर्मा के पुत्र, महादेवी शर्वस्वामिनी से उत्पन्न श्री महाराज हरिवर्मा ने इस ताम्रपट्ट द्वारा कौत्स गोत्रीय ब्राह्मण गोस्वामी के लिये चित्रपल्य नामक ग्राम की अग्रहार के रूप में सृष्टि की (अर्थात् इस ताम्रपट्ट द्वारा अग्रहारस्वरूप चित्रपल्य नामक ग्राम ब्राह्मण गोस्वामी को प्रदान किया)। वह करमुक्त (अकरः) है; और उसमें चाट-भाट का प्रवेश निषिद्ध है। जब तक चन्द्र, तारे और सूर्य विद्यमान रहें, तब तक वह उसका उपयोग करते रहें। भगवत्व्यास ने कहा है— स्वदत्त और परदत्त भूमि का जो हरण करता है, वह पितरोंसहित विष्ठा का कीड़ा बनता है। [जो इसकी रक्षा करता है] वह सगर आदि की तरह पृथ्वी का बहुत काल तक भोग करता है। जो पृथ्वी के साथ जैसा व्यवहार करता है, उसका वैसा ही फल मिलता है। दूतक रुद्रछदि के भोगिक कुमारामात्य भगवत और बपिद्रा के भोगिक महाप्रतिहार लवण के [आदेश से], नागशर्मण के पुत्र रुयष्ट्रराज ने लिखा। बुधगुप्त का सारनाथ बुद्ध-मूर्ति-लेख; गुप्त सम्वत् १५७ ( ४७६-७७ ई० ) पहाड़पुर ताम्रलेख; गुप्त सम्वत् – १५९ ( ४७८ ई० ) राजघाट स्तम्भलेख; गुप्त सम्वत् १५९ ( ४७८ ई० ) मथुरा पादासन-लेख; गुप्त सम्वत् १६१ ( ४८० ई० ) दामोदरपुर ताम्र-लेख ( तृतीय ); गुप्त सम्वत् १६३ ( ४८२ ई० ) एरण स्तम्भलेख; गुप्त सम्वत् १६५ ( ४८४ ई० )

शंकरगढ़ ताम्र-लेख; गुप्त सम्वत् १६६ (४८५ ई०) Read More »

एरण स्तम्भलेख; गुप्त सम्वत् १६५ ( ४८४ ई० )

भूमिका एरण स्तम्भलेख मध्यप्रदेश के सागर जनपद के एरण नामक ग्राम से मिला है। एरण गाँव से आध मील दूर प्राचीन मंदिरों का एक समूह से मिला है उसके निकट ही लाल पत्थर का एक ऊँचा स्तम्भ खड़ा है, उसी के निचले चौकोर भाग पर यह लेख अंकित है। इसे १८३८ ई० में कप्तान टी० एस० बर्ट ने ढूँढ निकाला था उसी वर्ष जेम्स प्रिंसेप ने अंगरेजी अनुवाद के साथ इसका पाठ प्रकाशित किया। फिर १८६१ ई० में फिट्ज एडवर्ड हाल ने अनुवाद सहित अपना नया पाठ प्रस्तुत किया। १८८० ई० में कनिंघम महोदय ने इसे प्रकाशित किया। तत्पश्चात् जे० एफ० फ्लीट ने इसे सम्पादित कर प्रकाशित किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- एरण स्तम्भलेख [ Eran Pillar Inscription ]; बुधगुप्त का एरण स्तम्भलेख [ Eran Rock Pillar Inscription of Budhgupta ] स्थान :- एरण, सागर जनपद; मध्य प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- उत्तर ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १६५ ( ४८४ ई० ); बुधगुप्त का शासनकाल विषय :- यह अभिलेख मातृविष्णु और धन्यविष्णु नामक दो भाइयों द्वारा गरुड़-ध्वज स्थापित करने की उद्घोषणा है। मूलपाठ १. जयति विभुश्चतुर्भुजश्चतुरर्ण्णव-विपुल-सलिल-पर्य्यङ्कः [।] जगतः स्थित्युत्पत्ति-न्य[यक] २.                    हेतुर्गरुड-केतुः [॥ १] शते पञ्चषष्ट्यधिके वर्षाणां भूपतौ च बुधगुप्ते आषाढ़-मास-[शुक्ल]- ३.                [द्वा]दश्यां सुरगुरोर्द्दिवसे [॥२] सं १०० (+) ६० (+) ५ [॥] कालिन्दी-नर्म्मदयोर्म्मध्यं पालयति लोकपाल-गुणै [।] जंगति महा[राज]- ४.                 श्रियमनुभवति सुरश्मिचन्द्रे च [॥३] अस्यां संवत्सर-मास-दिवस-पूर्व्वयां स्वकर्म्माभिरतस्य क्रतु-याजि[नः] ५ .   अधीत-स्वाध्यायस्य विप्रर्षेर्मेत्तायणीय-वृषभस्येन्द्रविष्णोः प्रपौत्रेण पितुर्गुणानुकारिणो वरुण[विष्णोः] ६.    पौत्रेण पितरमनुजातस्य स्व-वंश-वृद्धि-हेतोर्हरिविष्णोः पुत्रेणात्यन्तभगवद्भक्तेन विधातुरिच्छ्या स्वयंवग्येव [ रा ]ज- ७.    लक्ष्म्याधिगतेन     चतुःसमुद्र-पर्य्यन्त-प्रथित-यशसा-अक्षीण-मानधनेनानेक-शत्रु-समर- जिष्णुना महाराज – मातृविष्णुना ८.    तस्यैवानुजेन तदनुविधायिन[।] तत्प्रसाद-परिगृ[ही]तेन धन्यविष्णुना च । मातृपित्रोः पुण्याप्यायनार्थमेष भगवतः ९.    पुण्यजनार्द्दनस्य जनार्द्दनस्य ध्वजस्तम्भो(S)भ्युच्छितः[॥] स्वस्त्यस्तु गो-ब्राह्मण- [पु]रोगाभ्यः सर्व्व प्रजाभ्य इति। हिन्दी अनुवाद चतुर्भुज, चतुर्ण्णव, विपुल-सलिल-पर्यक वाले (चारों समुद्र के जल की शैय्यावाले) संसार की स्थिति, उत्पन्न और विनाश आदि के कारण, गरुड़-केतु (ध्वज) [वाले की] जय हो। वर्ष १६५ में, जिस समय बुधगुप्त भूपति (राजा) हैं, आषाढ़ मास, शुक्ल पक्ष की द्वादशी, गुरुवार [के दिन] जब लोकपाल (दिशाओं के स्वामी) की भाँति श्री सुरश्मिचन्द का, जो जगत में महाराज [कहलाने] के श्रेय का अनुभव करते हैं, शासन है इस पूर्वकथित संवत्सर, मास और दिवस को स्वकर्मरत, क्रतु-याजी (यज्ञ करनेवाले), अधीत, [शास्त्रों का] स्वाध्याय [करनेवाले]विप्रर्षि, मैत्रायणीय शाखावाले, वृषभ (श्रेष्ठ) इन्द्रविष्णु के प्रपौत्र; पिता के गुणों का अनुसरण करने वाले (पिता के समान ही गुणवाले) वरुणविष्णु के पौत्र; पितर-मनुष्य-जात (गुणों में पिता के प्रतिरूप), वंश-वृद्धि के हेतु, हरिविष्णु के पुत्र, भगवान् के परम भक्त, जिसे विधाता की इच्छा के अनुसार लक्ष्मी ने स्वयं वरण किया था, चारों समुद्रपर्यन्त फैले यशवाले, ‘अक्षीण मान और धनवाले, युद्ध में अनेक शत्रुओं को जीतनेवाले महाराज मातृविष्णु और उनके आज्ञाकारी एवं अनुग्रहपूर्वक परिगृहीत अनुज (छोटे भाई) धन्यविष्णु ने, अपने माता-पिता के पुण्य-वृद्धि के निमित्त, पुण्यजन (दानव) के त्रासक भगवान् जनार्दन का यह ध्वज स्तम्भ स्थापित किया। गो, ब्राह्मण, पुरोग एवं सभी प्रजा का कल्याण हो। टिप्पणी एरण स्तम्भलेख मातृविष्णु और धन्यविष्णु नामक दो भाइयों द्वारा गरुड़-ध्वज (स्तम्भ जिस पर लेख अंकित है) स्थापित करने की उद्घोषणा है। इसमें यद्यपि सामान्य बात ही कही गयी है, कई कारणों से इस लेख का महत्त्व इतिहास के निमित्त माना जाता है। (१) एरण स्तम्भलेख में वर्ष और मास के उल्लेख के साथ पक्ष का ही नहीं, दिन का भी उल्लेख हुआ है सामान्य रूप से इस और इसके पूर्व काल के अभिलेखों में पक्ष का संकेत नहीं मिलता। मास के साथ केवल दिन की संख्या ही देखने में आती है। इससे अधिक महत्त्व की बात तो इसमें दिन का उल्लेख है जो इससे पूर्व सर्वथा अनजाना है। समझा जाता है कि भारतीयों ने दिन के रूप में गणना की पद्धति अलक्सान्द्रिया के यवन ज्योतिषियों से प्राप्त की है। वराहमिहिर (छठी शती ई०) के ज्योतिष-ग्रन्थों पर यवन-प्रभाव सर्वविदित है उनका पौलिश-सिद्धान्त अलक्सान्द्रिया के पाल (३७८ ई०) के सिद्धान्तों पर आधारित समझा जाता है। उनके दूसरे ग्रन्थ रोमक-सिद्धान्त का नाम ही बताता है कि वह रोमक (यवन-रोमन) सिद्धान्त पर आधारित है। (२) लेख में शासक (भूपति) के रूप में बुधगुप्त और प्रशासक के रूप में सुरश्मिचन्द्र का उल्लेख है कदाचित् उनके अधीन कोई और प्रशासकीय पद था जिस पर इस स्तम्भ का प्रतिष्ठापक मातृविष्णु आसीन था इसमें हम सुरश्मिचन्द्र और मातृविष्णु दोनों को ही महाराज पद से भूषित पाते हैं। (३) मातृविष्णु के पूर्वज, प्रपितामह, पितामह और पिता तीनों ही ब्राह्मण-कर्म-रत थे किन्तु स्वयं वह क्षत्रिय-कर्म में प्रविष्ट दिखायी पड़ता है। अभिलेख में उसका उल्लेख धन-सम्पन्न और वीर सैनिक के रूप में हुआ है। स्मृतियों में अपने वर्ण से निम्न वर्ण के कार्य का निषेध किया गया है और आपद्-धर्म में ही अपनाने की छूट दी गयी है। इस अभिलेख से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उन दिनों भी स्मृतियों के आदेशों को सामान्य जन ही नहीं, ब्राह्मण भी विशेष महत्त्व नहीं देते थे। वह कोरा सिद्धान्तवाद था। (४) मातृविष्णु के छोटे भाई धन्यविष्णु के नामोल्लेख के कारण ही इस अभिलेख का ऐतिहासिक महत्त्व है धन्यविष्णु ने मातृविष्णु के निधन के उपरान्त माता-पिता की पुण्यवृद्धि के लिए, उसी क्षेत्र में, जहाँ वर्तमान स्तम्भ है, एक वराह-मूर्ति की स्थापना की थी। उसी मूर्ति पर उसका लेख उत्कीर्ण है उस लेख में महाराज तोरमाण का उल्लेख है और लेख उसके शासन के प्रथम वर्ष का है। इन दोनों अभिलेखों को एक साथ देखने पर ज्ञात होता है कि बुधगुप्त के शासन काल के बाद ही हूणों ने मध्य भारत पर अधिकार किया होगा अतः प्रस्तुत लेख हूणों के भारत-प्रवेश काल के निर्धारण में सहायक सिद्ध हुआ है। समुद्रगुप्त का एरण प्रशस्ति एरण या एरकिण

एरण स्तम्भलेख; गुप्त सम्वत् १६५ ( ४८४ ई० ) Read More »

दामोदरपुर ताम्र-लेख ( तृतीय ); गुप्त सम्वत् १६३ ( ४८२ ई० )

भूमिका दामोदरपुर (बंगलादेश) से प्राप्त पाँच ताम्र-लेखों में यह तीसरा लेख है। इसलिये इसको दामोदरपुर ताम्र-लेख ( तृतीय ) कहा गया है। इसे राधागोविन्द बसाक ने प्रकाशित किया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- दामोदरपुर ताम्र-लेख ( तृतीय ) [ Damodarpur Copper Plate Inscription Of Budhgupta ] स्थान :- दामोदरपुर, उत्तरी बाँग्लादेश का रंगपुर जनपद। भाषा :- संस्कृत लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १६३ ( ४८२ ई० ); बुधगुप्त का शासनकाल विषय :- भूमि क्रय करके अक्षयनीवी दान से सम्बन्धित, विषय की प्रशासनिक जानकारी का स्रोत। मूलपाठ एक ओर १. [सं० १००] (+) [६०] (+) ३ आषाढ़-दि १० (+) ३ परमदैवत परमभट्टा[र]क- महाराजाधिराज-श्रीबुधगुप्ते [पृथि]वी-पतौ तत्पाद-[परि]गृहीते पुण्ड्र[व]- २. [र्द्धन ] भुक्तावुपरिक-महाराज-ब्रह्मदत्ते संव्यवहरति [।] स्व[स्ति] [पलाशवृन्दकात्स- विश्वासं महत्तराद्यष्टकुलाधि[क]- ३. [र]णं ग्रामिक-कुटुम्बिनश्च चण्डग्रामके ब्राह्मणाद्याक्षक्षुद्र-प्रकृति-कुटुम्बिनः कुशलमुक्त्वानुदर्शयन्ति [यथा] ४. [वि]ज्ञापयती नो ग्रामिक-नाभको(ऽ)हमिच्छे मातापित्रोरस्वपुण्याप्यायनाय कदि(ति) चिदब्राह्मणार्य्यान्प्रतिवासयितुं ५. [तद]र्हथ ग्रामानुक्रम-विक्रय-मर्य्यादया मत्तो हिरण्यमुपसंगृह्य समुदय-बाह्याप्रद- खिल[क्षेत्रस्य] ६. [प्र]सादं कर्तुमिति [।] यतः पुस्तपाल-पत्रदासेनावधारितं युक्तमनेन विज्ञापितमस्त्ययं विक्रय- ७. मर्य्यादा-प्रसङ्गस्तद्दीयतामस्य परमभट्टारक-महाराज-पा[दानां] पुण्योपचयायेति [।] पुनरस्यैव ८. [पत्रदा]सस्यावधारणयावधृत्य नाभक-हस्ताद्दीनारद्वयमुपसंगृह्य स्थाणविल-कपिल- श्रीभद्राभ्यायिकृत्य च समुदय- दूसरी ओर ९. [बाह्याप्रद]-[खि]ल-क्षेत्रस्य कुल्यवापमेकमस्य वायिग्रामकोत्तर-पार्श्वस्यैव च सत्य- मर्य्यादाया दक्षिण पश्चिम-पूर्व्वण १०. महा[त्त]राद्यधिकरण-कुटुम्बिभिः     प्रत्यवेक्ष्याष्टक-नवक(नवक)नलाभ्यामपविञ्छय च[क्षितिंनोच्छन्ध्य] च नाग[काय्] ११. [देयं] एतदुत्तर-कालं संव्यवहारिभिर्द्धर्म्ममवेक्ष्य प्रतिपालनीयं [।] उक्त महर्षिभिः[।] स्वदत्ताम्परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां। १२. [स विष्ठा]यां कृमिभूत्वा पितृभिरसह पच्यते[॥] बहुभिर्व्यसुधा दत्ता राजभिरसगरादिभिः[।] यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य १३.                           [तदा] फलं[॥] षष्टिं वर्ष सहस्राणि स्वर्ग्गे मोदति भूमिदः[॥] आक्षेप्ता चानुमन्ता च तान्येव नरके वसेदिति॥ अनुवाद संवत् १६३, आषाढ़ [मास] दिन १३। परमदैवत् परमभट्टारक महाराजाधिराज श्री बुधगुप्त पृथ्वीपति हैं। उनका पादपरिगृहीत पुण्डवर्धन-भुक्ति का उपरिक महाराज ब्रह्मदत्त संव्यवहार करता है — स्वस्ति। पलाशवृन्दक के महत्तर, अष्टकुलाधिकरण, ग्रामिक और कुटुम्बी चण्डग्राम के ब्रह्मण आदि तथा अन्य छोटे कुटुबियों की कुशल की कामना करते हुए विश्वासपूर्वक यह सूचित करते हैं — ग्रामिक नामक ने अपने माता-पिता तथा अपने पुण्य के लिये किसी ब्राह्मण के निवास की व्यवस्था करने के निमित्त ग्राम में प्रचलित विक्रय की मर्यादा के अनुसार मूल्य (हिरण्य) देकर समुदयबाह्य-अप्रद-खिल क्षेत्र प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की है। अतः पुस्तपाल पत्रादास से पूछताछ करने के बाद हम घोषित करते हैं कि परमभट्टारक महाराज के पाद को पुण्य प्राप्ति होगी, इसलिये विक्रय-मर्यादा के अनुसार [भूमि] दी जाती है। यह भी [घोषित करते हैं कि] पत्रदास से पूछकर नाग से स्थायपाल कपिल और श्रीभट्ट द्वारा दो दीनार प्राप्त कर एक द्रोणयाप समुदय बाह्य, अप्रद क्षेत्र (भूमि) वायिग्राम (वैग्राम) के उत्तर उसके बगल में दक्षिण, पश्चिम, पूर्व, महत्तर आदि के अधिकरण और कुटुम्बियों ने आठ, नव, नव नल नापकर चारों ओर की सीमा को अपने सामने स्पष्ट रूप से निर्धारित कराकर नाभक को दिया। भविष्य में होनेवाले संख्यवहारी भी धर्म की दृष्टि से इसका पालन करें। महर्षि ने कहा है — अपना अथवा दूसरे द्वारा दी गयी भूमि का जो अपहरण करता है वह पितरों सहित विष्ठा का कीड़ा होता है। सगर आदि राजाओं ने पूर्व काल में बहुत सी भूमि दान दी थी। जो जितनी भूमि दान देता है उसे उसी के अनुसार फल प्राप्त होता है। भूमि दान करनेवाला छः हजार वर्ष तक स्वर्ग में निवास करता है और उसका अपहरण करनेवाला तथा अपहरण में सहयोग करनेवाला उतने ही काल तक नरकवासी होता है। टिप्पणी दामोदरपुर ताम्र-लेख ( तृतीय ) भी पूर्वोल्लिखित अभिलेखों के समान अक्षय-नीति-धर्म के अन्तर्गत भू-विक्रय की घोषणा है और इसका प्रारूप भी उन्हीं की तरह है। नयी बात केवल इतनी ही है कि इसमें एक नये राज्याधिकारी स्थाणविल का उल्लेख हुआ है। जिसके माध्यम से मूल्यस्वरूरप दो दीनार पाने की बात कही गयी है। दिनेशचन्द्र सरकार ने स्थानपाल मानकर इसका तात्पर्य पहरेदार या पुलिस का सिपाही अनुमान किया है। डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त इसे ख़ज़ांची अथवा कर-संग्राहक मानते हैं। दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख ( प्रथम ) गुप्त सम्वत् १२४ ( ४४३ – ४४ ई० ) दामोदरपुर ताम्रपत्र लेख (द्वितीय) – गुप्त सम्वत् १२८ ( ४४७-४८ ई० )

दामोदरपुर ताम्र-लेख ( तृतीय ); गुप्त सम्वत् १६३ ( ४८२ ई० ) Read More »

मथुरा पादासन-लेख; गुप्त सम्वत् १६१ ( ४८० ई० )

भूमिका मथुरा पादासन-लेख एक चौकोर शिला-खण्ड पर अंकित है। यह किसी मूर्ति का पदासन रहा होगा। मूर्तिभाग के नाम मात्र चिह्न उपलब्ध है। लेख से प्रतीत होता है कि यह कोई बौद्ध-मूर्ति रही होगी। इसे १९८२ ई० में मथुरा संग्रहालय ने किसी पुरावस्तु विक्रेता से क्रय किया है। उसे यह कहाँ से प्राप्त हुआ था इसकी कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं; परन्तु वह मथुरा के आसपास से ही प्राप्त हुआ होगा ऐसा विद्वानों ने अनुमान किया है। शिलाखण्ड के लेख-युक्त भाग के ऊपर के अंश का एक टुकड़ा अनुपलब्ध होने के कारण आरम्भ की ओर से प्रथम पंक्ति के लगभग दस और दूसरी पंक्ति के लगभग सात अक्षर अनुपलब्ध हैं, तीसरी पंक्ति के तीन-चार अक्षरों का ऊपरी भाग कट गया है। इस अभिलेख का ठाकुरप्रसाद वर्मा द्वारा तैयार किये गये पाठ को विभिन्न विद्वानों ने प्रकाशित किया। यथा – डॉ परमेश्वरीलाल गुप्त, किरण थपल्याल और अरविन्द कुमार श्रीवास्तव। संक्षिप्त परिचय नाम :- मथुरा पादासन-लेख स्थान :- मथुरा; उत्तर प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १६१ (४८० ई०); बुधगुप्त का शासनकाल विषय :- भगवान बुद्ध की प्रतिमाओं के बनवाकर प्रतिष्ठित किये जाने की सामान्य उद्घोषणा। मूलपाठ १. सिद्धं [।] [योवन्ध] [ — — — — — — — — — ब]न्धन-निरुद्ध [ब]ल[-] -क्षयो येतदर्थे दशबल बलिने नमस्तस्मै॥ २. कारयति यः प्रतिमां [ — — ]कनाथस्य जगति बुद्धस्य। स भवति सर्वामरष्यो(?) लोकेनयनाभिरामश्च॥ ३. कृत्स्नां प्रशासयति महीं बुधगुप्त राजनि प्रथित वङ्शे वर्षे शत-एकषष्ठे-भाद्रव(प)द षोडशे दिवसे। ४. प्रतिमा चतुष्टयमिदं धर्मार्थं शङ्खकेन राष्ट्रेण भक्त्या जिनस्य कारितमधूणा गङ्गबल पुत्रेण॥ ५. अत्र कृते यत्पुण्यं नैश्रयसमक्षयं हि तत्सर्व्वम् माता-पित्रोश्चा स्य सवैषां चावनि सत्त्वानां॥ हिन्दी अनुवाद २. सिद्धि हो। जो ……….. बन्धन निरुद्ध, …………… क्षय के कारण दशबल-बली कहे जाते हैं, उन्हें नमस्कार। २.  जो बुद्ध …… की प्रतिमा स्थापित करता है, वह ….. नयनाभिराम होता है। ३. जब राजा बुधगुप्त समस्त पृथिवी पर शासन कर रहे हैं, उस समय [उनके] प्रख्यात वंश के १६१वें वर्ष के भाद्रपद [मास] के १६ वें दिनट ४. [इस दिन] धर्म के निमित्त शङ्खिक राष्ट्र(?) ने भक्तिपूर्वक जिन (बुद्ध) की इन चार प्रतिमाओं को गंगबल पुत्र मधुण से बनवाया। ५. इस कार्य के करने से जो भी परम श्रेयस अक्षय पुण्य हो, वह सभी माता-पिता तथा समस्त प्राणियों को [प्राप्त] हो। टिप्पणी यह अभिलेख जिस पाद पीठिका पर अंकित है, उस पर उत्कीर्ण चार बौद्ध प्रतिमाओं के बनवाकर प्रतिष्ठित किये जाने की उद्घोषणा है। इसकी प्रथम पंक्ति में भगवान बुद्ध को दशबल-बली के रूप में नमस्कार किया गया है। पंक्ति के पूर्वाश में उन बलों (गुणों) का उल्लेख रहा होगा जिनके कारण बुद्ध को दश-बल-बली कहा जाता है। पंक्ति खण्डित होने के कारण यह केवल अनुमान मात्र है। दश-बल-बली के रूप में बुद्ध के दश बल इस प्रकार माने जाते हैं :- स्थान अस्थान के ज्ञान का बल; कर्म-विपाक के ज्ञान का बल; नाना-धातु के ज्ञान का बल; नाना प्रकार की मुक्ति के ज्ञान का बल, सत्व-इन्द्रिय पर अपर के ज्ञान का बल; सर्वत्रगामिनी प्रतिपत्ति के ज्ञान का बल; ध्यान, विमोक्ष, समाधि, समापत्ति का बल; सक्लेश, व्यवधान, व्युत्थान के ज्ञान का बल; च्युत्युत्पत्ति के ज्ञान का बल और आस्रव, क्षय के ज्ञान का बल। दूसरी पंक्ति भी खण्डित है। इससे उसके आशय को समझना सम्भव नहीं हो पाया है। सम्प्रति इतना ही अनुमान किया जा सकता है कि इस पंक्ति में सम्भवतया भगवान बुद्ध की प्रतिमा प्रतिष्ठित करने वाले की प्रशंसा की गयी होगी। अभिलेख का मूल आशय अन्तिम तीन पंक्तियों में है, जिनमें पंक्ति ३ और ४ विशेष महत्त्व है। इसमें मूर्तियों के स्थापित करने अथवा बनवाने वाले के नाम के साथ-साथ शिल्पी का भी नाम है। इस मूर्ति का शिल्पकार गंगवल-पुत्र मघुण था। भारतीय कला के शिल्पियों में अपने को विज्ञापित करने की परम्परा नहीं रही है। वे प्रायः अपने को अज्ञात रखने में ही तुष्ट थे। फिर भी मथुरा-कला के एक-दो शिल्पियों का उल्लेख उनके मूर्ति-लेखों में मिलता है। उसी क्रम में हम यहाँ भी शिल्पी का नामोल्लेख पाते हैं। समकालिक शासक के नामोल्लेख एवं काल चर्चा के कारण मथुरा पादासन-लेख का ऐतिहासिक महत्त्व बढ़ जाता है। यह हमारे सम्मुख एक नया तथ्य प्रस्तुत करता है। अब तक गुप्त वंश से सम्बन्धित अन्तर्वेदी (गंगा-यमुना दोआब) से प्राप्त अन्तिम ज्ञात अभिलेख स्कन्दगुप्त के काल का था जो बुलन्दशहर जिले के इन्दौर ( इंदौर अभिलेख ) नामक ग्राम से प्राप्त हुआ था। उसके आधार पर अब तक यह धारणा रही है कि गुप्त-संवत् १४६ (४६५ ई०) के पश्चात् स्कन्दगुप्त के बाद तत्काल ही गुप्त साम्राज्य सिमटकर बंगाल-बिहार और मध्य प्रदेश कुछ भू-भाग में सीमित हो गया था। गंगा-काँठे में जब-तब बुधगुप्त के चाँदी-सोने के सिक्के अवश्य मिलते रहे हैं। किन्तु उनकी संख्या इतनी अल्प रही है कि मात्र उनके आधार पर इस सम्बन्ध में कोई बात निश्चयपूर्वक कह सकना सम्भव नहीं था। प्रस्तुत लेख के प्रकाश में आने से सिक्कों के प्रमाण को बल प्रदान किया है। अब इस लेख के प्रमाण से निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि इस प्रदेश में स्कंदगुप्त के बाद भी कुछ समय तक, बुधगुप्त के शासनकाल तक तो अवश्य ही, इस भू-भाग पर गुप्त साम्राज्य अक्षुण्ण बना रहा था। बुधगुप्त का सारनाथ बुद्ध-मूर्ति-लेख; गुप्त सम्वत् १५७ ( ४७६-७७ ई० ) पहाड़पुर ताम्रलेख; गुप्त सम्वत् – १५९ ( ४७८ ई० ) राजघाट स्तम्भलेख; गुप्त सम्वत् १५९ ( ४७८ ई० )

मथुरा पादासन-लेख; गुप्त सम्वत् १६१ ( ४८० ई० ) Read More »

राजघाट स्तम्भलेख; गुप्त सम्वत् १५९ ( ४७८ ई० )

भूमिका बुधगुप्त का राजघाट स्तम्भलेख ४ फुट ४ इंच उँचे एक स्तम्भ पर अंकित है। इसके चारों ओर भगवान विष्णु के चार अवतारों की मूर्तियाँ उकेरी गयी हैं। यह स्तम्भ वाराणसी के काशी रेलवे स्टेशन के निकट १९४०-४१ ई० में मिट्टी निकालते समय में प्राप्त हुआ था। सम्प्रति यह काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के ‘भारत कला भवन’ में सुरक्षित रखा गया है। इस स्तम्भलेख की ओर सर्वप्रथम अद्रीश बनर्जी महोदय ने ध्यान दिया तदुपरांत दिनेशचन्द्र सरकार ने इसको प्रकाशित किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- राजघाट स्तम्भलेख स्थान :- राजघाट, वाराणसी; उत्तर प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १५९ (४७८ ई०); बुधगुप्त का शासनकाल विषय :- स्तम्भ स्थापना की सामान्य विज्ञप्ति मूलपाठ १. स[म्वत्] १००(+)५०(+)९ मार्ग्ग-दि [२०] (+) ८ महाराजाधिरा[ज]- २. बुध[गु]प्त-राज्ये पार्वरिक-वास्तव्य-मार- ३. [विष ?] दुहिता (त्रा) साभाटि (?) दुहि[त्रा] च दामस्वा- ४. मि[न्या] शिलास्तम्भ स्था[पि]तः [॥] हिन्दी अनुवाद सम्वत् १५९ मार्ग[शीर्ष] दिन २८। महाराजाधिराज बुधगुप्त के राज्य में पार्वरिक निवासी भार[विष] की पुत्री साभाटि (?) की बेटी दामस्वामिनी द्वारा स्थापित शिलास्तम्भ। टिप्पणी राजघाट स्तम्भलेख स्तम्भ की स्थापना की सामान्य विज्ञप्ति है। इस अभिलेख में स्तम्भ की स्थापना के उद्देश्य की चर्चा नहीं है। प्रस्तर स्तम्भ पर उकेरी गयी भगवान विष्णु की मूर्ति से यह अनुमान किया जाता है कि यह वैष्णव धर्म से सम्बन्धित किसी मंदिर या मंडप में लगाया गया होगा। इसमें तत्कालीन गुप्त सम्राट बुधगुप्त का उल्लेख है और साथ ही गुप्त सम्वत् का भी। बुधगुप्त का सारनाथ बुद्ध-मूर्ति-लेख; गुप्त सम्वत् १५७ ( ४७६-७७ ई० ) पहाड़पुर ताम्रलेख; गुप्त सम्वत् – १५९ ( ४७८ ई० )

राजघाट स्तम्भलेख; गुप्त सम्वत् १५९ ( ४७८ ई० ) Read More »

पहाड़पुर ताम्रलेख; गुप्त सम्वत् – १५९ ( ४७८ ई० )

भूमिका पहाड़पुर ताम्रलेख १९२७ ई० में राजशाही (बंगलादेश) जनपद के अन्तर्गत बादलगाछी थाना के पहाड़पुर नामक स्थान पर उत्खनन किये जाने पर एक महाविहार के ध्वंसावशेष प्रकाश में आये। उस महाविहार के आँगन में एक ताम्रफलक मिला था; उसी पर यह लेख अंकित है। इसे काशीनाथ नारायण दीक्षित ने प्रकाशित किया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- पहाड़पुर ताम्रलेख स्थान :- पहाड़पुर, राजशाही जनपद; बाँग्लादेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १५९ (४७८ ई०); बुधगुप्त का शासनकाल विषय :- जैन धर्म से सम्बन्धित है। मूलपाठ १. स्वस्ति [॥] पुण्ड[वर्द्ध)नादायुक्तका आर्य्यनगर श्रेष्ठि-पुरोगञ्चाधिष्ठानाधिकरणम् दक्षिणांशकवीधेय-नागरिट्ट- २. माण्डलिक-पलाशाट्टपाश्विक-वटगोहाली-जम्बुदेवप्रावेश्य-पृष्ठिमपोत्तक-गोषाट-पुञ्जक- मूलनागरिट्टप्रावेश्य- ३. नित्वगोहालीषु ब्राह्मणोत्तरान्महत्तरादि-कुटुम्बिनः कुशलमनुवर्ण्यानुबोधयन्ति [।] विज्ञापयत्यस्मान्ब्राह्मण-नाथ- ४. शर्मा एतद्भार्य्या रामी च [।] युष्माकमिहाधिष्ठानाधिकरणे द्विदीनारिक्य-कुल्यवापेन शश्वत्कालोपभोग्याक्षयनीवी-समुदयवाह्या- ५. प्रतिकर-खिल क्षेत्रवास्तु-विक्रयो(ऽ) नुवृत्तस्तदर्हथानेनैव क्क्रमेणावयोस्स-काशाद्दीनार- त्रयमुपसङ्गृह्यावयोः स्व-पुण्याप्या- ६. यनाय वटगोहाल्यामवास्याङ्काशिक पञ्चस्तूपनिकायिक निग्रन्थश्रमणाचार्य्य-गुहनन्दि- शिष्यप्रशिष्याधिष्ठित-विहारे- ७. भगवतामर्हतां गन्ध-धूप-सुमनो-दीपाद्यर्थन्तलवाटक-निमित्तञ्च अ(तः) एव वटगोहालीतो वास्तु-द्रोणवापमध्यर्द्धञ्ज- ८. म्बुदेवप्रावेश्य-पृष्ठिमपोत्तकेत्क्षेत्रं द्रोणवाप-चतुष्टयं गोषाटपुञ्जाद्रोणवाप चतुष्टयम् मूलनागरिट्ट- ९.प्रावेश्य नित्यगोहालीतः अर्द्धत्रिक द्रोणवापानित्येवमध्यर्द्ध क्षेत्र-कुल्य-वापमक्षयनीव्या दातुमि[ति] [।]यतः प्रथम- १०. पुस्तपालदिवाकरनन्दि पुस्तपालधृतिविष्णु-विरोचन-रामदास हरिदास-शशिनन्दि [सु] प्रभ-मनुद[त्ताना]मवधारण- ११. यावधृतम् अस्त्यरमदधिष्ठानाधिकरणे द्विदीनारिक्य-कुल्यवापेन शश्व-त्कालोपभोग्या- क्षयनीवी-समु[दय] वाह्या-प्रतिकर- १२. [खिल]क्षेत्रवास्तु-विक्रयो(ऽ) नुवृत्तस्तद्युष्माम्ब्राह्मण नाथशर्मा एतद्भार्य्या रामी च पलाशाट्टपाश्विक वटगोहाली-स्थ[ायि]- १३. [काशि]क-पञ्चस्तूपकुलनिकायिक-आचार्य-निग्रन्थ-गुहनन्दि-शिष्यप्रशिष्याधिष्ठित-सद्विहारे अरहतां गन्ध-[धूप]द्युपयोगाय १४. [तल-वा]टक-निमित्तञ्च तत्रैव वटगोहाल्यां वास्तु-द्रोणवापमध्यर्द्ध क्षेत्रञ्जाम्बुदेवप्रावेश्य- पृष्ठिमपोत्तके द्रोणवाप-चतुर्ष्ट्य १५. गोषाटपुञ्जाद्द्रोणवाप-चतुष्टयं मूलनागरिट्ट-प्रावेश्य नित्वगोहालीतो द्रोणवाप-द्वय-माढवा[प-द्व]याधिकमित्येवम- १६. ध्यर्द्ध क्षेत्र-कुल्यवापम्प्रार्थयते(ऽ) त्र न कश्चिद्विरोधः गुणस्तु यत्परम-भट्टारक- पादानामर्त्योपचयो धर्म षड्भागाप्याय १७. नञ्च   भवति [॥] तदेवङ्क्रियतामित्यनेनावधारणा क्क्रमेणास्माद्ब्राह्मणनाथशर्म्मत एतद्भार्य्यारामियाश्च दीनार-त्र- १८. यमीयीकृत्यैताभ्यां विज्ञापितक-क्रमोपयोगायोपरि-निद्दिष्ट ग्राम गोहालिकेषु तलवाटकं वास्तुना सह क्षेत्रं १९. कुल्यवापः अध्यर्द्धा(S) क्षय-नीवी-धर्मेण दत्तः [।] कु १ द्रो ४ [।] तद्युष्माभिः स्व- कर्षणाविरोधि-स्थाने षट्कडैरप- २०. विञ्छ्य दातव्यो(ऽ)क्षय-नीवी-धर्मेण च शश्वदाचन्द्रार्कतारक-काल-मनुपालयितव्य इति[॥] सम् १००(+)५०(+)९ २१. माघ-दि ७ (।) उक्तञ्च भगवता व्यासेन[।] स्व दत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धराम्[।] २२. स विष्ठायां क्रिमिर्भूत्वा पितृभिस्सह पच्यते[।] षष्टि वर्षसहस्राणि स्वर्गे वसति भूमिदः। २३. आक्षेप्ता चानुमन्ता च तान्येव नरके वसेत्[॥] राजभिर्व्वहु-भिर्दत्ता दीयते च पुनः पुनः [।] यस्य यस्य- २४.           यदा भूमि तस्य तस्य तदा फलम् [॥] पूर्व्व दत्तां द्विजातिभ्यो यत्नाद्रक्ष युधिष्ठिर[।] महीम्महीमतां श्रेष्ठ २५.             दानाच्छ्रेयो(ऽ) नुपालनं[॥] विन्ध्याटवीष्वनम्भस्सु शुष्क कोटर-वासिनः[।] कृष्णाहिनो हि जायन्ते देव-दायं हरन्ति ये[॥] हिन्दी अनुवाद स्वस्ति। पुण्ड्रवर्धन के आयुक्त, प्रधान (आर्य) नगरश्रेष्ठि, पुरोग तथा अधिकरण के लोग दक्षिणांश बीथी [अन्तर्गत] नागरिक मण्डल [में स्थित] पलाशाट्ट के निकट (पार्श्व) में स्थित वटगोहाली, जम्बुदेव में सम्मिलित (प्रावेश्य) पृष्टिमपीत्तक, गोपाट-पुंजर, मूलनागरिक में सम्मिलित (प्रावैश्य) नित्यगोहाली के ब्राह्मण एवं महत्तर आदि की कुशलकामना करते हुए सूचित करते हैं – हमसे ब्राह्मण नाथशर्मा और उनकी पत्नी रामी ने निवेदन किया है कि हमारे महाधिष्ठान- के अन्तर्गत दो दीनार प्रति कुल्यवाप की दर से शाश्वत काल के उपभोग के लिये अक्षय-नीवि के रूप में समुदयबाह्य अप्रतिकर खिल क्षेत्र और मकान बनाने की भूमि (वास्तु) उपलब्ध हैं। अतः हमसे तीन दीनार लेकर हमारे पुण्य [कार्य] के निमित्त काशी के पंच स्तूप-निकाय के निग्रन्थ श्रमणाचार्य गुहनन्दि के शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा वटगोहाली में प्रतिष्ठापित विहार में [स्थापित] भगवान् अर्हत के गन्ध, धूप, पुष्प, दीप आदि के लिए तथा तलवाटक के निमित्त वटगोहाली में डेढ़ द्रोण वास्तु (गृह-निर्माण योग्य भूमि)जम्बुदेव में सम्मिलित (प्रावेश्य) पृष्ठिमपीत्तक में चार द्रोणवाप क्षेत्र, गोषाट-पुंज में चार द्रोणवाप क्षेत्र तथा मूलनागरिड में सम्मिलित (प्रावेश्य) नित्यगोहाली में ढाई द्रोणवाप क्षेत्र, इस प्रकार डेढ़ कुल्यवाप भूमि दी जाय। अतः प्रथम पुस्तपाल दिवाकरनन्दि, पुस्तपाल धृतिविष्णु, विरोचन, रामदास, शशिनन्द, सुप्रभ और मनुदत्त से जाँच करने पर ज्ञात हुआ कि हमारे अधिकरण के अन्तर्गत दो दीनार प्रति कुल्यवाप की दर से शाश्वत काल के भोग के निमित्त अक्षय-नीवि के लिए समुदयबाह्य, अप्रतिकर, खिल क्षेत्र और वास्तु विक्रय की जाती है। तदनुसार ब्राह्मण नाथशर्मा और उसकी पत्नी रामी को पलाशाट्ट के निकट (पाव) स्थित वटगोहाली में काशी के पंच स्तूप-कुल-निकाय के आचार्य निग्रन्थ (जैन साधु) गुहनन्दि के शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा प्रतिष्ठापित बिहार में स्थापित अर्हत के गन्ध-धूप आदि के उपयोग तथा तलवाटक के निमित्त उसी वटगोहाली में डेढ़ द्रोणवाप वास्तु (मकान बनाने की भूमि), जम्बुदेव में सम्मिलित पृष्ठिपोत्तक में चार द्रोणवाप क्षेत्र, गोघाट-पुंज में चार द्रोणवाप क्षेत्र और मूलनागरिट्ट में सम्मिलित नित्यगोहाली में दो द्रोणवाप दो आढवाप क्षेत्र, कुल डेढ़ द्रोणवाप दिये जाने में किसी प्रकार की कोई आपत्ति नहीं है। इससे तो परमभट्टारक को इससे होनेवाले धर्म (पुण्य) के छठे भाग का लाभ ही होगा। ऊपर लिखित बातों में से प्रत्येक की जानकारी प्राप्त करके हम ब्राह्मण नाथशर्मा और उसकी पत्नी रामी से तीन दीनार लेकर घोषित करते हैं कि अक्षय-नीवी-धर्म के अनुसार उपर्युक्त विवरण में निर्दिष्ट ग्राम गोहाली आदि में डेढ़ द्रोणवाप तलवाटक वास्तु सहित भूमि दी गयी। कु १ द्रो ४ स्वकर्षण-अविरोधी स्थान (जहाँ किसीकी खेतिहर भूमि नहीं है) में षट्क-नल से नापकर अक्षय-नीवी-धर्म के निमित्त भूमि दी गयी। शाश्वत काल तक, जब तक चन्द्र, सूर्य, तारे रहें इसका प्रालन किया जाय। इति॥ सम्वत् १५९ माघ मास दिवस ७। भगवान् व्यास ने कहा है — हे युधिष्ठिर ! पूर्वकाल में ब्राह्मणों को दिये हुए दान की रक्षा करो। पृथ्वी पर दान देने से श्रेष्ठ दान का अनुपालन है। देवताओं को दिये हुए दान का जो अपहरण करता है, वह काले साँप के रूप में जन्म लेकर विन्ध्य के जंगल में सूखे वृक्ष के कोटर में वास करता है। टिप्पणी यह लेख अन्य लेख के समान ही अक्षय-नीवी-धर्म के अन्तर्गत भू-विक्रय की घोषणा है। द्रष्टव्य इतना ही है कि बैग्राम ताम्र-लेख की तरह ही इसमें भी शासक का नामोल्लेख नहीं हुआ है। किन्तु उत्तरवर्ती वर्ष १६३ के लेख में शासक के रूप में बुधगुप्त का उल्लेख प्राप्त है। उसके आधार पर इस लेख को भी निश्चितरूपेण उसी के काल का कहा जा सकता है। इस लेख में कतिमय ग्रामों का जम्बुदेव-प्रावेश्य पृष्ठिमपोत्तक और मूलनागरिट्ट प्रावेश्य- नित्वगोहाली के रूप में उल्लेख हुआ है। इसमें प्रावेश्य शब्द स्पष्टीकरण की अपेक्षा रखता है प्रावेश्य का तात्पर्य ऐसे छोटे ग्राम से है जो कर-व्यवस्था के निमित्त पास के बड़े ग्राम में सम्मिलित समझा जाता था । इस प्रकार पृष्ठिमपोत्तक जम्बुदेव नामक ग्राम और नित्वगोहाली मूलनागरिट्ट ग्राम में सम्मिलित था । बुधगुप्त का सारनाथ बुद्ध-मूर्ति-लेख; गुप्त सम्वत् १५७ ( ४७६-७७ ई० )

पहाड़पुर ताम्रलेख; गुप्त सम्वत् – १५९ ( ४७८ ई० ) Read More »

बुधगुप्त का सारनाथ बुद्ध-मूर्ति-लेख; गुप्त सम्वत् १५७ ( ४७६-७७ ई० )

भूमिका बुधगुप्त कालीन सारनाथ बुद्ध-मूर्ति-लेख १९१४-१५ ई० में पुरातात्त्विक स्थल सारनाथ के उत्खनन के समय मिली है। सारनाथ को प्राचीन काल में ऋषिपत्तन और मृगदाव भी कहा जाता था। भगवान बुद्ध ने अपना पहला धर्मोपदेशक यहीं दिया था। सारनाथ से ही इसी अभिलेख के साथ में कुमारगुप्त (द्वितीय) के लेख वाली मूर्ति भी मिली है। ये अब सारनाथ संग्रहालय में हैं। इन दोनों ही मूर्तियों पर समान रूप से एक ही लेख है। यह लेख दोनों मूर्तियों पर खण्डित है। पर दोनों लेखों को साथ देखने पर पूरा लेख संरक्षित किया जा सकता है। इन लेखों को एच० हारग्रीव्ज महोदय ने प्रकाशित किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- बुधगुप्त का सारनाथ बुद्ध-मूर्ति-लेख [ Sarnath Buddha Idol Inscription of Budhagupta ] स्थान :- सारनाथ, वाराणसी जनपद; उत्तर प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १५७ (४७६-७७ ई०); बुधगुप्त का शासनकाल विषय :- यह भिक्षु अभयमित्र द्वारा भगवान बुद्ध की मूर्ति निर्माण एवं प्रतिष्ठापन का घोषणापत्र है। मूलपाठ १. गुप्ता [नां] समतिक्कान्तो सप्तपंचाशदुत्तरे [।] शते समानां पृथिवीं बुधगुप्ते प्रशासति [॥] [वैशाख-मास-सप्तम्यां मूलेश्म-प्रगते] २. मया [।] कारिताभयमित्रेण प्रतिमा शाक्य-भिक्षुणा ॥ इमामु[द्दण्ड-सच्छ]त्र पद्मास[न-विभूषितां] [।] [देवपुत्रवतो दिव्यां] ३. चित्रवि[न्या]स-चित्रितां ॥ यदस्ति पुण्यं प्रतिमां कारयित्वा ममास्तु तत् [माता- [पित्रोर्गुरूणां च लोकस्य च समाप्तये ॥] हिन्दी अनुवाद गुप्त शासकों के वर्ष १५७ बीत जाने पर, जिन दिनों बुधगुप्त का पृथ्वी पर शासन है, वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को मूल नक्षत्र में, अभयमित्र ने शाक्य-भिक्षु (बुद्ध) की प्रतिमा स्थापित की जो दण्ड, छत्र से विभूषित कमलासन है। यह दैव-पुत्रों के समान दिव्य है और चित्रविन्यास के अनुसार चित्रित है (अर्थात् इसका निर्माण शिल्पशास्त्रों में निर्धारित प्रतिमा-मान के अनुसार हुआ है)। इस प्रतिमा के निर्माण से जो पुण्य लाभ मुझे हो वह सब माता, पिता, गुरु तथा लोक को समर्पित है। टिप्पणी यह छत्र-दण्ड युक्त पद्मासन बुद्धमूर्ति के, जिस पर यह लेख अंकित है, निर्माण एवं प्रतिष्ठापन का सामान्य घोषणापत्र है। इस मूर्ति की भी स्थापना कुमारगुप्त द्वितीय कालीन सारनाथ बुद्ध-मूर्ति अभिलेख की ही तरह भिक्षु अभयमित्र ने की थी। परन्तु यह उससे लगभग तीन वर्ष बाद की है। इस लेख का ऐतिहासिक महत्त्व बुधगुप्त के नाम और उनके शासन-काल के उल्लेख में निहित है। यह बुधगुप्त के शासन काल की अभिव्यक्ति करनेवाला अद्यतम लेख है अर्थात् बुधगुप्त का शासनारम्भ गुप्त सम्वत् १५७ ( ४७६-७७ ई० ) माना जा सकता है।

बुधगुप्त का सारनाथ बुद्ध-मूर्ति-लेख; गुप्त सम्वत् १५७ ( ४७६-७७ ई० ) Read More »

पूरुगुप्त-पुत्र का बिहार स्तम्भ-लेख

भूमिका बिहार स्तम्भ-लेख एक प्रस्तर-स्तम्भ पर अंकित है जो बिहार (पटना) के प्राचीन दुर्ग के उत्तरी द्वार पर पड़ा हुआ मिला था। इसे बिहार के मजिस्ट्रेट ए० एम० ब्राडले उठा लाये और बिहार कचहरी के सामने एक चबूतरे पर उल्टा खड़ा कर दिया और उस पर आँग्ल भाषा में एक लेख अंकित कर दिया था। बाद में वह एक मकान की छत का सहारा बन गया। तदुपरान्त वहाँ से वह पटना संग्रहालय में आया और अब वहीं सुरक्षित रखा है। इसे १८३९ ई० में रैवनशा ने ढूँढ निकाला था। १८६६ ई० में राजेन्द्रलाल मित्र ने इस लेख की छाप मिट्टी में तैयार कराकर पकवायी और फिर उस पकी हुई मिट्टी की छाप से इस लेख प्रतिलिपि तैयार कर इसका पाठ प्रकाशित किया। तत्पश्चात् कनिंघम महोदय ने स्वतः तैयार किये हुए छाप के आधार पर इसका अपना पाठ प्रकाशित किया। तदनन्तर जे० एफ० फ्लीट ने इसका सम्पादन करके Corpus Inscriptionum Indicarum में किया। बाद में रमेशचन्द्र मजूमदार ने फ्लीट महोदय की कतिपय भूलों की ओर ध्यान आकृष्ट किया था। इधर कुछ विद्वानों ने इसके पाठ पर पुनर्विचार किया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- बिहार स्तम्भ-लेख स्थान :- बिहार, पटना; बिहार भाषा :- संस्कृत लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी समय :- गुप्तकालीन, शासक का स्पष्ट अनुमान करना कठिन, इससे इतना ही स्पष्ट होता है कि यह पूरुगुप्त के पुत्र अभिलेख है। विषय :- गुप्त राजवंशावली, प्रशासन का विवरण, सम्भवतः किसी मंदिर का निर्माण व अक्षयनीवी दान। अन्यंत क्षतिग्रस्त होने के कारण विषय अनुमान आधारित। मूलपाठ (१) १. ……. — ……. — ……. ……… —  — ……… ……. — ……. — ……. ……… —  — ……… [।] नृ-चन्द्र इन्द्रानुज-तुल्य-वीर्यो गुणैरतुल्यः ……. — ……. — ……. ……… — [॥] १ २. ……. — ……. — ……. ……… —  — ……… ……. — ……. — ……. ……… —  — ………[।] तस्यापि सूनुर्भुवि स्वामि-नेयः ख्यातः स्वकीत्या ……. — ……. — ……. ……… —  — [॥] २ ३. ……. — ……. — ……. ……… —  — ……… ……. — ……. — ……. ……… —  — ……… [।] [स्व]सैव यस्यातुल-विक्रमेण कुमारगु[प्तेन] ……. — ……. — ……. ……… —  — ……… [॥] ३ ४. ……. — ……. — ……. ……… —  — ……… ……. — ……. — ……. ……… —  — ……… [।] [पि]त्रिंश्च देवांश्च हि हव्य-कव्यैः सदा नृशंस्यादि ……. — ……. — ……. ……… — — [॥] ४ ५. ……. — ……. — ……. ……… —  — ……… ……. — ……. — ……. ……… —  — ……… [।] [अ]चीकरद्देवनिकेत-मंडलं क्षितावनौपम्य ……. — ……. — ……. ……… —  — ……… [॥] ५ ६. ………….. [बटे ?] किल[।] स्तम्भ-वरोच्छिय-प्रभास तु मण्ड …………………………….. [॥] ६ ७. ………….. भिर्वृक्षाणां [।] कुसुम-भरानताग्र-[शुंग ?]-व्यालम्ब-स्तवक ……………….. [॥] ७ ८. ……. — ……. — ……. ……… —  — ……… ……. — ……. — ……. ……… —  — ……… [।] भद्रार्य्य्या भाति गृहं नवाभ्रनिर्म्मोक-निर्मु[क्त] ……. — ……. — ……. ……… —  — [॥] ८ ९. ……. — ……. — ……. ……… —  — ……… ……. — ……. — ……. ……… —  — … [।] स्कन्द-प्रधानैर्भुवि मातृभिश्च लोकान्स सुष्य (?) ……. — ……. — ……… —  — [॥] ९ १०. ……. — ……. — ……. ……… —  — ……… ……. — ……. — ……. ……… —  — ……… ……. — ……. — ……. ……… — ……. ……… —  — ………    यपोच्छयमेव चक्क्रे [॥] १० भद्रार्य्यादि  —  —  —  — — ११. ……………. न्द्रगुप्त-बटे अन्शानि ३०(+)५ ता(?) म्रकराकु(?): कल ……….. १२. —  —  —  — पितुः स्वामातुर्य्यद्दस्ति हि दुष्यकृतं भवतु तत्रे — — १३. …………. काग्रहारे अन्शानि ३ अनन्तसेननोप ………….. X   X   X   ( २) १४. ……….. [सर्व्व-राजोच्छे]त्तुः प्रिथिव्यामप्रतिरथस्य १५. [चतुरुदधि-सलिलास्वादित-यशसो धनद-वरुणेन्द्रान्तक-समस्य कृतान्त-] १६. [परशोः न्यायागतानेक गो-हिरण्य-कोटि-प्रदस्य चिरो]त्सन्नाश्वमेधाहर्तुः १७. [महाराज-श्रीगुप्त-प्रपौत्रस्य महाराज श्रीघटो]त्कच-पौत्रस्य महाराजा- १८. [घिराज-श्रीचन्द्रगुप्त-पुत्रस्य लिच्छवि दौहित्रस्य म]हादेव्यां कुमारदेव्यामुत्पन्नस्य १९. [महाराजाधिराज-श्रीसमुद्रगुप्तस्य पुत्र]स्तत्परिगृहीतो महादेव्यां २०. [दत्तदेव्यामुत्पन्नः स्वयं चाप्रतिरथः पर]मभागवतो महाराजा- २१. [धिराज-श्रीचन्द्रगुप्तस्तस्य पुत्रस्तत्पादानुर्द्ध्या]तो महादेव्यां ध्रुवदेव्या- २२. [मुत्पन्नः परम-भागवतो महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तस्तस्य]पुत्रस्तत्पादानुयातः – २३. [महादेव्यमनन्तदेव्यामुत्पन्नो परम-भागवतो महाराजाधिराज-श्रीपूरु]गुप्तः [।।] २४. तत्पुत्रस्तत्पादानुध्यायतः महादेव्यां …….. देव्यामुत्पन्नो] परमभागवतो २५. [महाराजाधिराज-श्री …….. गुप्तः] ……… [राजगृह] [वै]षयिकाजपुरक-सामै [ग्राम]- २६. ……… ग्रा …….. क …. [अ]क्षय-नीवी ग्रामक्षेत्रं २७. ……… [अधि]कृ[त] उपरिक-कुमारामात्प- २८. ……… [औद्र]ङ्गि[क]कुलः वणि[ज]क पादितारिक- २९. …….. [आ]ग्रहारिक-शौल्किक-गौल्मिकास[न]न्यांश्च- ३०. …….. वा[सि]कादीनस्मत्प्रसादोपजीविनः ३१. [कुशलमाशंस्य समाज्ञापयति] …… वर्म्मणा विज्ञापितो(ऽ)स्मि मम पितामहेन ३२. [पुण्याभिद्धये] …… भट्ट-गुहिलस्वामिना भद्रा [र्य्य का] ३३. …….. [प्र]ति[ष्ठापिता] ….. आग्रोकय ….. नाकय ….. हिन्दी अनुवाद ( १ ) १. …….. मनुष्यों में चन्द्रस्वरूप, शक्ति में इन्द्र के अनुज (विष्णु) के समान गुणों में अनुपम। २. तदुपरि, पृथ्वी पर (अपने) स्वामी के प्रति भक्त उसका पुत्र, अपने यश से सुविख्यात ……. ३. जिसकी [बहन] अतुलनीय पराक्रम वाले कुमारगुप्त की [परिणीता थी]। ४. …….. हव्य (देवताओं के निमित्त दी गयी आहुति) और कव्य (पितरों के निमित्त दी गयी आहुति) से युक्त …… सदैव मनुष्यों के लिये हानिकर वस्तुओं …… ५. ……. मन्दिर-समूह को बनवाया जिनकी विश्व के किसी वास्तु से तुलना नहीं हो सकती। ६. ……. निश्चित ही इसमें …….. जो कि इस उत्कृष्ट स्तम्भ की स्थापना से सुन्दर है। ७. ………. उदुम्बर और एरण्ड वृक्षों के समूह, जिनके सिरे अपने पुष्प-भारों से झुके हुए हैं। ८. ………. भद्रार्थ्य (की उपस्थिति) से ……. गृह प्रकाशमान है; नूतन मेघों से आच्छादित आकाश ……. ९. ……… पृथ्वी पर स्कन्द तथा मातृकाओं के नेतृत्व में …….. मनुष्य १०. …… इस यूप की स्थापना करायी …… भद्रार्थ तथा अन्य …… १२. …… गुप्तवाट नामक ग्राम में ३० तथा ५ अंश ……. १३. ….. के अग्रहार में ……. ३ अंश …… अनन्तसेन द्वारा। ( २ ) सब राजाओं के उन्मूलक, पृथ्वी पर अप्रतिरथ (जिसके समान पृथ्वी पर अन्य कोई न हो), चारों समुद्रों के जल से आस्वादित कीर्तिवाले, कुबेर (धनद), वरुण, इन्द्र तथा यम (अन्तक) के समान, कृतान्त के परशु-तुल्य, न्याय से उपलब्ध अनेक गो और कोटि हिरण्य (सिक्के) के दान-दाता, चिरोत्सन्न-अश्वमेधहर्ता, महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के पुत्र, लिच्छवि-दौहित्र महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त। (१४-१६) उनके पुत्र परिगृहीत महादेवी दत्तदेवी से उत्पन्न अप्रतिरथ परमभागवत महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त। (१६-२१) उनके पुत्र, पादानुध्यात, महादेवी ध्रुवदेवी से उत्पन्न परमभागवत महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त। (२१-२२) उनके पुत्र पादानुध्यात महादेवी अनन्तदेवी से उत्पन्न परमभागवत महाराजाधिराज श्री पूरुगुप्त। २२-२३ उनके पुत्र, पादानुध्यात महादेवी …… से उत्पन्न परमभागवत श्री ….. गुप्त। २४ [राजगृह] विषय के अजपुर ग्राम …… के अक्षय-नीवी ग्राम क्षेत्र के ….. उपरिक, कुमारामात्य, ….वणिजक, पादितारिक ……. आग्रहारिक, शौल्किक, गौल्मिक ……. वासिक

पूरुगुप्त-पुत्र का बिहार स्तम्भ-लेख Read More »

सारनाथ बुद्ध-मूर्ति लेख; गुप्त सम्वत् १५४ ( ४७३ ई० )

भूमिका सारनाथ बुद्ध-मूर्ति लेख १९१४-१५ ई० में सारनाथ (वाराणसी) के पुरातात्त्विक उत्खनन में प्राप्त एक बुद्ध मूर्ति के आसन पर अंकित है। वर्तमान में यह सारनाथ संग्रहालय में है। इस अभिलेख को एच० हारग्रीव्ज ने प्रकाशित किया है। संक्षिप्त विवरण नाम :- सारनाथ बुद्ध-मूर्ति लेख स्थान :- सारनाथ, वाराणसी जनपद; उत्तर प्रदेश भाषा :-  संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् १५४ ( ४७३ ई० ), कुमारगुप्त ( द्वितीय ) का शासनकाल विषय :- यती अभयमित्र द्वारा पूजनार्थ भगवान बुद्ध की मूर्ति स्थापित की गयी। मूलपाठ १. वर्ष शते गुप्तानां सचतुःपञ्चाशदुत्तरे [।] भूमिं रक्षति कुमारगुप्ते मासि ज्येष्ठे [द्वितीया]याम्॥ २. भक्तयावर्ज्जित-मनसा यतिना पूजार्त्थमभयमित्रेण॥ प्रतिमाप्रतिमस्य गुणै[र] प[रे]यं [का]रिता शास्तुः॥ ३. माता-पितृ-गुरु-पू[र्व्वै] पुण्येतानेन सत्व-कायो(ऽ)यं॥ लभतामभिमतमुपशम-महावह — — प्रयाम्॥ अनुवाद गुप्त [शासकों] के वर्ष १५४ में [जिस समय] कुमारगुप्त भूमि की रक्षा कर रहे थे, ज्येष्ठ मास की द्वितीया को पूर्ण भक्ति और मनोयोग से बुद्ध की यह प्रतिमा यती अभयमित्र द्वारा पूजनार्थ स्थापित की गयी। मेरे इस सत्कार्य से होनेवाला पुण्य माता-पिता, गुरु [और] पूर्वजों को भी प्राप्त हो, वे मोक्ष प्राप्त करें। विश्लेषण यह लेख उस बुद्ध मूर्ति की स्थापना की सामान्य विज्ञप्ति है जिस पर यह अंकित है। उसे भिक्षु अभयमित्र ने प्रतिष्ठित किया था। इसमें उल्लिखित गुप्त-वंशीय शासक कुमारगुप्त के नाम और उसके शासन वर्ष के उल्लेख के कारण ही सारनाथ बुद्ध-मूर्ति लेख का ऐतिहासिक महत्त्व है। इस लेख के मिलने से पहले भीतरी से एक धातु-मुद्रा प्राप्त हुई थी। उससे पुरुगुप्त, नरसिंहगुप्त और कुमारगुप्त के नाम प्रकाश में आये और गुप्त वंश में दो कुमारगुप्तों के होने की जानकारी प्राप्त हुई थी। उसके कारण वंश और शासन-क्रम के सीधे-सादे इतिहास में उलझन उपस्थित हो गयी। सारनाथ बुद्ध-मूर्ति लेख मिलने पर रमेशचन्द्र मजूमदार ने भीतरी मुद्रा-लेख के कुमारगुप्त की, इस लेख के कुमारगुप्त के रूप में पहचान की और इस प्रकार उन्होंने पुरुगुप्त के पौत्र कुमारगुप्त का समय गुप्त सम्वत् १५४ निर्धारित किया। तदन्तर क्रमादित्य विरुद अंकित कुमारगुप्त के कतिपय सिक्कों का प्रचलन-कर्ता इसी कुमारगुप्त को माना गया। इसी लेख के साथ एक अन्य बुद्ध-मूर्ति लेख प्राप्त हुआ। उसने कुमारगुप्त के शासनकाल की अन्तिम सीमा गुप्त सम्वत् १५७ बाँध दी। स्कन्दगुप्त के शासन की अन्तिम सीमा, इन्दौर ताम्र-लेख के अनुसार गुप्त संवत् १४६ ज्ञात हो चुकी थी। फलतः इस अभिलेख के कुमारगुप्त को ‘भीतरी व नालंदा मुद्रा-अभिलेख’ का कुमारगुप्त अनुमान किये जाने का अर्थ यह हुआ कि गुप्त सम्वत् १४६ और १५७ के बीच तीन शासक — पूरुगुप्त, नरसिंहगुप्त और कुमारगुप्त ने, या यों कहें कि १४६ और १५४ के बीच ८-६ वर्ष के काल में दो शासक — पुरुगुप्त और नरसिंहगुप्त ने शासन किया। इतने अल्पकाल में २ या ३ शासकों के शासन की बातों ने लोगों को उलझन में डाल दिया था। इस उलझन को दामोदरपुर ताम्रलेख ( गुप्त सम्वत् २२४ ) ने प्रकाश में आकर और बढ़ा दी उससे कुमारगुप्त के पुत्र विष्णुगुप्त का परिचय मिला और १५४ और १५७ के बीच एक नहीं दो शासकों की बात सामने आयी। इस प्रकार गुप्त सम्वत् १४६ और १५७ के बीच के काल में चार शासकों के होने न होने के प्रश्न को लेकर विद्वानों ने नाना प्रकार के मत प्रतिपादित किये। इस उलझनपूर्ण स्थिति का निराकरण अब सुवर्ण-मुद्राओं के लेख एवं भार-मान तथा धातु के विवेचन से हो पाया है। अब यह स्पष्ट हो गया है कि पुरुगुप्त और उसके वंशज, गुप्त-शासन के अन्तिम काल के शासक हैं। इस अभिलेख में उल्लिखित शासक कुमारगुप्त ने अकेले १४६ और १५७ के बीच राज्य किया होगा अधिक-से-अधिक आरम्भ में एक-दो वर्ष के लिए किसी अन्य के शासक होने की सम्भावना प्रकट की जा सकती है। अन्त में यह उल्लेख उचित होगा कि इसी कुमारगुप्त के शासन-काल में दशपुर (मन्दसौर) स्थित तन्तुवायों की श्रेणी द्वारा बनवाये गये सूर्य-मन्दिर का संस्कार हुआ था ( मन्दसौर अभिलेख ) साथ ही मन्दसौर से ही प्राप्त एक अन्य लेख ( मन्दसौर अभिलेख मालव सम्वत् ५२४ ) को भी इसी काल का अनुमान किया जाता है। बुधगुप्त का सारनाथ बुद्ध-मूर्ति-लेख

सारनाथ बुद्ध-मूर्ति लेख; गुप्त सम्वत् १५४ ( ४७३ ई० ) Read More »

Scroll to Top