पहाड़पुर ताम्रलेख; गुप्त सम्वत् – १५९ ( ४७८ ई० )

भूमिका

पहाड़पुर ताम्रलेख १९२७ ई० में राजशाही (बंगलादेश) जनपद के अन्तर्गत बादलगाछी थाना के पहाड़पुर नामक स्थान पर उत्खनन किये जाने पर एक महाविहार के ध्वंसावशेष प्रकाश में आये। उस महाविहार के आँगन में एक ताम्रफलक मिला था; उसी पर यह लेख अंकित है। इसे काशीनाथ नारायण दीक्षित ने प्रकाशित किया है।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- पहाड़पुर ताम्रलेख

स्थान :- पहाड़पुर, राजशाही जनपद; बाँग्लादेश

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी

समय :- गुप्त सम्वत् १५९ (४७८ ई०); बुधगुप्त का शासनकाल

विषय :- जैन धर्म से सम्बन्धित है।

मूलपाठ

१. स्वस्ति [॥] पुण्ड[वर्द्ध)नादायुक्तका आर्य्यनगर श्रेष्ठि-पुरोगञ्चाधिष्ठानाधिकरणम् दक्षिणांशकवीधेय-नागरिट्ट-

२. माण्डलिक-पलाशाट्टपाश्विक-वटगोहाली-जम्बुदेवप्रावेश्य-पृष्ठिमपोत्तक-गोषाट-पुञ्जक- मूलनागरिट्टप्रावेश्य-

३. नित्वगोहालीषु ब्राह्मणोत्तरान्महत्तरादि-कुटुम्बिनः कुशलमनुवर्ण्यानुबोधयन्ति [।] विज्ञापयत्यस्मान्ब्राह्मण-नाथ-

४. शर्मा एतद्भार्य्या रामी च [।] युष्माकमिहाधिष्ठानाधिकरणे द्विदीनारिक्य-कुल्यवापेन शश्वत्कालोपभोग्याक्षयनीवी-समुदयवाह्या-

५. प्रतिकर-खिल क्षेत्रवास्तु-विक्रयो(ऽ) नुवृत्तस्तदर्हथानेनैव क्क्रमेणावयोस्स-काशाद्दीनार- त्रयमुपसङ्गृह्यावयोः स्व-पुण्याप्या-

६. यनाय वटगोहाल्यामवास्याङ्काशिक पञ्चस्तूपनिकायिक निग्रन्थश्रमणाचार्य्य-गुहनन्दि- शिष्यप्रशिष्याधिष्ठित-विहारे-

७. भगवतामर्हतां गन्ध-धूप-सुमनो-दीपाद्यर्थन्तलवाटक-निमित्तञ्च अ(तः) एव वटगोहालीतो

वास्तु-द्रोणवापमध्यर्द्धञ्ज-

८. म्बुदेवप्रावेश्य-पृष्ठिमपोत्तकेत्क्षेत्रं द्रोणवाप-चतुष्टयं गोषाटपुञ्जाद्रोणवाप चतुष्टयम्

मूलनागरिट्ट-

९.प्रावेश्य नित्यगोहालीतः अर्द्धत्रिक द्रोणवापानित्येवमध्यर्द्ध क्षेत्र-कुल्य-वापमक्षयनीव्या

दातुमि[ति] [।]यतः प्रथम-

१०. पुस्तपालदिवाकरनन्दि पुस्तपालधृतिविष्णु-विरोचन-रामदास हरिदास-शशिनन्दि

[सु] प्रभ-मनुद[त्ताना]मवधारण-

११. यावधृतम् अस्त्यरमदधिष्ठानाधिकरणे द्विदीनारिक्य-कुल्यवापेन शश्व-त्कालोपभोग्या-

क्षयनीवी-समु[दय] वाह्या-प्रतिकर-

१२. [खिल]क्षेत्रवास्तु-विक्रयो(ऽ) नुवृत्तस्तद्युष्माम्ब्राह्मण नाथशर्मा एतद्भार्य्या रामी च पलाशाट्टपाश्विक वटगोहाली-स्थ[ायि]-

१३. [काशि]क-पञ्चस्तूपकुलनिकायिक-आचार्य-निग्रन्थ-गुहनन्दि-शिष्यप्रशिष्याधिष्ठित-सद्विहारे अरहतां गन्ध-[धूप]द्युपयोगाय

१४. [तल-वा]टक-निमित्तञ्च तत्रैव वटगोहाल्यां वास्तु-द्रोणवापमध्यर्द्ध क्षेत्रञ्जाम्बुदेवप्रावेश्य- पृष्ठिमपोत्तके द्रोणवाप-चतुर्ष्ट्य

१५. गोषाटपुञ्जाद्द्रोणवाप-चतुष्टयं मूलनागरिट्ट-प्रावेश्य नित्वगोहालीतो द्रोणवाप-द्वय-माढवा[प-द्व]याधिकमित्येवम-

१६. ध्यर्द्ध क्षेत्र-कुल्यवापम्प्रार्थयते(ऽ) त्र न कश्चिद्विरोधः गुणस्तु यत्परम-भट्टारक- पादानामर्त्योपचयो धर्म षड्भागाप्याय

१७. नञ्च   भवति [॥] तदेवङ्क्रियतामित्यनेनावधारणा क्क्रमेणास्माद्ब्राह्मणनाथशर्म्मत एतद्भार्य्यारामियाश्च दीनार-त्र-

१८. यमीयीकृत्यैताभ्यां विज्ञापितक-क्रमोपयोगायोपरि-निद्दिष्ट ग्राम गोहालिकेषु तलवाटकं

वास्तुना सह क्षेत्रं

१९. कुल्यवापः अध्यर्द्धा(S) क्षय-नीवी-धर्मेण दत्तः [।] कु १ द्रो ४ [।] तद्युष्माभिः स्व-

कर्षणाविरोधि-स्थाने षट्कडैरप-

२०. विञ्छ्य दातव्यो(ऽ)क्षय-नीवी-धर्मेण च शश्वदाचन्द्रार्कतारक-काल-मनुपालयितव्य इति[॥] सम् १००(+)५०(+)९

२१. माघ-दि ७ (।) उक्तञ्च भगवता व्यासेन[।]

स्व दत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धराम्[।]

२२. स विष्ठायां क्रिमिर्भूत्वा पितृभिस्सह पच्यते[।]

षष्टि वर्षसहस्राणि स्वर्गे वसति भूमिदः।

२३. आक्षेप्ता चानुमन्ता च तान्येव नरके वसेत्[॥]

राजभिर्व्वहु-भिर्दत्ता दीयते च पुनः पुनः [।]

यस्य यस्य-

२४.           यदा भूमि तस्य तस्य तदा फलम् [॥]

पूर्व्व दत्तां द्विजातिभ्यो यत्नाद्रक्ष युधिष्ठिर[।]

महीम्महीमतां श्रेष्ठ

२५.             दानाच्छ्रेयो(ऽ) नुपालनं[॥]

विन्ध्याटवीष्वनम्भस्सु शुष्क कोटर-वासिनः[।]

कृष्णाहिनो हि जायन्ते देव-दायं हरन्ति ये[॥]

हिन्दी अनुवाद

स्वस्ति। पुण्ड्रवर्धन के आयुक्त, प्रधान (आर्य) नगरश्रेष्ठि, पुरोग तथा अधिकरण के लोग दक्षिणांश बीथी [अन्तर्गत] नागरिक मण्डल [में स्थित] पलाशाट्ट के निकट (पार्श्व) में स्थित वटगोहाली, जम्बुदेव में सम्मिलित (प्रावेश्य) पृष्टिमपीत्तक, गोपाट-पुंजर, मूलनागरिक में सम्मिलित (प्रावैश्य) नित्यगोहाली के ब्राह्मण एवं महत्तर आदि की कुशलकामना करते हुए सूचित करते हैं –

हमसे ब्राह्मण नाथशर्मा और उनकी पत्नी रामी ने निवेदन किया है कि हमारे महाधिष्ठान- के अन्तर्गत दो दीनार प्रति कुल्यवाप की दर से शाश्वत काल के उपभोग के लिये अक्षय-नीवि के रूप में समुदयबाह्य अप्रतिकर खिल क्षेत्र और मकान बनाने की भूमि (वास्तु) उपलब्ध हैं। अतः हमसे तीन दीनार लेकर हमारे पुण्य [कार्य] के निमित्त काशी के पंच स्तूप-निकाय के निग्रन्थ श्रमणाचार्य गुहनन्दि के शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा वटगोहाली में प्रतिष्ठापित विहार में [स्थापित] भगवान् अर्हत के गन्ध, धूप, पुष्प, दीप आदि के लिए तथा तलवाटक के निमित्त वटगोहाली में डेढ़ द्रोण वास्तु (गृह-निर्माण योग्य भूमि)जम्बुदेव में सम्मिलित (प्रावेश्य) पृष्ठिमपीत्तक में चार द्रोणवाप क्षेत्र, गोषाट-पुंज में चार द्रोणवाप क्षेत्र तथा मूलनागरिड में सम्मिलित (प्रावेश्य) नित्यगोहाली में ढाई द्रोणवाप क्षेत्र, इस प्रकार डेढ़ कुल्यवाप भूमि दी जाय।

अतः प्रथम पुस्तपाल दिवाकरनन्दि, पुस्तपाल धृतिविष्णु, विरोचन, रामदास, शशिनन्द, सुप्रभ और मनुदत्त से जाँच करने पर ज्ञात हुआ कि हमारे अधिकरण के अन्तर्गत दो दीनार प्रति कुल्यवाप की दर से शाश्वत काल के भोग के निमित्त अक्षय-नीवि के लिए समुदयबाह्य, अप्रतिकर, खिल क्षेत्र और वास्तु विक्रय की जाती है।

तदनुसार ब्राह्मण नाथशर्मा और उसकी पत्नी रामी को पलाशाट्ट के निकट (पाव) स्थित वटगोहाली में काशी के पंच स्तूप-कुल-निकाय के आचार्य निग्रन्थ (जैन साधु) गुहनन्दि के शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा प्रतिष्ठापित बिहार में स्थापित अर्हत के गन्ध-धूप आदि के उपयोग तथा तलवाटक के निमित्त उसी वटगोहाली में डेढ़ द्रोणवाप वास्तु (मकान बनाने की भूमि), जम्बुदेव में सम्मिलित पृष्ठिपोत्तक में चार द्रोणवाप क्षेत्र, गोघाट-पुंज में चार द्रोणवाप क्षेत्र और मूलनागरिट्ट में सम्मिलित नित्यगोहाली में दो द्रोणवाप दो आढवाप क्षेत्र, कुल डेढ़ द्रोणवाप दिये जाने में किसी प्रकार की कोई आपत्ति नहीं है। इससे तो परमभट्टारक को इससे होनेवाले धर्म (पुण्य) के छठे भाग का लाभ ही होगा।

ऊपर लिखित बातों में से प्रत्येक की जानकारी प्राप्त करके हम ब्राह्मण नाथशर्मा और उसकी पत्नी रामी से तीन दीनार लेकर घोषित करते हैं कि अक्षय-नीवी-धर्म के अनुसार उपर्युक्त विवरण में निर्दिष्ट ग्राम गोहाली आदि में डेढ़ द्रोणवाप तलवाटक वास्तु सहित भूमि दी गयी। कु १ द्रो ४ स्वकर्षण-अविरोधी स्थान (जहाँ किसीकी खेतिहर भूमि नहीं है) में षट्क-नल से नापकर अक्षय-नीवी-धर्म के निमित्त भूमि दी गयी। शाश्वत काल तक, जब तक चन्द्र, सूर्य, तारे रहें इसका प्रालन किया जाय। इति॥ सम्वत् १५९ माघ मास दिवस ७।

भगवान् व्यास ने कहा है —

हे युधिष्ठिर ! पूर्वकाल में ब्राह्मणों को दिये हुए दान की रक्षा करो। पृथ्वी पर दान देने से श्रेष्ठ दान का अनुपालन है।

देवताओं को दिये हुए दान का जो अपहरण करता है, वह काले साँप के रूप में जन्म लेकर विन्ध्य के जंगल में सूखे वृक्ष के कोटर में वास करता है।

टिप्पणी

यह लेख अन्य लेख के समान ही अक्षय-नीवी-धर्म के अन्तर्गत भू-विक्रय की घोषणा है। द्रष्टव्य इतना ही है कि बैग्राम ताम्र-लेख की तरह ही इसमें भी शासक का नामोल्लेख नहीं हुआ है। किन्तु उत्तरवर्ती वर्ष १६३ के लेख में शासक के रूप में बुधगुप्त का उल्लेख प्राप्त है। उसके आधार पर इस लेख को भी निश्चितरूपेण उसी के काल का कहा जा सकता है।

इस लेख में कतिमय ग्रामों का जम्बुदेव-प्रावेश्य पृष्ठिमपोत्तक और मूलनागरिट्ट प्रावेश्य- नित्वगोहाली के रूप में उल्लेख हुआ है। इसमें प्रावेश्य शब्द स्पष्टीकरण की अपेक्षा रखता है प्रावेश्य का तात्पर्य ऐसे छोटे ग्राम से है जो कर-व्यवस्था के निमित्त पास के बड़े ग्राम में सम्मिलित समझा जाता था । इस प्रकार पृष्ठिमपोत्तक जम्बुदेव नामक ग्राम और नित्वगोहाली मूलनागरिट्ट ग्राम में सम्मिलित था ।

बुधगुप्त का सारनाथ बुद्ध-मूर्ति-लेख; गुप्त सम्वत् १५७ ( ४७६-७७ ई० )

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top