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समुद्रगुप्त का नालन्दा ताम्रलेख

भूमिका समुद्रगुप्त का नालन्दा ताम्रलेख ( Nalanda Copper-Plate of Samudragupta ) साढ़े दस इंच लम्बे और नौ इंच चौड़े ताम्र फलक पर अंकित है। यह १६२७-२८ ई० में नालन्दा ( बिहार ) के पुरातात्त्विक उत्खनन के समय बिहार संख्या १ के उत्तरी बारामदे में मिला था। हीरानन्द शास्त्री ने इसके सम्बन्ध में पहले एक छोटी सी सूचना प्रकाशित की। तदनन्तर अमलानन्द घोष ने इसे सम्पादित कर प्रकाशित किया। तत्पश्चात् दिनेशचन्द्र सरकार ने इसका विवेचन किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- समुद्रगुप्त का नालन्दा ताम्रलेख ( Nalanda Copper-Plate of Samudragupta ) स्थान :- नालन्दा, बिहार भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्त सम्वत् ५, अर्थात् ३२४ ई० विषय :- शासनादेश समुद्रगुप्त का नालन्दा ताम्रलेख : मूलपाठ १. ॐ स्वस्ति [ । ] महानौ-हस्त्यश्व जयस्कन्धावारानन्दपुरवासका [ त्स ] -र्व्वरा [ जोच्छे ] त्तु  ( ः ) पृथिव्यामप्रतिरथस्य चतुरुदधि-सलि [ लास्वा ]- २. दित-यशसो धनद-वरुणे [ न्द्रा ] न्त [ क ]- समस्य कृतान्त-परशोर्न्ययगतानेक-गौ-हिरण्य- कोटि-प्रदस्य चिरोत्स [ न्ना ] – ३ श्वमेधाहुर्त्तम्महाराज-श्री-गु [ प्त ]- प्रपौत्रस्य महाराज-श्री-घटोत्कच-पौत्रस्य [ जाधि ] राज [ श्री चन्द्रगुप्त ] पुत्र- ४. स्य लिच्छवि-दौ [ हि ] त्रस्य महादेव्यांकुमारदेव्यामुत्पन्नः परमभा- [ गवतो महाराजाधिराज-श्री समुद्रगु ] प्तः वाविरिक्ष्यर ५. वैषयिकभद्रपुष्करकग्राम-क्रिविलावैषयिकपू [ र्णना ] गग्रा [ म ( योः ) ब्राह्मण-पुरोग ]-ग्रा [ म ]- व लत्कौशभ्यामाह ( । ) ६. एवं चाह विदितम्बो भवत्वेषौ ग्रा [ मौ ] [ मया ] [ मा ] तापित्रोर [ त्मनश्च ] पु [ ण्याभिवृद्ध ] ये जयभट्टिस्वामिने ७. ………[ सोपरि ] करो [ द्देशेना ] ग्रहा [ रित्वे ] नातिसृष्टः ( । ) तद्युष्माभिर [ स्य ] ८. त्रैविद्यस्य श्रोत्तव्यमाज्ञा च कर्त [ व्या ] [ स ] र्व्वे [ च ] [ स ] मुचिता ग्रा [ म ] प्रत्य [ या ] ( मेय )- हिरण्यादयो देयाः [ । ] न चेताः प्र- ९. [ भृ ] त्यनेन त्रै [ वि ] द्येनान्य-ग्रामादि-करद-कुटुम्बि- [ कारुक ] ादयः प्रवेश [ यित ] व्या [ ना ] न्यथा नियतमाग्रहाराक्षेपः १०. [ स्य ]ादिति। सम्वत् ५ माघ-दि० २ निवद्धं [ । ] ११. अनुग्रामाक्षपटलाधि [ कृत ] – महापीलूपति-महाबलाधि [ कृ ] त-गोपस्वाम्यादेश-लिखितः [ । ] १२. [ दूतः कुमा ] र श्री चन्द्रगुप्तः [ । ] हिन्दी अनुवाद ॐ स्वस्ति! आनन्दपुर स्थित महा नौ हस्ति और अश्व से युक्त जयस्कन्धावार से सर्वराजच्छेता ( समस्त राजाओं का उन्मूलन करने वाले ) भूमण्डल में अप्रतिरथ ( शक्ति में अद्वितीय ), चारो समुद्रों के जल के आस्वादित यशवाले, धनद ( कुबेर ), वरुण, इन्द्र, अन्तक ( यम ) के तुल्य, कृतान्त के परशु स्वरूप, वैध ढंग से प्राप्त कोटि गौ और हिरण्य ( धन ) के दानदाता, चिरकाल से उत्सन्न अश्वमेघ के पुनस्थापक, महाराज श्रीगुप्त के प्रपौत्र, महाराज घटोत्कच के पौत्र, महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के महादेवी कुमारदेवी से उत्पन्न पुत्र, लिच्छवि-दौहित्र, परमभागवत महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त वाविरिक्ष्यर विषय स्थित भद्रपुष्करक तथा क्रिमिल विषय के पूर्णनाग ग्राम के ब्राह्मण, पुरोग, ग्राम एवं बलकौशन से कहता है — आप लोगों को विदित हो कि [ अपने ] माता पिता तथा अपने पुण्य वृद्धि के लिए जयभट्ट स्वामी के लिए उपरिकर सहित अग्रहार की सृष्टि करता हूँ। अतः आप सबका ध्यान इस बात की ओर जाना चाहिए तथा [ इस ] आज्ञा का पालन करना चाहिये। [ अब से ] ग्राम की परम्परा के अनुसार जो भी कर—मेय अथवा हिरण्य देय हो, उन्हें दिया जाय। अब से भूमिकर लेने वाले, कुटुम्बी, शिल्पी एवं अन्य लोग इस अग्रहार ( दान भूमि ) में हस्तक्षेप न करें अन्यथा अग्रहार सम्बन्धी नियमों का उलंघन होगा । संवत ५, माघ दि० २ को लिखा गया। [ यह पत्र ] इस ग्राम के अक्षपटलाधिकृत, महापीलुपति, महाबलाधिकृत गोपस्वामी के आदेश से लिखा गया। दूत कुमार श्री चन्द्रगुप्त। ऐतिहासिक महत्त्व समुद्रगुप्त का नालन्दा ताम्रलेख कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है : समुद्रगुप्त के द्वारा धारण की गयी उपाधियों का उल्लेख मिलता है। सर्वराजोच्छेता, अप्रतिरथ, परमभागवत, महाराजाधिराज। समुद्रगुप्त की तुलना विविध देवताओं से की गयी है। कुबेर, वरुण, इंद्र व यम। गुप्तवंश की वंशावली का उल्लेख है। महाराज श्रीगुप्त — महाराज घटोत्कच — महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त — परमभागवत महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त। माता का नाम महादेवी कुमारदेवी। कुमार लिच्छवि कुल की कन्या थी। समुद्रगुप्त स्वयं को लिच्छवि दौहित्र कहने में गौरव का अनुभव करता है। अग्रहार दान उल्लेख है। राज्य की ओर से ब्राह्मणों को भूखण्ड या ग्रामदान। कर सम्बन्धित ज्ञान मिलता है। उपरिकर – अस्थायी कृषकों से लिया जाने वाला भूमिकर मेय – किसानों द्वारा देय अन्य या पैदावार तौलकर दिया जाने वाला भूमिकर हिरण्य – किसानों द्वारा देय नकद भूमिकर पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं। वलत्कौषन – इसका उल्लेख इस अभिलेख के साथ-साथ गया ताम्रलेख में मिलता है, अन्यत्र नहीं मिलता है। सम्भवतः यह राजस्व से जुड़ा कोई पदाधिकारी था। अक्षपटलाधिकृत – राजकीय दस्तावेज के सम्बन्धित अधिकारी। महापीलुपति – हस्तिसेना प्रमुख। महाबलाधिकृत – सेनापति अर्थात् सेना का सर्वोच्च अधिकारी। इसके अलावा समुद्रगुप्त द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने का उल्लेख भी इसमें मिलता है।

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बड़वा-यूप अभिलेख

भूमिका बड़वा-यूप अभिलेख राजस्थान प्रान्त के बरन जिले में बढ़वा नामक स्थान पर मिला है। इसमें चार लघु अभिलेख मिले हैं। ये अभिलेख प्राकृत से प्रभावित संस्कृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में है। यह प्रारम्भिक मौखरियों के इतिहास से सम्बन्धित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- बड़वा-यूप अभिलेख स्थान :- बड़वा, बरन जनपद, राजस्थान ( Barwa, Baran district, Rajasthan ) भाषा :- संस्कृति लिपि :- ब्राह्मी समय :- तृतीय शताब्दी ई० ( २३८ ई० ) विषय :- मौखरि वंश द्वारा वैदिक यज्ञों का कराने का विवरण बड़वा-यूप अभिलेख : मूलपाठ एक १. सिद्धं [ । ] कृतेहि २०० [ + ] ६० [ + ] ५ फाल्गुण शुक्लस्य पञ्चे दि० [ । ] श्री महासेनापतेः मौखरे: बल-पुत्रस्य बलवर्द्धनस्य यूपः [ । ] त्रिरात्र-संमितस्य दक्षिण्यं गवा सहस्रं [ । ] दो १. सिद्धं [ । ] क्रितेहि २०० [ + ] ६० [ + ] ५ फाल्गुण शुक्लस्य पञ्चे दि० [ । ] श्री महासेनापतेः मोखरे: बल-पुत्रस्य सोमदेवस्य यूपः [ । ] त्रिरात्र-संमितस्य दक्षिण्यं गवां सहस्रं [ । ] तीन १. क्रितेहि २०० [ + ] ६० [ + ] ५ फाल्गुण शुक्लस्य पञ्चे दि० श्रीमहासेनापते: मोखेर- २. र्बलपुत्रस्य बलसिंहास्य यूपः [ । ] त्रिरात्र संमितस्य दक्षिण्य गवां सहस्रं [ । ] चार १. मोखरेर्हस्तीपुत्रस्य धनुर्वातस्य धीमतः [ । ] अप्तोर्य्यामाछ कृतो: यूप [ । ] सहस्रोगव दक्षिणा [ : ] [ । ] हिन्दी अनुवाद एक १. सिद्धम्। कृत [ संवत् ] २९५ फाल्गुन शुक्ल पंचमी [ का दिन ]। श्री महासेनापति मौखरी बल के पुत्र बलवर्धन का यूप। त्रिरात [ यज्ञ ] के निमित्त १००० गाय दक्षिणा। दो २. सिद्धम्। कृत [ संवत् ] २९५ फाल्गुन शुक्ल पंचमी [ का दिन ]। श्री महासेनापति मौखरी बल के पुत्र सोमदेव का यूप। त्रिरात्र [ यज्ञ ] के निमित्त १००० गाय दक्षिणा। तीन ३. सिद्धम्। कृत [ संवत् ] २९५ फाल्गुन शुक्ल पंचमी [ का दिन ]। श्री महासेनापति मौखरी बल के पुत्र बलसिंह का यूप। त्रिरात्र [ यज्ञ ] के निमित्त १००० गाय दक्षिणा। चार मौखरी हस्ति के पुत्र धीमतः ( विद्वान् ) धनुर्वात द्वारा किये गये अप्तोर्य्याम [ यज्ञ ] का यूप। हजार गाय की दक्षिणा । महत्त्व बड़वा-यूप अभिलेख वैदिक यज्ञों से सम्बन्ध रखते हैं। वैदिक युग में गृहस्थों के लिए नियमित रूप में यज्ञ करने का विधान था। इन यज्ञों का महत्त्व बहुत काल बाद तक बना हुआ था और लोग समय-समय पर वैदिक यज्ञ कराते रहते थे, यह बात इन शिला-यूप-अभिलेखों के अतिरिक्त कुछ अन्य शिला-यूपों पर अंकित अभिलेखों से भी ज्ञात होती है जो ईसापुर ( मथुरा ), कौशाम्बी और नाँदसा से प्राप्त हुए हैं। वैदिक यज्ञों के निमित्त मूलतः लकड़ी के बने यूप खड़ा करने का विधान था। लकड़ी के यूपों के निर्माण-विधि का उल्लेख कात्यायन श्रौत सूत्र में हुआ है। उसके अनुसार केवल वाजपेय यज्ञ के यूप की लम्बाई निश्चित थी अन्य यज्ञों के यूपों की लम्बाई के सम्बन्ध में कोई निर्धारित नियम न था। गृह-सूत्रों और धर्म-सूत्रों में यूपों का स्पर्श निषिद्ध बतलाया गया है। वशिष्ठ, बौधायन, विष्णु और आश्वलायन के अनुसार यूपों का स्पर्श शव अथवा ऋतुमती स्त्री के स्पर्श के समान था। हिरण्यकेशी गृह-सूत्र का कहना था कि यूप के स्पर्श से यज्ञ में हुई त्रुटियों का दोष लगता है। इस प्रकार मूलतः यूप एक निषिद्ध वस्तु थी; किन्तु इन यूपों से ऐसा लगता है कि इस काल तक वैदिक यज्ञों के यूपों के सम्बन्ध में अपृश्यता सम्बन्धी यह धारणा समाप्त हो गयी थी और लोग अपने यज्ञों के स्मृतिस्वरूप काष्ठ के स्थान पर शिला के यूप बनाकर अभिलेख अंकित कराने लगे थे। उपर्युक्त चार यूपों में से प्रथम तीन को, उन पर अंकित अभिलेखों के अनुसार तीन सगे भाइयों बलवर्धन, सोमदेव तथा बलसिंह ने एक ही दिन अलग-अलग खड़ा किया था और वे त्रिरात्र यज्ञ के स्मारक हैं। तैत्तिरीय संहिता में बतलाया गया है कि त्रिरात्र यज्ञ को वसु, रुद्र और आदित्यों के निमित्त करके प्रजापति ने त्रैलोक्य प्राप्त किया था। शांखायन श्रौत सूत्र के अनुसार त्रिरात्र यज्ञ द्वारा लोक और परलोक दोनों में त्रिविध प्राप्त किया जा सकता है। वैदिक काल में सोमयज्ञ अत्यन्त प्रसिद्ध था, जो संख्या में सात थे और सप्तसोम संस्थ कहे जाते थे। उनके नाम हैं- अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशिन्, वाजपेय, अतिरात्र और अप्तोर्याम। वैदिक धर्म के उत्थान काल में ये यज्ञ अत्यन्त लोक-प्रचलित थे और गृहस्थों द्वारा प्रायः उपनयन और अन्त्येष्टि के अवसर पर किये जाते थे। त्रिरात्र यज्ञ इन्हीं यज्ञों में से तीन अग्निष्टोम, उक्थ्य और अतिरात्र यज्ञों का संयुक्त रूप था। उसको गर्भ-त्रिरात्र भी कहते थे। यदि इस यज्ञ में दूसरे दिन अश्व की हवि दी जाती थी तो उसे अश्वित्रिरात्र कहते थे। सप्तसोम यज्ञों में प्रमुख अग्निष्टोम था, उसका यह नामकरण उसके अन्तिम १२ मन्त्रों के, जिन्हें अनिष्टोमसामन कहा गया है, हुआ था। अन्य यज्ञों की इस यज्ञ से केवल कुछ छोटी-मोटी बातों में ही भिन्नता थी। त्रिरात्र यज्ञ में दक्षिणा में एक हजार गायें दी जाती थीं। प्रतिदिन दस-दस के समूह में ३३० गायें दक्षिणा में दी जातीं और तीसरे दिन बची हुई दस गायें, जो अन्य गायों से भिन्न वर्ण की होती थीं, होतृ को दी जाती थीं। इन अभिलेखों में भी दक्षिणा में दी गयी गायों की संख्या १००० बतायी गयी है। इससे जान पड़ता है कि वैदिक विधि का यज्ञ में पूर्ण रूप से पालन किया गया था। चौथे यूप के अभिलेख से ज्ञात होता है कि वह प्रथम तीन यूपों के संस्थापक तीन सगे भाइयों से भिन्न किसी चौथे व्यक्ति धनुर्त्रात ने स्थापित किया था। उसने अप्तोर्याम यज्ञ कराया था। यह यज्ञ सप्त-सोम-संस्था कहे जानेवाले यज्ञों में अन्तिम ( सातवाँ ) यज्ञ था और छठे सोम-संस्थ अतिरात्र यज्ञ के समान ही यह यज्ञ सारे दिन होता था और दूसरी रात्रि तक चलता रहता था। अतिरात्र यज्ञ से इसकी विशिष्टता यह थी कि उसके अन्त में चार अतिरिक्त स्तोत्र और शस्त्र होते थे। बड़वा-यूप अभिलेख कदाचित् दो परिवारों द्वारा किये गये वैदिक यज्ञों के स्मारक। पहले तीन अभिलेखों में समान रूप से तिथि का अंकन हुआ है, चौथे अभिलेख में किसी तिथि का कोई उल्लेख नहीं है। अतः यह कहना कठिन है कि दोनों परिवारों द्वारा किये गये यज्ञ एक ही समय में किये गये थे या अलग-अलग। वस्तुतः ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार का ऊहापोह

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अगरोहा यौधेय मुद्रांक

भूमिका अगरोहा यौधेय मुद्रांक हरियाणा प्रान्त के हिसार जिले के अगरोहा नामक स्थान से यह मुद्राङ्क ( मुहर ) प्राप्त हुई ह। यह मिट्टी की अण्डाकार ७ सेंटीमीटर लम्बी और ६.२ सेंटीमीटर चौड़ी है। इस मुद्रांक के ऊपर के एक-तिहाई भाग में ककुस्थयुक्त वामाभिमुख वृषभ का अंकन है। उसके नीचे एक लम्बी रेखा है। रेखा के नीचे कुषाण-गुप्तकालीन लिपि में पाँच पंक्तियों का लेख है। संक्षिप्त परिचय नाम :- अगरोहा यौधेय मुद्रांक ( मुहर ) ( Agroha Yaudheya Stamp ) स्थान :- अगरोहा, हिसार जनपद, हरियाणा भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्तपूर्व विषय :- यौधेय शासन प्रणाली की जानकारी मूलपाठ १. श्राय्यौथेवगण पुरस्कृतस्य महारा [ – ] २. ज महाक्षत्रप महासेनापतेरिन्द्र [ – ] ३. मित्र गृहीतस्य महाराज महाक्षत्रप [ – ] ४. सेनापतेरप्रतिहतशासनस्य ५. धर्ममित्र नन्द वर्म्मणः [ । ] हिन्दी अनुवाद श्री यौधेयगण द्वारा पुरस्कृत ( निर्वाचित अथवा मनोनीत ) महाराज महाक्षत्रप महासेनापति इन्द्रमित्र ( अथवा राज्यमित्र ) द्वारा गृहीत ( स्वीकृत ) महाराज महाक्षत्रप सेनापति अप्रतिहत शासन [ करनेवाले ], धर्म के मित्र ( धर्मात्मा ) नन्दवर्मण ( नयवर्मण, वसुवर्मण ) की [ मुद्रा ]। अगरोहा यौधेय मुद्रांक : महत्त्व मुद्रांक घिसा होने के कारण तीन स्थलों पर इसका पाठ संदिग्ध है :- महारा [ – ] महासेनापतेरिन्द्र [ – ] नन्द प्रथम पंक्ति में गृहीत ‘महाराज’ पाठ तृतीय पंक्ति में आये ‘महाराज’ पाठ के परिप्रेक्ष्य में समुचित जान पड़ता है। शेष दो स्थलों पर व्यक्तिवाचक नामों का पाठ संदिग्ध है। उनके जो भी पाठ हों, मुद्रांक के ऐतिहासिक महत्त्व पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। यह मुद्रांक यौधेयगण से सम्बद्ध है। यौधेय गण का साहित्यिक विवरण इ तरह मिलता है :- यौधेयों का गण के रूप में प्राचीनतम् उल्लेख पाणिनि कृत अष्टाध्यायी में हुआ है। महाभारत में इनका उल्लेख अम्बष्ठ, और त्रिगर्त तथा मालव और शिवि के साथ हुआ है। वराहमिहिर ने राजन्य, त्रिगर्त, आर्जुनायन आदि के साथ इनका उल्लेख किया है। यौधेय गण के सिक्के बड़ी मात्रा में उपलब्ध हुए हैं। उनके अध्ययन से ज्ञात होता है कि वे सिक्के स्पष्टतः तीन प्रकार के हैं और वे तीन भिन्न कालों के हैं तथा तीन भिन्न क्षेत्रों में पाये गये हैं। प्रथम – इन सिक्कों पर ‘यौधेयानां बहुधान्यके’ अंकित है। ये यौधेयों के प्राचीनतम सिक्के हैं। इनका समय लगभग द्वितीय से पहली शताब्दी ई०पू० है। इससे ज्ञात होता है कि वे बहुधान्यक प्रदेश में रहते थे अर्थात् वे उन दिनों हरियाणा क्षेत्र में निवास करते थे। यौधेय लोग ईसा पूर्व की पहली शती में किसी समय विदेशी आक्रामकों, सम्भवतः बाख्त्री के यवनों के दबाव के कारण दक्षिण-पूर्व की ओर खिसक गये और राजस्थान के उत्तरी-पूर्वी भाग में जा बसे। इसका ज्ञान हमें भरतपुर के पास विजयगढ़ से मिले एक खण्डित अभिलेख से होता है। द्वितीय – इनपर ‘भगवत स्वामिनो ब्रह्मण्य यौधेय’ लिखा है। दूसरी शती में १५० ई० के आसपास शक महाक्षत्रप रुद्रदामन ने उन्हें परास्त किया था जिसकी जानकारी रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से मिलती है। इस प्रदेश से भगा दिया तब वे हिमालय के पर्वतीय प्रदेश में पश्चिम में व्यास की उत्तरी धारा से लेकर पूर्व में गढ़वाल तक शिवालिक पर्वत शृंखला के बीच आ गये। इस काल के सिक्कों पर ‘भगवत स्वामिनो ब्रह्मण्य यौधेय’ अंकित है। तृतीय – इन सिक्कों पर ‘यौधेयगणस्य जय’ अंकित मिलता है। तत्पश्चात् किसी समय वे पुन: पंजाब की ओर लौट आये तथा सतलज और व्यास के काँठे में रहने लगे। इस काल के सिक्कों के साँचे बड़ी मात्रा में लुधियाना के निकट सुनेत में मिले हैं। इन सिक्कों पर ‘यौधेयगणस्य जय’ अंकित मिलता है और ये सिक्के कुषाण सिक्कों की अनुकृति जान पड़ते हैं। अगरोहा मुद्रांक इसी काल अर्थात् कुषाण-गुप्त काल का है और ऐसा प्रतीत होता है कि वह किसी शासकीय पत्र में लगा कर अगरोहा भेजा गया होगा। इस मुद्रांक का महत्त्व इस दृष्टि से है कि उससे यौधेयों की शासन प्रणाली पर प्रकाश पड़ता है। इससे ऐसा लगता है कि यौधेय गण अपने प्रधान को मनोनीत अथवा निर्वाचित ( पुरस्कृत ) करता था और वह महाराज महासेनापति कहलाता था। इनमें यह प्रणाली एक-दो शताब्दी पहले से ही चली आ रही थी, यह विजयगढ़ अभिलेख से प्रकट होता है। यौधेय गण के प्रधान के लिए ‘महाराज’ शब्द का प्रयोग कदाचित् इस बात का प्रतीक है कि इस काल में गण राज्य राजतन्त्र की भावना से प्रभावित होने लगे थे। यौधेयों के पड़ोसी कुणिन्द के सिक्कों पर भी यह विरुद पाया जाता है। पाणिनि ने यौधेय-गण को आयुधजीवी कहा है जिससे यह बात ज्ञात होता है कि यह लड़ाकू जाति थी और युद्ध कौशल में उसकी ख्याति थी। यह बात यौधेय नाम से भी ध्वनित होती है। कदाचित् सैनिक होने के कारण ही यौधेय अपने प्रमुख को ‘महासेनापति’ के रूप में जानते और पहचानते थे। इस कारण यह विरुद उनके साथ आरम्भ से ही चला आ रहा होगा। ‘महाक्षत्रप’ विरुद मूलतः ईरानी उपाधि है और इसका प्रयोग शक नरेशों के नाम के साथ मिलता है। पश्चिमी भारत पर पहली शती से चौथी शती ई० तक शासन करनेवाले शक नरेश इस विरुद का निरन्तर प्रयोग करते रहे। पर भारतीय नरेशों के बीच इसने कभी लोकप्रियता प्राप्त नहीं की थी। ऐसी अवस्था में यौधेय-गण के प्रधानों द्वारा इसका प्रयोग कुछ असाधारण है। जब ये लोग राजस्थान में थे तब पश्चिमी शक महाक्षत्रप रुद्रदामन ने इन्हें वहाँ से निकाल बाहर किया। जान पड़ता है कि इन शकों के सम्पर्क में आने के पश्चात् यौधेय शासकों को यह विरुद आकर्षक लगा होगा और तभी उन्होंने इसे अपनाया होगा। इस सम्भावना को विजयगढ़ अभिलेख में इस विरुद के अभाव से समर्थन प्राप्त होता है। इस मुद्रांक में नन्दवर्मन ( नयवर्मन, वसुवर्मन ) ने अपने को इन्द्रमित्र ( राज्य- मित्र ) द्वारा गृहीत बताया है। इस गृहीत शब्द से हमारा ध्यान गुप्त सम्राट् स्कन्दगुप्त के भीतरी अभिलेख में चन्द्रगुप्त द्वितीय के लिए प्रयुक्त समुद्रगुप्त परिगृहीत की ओर जाता है। गृहीत और परिगृहीत दोनों का शाब्दिक भाव ग्रहण किया हुआ ( adopted or selected ) है। चन्द्रगुप्त द्वितीय के सम्बन्ध में हम यह जानते हैं कि वह समुद्रगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र नहीं था। वह अपने बड़े भाई रामगुप्त को हटाकर शासनारूढ़ हुआ था। अतः इसके शासनाधिकार को समर्थित बताने के लिए स्कन्दगुप्त ने अपने भीतरी अभिलेख में इसका प्रयोग चन्द्रगुप्त के

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विजयगढ़ का यौधेय शिलालेख

भूमिका विजयगढ़ का यौधेय शिलालेख संस्कृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में है। यह अभिलेख भरतपुर ( राजस्थान ) के बयाना नामक कस्बे से लगभग दो मील ( ≈ ३.२ किमी० ) दक्षिण-पश्चिम स्थित विजयगढ़ नामक पहाड़ी दुर्ग की भित्ति के भीतरी भाग में लगा मिला था। यह मूलतः किसी बड़े लेख का अंश है; इसमें आरम्भ की केवल दो पंक्तियों का अंश उपलब्ध है। उनका उत्तरांश तो अनुपलब्ध है ही, साथ ही यह भी अनिश्चित है कि मूल लेख में कुल कितनी पंक्तियाँ थीं। संक्षिप्त परिचय नाम :- विजयगढ़ का यौधेय शिलालेख ( Yaudheya  Rock Edict of Vijaygarh ) स्थान :- विजयगढ़ दुर्ग, बयाना, भरतपुर, राजस्थान भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- लगभग ३०० ई०, गुप्तपूर्वकाल विषय :- अस्पष्ट मूलपाठ १. सिद्धम् [ ॥ ] यौधेय-गण पुरस्कृतस्य महाराज महासेनापते। पु…… २. ब्राह्मण पुरोग-चाधिष्ठान शरीरादि कुशलं पृष्ट्वा लिखत्या स्तिरस्मा….. हिन्दी अनुवाद सिद्धि [ ॥ ] यौधय-गण द्वारा पुरस्कृत ( मनोनीत, निर्वाचित ) महाराज महासेनापति पु…… ब्राह्मण, पुर के प्रमुख ( अग्रणी ) तथा अधिष्ठान के [ के अधिकारियों ] के शरीर आदि की कुशल पूछते ( चाहते ) हुए लिखते हैं……. महत्त्व विजयगढ़ का यौधेय शिलालेख खण्डित होने के कारण अभिलेख का प्रयोजन नहीं कहा जा सकता। इसका महत्त्व केवल इस बात में माना जाता रहा है कि इससे यौधेय गण के प्रमुख की उपाधि की जानकारी प्राप्त होती थी। प्रशासन के स्वरूप पर उससे कोई प्रकाश नहीं पड़ता था। अगरोहा से प्राप्त मुद्रांक के अनुरूप ही इस लेख की प्रथम पंक्ति है और उसके परिप्रेक्ष्य में इसे सहज भाव से देखा और समझा जा सकता है। स्वतन्त्र रूप में अब इसका कोई महत्त्व नहीं है। यौधेयों का उल्लेख साहित्यों व अभिलेखों में कई स्थानों पर मिलता है; जैसे पाणिनि कृत अष्टाध्यायी में उन्हें ‘आयुधजीवी संघ’ कहा है। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में इनका विवरण मिलता है। लुधियाना से प्राप्त एक मिट्टी की मुहर पर ‘यौधेयानाम् जयमन्यधराणाम्’ लेख उत्कीर्ण है। समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति की २२वीं पंक्ति में यौधेय का उल्लेख मिलता है। इस तरह यह ज्ञात होता है कि यौधेय जन उत्तरी राजस्थान और दक्षिणी पंजाब में निवास करते थे। वे एक वीर, साहसी और स्वाभिमानी लोग थे। वे शकों, कुषाणों संघर्षरत रहे। अंततः वे गुप्त साम्राज्य में विलीन हो गये। यौधेयों के सिक्के सहारनपुर, देहरादून, देहली, रोहतक, लुधियाना और काँगड़ा   मिले हैं। उनके प्रारम्भिक सिक्कों में उनको यौधेयन जबकि बाद के सिक्कों में यौधेय गणजनस्य कहा गया है। यौधेय लोग युद्ध के देवता कार्तिकेय के उपासक थे।

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ईश्वरसेन का नासिक गुहालेख

भूमिका ईश्वरसेन का नासिक गुहालेख लयण संख्या १० के आँगन के पश्चिमी दीवार पर अंकित है। अनुमान किया जाता है कि यह लेख १५ पंक्तियों का रहा होगा, परन्तु अब इसकी आरम्भिक १२-१३ पंक्तियाँ ही बच रही हैं; वे भी दाहिनी ओर क्षतिग्रस्त हैं। उसके कुछ अक्षर नष्ट हो गये हैं। ब्राह्मी लिपि में लिखे इस अभिलेख के अक्षर सातवाहन अभिलेखों के बाद के जान पड़ते हैं। संक्षिप्त परिचय नाम :- ईश्वरसेन का नासिक गुहालेख ( Nasik Cave Inscription of Ishwarsen ) स्थान :- नासिक के गुहा संख्या १०, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- आभीर नरेश ईश्वरसेन का ९वाँ राज्यवर्ष, ईश्वरसेन ने २४८-४९ ई० में कलचुरि-चेदि सम्वत् की स्थापना की अतः इस अभिलेख का समय २४७-२४८ ई० का है। विषय :- भिक्षुसंघ के लिए अक्षयनीवि दान का उल्लेख मूलपाठ १. सिधं [ । ] राज्ञः माढ़रीपुत्रस्य शिवदत्ताभीर पुत्रस्य २. आभीरस्येश्वरसेनस्य संवत्सरे नवमे ९ [ ग ]- ३. म्ह पखे चौथे ४ दिवस त्रयोदश १०+३ [ । ] [ एत ]- ४. या पुर्वया शकाग्निवर्म्मण: दुहित्रां गणपक [ स्य ] ५. रेभिलस्य भार्याया गणपकस्य विश्ववर्मस्य [ मा ]- ६. त्रा शकनिकया उपासिकया विष्णुदत्तया सर्वसत्त्व हि- ७. [ त ] सुखार्थ त्रिरश्मि पर्वत विहारवास्तव्यस्य [ चातुर्दिशस्य ] ८. भिक्षु संघस्य गिलान-भेषजार्थमक्षयनीवि प्रयुक्त [ गोवर्धनवास्त ]- ९. व्यास आगता [ नागता ] सु श्रेणिषु यतः कुलरिकश्रेण्या हस्ते कार्षापण १०. सहस्रं १००० ओदयंत्रिक सहस्रणि द्वे २ …. ११. [ ण्यां ] शतानि पंच ५०० तिलपिषक श्रे [ ण्याँ ] …… [ । ] १२. एते च कार्षापण चतालो [ पि ] ….. १३. ……..तस्य [ मास ] वृद्धतो …… हिन्दी अनुवाद १. सिद्धम्। शिवदत्त आभीर के पुत्र राजा माढ़रीपुत्र २. ईश्वरसेन आभीर के नवें संवत्सर के ३. ग्रीष्म के चौथे पक्ष का १३वाँ दिन। आज के दिन ४. शक अग्निवर्मा की दुहिता ( पुत्री ), गणपक ५. रेभिल की भार्या ( पत्नी ), गणपक विश्ववर्मा की माता ६. शकनिका उपासिका विष्णुदत्ता ने सर्व सत्त्वों के ७. हित और सुख [ प्राप्ति ] के निमित्त त्रिरश्मि पर्वत स्थित [ इस ] विहार में रहनेवाले चारों दिशाओं के ८. भिक्षुसंघ के भोजन ( गिलान ) और चिकित्सा की व्यवस्था के निमित्त [ गोवर्धन ] स्थित ९. वर्तमान और भावी श्रेणियों में [ निम्नलिखित ] अक्षयनीवि की स्थापना की- [ । ] कुलरिक श्रेणी में १०. कार्षापण, [ २ ] ओदयंत्रिक श्रेणी में दो हजार [ कार्षापण ]; [ ३ ] ……. श्रेणी में पाँच सौ कार्षापण ११. और [ ४ ] तिलपिशक श्रेणी में……[ कार्षापण ] [ । ] १२. इन चारों [ श्रेणियों ] को [ अक्षयनीवि के रूप में दिये गये ] कार्यापणों के १३. मासिक ब्याज से….. ईश्वरसेन का नासिक गुहालेख : महत्त्व ईश्वरसेन का नासिक गुहालेख इस बात की विज्ञप्ति है कि विष्णुदत्ता नाम्नी उपासिका ने गोवर्धन स्थित चार श्रेणियों के पास अक्षय-नीवि के रूप में कुछ धन राशि जमा कर इस बात का विधान किया था कि उस धन से प्राप्त होनेवाले ब्याज का उपयोग त्रिरश्मि पर्वतस्थित उस विहार में ( जिस विहार की दीवार पर यह लेख अंकित है ) रहने वाले भिक्षुओं के भोजन ( गिलान ) और चिकित्सा के लिए किया जाय। जिन चार श्रेणियों में अक्षय नीवि की स्थापना की गयी है, उनमें से केवल तीन का नाम उपलब्ध है। वे हैं; कुलरिक, ओदयंत्रिक और तिलपिशक। चौथी श्रेणी का नाम नष्ट हो गया है। तिलपिशक से निस्संदिग्ध अभिप्राय तेल पेरनेवाले लोगों की श्रेणी से है। कुलरिक को बहर ने कुलालों ( कुम्हारों ) की श्रेणी होने का अनुमान प्रकट किया है। जिस पहाड़ी में यह विहार है, उसमें स्थित एक अन्य गुहा-विहार ( गुहा संख्या १२ ) में कोलिक ( कौलिक ) निकाय का उल्लेख है। इसकी ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए भण्डारकर ने कुलरिक को कौलिकों ( जुलाहों ) की श्रेणी होने की कल्पना की है। इसी प्रकार ओदयंत्रिक के सम्बन्ध में सेनार्ट की धारणा है कि इसका आशय जल-यंत्र अथवा जल-घड़ी बनानेवाले कारीगरों से है। किन्तु हम इन मतों में से किसी से भी सहमत नहीं हैं। द्रष्टव्य है कि एक से अधिक श्रेणियों में अक्षयनीवि स्थापित करने के पीछे उपासिका विष्णुदत्ता की कोई निश्चित धारणा, भावना अथवा उद्देश्य रहा होगा। अक्षयनीवि सम्बद्ध अभिलेखों को ध्यानपूर्वक देखने से ज्ञात होता है कि जिस कार्य के निमित्त किसी अक्षयनीवि की स्थापना की जाती थी, उसकी पूर्ति में सक्षम श्रेणी को ही धन देकर नीवि की प्रतिष्ठा की जाती थी। यह बात स्कन्दगुप्त कालीन इन्दौर अभिलेख देखने से स्पष्ट समझ में आ सकती है। उसमें सूर्य-मन्दिर में दीप जलाने की व्यवस्था की गयी है और इसके लिए धन राशि तैलिक श्रेणी को दी गयी है। ठीक उसी प्रकार इस अभिलेख में जिन चार श्रेणियों को धन दिया गया है, वे ऐसी ही श्रेणियाँ रही होंगी जिनका भोजन और भेषज ( चिकित्सा ) से सीधा सम्बन्ध है। अतः तिलपिशक श्रेणी को धन इसलिए दिया गया था कि वह तेल की व्यवस्था करे जो खाने तथा चिकित्सा दोनों के लिए आवश्यक था। ओदयांत्रिक श्रेणी का सम्बन्ध धान ( चावल ) कूटने अथवा आटा पीसनेवालों की श्रेणी से है। वे ही भोजन सामग्री प्रस्तुत करने में सक्षम हो सकते थे। जल-यन्त्र अथवा जल-घड़ी बनानेवालों का प्रस्तुत प्रसंग में कोई स्थान नहीं है। इसी प्रकार कुलरिक श्रेणी भी कुम्हारों अथवा जुलाहों से भिन्न किसी वर्ग की श्रेणी रही होगी। अक्षयनीवि दात्री विष्णुदत्ता को शकनिका कहा गया है। अनेक अभिलेखों में ‘नारी’ के अर्थ में ‘निका’ प्रत्यय का प्रयोग देखने में आता है। यथा कुड़ा अभिलेख १, ९, १९ में विजया और विजयनिका का प्रयोग हुआ है। इस दृष्टि से शकनिका का भाव ‘शक जाति की स्त्री’ होगा। कहा जा सकता है कि इस शब्द का प्रयोग कदाचित यह बताने के लिए किया गया है कि वह शक नारी थी। यदि इस शब्द का यह उद्देश्य रहा हो तो यह निष्प्रयोजन पुनरुक्ति है क्योंकि उसके पिता अग्निमित्र को पहले ‘शक’ कहा जा चुका है। अतः डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त के अनुसार शकनिका का तात्पर्य यहाँ ‘शक नारी’ न होकर ‘शकनिक निवासिनी’ है। शकनिक सम्भवत: किसी स्थान का नाम है। विष्णुदत्ता के पति और पुत्र दोनों को अभिलेख में ‘गणपक’ कहा गया है। सामान्य रूप से इससे गण-प्रमुख का भाव ग्रहण किया जा सकता है और कहा जा सकता

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रुद्रदामन का जूनागढ़ शिलालेख

भूमिका रुद्रदामन का जूनागढ़ शिलालेख गुजरात के जूनागढ़ से प्राप्त एक महत्त्वपूर्ण अभिलेख है। जिस शिला पर यह उत्कीर्ण है उसी पर अशोक के चौदह प्रज्ञापनों की एक प्रति तथा स्कन्दगुप्त के दो लेख भी खुदे हुए हैं। जूनागढ़ से लगभग एक मील पूर्व की ओर गिरनार पर्वत के पास जाने वाले दर्रे के पास यह स्थित है। जूनागढ़ का नाम इसमें गिरिनगर दिया गया है जो बाद में गिरनार भी कहा जाने लगा। सर्वप्रथम १८३२ ई० मे जेम्स प्रिंसेप ने इस लेख का पता लगाया तथा जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल (JASB ) के ७वें अंक में इसे प्रकाशित किया। तत्पश्चात् लासेन, एन० एच० विल्सन, भगवान लाल इन्द्रजी, बूलर आदि विद्वानों ने इसका उल्लेख विभिन्न शोध पत्रिकाओं में किया। अन्ततः कीलहार्न महोदय ने एपिग्राफिया इण्डिका के ८वें अंक में इसे प्रकाशित किया। यही प्रकाशन आज तक प्रामाणिक माना जाता है। जूनागढ़ लेख में कुल बीस पंक्तियाँ है जिनमें अन्तिम चार पूर्णतया सुरक्षित है। शेष कहीं-कहीं क्षतिग्रस्त हो गयी हैं यह शुद्ध संस्कृत भाषा तथा ब्राह्मी लिपि (कुषाणकालीन) में लिखा गया है। इसमें रुद्रदामन के शासन काल के ७२वें वर्ष का उल्लेख है। यह शक संवत् की तिथि है। तदनुसार यह लेख ७८ + ७२ = १५० ई० का है। जूनागढ़ लेख की रचना का मुख्य उद्देश्य सुदर्शन झील के बाँध के पुनर्निर्माण का विवरण सुरक्षित रखना है। इसमें झील का पूर्व इतिहास भी लिखा गया है। साथ ही यह लेख रुद्रदामन की वंशावली, विजयों, शासन, व्यक्तित्व आदि पर भी सुन्दर प्रकाश डालता है। भाषा तथा साहित्य की दृष्टि से भी इसका काफी महत्त्व है। विशुद्ध संस्कृत भाषा में लिखित यह प्राचीनतम लेखों में से है जिससे संस्कृत साहित्य के सुविकसित होने का अन्दाजा लगाया जा सकता है। जब हम यह देखते हैं कि उस समय सर्वत्र प्राकृत भाषा का ही वर्चस्व था, तब इस लेख का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। भाषा की दृष्टि से प्राकृत के समुद्र में यह लेख एक द्वीप के समान ही है। संक्षिप्त परिचय नाम :- रुद्रदामन का जूनागढ़ शिलालेख ( Junagarh Rock Inscription of Rudradaman ) स्थान :- गिरिनार पहाड़ी, जूनागढ़ जनपद, गुजरात भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- १५० ई० विषय :- सुदर्शन झील के पुनर्निर्माण से सम्बन्धित रुद्रदामन का जूनागढ़ शिलालेख : मूलपाठ १. सिद्धं [ । ] तड़ाकं सुदर्शनं गिरिनगराद [ पि ] …. मृ [ ति ]- कोपलविस्ताररायामोच्छय- निःसन्धि-बद्ध-दृढ़-सर्व्व-पालीकत्वात्पर्व्वत-पा- २. द-प्प्रतिस्पर्द्धि-सुश्लि [ ष्ट ] – [ बन्ध ] …… [ व ] जातेनाकृत्रिमेण सेतुबन्धे-नोपपन्नं सुप्रति-विहित-प्रनाली-परीवाह- ३. मीढ़विधानं च त्रिस्क [ न्ध ] नादिभिरनुग्र [ है ] महत्युपचये वर्त्तते [ । ] तदिदं राज्ञो महाक्षत्रपस्य सुगृही- ४. तनान्नः स्वामि-चष्टनस्य-पौत्र [ स्य ] [ राज्ञः क्षत्रपस्य सुगृहीतनाम्नः स्वामि जयदाम्नः ] पुत्रस्य राज्ञो महाक्षत्रपस्य गुरुभिरभ्यस्त-नाम्नो [ द्र ] – दाम्नो वर्षे द्विसप्तित [ में ] ७० [ + ] २ ५. मार्गशीर्ष-बहुल-प्र [ ति ] [ पदि]…….. : सृष्टवृष्टिना पर्जन्येन एकार्ण-वभूतायामिव पृथिव्यां कृतायां गिरेरुर्जयतः सुवर्णसिकता- ६. पलाशिनी प्रभृतीनां नदीनां अतिमात्रोदृत्तैर्व्वेगैः सेतुम [ यमा ] णानुरूप-प्रतिकारमपि गिरि-शिखर-तरु ताटाट्टालकोपत [ल्प] – द्वार शरणोच्छ्रय-विध्वंसिना युगनिधन-सदृ- ७. श-परम-घोर-वेगेन वायुना प्रमथि [ त ] सलिल-विक्षिप्त-जर्ज्जरीकृताव [ दी-र्ण ] [ क्षि ] ताश्म-वृक्ष-गुल्म-लताप्रतानं आ नदी – [ त ] लादित्यु-द्धाटितमासीत् [ । ] चत्वारि हस्त-शतानि वीशदुत्ताराण्यातेन एतावंत्येव [ वि ] स्ती [ र्णे ] न ८. पंचसप्तति हस्तानवगाढ़ेन भेदेन निस्सृत-सर्व्व-तोयं मरु-धन्व-कल्पमति-भृशं-दु [ र्द ] …… [ । ] [ स्य ] र्थे मौर्यस्य राज्ञ: चन्द्र [ गुप्तस्य ] राष्ट्रियेण [ वैश्येन पुष्यगुप्तेन कारितं अशोकस्य मौर्यस्य [ कृ ] ते यवनराजेन तुष [  ] स्फेनाधिष्ठाय ९. प्रणालीभिरलं कृतं [ । ] [ त ] त्कारित [ या ] च राजानुरूप-कृत-विधानया तस्मि [ भे ] दे दृष्टया प्रनाड्या वि [ स्तृ ] त-से [ तु ] ….. णा आ गर्भात्प्रभृत्य-वि [ ह ] त-समुदि [ व-रा ] जलक्ष्मी-धारणा-गुण-तस्सर्व्व-वर्णैरभिगंम्य रक्षाणार्थं पतित्वे वृतेन [ आ ] प्राणोच्छ्वासात्पुरुवध-निवृत्ति-कृत- १०. सत्यप्रतिज्ञेन अन्य [ त्र ] संग्रामेष्वभिमुखागत-सदृश-शत्रु-प्रहरण-वितरण-त्वाविगुणरि [ पु ] …. त-कारुण्येन स्वयमभिगत जन-पद-प्रणिपति [ ता ] [ यु ]। षशरणदेन दस्यु-व्याल-मृग-रोगादिभिरनुपसृष्ट-पूर्व्व-नगर-निगम- ११. जनपदानां स्ववीर्य्यार्जितानामनुरक्त-सर्व्व-प्रकृतीनां पूर्व्वापराकर- वन्त्यनूपनीवृदानर्त्त-सुराष्ट्र-श्व [ भ्र-मरु-कच्छ-सिन्धु-सौवी ] र कुकुरापरांत-निषादादीनां समग्राणां तत्प्रभावाद्य [ थावत्प्राप्रधर्मार्थ ] – काम-विषयाणां विषयाणां पतिना सर्व्वक्षत्राविष्कृत- १२. वीर शब्द जा – [ तो ] त्सेकाविधेयनां यौधेयानां प्रसह्योत्सादकेन दक्षिणा-पथपतेस्सातकर्णेद्विरपि नीर्व्याजमवजीत्यावजीत्य संबंधा [ वि ] दूरतया अनुत्सादनात्प्राप्तयशासा [ वाद ] ….. [ प्राप्त ] विजयेन भ्रष्टराज प्रतिष्ठापकेनं यथार्थ-हस्तो- १३. च्छयार्जितोर्जित-धर्मानुरागेन शब्दार्थ- गान्धर्व्व-न्यायाद्यानां विद्यानां महतीनां पारण-धारण-विज्ञान प्रयोगावाप्त-विपुल-कीर्तिना-तुरग-गज- रथ-चर्य्यासि-चर्म-नियुद्धाद्या …. ति-परबल-लाघव-सौष्ठव-क्रियेण-अहरहर्द्दान-मानान- १४. वमान-शीलेन स्थूललक्षेण यथावत्प्राप्तैर्बलिशुल्को भागैः कानक-रजत-वज्र-वैडूर्य-रत्नोपचय-विष्यन्दमान कोशेन स्फुट-लघु-मधुर-चित्र-कान्त-शब्दसमयोदारालंकृत-गद्य-पद्य- [ काव्य-विधान-प्रवीणे ] न प्रमाण-मानोमान-स्वर-गति-वर्ण्ण-सार-सत्वादिभिः १५. परम-लक्षण-व्यंचनैरुपेत-कान्त-मूर्तिना स्वयमधिगत-महाक्षत्रप-नाम्ना नरेन्द्र-क [ न्या ] – स्वयंवरानेक-माल्य-प्राप्त-दाम्न [  ] महाक्षत्रपेण रुद्र-दाम्ना वर्ष सहस्राय गो-ब्रा [ ह्मण ] …… [ र्त्थं ] धर्म्मकीर्ति-वृदध्यर्थ च अपीडयि [ त्व ] कर-विष्टि- १६. प्रणयक्रियाभिः पौरजानपदं जनं स्वस्मात्कोशा महता धनौधेन-अनति-महता च कालेन त्रिगुण-दृढ़तर-विस्तारायामं सेतुं विधा [ य ] सर्वत [ टे ] ……सुदर्शनतरं कारितमिति [ । ] [ अस्मि ] न्नर्त्थे- १७. [ च ] महाक्षत्रपस्य मतिसचिव-कर्मसचिवैरमात्य-गुण-समुद्युक्तैरप्यति-महत्वाद्भेदस्यानुत्साह-विमुख-मतिभिः प्रत्याख्यातारंभ १८. पुनः सेतुबन्ध-नैराश्याहाहाभूतासु प्रजासु इहाधिष्ठाने पौरजानपद-जनानुग्रहार्थ पार्थिवेन कृत्स्नानामानर्त्त-सुराष्टानां पालनार्थन्नियुक्तेन १९. पह्लवेन कुलैप-पुत्रेणामात्येन सुविशाखेन यथावदथं धम व्यवहार-दर्शनैरनुरागमभिवर्द्धयता शक्तेन दान्तेनाचपलेनाविस्मितेनार्येणा-हार्य्येण २०. स्वधितिष्ठता धर्म-कीर्ति-यशांसि भर्तुरभिवर्द्धयतानुष्ठितमिति [ । ] हिन्दी अनुवाद १. सिद्धम्। गिरिनगर के समीप, मिट्टी और पाषाण खण्डों [ से निर्मित ] चौड़ाई और लम्बाई ऊँचाई में बिना जोड़ के बंधी मजबूत बन्ध पंक्तियों के कारण दृढ़ता में पर्वत के २. समीपवर्ती छोटी पहाड़ियों के साथ स्पर्धा करनेवाली ठोस प्राकृतिक विशाल बाँध से युक्त, समुचित रूप से बने जल निकालने की नालियों, बढ़े जल को निकालनेवाले नालों और ३. गन्दगी से बचने के उपायों से युक्त तीन भागों में विभक्त और सुरक्षा की समुचित व्यवस्था से सम्पन्न सुदर्शन नाम की यह झील इस समय बड़ी अच्छी अवस्था में रही है। ४. सुविख्यात राजा महाक्षत्रप चष्टन के पौत्र [ सुविख्यात ( सुनाम ) राजा क्षत्रप जयदामन के ] पुत्र, श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा सतत स्मरणीय नामवाले राजा महाक्षत्रप रुद्रदामन के बहत्तरवें राजवर्ष में ५. मार्गशीर्ष महीने के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को घनघोर वर्षा हुई, जिससे समस्त पृथ्वी समुद्र के समान प्रतीत होने लगी। फलस्वरूप ऊर्जयंत नाम के पर्वत से निकलनेवाली सुवर्णसिक्ता, ६. पलाशिनी प्रभृति नदियों के उमड़े हुए वेग और पर्वत की चोटियों, वृक्षों, तटों, अटारियों, मकानों के ऊपरी तल्लों, दरवाजों और बचाव के लिये बनाये गये ऊँचे स्थानों को विनष्ट कर देनेवाले ७. प्रचण्ड पवन से विलोड़ित जल के विक्षेप से, यथोचित उपाय किये जाने पर भी जर्जरित होकर पत्थरों, वृक्षों, झाड़ियों और

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उषावदत्त का कार्ले अभिलेख

भूमिका नहपानकालीन उषावदत्त का कार्ले अभिलेख महाराष्ट्र के पुणे जनपद से प्राप्त होता है। पुणे जिले में कार्ले नामक स्थान में जो चैत्य है उसके मध्यद्वार के दाहिनी ओर ऊपरी भाग पर इस अभिलेख का अंकन हुआ है। यह ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में है। संक्षिप्त परिचय नाम :- नहपानकालीन उषावदत्त का कार्ले अभिलेख ( Karle or Karla Inscription of Ushavdatta ) स्थान :- कार्ले, पुणे जनपद, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध ( ≈ ११९ से १२४ ई० ) विषय :- उषावदत्त द्वारा ब्रह्मणों, बौद्धों को दान, कन्याओं का विवाह कराना इत्यादि।  मूलपाठ १. सिधं [ ॥ ] रजो खहरातस खतपस नहपानस जा [ म ] तरा [ दीनीक ] पूतेन उसभदातेन ति- २. गो सतसहस [ दे ] ण नदिया बणासाया [ सु ] वण [ ति ] थकरेन [ देवतान ] ब्रह्मणन च सोलस गा- ३. म-दे [ न ] पभासे पूत-तिथे ब्रह्मणाण अठ-भाया-प [ देन ]  [ अ ] अनुवासं पितु सत सहसं [ भो ] – ४. जपयित वलूरकेसु लेण-वासिनं पवजितानं चातुदिसस सघस ५. यापगथ गामो [ कर ] जिको दतो स [ वा ] न [ वा ] स-वासितानं ( ? ) [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद सिद्धम्॥ तीस हजार गाय [ दान ] देनेवाले, वर्णाशा नदी पर सुवर्ण तीर्थ स्थापित करनेवाले, [ देवताओं ] और ब्राह्मणों को सोलह ग्राम देनेवाले, पुण्य तीर्थ प्रभास में ब्राह्मणों को आठ भार्या ( पत्नी ) प्रदान करनेवाले, पिता के निमित्त प्रति वर्ष दस हजार [ व्यक्तियों-ब्राह्मणों ] को भोजन कराने वाले, राजा क्षहरात क्षत्रप नहपान के जामाता [ दीनीक ] -पुत्र उषवदात ( ऋषभदत्त ) द्वारा वलूरक लयण ( गुहा ) निवासी चातुर्देशिक प्रव्रजितों ( भिक्षुओं ) के वर्षावास के समय यापन के लिए करजिक ग्राम दिया गया। सर्व वास वासियों के लिए ( ? ) महत्त्व इस अभिलेख में नहपान के जामाता ऋषभदत्त द्वारा बलरक लयण ( संभवत: कार्ले स्थित गुहा जिस पर यह लेख अंकित है ) चारों दिशाओं के भिक्षुओं के वर्षावास के समय यापन ( भोजन ) आदि की व्यवस्था के लिए करजिक ग्राम के दान दिये जाने का उल्लेख है। कहना न होगा कि वर्षा के दिनों में भिक्षु भिक्षाटन न कर एक स्थान पर निवास करते थे। उसी को ध्यान में रखकर यह व्यवस्था की गयी जान पड़ती है। करजिक का तात्पर्य कदाचित कर्जत ( Karjat ) से है जो उल्हास नदी तट पर रायगढ़ जनपद में है। वहाँ से कार्ले बहुत दूर भी नहीं है। इस अभिलेख का महत्त्व दान के विवरण की अपेक्षा ऋषभदत्त ( उषवदात ) की प्रशस्ति में है। इससे ज्ञात होता है कि जहाँ वह बौद्ध भिक्षुओं के प्रति आकृष्ट था वहीं वह ब्राह्मण धर्म के भी निकट था। उसने तीस हजार गायें दान की थीं; ब्राह्मणों को सोलह ग्राम दिये थे और आठ ब्राह्मणों के विवाह कराये थे ( निर्धन ब्राह्मण लड़कियों का विवाह कराना पुण्य कार्य समझा जाता था )। प्रतिवर्ष वह पिता के निमित्त ( पितृपक्ष में ) दस हजार ब्राह्मणों को भोजन कराता था। साथ ही उसने वर्णाशा नदी के किनारे सुवर्ण नामक तीर्थ ( मन्दिर ?) स्थापित किया था। ये सारे कार्य ऐसे हैं जो ब्राह्मण-धर्मावलम्बी ही कर सकता है। उषावदत्त का नासिक गुहालेख उषावदत्त का तिथिविहीन नासिक गुहालेख दक्षमित्रा का नासिक गुहालेख

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उषावदत्त का तिथिविहीन नासिक गुहालेख

भूमिका नहपानकालीन तिथिविहीन उषावदत्त का नासिक गुहालेख ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में है। इसमें विविध दान का वर्णन और मालवों के विरुद्ध अभियान का विवरण सुरक्षित है। संक्षिप्त परिचय नाम : नहपानकालीन उषावदत्त का तिथिविहीन नासिक गुहालेख ( Undated Nasik cave inscription of Ushavdatta of time of Nahpan ) स्थान : नासिक गुहा सं० १०, महाराष्ट्र भाषा : संस्कृत  ( प्राकृत प्रभावित ) लिपि : ब्राह्मी समय : नहपान के काल का. विषय : उषवदात द्वारा त्रिरश्मि पर्वत पर दिया गया दान मूलपाठ १. सिद्धम्! [ स्वस्तिक चिह्न ] (॥) राज्ञः क्षहरातस्य क्षत्रपस्य नहपानस्य जामात्रा दीनीकपुत्रेण उषवदातेन त्रि गोशत-सहस्रदेन नद्या बार्णासायां सुवर्णदानतीर्थकरेण देवत [ ] भ्यः ब्राह्मणेभ्यश्च षोडशग्रामदेन अनुवर्ष ब्राह्मणशतसाहस्री भोजापयित्रा २. प्रभासे पुण्यतीर्थे ब्राह्मणेभ्य: अष्टभार्यप्रदेनी भरुकछे दशपुरे गोवर्धने शोपरिगे च चतुशालावसध-प्रतिश्रय-प्रदेन आराम तडाग-उदपान-करेण इबापाराद-दमण-तापा-करबेणा-दाहनुका-नावा-पुण्य-तर-करेण एतासां च नदीनां उभतो तीरं सभा- ३. प्रपाकरेण पींडीतकावडे गोवर्धने सुवर्णमुखे शोर्पारगे च रामतीर्थ चरक पर्षभ्यः ग्रामे नानंगोले द्वात्रीशत नाळीगेर-मूल सहस्र-प्रदेन गोवर्धने त्रोरश्मिषु पर्वतेषु धर्मात्मा इदं लेणं कारितं इमा च पोढियो ( ॥ ) भटारका-अञातिया च गतोस्मिं वर्षारतुं मालये [ हि ] हि रुधं उतमभाद्र मोचयितुं ( । ) ४. ते च मालया प्रनादेनेव अपयाता उतमभद्रकानं च क्षत्रियानं सर्वे परिग्रहा कृता ( । ) तोस्मिं गतो पोक्षरानि ( । ) तत्र च मया अभिसेको कृतो त्रीणि च गोसहस्रानि दतानि ग्रामो च ( ॥ )दत च [ ] नेन क्षेत्र [ ] ब्राह्मणस वाराहि-पुत्रस अश्विभूतिस हथे कोणिता मुलेन काहापण-सहस्रेहि चतुहि ४००० यो-स-पितु-सतक नगरसीमायं उतारपरा [ यं ] दीसायं ( । ) एतो मम लेने वस- ५. तान चातुदीसस भिखु-सघस मुखाहारों भविसती ( ॥ ) हिन्दी अनुवाद सिद्धम्‌ ! क्षहरात क्षत्रपराजा नहपान के दामाद और दीनीक के पुत्र उषवदात के द्वारा- जिसने तीन हजार गायें दान दी हैं, वर्णासा नदी पर सुवर्ण तथा सीढ़ियों का दान दिया है, देवताओं एवं ब्राह्मणों को ग्रामदान दिये हैं, जो प्रति वर्ष एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराता है, प्रतिवर्ष वह पुण्यतीर्थ प्रभास में ब्रह्मणों को आठ भार्याएँ देता है, जिसने भृगुकच्छ, दशपुर, गोवर्धन और शूर्पारक को चतुःशाला-गृह और विश्रामगृह प्रदान किया, जिसने वाटिका, तालाब और कुओं को बनवाया, उसने इबा, पारदा, दमन, तापी, करवेण्वा और दाहनुक नदियों के निःशुल्क नाव से पार करने की व्यवस्था किया है और इन नदियों के दोनों किनारों पर विश्रामालय और प्याऊ बनवाया है, जिसने पण्डितकावड़, गोवर्धन, सुवर्णमुख, शूर्पारक व रामतीर्थ में स्थित चरक सम्प्रदाय के अनुयायियों के लिए नानंगोल ग्राम में बत्तीस हजार नारियल का मूल ( पेड़ ) दिया। धर्मात्मा उषावदत्त द्वारा गोवर्धन प्रदेश के त्रिरश्मि पर्वत पर गुहा और जलकुण्ड बनवाये गये। भट्टारक की आज्ञा वर्षा ऋतु में उत्तम भद्रों के अधिपति को मालवों द्वारा बंदी बनाया गया था छुड़ाने के लिए मैं ( उषावदत्त ) गया। वे मालव मेरा हुंकार सुनकर भाग गये और सभी अब उत्तमभद्रों द्वारा बन्दी बना लिये गये। फिर मैं पुष्करतीर्थ ( अजमेर ) गया और वहाँ स्नानकर ३,००० गायें और ग्राम दान दिया। वहाँ मेरे द्वारा वाराहीपुत्र अश्वभूति नामक ब्राह्मण के हाथ से ४,००० कार्षापण से खेत ख़रीदकर दिया गया जिसपर अश्वपति के पिता का स्वत्व है। यह नगर के पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित है। इससे मेरी गुहा में रहने वाले चारों दिशाओं से आये भिक्षुसंघ का भोजन होगा। महत्त्व इस अभिलेख से निम्न जानकारी मिलती है :- क्षहरात वंशी क्षत्रपराज नहपान के दामाद उषावदत्त ( ऋषभदत्त )। उषावदत्त के पिता का नाम दिनीक मिलता है। एक प्रमुख बात यह है कि इसमें एक साथ ब्राह्मणों और बौद्धों को दान देने की चर्चा मिलती है। मालवों के विरुद्ध अभियान की चर्चा की गयी है। साथ ही राज्य की सीमा का मोटे-तौर पर अनुमान मिलता है। इसमें चरक सम्प्रदाय का उल्लेख मिलता है। उषावदत्त का नासिक गुहालेख उषावदत्त का कार्ले अभिलेख

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दक्षमित्रा का नासिक गुहालेख

भूमिका नहपान की पुत्री दक्षमित्रा का नासिक गुहालेख गुफा संख्या १० में बायीं ओर स्थित कोठरी के द्वार के ऊपर अंकित है। इस अभिलेख के नीचे ही उषावदत्त ( ऋषभदत्त ) अभिलेख अंकित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- नहपानकालीन दक्षमित्रा का नासिक गुहालेख ( Nasik cave Inscription of Dakshmitra of Time of Nahpan ) स्थान :- नासिक, गुहा संख्या – १०, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- नहपान का शासनकाल ( ≈ ११९ से १२४ वर्ष ) विषय :- नहपान की पुत्री दक्षमित्रा द्वारा धर्मार्थ गुहावास का दान दक्षमित्रा का नासिक गुहालेख : मूलपाठ  १. सीधं ( ॥ ) रांओ क्षहरातस क्षत्रपतस नहपानस दीहि— २. तु दीनीकपुत्रस उषवदातस कुडुंबिनिय दखमित्राय देयधम औरवको ( ॥ ) संस्कृत छाया सिद्धम्। राज्ञः क्षहरातस्य क्षत्रपस्म नहनापस्य दुहितुः दिनीक पुत्रस्य क्षषभदत्तस्य भार्यायाः दक्षमित्रायाः देयधर्मः उपवारकः। हिन्दी अनुवाद १. सिद्धम्॥ राजा क्षहरात क्षत्रप नहपान की २. दुहिता, दीनीकपुत्र ऋषभदत्त की स्त्री दक्षमित्रा का धर्मदेय — के लिए दिया गया गुहावास। महत्त्व भारतीय उप-महाद्वीप में शकों की कई शाखाओं के शासन का विवरण मिलता है; यथा – तक्षशिला के शक शासक मथुरा के शक शासक : इसी वंश के शासक शोडास का एक एक अभिलेख मिलता है। पश्चिमी भारत के शक शासक : इसकी भी दो शाखाएँ थीं – एक, क्षहरात वंश : इसका सबसे प्रसिद्ध शासक नहपान हुआ। द्वितीय, कामर्दक वंश : इसका सबसे प्रसिद्ध शासक रुद्रदामन था। प्रस्तुत अभिलेख नहपान की दुहिता दक्षमित्रा का है। इस अभिलेख से निम्न बातें स्पष्ट होती हैं :- एक, दक्षमित्रा नहपान की पुत्री थी। द्वितीय, नहपान के लिए क्षत्रप विरुद का प्रयोग किया गया है। तृतीय, दक्षमित्रा का विवाह उषावदत्त ( ऋषभदत्त ) से हुआ था। उषावदत्त ( ऋषभदत्त ) के पिता का नाम दिनीक था। दक्षमित्रा ने गुहादान किया था।

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उषावदत्त का नासिक गुहालेख

भूमिका नहपानकालीन उषावदत्त का नासिक गुहालेख ( वर्ष ४१, ४२, ४५ ) लयण संख्या १० में बायीं ओर स्थित कोठरी के द्वार के ऊपर नहपान की पुत्री और उषवदात ( ऋषभदत्त ) की पत्नी दक्षमित्रा के लेख के नीचे अंकित है। इसमें इस कोठरी ( ओवरक ) के दान की चर्चा है। यह अभिलेख ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में है। संक्षिप्त परिचय नाम :- उषावदत्त का नासिक गुहालेख ( Nasik cave Inscription of Ushavadatta ), उषावदत्त का एक नाम ऋषभदत्त ( Rishabhadatta ) भी मिलता है। स्थान :- नासिक, गुहा संख्या – १०, महाराष्ट्र भाषा :- प्राकृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- नहपान का शासनकाल ( ≈ ११९ से १२४ वर्ष ) विषय :- नहपान के जामाता ऋषभदत्त ( उषावदत्त ) द्वारा गुहा निर्माण और दान की चर्चा उषावदत्त का नासिक गुहालेख : मूलपाठ १. सिघं [ ॥ ] वसे ४० (+) २ वेसाख-मासे राञो क्षहरातस क्षत्रपस नहपानस जामातरा दीनीक-पुत्रेन उषवदतेन संघस चातुदिसस इमं लेणं नियातितं [ । ] दत चाने अक्षय निवि काहापण-सहस्रा- २. नि त्रोणि ३००० संघस चातुदिवस ये इयस्मि लेणे वसांतानं भविसंति चिवरिक कुशाणमूले च [ । ] एते च काहापणा प्रयुता गोवधनं वाथवासु श्रेणिसु [ । ] कोलीक निकाये २००० वृधि पडिक शत अपर कोलीक निका- ३. ये १००० वधि पा [ यू ] न- [ प ] डिक शत [ । ] एते च काहापणा [ अ ] पडिदातवा वधि-भोजा [ । ] एतो चिवरिक-सहस्रानि बे २००० ये पडिके सते [ । ] एतो मम लेणे वसवुथान भिखुनं वीसाय एकीकस चिवरिक वारसक [ । ] य सहस्त्र प्रयुतं पायुन पडिके शते एतो कुशन- ४. मूल [ । ] कापूराहारे च गाम चिखलपद्रे दतानि नालिगेरान मुल-सहस्राणि अठ ८००० [ । ] एत च सर्व स्रावित निगम-सभाय निबन्ध च फलकवारे चरित्रतो ति [ । ] भूयोनेन दतं वसे ४० (+) १ कातिक शूधे पनरस पुवाक वसे ४० (+) ५ ५. पनरस नियुतं भगवतां देवानं ब्राह्मणानं च कार्षापण-सहस्राणि सतरि ७००० पंचत्रिंशक सुवण कृता दिन सुवर्ण सहस्रणं मूल्यं [ ॥ ] ६. फलकवारे चरित्रतोति [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद १. सिद्धम्॥ वर्ष ४२ के वैशाख मास में क्षहरात राजा क्षत्रप नहपान के जामाता, दीनीकपुत्र ऋषभदत्त ( उषवदात ) द्वारा चारों दिशाओं के संघ ( भिक्षु-संघ ) के लिए यह लयण ( गुहा ) निर्मित कराया गया। तथा उसने २. तीन सहस्र ( ३००० ) [ कार्षापण ] इस लयण में निवास करनेवाले चारों दिशाओं के ( भिक्षु ) संघ के चीवर और कुशणमूल [ के लिए ] अक्षयनीवी के रूप में दिये। ये कार्षापण गोवर्धन स्थित श्रेणियों के पास जमा किये गये हैं। कोलिक निकाय को २००० कार्षापण एक पादिक प्रतिशत ब्याज ( वृद्धि ) पर और दूसरे ( अपर ) कोलिक निकाय को ३. १००० पौन पादिक ( पाद-ऊन-पादिक ) प्रतिशत ब्याज पर। ये सब [ कार्षापण ] अप्रतिदातव्य ( न लौटानेवाले ) और [ केवल ] ब्याज ( वृद्धि ) प्राप्त करनेवाले हैं। इनमें से जो २००० ( कार्षापण ) एक पादिक प्रतिशत [ सूद पर ] हैं, वे चीवर के लिए हैं। उनसे मेरे इस लयण ( गुहा ) में वास करनेवाले २० भिक्षुओं में से प्रत्येक को प्रतिवर्ष एक-एक चीवर [ दिया जायेगा ]। जो एक हजार पौन पादिक प्रतिशत [ सूद पर ] हैं वे कुशणमूल के लिए हैं। ४. कर्पूर-आहार स्थित चिखलपद्र ग्राम में जो नारियल का बाग है, वह भी दिया जिसका मूल्य ८००० [ कार्षापण ] है। यह सब नियमानुसार निगम-सभा में श्रवित किया और फलक पर चित्रित (अंकित) किया गया। वर्ष ४१ के कार्तिक शुक्ल १५ को यह जो दिया गया था [ उसके बदले ] ५. वर्ष ४५ के पन्द्रहवें दिन भगवान ( बुद्ध ), देवताओं और ब्राह्मणों के लिए ७००० कार्षापण और हजार कार्षापण का मूल्य ३५ सुवर्ण के रूप में दिया गया। ६. यह फलक पर चित्रित ( अंकित ) किया गया। उषावदत्त का नासिक गुहालेख : महत्त्व यह अभिलेख पश्चिमी भारत के क्षहरात-वंशी शक क्षत्रप नहपान के जामाता ऋषभदत्त द्वारा उत्कीर्ण कराया गया है। इसमें वर्ष ४२, ४१ और ४५ की तीन तिथियाँ अंकित हैं जिनमें पहली तिथि के साथ केवल मास का, दूसरे के साथ मास और दिन का और तीसरेके साथ केवल दिन का उल्लेख है। वर्ष का अकेले अथवा मास और दिन दोनों के साथ उल्लेख अभिलेखों में सामान्यतः पाया जाता है। परन्तु वर्ष के साथ केवल मास अथवा दिन का उल्लेख असाधारण है। पहली तिथि में मास के साथ दिन का उल्लेख न किया जाना उतनी खटकनेवाली बात नहीं है जितना मास का उल्लेख न कर केवल दिन का उल्लेख। यह लिपि की भूल है अथवा जान-बूझकर ऐसा किया गया है कहना मुश्किल है। इस अभिलेख में तीन तिथियों के उल्लेख से ऐसा भ्रम होता है कि इसमें भिन्न-भिन्न तीन दानों का उल्लेख है। वस्तुतः इसमें केवल दो ही दानों की चर्चा है। अन्तिम दो तिथियों का सम्बन्ध एक ही दान से है। इस अभिलेख के पूर्वांश से ज्ञात होता है कि ऋषभदत्त ने वह गुफा निर्माण कराया था जिसमें अभिलेख अंकित है। इस अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि यह गुहा किसी संघ या सम्प्रदाय विशेष के लिये न था वरन् देश में प्रचलित सभी संघों के भिक्षु इस गुहा में रह सकते थे। इस लयण निर्माण के साथ-साथ ऋषभदत्त ने ३००० कार्षापण से एक अक्षयनीवि की स्थापना की थी और उसने इस धन को दो श्रेणियों अथवा निकायों को दिया था। यह धन एक प्रकार का ( आधुनिक शब्दावली में ) सावधि जमा ( Fixed Deposit ) था; किन्तु वह अप्रतिदातव्य था अर्थात् निकाय, जिनको यह धन दिया था, वे इस धन को किसी को दे या लौटा नहीं सकते थे। वह उनके पास स्थायी रूप से जमा किया गया था; उसका सूद ही वे दे सकते थे और उस सूद का ही निर्दिष्ट कार्य के लिए उपयोग किया जा सकता था। ऋषभदत्त ने अपना यह धन दो भिन्न निकायों को और सूद के दो भिन्न दरों पर दिया था। दरों की यह भिन्नता आर्थिक दृष्टि से विचारणीय है। एक निकाय को दिये गये धन से गुहा में रहनेवाले २० भिक्षुओं को चीवर देने की व्यवस्था थी। इसके लिए मिलनेवाला सूद २० कार्षापण था। दूसरे निकाय को दिये गये धन से केवल ७ कार्षापण सूद की

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