अगरोहा यौधेय मुद्रांक

भूमिका

अगरोहा यौधेय मुद्रांक हरियाणा प्रान्त के हिसार जिले के अगरोहा नामक स्थान से यह मुद्राङ्क ( मुहर ) प्राप्त हुई ह। यह मिट्टी की अण्डाकार ७ सेंटीमीटर लम्बी और ६.२ सेंटीमीटर चौड़ी है। इस मुद्रांक के ऊपर के एक-तिहाई भाग में ककुस्थयुक्त वामाभिमुख वृषभ का अंकन है। उसके नीचे एक लम्बी रेखा है। रेखा के नीचे कुषाण-गुप्तकालीन लिपि में पाँच पंक्तियों का लेख है।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- अगरोहा यौधेय मुद्रांक ( मुहर ) ( Agroha Yaudheya Stamp )

स्थान :- अगरोहा, हिसार जनपद, हरियाणा

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- ब्राह्मी

समय :- गुप्तपूर्व

विषय :- यौधेय शासन प्रणाली की जानकारी

मूलपाठ

१. श्राय्यौथेवगण पुरस्कृतस्य महारा [ – ]

२. ज महाक्षत्रप महासेनापतेरिन्द्र [ – ]

३. मित्र गृहीतस्य महाराज महाक्षत्रप [ – ]

४. सेनापतेरप्रतिहतशासनस्य

५. धर्ममित्र नन्द वर्म्मणः [ । ]

हिन्दी अनुवाद

श्री यौधेयगण द्वारा पुरस्कृत ( निर्वाचित अथवा मनोनीत ) महाराज महाक्षत्रप महासेनापति इन्द्रमित्र ( अथवा राज्यमित्र ) द्वारा गृहीत ( स्वीकृत ) महाराज महाक्षत्रप सेनापति अप्रतिहत शासन [ करनेवाले ], धर्म के मित्र ( धर्मात्मा ) नन्दवर्मण ( नयवर्मण, वसुवर्मण ) की [ मुद्रा ]।

अगरोहा यौधेय मुद्रांक : महत्त्व

मुद्रांक घिसा होने के कारण तीन स्थलों पर इसका पाठ संदिग्ध है :-

  • महारा [ – ]
  • महासेनापतेरिन्द्र [ – ]
  • नन्द

प्रथम पंक्ति में गृहीत ‘महाराज’ पाठ तृतीय पंक्ति में आये ‘महाराज’ पाठ के परिप्रेक्ष्य में समुचित जान पड़ता है। शेष दो स्थलों पर व्यक्तिवाचक नामों का पाठ संदिग्ध है। उनके जो भी पाठ हों, मुद्रांक के ऐतिहासिक महत्त्व पर कोई अन्तर नहीं पड़ता।

यह मुद्रांक यौधेयगण से सम्बद्ध है। यौधेय गण का साहित्यिक विवरण इ तरह मिलता है :-

  • यौधेयों का गण के रूप में प्राचीनतम् उल्लेख पाणिनि कृत अष्टाध्यायी में हुआ है।
  • महाभारत में इनका उल्लेख अम्बष्ठ, और त्रिगर्त तथा मालव और शिवि के साथ हुआ है।
  • वराहमिहिर ने राजन्य, त्रिगर्त, आर्जुनायन आदि के साथ इनका उल्लेख किया है।

यौधेय गण के सिक्के बड़ी मात्रा में उपलब्ध हुए हैं। उनके अध्ययन से ज्ञात होता है कि वे सिक्के स्पष्टतः तीन प्रकार के हैं और वे तीन भिन्न कालों के हैं तथा तीन भिन्न क्षेत्रों में पाये गये हैं।

  • प्रथम – इन सिक्कों पर ‘यौधेयानां बहुधान्यके’ अंकित है।
    • ये यौधेयों के प्राचीनतम सिक्के हैं। इनका समय लगभग द्वितीय से पहली शताब्दी ई०पू० है।
    • इससे ज्ञात होता है कि वे बहुधान्यक प्रदेश में रहते थे अर्थात् वे उन दिनों हरियाणा क्षेत्र में निवास करते थे।
    • यौधेय लोग ईसा पूर्व की पहली शती में किसी समय विदेशी आक्रामकों, सम्भवतः बाख्त्री के यवनों के दबाव के कारण दक्षिण-पूर्व की ओर खिसक गये और राजस्थान के उत्तरी-पूर्वी भाग में जा बसे। इसका ज्ञान हमें भरतपुर के पास विजयगढ़ से मिले एक खण्डित अभिलेख से होता है।
  • द्वितीय – इनपर ‘भगवत स्वामिनो ब्रह्मण्य यौधेय’ लिखा है।
    • दूसरी शती में १५० ई० के आसपास शक महाक्षत्रप रुद्रदामन ने उन्हें परास्त किया था जिसकी जानकारी रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से मिलती है। इस प्रदेश से भगा दिया तब वे हिमालय के पर्वतीय प्रदेश में पश्चिम में व्यास की उत्तरी धारा से लेकर पूर्व में गढ़वाल तक शिवालिक पर्वत शृंखला के बीच आ गये। इस काल के सिक्कों पर ‘भगवत स्वामिनो ब्रह्मण्य यौधेय’ अंकित है।
  • तृतीय – इन सिक्कों पर ‘यौधेयगणस्य जय’ अंकित मिलता है।
    • तत्पश्चात् किसी समय वे पुन: पंजाब की ओर लौट आये तथा सतलज और व्यास के काँठे में रहने लगे। इस काल के सिक्कों के साँचे बड़ी मात्रा में लुधियाना के निकट सुनेत में मिले हैं। इन सिक्कों पर ‘यौधेयगणस्य जय’ अंकित मिलता है और ये सिक्के कुषाण सिक्कों की अनुकृति जान पड़ते हैं।

अगरोहा मुद्रांक इसी काल अर्थात् कुषाण-गुप्त काल का है और ऐसा प्रतीत होता है कि वह किसी शासकीय पत्र में लगा कर अगरोहा भेजा गया होगा। इस मुद्रांक का महत्त्व इस दृष्टि से है कि उससे यौधेयों की शासन प्रणाली पर प्रकाश पड़ता है। इससे ऐसा लगता है कि यौधेय गण अपने प्रधान को मनोनीत अथवा निर्वाचित ( पुरस्कृत ) करता था और वह महाराज महासेनापति कहलाता था। इनमें यह प्रणाली एक-दो शताब्दी पहले से ही चली आ रही थी, यह विजयगढ़ अभिलेख से प्रकट होता है।

यौधेय गण के प्रधान के लिए ‘महाराज’ शब्द का प्रयोग कदाचित् इस बात का प्रतीक है कि इस काल में गण राज्य राजतन्त्र की भावना से प्रभावित होने लगे थे। यौधेयों के पड़ोसी कुणिन्द के सिक्कों पर भी यह विरुद पाया जाता है।

पाणिनि ने यौधेय-गण को आयुधजीवी कहा है जिससे यह बात ज्ञात होता है कि यह लड़ाकू जाति थी और युद्ध कौशल में उसकी ख्याति थी। यह बात यौधेय नाम से भी ध्वनित होती है। कदाचित् सैनिक होने के कारण ही यौधेय अपने प्रमुख को ‘महासेनापति’ के रूप में जानते और पहचानते थे। इस कारण यह विरुद उनके साथ आरम्भ से ही चला आ रहा होगा।

‘महाक्षत्रप’ विरुद मूलतः ईरानी उपाधि है और इसका प्रयोग शक नरेशों के नाम के साथ मिलता है। पश्चिमी भारत पर पहली शती से चौथी शती ई० तक शासन करनेवाले शक नरेश इस विरुद का निरन्तर प्रयोग करते रहे। पर भारतीय नरेशों के बीच इसने कभी लोकप्रियता प्राप्त नहीं की थी। ऐसी अवस्था में यौधेय-गण के प्रधानों द्वारा इसका प्रयोग कुछ असाधारण है। जब ये लोग राजस्थान में थे तब पश्चिमी शक महाक्षत्रप रुद्रदामन ने इन्हें वहाँ से निकाल बाहर किया। जान पड़ता है कि इन शकों के सम्पर्क में आने के पश्चात् यौधेय शासकों को यह विरुद आकर्षक लगा होगा और तभी उन्होंने इसे अपनाया होगा। इस सम्भावना को विजयगढ़ अभिलेख में इस विरुद के अभाव से समर्थन प्राप्त होता है।

इस मुद्रांक में नन्दवर्मन ( नयवर्मन, वसुवर्मन ) ने अपने को इन्द्रमित्र ( राज्य- मित्र ) द्वारा गृहीत बताया है। इस गृहीत शब्द से हमारा ध्यान गुप्त सम्राट् स्कन्दगुप्त के भीतरी अभिलेख में चन्द्रगुप्त द्वितीय के लिए प्रयुक्त समुद्रगुप्त परिगृहीत की ओर जाता है। गृहीत और परिगृहीत दोनों का शाब्दिक भाव ग्रहण किया हुआ ( adopted or selected ) है। चन्द्रगुप्त द्वितीय के सम्बन्ध में हम यह जानते हैं कि वह समुद्रगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र नहीं था। वह अपने बड़े भाई रामगुप्त को हटाकर शासनारूढ़ हुआ था। अतः इसके शासनाधिकार को समर्थित बताने के लिए स्कन्दगुप्त ने अपने भीतरी अभिलेख में इसका प्रयोग चन्द्रगुप्त के लिए किया था। उसने यह बताने की चेष्टा की है कि समुद्रगुप्त ने चन्द्रगुप्त ( द्वितीय ) को अपना उत्तराधिकारी स्वीकार अथवा मनोनीत किया था। इस प्रकार इस मुद्रांक में गृहीत शब्द का भाव होगा कि इन्द्रमित्र ( राज्यमित्र ) ने नन्दवर्मन (नयवर्मन, वसुवर्मन) को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था। यदि वस्तुत: इसी भाव में इसका प्रयोग हुआ हो तो यौधेय-गण की शासन-प्रणाली में गण-प्रमुख अपना उत्तराधिकारी मनोनीत करता था और गणपरिषद् उसका समर्थन ( पुरस्कृत ) करती थी। किन्तु दक्षिण भारत के इक्ष्वाकु वंश के अभिलेख में चान्तमूल को महासेन परिगहस ( महासेन परिगृहीत ) कहा गया है। वहाँ उसका भाव है महासेन ( स्कन्द-कार्तिकेय ) का भक्त अथवा अनुयायी। इस दृष्टि सम्भवत: ‘गृहीत’ का भाव इस मुद्रांक ने अनुयायी अर्थात् इन्द्रमित्र का स्थान ग्रहण करनेवाला उत्तराधिकारी होगा ।

अन्त में एक उल्लेखनीय बात यह है कि जहाँ इन्द्रमित्र ( राज्यमित्र ) और नन्दवर्मन ( नयवर्मन, वसुवर्मन ) समान रूप से महाराज महाक्षत्रप कहे गये हैं, वहीं इन्द्रमित्र ( राज्यमित्र ) के लिए ‘महासेनापति’ और नन्दवर्मन ( नयवर्मन, वसुवर्मन ) के लिए मात्र ‘सेनापति’ विरुद का प्रयोग हुआ है। यह एक महत्त्व का अन्तर है। यौधेयों के गण-प्रमुख की उपाधि महासेनापति थी ऐसी सम्भावना है। उसके परिप्रेक्ष्य में यह धारणा है कि गण-प्रमुख के जीवन-काल में उसके उत्तराधिकारी का मनोनयन होता रहा होगा और वह उत्तराधिकारी गण-प्रमुख के जीवन काल में मात्र ‘सेनापति’ माना जाता रहा होगा। इसी कारण मुद्रांक में इन्द्रमित्र ( राज्यमित्र ) का उल्लेख हुआ है, अन्यथा उसके नाम के उल्लेख का कोई प्रयोजन न था। इस प्रकार के उत्तराधिकार की व्यवस्था कदाचित् यौधेयों ने पश्चिमी क्षत्रपों से ग्रहण की होगी। पश्चिमी क्षत्रपों के सिक्कों से प्रकट होता है कि महाक्षत्रप के जीवन-काल के अन्तिम दिनों में उसका उत्तराधिकारी मनोनीत किया जाता था और वह क्षत्रप कहा जाता था और वह महाक्षत्रप के निधन के पश्चात् महाक्षत्रप कहलाने लगता था।

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