भूमिका
सारनाथ बुद्ध-मूर्ति लेख १९१४-१५ ई० में सारनाथ (वाराणसी) के पुरातात्त्विक उत्खनन में प्राप्त एक बुद्ध मूर्ति के आसन पर अंकित है। वर्तमान में यह सारनाथ संग्रहालय में है। इस अभिलेख को एच० हारग्रीव्ज ने प्रकाशित किया है।
संक्षिप्त विवरण
नाम :- सारनाथ बुद्ध-मूर्ति लेख
स्थान :- सारनाथ, वाराणसी जनपद; उत्तर प्रदेश
भाषा :- संस्कृत
लिपि :- ब्राह्मी
समय :- गुप्त सम्वत् १५४ ( ४७३ ई० ), कुमारगुप्त ( द्वितीय ) का शासनकाल
विषय :- यती अभयमित्र द्वारा पूजनार्थ भगवान बुद्ध की मूर्ति स्थापित की गयी।
मूलपाठ
१. वर्ष शते गुप्तानां सचतुःपञ्चाशदुत्तरे [।]
भूमिं रक्षति कुमारगुप्ते मासि ज्येष्ठे [द्वितीया]याम्॥
२. भक्तयावर्ज्जित-मनसा यतिना पूजार्त्थमभयमित्रेण॥
प्रतिमाप्रतिमस्य गुणै[र] प[रे]यं [का]रिता शास्तुः॥
३. माता-पितृ-गुरु-पू[र्व्वै] पुण्येतानेन सत्व-कायो(ऽ)यं॥
लभतामभिमतमुपशम-महावह — — प्रयाम्॥
अनुवाद
गुप्त [शासकों] के वर्ष १५४ में [जिस समय] कुमारगुप्त भूमि की रक्षा कर रहे थे, ज्येष्ठ मास की द्वितीया को पूर्ण भक्ति और मनोयोग से बुद्ध की यह प्रतिमा यती अभयमित्र द्वारा पूजनार्थ स्थापित की गयी। मेरे इस सत्कार्य से होनेवाला पुण्य माता-पिता, गुरु [और] पूर्वजों को भी प्राप्त हो, वे मोक्ष प्राप्त करें।
विश्लेषण
यह लेख उस बुद्ध मूर्ति की स्थापना की सामान्य विज्ञप्ति है जिस पर यह अंकित है। उसे भिक्षु अभयमित्र ने प्रतिष्ठित किया था। इसमें उल्लिखित गुप्त-वंशीय शासक कुमारगुप्त के नाम और उसके शासन वर्ष के उल्लेख के कारण ही सारनाथ बुद्ध-मूर्ति लेख का ऐतिहासिक महत्त्व है।
इस लेख के मिलने से पहले भीतरी से एक धातु-मुद्रा प्राप्त हुई थी। उससे पुरुगुप्त, नरसिंहगुप्त और कुमारगुप्त के नाम प्रकाश में आये और गुप्त वंश में दो कुमारगुप्तों के होने की जानकारी प्राप्त हुई थी। उसके कारण वंश और शासन-क्रम के सीधे-सादे इतिहास में उलझन उपस्थित हो गयी। सारनाथ बुद्ध-मूर्ति लेख मिलने पर रमेशचन्द्र मजूमदार ने भीतरी मुद्रा-लेख के कुमारगुप्त की, इस लेख के कुमारगुप्त के रूप में पहचान की और इस प्रकार उन्होंने पुरुगुप्त के पौत्र कुमारगुप्त का समय गुप्त सम्वत् १५४ निर्धारित किया। तदन्तर क्रमादित्य विरुद अंकित कुमारगुप्त के कतिपय सिक्कों का प्रचलन-कर्ता इसी कुमारगुप्त को माना गया।
इसी लेख के साथ एक अन्य बुद्ध-मूर्ति लेख प्राप्त हुआ। उसने कुमारगुप्त के शासनकाल की अन्तिम सीमा गुप्त सम्वत् १५७ बाँध दी। स्कन्दगुप्त के शासन की अन्तिम सीमा, इन्दौर ताम्र-लेख के अनुसार गुप्त संवत् १४६ ज्ञात हो चुकी थी। फलतः इस अभिलेख के कुमारगुप्त को ‘भीतरी व नालंदा मुद्रा-अभिलेख’ का कुमारगुप्त अनुमान किये जाने का अर्थ यह हुआ कि गुप्त सम्वत् १४६ और १५७ के बीच तीन शासक — पूरुगुप्त, नरसिंहगुप्त और कुमारगुप्त ने, या यों कहें कि १४६ और १५४ के बीच ८-६ वर्ष के काल में दो शासक — पुरुगुप्त और नरसिंहगुप्त ने शासन किया। इतने अल्पकाल में २ या ३ शासकों के शासन की बातों ने लोगों को उलझन में डाल दिया था। इस उलझन को दामोदरपुर ताम्रलेख ( गुप्त सम्वत् २२४ ) ने प्रकाश में आकर और बढ़ा दी उससे कुमारगुप्त के पुत्र विष्णुगुप्त का परिचय मिला और १५४ और १५७ के बीच एक नहीं दो शासकों की बात सामने आयी।
इस प्रकार गुप्त सम्वत् १४६ और १५७ के बीच के काल में चार शासकों के होने न होने के प्रश्न को लेकर विद्वानों ने नाना प्रकार के मत प्रतिपादित किये।
इस उलझनपूर्ण स्थिति का निराकरण अब सुवर्ण-मुद्राओं के लेख एवं भार-मान तथा धातु के विवेचन से हो पाया है। अब यह स्पष्ट हो गया है कि पुरुगुप्त और उसके वंशज, गुप्त-शासन के अन्तिम काल के शासक हैं। इस अभिलेख में उल्लिखित शासक कुमारगुप्त ने अकेले १४६ और १५७ के बीच राज्य किया होगा अधिक-से-अधिक आरम्भ में एक-दो वर्ष के लिए किसी अन्य के शासक होने की सम्भावना प्रकट की जा सकती है।
अन्त में यह उल्लेख उचित होगा कि इसी कुमारगुप्त के शासन-काल में दशपुर (मन्दसौर) स्थित तन्तुवायों की श्रेणी द्वारा बनवाये गये सूर्य-मन्दिर का संस्कार हुआ था ( मन्दसौर अभिलेख ) साथ ही मन्दसौर से ही प्राप्त एक अन्य लेख ( मन्दसौर अभिलेख मालव सम्वत् ५२४ ) को भी इसी काल का अनुमान किया जाता है।