भूमिका
मथुरा पादासन-लेख एक चौकोर शिला-खण्ड पर अंकित है। यह किसी मूर्ति का पदासन रहा होगा। मूर्तिभाग के नाम मात्र चिह्न उपलब्ध है। लेख से प्रतीत होता है कि यह कोई बौद्ध-मूर्ति रही होगी। इसे १९८२ ई० में मथुरा संग्रहालय ने किसी पुरावस्तु विक्रेता से क्रय किया है। उसे यह कहाँ से प्राप्त हुआ था इसकी कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं; परन्तु वह मथुरा के आसपास से ही प्राप्त हुआ होगा ऐसा विद्वानों ने अनुमान किया है।
शिलाखण्ड के लेख-युक्त भाग के ऊपर के अंश का एक टुकड़ा अनुपलब्ध होने के कारण आरम्भ की ओर से प्रथम पंक्ति के लगभग दस और दूसरी पंक्ति के लगभग सात अक्षर अनुपलब्ध हैं, तीसरी पंक्ति के तीन-चार अक्षरों का ऊपरी भाग कट गया है। इस अभिलेख का ठाकुरप्रसाद वर्मा द्वारा तैयार किये गये पाठ को विभिन्न विद्वानों ने प्रकाशित किया। यथा – डॉ परमेश्वरीलाल गुप्त, किरण थपल्याल और अरविन्द कुमार श्रीवास्तव।
संक्षिप्त परिचय
नाम :- मथुरा पादासन-लेख
स्थान :- मथुरा; उत्तर प्रदेश
भाषा :- संस्कृत
लिपि :- उत्तरवर्ती ब्राह्मी
समय :- गुप्त सम्वत् १६१ (४८० ई०); बुधगुप्त का शासनकाल
विषय :- भगवान बुद्ध की प्रतिमाओं के बनवाकर प्रतिष्ठित किये जाने की सामान्य उद्घोषणा।
मूलपाठ
१. सिद्धं [।] [योवन्ध] [ — — — — — — — — — ब]न्धन-निरुद्ध [ब]ल[-] -क्षयो येतदर्थे दशबल बलिने नमस्तस्मै॥
२. कारयति यः प्रतिमां [ — — ]कनाथस्य जगति बुद्धस्य। स भवति सर्वामरष्यो(?) लोकेनयनाभिरामश्च॥
३. कृत्स्नां प्रशासयति महीं बुधगुप्त राजनि प्रथित वङ्शे वर्षे शत-एकषष्ठे-भाद्रव(प)द षोडशे दिवसे।
४. प्रतिमा चतुष्टयमिदं धर्मार्थं शङ्खकेन राष्ट्रेण भक्त्या जिनस्य कारितमधूणा गङ्गबल पुत्रेण॥
५. अत्र कृते यत्पुण्यं नैश्रयसमक्षयं हि तत्सर्व्वम् माता-पित्रोश्चा स्य सवैषां चावनि सत्त्वानां॥
हिन्दी अनुवाद
२. सिद्धि हो। जो ……….. बन्धन निरुद्ध, …………… क्षय के कारण दशबल-बली कहे जाते हैं, उन्हें नमस्कार।
२. जो बुद्ध …… की प्रतिमा स्थापित करता है, वह ….. नयनाभिराम होता है।
३. जब राजा बुधगुप्त समस्त पृथिवी पर शासन कर रहे हैं, उस समय [उनके] प्रख्यात वंश के १६१वें वर्ष के भाद्रपद [मास] के १६ वें दिनट
४. [इस दिन] धर्म के निमित्त शङ्खिक राष्ट्र(?) ने भक्तिपूर्वक जिन (बुद्ध) की इन चार प्रतिमाओं को गंगबल पुत्र मधुण से बनवाया।
५. इस कार्य के करने से जो भी परम श्रेयस अक्षय पुण्य हो, वह सभी माता-पिता तथा समस्त प्राणियों को [प्राप्त] हो।
टिप्पणी
यह अभिलेख जिस पाद पीठिका पर अंकित है, उस पर उत्कीर्ण चार बौद्ध प्रतिमाओं के बनवाकर प्रतिष्ठित किये जाने की उद्घोषणा है। इसकी प्रथम पंक्ति में भगवान बुद्ध को दशबल-बली के रूप में नमस्कार किया गया है। पंक्ति के पूर्वाश में उन बलों (गुणों) का उल्लेख रहा होगा जिनके कारण बुद्ध को दश-बल-बली कहा जाता है। पंक्ति खण्डित होने के कारण यह केवल अनुमान मात्र है।
दश-बल-बली के रूप में बुद्ध के दश बल इस प्रकार माने जाते हैं :-
- स्थान अस्थान के ज्ञान का बल;
- कर्म-विपाक के ज्ञान का बल;
- नाना-धातु के ज्ञान का बल;
- नाना प्रकार की मुक्ति के ज्ञान का बल,
- सत्व-इन्द्रिय पर अपर के ज्ञान का बल;
- सर्वत्रगामिनी प्रतिपत्ति के ज्ञान का बल;
- ध्यान, विमोक्ष, समाधि, समापत्ति का बल;
- सक्लेश, व्यवधान, व्युत्थान के ज्ञान का बल;
- च्युत्युत्पत्ति के ज्ञान का बल और
- आस्रव, क्षय के ज्ञान का बल।
दूसरी पंक्ति भी खण्डित है। इससे उसके आशय को समझना सम्भव नहीं हो पाया है। सम्प्रति इतना ही अनुमान किया जा सकता है कि इस पंक्ति में सम्भवतया भगवान बुद्ध की प्रतिमा प्रतिष्ठित करने वाले की प्रशंसा की गयी होगी।
अभिलेख का मूल आशय अन्तिम तीन पंक्तियों में है, जिनमें पंक्ति ३ और ४ विशेष महत्त्व है। इसमें मूर्तियों के स्थापित करने अथवा बनवाने वाले के नाम के साथ-साथ शिल्पी का भी नाम है। इस मूर्ति का शिल्पकार गंगवल-पुत्र मघुण था। भारतीय कला के शिल्पियों में अपने को विज्ञापित करने की परम्परा नहीं रही है। वे प्रायः अपने को अज्ञात रखने में ही तुष्ट थे। फिर भी मथुरा-कला के एक-दो शिल्पियों का उल्लेख उनके मूर्ति-लेखों में मिलता है। उसी क्रम में हम यहाँ भी शिल्पी का नामोल्लेख पाते हैं।
समकालिक शासक के नामोल्लेख एवं काल चर्चा के कारण मथुरा पादासन-लेख का ऐतिहासिक महत्त्व बढ़ जाता है। यह हमारे सम्मुख एक नया तथ्य प्रस्तुत करता है। अब तक गुप्त वंश से सम्बन्धित अन्तर्वेदी (गंगा-यमुना दोआब) से प्राप्त अन्तिम ज्ञात अभिलेख स्कन्दगुप्त के काल का था जो बुलन्दशहर जिले के इन्दौर ( इंदौर अभिलेख ) नामक ग्राम से प्राप्त हुआ था। उसके आधार पर अब तक यह धारणा रही है कि गुप्त-संवत् १४६ (४६५ ई०) के पश्चात् स्कन्दगुप्त के बाद तत्काल ही गुप्त साम्राज्य सिमटकर बंगाल-बिहार और मध्य प्रदेश कुछ भू-भाग में सीमित हो गया था। गंगा-काँठे में जब-तब बुधगुप्त के चाँदी-सोने के सिक्के अवश्य मिलते रहे हैं। किन्तु उनकी संख्या इतनी अल्प रही है कि मात्र उनके आधार पर इस सम्बन्ध में कोई बात निश्चयपूर्वक कह सकना सम्भव नहीं था।
प्रस्तुत लेख के प्रकाश में आने से सिक्कों के प्रमाण को बल प्रदान किया है। अब इस लेख के प्रमाण से निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि इस प्रदेश में स्कंदगुप्त के बाद भी कुछ समय तक, बुधगुप्त के शासनकाल तक तो अवश्य ही, इस भू-भाग पर गुप्त साम्राज्य अक्षुण्ण बना रहा था।
बुधगुप्त का सारनाथ बुद्ध-मूर्ति-लेख; गुप्त सम्वत् १५७ ( ४७६-७७ ई० )