भूमिका
मथुरा खंडित लेख को १८५३ ई० में एलेक्जेंडर कनिंघम में खोज निकाला था। उनको यह मथुरा नगर के कटरे के प्रवेश-द्वार के बाहर फर्श के रूप में प्रयुक्त एक तिकोने आकार का लाल रंग के पत्थर का टुकड़ा मिला था। यह प्रस्तर का टुकड़ा किसी बड़े चौकोर शिलाफलक का अंश है।
उपलब्ध मथुरा खंडित लेख जिस टुकड़े पर अंकित है उसमें अभिलेख की १० पंक्तियों के अंश मात्र उपलब्ध हैं। प्रथम पंक्ति लगभग पूर्णरूप से नष्ट हो गयी है; इसी तरह नीचे का भाग भी अनुपलब्ध है। लुप्त भाग में कितनी पंक्तियाँ रही होंगी, यह बता पाना तनिक कठिन है। फ्लीट की धारणा है कि यह अभिलेख चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के शासनकाल काल का है; उसमें उसके द्वारा किये गये किसी कार्य का उल्लेख रहा होगा। इसका उल्लेख कनिंगहम ने पहले अपने तीन प्रकाशनों किया था; बाद में विधिवत् सम्पादन फ्लीट ने किया।
संक्षिप्त परिचय
नाम :- मथुरा खंडित लेख [ Mathura Fragmentary Inscription ]
स्थान :- मथुरा, उत्तर प्रदेश
भाषा :- संस्कृत
लिपि :- ब्राह्मी
समय :- गुप्तकाल ( सम्भवतः चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल; ३७५ – ४१५ ई० )
विषय :- गुप्त राजवंश की वंशावली का विवरण प्राप्त होती है।
मूलपाठ
१. ….. [ सर्व्व-राजोच्छेतुः पृथिव् ] यामप्रतिरथ-
२. [ स्य चतुरुदधिसलि ] लास्वादित [ यशसो ध ]
३. [ निद-वरुणेन्द्रान्तक स ] मस्य कृतान्त [ परशोः ]
४. [ न्यायागतनेकगो ] – हिरण्य कोटि प्रद [ स्य चिरो ] –
५. [ त्सन्नाश्वमेधाहर्त्तुम्म ] हाराजश्रीगुप्तप्रपौ [ त्रस्य ] –
६. [ महाराज श्रीघटोत्क ] च पौत्रस्य महाराजाधिर [ ज ] –
७. [ श्री चन्द्रगुप्तपु ] त्रस्य लिच्छविदौहित्रस्य महा [ दे ] –
८. [ व्यां कुमार ] देव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिरा –
९. [ ज श्री स ] मुद्रगुप्तस्य पुत्रेण१ त्परिगृ –
१०. [ ही ] तेन महादेव् [ य ]ां द [ त्त ] देव् [ य ] मुत् [ प ]न् [ ने ] –
११. [ न परमभागवतेन महाराजाधिराज श्री ]
१२. [ चन्द्रगुप्तेन ] ……..
- विलसड़ स्तम्भलेख के आधार पर इसे पुत्रस्य पढ़ा गया है।१
हिन्दी अनुवाद
……… सब राजाओं के उन्मूलक पृथ्वी पर अप्रतिरथ ( जिसके समान पृथ्वी पर अन्य कोई न हो ), चारों समुद्र के जल से आस्वादित कीर्तिवाले, कुबेर ( धनद ), वरुण, इन्द्र और यम ( अन्तक )के समान कृतान्त के परशु-तुल्य, न्याय से उपलब्ध अनेक गाय और कोटि हिरण्य ( सिक्के ) के दानदाता चिरोत्सन्न-अश्वमेधकर्ता महाराज श्रीगुप्त के प्रपौत्र, महाराज श्री घटोत्कचगुप्त के पौत्र, महाराज श्री चन्द्रगुप्त के पुत्र, लिच्छवि-दौहित्र महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त के पुत्र और उसके ( समुद्रगुप्त ) द्वारा चुना गये, महादेवी दत्तदेवी से उत्पन्न, परमभागवत महाराजाधिराज श्री ( चन्द्रगुप्त के द्वारा ) …..
टिप्पणी
मथुरा खण्डित लेख का पाठन फ्लीट ने अन्य अभिलेखों के आधार पर, जिनमें गुप्त वंश का परिचय दिया गया है, अनुमानतः किया है। इस प्रकार का अद्यतम अभिलेख जो फ्लीट को ज्ञात था वह कुमारगुप्त प्रथम का ‘बिलसड़ अभिलेख’ है। परन्तु उसकी आरम्भिक पंक्तियों का पूर्वांश खण्डित रहा है इसके पश्चात् का दूसरा अभिलेख, जिसमें वंश-परिचय है, बिहार अभिलेख है, जिसे उन्होंने स्कन्दगुप्त का अनुमान किया था। परन्तु इस अभिलेख का भी पूर्वांश खण्डित है। वंश-परिचय देने वाला तीसरा अभिलेख ‘भितरी स्तम्भ लेख’ है। इसमें सर्वप्रथम वंश-परिचय वाला अंश अक्षुण्ण रूप में प्राप्त होता है। अतः कहा जा सकता है कि फ्लीट ने प्रस्तुत खण्डित लेख के पूर्ण रूप का अनुमान इसी लेख के आधार पर किया होगा। परन्तु पंक्ति संख्या ११-१२ का जो अनुमानित रूप उन्होंने दिया है वह स्कन्दगुप्त के लेख की पंक्तियों से, जो पीछे चल कर अनेक मुहरों पर असंदिग्ध भाव से वंश-परिचय का स्थायी प्रारूप बन गया था, तनिक भिन्न है।
मथुरा खंडित लेख का निचला भाग अनुपलब्ध है और दसवीं पंक्ति के अक्षर टूटे हैं। फ्लीट ने अनुमान के सहारे दसवीं-ग्यारहवीं पंक्तियों को प्रस्तुत करते हुए यह अनुमान प्रस्तुत किया है कि लेख चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के शासनकाल का है; उनके नाम के आगे किसी उत्तराधिकारी का उल्लेख न रहा होगा। उनके इस अनुमान का आधार पंक्ति संख्या ६ है इस पंक्ति में सम्बन्ध-कारक विभक्ति-युक्त समुद्रगुप्त के उल्लेख समुद्रगुप्तस्य के आगे तत्काल करण-कारक पुत्रेण का प्रयोग हुआ है, जो उनके मतानुसार यह स्पष्ट करता है कि यह वंशावली समुद्रगुप्त के पुत्र एवं मनोनीत उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त (द्वितीय) तक, जिनका नाम आगे की पंक्ति में रहा होगा, पहुँच कर समाप्त हो गयी होगी।
अनुपलब्ध अंश में इस वंश परिचय के बाद इस अभिलेख का प्रयोजन रहा होगा। यह प्रयोजन चन्द्रगुप्त (द्वितीय) द्वारा ही सम्पादित हुआ होगा, ऐसा फ्लीट की धारणा है। फ्लीट १२वीं पंक्ति में ‘चन्द्रगुप्तेन’ पाठ होने का अनुमान किया है। किन्तु कुमारगुप्त (प्रथम) के काल के बिलसड़ अभिलेख के आधार पर यह सम्भावना भी प्रकट की जा सकती है कि १२वीं पंक्ति का पाठ चन्द्रगुप्तः रहा होगा और आगे नये वाक्य में प्रयोजन की चर्चा रही होगी। यह भी सम्भव है कि १२वीं पंक्ति में ‘चन्द्रगुप्तस्यभिवर्धमान विजयराज्य संवत्सरे’ वाक्य के साथ काल के उल्लेख के बाद, जैसा कि बिलसड़ अभिलेख में है, प्रयोजन की चर्चा की गयी रही हो। किन्तु प्रयाग प्रशस्ति में वंश चर्चा का जो रूप है और समुद्रगुप्त का परिचय जिस रूप में दिया गया है उसे देखते हुए इस अभिलेख के चन्द्रगुप्त कालीन होने में तनिक सन्देह है। अधिक सम्भावना यही है कि वह परवर्ती काल के ही किसी शासक का होगा। इसे कहाँ रखा जाय इसका निर्णय न कर सकने के कारण फ्लीट का अनुसरण करके इसे विद्वानों ने चन्द्रगुप्त द्वितीय का माना है।
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