भूमिका
वर्तमान कर्नाटक प्रान्त के चित्तलदुर्ग जनपद से ब्रह्मगिरि शिलालेख मिला है। इसी के आसपास ही अशोक के अन्य शिलालेख ( सिद्धपुर, जटिंगरामेश्वर और मास्की ) भी प्राप्त हुए हैं। ब्रह्मगिरि शिलालेख से पता चलता है कि दक्षिण भारत में मौर्य प्रांत की राजधानी सुवर्णगिरि थी जहाँ एक कुमार रहता था। इस लेख में सम्राट अशोक ने दावा किया है कि धर्म प्रचार करके उसने जम्बू द्वीप के लोगों को देवताओं से मिला दिया है।
ब्रह्मगिरि शिलालेख : संक्षिप्त परिचय
नाम – अशोक का ब्रह्मगिरि शिलालेख; अशोक का ब्रह्मगिरि लघु शिलालेख ( Ashoka’s Brahmagiri Minor Rock Edict )
स्थान – ब्रह्मगिरि, चित्तलदुर्ग या चित्रदुर्ग जनपद; कर्नाटक
भाषा – प्राकृत
लिपि – ब्राह्मी
विषय – पराक्रम फल की व्याख्या, धर्म क्या है? इसका विवरण।
ब्रह्मगिरि शिलालेख : मूलपाठ
१ – सुवंणगिरीते अयपुतस महामाताणं च वचनेन इसिलसि महामाता आरोगियं वतविया हेवं च वतविया [ । ] देवाणं पिये आणपयति [ । ]
२ – अधिकानि अढ़ातियानि वसानि य हंक [ …… ] सके [ । ] नो तु खो बाढ़े प्रकंते हुसं [ । ] एकं सवछरे सातिरेके तुखो सवछरे
३ – यं मया संघे उपयीते बाढ़ं च मे पकंते [ । ] इमिना चु कालेन अमिसा समाना मुनिसा जुंबुदीपसि
४ – मिसा देवेहि [ । ] पकमस हि इयं फले [ । ] नो हीयं सक्ये महात्पेनेव पापोतवे [ । ] कामं तु खो खुदकन पि
५ – पकमि ……… णेण विपुले स्वगे सक्ये आराधेतवे [ । ] एतायठाय इयं सावणे सावापिते
६ – ……… महात्पा च इमं पकमेयु ति अंता च मे जानेयु चिरठितीके च इयं
७ – पक ……… [ । ] इयं च अठे वढिसिति विपुलं च वढिसिति अवरधिया दियढियं
८. वढिसिति [ । ] इयं च सावणे सावापिते व्यूथेन [ । ] २०० ( + ) ५० ( + ) ६ [ । ] से हेवं देवाणांपिये
- [ ८वीं पंक्ति के ‘वढिसिति’ शब्द के बाद रूपनाथ और सहसराम में पाठ भिन्न है। ]
९ – आह [ । ] मातापितिसु सुसूसितविये [ । ] हेमेव गरुसु [ । ] प्राणेसु द्रह्यितव्यं [ । ] सचं
१० – वतवियं [ । ] से इमे धंमगुणा पवतिततविया [ । ] हेमेव अंतेवासिना
११ – आचरिये अचायितविये ञातिकेस च कं य [ था ] [ रहं पवतितविये [ । ]
१२ – एसा पोराणा पकिति दीघावुसे च एस [ । ] हेवं एस कटिविये [ । ]
१३ – चपडेन लिखिते लिपिकरेण [ । ]
संस्कृत रूपान्तरण
सुवर्णगिरितः आर्यपुत्रस्य महामात्राणां व वचनेन ऋषिले महामात्राः आरोग्यं वक्तव्याः। देवानां प्रियः आज्ञापयति। अधिकानि अर्द्धततीयानिवर्षाणि यत् अहं उपासकः। न तु खलुवाढ़ं प्रकान्तः अधूवम् एकं संवत्सरम्। सातिरेकः* तु खलु सवत्सरः यत् मया संघः उपेतः। वाढं च मया प्रक्रान्तम्। अधुना तु काले अमिश्रा समानाः मनुष्याः जम्बुद्वीपे मिश्रा देवैः। प्रक्रमस्य इदं फलम्। नहि इदं शक्यं महात्मनैव प्राप्तम्। कामं तु खलु क्षुद्रकेण अपि प्रक्रममाणेन विपुलः स्वर्गः शक्यः आराधयितुम। एतस्मै अर्थाय इदं श्रावणं श्रावितम्। महात्मानः च इमं प्रक्रमेरन इति अन्ताः च मे जानन्तु चिरास्थितिकः च अयं….। अथ च अर्थः वर्द्धिष्यति विपुलम् अपि च वर्द्धियष्यति आरब्ध्या द्धयर्द्धं वर्द्धिष्यति। इदं च श्रावणं श्रावितम् व्युष्टेन २०० ५० ६। तत् देवानां प्रियः आह। मातपित्रोः शुश्रूषितव्यम्। गुरुत्वं प्राणेषु द्रढायितव्यम्। सत्यं वक्तव्यम्। ते इमे धर्मगुणा: प्रवर्तयिव्याः। एवमेव अन्तेवासिना आचार्यः अपचेतव्यः। ज्ञातिकेषु च कुले यथा प्रयर्त्तयितव्यम्। एषा पुराणी प्रकृतिः दीर्घायुषे च भवति। एतत एव कर्तव्यम्। लिखित पठेन लिपिकरेण।
हिन्दी भाषांतरण
१ – सुवर्णगिरि से आर्यपुत्र और महामात्रों की आज्ञा से इषिला के महामात्यों का आरोग्य पूँछना चाहिए। देवानांप्रिय की विज्ञप्ति ( आदेश ) है —
२ – ढाई वर्षों से अधिक व्यतीत हुए मैं उपासक था। परन्तु अधिक पराक्रम एक वर्ष तक मैंने नहीं किया किन्तु एक वर्ष से कुछ अधिक व्यतीत होने पर
३ – जब मैं संघ ( बौद्ध संघ ) की शरण में आया तब मैंने अधिक पराक्रम किया इस काल में अमिश्र मनुष्य देवों से मिश्र हुए
४ – पराक्रम का यह फल है। केवल बड़े लोग ही इसे प्राप्त नहीं कर सकते। स्वेच्छा से निश्चय करने पर छोटा व्यक्ति भी
५ – विपुल पराक्रम से स्वर्ग प्राप्त कर सकता है। इसीलिए यह धर्म विषय ( श्रावण ) सुनाया गया
६ – कि छोटे और बड़े सभी इसके लिए पराक्रम करें। सीमा के लोग भी इसे जाने और यह चिरस्थायी
७ – पराक्रम हो इससे उद्देश्य बढ़ेगा, प्रचुर रूप में बढ़ेगा एवं पहले की अपेक्षा डेढ़ा ( डेढ़ गुणा ) बढ़ेगा
८ – यह श्रावण २०० ५० ६ ( २५६ ) में सुनाया गया। इसलिए देवों का प्रिय यह कहता है —
९ – माता-पिता की शुश्रूषा करनी चाहिए। इसी तरह गुरुजनों ( श्रेष्ठजनों या बड़ों ) की ( शुश्रूषा या आदर करना चाहिए )। प्राणियों के लिए दृढ़ आदरभाव ( दया की दृढ़ता ) करना चाहिए। सत्य
१० – बोलना चाहिए। इन धर्मगुणों का प्रवर्तन करना चाहिए। इसी प्रकार विद्यार्थियों ( अंतेवासी या गुरुकुल में रहने वाले छात्र ) द्वारा
११ – आचार्य का आदर करना चाहिए। स्वजातियों और कुलों से उचित व्यवहार करना चाहिए।
१२ – यह पुरातन परम्परा है। इससे दीर्घ आयु प्राप्त होती है। इसलिए इसका पालन होना चाहिए
१३ – यह लेख चपड़ या चापड़ ( नामक ) लिपिक पद द्वारा तैयार किया गया।
टिप्पणी
इस अभिलेख में अशोक ने सामान्य सदाचार की बातें कहीं हैं। ये वही बातें हैं जो उसके धर्म ( धम्म ) का आधार हैं –
- माता-पिता की सेवा
- गुरुजनों ( बड़ों ) की सेवा
- जीवों के लिए दया
- सत्य बोलना
- शिष्यों द्वारा आचार्य का आदर
- सगे-सम्बन्धियों से समुचित व्यवहार
रूपनाथ शिलालेख या रूपनाथ लघु शिलालेख