परिचय
उदयगिरि गुहाभिलेख (तृतीय) विदिशा जनपद, मध्य प्रदेश स्थित उस गुहा-मन्दिर में है, जिसे एलेक्जेंडर कनिंघम ने ‘दसवीं जैन-गुहा’ का नाम दिया था। कनिंघम की दृष्टि में यह लेख १८७६-७७ ई० में आया था और उसे उन्होंने १८८० ई० में प्रकाशित किया था। १८८२ ई० में हुल्श ने उसका एक संशोधित पाठ प्रस्तुत किया तत्पश्चात् उसे फ्लीट ने सम्पादित कर प्रकाशित किया।
संक्षिप्त परिचय
नाम :- कुमारगुप्त प्रथम का उदयगिरि गुहाभिलेख (तृतीय) [ Udaigiri Cave Inscription of Kumargupta I ]।
स्थान :- उदयगिरि, विदिशा जनपद; मध्य प्रदेश।
भाषा :- संस्कृत।
लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी रूप )।
समय :- गुप्त सम्वत् – १०६ या ४२५ ई० ( १०६ + ३१९ ), कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल।
विषय :- जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ की मूर्ति की स्थापना की उद्घोषणा है। परन्तु लेख में उल्लिखित कोई प्रतिमा अब गुहा के भीतर नहीं है।
मूलपाठ
१. नमः सिद्धेभ्यः [ ॥ ] श्री संयुतानां गुण-तोयधीनां गुप्तान्वयानां नृप-सत्तमानां
२. राज्ये कुलस्याभिविवर्द्धमाने षड्भिर्य्युते वर्ष शतेऽथ मासे [ ॥ ] सु-कार्तिके बहुल-दिनेऽथ पंचमे
३. गुहामुखे स्फट-विकटोत्कटामिमां जित-द्विषो जिनवर-पार्श्वसंज्ञिकां जिनाकृतिं शम-दमवान-
४. चीकरत [ ॥ ] आचार्य्य-भद्रान्वय-भूषणस्य शिष्यो ह्यस्वार्य्य-कुलोद्गतस्य आचार्य्य-गोश- ५. र्म्म-मुनेस्सुतस्तु पद्मावतावश्वपतेर्भटस्य [ ॥ ] परैरजेस्य रिपुघ्न-मानि-नस्स संधि-
६. लस्येत्यभिविश्रुतो भुवि स्व-संज्ञया शंकर-नाम-शब्दितो विधान-युक्तं यति-मा-
७. र्ग्दमास्थितिः [ ॥ ] स उत्तराणां सदृशे कुरूणां उदग्दिशा-देश-वरे प्रसूतः
८. क्षपाय कर्म्मारि-गणस्य धीमान् यदत्र पुण्यं तदपास-सरर्ज्ज [ ॥ ]
अनुवाद
सिद्ध [ पुरुषों ] को नमस्कार।
श्री ( वैभव ) से युक्त, गुणों के सागर गुप्त-कुल के राजा के राजत्वकाल में राज्यकुल की अभिवृद्धि करनेवाले वर्ष १०६ में, कार्तिक के उत्तम मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी।
इस गुहा के मुख में ( भीतर ) उन जिनों में श्रेष्ठ पार्श्वनाथ की, जिन्होंने [ धर्म के ] शत्रुओं पर विजय प्राप्त किया था और जिन्होंने इन्द्रियों को वशीभूत कर लिया था, सर्प-फण से युक्त पार्श्ववर्तिनी परिचारिकाओं ( विकटा ) सहित मूर्ति की स्थापना की गयी।
आचार्य भद्र-कुल के भूषण के शिष्य आर्य-कुल के मुनि आचार्य गोशर्मन के शिष्य, उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित कुरु नामक देश में जन्मे, पद्मावती से उत्पन्न ( अथवा पद्मावती निवासी ), शत्रु से अपराजित होने के कारण रिपुघ्न कहे जानेवाले, सैनिक अश्वपति के पुत्र के रूप में प्रख्यात शंकर ने, जिन्होंने शास्त्रीय नियमों के अनुसार संन्यासियों के मार्ग का अनुसरण किया था, इस कृति से [ प्राप्त होनेवाले ] पुण्य को धर्म-कार्यों के शत्रुओं के विनाश के लिये अर्पित किया।
टिप्पणी
यह लेख गुप्त-शासकों के काल का है किन्तु इसमें शासक के नाम का उल्लेख नहीं मिलता है। उसकी अभिव्यक्ति मात्र गुप्तान्वय द्वारा की गयी है। इसी अभिलेख के समान मन्दसौर अभिलेख में भी गुप्त शासक का नामोल्लेख न करके गुप्तान्वय से ही समसामयिक गुप्त शासक को इंगित किया गया है। ये दोनों ही लेख मध्य-भारत के क्षेत्र के हैं। इनमें शासक का नामोल्लेख न किया जाना अकारण न होगा इसके पीछे अवश्य ही कोई राजनीतिक परिस्थिति रही होगी। इस दृष्टि से यह ध्यातव्य है। इसमें जो तिथि अंकित है, वह गुप्त सम्वत् के अनुसार कुमारगुप्त ( प्रथम ) के शासन काल के अन्तर्गत आती है। इसी आधार पर इसे उसके काल का लेख कहा जा सकता है।
इस लेख का उद्देश्य गुहा के भीतर जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ की मूर्ति की स्थापना की उद्घोषणा है। परन्तु लेख में उल्लिखित कोई प्रतिमा अब गुहा के भीतर नहीं है। मूर्ति के रूप का जो वर्णन है, उससे ज्ञात होता है कि उनके साथ विकटा का भी अंकन हुआ था विकटा बौद्धों द्वारा मान्य देवताओं की परिचारिका को कहते हैं। सम्भवतः उन्हींके अनुकरण पर इस गुहा के भीतर पार्श्वनाथ की मूर्ति के साथ भी परिचारिका का अंकन किया गया था।
लेख का आरम्भ सिद्धों को नमस्कार के साथ किया गया है। सिद्धों से तात्पर्य उन तपस्वियों से है, जिन्होंने निम्नलिखित पाँच अवस्थाओं में से एक अथवा अनेक के रूप में सिद्धि प्राप्त कर ली हो। ये पाँच अवस्थाएँ हैं—
- सलोकता (किसी देवविशेष के साथ स्वर्ग में निवास );
- सरूपता (देवता के स्वरूप के साथ एकात्मकता अथवा उसके साथ एकाकार हो जाना);
- सामीप्य (देवता के साथ नैकट्य);
- सायुज्य (देवता में समाहित हो जाना) और
- साष्टिता अथवा सामनैश्वर्यत्व ( शक्ति एवं अन्य गुणों में परम सत्ता के समान हो जाना)।
सिद्ध शब्द बौद्ध सम्यक् संबुद्ध के निकट जान पड़ता है। सम्भवतः यहाँ जैन तीर्थकरों को सिद्ध कहा गया है।