अभिलेख

अशोक का द्वितीय बृहद् शिलालेख

भूमिका द्वितीय बृहद् शिलालेख ( Second Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से दूसरा अभिलेख है। भारतीय उप-महाद्वीप के ‘आठ स्थानों’ से सम्राट अशोक के ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) मिलते हैं। इसमें से ‘गिरनार संस्करण’ सबसे सुरक्षित अवस्था में है। इसीलिए अधिकांश विद्वानों ने इसका ही प्रयोग किया है। इसके साथ ही यत्र-तत्र अन्य संस्करणों का भी उपयोग किया गया है। संक्षिप्त परिचय : द्वितीय बृहद् शिलालेख नाम – अशोक का द्वितीय बृहद् शिलालेख या बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Ashoka’s Second Major Rock-Edict ) स्थान – गिरनार, जूनागढ़ जनपद, गुजरात। भाषा – प्राकृत। लिपि – ब्राह्मी। समय – अशोककालीन ( २७२ – २३२ ई०पू० )। विषय – सम्राट अशोक के लोककल्याणकारी कार्यों का विवरण, विदेशी नीति, विदेशी राज्यों से सम्बन्ध और राज्य सम्पर्क। मूलपाठ १ – सर्वत विजितम्हि देवानंप्रियस पियदसिनो राञो २ – एवमपि र्पप्रचंतेसु यथा चोडा पाडा सतियपुतो केतलपुतो१ आ तंब— ३ – पंणी अंतिम को योन-राजा ये वा पि तस अंतियकस सामीपं२ ४ – राजानो सर्वत्र देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो द्वे चिकीछा कता ५ – मनुस-चिकीछा च पसंद-चिकीछा च ( । ) ओसुढानि च यानि मनुसोपगानि च ६ – पसोपगानि च यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च ( । ) ७ – मूलानि च फलानि च यत यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च ( । ) ८ – पंथेसू कूपा च खानापिता व्रछा च रोपापितपरिभोगाय पसु-मनुसानं ( ॥ ) १इसको सरकार ने केरलपुतो पढ़ा है। मानसेहरा – केललपुते, केरडपुत्रो। शाहबाजगढ़ी – केरलपुत्र। अंकित है। २व्यूलर ने पहले इसको सामीनं पढ़ा था परन्तु बाद में सामंता पढ़ा। हेल्श के अनुसार पहले सामंता उत्कीर्ण था। सामीपं या सीमीपा जो बाद में लिखा गया। संस्कृत अनुवाद सर्वत्र विजिते देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनोः राज्ञोः ये चा त्ता यथा चोडाः पाण्डायाः सत्यपुत्रः केरलपुत्रस्ताम्रपर्णी अन्तियोको नाम योनराजो ये चान्ये तस्यान्तियोकस्य सामन्ता राजानः सर्वत्र देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिना राज्ञो द्वे चिकित्से कृते मनुष्य-चिकित्सा च पशुचिकित्सा च। औषधानि मनुषोपगानि च पशुपगानि च यत्र यत्र न सन्ति सर्वत्र हारितानि च रोपितानि च। एवमेव मूलानि च फलानि च यत्र यत्र सन्ति सर्वत्र हारितानि च रोपितानि च। मार्गेषु वक्षा रोपिता उदपानादि च खानितानि प्रति भोगायं पशुमनुषाणाम्। हिन्दी अनुवाद १ – देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने सर्वत्र विजय करके २ – इस प्रकार प्रत्यन्तों में भी — चोल,पाण्ड्य, सत्यपुत्र, केरल, ताम्र— ३ – पर्णी, अन्तियोक नामक यवनराज और उस अन्तियोक के निकट जो ४ – राजा हैं सर्वत्र देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने दो चिकित्सालयों को स्थापित किया — ५ – मनुष्य-चिकित्सा और पशु-चिकित्सा। और व औषधियाँ जो मनुष्योपयोगी एवं ६ – पशूपयोगी हैं जहाँ-जहाँ नहीं हैं सर्वत्र लाई गयीं तथा लगायी गयीं। ७ – जहाँ-जहाँ मूल और फल नहीं हैं सर्वत्र लाये गये और लगाये गये। ८ – मार्गों में मनुष्यों और पशुओं के लिए कुएँ खुदवाये गये और वृक्ष लगवाये गये। हिन्दी में धाराप्रवाह अनुवाद देवताओं के प्रिय राजा प्रियदर्शी ( अशोक ) के राज्य में सब स्थानों पर और उसके सीमान्त राजाओं; यथा – चोड, पाण्ड्य, सत्यपुत्र, केरलपुत्र और ताम्रपर्णि; यवनराज अन्तियोक एवं उसके पड़ोसियों के राज्य में भी सब स्थानों पर देवताओं के प्रिय ने दो प्रकार के चिकित्सा की व्यवस्था किया है — मानव चिकित्सा एवं पशु चिकित्सा। मनुष्यों और पशुओं के लिए उपयोगी औषधियाँ; जहाँ नहीं हैं वहाँ मंगाकर लगवायी गयी हैं। जहाँ-जहाँ फल व मूल नहीं होते थे वहाँ उन्हें भी मंगवाकर रोपित करवाया गया है। मार्गों में मनुष्यों एवं पशुओं के उपभोग के लिए कूप खुदवाये गये और वृक्षारोपण करवाये गये हैं। अशोक का प्रथम बृहद् शिलालेख सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्थल – ३ 

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अशोक का प्रथम बृहद् शिलालेख

भूमिका प्रथम बृहद् शिलालेख ( First Major Rock Edict ) सम्राट अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेखों में से पहला लेख है। सम्राट अशोक के भारतीय उप-महाद्वीप में ‘आठ स्थानों’ से ‘चौदह बृहद् शिलालेख’ या चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन ( Fourteen Major Rock Edicts ) मिलते हैं। इसमें से ‘गिरनार संस्करण’ सबसे सुरक्षित है। इसीलिए अधिकतर विद्वानों ने इसका ही प्रयोग किया है। साथ ही यत्र-तत्र अन्य संस्करणों का भी उपयोग किया गया है। संक्षिप्त परिचय नाम – अशोक का प्रथम बृहद् शिला अभिलेख या पहला बृहद् शिला प्रज्ञापन या प्रथम बृहद् शिलालेख ( First Major Rock-Edict )। स्थान – गिरनार, जूनागढ़ जनपद, गुजरात। भाषा – प्राकृत। लिपि – ब्राह्मी। समय – अशोककालीन ( २७२ – २३२ ई०पू० )। विषय – हिंसा और समाज का विरोध, पाकशाला और व्यक्तिगत जीवन। मूलपाठ १ – इयं धंम-लिपी देवानंप्रियेन २ – प्रि यदसिना राञा लेखा पिता ( । ) इध न किं— ३ – चि जीवं आरभित्पा प्रजूहितव्यं ( । ) ४ – न च समाजो कतव्यो ( । ) बहुकं हि दोसं ५ – समाजम्हि पसति देवानंर्पिप्रियो प्रियदसि राजा ( । ) ६ – अस्ति पि तु एकचा समाजा साधु-मता देवानं— ७ – प्रियस प्रियदसिनो राञो ( । ) पुरा महानसम्हि१ ८ – देवानंर्पि ( प्र ) यस र्पि ( प्रि ) यदसिनो राञो अनुदिवसं ब- ९ – हूनि प्राण-सत-सहस्रानि आरभिसु सूपाथाय ( । ) १० – से अज यदा अयं धंमलिपी लिखित ती एवं प्रा— ११ – णा आरभरे सूपाथाय द्वो मोरा एको मगो सो पि १२ – मगो न ध्रुवो ( । ) एते पित्री प्राणा पछा न आरभिसरे ( ॥ ) १ सरकार ने इसको ‘मेहानसेम्हि’ माना है। संस्कृत रुपान्तरण इयं धर्मलिपिः देवानांप्रियेण प्रियदर्शिना राज्ञा लेखिता। इह न कश्चित् जीवः आलभ्य प्रतोतव्यः। न च समाजः कर्तव्यः। बहुकं हि दोषं समाजे देवानांप्रियः प्रियदर्शी राजा पश्यति। संति अपि या एकत्याः समाजाः साधुमताः देवानांप्रियस्य प्रियदर्शिनाः राज्ञः। पुरा महानसे देवानं प्रियस्य प्रियदर्शिनः राज्ञः अनुदिवसं बहूनि प्राणशतसहस्राणि आल्भ्यन्त सूपार्थाय। तत् अद्य यथा इयं धर्मलिपिः लिखिता त्रयः एव प्राणाः आलभ्यन्ते सूपार्थाय-द्वौ मयूरौ, एकः मगः१। सोपि मगः न ध्रुवः। एतेऽपि त्रयः प्राणाः पश्चात् न आलप्स्यन्ते॥ हिन्दी अनुवाद १ व २ – यह धम्मलिपि देवानांप्रिय ( देवताओं के प्रिय ) प्रियदर्शी राजा ( अर्थात् अशोक ) द्वारा लिखवायी गयी। यहाँ कोई भी ३ – जीव बलि के लिए नहीं मारा जायेगा। ४ – न कोई समाज किया जायेगा। बहुत-सा दोष ५ – समाज में देवानंप्रिय प्रियदर्शी राजा देखता है। ६ व ७ – फिर भी निश्चित प्रकार के समाज को ही देवानंप्रिय प्रियदर्शी राजा उचित मानता है। पहले भोजनालय में ८ व ९ – देवानंप्रिय प्रियदर्शी के प्रत्येक दिन सहस्रों प्राणी सूप ( व्यंजन ) के लिए मारे जाते थे। १० व ११ – पर आज से जब से यह धम्मलिपि लिखवायी गयी तब से तीन प्राणी ही — दो मोर एवं एक मग ( हरिण / मृग ) व्यंजन के लिए मारे जाते हैं। १२ – इसमें भी मग का मारना निश्चित नहीं है। पीछे ये तीन जीव भी नहीं मारे जायेंगे। हिन्दी में धारा प्रवाह अनुवाद यह धर्मलिपि देवताओं के प्रिय, प्रियदर्शी राजा द्वारा लिखवायी गयी। यहाँ कोई प्राणी मारकर बलि न दिया जाय, न कोई समाज किया जाय, क्योंकि देवताओं का प्रिय राजा समाज के बुरा मानता है। परन्तु कुछ समाज ऐसे हैं जिन्हे देवताओं का प्रिय राजा अच्छा मानता है। पूर्व में देवताओं के प्रिय राजा प्रियदर्शी के भोजनालय के लिये सहस्स्रों प्राणियों की हत्या की जाती थी, परन्तु अब जबसे यह धर्मलिपि लिखवायी गयी, भोजनालय के लिये केवल तीन प्राणी ही मारे जाते है — दो मयूर और एक मृग। परन्तु अब हरिण भी प्रत्येक दिन नहीं मारा जाता है। भविष्य में इन तीन जीवों की हत्या नहीं की जायेगी। सोहगौरा अभिलेख या सोहगौरा ताम्रपत्र अभिलेख महास्थान अभिलेख ( Mahasthan Inscription ) सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्थल – ३

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महास्थान अभिलेख ( Mahasthan Inscription )

भूमिका नाम – महास्थान अभिलेख या महास्थान खण्डित प्रस्तर पट्टिका अभिलेख ( Mahasthan Fragmentary Stone Plaque Inscription ) स्थान – महास्थान, बोगरा जनपद; बांग्लादेश भाषा – प्राकृत लिपि – ब्राह्मी विषय – अन्न भण्डारण महास्थान अभिलेख का मूल पाठ १ – ×  नेन [ । ] [ स ] बगि१ यानं [ तल दन स ] सपदिन। [ सु ] २ – [ म ] ते। सुलखिते पुडनगलते। ए [ त ] ३ – [ नि ] वहिपयिसति। संवगियानं [ च ] [ द ] ने × × ४ – [ धा ] नियं। निवहिसति। दग-तिया [ ि ] यके × × ५ – × [ यि ] कसि। सुअ-तियायिक [ सि ] पि गंड [ केहि ]। ६ – × [ यि ] केहि एस कोठागाले कोसं × ७ – × × × संस्कृत छाया महामात्राणामं वचनेन। षडवर्गीयाणां तिलः दत्तः सर्षपञ्च दत्तम्। सुमात्रः सुलक्ष्मीतः पुण्ड्रनगरतः एतत् विवाहयिष्यति षड्वर्गीयेभ्यश्च दत्तं …… धान्यं निवक्ष्यति उदकात्ययिकाय देवात्ययिकाय शुकात्ययिकाय अपि गण्डकैः धान्यैश्च एष कोष्ठागारः कोषश्च ( परिपूरणीयौ )। हिन्दी अनुवाद १ – [ महामात्र के वचन ] से संवर्गीयों के लिये तिल दिया गया और सरसों दी गयी। सु २ – केवल भली प्रकार लक्ष्मीयुक्त पुण्ड्रनगर से यहाँ ३ – भिजवायेगा एवं संवर्गीयों के लिए दिये गये ४ – धान्य को बतायेगा। उदकात्ययिक ५ – देवात्ययिक तथा शुकात्ययिक हेतु एवं ६ – धान्य से यह कोष्ठागार तथा कोष परिपूरणीय है। ७ – ……………….. महास्थान अभिलेख का ऐतिहासिक महत्त्व महास्थान वर्तमान में बांग्लादेश में है। यह बोगरा जनपद में गंगा नदी की सहायक पद्मा नदी के तट पर स्थित है। यहाँ से अशोक पूर्व एक अभिलेख प्राप्त हुआ है। यह भग्न अवस्था में है। इसको प्रस्तर पर अंकित किया गया है। इस अभिलेख के अनुसार इस स्थान का नाम पुण्ड्रनगर था। गुप्तकालीन दामोदर अभिलेख के अनुसार इसका नाम पुण्ड्रवर्धन भुक्ति मिलता है। सोहगौरा अभिलेख और महास्थान अभिलेख दोनों से आपत्तिकाल अर्थात् अकाल के लिए अन्न भाण्डारण की जानकारी मिलती है। ये दोनों अभिलेख अकाल और धान्य संग्रह के प्राचीनतम् अभिलेखीय साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। इन दोनों अभिलेखों ( सोहगौरा और महास्थान ) को अशोकपूर्व मौर्यकालीन अभिलेख माना जाता है। अधिकतर विद्वान इसको चन्द्रगुप्त मौर्य के समय का मानते हैं। जैसा कि जैन अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल के अंतिम दिनों में १२ वर्षीय अकाल पड़ा था। बहुत प्रयत्नों के बाद भी जब सम्राट नियंत्रण न पा सके तो वे अपने पुत्र बिन्दुसार को गद्दी सौंपकर दक्षिण भारत के वर्तमान मैसूर के पास श्रवणबेलगोला तपस्या हेतु जैन मुनि भद्रबाहु के साथ चले गये। जहाँ उन्होंने संलेखना विधि से २९८ ई०पू० में प्राण त्याग दिये। वर्तमान में भी श्रवणवेलगोला के पास चन्द्रगिरि नामक पहाड़ी और पास में ही चन्द्रगुप्त बस्ती नामक मन्दिर है। यद्यपि १२ वर्षीय अकाल और उस समस्या जनित सिंहासन त्याग को जैनियों की अतिशयोक्ति कहा जा सकता है, परन्तु उपर्युक्त दोनों अभिलेखों व जैन अनुश्रुतियों को साथ विश्लेषित करने से यह तो स्पष्ट होता ही है कि प्राचीन भारत में अकाल पड़ते थे और राज्य उससे निपटने के लिए पहले से ही तैयारी करके रखता था। [i] १ – इतिहासकार डी०आर० भण्डारकर ने इसको संवंगियानं पढ़ा है और इसका अर्थ ‘बंगाल के लोग’ बताया है। जबकि सरकार ने सवर्ग मानकर इसका अर्थ एक स्थान बताया है।  

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सोहगौरा अभिलेख या सोहगौरा ताम्रपत्र अभिलेख

भूमिका नाम – सोहगौरा अभिलेख या सोहगौरा ताम्रपत्र अभिलेख ( Sohgaura Copper-Plate Inscription )। स्थान – सोहगौरा, गोरखपुर जनपद, उत्तर प्रदेश। भाषा – प्राकृत। लिपि – आदि ब्राह्मी। समय – लगभग चतुर्थ शताब्दी ई०पू०। विषय – अन्नागार में धान्यों का संग्रह और उसके आपद् स्थिति में उपयोग का विवरण। सोहगौरा अभिलेख का मूलपाठ १ – सवतियान महमतन ससने मनवसिति-क- २ – ड [ । ] सि ( ि ) लमते बसगमे व एते दवे कोठगलनि [ । ] ३ – तियवनि [ । ] माथुल-चचु-मोदाम-भलकन व ४ – ल कयियति अतियायिकय [ । ] नो गहितवय [ ॥ ] संस्कृत छाया श्रावस्तीयानां महामात्राणां शासनं मानवशीति कटतः। श्रीमान वंशग्रामः एतौ द्वौ कोष्ठागारौ। त्रिवेणी-माथुर-चञ्चु-मोदाम-भल्लकानां ( ग्रामाणां ) वरं कार्येते आत्ययिकायां। नो ग्रहीतव्यम्। हिन्दी अनुवाद श्रावस्ती के महामात्र के शासनकाल में मानवशीति के चौराहे पर। श्रीमान और वंशग्राम में दो कोष्ठागार। त्रिवेणी, माथुर, चञ्चु, मोद, भल्लक ग्रामों के हित के लिए आपत्तिकाल में। नहीं ग्रहण करना चाहिए ( अनापत्ति काल में )। सोहगौरा अभिलेख का ऐतिहासिक महत्त्व सोहगौरा ताम्रपत्र अभिलेख उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जनपद के बाँसगाँव तहसील के सोहगौरा नामक ग्राम से मिला है। यह वर्तमान में कोलकाता के एशियाटिक सोयाइटी में संरक्षित है। सोहगौरा ताम्रपत्र अभिलेख की भाषा प्राकृत और लिपि ब्राह्मी है। इस ताम्रपत्र के ऊपरी भाग पर सात आकृतियाँ उकेरी गयी है – वेदिका में वृक्ष तीन मंजिल का भवन कमल पुष्प कलियाँ जो कि नाल युक्त हैं मेरु पर्वत पर चन्द्र सूर्य व चन्द्र वेदिका में पेड़ तीन मंजिल का भवन इन्हीं उकेरी गयी आकृतियों के नीचे चार पंक्तियों में यह अभिलेख खुदा हुआ है। ऐसा लगता है कि ये उकेरे गये भवन अभिलेखों में बताये गये कोष्ठागारों के ही सूचक हैं। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि ये चिह्न प्राचीन भारत से मिले आहत मुद्राओं पर भी पाये जाते हैं। ये मुद्रा लेखविहीन और तिथिविहीन हैं। सोहगौरा अभिलेख का प्रथम शब्द है – सवतियान। सवतियान की संस्कृत होगी – श्रावस्तियानां। महाजनपदकाल में कोशल महाजनपद की राजधानी श्रावस्ती थी। श्रावस्ती की पहचान उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जनपद में सहेत-महेत से की जाती है। श्रावस्ती अचिरावती नदी ( राप्ती नदी ) के तट पर बसी थी। श्रावस्ती भगवान बुद्ध को बहुत प्रिय था। यहाँ पर उन्होंने सर्वाधिक वर्षावास ( २१ वास ) किये थे। इस अभिलेख का अगला पद है – महामगन ससने अर्थात् महामात्र के शासन में। यह स्थान ( श्रावस्ती ) एक प्रसिद्ध राजनीतिक और प्रशासनिक इकाई अभिलेख लिखे जाने के समय में था क्योंकि इसमें जिस महामात्र का विवरण मिलता है वह श्रावस्ती का ही महामात्र था। इससे एक बात और स्पष्ट होती है की उस समय महामात्र एक प्रमुख प्राशासनिक अधिकारी होता था। सम्राट अशोक के अभिलेखों में हमें विभिन्न महामात्र अधिकारियों का विवरण मिलता है; यथा – धम्ममहामात्र, स्त्र्याध्याक्ष महामात्र, ब्रजभूमिक महामात्र, अन्तमहामात्र। इस अभिलेख का महत्त्व तब और बढ़ जाता है जब यह राज्य के लोककल्याण की नीतियों पर प्रकाश डालता है। राज्य जन कल्याण के विषय में सोचता ही नहीं बल्कि चरितार्थ भी करता था। अकाल जैसी परिस्थितियों के अन्य / धान्य के संग्रह करके रखने के लिए कोष्ठागारों की समुचित व्यवस्था थी। इन धान्य का प्रयोग केवल दुर्भिक्ष जैसी आपात स्थितियों में ही किये जाने का निर्देश था। यहाँ और भी सुखद आश्चर्य होता है कि इस प्रकार के बृहद् अन्नागार के साक्ष्य हमें हड़प्पा सभ्यता में भी देखने को मिलते हैं। तो क्यों न इसे उसी परम्परा का निर्वहन माना जाये? जो भी हो यह बात महत्त्व की है कि अकाल और उससे निपटने के लिए राज्य की तैयारी से जुड़ा सोहगौरा अभिलेख और महास्थान अभिलेख प्राचीनतम अभिलेखीय साक्ष्य है। सोहगौरा अभिलेख एक प्रशासनिक अभिलेख है। इसका उद्देश्य था जनता को शासक या राज्य का दृष्टिकोण स्पष्ट करना। इसमें साफ-साफ शब्दों में बताया गया है कि इन कोष्ठागारों के धान्य का संग्रह का उद्देश्य आपत्काल से रक्षोपाय है। इसके साथ ही सावधान भी किया गया है की सामान्य परिस्थितियों में इसका उपयोग न किया जाये। सोहगौरा अभिलेख में शासक और प्रशासक का नाम तक नहीं मिलता है अतः इसको विशुद्ध प्रशासनिक अभिलेख मानना समीचीन है। सोहगौरा अभिलेख से तत्कालीन आर्थिक स्तिथि की कई परतें खुलती हैं। इसमें लिखा है दोनों ‘कोठगलिन’ ( कोष्ठागार ) मनवंशीति के चौराहे पर बनिये गये थे। इससे निम्न बातें स्पष्ट होती है – कोष्ठागार का होना इस बात का परिचायक हा कि उस समय प्रभूत अन्नोत्पादन होता था। राज्यकर उपज के रूप में भी संग्रहीत किया जाता था। चौराहे का उल्लेख यह इंगित करता है कि व्यापारिक मार्गों से बस्तियाँ जुड़ी हुई थी। ये मार्ग तत्कालीन व्यापारिक गतिविधियों में संचार धमनियों सदृश थे। ताम्रपत्र पर अंकित चित्र और आहत मुद्राओं से उनकी समानता यह स्पष्ट रूप से बताता है कि आहत मुद्रा प्रचलन ( कार्षापण )में थी। अभिलेख से कृषि अर्थव्यवस्था की जानकारी भी मिलती है। इसमें कुछ धान्यों का उल्लेख मिलता है – मधु, भूना चावल, अजवायन और आम के भार के संग्रह — ( माथुल च [ च ] — मोदाम-भलकन-छवल कयियति )। भूना चावल ( जिसे आज भी हमारे घरों में भुजिया चावल कहते हैं ) चावल के प्रभूत उत्पादन का संकेत है। अजवायन, मधुसंग्रह / मधुमक्खी पालन, आम्र वाटिका आदि का संकेत समृद्ध अर्थव्यवस्था का संकेतक है। इस अभिलेख की अंतिम पंक्ति आदेशात्मक है – ‘नो गहिगतवयं’ अर्थात् नहीं ग्रहण करना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो सामान्य परिस्थितियों में इस संग्रह का उपयोग नहीं करना है। यह अभिलेखीय साक्ष्य कि प्राचीन समय में अकाल पड़ते थे और राज्य उसकी पूर्व-तैयारी भी करता था। लगभग इसी समय का महास्थान अभिलेख भी है और यह भी अकाल और उसके लिए धान्य संग्रह से से जुड़ी बातें करता है। जैन अनुश्रुतियाँ भी बताती हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल के अंतिम समय में १२ वर्ष का अकाल पड़ा था। सोहगौरा अभिलेख तत्कालीन वास्तुकला का अभिलेखीय साक्ष्य भी प्रस्तुत करता है। इसमें बताया गया है कि कोष्ठागार कैसे बने थे। इसी पर भवनाकृतियाँ भी अंकित है। इसमें ‘वसगमे’ शब्द का उल्लेख है जिसे ‘बाँसगाँव’ पढ़ाया है। यह स्थान गोरखपुर के बाँसगाव से लगभग ९ किलोमीटर दूर स्थित वर्तमान सोहगौरा है। इससे यह भी विदित होता है कि यह क्षेत्र श्रावस्ती के प्रशासनिक कार्यक्षेत्र में आता था। सोहगौरा अभिलेख की तिथि स्पष्ट नहीं है। फिरभी

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पिपरहवा अभिलेख या पिपरहवा बौद्ध कलश अभिलेख

परिचय नाम – पिपरहवा बौद्ध अस्थि कलश अभिलेख ( Piprahwa Buddhist Vase-Inscription ) या पिपरहवा अभिलेख। स्थान – पिपरहवा, सिद्धार्थनगर जनपद, उत्तर प्रदेश। भाषा – प्राकृत ( पूर्वी वर्ग )। लिपि – मौर्य-पूर्व ब्राह्मी। समय – गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण ४८३ ई०पू० के ठीक बाद अर्थात् पाँचवीं शताब्दी ई०पू०। विषय – महात्मा बुद्ध के धातु अवशेष पर वैयक्तिक अभिलेख। पिपरहवा अभिलेख का मूल-पाठ सुकिति भतिनं सभगिनिकनं सपुतदलनं। इयं सलिल निधने बुधस भगवते सकियनं॥ संस्कृत छाया सुकृतिभ्रातृणां सभगिनीकिनां सुपुत्रदाराणाम्। इदं शरीरनिधानं बुद्धस्य भगवतः शाक्यानाम्॥ हिन्दी अनुवाद सुकृति के भाइयों, भगिनियों, दाराओं, पुत्र-दाराओं सहित। यह शरीर निधान भगवान बुद्ध का शाक्यों के॥   श्लोक का विश्लेषण  इस अभिलेख के पहले दो शब्दों पर विवाद है – सुकिति – इसको विद्वानों के एक वर्ग ने सुकीर्ति तो दूसरे ने सुकृति का प्राकृत भाषान्तर माना है। भतिनं – इसको भी भ्रातृणां या भक्तयोः का प्राकृत रूपान्तरण माना गया है। इस तरह सुकिति-भतिनं के दो अर्थ निकलते हैं – सुकीर्ति या सुकृति के भाई सुकीर्ति ( या सुकृति ) और भक्त नामक दो व्यक्ति इस पदावली का प्रथम अर्थ ( सुकीर्ति या सुकृति के भाई ) अधिक संगत लगता है। इस तरह इस श्लोक का कुल मिलाकर यह अर्थ निकलता है कि, ‘बुद्ध भगवान् शाक्य के इस इस शरीर-धातु-अवशेष ( निधान ) को सुकीर्ति-बन्धुओं ने अपनी बहन, पुत्र के साथ मिलकर प्रतिष्ठित करवाया।’ पिपरहवा अभिलेख का ऐतिहासिक महत्त्व पिपरहवा स्तूप से मिले अस्थिकलश पर यह अभिलेख अंकित है। यह स्तूप उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जनपद में पिपरहवा नामक स्थान पर है। अस्थिकलश की ग्रीवा पर यह अभिलेख लिखा गया है। यह अस्थिकलश प्रस्तर का है। यह अभिलेख प्राकृत भाषा में और ब्राह्मी लिपि में लिखी गयी है। महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण होने पर उनके धातु अवशेषों को आठ भागों में बाँटा गया था। उन सभी आठ धातु अवशेषों को श्रद्धापूर्वक उनके अनुयायियों ने आठ स्थानों पर रखकर उसपर स्तूपों का निर्माण कराया था। उन्हीं आठ मौलिक अष्ट स्तूपों में से एक पिपरहवा स्तूप भी है। इस तरह इसकी जो तिथि निकलकर आती है वह है – ४८३ ई०पू० अर्थात् पाँचवीं शताब्दी ई०पू०। इस अभिलेख में सलिल निधनं ( शरीर निधानं ) अंकित है। उस शरीर निधान अर्थात् धातु अवशेष पर एक अवशेष बनवाया गया था। स्तूप निर्माण को नई परम्परा नहीं थी क्योंकि इसका विवरण ऋग्वेद में भी मिलता है। स्वयं महात्मा बुद्ध के कथन से भी यही ज्ञात होता है। दिव्यावदान में उल्लेख आता है कि भगवान बुद्ध कहते हैं कि मेरे चातुमहापदे पर उसी तरह स्तूप बनवाये जाये जिस प्रकार शासकों की मृत्यु पर बनवाये जाते हैं। जैन परम्परा भी इसकी प्रचीनता को प्रमाणित करती है। महापरिनिर्वाण सूत्र में महात्मा बुद्ध के शरीर-धातु के आठ दावेदारों के नाम निम्न मिलते हैं – पावा और कुशीनारा के मल्ल कपिलवस्तु के शाक्य वैशाली के लिच्छवि अलकप्प के बुलि रामगाम के कोलिय पिप्पलिवन के मोरिय मगधराज अजातशत्रु वेठद्वीप के ब्राह्मण इन आठों दावेदारों ने महात्मा बुद्ध के धातु अवशेषों पर आठ स्थानों पर स्तूपों का निर्वाण करवाया। इसी में से कपिलवस्तु के शाक्यों ने जो स्तूप निर्मित करवाया वही है – पिपरहवा का स्तूप। इसकी पुष्टि के लिए अभिलेख का साक्ष्य लिया जाता है – अभिलेख में आये शब्द ‘सकियानं’ का संस्कृत में रूपांतरण होगा – शाक्यानां; अर्थात् शाक्यों। बुद्ध स्वयं शाक्य क्षत्रिय थे इसीलिए उनके धातु अवशेषों के आठ भागों में से एक भाग कपिलवस्तु के शाक्यों को मिला था। अभिलेख में आयी पदावली ‘सुकिति भतिनिं’ जिसका संस्कृति रूपांतरण होगा – सुकृति भ्रातृणां; अर्थात् भागवान बुद्ध के भाइयों द्वारा। इससे स्पष्ट होता है कि ये ही सलिल निधान के संस्थापक और पिपरहवा स्तूप के निर्माता थे। कपिलवस्तु कहाँ बसा था इस बात पर विवाद हो सकता है परन्तु यह स्पष्ट है कि पिपरहवा चाहे प्राचीन कपिलवस्तु हो या न हो परन्तु यह भूभाग कपिलवस्तु के शासनक्षेत्र में अवश्य आता होगा। सम्प्रति कपिलवस्तु की पहचान वर्तमान में नेपाल में की जाती है। गौतम बुद्ध 

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ऐहोल अभिलेख ( The Aihole Inscription )

परिचय नाम – ऐहोल अभिलेख ( Aihole inscription ) या पुलकेशिन् द्वितीय का ऐहोल अभिलेख ( Aihole inscription of Pulakeshin second ) स्थान – ऐहोल, जनपद – बागलकोट, कर्नाटक। भाषा – संस्कृत लिपि – दक्षिणी ब्राह्मी समय – ६३४ ई० लेखक – जैन कवि रविकीर्ति विषय – पुलकेशिन् द्वितीय का प्रशस्ति गायन। ऐहोल अभिलेख का मूल-पाठ जयति भगवाञ्जिनेन्द्रो वीतजरामरणजन्मनो यस्य। ज्ञानसमुद्रान्तकर्गतमखिलंञ्जगन्तर्रपमिव॥ १ ॥   तदनु चिरमपरिमेय श्चलुक्य कुलविपुलनिधिर्ञ्जयति। पृथिवी मौलिललाम्नां यः प्रभवः पुरुषरत्नाम्॥ २ ॥   शूरे विदुषि च विभजन्दानंमाननंऩ्च। अविहितयथासंख्योजयति च सत्याश्रयस्सुचिरम्॥ ३ ॥   पृथ्वीवल्लभशब्दो येषामन्वर्त्थतांञ्चिरञ्जातः। तव्दंशेषु जिगीषुषु तेषु बहुष्वप्यतीतेषु॥ ४ ॥   नाना हेतिशताभिधातपतितभ्रान्ताश्वपत्तिद्विपे- नृत्यद्भीमकबन्धखङ्गकिरणज्वालासहस्ररणे। लक्ष्मीर्भावितचापलपि च कृता शौर्य्येण येनात्मसा- द्राजासीज्जयसिंहवल्लभ इति ख्यातश्चलुक्यान्वयः॥ ५ ॥   तदात्मजोभूद्ररणरागनामा दिव्यानुभावो जगदेकनाथः। अमानुषत्वं किल यस्य लोकाः स्सुप्तस्य जानाति वपुः प्रकर्षात्॥ ६ ॥ तस्याभवत्तनूजः पोलेकेशी यः श्रीतेन्दुकान्तिरिप।   श्रीवल्लभोप्ययासीद्वातापिपुरीवधूवरताम्॥ ७ ॥ यस्त्रिवर्ग्गपदवीमलं क्षितौ नानुगन्तुमधुनापि राजकम्।   भूश्व येन हयमेधयाजिना प्रापितावभृथमज्जना बभौ॥ ८ ॥ नलमौर्यकदम्बकालरात्रिः स्तनयस्तस्य बभूब कीर्तिवर्म्मा। परदारनिवृत्तचित्तवृत्तेरपि धीर्यस्य रिपुश्रीयानुकृष्टा॥ ९ ॥   रणपराक्रमलब्धश्रिया सपादि येन विरूग्णमशेषतः। नृपतिगन्धगजेन महौजसा पृथुकदम्बकदम्बकदम्बकम्॥ १० ॥   तस्मिन्सुरेश्वरविभूतिगताभिलाषे राजाभवत्तदनुजः किल मङ्गलेशः। यः पूर्वपश्चिम समुद्र तटोषिताश्च सेनाराज पटर्क्निम्ति दिग्वितानः॥ ११ ॥   स्फुरन्मयूखैरसिदीपिकाशर्तै र्व्यदस्यमातङ्गतमिस्रसञ्चयम्। अवाप्तवान्यो रणरङ्गमन्दिरे कटच्छुरि श्रीललनापरिग्रहम्॥ १२ ॥   पुनरपिचजघृक्षोस्सैन्यमाक्क्रान्तयालम् रूचिरबहुपताकं रेवतीद्वीपमाशु। सपादि महदुदन्वत्तीयसंक्कक्रान्तबिम्बिम् वरुणंबलमिवाभूदागतं यस्य वाचा॥ १३ ॥   तस्याग्रजस्य तनया नहुषानुभावे लक्ष्म्या किलभिलषिते पोलकेशिनामम्नि। सासूयमात्मानि भवन्तमतः पितृव्यम् ज्ञात्त्वापरुद्धचरितव्यवसायबुद्धौ॥ १४ ॥   स यदुपचित मन्त्रोत्साहशक्तिप्रयोग क्षपितवलविशेषो मङ्गलेशः समन्तात्। स्वतनयगताराज्यारम्भयत्नेन साद्धं निजमतनु च राज्यंञ्जीवितंञ्चोज्झति स्म॥ १५ ॥   तावत्तच्छत्रभङ्गो जगदखिलमरात्यन्धकोरापरुद्धं यस्यासह्यप्रद्युतिततिभिरिवाक्क्रान्तमासीत्प्रभातम्। नृत्यद्विद्युत्पताकैः प्रजविनि मरूति क्षुण्णपर्यान्ततभागै र्ग्गर्जद्भिर्व्वारिवाहैरलिकुलमलिनं व्योम यातं कदा वा॥ १६ ॥   लब्धवा कालं भृवमुपगते जेतुमाप्पायिकाख्ये गोविन्दे च द्विरदनिकरैरुत्तरांम्भैरथ्याः। यस्यानीकैर्युधि भथरसज्ञात्वमेकः प्रयात स्तत्रावाप्तंफलमुपकृतस्यापरेणापि सद्यः॥ १७ ॥   वरदातुङ्गतरङ्गरङ्गविलसद्गस्धंसावलीमेखलां वनवासीमवमृतः सुरपुरप्रस्पर्धिनीं सम्पदा। महता यस्य बलार्ण्णवेन परितः सञ्छादितोर्वीतलं स्थलदुर्गञ्जलदुर्ग्गतामिव गतं तत्तत्क्षणे पश्यताम्॥ १८ ॥   गङ्गालुपेन्द्रा व्यसनानि सप्त हित्वपुरोपार्जितशम्पदोऽपि। यस्यान्नुभावोपनताः सदासन्नासन्नसेवामृतपानशौण्डः॥ १९ ॥   कोङ्कणेषु यदादिष्ट चण्डदण्डाम्बुवीचिभिः उदास्तास्तरसा मौर्यपल्वलाम्बुसमृद्धयः॥ २० ॥   अपरजलधेर्लक्ष्मीं यस्मिन्पुरीम्पुरभित्प्रभे मदगजघटाकारैनावां शतैर्रवमन्दति। जलदपटलानीकाकीर्णन्नवोत्पलमेचक जलनिधिरिव ब्योम व्योन्नस्सभोभवदम्बुधिः॥ २१ ॥   प्रतापापनता यस्य लाटमालवगुर्जराः। दण्डोपनतसमन्तचर्य्या चार्या इवाभवन्॥ २२ ॥   अपरिमितविभूतिस्फीतसामन्तसेना मुकुटमणिमयूखाक्क्रान्तपादारविन्दः। युधि पतितगजेंद्रानीकबीभत्सभूतो भयविलगित हर्षों येन चाकारि हर्षः॥ २३ ॥   भुवमुरुभिरनीकैश्शासतौ यस्य रेवाविविधपुलिनशोभावन्ध्य विन्ध्योपकण्ठः। अधिकतरमराजत्स्वेन तजोमहिम्ना शिखरिभिरिभवर्ज्यो वर्ष्मणां स्पर्द्धयेव॥ २४ ॥   विधिवदुपचिताभिश्शक्तिभिश्शक्रकल्पस्तिसृभिरपि गुणौधैस्वैश्च माहाकुलाद्यैः। अगमदधिपतित्वं यो महाराष्ट्टकाणां नवनवतिसहस्रग्रामभाजां त्रयाणाम्॥ २५ ॥   गृहिणां स्वस्वगुणैस्त्रिवर्गतुङ्गा। विहितान्यक्षितिपालमानभङ्गा। अभवन्नुपजातभीतिलिङ्गा। यदनीकेन सकोसलाः कलिङ्गा॥ २६ ॥   पिष्टं पिष्टपरं येन जातं दुर्ग्गमदुर्ग्गमम् चित्रं यस्य कलेर्वृत्तम् जातं दुर्ग्गमदुर्ग्गमम्॥ २७ ॥   सन्नद्ववारणघटास्थगितान्तरालं नानायुधक्षतनरक्षतजाङ्गरागम्। आसीज्जलं यदवमर्द्दतमभ्रगर्भ कौनालमम्बरमिवोर्ज्जित सान्ध्यरागम्॥ २८ ॥   उद्धूतामलचामरध्वज शतच्छत्रान्धकारैर्बलैः शौर्य्योत्साहरसोद्धतारिमथनैर्मौलादिभिः ष्षडविधैः। आक्रान्तात्मबलोन्नतिम्बलरजः सञ्छन्नस्काञ्चीपुर प्राक्रारान्तरितप्रतापकरोद्यः पल्लवानाम्पतिम्॥ २९ ॥   कावेरी हतशफरीविलोलनेत्रा चोलानां सपदि जयोद्यतस्य यस्य। प्रश्योतन्मदगजसेतुरूद्धनीरा संस्पर्शं परिहरति स्म रत्नराशेः॥ ३० ॥   चोलकेरलपाण्ड्यानाम् योभूत्तत्र महर्द्धये। पल्लवानीकनीहार तुहिनेतरर्दधितिः॥ ३१ ॥   उत्साहप्रभुमन्त्रशक्तिसहिते यस्मिन्समस्ता दिशो जित्वा भूमिपतीन्विसृज्य महितानाराद्धय देवद्विजान्। वातापीन्नगरीप्रविश्य नगरीमेकामिवोम्मिमाम् चञ्चन्नीरधिनीलनीरपरिरखां सत्याश्रये शासति॥ ३२ ॥   त्रिशंत्सु त्रिसहस्रेषु भारतादाहवादितः। सप्ताब्दशतयुक्तेषु गतेष्वब्देषु पञ्चसु॥ ३३ ॥   पञ्चाशत्सु कलौ काले षट्सु पञ्चशतासु च। समासु समतीतासु शकानामपि भूभुजाम॥ ३४ ॥   तस्याम्बुधित्रयनिवारितशासनस्य सत्याश्रयस्य परमाप्तवता प्रसादम् शैलं जिनेन्द्र भवनं। भवनम्महिम्नां निर्मापितं मतिमता रविकीर्त्तिनेदम्॥ ३५ ॥   प्रशस्तेर्व्वसते, श्चास्या जिनस्य त्रिजगद्गुरोः। × कर्ताकारयिता चापि रविकीर्तिः × कृति स्वयम्॥ ३६ ॥   येनायोजि नवेश्मस्थिरमर्त्थविधौ विवेकिना जिनवेश्म। स विजयतां रविकीर्तिः कविताश्रित कालीदासभारविकीर्तिः॥ ३७ ॥   मूल वल्लिवेल्मल्तिकवाडमच्चनूर्ग्गाङ्गिवूर्पुलिगिरे गण्डवग्राम मा इति अस्य भुक्तिः। गिरि ( रे ) स्त टात्पश्मचिमाभिगत निमूवारिय्यवत् महापथान्तपुरस्य सि ( सी ) मा उत्तरतः दक्षिणतो ऐहोल अभिलेख का हिन्दी अनुवाद १ – जो जन्म, जरा-मृत्यु से परे हैं, जिनके ज्ञान रूपी समुद्र में संसार एक द्वीप के समान है, ऐसे भगवान विष्णु की जय हो। २ – स्थायी और असीम चालुक्य वंश रूपी विशाल समुद्र की जय हो, जो पृथ्वी के मस्तक को विभूषित करने वाले पुरुष रत्नों की उद्गम स्थली है। ३ – दान व मान, वीर व विद्वान में भेद न कर दोनों में समान वितरण करने वाला सत्याश्रय चिरविजयी हों। ४ – जिनके द्वारा इस वंश में उत्पन्न विजगीषु अनेक राजाओं के बीच ‘पृथ्वीवल्लभ’ शब्द को दीर्घकाल तक सार्थक बनाये रखा गया। ५ – अनेक शस्त्रों के प्रहार से पतित और भ्रांत अश्व, पदाति और गज सेना को नाचती हुई भयंकर तलवार की चंचलता किरणों की ज्वाला से सहस्रों युद्धों में जीत कर लक्ष्मी स्वाभाविक चंचलता को अपने शौर्य से स्थिर करने वाले ‘जयसिंहवल्लभ’ इस वंश का प्रसिद्ध राजा हुआ। ६ – उनके ‘रणराग’ नामक पुत्र थे, जो अपने दिव्य अनुभव से इस संसार का स्वामी था। उनके सुप्त शरीर की विशालता को देखकर संसार उनको अमानव अर्थात् देवता समझता था। ७ – चन्द्रमा की कान्ति से युक्त ‘श्रीवल्लभ पुलकेशी’ उनके पुत्र थे, जो वातापिपुर रूपी वधू के स्वामी थे। ८ – जिसने इस पृथ्वी पर त्रिवर्ग की पदवी धारण की, जिसे अन्य राजा पाने में असमर्थ रहे। उसने अश्वमेध यज्ञ किया और यज्ञ की समाप्ति पर स्नान ( वभृय मज्जन ) द्वारा सभी लोगों को अचम्भित कर दिया। ९ – उनके पुत्र ‘कीर्तिवर्मन’ हुए, जो नल, मौर्य और कदम्ब राजाओं के लिये कालरात्रि समान थे। पर स्त्रियों की ओर से चित्त को हटा लेने पर भी जिनकी बुद्धि को शत्रु लक्ष्मी आकर्षित कर लिया था। १० – युद्ध में पराक्रम के द्वारा जिसने शीघ्र ही सम्पूर्ण विजयश्री को प्राप्त कर लिया था। राजाओं के यशरूपी गन्ध से मत्त गज के समान जिसने कदम्ब वंश को कदम्ब वृक्क भाँति समूल नष्ट कर दिया था। ११ – इन्द्र की विभूति को प्राप्त करने की अभिलाषा रखने वाले कीर्तिवर्मा के पश्चात् उनके अनुज मंगलेश राजा हुए, जिनकी अश्वसेन की टापों से उड़ी धूल से पूर्वी सागर से पश्चिमी सागर तक वितान सा बना दिया था। १२ – शत्रुओं के हाथी रूपी अंधकार को सैकड़ों चमकती हुई तलवार रूपी दीपों से नष्ट कर युद्ध मण्डप में कलचुरि वंश की राजकन्या का पाणिग्रहण किया। १३ – पुनः उसने रेवती द्वीप ( गोवा ) को विजित करने की इच्छा से अनेक ध्वजाओं से युक्त सेना के द्वारा घेर लिया। उसकी विशाल सेना का प्रतिबिम्ब समुद्र में पड़ता हुआ प्रतीत होता था। मानो वरुण उसकी ( मंगलेश ) आज्ञा पाकर अपनी सेना लेकर आ गया हो। १४ – उसके अनुज ( कीर्तिवर्मा ) का पुत्र पुलकेशी ( द्वितीय ) था, जो नहुष के समान प्रभावशाली था और लक्ष्मी प्रियपात्र था। पितृव्य मंगलेश की अपने प्रति ईर्ष्या को जानकर उसने अपनी व्यावसायिक बुद्धि को नहीं रोका। १५ – उसने अपनी सम्पूर्ण मंत्र शक्ति और उत्साह शक्ति के प्रयोग से मंगलेश के सम्पूर्ण बल को नष्ट कर दिया। मंगलेश को अपने पुत्रों राज्य

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