परिचय नाम – ऐहोल अभिलेख ( Aihole inscription ) या पुलकेशिन् द्वितीय का ऐहोल अभिलेख ( Aihole inscription of Pulakeshin second ) स्थान – ऐहोल, जनपद – बागलकोट, कर्नाटक। भाषा – संस्कृत लिपि – दक्षिणी ब्राह्मी समय – ६३४ ई० लेखक – जैन कवि रविकीर्ति विषय – पुलकेशिन् द्वितीय का प्रशस्ति गायन। ऐहोल अभिलेख का मूल-पाठ जयति भगवाञ्जिनेन्द्रो वीतजरामरणजन्मनो यस्य। ज्ञानसमुद्रान्तकर्गतमखिलंञ्जगन्तर्रपमिव॥ १ ॥ तदनु चिरमपरिमेय श्चलुक्य कुलविपुलनिधिर्ञ्जयति। पृथिवी मौलिललाम्नां यः प्रभवः पुरुषरत्नाम्॥ २ ॥ शूरे विदुषि च विभजन्दानंमाननंऩ्च। अविहितयथासंख्योजयति च सत्याश्रयस्सुचिरम्॥ ३ ॥ पृथ्वीवल्लभशब्दो येषामन्वर्त्थतांञ्चिरञ्जातः। तव्दंशेषु जिगीषुषु तेषु बहुष्वप्यतीतेषु॥ ४ ॥ नाना हेतिशताभिधातपतितभ्रान्ताश्वपत्तिद्विपे- नृत्यद्भीमकबन्धखङ्गकिरणज्वालासहस्ररणे। लक्ष्मीर्भावितचापलपि च कृता शौर्य्येण येनात्मसा- द्राजासीज्जयसिंहवल्लभ इति ख्यातश्चलुक्यान्वयः॥ ५ ॥ तदात्मजोभूद्ररणरागनामा दिव्यानुभावो जगदेकनाथः। अमानुषत्वं किल यस्य लोकाः स्सुप्तस्य जानाति वपुः प्रकर्षात्॥ ६ ॥ तस्याभवत्तनूजः पोलेकेशी यः श्रीतेन्दुकान्तिरिप। श्रीवल्लभोप्ययासीद्वातापिपुरीवधूवरताम्॥ ७ ॥ यस्त्रिवर्ग्गपदवीमलं क्षितौ नानुगन्तुमधुनापि राजकम्। भूश्व येन हयमेधयाजिना प्रापितावभृथमज्जना बभौ॥ ८ ॥ नलमौर्यकदम्बकालरात्रिः स्तनयस्तस्य बभूब कीर्तिवर्म्मा। परदारनिवृत्तचित्तवृत्तेरपि धीर्यस्य रिपुश्रीयानुकृष्टा॥ ९ ॥ रणपराक्रमलब्धश्रिया सपादि येन विरूग्णमशेषतः। नृपतिगन्धगजेन महौजसा पृथुकदम्बकदम्बकदम्बकम्॥ १० ॥ तस्मिन्सुरेश्वरविभूतिगताभिलाषे राजाभवत्तदनुजः किल मङ्गलेशः। यः पूर्वपश्चिम समुद्र तटोषिताश्च सेनाराज पटर्क्निम्ति दिग्वितानः॥ ११ ॥ स्फुरन्मयूखैरसिदीपिकाशर्तै र्व्यदस्यमातङ्गतमिस्रसञ्चयम्। अवाप्तवान्यो रणरङ्गमन्दिरे कटच्छुरि श्रीललनापरिग्रहम्॥ १२ ॥ पुनरपिचजघृक्षोस्सैन्यमाक्क्रान्तयालम् रूचिरबहुपताकं रेवतीद्वीपमाशु। सपादि महदुदन्वत्तीयसंक्कक्रान्तबिम्बिम् वरुणंबलमिवाभूदागतं यस्य वाचा॥ १३ ॥ तस्याग्रजस्य तनया नहुषानुभावे लक्ष्म्या किलभिलषिते पोलकेशिनामम्नि। सासूयमात्मानि भवन्तमतः पितृव्यम् ज्ञात्त्वापरुद्धचरितव्यवसायबुद्धौ॥ १४ ॥ स यदुपचित मन्त्रोत्साहशक्तिप्रयोग क्षपितवलविशेषो मङ्गलेशः समन्तात्। स्वतनयगताराज्यारम्भयत्नेन साद्धं निजमतनु च राज्यंञ्जीवितंञ्चोज्झति स्म॥ १५ ॥ तावत्तच्छत्रभङ्गो जगदखिलमरात्यन्धकोरापरुद्धं यस्यासह्यप्रद्युतिततिभिरिवाक्क्रान्तमासीत्प्रभातम्। नृत्यद्विद्युत्पताकैः प्रजविनि मरूति क्षुण्णपर्यान्ततभागै र्ग्गर्जद्भिर्व्वारिवाहैरलिकुलमलिनं व्योम यातं कदा वा॥ १६ ॥ लब्धवा कालं भृवमुपगते जेतुमाप्पायिकाख्ये गोविन्दे च द्विरदनिकरैरुत्तरांम्भैरथ्याः। यस्यानीकैर्युधि भथरसज्ञात्वमेकः प्रयात स्तत्रावाप्तंफलमुपकृतस्यापरेणापि सद्यः॥ १७ ॥ वरदातुङ्गतरङ्गरङ्गविलसद्गस्धंसावलीमेखलां वनवासीमवमृतः सुरपुरप्रस्पर्धिनीं सम्पदा। महता यस्य बलार्ण्णवेन परितः सञ्छादितोर्वीतलं स्थलदुर्गञ्जलदुर्ग्गतामिव गतं तत्तत्क्षणे पश्यताम्॥ १८ ॥ गङ्गालुपेन्द्रा व्यसनानि सप्त हित्वपुरोपार्जितशम्पदोऽपि। यस्यान्नुभावोपनताः सदासन्नासन्नसेवामृतपानशौण्डः॥ १९ ॥ कोङ्कणेषु यदादिष्ट चण्डदण्डाम्बुवीचिभिः उदास्तास्तरसा मौर्यपल्वलाम्बुसमृद्धयः॥ २० ॥ अपरजलधेर्लक्ष्मीं यस्मिन्पुरीम्पुरभित्प्रभे मदगजघटाकारैनावां शतैर्रवमन्दति। जलदपटलानीकाकीर्णन्नवोत्पलमेचक जलनिधिरिव ब्योम व्योन्नस्सभोभवदम्बुधिः॥ २१ ॥ प्रतापापनता यस्य लाटमालवगुर्जराः। दण्डोपनतसमन्तचर्य्या चार्या इवाभवन्॥ २२ ॥ अपरिमितविभूतिस्फीतसामन्तसेना मुकुटमणिमयूखाक्क्रान्तपादारविन्दः। युधि पतितगजेंद्रानीकबीभत्सभूतो भयविलगित हर्षों येन चाकारि हर्षः॥ २३ ॥ भुवमुरुभिरनीकैश्शासतौ यस्य रेवाविविधपुलिनशोभावन्ध्य विन्ध्योपकण्ठः। अधिकतरमराजत्स्वेन तजोमहिम्ना शिखरिभिरिभवर्ज्यो वर्ष्मणां स्पर्द्धयेव॥ २४ ॥ विधिवदुपचिताभिश्शक्तिभिश्शक्रकल्पस्तिसृभिरपि गुणौधैस्वैश्च माहाकुलाद्यैः। अगमदधिपतित्वं यो महाराष्ट्टकाणां नवनवतिसहस्रग्रामभाजां त्रयाणाम्॥ २५ ॥ गृहिणां स्वस्वगुणैस्त्रिवर्गतुङ्गा। विहितान्यक्षितिपालमानभङ्गा। अभवन्नुपजातभीतिलिङ्गा। यदनीकेन सकोसलाः कलिङ्गा॥ २६ ॥ पिष्टं पिष्टपरं येन जातं दुर्ग्गमदुर्ग्गमम् चित्रं यस्य कलेर्वृत्तम् जातं दुर्ग्गमदुर्ग्गमम्॥ २७ ॥ सन्नद्ववारणघटास्थगितान्तरालं नानायुधक्षतनरक्षतजाङ्गरागम्। आसीज्जलं यदवमर्द्दतमभ्रगर्भ कौनालमम्बरमिवोर्ज्जित सान्ध्यरागम्॥ २८ ॥ उद्धूतामलचामरध्वज शतच्छत्रान्धकारैर्बलैः शौर्य्योत्साहरसोद्धतारिमथनैर्मौलादिभिः ष्षडविधैः। आक्रान्तात्मबलोन्नतिम्बलरजः सञ्छन्नस्काञ्चीपुर प्राक्रारान्तरितप्रतापकरोद्यः पल्लवानाम्पतिम्॥ २९ ॥ कावेरी हतशफरीविलोलनेत्रा चोलानां सपदि जयोद्यतस्य यस्य। प्रश्योतन्मदगजसेतुरूद्धनीरा संस्पर्शं परिहरति स्म रत्नराशेः॥ ३० ॥ चोलकेरलपाण्ड्यानाम् योभूत्तत्र महर्द्धये। पल्लवानीकनीहार तुहिनेतरर्दधितिः॥ ३१ ॥ उत्साहप्रभुमन्त्रशक्तिसहिते यस्मिन्समस्ता दिशो जित्वा भूमिपतीन्विसृज्य महितानाराद्धय देवद्विजान्। वातापीन्नगरीप्रविश्य नगरीमेकामिवोम्मिमाम् चञ्चन्नीरधिनीलनीरपरिरखां सत्याश्रये शासति॥ ३२ ॥ त्रिशंत्सु त्रिसहस्रेषु भारतादाहवादितः। सप्ताब्दशतयुक्तेषु गतेष्वब्देषु पञ्चसु॥ ३३ ॥ पञ्चाशत्सु कलौ काले षट्सु पञ्चशतासु च। समासु समतीतासु शकानामपि भूभुजाम॥ ३४ ॥ तस्याम्बुधित्रयनिवारितशासनस्य सत्याश्रयस्य परमाप्तवता प्रसादम् शैलं जिनेन्द्र भवनं। भवनम्महिम्नां निर्मापितं मतिमता रविकीर्त्तिनेदम्॥ ३५ ॥ प्रशस्तेर्व्वसते, श्चास्या जिनस्य त्रिजगद्गुरोः। × कर्ताकारयिता चापि रविकीर्तिः × कृति स्वयम्॥ ३६ ॥ येनायोजि नवेश्मस्थिरमर्त्थविधौ विवेकिना जिनवेश्म। स विजयतां रविकीर्तिः कविताश्रित कालीदासभारविकीर्तिः॥ ३७ ॥ मूल वल्लिवेल्मल्तिकवाडमच्चनूर्ग्गाङ्गिवूर्पुलिगिरे गण्डवग्राम मा इति अस्य भुक्तिः। गिरि ( रे ) स्त टात्पश्मचिमाभिगत निमूवारिय्यवत् महापथान्तपुरस्य सि ( सी ) मा उत्तरतः दक्षिणतो ऐहोल अभिलेख का हिन्दी अनुवाद १ – जो जन्म, जरा-मृत्यु से परे हैं, जिनके ज्ञान रूपी समुद्र में संसार एक द्वीप के समान है, ऐसे भगवान विष्णु की जय हो। २ – स्थायी और असीम चालुक्य वंश रूपी विशाल समुद्र की जय हो, जो पृथ्वी के मस्तक को विभूषित करने वाले पुरुष रत्नों की उद्गम स्थली है। ३ – दान व मान, वीर व विद्वान में भेद न कर दोनों में समान वितरण करने वाला सत्याश्रय चिरविजयी हों। ४ – जिनके द्वारा इस वंश में उत्पन्न विजगीषु अनेक राजाओं के बीच ‘पृथ्वीवल्लभ’ शब्द को दीर्घकाल तक सार्थक बनाये रखा गया। ५ – अनेक शस्त्रों के प्रहार से पतित और भ्रांत अश्व, पदाति और गज सेना को नाचती हुई भयंकर तलवार की चंचलता किरणों की ज्वाला से सहस्रों युद्धों में जीत कर लक्ष्मी स्वाभाविक चंचलता को अपने शौर्य से स्थिर करने वाले ‘जयसिंहवल्लभ’ इस वंश का प्रसिद्ध राजा हुआ। ६ – उनके ‘रणराग’ नामक पुत्र थे, जो अपने दिव्य अनुभव से इस संसार का स्वामी था। उनके सुप्त शरीर की विशालता को देखकर संसार उनको अमानव अर्थात् देवता समझता था। ७ – चन्द्रमा की कान्ति से युक्त ‘श्रीवल्लभ पुलकेशी’ उनके पुत्र थे, जो वातापिपुर रूपी वधू के स्वामी थे। ८ – जिसने इस पृथ्वी पर त्रिवर्ग की पदवी धारण की, जिसे अन्य राजा पाने में असमर्थ रहे। उसने अश्वमेध यज्ञ किया और यज्ञ की समाप्ति पर स्नान ( वभृय मज्जन ) द्वारा सभी लोगों को अचम्भित कर दिया। ९ – उनके पुत्र ‘कीर्तिवर्मन’ हुए, जो नल, मौर्य और कदम्ब राजाओं के लिये कालरात्रि समान थे। पर स्त्रियों की ओर से चित्त को हटा लेने पर भी जिनकी बुद्धि को शत्रु लक्ष्मी आकर्षित कर लिया था। १० – युद्ध में पराक्रम के द्वारा जिसने शीघ्र ही सम्पूर्ण विजयश्री को प्राप्त कर लिया था। राजाओं के यशरूपी गन्ध से मत्त गज के समान जिसने कदम्ब वंश को कदम्ब वृक्क भाँति समूल नष्ट कर दिया था। ११ – इन्द्र की विभूति को प्राप्त करने की अभिलाषा रखने वाले कीर्तिवर्मा के पश्चात् उनके अनुज मंगलेश राजा हुए, जिनकी अश्वसेन की टापों से उड़ी धूल से पूर्वी सागर से पश्चिमी सागर तक वितान सा बना दिया था। १२ – शत्रुओं के हाथी रूपी अंधकार को सैकड़ों चमकती हुई तलवार रूपी दीपों से नष्ट कर युद्ध मण्डप में कलचुरि वंश की राजकन्या का पाणिग्रहण किया। १३ – पुनः उसने रेवती द्वीप ( गोवा ) को विजित करने की इच्छा से अनेक ध्वजाओं से युक्त सेना के द्वारा घेर लिया। उसकी विशाल सेना का प्रतिबिम्ब समुद्र में पड़ता हुआ प्रतीत होता था। मानो वरुण उसकी ( मंगलेश ) आज्ञा पाकर अपनी सेना लेकर आ गया हो। १४ – उसके अनुज ( कीर्तिवर्मा ) का पुत्र पुलकेशी ( द्वितीय ) था, जो नहुष के समान प्रभावशाली था और लक्ष्मी प्रियपात्र था। पितृव्य मंगलेश की अपने प्रति ईर्ष्या को जानकर उसने अपनी व्यावसायिक बुद्धि को नहीं रोका। १५ – उसने अपनी सम्पूर्ण मंत्र शक्ति और उत्साह शक्ति के प्रयोग से मंगलेश के सम्पूर्ण बल को नष्ट कर दिया। मंगलेश को अपने पुत्रों राज्य