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चन्द्रगुप्त द्वितीय का उदयगिरि गुहालेख ( द्वितीय )

परिचय उदयगिरि गुहालेख ( द्वितीय ) विदिशा के उदयगिरि पहाड़ी से मिला है। यह अभिलेख गुहा के छत पर अंकित है। गुहा के छत का ऊपरी भाग तवा के आकार का है; इस कारण यह गुहा ‘तवा-गुहा‘ के नाम से पुकारी जाती। है। इस गुहा के पिछली दीवाल पर प्रवेश-द्वार से थोड़ा बायें यह अभिलेख अंकित है। चट्टान के चिप्पड़ उखड़ जाने के कारण लेख काफी क्षतिग्रस्त हो गया है। इसे एलेक्जेंडर कनिंघम ने ढूंढ निकाला और १८८० ई० में इसका पाठ प्रकाशित किया था। १८८२ ई० में हुल्श ने उनके पाठ के कुछ त्रुटियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया था। फ्लीट ने इसे सम्पादित कर प्रकाशित किया। तदनन्तर ब्हुहलर ने उनके पाठ में कुछ संशोधन प्रस्तुत किये। संक्षिप्त परिचय नाम :- चन्द्रगुप्त द्वितीय का उदयगिरि गुहालेख ( द्वितीय ) [ Udaigiri Cave Inscription ( second ) of Chandragupta – II ] स्थान :- उदयगिरि की तवा गुहा, विदिशा जनपद, मध्य प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल विषय :- चन्द्रगुप्त द्वितीय का अपने संधि-विग्राहक सचिव वीरसेन शैव के साथ उदयगिरि में आगमन। वीरसेन द्वारा यहाँ एक शैव गुहा के निर्माण का विवरण। मूलपाठ १. सिद्धम् [ ॥ ] यदं तज्जर्योतिरर्क्काममुर्व्या [ भाति निरन्तरम्१ ] [ । ] [ दिवा-विभावरी ]-२ व्यापि चन्द्रगुप्ताख्यमद्भुतम् [ ॥ ]१ २. विक्रमावक्रयकीता दास्य-न्यग्भूत पार्थिवा [ । ] [ यस्य शास ]नु३ – संरक्ता-धर्म्म [ ज्ञस्य वसुन्धरा ]४ [ ॥ ]२ ३. तस्य राजाधिराजर्षेरचि [ न्त्यो ] [ ज्ज्वल५ -क ] [ र्म्म ] णः [ । ] अन्वय-प्राप्त-सा-चिव्यो व्या [ पृत६ – सान्धि – वि ] ग्रहेः [ ॥ ]३ ४. कौत्सश्शवाब इति ख्यातो वीरसेनः कुलाख्यया [ । ] शब्दार्त्थ-न्याय-लोकज्ञः कवि पाटलिपुत्रकः [ ॥ ]४ ५. कृत्स्न-पृथ्वी-जयार्त्येन राज्ञैवेह सहागतः [ । ]  भक्त्या भवतश्शम्भोगुहामेतामकारयत् [ ॥ ]५ भण्डारकर ने [ असुलभम् न्टषु ] पाठ का अनुमान प्रस्तुत किया है।१ भण्डारकर ने [ तत्सुधि हृदयम् ] पाठ का अनुमान प्रस्तुत किया है।२ भण्डारकर ने [ पृथ्वीयेमनु ] पाठ का अनुमान प्रस्तुत किया है।३ भण्डारकर ने [ सन्नय-पालिता ] पाठ का अनुमान प्रस्तुत किया है।४ भण्डारकर ने [ दार ] पाठ का अनुमान प्रस्तुत किया है।५ भण्डारकर ने [ सृष्टस् ] पाठ का अनुमान प्रस्तुत किया है।६ हिन्दी अनुवाद सिद्धि प्राप्त हो। जो अपनी अन्तर्ज्योति से, जो सूर्य की भाँति तेजस्वी है, जिसका [ यश ] रात दिन भू-मण्डल में व्याप्त हो रहा है; जो अद्भुत है और उसका नाम चन्द्रगुप्त है; जिसने अपना विक्रम-रूपी क्रय मूल्य देकर अन्य ( सभी ) राजाओं को खरीद लिया है तथा अपनी दासता ( अधीनता ) स्वीकार करने के लिए बाध्य किया है; जिसके शासन के संरक्षण में वसुन्धरा धर्म से परिपूरित है; उस अचिन्त्य शुभकर्मों वाले राजाधिराज राजर्षि का वंशानुगत रूप से सचिव पद प्राप्त करने वाला सान्धि-विग्रहिक कौत्स-गोत्रीय [ ब्राह्मण ] शाब है; उसका कुल नाम वीरसेन है; वह पाटलिपुत्र (नगर) का निवासी, कवि, व्याकरण, दर्शन एवं राजनीति आदि विषयों का मर्मज्ञ है। समस्त पृथ्वी के जय की अभिलाषा से राजा ( चन्द्रगुप्त ) के साथ वह ( शाब ) यहाँ ( उदयगिरि ) आया। [ और उसने ] भगवान शंकर ( शम्भु ) की भक्तिवश इस गुहा का निर्माण कराया। टिप्पणी उदयगिरि गुहालेख ( प्रथम ) की ही तरह उदयगिरि गुहालेख ( द्वितीय  ) भी चन्द्रगुप्त के एक अधिकारी द्वारा गुहा निर्माण कराने की विज्ञप्ति है। यह अभिलेख तिथि-विहीन है। इस अभिलेख से केवल इतनी सी बात ज्ञात होती है कि चन्द्रगुप्त किसी समय मालव प्रदेश में आये थे। उसका आगमन एक सैनिक अभियान था, ऐसा इस लेख से ध्वनित होता है। इस अभिलेख से हमें ज्ञात होता है कि गुप्त सम्राट धर्म सहिष्णु थे जोकि भारतीय संस्कृति की स्थायी विशेषता है। स्वयं वैष्णव होते हुए भी उनका मंत्री शैव मतावलंबी था। चन्द्रगुप्त द्वितीय का उदयगिरि गुहा अभिलेख ( प्रथम )

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चन्द्रगुप्त द्वितीय का उदयगिरि गुहा अभिलेख ( प्रथम )

परिचय उदयगिरि गुहा अभिलेख (प्रथम) मध्य प्रदेश राज्य के विदिशा जनपद में स्थित है। यह अभिलेख गुप्त सम्वत् वर्ष ८२ या ४०१ ई० का है। उदयगिरि विदिशा (मध्य प्रदेश) के उत्तर-पश्चिम कुछ ही दूर स्थित एक पहाड़ी है। उसके निकट ही एक गाँव है, जो इस पहाड़ी के कारण उदयगिरि कहा जाता है। इस उदयगिरि पहाड़ी के पूर्वी भाग में, गाँव के कुछ दक्षिण, धरातल पर ही एक गुहा-मन्दिर है। इस गुहा-मन्दिर में दो मूर्ति फलक हैं। एक में दो पत्नियों सहित भगवान विष्णु का और दूसरे में द्वादश-भुजी देवी का अंकन है। इन मूर्ति-फलकों के ऊपर लगभग २ फुट ४ इंच चौड़ा और १.५ फुट ऊँचा एक गहरा चिकना फलक है जिस पर यह लेख अंकित है। इस लेख को सर्वप्रथम एलेक्जेंडर कनिंघम ने १८५४ ई० में प्रकाशित किया था। १८५८ ई० में एडवर्ड थामस ने एच० एच० विलसन के अनुवाद के साथ अपना एक स्वतन्त्र पाठ प्रस्तुत किया था। तदनन्तर १८८० ई० कनिंघम ने इसे दुबारा संशोधित रूप में प्रकाशित किया। इसके पश्चात् फ्लीट ने इसको सम्पादित कर प्रकाशित किया। संक्षिप्त जानकारी नाम :- चन्द्रगुप्त द्वितीय का उदयगिरि गुहाभिलेख (प्रथम) [ Udaigiri Cave Inscription of Chandragupta II ]। स्थान :- उदयगिरि, विदिशा जनपद; मध्य प्रदेश। भाषा :- संस्कृत। लिपि :- ब्राह्मी। समय :- गुप्त सम्वत् – ८२ या ४०१ ई० ( ८२ + ३१९ ), चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल। विषय :- चन्द्रगुप्त द्वितीय के सामन्त सनकानिक महाराज द्वारा गुहादान। मूलपाठ १. सिद्धम्॥ संवत्सरे ८० (+) २ आषाढ़-मास-शुक्लेकादश्यां [ द ] परमभट्टारक महाराजाधि [ राज ] – श्री चन्द्र [ गु ] प्त-पादानुद्धयातस्य २. महाराज-छगलग-पौत्रस्य महाराज-विष्णुदास-पुत्रस्य सनकानिकस्य महा [ राज ] [ सोढ़ ] – लस्यायं देय-धर्म्मः। अनुवाद सिद्धि हो। संवत्सर ( वर्ष ) ८२ के आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को परमभट्टारक महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के चरणों का चिन्तन करने वाले ( पादानुध्यात ) महाराज छगलग के पौत्र, महाराज विष्णुदास के पुत्र, सनकानिक महाराज [ सोढल ] का [ यह ] धर्म-दान [ है ]। ऐतिहासिक महत्त्व उदयगिरि गुहा अभिलेख ( प्रथम ) का कई दृष्टियों से महत्त्व है; जैसे – इसमें गुप्त सम्वत् का उल्लेख मिलता है, सनकानिक महाराज के उल्लेख है जोकि हमें समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति में भी मिलता है। सामान्य रूप में यह गुहा-निर्माण अथवा लेख के नीचे उत्कीर्ण मूर्ति फलकों के धर्म-दान के रूप में निर्माण कराये जाने की घोषणा है। यह धर्म-दान चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के एक सामन्त द्वारा दिया गया था। उसका नाम अभिलेख में स्पष्ट नहीं है; उपलब्ध संकेतों के आधार पर सोढल नाम की सम्भावना दिनेशचन्द्र सरकार ने प्रकट की है। भण्डारकर ने चार अक्षरों का नाम होने की सम्भावना व्यक्त किया है। उसने अपने को सनकानिक कुल (अथवा जाति) का बताया है। सनकानिक का उल्लेख समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति की २२वीं पंक्ति* में सीमावर्ती जन-जाति के रूप में हुआ है। प्रस्तुत अभिलेख के आधार पर अनेक विद्वानों की धारणा है कि सनकानिक लोग विदिशा के प्रदेश में रहते थे। किन्तु इस प्रकार की कल्पना इस कारण स्वयं असिद्ध है कि उन्हीं दिनों उसी प्रदेश में गणपति नाग का शासन था। समतट-डवाक-कामरूप-नेपाल-कर्तृपुरादि-प्रत्यन्त-नृपतिभिर्म्मालवार्जुनायन-यौधेय-माद्रकाभीर-प्रार्जुन-सनकानीक-काक-खरपरिकादिभिश्च-सर्व्व-कर-दानाज्ञाकरण-प्रणामागमन-* ( समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति – २२वीं पंक्ति )। चन्द्रगुप्त (द्वितीय) की पुत्री प्रभावती गुप्ता के संरक्षण काल में वाकाटक राज्य की व्यवस्था के लिये जो सैनिक और प्रशासनिक अधिकारी पाटलिपुत्र से भेजे गये थे, उन्हीं में महाराज [ सोढल ] भी रहे होंगे। चन्द्रगुप्त द्वितीय का मथुरा स्तम्भलेख ( Mathura Pillar Inscription of Chandragupta II )

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चन्द्रगुप्त द्वितीय का मथुरा स्तम्भलेख ( Mathura Pillar Inscription of Chandragupta II )

भूमिका चन्द्रगुप्त द्वितीय का मथुरा स्तम्भलेख एक प्रस्तर-स्तम्भ पर अंकित है। यह मथुरा नगर स्थित रंगेश्वर महादेव के मन्दिर के निकट चन्दुल-मन्दुल की बगीचे के एक कुएँ में लगा हुआ था। यह अभिलेख अब मथुरा संग्रहालय में संरक्षित है। लेख स्तम्भ के पाँच पहलों पर अंकित है; तीसरे पहल वाला अंश क्षतिग्रस्त है। इसे सर्वप्रथम द० ब० दिस्कलकर ने प्रकाशित किया था। उसके बाद द० रा० भण्डारकर ने उसका सम्पादन किया। भण्डारकर के पाठ में दिनेशचन्द्र सरकार ने कुछ संशोधित किया है। संक्षिप्त परिचय नाम :- चन्द्रगुप्त द्वितीय का मथुरा स्तम्भलेख ( Mathura Pillar Inscription of Chandragupta II )। स्थान :- चन्दुल-मण्डुल या चण्डू-भण्डू की वाटिका, मथुरा; उत्तर प्रदेश। भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- ३८० ई० या ६१ गुप्त सम्वत्। चन्द्रगुप्त द्वितीय का पंचम राज्यवर्ष। विषय :- शिवलिंग और शैव आचार्यों से सम्बन्धित मथुरा स्तम्भलेख : मूलपाठ १. सिद्धम् [ । ] भट्टारक-महाराज- [ राजाधि ] राज श्री समुद्रगुप्त-स- २. [ त्पु ] त्रस्य भट्टारक-म [ हाराज ]- [ राजाधि ] राज-श्री चन्द्रगुप्त- ३. स्य विजय-राज्य संवत्स [ रे ] [ पं ] चमे [ ५ ] कालानुवर्त्तमान-सं०- ४. वत्सरे एकषष्ठे ६० (+) १ [ आषाढ़ मासे प्र ] थमे शुक्ल दिवसे पं- ५. चम्यां [ । ] अस्यां पूर्व्वा [ यां ] [ भ ] गव [ त्कु ] शिकाद्दशमेन भगव- ६. त्पराशराच्चतुर्थेन [ भगवत्क ] पि [ ल ] विमल शि- ७. ष्य-शिष्येण भगव [ दुपमित ] विमल शिष्येण ८. आर्य्योदि [ त्ता ]चार्य्ये [ ण ] [ स्व ] – पु [ ण्या ] प्यायन-निमितं ९. गुरुणां च कीर्त्य [ र्थमुपमितेश्व ] र-कपिलेश्वरौ १०. गुर्व्वायतने गुरु [ प्रतिमायुत्तौ ] प्रतिष्ठापितो [ । ] नै- ११. तत्ख्यात्यर्थमभिलि [ ख्यते ] [ । ] [ अथ ] माहेश्वराणां वि- १२. ज्ञप्तिः क्रियते सम्बोधनं च [ । ] यथाका [ ले ] नाचार्य्या- १३. णां परिग्रहमिति मत्वा विशङ्कं [ पू ] जा-पुर- १४. स्कारं परिग्रह-पारिपाल्यं कुर्य्यादिति विज्ञप्तिरिति [ । ] १५. यश्च कीर्त्यभिद्रोहं कुर्य्याद्यश्चाभिलिखितमुपर्य्यधो १६. वा स पंचभिर्महापातकैरुपपातकैश्च संयुक्तस्स्यात् [ । ] १७. जयति च भगवा [ णदण्डः ] रुद्रदण्डो (ऽ) ग्र [ ना ] यको नित्यं [ ॥ ] हिन्दी अनुवाद सिद्धि हो। भट्टारक महाराजाधिराज समुद्रगुप्त के सत्पुत्र भट्टारक महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के विजय-राज्य के वर्ष पाँच, कालक्रम में वर्तमान संवत् ६१ के प्रथम [ आषाढ़ ] के शुक्ल पक्ष की पंचमी का दिन। इस पूर्व [ कथित दिन को ] भगवत् कुशिक के [क्रम में] दसवें, भगवत् पराशर के [ क्रम में ] चौथे, भगवत् कपिलविमल के शिष्य के शिष्य, भगवत् उपमित के शिष्य आर्य उदिताचार्य ने अपने पुण्य एवं गुरु की कीर्ति के निमित्त गुर्व्वायतन ( गुरु के निवास-स्थान ) में अपने गुरु के नाम से उपमितेश्वर एवं कपिलेश्वर [ दो प्रतिमा अथवा लिंग ] का प्रतिष्ठापन किया। [ इस लेख को मैं ] अपनी ख्याति के लिये नहीं लिखा रहा हूँ [ वरन् ] माहेश्वरों ( शिव के उपासकों ) को सम्बोधित कर [ बताने के लिये ] विज्ञापित कर रहा हूँ। समय समय पर जो भी आचार्य हों, वे शंका रहित होकर इनकी पूजा, पुरस्कार ( भोग-प्रसाद ) और परिग्रह ( सेवा ) करें। वे इस [ आदेश ] का परिपालन करें इस लिये यह विज्ञप्ति है। जो इस कीर्ति के प्रति द्रोह करेगा अथवा इस विज्ञप्ति [ के आदेश ] को ऊपर-नीचे करेगा ( उलट-फेर करेगा ) ( अर्थात् विपरीत आचरण करेगा ) उसे पंच महापातक और उप-पातक लगेंगे। अग्रनायक भगवान् दण्ड रूद्रण्ड ( शिव ) की सदा जय हो। ऐतिहासिक महत्त्व चन्द्रगुप्त के शासनकाल के मथुरा स्तम्भलेख का कई दृष्टियों से ऐतिहासिक महत्त्व है; यथा – पाशुपत सम्प्रदाय की जानकारी मिलती है। पाशुपत सम्प्रदाय के आचार्य परम्परा की जानकारी मिलती है। इस अभिलेख में दोहरे सम्वत् का उल्लेख मिलता है जिससे गुप्त सम्वत् के निर्धारण में सहायता मिली है। चन्द्रगुप्त द्वितीय के लिये ‘महाराज राजाधिराज’ विरुद का प्रयोग मिलता है। पाशुपत सम्प्रदाय का विवरण यह लेख मूलतः आचार्य उदित द्वारा उपमितेश्वर और कपिलेश्वर नाम से शिव-लिंग ( अथवा प्रतिमा ) की स्थापना की उद्घोषणा है। आचार्य उदित ने अपने को भगवत् कुशिक की शिष्य परम्परा में बताया है और कहा है कि वे उनकी परम्परा के क्रम में दसवें हैं। पाशुपत मत के संस्थापक लकुलीन ( लकुलीश ) महेश्वर ( शिव ) के अन्तिम अवतार कहे जाते हैं। वे कायावरोहण या कायावतार ( पूर्ववर्ती बड़ौदा रियासत के डभोई ताल्लुका में स्थित आधुनिक कारवान ) में हुए थे। कहा जाता है उनके चार शिष्य हुए। वायु और लिंग पुराणों के अनुसार इन शिष्यों के नाम हैं — कुशिक, गर्ग, मित्र और कौरुष्य। चालुक्य शासक शारंगदेव-कालीन सोमनाथ ( काठियावाड़ ) से मिले एक अभिलेख में उनका उल्लेख कुशिक, गार्ग्य, कौरुष्य और मैत्रेय के नाम से किया गया है। इन चारों शिष्यों ने पशुपत मत के अन्तर्गत अपने अपने सम्प्रदाय स्थापित किये। सोमनाथ अभिलेख के अनुसार गार्ग्य के अपने सम्प्रदाय का केन्द्र काठियावाड़ में सोमनाथ को बनाया था। सम्भवतः उसी प्रकार कुशिक के शिष्य मथुरा आ बसे थे। उन्हीं कुशिक की शिष्य परम्परा की चर्चा इस अभिलेख में है। पाशुपत सम्प्रदाय में दिवंगत साधुओं को भगवत् और जीवित साधुओं को आचार्य कहते हैं। इस परम्परा के अनुसार उदित ने अपना आचार्य के रूप में तथा अपने पूर्ववर्तियों को भगवत् कह कर परिचय दिया है। उन्होंने अपने को कुशिक की शिष्य परम्परा में दसवां बताते हुए पूरी सूची न देकर अपने से पूर्ववर्ती केवल तीन भगवतों का उल्लेख किया है। इसके अनुसार पराशर के शिष्य कपिलविमल हुए, कपिलविमल के शिष्य उपमितविमल थे और उपमितविमल के शिष्य उदित थे। इन उदिताचार्य ने गुर्व्वायतन में अपने गुरु उपमित और गुरु के गुरु कपिल की स्मृति में उनके नाम से दो शिव लिंगों की स्थापना की। गुर्व्वायतन का सीधा-साधा अर्थ गुरु-गृह होगा किन्तु यहाँ तात्पर्य दिवंगत शासकों की स्मृति में स्थापित कुषाण-कालीन प्रथा—परम्परा में स्थापित देवकुल की तरह ही दिवंगत पाशुपत-आचार्यो ( भगवत् ) की स्मृति के निमित्त शिवलिंगों की स्थापना के निमित्त बने भवन ( आयतन ) से जान पड़ता है। वह कदाचित् भास द्वारा प्रतिमा नाटक में उल्लिखित प्रतिमा-गृह की तरह ही रहा होगा और उसमें गुरुओं की स्मृति में उनके नाम से लिंग प्रतिष्ठापित किये जाते रहे होंगे। और उन लिंगों पर गुरुओं की प्रतिभा अंकित कर उनमें भेद प्रस्तुत किया जाता रहा

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विदिशा जैनमूर्ति लेख

परिचय १६६९ ई० में विदिशा (मध्य प्रदेश) नगर से दो मील दूर बेस नदी के तटवर्ती दुर्जनपुर ग्राम के एक टीले की बुलडोजर से खुदाई करते समय जैन तीर्थकरों की तीन मूर्तियाँ प्राप्त हुई थीं, जो खुदाई करते समय क्षतिग्रस्त हो गयीं। विदिशा जैनमूर्ति लेख इस समय विदिशा संग्रहालय में संरक्षित हैं। इनमें एक आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ स्वामी की, दूसरी नवें तीर्थंकर पुष्पदन्त स्वामी की और तीसरी छठवें तीर्थंकर पद्मप्रभ स्वामी की मूर्ति है। इनमें से प्रत्येक की चौकी पर यह लेख अंकित है। पद्मप्रभ की प्रतिमा का अधिकांश लेख नष्ट हो गया है। पुष्पदन्त की मूर्ति पर केवल आधा लेख है। केवल चन्द्रप्रभ की प्रतिमा पर ही सम्पूर्ण लेख उपलब्ध है। इन मूर्ति लेखों को जी० एस० गाई ( G. S. Gai ) और रत्नचन्द्र अग्रवाल  ने एक साथ ही किन्तु स्वतन्त्र रूप में प्रकाशित किया था। संक्षिप्त परिचय नाम :- विदिशा जैनमूर्ति लेख, दुर्जनपुर जैनमूर्ति लेख स्थान :- दुर्जनपुर ग्राम, विदिशा जनपद, मध्य प्रदेश भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- गुप्तकाल विषय :- जैन धर्म से सम्बन्धित महत्त्व :- विदिशा जैनमूर्ति लेख रामगुप्त की ऐतिहासिकता का साक्ष्य है। मूलपाठ ( १ ) १. भगवतोऽर्हतः। चन्द्रप्रभस्य प्रतिमेयं कारिता म- २. हाराजाधिराज श्रीरामगुप्तेन उपदेशात् पाणिपा [ – ] ३. त्रिक चन्द्रक्षमाचार्य क्षमण-श्रमण-प्रशिष्याचा- ४. र्य्यसर्प्यसेन-क्षमण शिष्यस्य गोलक्यान्त्यासत्पुत्रस्य चेलू क्षमणस्येति [ । ] ( २ ) १. भगवतोऽर्हतः। पुष्पदन्तस्य प्रतिमेयं कारिता म- २. हाराजाधिराज श्रीरामगुप्तेन उपदेशात् पाणिपात्रिक ३. चन्द्रश्रम[णा]र्य [क्षमणा] श्रमण प्रशि[ष्य ] …. ४. [ …………………………………………………………………. ] ( ३ ) १. भगवतोऽर्हतः [पद्मप्रभ]स्य प्रतिमेयं कारिता महाराजाधिरा[ज] २. श्री [रामगुप्ते]न उ [पदेशात पा]णि[पात्रि][-] ३. [ …………………………………………………………………. ] ४. [ …………………………………………………………………. ] हिन्दी अनुवाद ( १ ) भगवान् अर्हत्। पाणि-पात्रिक चन्द्रमणाचार्य क्षमण-श्रमण के प्रशिष्य आचार्य सर्प्पसेन श्रमण के शिष्य गोलक्यान्त के पुत्र चेल श्रमण के उपदेश से महाराजाधिराज श्री रामगुप्त ने चन्द्रप्रभ की इस प्रतिभा [ की प्रतिष्ठा ] करायी। ( २ ) भगवान् अर्हत्। पाणि-पात्रिक चन्द्रक्षमाचार्य क्षमण-श्रमण के शिष्य .….. के उपदेश से महाराजाधिराज श्री रामगुप्त ने पुष्पदन्त की इस प्रतिमा [ की स्थापना ] करायी। ( ३ ) भगवान् अर्हत्। पाणि-पात्रिक ……. के उपदेश महाराजाधिराज ……. ने [ पद्मप्रभ ] की प्रतिमा [ की स्थापना ] करायी। टिप्पणी ये तीनों अभिलेख जैन तीर्थकरों की प्रतिमाओं की स्थापना के सामान्य उद्घोष हैं। अभिलेखों की लिपि गुप्तकालीन है, जो चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के उदयगिरि और साँची अभिलेखों के समान ही है। इससे इन प्रतिमाओं का समय चौथी शताब्दी ई० सहज आँका जा सकता है। मूर्तियों की कला शैली में कुषाण कालीन तथा पाँचवीं शती ई० की गुप्तकालीन कला के बीच के लक्षण परिलक्षित होते हैं। मथुरा आदि से प्राप्त कुषाण कालीन बौद्ध और जैन मूर्तियों की चरणपीठिका पर जिस ढंग से सिंह का अंकन पाया जाता है, वैसा ही अंकन इन मूर्तियों में भी हुआ है। प्रतिमाओं के अंगविन्यास तथा सिर के पीछे के प्रभामण्डल में कुषाण-गुप्त सन्धिकालिक लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार ये मूर्तियाँ निसन्देह आरम्भिक गुप्तकाल की है। इनका ऐतिहासिक महत्त्व इस बात में है कि इन्हें महाराजाधिराज रामगुप्त ने प्रतिष्ठित काराया था। समसामयिक अभिलेखों के अनुसार समुद्रगुप्त के उपरान्त उनके पुत्र चन्द्रगुप्त (द्वितीय) शासक समझे जाते हैं। परन्तु विशाखदत्त कृत देवीचंद्रगुप्तम् नामक संस्कृत नाटक के कुछ अवतरण प्रकाश में आने पर यह ज्ञात हुआ कि चन्द्रगुप्त (द्वितीय) अपने पिता के तत्कालिक उत्तराधिकारी नहीं थे। उनसे पहले कुछ काल के लिये उनके बड़े भाई रामगुप्त ने शासन किया था। परन्तु अनेक विद्वान इसे काल्पनिक कहानी मान कर इस नाटक की इतिहास के प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। रामगुप्त की ऐतिहासिकता के साधन साहित्यिक साधन विशाखदत्त कृत देवीचन्द्रगुप्तम् बाणभट्ट कृत हर्षचरित राजशेखर की काव्यमीमांसा भोज कृत शृंगारप्रकाश शंकरार्य कृत हर्षचरित की टीका अबुल हसन अली कृत मुजमल-उत-तवारीख अभिलेखीय साधन संजन का लेख काम्बे का लेख संगली का लेख मुद्रा साधन भिलसा और एरण से प्राप्त ताम्र मुद्राएँ जब विदिशा-एरण प्रदेश से रामगुप्त के नाम के ताँबे के सिक्के प्रकाश में आये तब लोगों ने रामगुप्त की ऐतिहासिकता तो स्वीकार की परन्तु वे उसे गुप्तवंशीय सम्राट न मानकर मालय प्रदेश का स्थानीय शासक ही बताते रहे हैं। जैन-मूर्ति पर अंकित इन अभिलेखों के प्रकाश में आने पर यह तथ्य सामने आया कि रामगुप्त ने महाराजाविराज की उपाधि धारण की थी। यह उपाधि सर्वप्रथम गुप्त वंशीय सम्राटों ने ही धारणा किया था। इस परिप्रेक्ष्य में रामगुप्त के गुप्त वंशीय सम्राट होने में सन्देह नहीं रह जाता। इससे ध्रुवस्वामिनी के कथानक की ऐतिहासिकता भी सिद्ध होती है। गुप्त सम्राटों के वैष्णव होने के कारण रामगुप्त द्वारा जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों की प्रतिष्ठा कोई असाधारण सी बात नहीं है। क्योकि गुप्त सम्राट धार्म सहिष्णु थे। जैनधर्म की स्थापन से विद्वानों ने दो अर्थ निकाले हैं : एक; रामगुप्त अन्य गुप्त शासकों के विपरीत जैन मत में आस्था रखते थे। दो; रामगुप्त वैष्णव ही थे परन्तु धर्म सहिष्णु नीति के कारण जैन मूर्तियाँ स्थापित करायी होंगी। जो भी हो रामगुप्त द्वारा जैन-मूर्तियों की स्थापना का केवल इतना ही अर्थ लेना उचित होगा कि शासक के रूप में उसकी दृष्टि में सभी धर्म समान थे और उसने जैन-श्रमण के अनुरोध को मान कर इन मूर्तियों की स्थापना की व्यवस्था कर दी होगी। इस अभिलेख में चन्द्रक्षमाचार्य को पाणि-पात्रिक कहा गया है जो उल्लेखनीय है। पाणि-पात्रिक ऐसे साधु-सन्यासियों को कहते हैं जो भोजन किसी पात्र में रख कर नहीं करते; वरन पात्र के रूप में हाथ की अँजलियों का ही प्रयोग करते हैं। समुद्रगुप्त का नालन्दा ताम्रलेख समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति समुद्रगुप्त का एरण प्रशस्ति

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समुद्रगुप्त का एरण प्रशस्ति

भूमिका ९ इंच चौड़े और ३ फुट १ इंच आड़े (खड़े) लाल बलुआ पत्थर ( red-sandstone  ) के फलक पर समुद्रगुप्त का ‘एरण प्रशस्ति’ अंकित है। १८७४ और १८७७ ई० के बीच किसी समय यह फलक एलेक्जेंडर कनिंघम को मिला था। कनिंघम महोदय को यह अभिलेख बीना नदी के बायें तट पर स्थित एरण ( एरकिण ) नामक स्थान पर वराह मन्दिर के ध्वंसावशेषों के निकट प्राप्त हुआ था। ऐतिहासिक एरण ( एरकिण ) मध्य प्रदेश के सागर जनपद में स्थित है। सम्प्रति यह आजकल ‘भारतीय संग्रहालय, कोलकाता’ में सुरक्षित रखा गया है। समुद्रगुप्त के एरण प्रशस्ति-लेख में कुल २८ पंक्तियाँ हैं। इस प्रशस्ति की आरम्भ की ६ पंक्तियाँ तथा पंक्ति संख्या २८ का समूचा अंश अनुपलब्ध है। पंक्ति संख्या २५, २६ और २७ के कुछ शब्दांश ही प्राप्त होते हैं। अन्य जो पंक्तियाँ उपलब्ध हैं वे भी क्षतिग्रस्त हैं। अधिकांश पंक्तियों के आरम्भ के कुछ अक्षर तथा पंक्ति २५-२७ का काफी भाग नष्ट हो गया है। उपलब्ध अंशों से यह अनुमान किया गया है कि इस प्रशस्ति की रचना ‘बसन्त-तिलक छन्द’ में की गयी थी और आरम्भ की २४ पंक्तियों तक प्रत्येक पंक्ति में श्लोक का केवल एक पाद और पंक्ति २५ तथा उसके बाद की पंक्तियों में प्रत्येक श्लोक के दोनों पाद अंकित किये गये थे। प्रत्येक श्लोक के अन्त में दी गयी संख्या से यह भी ज्ञात होता है कि आरम्भ के केवल डेढ़ श्लोक अनुपलब्ध हैं। अन्त का कितना भाग अनुपलब्ध है यह अनुमान नहीं किया जा सका है। इन अभिलेख के सम्बन्ध में सर्वप्रथम १८८० ई० में कनिंघम ने जानकारी दी। तत्पश्चात् फ्लीट ने इसे सम्पादित कर अपने गुप्तकालीन अभिलेखों के संग्रह में लेख २ के रूप में प्रकाशित किया। उन्होंने स्वसम्पादित पाठ में पंक्ति १४, १८, २०, २१ तथा २४ के आरम्भ के अनुपलब्ध अंश के सम्बन्ध में अनुमान करने का प्रयास किया। उनका यह सम्पादित पाठ ही मुख्यतः लोगों के ध्यान में रहा है। परन्तु समय-समय पर अनेक विद्वानों ने इस अभिलेख के पाठ पर विचार किया है और अपनी-अपनी धारणा के अनुसार लुप्त अथवा त्रुटिपूर्णअंशों की पूर्ति करने का प्रयास किया है। फ्लीट के पश्चात् इसकी ओर ध्यान सर्वप्रथम डी० आर० भण्डारकर ने दिया। उन्होंने इसका पाठ अपने ढंग से प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने पंक्ति ८ से २४ तक अनुपलब्ध आरम्भिक शब्दों की पूर्ति तो की ही साथ ही पंक्ति ७, २५ और २६ के पूर्वाशों के सम्बन्ध में भी अपनी कल्पना प्रस्तुत की। किन्तु उन्होंने अपना यह पाठ स्वयं प्रकाशित नहीं किया। इस पाठ को श्रीधर वासुदेव सोहोनी ने बहादुरचन्द छाबड़ा से प्राप्त करके अपने सुझावों के साथ प्रकाशित किया है। डी० आर० भण्डारकर के अतिरिक्त काशी प्रसाद जायसवाल, दिनेशचन्द्र सरकार, बी० बी० मीराशी, जगनाथ अग्रवाल, साधुराम आदि अनेक विद्वानों ने भी इस अभिलेख के अभिप्राय के सम्बन्ध में अपनी-अपनी धारणा प्रस्तुत करते हुए पंक्ति ८ से २४ के त्रुटिपूर्ण आदि-भाग की पूर्ति के प्रयास किये हैं। संक्षिप्त परिचय नाम :- समुद्रगुप्त का एरण प्रशस्ति ( Eran Prashasti of Samudragupta ), समुद्रगुप्त का एरण शिलालेख ( Eran Stone Inscription of Samudragupta ) स्थान :- एरण या एरकिण, सागर जनपद, मध्य प्रदेश। भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- समुद्रगुप्त का शासनकाल ( ३५० — ३७५ ई० ) विषय :- समुद्रगुप्त की प्रशंसा एरण प्रशस्ति : मूलपाठ १- ……………………………………………………………………। २- ……………………………………………………………………[ । ] ३- ……………………………………………………………………। ४- ……………………………………………………………………[ ॥ २ ] ५- ……………………………………………………………………। ६- ……………………………………………………………………[ । ] ७- [ येनार्थि कल्पविटपेन ] सुवर्ण दाने ८- [ विस्मा ] रिता नृपतयः पृथु-राघवाद्याः ( ॥ २ ) ९- [ भूपो ] बभूव धनदान्तक-तुष्टि-कोपतुल्यः १०- [ पराक्र ]म१ -नयेन समुद्रगुप्तः ( । ) ११- [ यं प्रा ]प्य२ पार्थिव-गणस्सकलः पृथिव्याम् १२- [ उध्व ]स्त३ -राज्य-विभवद्ध्रुतमास्थितो(ऽ)भूत ( ॥ ३ ) १३- [ ताते ]न४ भक्तिनय-विक्रम-तोषितेन १४- [ सौ ]५ राज-शब्द-विभवैरभिषेचनाद्यैः ( । ) १५- [ सम्मा ]नितः परम-तुष्टि पुरस्कृतेन १६- [ सोऽयं ध्रुवो ]६ नृपतिरप्रतिवार्य-वीर्यः ( ॥ ४ ) १७- [ भूव ]स्य७ पौरुष-पराक्रम-दत्त-शुल्का १८- [ हस्त्य ]श्व-रथ-धन-धान्या समृद्धि युक्त ( । ) १९- [ सुचिर ]ङ्८ गृहेषु मुदिता बहु-पुत्र-पौत्र २०- [ च ] क्रामिणी कुलवधुः व्रतिनी निविष्टा९ ( ॥ ५) २१- [ यस्यो ]र्ज्जितं समर-कर्म पराक्रमेद्धं २२- [ पृथ्व्यां ]१० यशः सुविपुलम्परिवभ्रमीति ( । ) २३- [ वीर्या ]णि११ यस्य रिपवश्य रणोर्ज्जितानि २४- [ स्व ]प्नान्तरेष्वपि विचिन्त्य परित्रसन्ति ( ॥ ६ ) २५- …………………………………………………………………………………………१२ [ स्तम्भ ? ]१३ स्वभोगनगरैरिकिंण-प्रदेशे ( । ) २६- …………………………………………………………………………………………१४ [ सं ]स्थापित्तस्स्वयशसः परिब्रिङ्हनार्त्थम् ( ॥ ७ ) २७- ………………………………………………………………………………………… ………..  वो नृपतिराह यदा ………… ( । ) २८- ………………………………………………………………………………………… ………………………………………………………………………………………… ( ॥ ८ ) डी० आर० भण्डारकर ने इसकी पूर्ति सदागम के रूप में की है।१ डी० आर० भण्डारकर ने इसके आज्ञाप्य होने का अनुमान किया है।२ डी० आर० भण्डारकर ने येनस्त और दिनेशचन्द्र सरकार ने पर्यस्त के रूप में पूर्तिकी है।३ डी० आर० भण्डारकर ने पित्रेव के रूप में पूर्ति की है।४ डी० आर० भण्डारकर यो पढ़ते हैं।५ डी० आर० भण्डारकर ने [भू-वास]वो के रूप में पूर्ति की सम्भावना प्रकट की है।६ डी० आर० भण्डारकर श्रीरस्य और दिनेशचन्द्र सरकार दत्तास्य अनुमान करते हैं।७ डी० आर० भण्डारकर नित्यङ्य के रूप में पूर्ति करते हैं।८ डी० आर० भण्डारकर [ स ? ]ङ क्रामिणी होने का अनुभव किया है।९ डी० आर० भण्डारकर ने [ कर्मा ]णि और दिनेशचन्द्र सरकार कार्याणि अनुमान किया है।१० डी० आर० भण्डारकर ने इसके भक्तिं निदर्शयतुमाच्युत-पाठपीठो के रूप में पूर्ति का सुझाव दिया है।११ डी० आर० भण्डारकर ने शुक्रम् अथवा शुक्लम् का सुझाव दिया है।१२ डी० आर० भण्डारकर ने प्राप्तः का अनुमान किया है।१३ डी० आर० भण्डारकर ने देवालयश्च कृतिवान्न जनार्दनस्य के रूप में पूर्ति का सुझाव दिया है।१४ हिन्दी अनुवाद सुवर्ण-दान में [जो कल्प वृक्ष के समान है। ] पृथु राघव आदि राजाओं को भुला दिया गया है। [ ऐसे ] राजा पराक्रम एवं विनय से युक्त तुष्टि में कुबेर और क्रोध में अन्तक ( यमराज ) के समान हैं। उनके द्वारा, पृथिवी के समस्त शासक उध्वस्त एवं राज-वैभव से वंचित किये जा चुके हैं। अपनी भक्ति, विनम्रता, पराक्रम आदि गुणों के कारण ही उनका अभिषेक हुआ और वह राज-वैभव से सम्मानित एवं पुरस्कृत हुए। उसके समान विश्व में दूसरा कोई पराक्रमी नृपति नहीं है। [ जिस ] पृथिवी रूपी पत्नी को उन्होंने अपने पौरुष और पराक्रम रूपी शुल्क से प्राप्त किया है, वह हस्ति, अश्व,

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भारतीय और पाश्चात्य दर्शन में अंतर या तुलना

भूमिका एक जीवंत सभ्यता और संस्कृति का अपना विशिष्ट दर्शन होता है। ‘भारतीय दर्शन’ और ‘पाश्चात्य दर्शन’ का नामकरण भी इसी तथ्य को प्रमाणित करता है कि दोनों दर्शन एक दूसरे से भिन्नता रखते हैं। दर्शन की भाँति विज्ञान के क्षेत्र में हम ऐसा अन्तर नहीं कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में विज्ञान के सम्बन्ध में ‘भारतीय विज्ञान’ और ‘पाश्चात्य विज्ञान’ जैसे नामकरण न तो हम करते हैं और न ही ऐसा करना समीचीन होता है। तो स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि ऐसा क्यों है? इसका उत्तर है कि ‘विज्ञान’ सार्वभौम तथा वस्तुनिष्ठ है। लेकिन ‘दर्शन’ का विषय ही कुछ ऐसा है कि वहाँ विज्ञान जैसी न तो ‘सार्वभौमिकता’ है और न ही ‘वस्तुनिष्ठता।’ और सरल शब्दों में कहें तो दर्शन ‘विशिष्ट’ और ‘आत्मनिष्ठ’ होता है। इसी विशिष्टता और आत्मनिष्ठता के कारण भारतीय दर्शन और पश्चिमी दर्शन एक दूसरे से वैभिन्यता रखते हैं। भारतीय और पाश्चात्य दर्शन में अन्तर भारतीय दर्शन और पश्चिमी दर्शन में तुलना अथवा अन्तर को हम निम्नलिखित प्रकार से बिन्दुवार व्याख्यायित कर सकते हैं : भारतीय दर्शन व्यावहारिक है जबकि पाश्चात्य दर्शन सैद्धान्तिक है। भारतीय दर्शन धार्मिक है जबकि पश्चिमी दर्शन वैज्ञानिक है। भारतीय दर्शन आध्यात्मिक है तो पाश्चात्य दर्शन बौद्धिक है। भारतीय दर्शन संश्लेषणात्मक है जबकि पश्चिमी दर्शन विश्लेषणात्मक है। भारतीय दर्शन पारलौकिक है तो पाश्चात्य दर्शन इह-लौकिक है। भारतीय दर्शन में दुःखवाद और अभावात्मकता पर विस्तृत विचार मिलता है जबकि पाश्चात्य दर्शन में इसका अभाव पाया जाता है। उपर्युक्त बिन्दुओं पर क्रमवार विचार करते हैं — व्यावहारिक बनाम सैद्धान्तिक पश्चिमी दर्शन का प्रारम्भ ‘आश्चर्य और उत्सुकता’ से हुआ है। वहाँ का दार्शनिक जगत्, ईश्वर और आत्मा जैसी गूढ़ जिज्ञासा को शान्त करने के उद्देश्य से इस दिशा में सोचने के लिये प्रेरित हुआ है। यहाँ पर दर्शन को मानसिक व्यायाम कहा गया है। पश्चिम में दर्शन का अनुशीलन किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिये न होकर स्वयं ज्ञान के लिया किया गया। अर्थात् दर्शन किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिये साधन नहीं अपितु स्वयं में ‘साध्य’ है। इस पश्चिमी चिंतन में दर्शन एक सिद्धांत के रूप में है और उसका कोई व्यावहारिक उद्देश्य नहीं है। अतः पाश्चात्य दर्शन सैद्धान्तिक (theoretical) है। दूसरी ओर विपरीत भारतीय दर्शन व्यावहारिक है। भारतवर्ष में दर्शन का आरम्भ आध्यात्मिक असन्तोष से हुआ है। भारतीय मनीषियों ने संसार में विभिन्न प्रकार के दुःखों को पाकर उनके उन्मूलन के लिये दर्शन की शरण ली। प्रो० मैक्समूलर की ये पंक्तियाँ इस कथन की पुष्टि करती हैं- “भारत में दर्शन का अध्ययन मात्र ज्ञान प्राप्त करने के लिये नहीं, वरन् जीवन के चरम उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाता था।”* Six Systems of Indian Philosophy : Max Muller.* भारत में दर्शन का अंतिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति में साहाय्य होना है। इस प्रकार भारत में दर्शन में एक साधन है जो मनुष्य को मोक्षानुभूति की ओर ले जाता है। अतः पश्चिम में दर्शन स्वयं में एक साध्य (end in itself) है जबकि भारत में इसे साधन ( means ) मात्र माना गया है। धार्मिकता और वैज्ञानिकता ‘पाश्चात्य दर्शन’ को वैज्ञानिक (scientific) कहा जाता है, क्योंकि वहाँ के अधिकतर चिंतकों ने ‘वैज्ञानिक पद्धति’ को अपनाया है। पश्चिमी दर्शन में परम सत्ता की व्याख्या के लिये वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया जाता है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है कि पाश्चात्य दर्शन में विज्ञान की प्रधानता रहने के कारण ‘दर्शन और धर्म का सम्बन्ध विरोधात्मक’ माना जाता है। पश्चिम में दर्शन सैद्धान्तिक है परन्तु धर्म इसके विपरीत व्यावहारिक है। इसीलिए पश्चिमी दर्शन में धर्म की उपेक्षा की गयी है। परन्तु जब हम भारतीय दर्शन पर विहंगम दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि उसका दृष्टिकोण धार्मिक है। इसका कारण यह है कि भारतीय दर्शन पर धर्म की अमिट छाप है। दर्शन व धर्म दोनों ही व्यावहारिक है। मोक्ष की अनुभूति दर्शन और धर्म दोनों का परम उद्देश्य है। धर्म से प्रभावित होने के कारण भारतीय दर्शन में आत्मसंयम का महत्त्व है। सत्य के दर्शन के लिये धर्म-सम्मत आचरण अपेक्षित माना गया है। अतः हम कह सकते हैं कि भारतीय दर्शन धार्मिक है जबकि पाश्चात्य दर्शन वैज्ञानिक। भारतीय दर्शन का धर्म से विरोध नहीं सहकार है जबकि पश्चिमी में दर्शन और धर्म का सम्बन्ध विरोधी है। आध्यात्मिकता बनाम बौद्धिकता पाश्चात्य दर्शन ‘बौद्धिक’ है। पश्चिमी दर्शन को बौद्धिक कहने का कारण यह है कि पश्चिम में दार्शनिक चिन्तन को ‘बौद्धिक चिन्तन’ माना गया है। पाश्चात्य दार्शनिकों का विश्वास है कि बुद्धि के द्वारा वास्तविक और सत्य ज्ञान तक पहुँचा जा सकता है। बुद्धि जब भी किसी विषय या वस्तु का ज्ञान प्राप्त करती है तब वह अलग-अलग अंगों या अवयवों का  विश्लेषण करके ज्ञान प्राप्त करती है। बुद्धि द्वारा प्राप्त ज्ञान ‘परोक्ष’ कहलाता है। डेमोक्राइट्स, सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, डेकार्ट, स्पीनोजा, लाइबनीज, बूल्फ, हीगल आदि दार्शनिकों ने बुद्धि को महत्त्व दिया है। परन्तु जब हम भारतीय दर्शन पर विहंगम दृष्टिपात डालते हैं तब उसे ‘अध्यात्मवाद’ के रंग में रंगा हुआ पाते हैं। भारतीय दर्शन में आध्यात्मिक ज्ञान (Intuitive knowledge) को महत्त्व दिया गया है। भारतीय मनीषी सैद्धांतिक विवेचन मात्र से संतुष्ट नहीं होते, वरन् वह सत्य का स्वानुभूति पर बल देते है। आध्यात्मिक ज्ञान तार्किक ज्ञान से उच्च है। इसका कारण है कि तार्किक ज्ञान में ‘ज्ञाता और ज्ञेय’ का द्वैत विद्यमान रहता है जबकि आध्यात्मिक ज्ञान में यह द्वैत मिट जाता है। आध्यात्मिक ज्ञान निश्चित एवं संशयहीन होता है। विश्लेषणात्मक बनाम संश्लेषणात्मक पाश्चात्य दर्शन विश्लेषणात्मक (analytic) है। पश्चिमी दर्शन के विश्लेषणात्मक कहे जाने का कारण यह है कि दर्शन की विभिन्न शाखाओं की व्याख्या प्रत्येक दर्शन में अलग-अलग की गयी है; यथा — तत्त्व-विज्ञान (Metaphysics), नीति-विज्ञान (Ethics), प्रमाण-विज्ञान (Epistemology), ईश्वर-विज्ञान (Theology), सौन्दर्य-विज्ञान (Aes- thetics) इत्यादि। परन्तु भारतीय दर्शन में दूसरी पद्धति अपनाई गई है। यहाँ प्रत्येक दर्शन में प्रमाण-विज्ञान, तर्क- विज्ञान, नीति-विज्ञान, ईश्वर-विज्ञान आदि की समस्याओं पर एक ही साथ विचार किया गया है। श्री बी एक शील ने भारतीय दर्शन के इस दृष्टिकोण को संश्लेषणात्मक दृष्टिकोण (synthetic outlook) कहा है। इहलोक बनाम परलोक पाश्चात्य दर्शन ‘इहलोक’ (This World) की सत्ता में विश्वास करता है जबकि भारतीय दर्शन ‘परलोक’ (Other World) की सत्ता में विश्वास करता है। पश्चिमी दर्शन के अनुसार इस संसार के अतिरिक्त कोई अन्य संसार नहीं है। इसके विपरीत भारतीय विचारधारा में स्वर्ग और नरक की मीमांसा हुई जिसे चार्वाक दर्शन को छोड़कर सभी

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वैदिक देवता

भूमिका ऋग्वैदिक आर्यों का सामाजिक व आर्थिक जन-जीवन जितना सरल था, धार्मिक जीवन उतना ही अधिक विशद और जटिल। यहाँ हमें प्रारम्भ में ‘बहुदेववाद’ के दर्शन होते। यह बहुदेववाद एकेश्वरवाद से होता हुआ एकवाद में प्रतिफलित होता है। इस एकवाद का पूर्ण परिपाक उपनिषदों में मिलता है। आर्यों के प्रधान देवता ‘प्राकृतिक’ शक्तियों के प्रतिनिधि हैं। इन प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण किया गया है। वैदिक देवताओं का वर्गीकरण ऋग्वेद में देवों की बहुलता को देखकर इनके वर्गीकरण का प्रयास किया गया। इस वर्गीकरण के संकेत स्वयं ऋग्वेद में ही प्राप्त होते हैं, जिसके आधार पर वर्गीकरण के प्रयास किये गये हैं। इसमें से दो प्रमुख हैं :- प्रथम, ऋग्वेद के दशम् मण्डल के १५८वें सूक्त के पहले श्लोक में। द्वितीय, ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के १३८वें सूक्त के ग्याहरवें श्लोक में। प्रथम वर्गीकरण ऋग्वेद के एक श्लोक के आधार पर यास्क के निरुक्त में देवताओं का संख्या मात्र तीन बतायी गयी है – पृथ्वी में अग्नि, अन्तरिक्ष में इन्द्र और वायु या आकाश में सूर्य। ये तीनों देवता इन तीन लोकों के स्वामी थे।१ दशम् मण्डल; १५८वाँ सूक्त; प्रथम श्लोक — ऋग्वेद१ सूर्यो न दिवस्पातु वातो अन्तरिक्षात्। अग्निर्नः पार्थिवेभ्यः॥१॥ हिन्दी – सूर्य द्युलोक की बाधाओं से, वायु अंतरिक्ष की बाधाओं से तथा अग्नि पृथ्वी की बाधाओं से हमारी रक्षा करें॥ द्वितीय वर्गीकरण ऋग्वेद में एक अन्य स्थान पर प्रत्येक लोक में ११-११ देवता बताये गये हैं और इनकी संख्या ३३ बतायी गयी है।२ प्रथम मण्डल; १३९वाँ सूक्त; ११वाँ श्लोक — ऋग्वेद२ ये देवासो दिव्येकादश स्थ पृथिव्यामध्येकादश स्थ। अप्सुक्षितो महिनैकादश स्थ ते देवासो यज्ञमिमं जुषध्वम्॥११॥ हिन्दी – स्वर्ग में जो ग्यारह देव हैं, धरती पर जो ग्यारह देव हैं एवं अंतरिक्ष में जो ग्यारह देव हैं, वे अपनी महिमा से इस यज्ञ की सेवा करें॥ वैदिक देवताओं के सिंहावलोकन से यह प्रमाणित होता है कि वैदिक देवताओं को मूलतः तीन वर्गों में विभाजित किया गया है — (१) आकाशस्य देवता (Gods of Sky) : वरुण, मित्र, चन्द्रमा, सूर्य, सविता, पूषण, विष्णु, अदिति, उषा, अश्विन्। (२) अन्तरिक्षस्य देवता ( Gods of mid-air ) : इन्द्र, रुद्र, मरुत्, वायु और वात, मातरिश्वन्, पर्जन्य, आपः। (३) पृथ्वीस्य देवता : सोम, पृथिवी, सरस्वती, बृहस्पति, और अग्नि। यह वर्गीकरण प्राकृतिक आधार पर है अर्थात् वह आधार जिसका देवता प्रतिनिधित्व करते हैं। यह वर्गीकरण व्यावहारिक है और इस पर तुलनात्मक रूप से सबसे कम आपत्ति की जाती है। (तुलनात्मक रूप से कहा जाए)। उपर्युक्त वर्गीकरण देवताओं के निवास स्थान को ध्यान में रखकर किया गया है। यह त्रिविध वर्गीकरण वैदिक विचारधारा में अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। इस वर्गीकरण को मैक्समूलर, ए० बी० कीथ, डॉ० राधाकृष्णन, डॉ० सूर्यकान्त आदि विद्वानों ने मान्यता प्रदान की है। प्रमुख वैदिक देवता ऋग्वेद के देवकुल में पुरुष देवताओं की संख्या अधिक है। जिसमें से वरुण, इंद्र, अग्नि और सोम महत्त्वपूर्ण हैं। इसके साथ ही कुछ देवियों के नाम भी मिलते हैं। इन देवी-देवताओं के बारे में कुछ विस्तार से जान लेना आवश्यक है। इनके विवरण इस तरह है :- वरुण वैदिक देवताओं में सबसे प्रधान देवता ‘वरुण’ हैं। ‘वरुण’ आकाश के देवता हैं। ‘वरुण’ शब्द ‘वर’ धातु से निकला है जिसका अर्थ होता है ढक लेना। आकाश को वरुण कहा जाता है क्योंकि यह समस्त पृथ्वी को आच्छादित किये हुए है। यूनान के ‘आरणौस’ के साथ उसका तादात्म्य किया जाता है। वरुण का सम्बन्ध अवेस्ता के ‘अहुरमज्दा’ के साथ भी बताया जाता है। वरुण के सम्बन्ध में ऋग्वेद में कहा गया है “सूर्य वरुण के चक्षु हैं, आकाश उसके वस्त्र हैं तथा तूफान उसका निःश्वास है।” नदियाँ उसकी आज्ञा से बहती है। सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र वरुण के भय से ही कार्य करते हैं। सूर्य को वरुण का चक्षु कहा गया है तथा मित्र को वरुण का ‘सखा’ कहा गया है। वरुण को ऋग्वेद में परम देव के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। वह परम ईश्वर है। वह देवों के देव हैं। वरुण सर्वज्ञ हैं। वह आकाश में उड़ने वाले पक्षियों का मार्ग जानता है तथा वायु की गति को जानता है। वरुण यह भी जानता है कि समुद्र में जहाज किस दिशा से प्रवाहित होंगे। वह अतीत, वर्तमान तथा भविष्य को जानता है। इस प्रकार जैसा ऊपर कहा गया है वरुण सर्वज्ञानी है। वरुण को रात्रि का देव भी कहा गया है तथा वरुण की तुलना अंधकार से की गई है। वरुण घृतव्रत अर्थात् दृढ़ संकल्प वाला है। वह चंचल मन वाला देव नहीं है। वरुण को शान्तिप्रिय देव के रुप में भी चित्रित किया गया है। वरुण के पास एक रथ है जिस पर वे मित्र के साथ विचरते हैं। वरुण का आवास स्वर्णिम है जिसके हजार द्वार हैं तथा जो स्वर्ग में स्थित है। वरुण को ऋग्वेद में शासक (Ruler) की संज्ञा से अभिहित किया गया है। यहाँ पर यह कहना प्रासंगिक होगा कि ऋग्वेद में ‘शासक’ शब्द का प्रयोग पाँच बार हुआ है जिनमें से चार बार वरुण के सन्दर्भ में ही प्रयुक्त हुआ है तथा एक बार सामान्य देवों के लिये प्रयुक्त हुआ है।३ देखिये B. Keith Religion and Philosophy of the Veda and Upanishads. p. 118.३ वरुण को बहुधा ‘राजा’ अथवा ‘सम्राट’ कहकर भी सम्बोधित किया गया है। वरुण के प्रभाव से ही रात्रि में चन्द्रमा चमकते हैं तथा तारे आकाश मे झिलमिलाते हैं। वरुण रात्रि का नियमन करते हैं। वरुण देवताओं के पथ का निर्देशन करते हैं। देवतागण वरुण के भय के फलस्वरूप ही कार्य करते हैं। वरुण ऋतुओं का नियमन करते हैं। वरुण को सदाचार का देव (God of morality) कहा गया है। वह ऋत् का रक्षक है। ऋत् का अर्थ है जगत की व्यवस्था। ऋत् वह नियम है जो प्राकृतिक और नैतिक जगत् में कार्यान्वित है। ऋत् नियम के द्वारा वैदिक ऋषि विश्व की व्यवस्था तथा नैतिक जगत् की व्यवस्था की व्याख्या कर पाते थे। इस नियम के कारण ही सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, प्रातःकाल, दिन और रात की गति का नियमन होता है। यही ऋत् का नियम उपनिषद्-दर्शन में कर्मवाद (Law of Karma) में रूपान्तरित हो जाता है। वरुण के अन्तर्गत ऋत् नियम है तथा वे इस नियम का संचालन करते हैं। देवतागण भी इस नियम का उल्लंघन नहीं कर सकते हैं। वरुण को नैतिक नियम का संरक्षक कहा गया है। वे मनुष्यों के कर्मों का मूल्यांकन करते हैं। सूर्य वरुण को

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दर्शन क्या है?

भूमिका किसी भी विषय को पढ़ने, समझने, और आत्मसात करने के लिये पहली स्वाभाविक जिज्ञासा यह होती है कि – अमुक विषय क्या है? अथवा अमुक विषय की परिभाषा क्या है? अतः सबसे पहले हम यही जानने का प्रयास करेंगे कि — दर्शन क्या है? अथवा दर्शन की परिभाषा क्या है? दर्शन किन प्रश्नों पर विचार करता है? मनुष्य एक चिन्तनशील एवं विवेकवान प्राणी है। सोचना मानव का विशेष गुण है। इसी सोचने व समझने की क्षमता के कारण वह पशुओं से भिन्न समझा जाता है। इसी भाव को अरस्तू ने ‘मनुष्य को विवेकशील प्राणी’ कहकर व्यक्त किया है। विवेक अर्थात् बुद्धि की कारण मानव जगत् की विभिन्न वस्तुओं को देखकर उनके स्वरूप को जानने व समझने का प्रयास करता रहा है। मनुष्य की बौद्धिकता उसे अनेक प्रश्नों पर गहन व गम्भीर विचार करने के लिये सदैव प्रेरित और उत्साहित करती रही है; यथा :— जगत् का स्वरूप क्या है? इसकी उत्पत्ति किस तरह और क्यों हुई? संसार का कोई प्रयोजन है या यह प्रयोजनहीन है? यह जगत् क्यों है? इस विश्व का सर्जनकर्ता कौन है? ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं है? यदि ईश्वर है तो उसका स्वरूप कैसा है? ईश्वर के अस्तित्व और अनस्तित्व का प्रमाण क्या है? सत्ता का स्वरूप क्या है? आत्मा क्या है? आत्मा है या नहीं? जीव क्या है? मनुष्य क्या है? जीवन का परम लक्ष्य क्या है? ज्ञान का साधन क्या है? सत्य ज्ञान का स्वरूप और सीमाएँ क्या है? शुभ और अशुभ क्या है? उचित और अनुचित क्या है? नैतिक निर्णय का विषय क्या है? व्यक्ति और समाज का क्या सम्बन्ध है? इत्यादि। दर्शन ऐसे अनेकानेक जटिल प्रश्नों का युक्तिपूर्वक उत्तर देने का प्रयास करता है। यहाँ एक बात स्पष्ट करना प्रासंगिक है कि दर्शन में इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिये भावना या विश्वास का सहारा नहीं लिया जाता है, वरन् ‘बुद्धि-विवेक’ का प्रयोग किया जाता है। ऐसे जटिल प्रश्नों का उत्तर जानना मानवीय स्वभाव का चिरकाल से अंग रहा है। यही कारण है कि यह प्रश्न हमारे समक्ष नहीं उठता कि हम दार्शनिक हैं या नहीं हैं। वरन् प्रश्न यह है कि कितने कुशल दार्शनिक हैं। दार्शनिक तो हैं ही हम। इस सन्दर्भ में हक्सले महोदय का यह कथन उल्लेखनीय है कि — हम सबों का विभाजन दार्शनिक और अदार्शनिक के रूप में नहीं, वरन् कुशल और अकुशल दार्शनिक के रूप में ही सम्भव है।”१ देखें – Problems of Philosophy. — Cunningham ( p. 70 ).१  इन प्रश्नों को देखने से पता चलता है कि सम्पूर्ण विश्व दर्शन का विषय है। इन प्रश्नों का उत्तर मानव अनादिकाल से देता आ रहा है और भविष्य में भी निरन्तर देता रहेगा। दर्शन क्या है? ऐसे प्रश्नों के द्वारा ज्ञान के लिये मानव का प्रेम या उत्कंठा का भाव अभिव्यक्त होता है। इसलिये फिलॉसफी का अर्थ ‘ज्ञान के लिये प्रेम’ या ‘विद्यानुराग’ होता है। पाश्चात्य चिंतन में दर्शन का अर्थ — दर्शन शब्द को आँग्ल भाषा में ‘Philosophy’ लिखते हैं। इसकी उत्पत्ति यूनानी भाषा के दो शब्दों से हुई है — Philosophy = ‘philein’ + ‘sophos’. Philein का अर्थ है – to love. Sophos का अर्थ है – wise or wisdom. इस तरह Philosophy का अर्थ है – ‘love to wisdom.’ अर्थात् ‘ज्ञान-प्रेम’ या ‘विद्यानुराग’। भारतीय चिंतन में दर्शन का अर्थ — ‘दर्शन’ शब्द संस्कृति भाषा के ‘दृश्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है — ‘देखना’ अथवा ‘जिसके द्वारा देखा जाय।’ परन्तु इस देखने का सामान्य देखना नहीं है अपितु ‘तार्किक एवं अन्तर्दृष्टि’ से देखने से है। इस सम्बन्ध में कहा गया है कि – ‘दृश्यता यथार्थ तत्त्वमनेन’ अर्थात् ‘जिससे यथार्थ तत्त्व की अनुभूति हो वह दर्शन है। अतः भारतीय चिंतन परम्परा में दर्शन उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा ‘तत्त्व का साक्षात्कार’ हो सके। भारत का दार्शनिक केवल तत्त्व की बौद्धिक व्याख्या से ही सन्तुष्ट नहीं होता, बल्कि वह तत्त्व की अनुभूति प्राप्त करना चाहता है। ऐन्द्रिय व अनैन्द्रिय अनुभव भारतीय दर्शन में अनुभूतियों की दो श्रेणी बतायी गयी है :- एक, ऐन्द्रिय ( sensuous ) द्वितीय, अनैन्द्रिय ( non-sensuous ) जिस ज्ञान या अनुभव को मनुष्य इन्द्रियों के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप में ग्रहण करता है वह ऐन्द्रिय या लौकिक ज्ञाता श्रेणी में आता है। वह ज्ञान जिसकों हम इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त नहीं कर सकते अर्थात् अनैन्द्रिय अनुभवजन्य ज्ञान होता है और आध्यात्मिक अनुभूति की श्रेणी में रखा जाता है। इन दोनों अनुभूतियों में अनैन्द्रिय अनुभूति (आध्यात्मिक अनुभूति) का दर्शन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारतीय मनीषियों के मतानुसार तत्त्व का साक्षात्कार आध्यात्मिक अनुभूति से ही सम्भव है। आध्यात्मिक अनुभूति (intuitive experience) बौद्धिक ज्ञान से उत्तम है। बौद्धिक ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय के बीच द्वैतभाव वर्तमान रहता है, परन्तु आध्यात्मिक ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद समाप्त हो जाता है। चूँकि भारतीय दर्शन ‘तत्त्व के साक्षात्कार’ में आस्था रखता है, इसलिये इसे ‘तत्त्व दर्शन‘ भी कहा जाता है। दर्शन : व्यावहारिकता और आध्यात्मिकता भारतीय दर्शन की प्रमुख विशेषता ‘व्यावहारिकता’ है। भारत में जीवन की समस्याओं को हल करने के लिये दर्शन का सृजन हुआ है। जब मानव ने अपने को दुःखों के आवरण से घिरा हुआ पाया तब उसने पीड़ा और क्लेश से छुटकारा पाने की कामना की। इस प्रकार दुःखों से निवृत्ति के लिये उसने दर्शन को अपनाया। इसीलिये प्रो० हिरियाना ने कहा है “पाश्चात्य दर्शन की भाँति भारतीय दर्शन का आरम्भ आश्चर्य एवं उत्सुकता से न होकर जीवन की नैतिक एवं भौतिक बुराइयों के शमन के निमित्त हुआ था। दार्शनिक प्रयत्नों का मूल उद्देश्य था जीवन के दुःखों का अन्त ढूँढ़ना और तात्त्विक प्रश्नों का प्रादुर्भाव इसी सिलसिले में हुआ।”२ Philosophy in India did not take its rise in wonder or curiosity as it seems to have done in the West; rather it originated under the pressure of practical need arising from the presence of moral and physical evil in life….Philosophic endeavour was directed primarily to a remedy for the ills of life, and the consideration of metaphysical questions came in as matter of course. — Outline of Indian Philosophy ( p. 18-19 ).२ इस तरह मानव जीवन की समस्याओं से छुटकारा पाने के लिये चिंतन-मनन करता रहा है। दुःखों से मुक्ति की छटपटाहट मानव को दर्शन की ओर

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समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति

भूमिका प्रयाग प्रशस्ति ३५ फुट ऊँचे पत्थर के एक गोल स्तम्भ पर अंकित है, जो प्रयागराज ( इलाहाबाद ) में गंगा-यमुना तट पर स्थित मुगल कालीन दुर्ग के भीतर अवस्थित है। मूल रूप में सम्भवतः यह कौशाम्बी ( आधुनिक कोसम ) में, जो प्रयागराज के लगभग ४० किलोमीटर की दूरी पर पश्चिम की ओर यमुना तट पर स्थित है, स्थापित था। वहाँ से मुगल बादशाह अकबर के समय इसे लाकर वर्तमान स्थल पर खड़ा किया। यह स्तम्भ मूलतः मौर्य सम्राट अशोक-कालीन है। उस पर उसका कौशाम्बी स्थित महामात्यों को सम्बोधित किया गया शासनादेश अंकित है। इस अभिलेख में पंक्तियों के ऊपर तथा बीच में मध्यकाल में लोगों ने कुछ लिखने का प्रयास किया था, जिसके कारण तथा काल-कारण से चिप्पी उखड़ने से अभिलेख का आरम्भिक अंश क्षतिग्रस्त हो गया है। इस अभिलेख को सर्वप्रथम १८३४ ई० में बंगाल एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में कप्तान ए० ट्रायर ने प्रकाशित किया था। उसके बाद डब्लू० एच० मिल, जेम्स प्रिंसेप, भाउ दाजी ने समय समय पर अपने पाठ प्रस्तुत किये। अन्ततोगत्वा जे०एफ० फ्लीट ( John Faithfull Fleet ) ने व्यवस्थित रूप से इसका सम्पादन किया जो उनके गुप्तकालीन लेख संग्रह ( Corpus Inscriptionum Indicarum Vol. III ) में प्रकाशित है। संक्षिप्त परिचय नाम :- समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति ( Prayag Prashasti of Samudragupta ) या समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भलेख ( Prayag Pillar Inscription of Samudragupta ) या समुद्रगुप्त का इलाहाबाद स्तम्भलेख ( Allahabad Pillar Inscription of Samudragupta ) या हरिषेण का अभिलेख ( Inscription of Harishena ) स्थान :- गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर स्थित सम्राट अकबर के दुर्ग में, प्रयागराज। मौलिक रूप से यह कौशाम्बी में था। भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी समय :- समुद्रगुप्त का शासनकाल ( ३५० – ३७५ ई० ) विषय :- समुद्रगुप्त का प्रशस्ति गायन, जिसमें उसके दिग्विजय, व्यक्तित्व, राजनीतिक अवस्था आदि की जानकारी मिलती है। लेखक :- संधिविग्रहिक सचिव हरिषेण प्रयाग प्रशस्ति : मूलपाठ १. [यः] कुल्यैः स्वै ….. तस …. २. [यस्य ?] …. (॥) [१] ३. …… पुं (?) व ….. त्र ….. ४. [स्फा]रद्वं (?)….. क्षः स्फुटोद्धंसित …. प्रवितत [॥ २] ५. यस्य प्र[ज्ञानु] यंगोचित-सुख-मनसः शास्त्र-त [त्व]तर्थ-भर्तुः — — स्तब्धो — —  [ह]नि **** — नोच्छृ — — * — — [।] ६. [स]त्काव्य-श्री-विरौधान्बुध-गुणित-गुणाज्ञाहतानेव कृत्वा [वि]द्वल्लोकेवि [नाशि]१ स्फुट-बहु-कविता-कीर्ति राज्यं भुनक्ति [॥ ३] ७. [आर्ये]हीत्युपगुह्य भाव-पिशुनैरुत्कर्ण्णितैरोमभिः सभ्येषूच्छवसितेषु तुल्य-कुलज-म्लानाननोद्वीक्षि[त]: [।] ८. [स्ने]ह-व्ययालुलितेन बाष्प-गुरुणा तत्वेक्षिणा चक्षुषा यः पित्राभिहितो नि[रिक्ष्य] निखि[लां] [पाह्येवमुर्वी] मिति [॥ ४] ९. [दृ]ष्ट्वा कर्म्माम्यनेकान्यमनुज-सदृशान्यद्भुतोद्भिन्न-हर्षा भ[ ] वैरा-स्वादय-[न्तः] **** — — * — — ** [के] चित् [।] १०. वीर्योत्तप्ताश्च केचिच्छरणमुपगता यस्य वृत्ते (ऽ) प्रणामे (ऽ) प्य [ र्ति ? ]-(ग्रस्ते-षु) — — ****** — — * — — * — — [॥ ५] ११. संग्रामेषु स्व-भुज-विजिता नित्यमुच्चापकाराः श्वः श्वो मान प्र **** — — * — — — — [।] १२. तोषोत्तुङ्गैः स्फुट-बहु-रस-स्नेह-फुल्लैर्म्मनोभिः पश्चात्तापं व **** — — * मस्य [द्विषन्तः] [॥ ६] १३. उद्वेलोदित-बाहु-वीर्य्य-रभसादेकेन येन क्षणादुन्मूल्याच्युत-नागसेन-ग[णपत्यादीननान्- संगरे]२ [I] १४ दण्डेर्ग्राहयतैव कोतकुलजं पुष्पास्वये क्रीडता सूर्य्ये [नित्य (?) * — — तटा] * — — — * — — * — [॥  ७] १५. धर्म-प्राचीर-बन्धः शशि-कर-शुचयः कीर्त्तयः स-प्रताना वैदुष्यं तत्व-भेदि प्रशम *** [कु—व* मुत्— * — णार्थम्] (?) [।] १६. [अद्ध्येयः] सूक्त-मार्ग्गः कवि-मति-विभवोत्सारणं चापि काव्यं को नु स्याद्यो (ऽ) स्य न स्याद्गुण-(मति)-विदुषां ध्यान-पात्रं य एकः [॥ ८] १७. तस्य विविध समर-शतावरण-दक्षस्य स्वभुज-बल-पराक्रमैकबन्धोः पराकमाङ्कस्य परशु-शर-शङ्कु-शक्ति-प्रासासि-तोमर- १८. भिन्दिपाल-न[ ]च-वैतस्तिकाद्यनेक-प्रहरण-विरूढाकुल-व्रण-शताङ्क-शोभा-समुदयोप चित-कान्ततर-वर्ष्मणः १९. कौसलक-महेन्द्र-माह[ ]कान्तारक-व्याघ्रराज-कौरालक-मण्टराज-पैष्टपुरक-महेन्द्रगिरि- कौट्टूरक-स्वामिदत्तैरण्डपल्लक-दमन-काञ्चेयक- विष्णुगोपावमुक्तक- २०. नीलराज-वैङ्गेयक हस्तिवर्म्म-पालक्ककोग्रसेन-दैवराष्ट्रक-कुबेर-कौस्थलपुरक-धनञ्जय-प्रभृति-सर्व्वदक्षिणापथ-राज-ग्रहण-मोक्षानुग्रह-जनित-प्रतापोन्मिश्र-माहाभाग्यस्य २१. रुद्रदेव-मतिल-नागदत्त-चन्द्रवर्म्म-गणपतिनाग-नागसेनाच्युत-नन्दि-बल-वर्म्माद्यनेकार्य्या- वर्त्त-राज-प्रसभोद्धरणोवृत्त-प्रभाव-महतः परिचारकीकृत-सर्व्वाटविक-राजस्य २२. समतट-डवाक-कामरूप-नेपाल-कर्तृपुरादि-प्रत्यन्त-नृपतिभिर्म्मालवार्जुनायन-यौधेय-माद्रकाभीर-प्रार्जुन-सनकानीक-काक-खरपरिकादिभिश्च-सर्व्व-कर-दानाज्ञाकरण-प्रणामागमन- २३. परितोषित-प्रचण्ड-शासनस्य अनेक-भ्रष्टराज्योत्सन्न-राजवंश प्रतिष्ठापनोद्भूत-निखिल- भु[व]न-[विचरण-श्रा]न्त-यशसः दैवपुत्रषाहिषाहानुषाहि-शकमुरुण्डैः सैंहलकादिभिश्च २४. सर्व्व-द्वीप-वासिभिरात्मनिवेदन-कन्योपायनदान-गरुत्मदङ्क-स्वविषय-भुक्त्तिशासन-[य] -चनाद्युपाय-सेवा-कृत-बाहु-वीर्य-प्रसर-धरणिबन्धस्य प्रिथिव्यामप्रतिरथस्य २५. सुचरित-शतालङ्कृतानेक-गुण-गणोत्सिक्तिभिश्चरण-तल-प्रमृष्टान्यनरपतिकीर्तेः साद्ध्य- साधूदय-प्रलय-हेतु-पुरुषस्याचिन्त्यस्य भक्त्यावनति-मात्र-ग्राह्य-मृदु-हृदयस्यानुकम्पावतो-(ऽ) नेक-गो-शतसहस्र-प्रदायिनः २६. [कृ]पण-दीनानाथातुर जनोद्धरण-सत्र३ दीक्षाभ्युपगत-मनसः समिद्धस्य विग्रहवतो लोकानुग्रहस्य धनदं वरुणेन्द्रान्तक-समस्य स्वभुज-बल-विजितानेक-नरपति-विभव-प्रत्यर्पणा-नित्यव्यापृतायुक्तमुरुषस्य २७. निशितविदग्धमति-गान्धर्व्वललितैर्व्रीडित-त्रिदशपतिगुरु तुम्बुरुनारदा-देर्व्विद्वज्जनो-पजीव्यानेक-काव्य-क्रियाभिः प्रतिष्ठित कविराज-शब्दस्य सुचिर-स्तोतव्या नेकाद्भुतोदार चरितस्य २८. लोकसमय-क्कियानुविधान-मात्र-मानुषस्य लोक-धाम्नो देवस्य महाराज-श्रीगुप्त-प्रपौत्रस्य महाराज-श्री-घटोत्कच-पौत्रस्य महाराजाधिराज श्री-चन्द्रगुप्त-पुत्रस्य २९. लिच्छवि-दौहित्रस्य महादेव्यां कुमारदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराज-श्री—समुद्रगुप्तस्य सर्व्व-पृथिवी-विजय-जानितोदय-व्याप्त-निखिलावनितलां कीर्तिमितस्त्रिदशपति- ३०. भवन-गमनावाप्त-ललित-सुख-विचरणामाचक्षाण इव भुवो बाहुरयमुच्छ्रितः स्तम्भः [।] यस्य प्रदान-भुजविक्रम-प्रशम-शास्त्रवाक्योदयै- रुपर्युपरिसञ्च-योच्छ्रितमनेकमार्गं यशः [।] ३१.    पुनाति भुवनत्रयं पशुपतेर्ज्जटान्तर्गुहा-          निरोध-परिमोक्ष-शीघ्रमिव पाण्डु गांगं [पयः] [॥ ९] एतच्च काव्यमेषामेव भट्टारकपादानां दासस्य समीप परिसर्प्पणानुग्रहोन्मीलित-मतेः ३२. खाद्यटपाकिकस्य महादण्डनायक-ध्रुवभूति पुत्रस्य सान्धिविग्रहिक कुमारामात्य-म[हादण्डनाय]क- हरिषेणस्य सर्व्व-भूत-हित-सुखायास्तु। ३३. अनुष्ठितं च परमभट्टारक-पादानुध्यातेन महादण्डनायक तिलभट्टकेन। बी० राघवन ने विशाले और भण्डारकर ने विकृष्टम् पाठका अनुमान प्रस्तुत किया है। विनाशि पाठ सरकार का है।१ भण्डारकरने गणपानाजी समेल्यागतान होने का अनुमान किया है।२ मूल में मंत्र है। फ्लीट ने संत्र को मन्त्र के रूप में और दिवेकर ने सत्र के रूप में शुद्ध किया है। उचित पाठ सत्र ही होगा।३ हिन्दी अनुवाद १. जो अपने वंश के लोगों से ….. ; उसका ……. ; २. …. जिसका….. ; ३. जिसने…….. अपने धनुष की टंकारसे …… तितर बितर कर दिया …… नष्ट किया …… फैला दिया ….. ४-६. जिसका मन विद्या की आसक्ति-जनित सुखानुभूति के योग्य है; जो शास्त्रों के वास्तविक रहस्य को जानने का एक मात्र अधिकारी है; जो उत्तम काव्यों के सौन्दर्य (श्री) के विरोधी तत्वों को पण्डितों द्वारा निर्दिष्ट गुणों की आज्ञा (शक्ति) से क्षीण करके विद्वानों की मण्डली में अत्यन्त स्पष्ट कविताओं से [उपलब्ध] यश के साम्राज्य का उपभोग करता है; ७-८ [वह] जो सभासदों के [हर्ष से] उच्छवसित होते और तुल्य-कुलजो (भाई-बन्धुओं) द्वारा म्लान-मुखों द्वारा देखे जाते हुए [और] वात्सल्य से अभिभूत तत्वदर्शी नेत्रों में आँसू भरे, भावातिरेक से रोमांचित पिता द्वारा स्नेहालिंगन कर कहा गया— ‘वस्तुतः तुम आर्य हो! तुम समस्त भूमण्डल का पालन करो; ६-१०. जिसके अलौकिक कार्यों को देखकर आश्चर्य मिश्रित हर्ष के साथ लोग भावपूर्वक आनन्द का आस्वादन करते हैं; और अन्य उसके पराक्रम के तेज से सन्तप्त होकर उसका शरणागत बन उसे प्रणाम करते हैं; ११-१२. [जिसने] निरन्तर अत्यधिक क्षति पहुँचने वाले दुष्ट स्वभाव के लोगों को समर भूमि में अपनी भुजाओं के बल से पराजित किया [और] दिन प्रति दिन ….. [जिसके प्रति] उन्होंने अत्यन्त आनन्द और प्रेम से उत्फुल्ल और सन्तोष से उन्नत हो अन्तकरण से पश्चाताप किया ….. १३-१४. जिसने अपनी भुजाओं के अपार बल के वेग से अकेले ही क्षण मात्र में (संयुक्त रूप से आये) अच्युत, नागसेन, ग[णपति …… आदि] का उन्मूलन कर दिया [और] पुष्पपुर (नगर) में उत्सव मनाते हुए “तट” हुए कोत-कुल में उत्पन्न राजा को अपनी शक्ति से बन्दी बनाया (दण्ड दिया); सूर्य नित्य ही ….. तट …… ; १५-१६. [जो] धर्म-रूपी प्राचीर [के भीतर] सुरक्षित है; जिसकी चन्द्रमा के किरणों के समान निर्मल कीर्ति चारों ओर फैली हुई है; जिसकी विद्वत्ता तत्वभेदिनी है; जिसने देव-विहित

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समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र

भूमिका समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र ( वर्ष ६ ) आठ इंच लम्बे और सात इंच से कुछ अधिक चौड़े ताम्र-फलक के एक ओर अंकित है। यह अलेक्ज़ेंडर कनिंघम ( A. Cunningham  ) को गया में मिला था। वह कहाँ निकला था इसकी किसी को कोई जानकारी नहीं है। वर्तमान समय में यह ब्रिटिश संग्रहालय में है। इसके साथ एक अण्डाकार मुहर जुड़ी हुई है। इस मुहर पर ऊपरी भाग में गरुड़ का अंकन है और नीचे पाँच पंक्तियों का लेख है। यह मुद्रा लेख अत्यन्त अस्पष्ट है; यत्र-तत्र कतिपय अक्षरों तथा अन्त में समुद्रगुप्त के अतिरिक्त और कुछ पढ़ा नहीं जा सका है। १८८३ ई० में कनिंघम ने इस अभिलेख के प्राप्ति की सूचना प्रकाशित की थी। उसके बाद फ्लीट ने सम्पादित कर प्रकाशित किया। संक्षिप्त परिचय नाम :- समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र ( Gaya Copper-Plate of Samudragupta ) स्थान :- गया, बिहार भाषा :- संस्कृत लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी रूप ) समय :- गुप्तकालीन विषय :- अग्रहार दान का शासनादेश समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र : मूलपाठ १. ॐ स्वस्ति [II] मह-नौ- हस्त्यश्व-जयस्कंधावाराजायोद्ध्या-वासका-त्सर्व्वराजोच्छेत्तुः पृ- २. थिव्यामप्रतिरथस्य चतुरुदधि-सलिलस्वादित-यश[सो] धनद-वरुणेन्द्रा- ३. न्तक समस्य कृतान्त-परशोन्ययागतानेक-गो-हिरण्य-कोटि-प्रदस्य चिरोच्छ- ४. न्नश्वमेधाहर्त्तुः महाराज श्री-गुप्त-प्रपौत्रस्य महाराज-श्री-घटोत्कच-पौत्रस्य ५. महाराजाधिराज-श्री-चन्द्रगुप्त-पुत्रस्य लिच्छवि-दौहित्रस्य महादेव्यांकु- ६. मारदेव्यामुत्पन्नः परमभागवतो महाराजाधिराज-श्री-समुद्र- ७. गुप्तः गयावैषयिक-रेवतिकाग्रामे ब्राह्मण-पुरोग-ग्राम-वल- ८. त्कौषभ्यामाह। एवंचार्थं विदितम्बो भवत्वेश ग्रामो मया मातापित्तोरा- ९. त्मनश्च पुण्याभिवृद्धये भारद्वाज-सगोत्राय वह्वृचाय स[ब्र]ह्मचा- १०. रिणे ब्राह्मण-गोपदेवस्वामिने सोपरिकरोद्धेसेनाग्रहारत्वेनाति- ११. सृष्टः [।] तद्युष्माभिरस्य श्रोतव्यमाज्ञा च कर्तव्या सर्वे [च] समुचिता ग्राम-प्र- १२. त्यया मेय-हिरण्यादयो देयाः [।] न चैतत्प्रभृत्येतदाग्रहारिकेणान्यद्ग्रा- १३. मादि-करद-कुटुम्बि-कारुकादयः प्रवेशयितव्याममन्यथा नियतमाग्र- १४. हाराक्षेपः स्यादिति [॥] सम्वत् ९ वैशाख-दि १० [॥] १५. अन्यग्रामाक्षपटलाधिकृत-द्यूत गोपस्वाम्यादेश-लिखितः [॥] हिन्दी अनुवाद ॐ स्वस्ति ! अयोध्या [नगर] स्थित महा नौ, हस्ति और अश्व से युक्त जयस्कन्धावार से सर्वराजोच्छेता, भूमण्डल में अप्रतिरथ, चारों समुद्रों के जल से आस्वादित यश वाले, धनद, वरुण, इन्द्र, यम के तुल्य, कृतान्त के परशु-स्वरूप, वैध ढंग से प्राप्त कोटि गौ और हिरण्य (धन) के दान-दाता, चिरकाल से उत्सन्न अश्वमेध के पुनस्थापक, महाराज श्रीगुप्त के प्रपौत्र, महाराज घटोत्कच के पौत्र, महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के महादेवी कुमारदेवी से उत्पन्न पुत्र, लिच्छवि-दौहित्र परमभागवत महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त गया विषय स्थित रेवतिका गाम के ब्राह्मण, पुरोग एवं वलत्कौषन से कहता है— आप लोगों को विदित हो कि [अपने माता-पिता, एवं अपने पुण्य की वृद्धि के निमित्त ब्रह्मचारी ब्राह्मण गोपस्वामी के लिए उपरिकर सहित अग्रहार की सृष्टि करता हूँ। अतः आप सबका ध्यान इस बात की ओर जाना चाहिए तथा इस आज्ञा का पालन करना चाहिए। अब से ग्राम की परम्परा के अनुसार जो भी कर मेय अथवा हिरण्य देय हो, उन्हें दें। तथा अब से इस अग्रहार (दानभूमि) में करद (कर लेने वाले), कुटुम्बी, शिल्पी आदि हस्तक्षेप न करें अन्यथा इस अग्रहार सम्बन्धी नियमों का उल्लंघन होगा। वर्ष ९ वैशाख [मास] दिवस १०। [यह पत्र] इस ग्राम के अक्षपटलाधिकृत दूत गोपस्वामी के आदेश से लिखा गया । महत्त्व नालंदा और गया ताम्रपत्र दोनों ही समुद्रगुप्त द्वारा ब्राह्मणों को भूमि दान (अग्रहार) के शासनादेश हैं। नालन्दा ताम्रलेख समुद्रगुप्त ने अपने शासन के ५वें वर्ष में आनन्दपुर जयस्कन्धावार से और गया ताम्र शासन ९वें वर्ष में अयोध्या से प्रचलित किये थे। अनेक विद्वानों ने इस दोनों ही ताम्र-शासनों को कूट (जाली) होने की सम्भावना व्यक्त की। फ्लीट ( Fleet ) के सामने केवल गया ताम्र-शासन था। उसे उन्होंने उसके मौल (असली) होने में दो कारणों से सन्देह प्रकट किया है — १. वंश परिचय वाले अंश में समुद्रगुप्त के लिए प्रयुक्त विशेषण सम्बन्धकारक के हैं और उसका अपना नाम कर्ताकारक में है (श्री चन्द्रगुप्त पुत्रस्य लिच्छवि-दौहित्रस्य महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्तः)। इससे प्रकट होता है कि लेख के प्रारूपक ने इसे चन्द्रगुप्त अथवा किसी अन्य उत्तराधिकारी के शासन के अनुकरण पर प्रस्तुत किया है। २. लेख के कुछ अक्षरों के रूप में प्राचीनता तो झलकती है पर अन्य अक्षरों के स्वरूप अपेक्षाकृत नवीन हैं। उनका यह भी कहना है कि इसमें प्रयुक्त ‘महानौ-हस्त्यश्व-जयस्कन्धावारात‘ आठवी शती के अभिलेखों में मिलते हैं। अतः यह लेख इसी काल में प्रस्तुत किया गया होगा। दिनेशचन्द्र सरकार ने भी इस शासन के कूट होने की बात कही है किन्तु वे इसे फ्लीट की तरह आठवीं शती जितना पीछे का कूट नहीं समझते। वे इसे छठीं-सातवीं शती का कूट होने का अनुमान करते हैं। नालन्दा-शासन को प्रकाशित करते हुए हीरानन्द शास्त्री ने उसे कूट मानने के लिए उन्हीं कारणों को दिखाया, जिनका उल्लेख फ्लीट ने गया-शासन के प्रसंग में किया है। अमलानन्द घोष भी इसकी मौलिकता को सन्देह से परे नहीं मानते। वे नालन्दा और गया दोनों स्थानों के शासनों को मूल शासनों की प्रतिलिपि होने की सम्भावना स्वीकार करते हैं। उन्हें इन शासनों की प्रामणिकता में सन्देह इनमें दी गयी तिथियों को लेकर है। इनमें अंकित तिथियों को वे गुप्त संवत् समझते हैं। इस कारण वे कहते हैं कि ये तिथि समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त (द्वितीय) और कुमारगुप्त (प्रथम) की तीन पीढ़ियों के लिए असामान्य रूप से लम्बी अवधि प्रस्तुत करते हैं। दिनेशचन्द्र सरकार ने इन शासनों को स्पष्ट रूप में कूट घोषित किया है। पूर्व-कथित विद्वानों द्वारा प्रस्तुत तर्क के अतिरिक्त उनका नवीन तर्क यह है कि — (१) इन लेखों में बिना किसी भेद के ‘ब’ और ‘व’ का प्रयोग किया गया है। (२) समुद्रगुप्त के लिए चिरोत्सत्र-अश्वमेधहर्तुः और परमभागवत विशेषणों का प्रयोग इस बात का द्योतक है कि ये लेख समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारियों के किन्हीं शासन से नकल किये गये हैं। (३) राज्यवर्ष (अथवा गुप्त संवत) ५ से पूर्व समुद्रगुप्त के लिए अश्वमेघ कर सकना वे सम्भव नहीं समझते और समुद्रगुप्त के परमभागवत कहलाने का कोई प्रमाण उनकी दृष्टि में नहीं है। कुछ अन्य विद्वान इन शासनों को कूट नहीं मानते। सर्वप्रथम राखालदास बनर्जी ने फ्लीट के मत को चुनौती दी और गया-शासन के मौलिक होने की बात कही। नालन्दा-शासन के प्रकाश में आने पर द० रा० भण्डारकर ने कहा कि केवल व्याकरण विरुद्ध एक वाक्य, जो दोनों ही लेख में समान रूप से मिलता है, इन शासनों को कूट घोषित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। शकुन्तला राव ने इस प्रसंग में इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि इस प्रकार की भूलें मौलिक कहे जाने वाले अनेक लेखों में देखी जा सकती हैं। उदाहरणार्थ उन्होंने विन्ध्यशक्ति के बासिम-ताम्रलेख की ओर संकेत किया है। उनका यह भी कहना है कि परमभागवत उल्लेख मात्र से इन शासनों को कूट नहीं कहा जा

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