सोहगौरा अभिलेख या सोहगौरा ताम्रपत्र अभिलेख

भूमिका

नाम – सोहगौरा अभिलेख या सोहगौरा ताम्रपत्र अभिलेख ( Sohgaura Copper-Plate Inscription )।

स्थान – सोहगौरा, गोरखपुर जनपद, उत्तर प्रदेश।

भाषा – प्राकृत।

लिपि – आदि ब्राह्मी।

समय – लगभग चतुर्थ शताब्दी ई०पू०।

विषय – अन्नागार में धान्यों का संग्रह और उसके आपद् स्थिति में उपयोग का विवरण।

सोहगौरा अभिलेख का मूलपाठ

१ – सवतियान महमतन ससने मनवसिति-क-

२ – ड [ । ] सि ( ि ) लमते बसगमे व एते दवे कोठगलनि [ । ]

३ – तियवनि [ । ] माथुल-चचु-मोदाम-भलकन व

४ – ल कयियति अतियायिकय [ । ] नो गहितवय [ ॥ ]

संस्कृत छाया

श्रावस्तीयानां महामात्राणां शासनं मानवशीति कटतः। श्रीमान वंशग्रामः एतौ द्वौ कोष्ठागारौ। त्रिवेणी-माथुर-चञ्चु-मोदाम-भल्लकानां ( ग्रामाणां ) वरं कार्येते आत्ययिकायां। नो ग्रहीतव्यम्।

हिन्दी अनुवाद

  • श्रावस्ती के महामात्र के शासनकाल में मानवशीति के चौराहे पर।
  • श्रीमान और वंशग्राम में दो कोष्ठागार।
  • त्रिवेणी, माथुर, चञ्चु, मोद, भल्लक ग्रामों के
  • हित के लिए आपत्तिकाल में। नहीं ग्रहण करना चाहिए ( अनापत्ति काल में )।

सोहगौरा अभिलेख का ऐतिहासिक महत्त्व

सोहगौरा ताम्रपत्र अभिलेख उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जनपद के बाँसगाँव तहसील के सोहगौरा नामक ग्राम से मिला है। यह वर्तमान में कोलकाता के एशियाटिक सोयाइटी में संरक्षित है।

सोहगौरा ताम्रपत्र अभिलेख की भाषा प्राकृत और लिपि ब्राह्मी है। इस ताम्रपत्र के ऊपरी भाग पर सात आकृतियाँ उकेरी गयी है –

  • वेदिका में वृक्ष
  • तीन मंजिल का भवन
  • कमल पुष्प कलियाँ जो कि नाल युक्त हैं
  • मेरु पर्वत पर चन्द्र
  • सूर्य व चन्द्र
  • वेदिका में पेड़
  • तीन मंजिल का भवन

इन्हीं उकेरी गयी आकृतियों के नीचे चार पंक्तियों में यह अभिलेख खुदा हुआ है।

ऐसा लगता है कि ये उकेरे गये भवन अभिलेखों में बताये गये कोष्ठागारों के ही सूचक हैं।

यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि ये चिह्न प्राचीन भारत से मिले आहत मुद्राओं पर भी पाये जाते हैं। ये मुद्रा लेखविहीन और तिथिविहीन हैं।

सोहगौरा अभिलेख का प्रथम शब्द है – सवतियान। सवतियान की संस्कृत होगी – श्रावस्तियानां। महाजनपदकाल में कोशल महाजनपद की राजधानी श्रावस्ती थी। श्रावस्ती की पहचान उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जनपद में सहेत-महेत से की जाती है। श्रावस्ती अचिरावती नदी ( राप्ती नदी ) के तट पर बसी थी। श्रावस्ती भगवान बुद्ध को बहुत प्रिय था। यहाँ पर उन्होंने सर्वाधिक वर्षावास ( २१ वास ) किये थे।

इस अभिलेख का अगला पद है – महामगन ससने अर्थात् महामात्र के शासन में। यह स्थान ( श्रावस्ती ) एक प्रसिद्ध राजनीतिक और प्रशासनिक इकाई अभिलेख लिखे जाने के समय में था क्योंकि इसमें जिस महामात्र का विवरण मिलता है वह श्रावस्ती का ही महामात्र था। इससे एक बात और स्पष्ट होती है की उस समय महामात्र एक प्रमुख प्राशासनिक अधिकारी होता था। सम्राट अशोक के अभिलेखों में हमें विभिन्न महामात्र अधिकारियों का विवरण मिलता है; यथा – धम्ममहामात्र, स्त्र्याध्याक्ष महामात्र, ब्रजभूमिक महामात्र, अन्तमहामात्र।

इस अभिलेख का महत्त्व तब और बढ़ जाता है जब यह राज्य के लोककल्याण की नीतियों पर प्रकाश डालता है। राज्य जन कल्याण के विषय में सोचता ही नहीं बल्कि चरितार्थ भी करता था। अकाल जैसी परिस्थितियों के अन्य / धान्य के संग्रह करके रखने के लिए कोष्ठागारों की समुचित व्यवस्था थी। इन धान्य का प्रयोग केवल दुर्भिक्ष जैसी आपात स्थितियों में ही किये जाने का निर्देश था।

यहाँ और भी सुखद आश्चर्य होता है कि इस प्रकार के बृहद् अन्नागार के साक्ष्य हमें हड़प्पा सभ्यता में भी देखने को मिलते हैं। तो क्यों न इसे उसी परम्परा का निर्वहन माना जाये? जो भी हो यह बात महत्त्व की है कि अकाल और उससे निपटने के लिए राज्य की तैयारी से जुड़ा सोहगौरा अभिलेख और महास्थान अभिलेख प्राचीनतम अभिलेखीय साक्ष्य है।

सोहगौरा अभिलेख एक प्रशासनिक अभिलेख है। इसका उद्देश्य था जनता को शासक या राज्य का दृष्टिकोण स्पष्ट करना। इसमें साफ-साफ शब्दों में बताया गया है कि इन कोष्ठागारों के धान्य का संग्रह का उद्देश्य आपत्काल से रक्षोपाय है। इसके साथ ही सावधान भी किया गया है की सामान्य परिस्थितियों में इसका उपयोग न किया जाये। सोहगौरा अभिलेख में शासक और प्रशासक का नाम तक नहीं मिलता है अतः इसको विशुद्ध प्रशासनिक अभिलेख मानना समीचीन है।

सोहगौरा अभिलेख से तत्कालीन आर्थिक स्तिथि की कई परतें खुलती हैं। इसमें लिखा है दोनों ‘कोठगलिन’ ( कोष्ठागार ) मनवंशीति के चौराहे पर बनिये गये थे। इससे निम्न बातें स्पष्ट होती है –

  • कोष्ठागार का होना इस बात का परिचायक हा कि उस समय प्रभूत अन्नोत्पादन होता था।
  • राज्यकर उपज के रूप में भी संग्रहीत किया जाता था।
  • चौराहे का उल्लेख यह इंगित करता है कि व्यापारिक मार्गों से बस्तियाँ जुड़ी हुई थी। ये मार्ग तत्कालीन व्यापारिक गतिविधियों में संचार धमनियों सदृश थे।
  • ताम्रपत्र पर अंकित चित्र और आहत मुद्राओं से उनकी समानता यह स्पष्ट रूप से बताता है कि आहत मुद्रा प्रचलन ( कार्षापण )में थी।
  • अभिलेख से कृषि अर्थव्यवस्था की जानकारी भी मिलती है। इसमें कुछ धान्यों का उल्लेख मिलता है – मधु, भूना चावल, अजवायन और आम के भार के संग्रह — ( माथुल च [ च ] — मोदाम-भलकन-छवल कयियति )। भूना चावल ( जिसे आज भी हमारे घरों में भुजिया चावल कहते हैं ) चावल के प्रभूत उत्पादन का संकेत है। अजवायन, मधुसंग्रह / मधुमक्खी पालन, आम्र वाटिका आदि का संकेत समृद्ध अर्थव्यवस्था का संकेतक है।

इस अभिलेख की अंतिम पंक्ति आदेशात्मक है – ‘नो गहिगतवयं’ अर्थात् नहीं ग्रहण करना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो सामान्य परिस्थितियों में इस संग्रह का उपयोग नहीं करना है।

यह अभिलेखीय साक्ष्य कि प्राचीन समय में अकाल पड़ते थे और राज्य उसकी पूर्व-तैयारी भी करता था। लगभग इसी समय का महास्थान अभिलेख भी है और यह भी अकाल और उसके लिए धान्य संग्रह से से जुड़ी बातें करता है। जैन अनुश्रुतियाँ भी बताती हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल के अंतिम समय में १२ वर्ष का अकाल पड़ा था।

सोहगौरा अभिलेख तत्कालीन वास्तुकला का अभिलेखीय साक्ष्य भी प्रस्तुत करता है। इसमें बताया गया है कि कोष्ठागार कैसे बने थे। इसी पर भवनाकृतियाँ भी अंकित है।

इसमें ‘वसगमे’ शब्द का उल्लेख है जिसे ‘बाँसगाँव’ पढ़ाया है। यह स्थान गोरखपुर के बाँसगाव से लगभग ९ किलोमीटर दूर स्थित वर्तमान सोहगौरा है। इससे यह भी विदित होता है कि यह क्षेत्र श्रावस्ती के प्रशासनिक कार्यक्षेत्र में आता था।

सोहगौरा अभिलेख की तिथि स्पष्ट नहीं है। फिरभी लिपि व चिह्नों के आधार पर इसको अशोक से पहले का माना गया है। अर्थात् इसको मोटे तौर पर चतुर्थ शताब्दी ई०पू० से तृतीय शताब्दी ई०पू० में रख सकते हैं। या ऐसा भी कह सकते हैं कि यह चन्द्रगुप्त मौर्य अथवा बिन्दुसार मौर्य के समय का हो सकता है।

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