भूमिका
मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख प्राकृत भाषा और खरोष्ठी लिपि में है। यह अभिलेख उत्तर प्रदेश के के मथुरा जनपद से मिला है जोकि वर्तमान में लंदन के ब्रिट्रिश संग्रहालय में रखा गया है।
यह सिंह स्तम्भ लाल बलुआ पत्थर ( Red Sandstone ) का बना है। यह अभिलेख अव्यवस्थित ढंग लिखा हुआ है जिससे कि इसका उद्वाचन कठिनाई उत्पन्न करता है। अभिलेख-विशारदों ने उसे खंडों में बाँटकर पढ़ने और फिर इन खंडों का तारतम्य बिठाकर व्यवस्थित करके प्रस्तुत करने करने का प्रयास किया है।
मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख : संक्षिप्त परिचय
नाम :- मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख ( the Mathura Lion Capital Inscription )
स्थान :- मथुरा, उत्तर प्रदेश। वर्तमान में यह लंदन के ब्रिट्रिश संग्रहालय में रखा है।
भाषा :- प्राकृत
लिपि :- खरोष्ठी
समय :- प्रथम शताब्दी
विषय :- शक महाक्षत्रप की शासनप्रणाली का ज्ञान, बौद्ध सम्प्रदाय सर्वास्तिवादी व महासंघिक का उल्लेख
मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख : मूलपाठ
प्रथम
(क१)
(१) महक्ष [ त्र ] वस रजुलस
(२) अग्रमहेषि अयसिअ
(३) कमु [ स ] अ धित्र
(४) स्वर्र ( र्ह? ) ओस्तस युवरञ
(५) मत्र नददि ( सि? ) अकस [ ए? ]
(क२)
(६) सध मत्र अबुहोल [ ए ]
(७) पित्रमहि पिश्प्रस्त्रिअ भ्र-
(८) त्र हयुअरन सध हन धि [ त्र ]
(९) अतेउरेन होरक-प-
(१०) रिवरेन इश्र प्रदूवि-प्रत्रे-
(११) श्रे निसिमे शरिर प्रत्रिठवित्रो
(१२) भक्रवत्रो शकमुनिस बुधस
(१३) म ( ? ) किहि ( ? ) र ( त? ) य सश्प [ अ ] भुसवित ( ? )
(१४) ध्रुव च सधरम च चत्रु-
(१५) दिवस सघस सर्व-
(१६) स्तिवत्रन परिग्रहे [ ॥ ]१
(ग)
(१) कलुइ-अ-
(२) वरजो
(घ)
(१) नउलुदो [ । ]
द्वितीय
(ख)
(१) महक्षत्रवस
(२) वजुलस्य२ पुत्र३
(३) शुडसे क्षत्रवे४
(च१)
(१) खर्र ( र्ह ) ओस्तो युवरय
(२) खलमस कुमार
(३) मंज कनिठ
(४) समनमोत्र-
(२)
(१) क्र [ । ] करित
( ड, ढ़ ) ( १ ) अयरिअस
(२) बुधत्रेवस
(३) उत्रएन अयिमित ( स ? )-
(झ१)
(१) गुहविहरे
(झ२)
(१) धमदन ( ? )
(छ)
(१) बुधिलस नक्ररअस
(२) भिखुस सर्वस्तिवत्रस [ । ]
(ज)
(१) महक्ष [ त्र ] वस्य कुसुलअस पदिकस मेव ( ? ) किर
(२) मियिकस क्षत्रवस पुयए [ ॥ ]
(च३)
(१) कमुइओ [ । ]
तृतीय
(ण)
(१) क्षत्रवे शुडिसे
(२) इमो पढ्रवि-
(३) प्रत्रेश्रो
(ट)
(१) वेयउदिन कधवरो बसप-
(२) रो कध-
(३) वरो
(४) वियउ-
(ठ)
(१) र्व……..पलिछिन ( ? )
(२) निसिमो करति नियत्रित्रो
(३) सर्वस्तिवत्रन परि ( ? ) ग्रहे
(त)
(१) अयरिअस बुधिलस नकरकस भिखु-
(२) स सर्वस्तिवत्रस पग्र-
(३) न महसघिअन प्र-
(४) म ( ? ) ञ-वित्रवे खलुलस ( ॥ )
(थ)
(१) सर्वबुधन पुय [ । ] धमस
(२) पुय [ । ] सघस पुय [ । ]
(द)
(१) सर्वस सक्रस्त
(२) नस पुयए [ । ]
(ध)
(१) खर्दअस
(२) क्षत्रवस [ । ]
(न)
(१) रक्षिलस
(२) क्रोनिनस [ । ]
(ठ१)
(१) खलशमु-
(२) शो [ । ]
- स्टेन कोनो इसके बाद खण्ड च रखते हैं जो यहाँ समूह २ में रखा गया है।१
- रजुलस्य पढ़ा जाना चाहिए।२
- स्टेन कोनो इसके बाद खण्ड य को रखते हैं।३
- स्टेन फोनो इसके बाद खण्ड घ को रखते हैं।४
हिन्दी अनुवाद
प्रथम
( क१) महाक्षत्रप राजुल की अग्रमहिषी, आयस कोमूसा की पुत्री; युवराज खरवस्त की माता, नददियक५ ने ( क२ ) अपनी माता आबुहोलिया, पितामही पिश्पस्पा, भाई हयुअरन के साथ, पुत्री हन [ और ] अन्त:पुर के होरक परिवार के साथ इस पृथ्वी प्रदेश में ( स्थान पर ) निःसीम ( स्तूप ) में भगवान् शाक्यमुनि बुद्ध का शरीर ( देहावशेष ) सबके मुक्ति निमित्त उत्थापित ( प्रतिष्ठित ) किया ………. ६ स्तूप और संघाराम को चारों दिशाओं के ( समस्त ) सर्वास्तिवादियों को प्रदान किया। ( ग ) कालुय्यवर [ और ] (घ) नवूलूद [ ने इसका निर्माण किया अथवा इसे लिखा ? ]।
द्वितीय
( ख ) महाक्षत्रप राजुल पुत्र क्षत्रप शोडास [ आदेश करते हैं ] [ और ] ( च ) युवराज खरवस्त, कुमार खलामस, कनिष्ठ [ सबसे छोटे भाई ] मच इसका अनुमोदन करते हैं- ( ड, ढ़ ) आचार्य बुद्धदेव के शिष्य उदयन अजमित्र ( ? ) के ( झ ) गुहाविहार के धर्मदान को। ( छ ) सर्वास्तिवादिन भिक्षु नगर निवासी बुधिल को। ( ज ) महाक्षत्रप कुसुलक के पतिक के, मेनिक के, मियक के पूजा स्वरूप ( च३ ) कामूयिय [ ने इसको लिखा ? ]।
तृतीय
( ण ) क्षत्रप शोडास [ आदेश देते हैं ] -इस प्रदेश में ( ट, ठ ) विजयोदीर्ण स्कन्धावार और पुसापुर स्कन्धावार [ में ] स्थित विजयोर्व…..परीक्षिण ( नामक पुरुष ) ने निःसीम ( स्तूप ) बनवाया और ( उसे ) सर्वास्तिवादियों को दिया ( त ) आचार्य नगर-निवासी भिक्षु बुधिल को प्रदान किया ताकि महासांधिकों को सत्य की शिक्षा दें७ ( थ ) सर्व बुद्ध की पूजा, धर्म की पूजा, संघ की पूजा। ( द ) सर्व-शक संस्थान की पूजा के निमित्त ( ध, न ) क्षत्रप खर्दक के, रक्षिल के और क्रोणिन के [ पूजा के लिए ]। (ठ १) खलमुख [ ने लिखा ? ]।
- स्टेन कोनो ने इसको इस प्रकार ग्रहण किया है-महाक्षत्रप राजुल की अग्रमहिषी, अवसिय कमुइया, युवराज खरोस्ट की पुत्री, नददियक की माता। इस अर्थ के प्रस्तुत करने में उनका तर्क यह है कि नददियक का नाम अग्रमहिषी से दूर है। किन्तु यह कोई तर्क नहीं है। संगत क्रम यही है कि पूर्व सम्बन्धियों का उल्लेख कर तब अपने नाम का परिचय दिया जाय।५
- पंक्ति १३ का पाठ स्पष्ट नहीं है।६
- इस पंक्ति का अर्थ बहुत स्पष्ट नहीं है।७
विश्लेषण
क्रमबद्ध पंक्तियों के अभाव में लेख व्यवस्थित ढंग से नहीं पढ़ा जा सका है। यद्यपि निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता, परन्तु प्रतीत होता है कि इसमें तीन स्वतन्त्र लेख हैं इसी रूप में विद्वानों ने मथुरा सिंह स्तम्भशीर्ष अभिलेख का अनुवाद प्रस्तुत किया है।
प्रथम लेख से प्रकट होता है कि महाक्षत्रप राजुल ( रजुबुल ) की अग्रमहिषी ने अपने कतिपय सम्बन्धियों के सहयोग से बुद्ध के अवशेष पर स्तूप का निर्माण करवाया था। साथ ही यह भी प्रकट होता है कि स्तूप और संघाराम को उसने सर्वास्तिवादी सम्प्रदाय को भेंटस्वरूप प्रदान किया था।
द्वितीय और तृतीय लेख महाक्षत्रप राजुल के पुत्र क्षत्रप शोडास की प्रज्ञप्ति है।
द्वितीय अभिलेख से विदित होता है कि आचार्य बुद्धदेव [ के शिष्य ] उदयन अजमित्र ने कोई गुहाविहार सर्वास्तिवादी भिक्षु नगर (नगरहार, आधुनिक जलालाबाद) निवासी बुधिल को धर्मदान में दिया था। इसी प्रकार तीसरे लेख से भी किसी व्यक्ति द्वारा स्तूप बनवाये जाने की बात ज्ञात होती है। उसे भी उन्हीं सर्वास्तिवादी भिक्षु नगर ( नगरहार, आधुनिक जलालाबाद ) निवासी बुधिल को दिया था।
इस तृतीय अभिलेख में महासांघिक का भी उल्लेख है। यह उल्लेख यहाँ किस भाव से किया गया है, अस्पष्ट है।
सर्वास्तिवादी और महासांघिक दोनों ही बौद्ध सम्प्रदाय हैं।
सर्वास्तिवादी-सम्प्रदाय के संस्थापक राहुलभद्र कहे जाते हैं। इनके साहित्य की रचना संस्कृत में हुई है। आरम्भ में इसका केन्द्र मथुरा था। तदनन्तर गन्धार और कश्मीर उसके केन्द्र बने। इस सम्प्रदाय के दर्शन और अनुशासन-सिद्धान्त प्रायः प्राचीन थेरवाद के समान ही हैं। दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि सर्वास्तिवादियों का कहना है कि जीव पाँच धर्मों में बना है जो ७५ तत्त्वों में विभक्त है। ये तत्त्व प्रत्येक व्यक्ति के भीतर उसके समस्त जीवन में उपस्थित रहते हैं। उसकी वर्तमान स्थिति अतीत का परिणाम है और वर्तमान उसके भविष्य का आधार है। इस सम्प्रदाय के अनुसार अनित्य से बुद्ध का तात्पर्य तत्त्वों के संयुक्त रूप से था, मात्र तत्वों से नहीं। सर्वास्तिवादी बोधिसत्त्व के सिद्धांत को स्वीकार करते थे और जातकों पर उनका विश्वास था किन्तु साथ ही वे यह भी मानते थे कि एक कल्प में एक ही व्यक्ति बुद्ध हो सकता है।
महासांघिक सम्प्रदाय के संस्थापक महाकस्सप कहे जाते हैं। आरम्भ में उसका केन्द्र वैशाली था पश्चात् उसका प्रसार उत्तर भारत में हो गया था। इनके ग्रन्थ पाली भाषा में थे। इनके भी दार्शनिक सिद्धान्त थेरवाद के अत्यन्त निकट थे। इसमें मुख्य अन्तर यह था कि इसमें बुद्ध को देवत्व प्रदान किया गया है और उन्हें लोकोत्तर बताया गया है। अत: उनका कहना है कि बुद्ध के रूप में जो अवतरित हुआ वह उनकी छाया मात्र था। उनका यह भी कहना था कि अर्हत-पद पूर्ण निर्वाण नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को बुद्धत्व की आकांक्षा करनी चाहिए, थेरा-वादियों की तरह मात्र अर्हत-पद की नहीं। इस प्रकार महासांघिकों के प्रयास के परिणामस्वरूप बुद्ध के प्रतीकों के स्थान पर बुद्ध की मूर्ति की उपासना आरम्भ हुई और उनकी मूर्तियाँ बनीं।
इस प्रकार दोनों सम्प्रदायों में स्पष्टतः तात्त्विक मतभेद रहे हैं। हो सकता है उन्होंने मतभेदों को दृष्टिगत रखते हुए सर्वास्तिवादी भिक्षु बुधिल को महासांघिकों के विरुद्ध प्रचार करने को कहा गया हो।
सम्प्रति इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि शक नरेशों पर बौद्धधर्म का काफी प्रभाव छा गया था और सर्वास्तिवादियों को उनका संरक्षण प्राप्त था।
राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से इस लेख से प्रकट होता है कि मथुरा पर शकों का अधिकार था और महाक्षत्रप राजुल सम्भवतः मथुरा का पहला शक शासक था। उसके समय में उसका पुत्र शोडास क्षत्रप था। इस अभिलेख से राजपरिवार के स्वरूप और शासन व्यवस्था की भी एक झलक प्राप्त होती है। रजवुल या राजुल का उत्तराधिकारी शोडास हुआ क्योंकि मथुरा आयागपट्ट अभिलेख में उसके लिए महाक्षत्रप शब्द का प्रयोग मिलता है।
द्वितीय अभिलेख की प्रज्ञप्ति क्षत्रप शोडास की है किन्तु उस पर युवराज खरवस्त; कुमार खलमस और छोटे भाई मज का भी अनुमोदन है। इससे ज्ञात होता है कि शासन में सभी राजकुमार भाग लेते थे और उनकी अपनी-अपनी पद-मर्यादा थी। कदाचित् सबसे बड़ा राजकुमार क्षत्रप, दूसरा युवराज और तीसरा कुमार कहा जाता था। उनसे छोटे के लिए कोई उपाधि न थी।
पहले अभिलेख में अग्रमहिषी ने युवराज खरवस्त का उल्लेख किया है। उसमें क्षत्रप शोडास का नाम नहीं है। इससे ऐसा ध्वनित होता है कि शोडास उनकी सन्तान न होकर किसी अन्य रानी की सन्तान था। इससे यह भी प्रकट होता है कि क्षत्रप-पद का अधिकारी ज्येष्ठ पुत्र होता था, आवश्यक न था कि वह अग्रमहिषी का ही पुत्र हो।
कुछ लोगों ने युवराज खरवस्त की पहचान कतिपय सिक्कों पर अंकित खरोष्ठ से करने की चेष्टा की है। पर सिक्कों पर अभिलेख है-क्षत्रपस खरओष्ठ अर्तस पुत्रस। इससे स्पष्ट है कि खरओष्ठ अर्त का पुत्र था। अर्तपुत्र खरओष्ठ को अभिलेख का युवराज खरवस्त अनुमान करने के मूल में स्टेन कोनो की यह कल्पना है कि वह राजुल की अग्रमहिषी का पिता था। यदि ऐसा होता तो दूसरे अभिलेख में क्षत्रप शोडास की प्रज्ञप्ति में शोडास के भाइयों के साथ उसका कदापि उल्लेख न होता।
इसी प्रकार खण्ड छ ( अभिलेख २ ) में उल्लिखित कुसुल, पतिक और मेवकि को तक्षशिला से प्राप्त एक ताम्रलेख ( तक्षशिला ताम्रलेख ) में अंकित व्यक्ति अनुमान किया जाता है। उसमें अंकित मोग से मेवकि की और क्षत्रप कुसुल से कुसुल की और उसके पुत्र पतिक से पतिक की पहचान की जाती है। किन्तु नाम साम्य होते हुए भी इस पहचान के सम्बन्ध में द्रष्टव्य यह है कि इस स्तम्भ-शीर्ष-लेख में शोडास को क्षत्रप कहा गया है और मथुरा से ही प्राप्त एक अन्य अभिलेख में, जो अज्ञात संवत् ७२ का है उसका उल्लेख महाक्षत्रप के रूप में हुआ है। इसका अर्थ यह हुआ कि यह स्तम्भ-शीर्ष-लेख उक्त अज्ञात (शक?) संवत् ७२ से पूर्व का है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए देखना यह है कि इस स्तम्भ-शीर्ष-लेख में कुसुल को महाक्षत्रप कहा गया है जब कि उक्त तक्षशिलावाले ताम्र-लेख में, जो इससे बहुत बाद [ अज्ञात ( शक ) संवत् ७८ ] का है, कुसुल मात्र क्षत्रप है। अत: स्पष्ट है कि तक्षशिला ताम्र-लेख के कुसुल और सिंह-शीर्ष के कुसुल एक नहीं हो सकते।
कुछ विद्वान इस सिंह-शीर्ष-लेख के कुसुल और पतिक दोनों को मिलाकर एक व्यक्ति का नाम मानते हैं, और इसे सवंत् ७८ वाले अभिलेख के सन्दर्भ के साथ कुसुलक पुत्र पतिक कहते हैं। इस अवस्था में भी उपर्युक्त कठिनाई सामने आती है। महाक्षत्रप कुसुल पतिक का उल्लेख उक्त लेख में बिना किसी उपाधि के केवल महादानपति के रूप में हुआ है। अतः एक अन्य सुझाव यह है कि इस अभिलेख का कुसुलक पतिक संवत् ७८ लेख के लियक कुसुलक का पिता और पतिक का पितामह होगा, पर इस कल्पना के लिए भी प्रमाण अपेक्षित है।