भूमिका
बड़वा-यूप अभिलेख राजस्थान प्रान्त के बरन जिले में बढ़वा नामक स्थान पर मिला है। इसमें चार लघु अभिलेख मिले हैं। ये अभिलेख प्राकृत से प्रभावित संस्कृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में है। यह प्रारम्भिक मौखरियों के इतिहास से सम्बन्धित है।
संक्षिप्त परिचय
नाम :- बड़वा-यूप अभिलेख
स्थान :- बड़वा, बरन जनपद, राजस्थान ( Barwa, Baran district, Rajasthan )
भाषा :- संस्कृति
लिपि :- ब्राह्मी
समय :- तृतीय शताब्दी ई० ( २३८ ई० )
विषय :- मौखरि वंश द्वारा वैदिक यज्ञों का कराने का विवरण
बड़वा-यूप अभिलेख : मूलपाठ
एक
१. सिद्धं [ । ] कृतेहि २०० [ + ] ६० [ + ] ५ फाल्गुण शुक्लस्य पञ्चे दि० [ । ] श्री महासेनापतेः मौखरे: बल-पुत्रस्य बलवर्द्धनस्य यूपः [ । ] त्रिरात्र-संमितस्य दक्षिण्यं गवा सहस्रं [ । ]
दो
१. सिद्धं [ । ] क्रितेहि २०० [ + ] ६० [ + ] ५ फाल्गुण शुक्लस्य पञ्चे दि० [ । ] श्री महासेनापतेः मोखरे: बल-पुत्रस्य सोमदेवस्य यूपः [ । ] त्रिरात्र-संमितस्य दक्षिण्यं गवां सहस्रं [ । ]
तीन
१. क्रितेहि २०० [ + ] ६० [ + ] ५ फाल्गुण शुक्लस्य पञ्चे दि० श्रीमहासेनापते: मोखेर-
२. र्बलपुत्रस्य बलसिंहास्य यूपः [ । ] त्रिरात्र संमितस्य दक्षिण्य गवां सहस्रं [ । ]
चार
१. मोखरेर्हस्तीपुत्रस्य धनुर्वातस्य धीमतः [ । ] अप्तोर्य्यामाछ कृतो: यूप [ । ] सहस्रोगव दक्षिणा [ : ] [ । ]
हिन्दी अनुवाद
एक
१. सिद्धम्। कृत [ संवत् ] २९५ फाल्गुन शुक्ल पंचमी [ का दिन ]। श्री महासेनापति मौखरी बल के पुत्र बलवर्धन का यूप। त्रिरात [ यज्ञ ] के निमित्त १००० गाय दक्षिणा।
दो
२. सिद्धम्। कृत [ संवत् ] २९५ फाल्गुन शुक्ल पंचमी [ का दिन ]। श्री महासेनापति मौखरी बल के पुत्र सोमदेव का यूप। त्रिरात्र [ यज्ञ ] के निमित्त १००० गाय दक्षिणा।
तीन
३. सिद्धम्। कृत [ संवत् ] २९५ फाल्गुन शुक्ल पंचमी [ का दिन ]। श्री महासेनापति मौखरी बल के पुत्र बलसिंह का यूप। त्रिरात्र [ यज्ञ ] के निमित्त १००० गाय दक्षिणा।
चार
मौखरी हस्ति के पुत्र धीमतः ( विद्वान् ) धनुर्वात द्वारा किये गये अप्तोर्य्याम [ यज्ञ ] का यूप। हजार गाय की दक्षिणा ।
महत्त्व
बड़वा-यूप अभिलेख वैदिक यज्ञों से सम्बन्ध रखते हैं। वैदिक युग में गृहस्थों के लिए नियमित रूप में यज्ञ करने का विधान था। इन यज्ञों का महत्त्व बहुत काल बाद तक बना हुआ था और लोग समय-समय पर वैदिक यज्ञ कराते रहते थे, यह बात इन शिला-यूप-अभिलेखों के अतिरिक्त कुछ अन्य शिला-यूपों पर अंकित अभिलेखों से भी ज्ञात होती है जो ईसापुर ( मथुरा ), कौशाम्बी और नाँदसा से प्राप्त हुए हैं।
वैदिक यज्ञों के निमित्त मूलतः लकड़ी के बने यूप खड़ा करने का विधान था। लकड़ी के यूपों के निर्माण-विधि का उल्लेख कात्यायन श्रौत सूत्र में हुआ है। उसके अनुसार केवल वाजपेय यज्ञ के यूप की लम्बाई निश्चित थी अन्य यज्ञों के यूपों की लम्बाई के सम्बन्ध में कोई निर्धारित नियम न था।
गृह-सूत्रों और धर्म-सूत्रों में यूपों का स्पर्श निषिद्ध बतलाया गया है। वशिष्ठ, बौधायन, विष्णु और आश्वलायन के अनुसार यूपों का स्पर्श शव अथवा ऋतुमती स्त्री के स्पर्श के समान था। हिरण्यकेशी गृह-सूत्र का कहना था कि यूप के स्पर्श से यज्ञ में हुई त्रुटियों का दोष लगता है।
इस प्रकार मूलतः यूप एक निषिद्ध वस्तु थी; किन्तु इन यूपों से ऐसा लगता है कि इस काल तक वैदिक यज्ञों के यूपों के सम्बन्ध में अपृश्यता सम्बन्धी यह धारणा समाप्त हो गयी थी और लोग अपने यज्ञों के स्मृतिस्वरूप काष्ठ के स्थान पर शिला के यूप बनाकर अभिलेख अंकित कराने लगे थे।
उपर्युक्त चार यूपों में से प्रथम तीन को, उन पर अंकित अभिलेखों के अनुसार तीन सगे भाइयों बलवर्धन, सोमदेव तथा बलसिंह ने एक ही दिन अलग-अलग खड़ा किया था और वे त्रिरात्र यज्ञ के स्मारक हैं।
तैत्तिरीय संहिता में बतलाया गया है कि त्रिरात्र यज्ञ को वसु, रुद्र और आदित्यों के निमित्त करके प्रजापति ने त्रैलोक्य प्राप्त किया था। शांखायन श्रौत सूत्र के अनुसार त्रिरात्र यज्ञ द्वारा लोक और परलोक दोनों में त्रिविध प्राप्त किया जा सकता है।
वैदिक काल में सोमयज्ञ अत्यन्त प्रसिद्ध था, जो संख्या में सात थे और सप्तसोम संस्थ कहे जाते थे। उनके नाम हैं- अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशिन्, वाजपेय, अतिरात्र और अप्तोर्याम।
वैदिक धर्म के उत्थान काल में ये यज्ञ अत्यन्त लोक-प्रचलित थे और गृहस्थों द्वारा प्रायः उपनयन और अन्त्येष्टि के अवसर पर किये जाते थे। त्रिरात्र यज्ञ इन्हीं यज्ञों में से तीन अग्निष्टोम, उक्थ्य और अतिरात्र यज्ञों का संयुक्त रूप था। उसको गर्भ-त्रिरात्र भी कहते थे। यदि इस यज्ञ में दूसरे दिन अश्व की हवि दी जाती थी तो उसे अश्वित्रिरात्र कहते थे। सप्तसोम यज्ञों में प्रमुख अग्निष्टोम था, उसका यह नामकरण उसके अन्तिम १२ मन्त्रों के, जिन्हें अनिष्टोमसामन कहा गया है, हुआ था। अन्य यज्ञों की इस यज्ञ से केवल कुछ छोटी-मोटी बातों में ही भिन्नता थी।
त्रिरात्र यज्ञ में दक्षिणा में एक हजार गायें दी जाती थीं। प्रतिदिन दस-दस के समूह में ३३० गायें दक्षिणा में दी जातीं और तीसरे दिन बची हुई दस गायें, जो अन्य गायों से भिन्न वर्ण की होती थीं, होतृ को दी जाती थीं। इन अभिलेखों में भी दक्षिणा में दी गयी गायों की संख्या १००० बतायी गयी है। इससे जान पड़ता है कि वैदिक विधि का यज्ञ में पूर्ण रूप से पालन किया गया था।
चौथे यूप के अभिलेख से ज्ञात होता है कि वह प्रथम तीन यूपों के संस्थापक तीन सगे भाइयों से भिन्न किसी चौथे व्यक्ति धनुर्त्रात ने स्थापित किया था। उसने अप्तोर्याम यज्ञ कराया था। यह यज्ञ सप्त-सोम-संस्था कहे जानेवाले यज्ञों में अन्तिम ( सातवाँ ) यज्ञ था और छठे सोम-संस्थ अतिरात्र यज्ञ के समान ही यह यज्ञ सारे दिन होता था और दूसरी रात्रि तक चलता रहता था। अतिरात्र यज्ञ से इसकी विशिष्टता यह थी कि उसके अन्त में चार अतिरिक्त स्तोत्र और शस्त्र होते थे।
बड़वा-यूप अभिलेख कदाचित् दो परिवारों द्वारा किये गये वैदिक यज्ञों के स्मारक। पहले तीन अभिलेखों में समान रूप से तिथि का अंकन हुआ है, चौथे अभिलेख में किसी तिथि का कोई उल्लेख नहीं है। अतः यह कहना कठिन है कि दोनों परिवारों द्वारा किये गये यज्ञ एक ही समय में किये गये थे या अलग-अलग। वस्तुतः ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार का ऊहापोह आवश्यक भी नहीं है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यज्ञों के यजमान इतने समृद्ध थे कि वे दान में एक- एक हजार गायें दे सकते थे। इससे देश की तत्कालीन समृद्धि का अनुमान किया जा सकता है।
इन अभिलेखों में उल्लिखित यजमानों के परिवार नाम मौखरी के सम्बन्ध में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। वे मुखर नामक किसी व्यक्ति के वंशज होने के कारण मौखरि या मौखरी कहलाये अथवा मौखरि ( मौखरी ) किसी जन-समूह का नाम था, दोनों ही सम्भावनाएँ हो सकती हैं।
सम्भावना जन-समूह (Tribe) का नाम होने की ही अधिक है। मालव और यौधेय की तरह ही यह जन-समूह ( Tribe ) भी आरम्भ में आयुधजीवी रहा होगा जिसके कारण वे क्षत्रिय समझे जाते थे। प्रथम बार इनका उल्लेख इन्हीं अभिलेखों में हुआ है।
प्रथम तीन अभिलेखों में यजमानों के पिता बल की उपाधि ‘महासेनापति’ से विद्वानों की धारणा है कि वह कोई अधीनस्थ सामन्त था। अनन्त सदाशिव अल्तेकर की कल्पना रही है कि वह पद्मावती के नागों अथवा उज्जैन के शक क्षत्रपों का करद रहा होगा। बल के शकों के करद होने की कल्पना के साथ उन्होंने यह भी कल्पना प्रस्तुत की है कि कदम्ब मयूरशर्मन ने जिन मौखरियों को पराजित करने की बात कही है, वे इसी बल के वंशज रहे होंगे। उनके इस अनुमान का आधार यह है कि मयूरशर्मन का शकों से संघर्ष हुआ था। पर यह उनकी मात्र कल्पना है; उनके इस कथन को गम्भीरता के साथ ग्रहण नहीं किया जा सकता। दिनेशचन्द्र सरकार भी पहले बल को उज्जैन के शक क्षत्रपों का करद समझते थे पर अब वे उसे नगरी ( मालवनगरी ) के मालवों का अधीनस्थ मानते हैं। किन्तु ‘महासेनापति’ उपाधि के आधार पर इस प्रकार की कोई कल्पना नहीं की जा सकती। इन मौखरियों के समसामयिक यौधेयों के गण-प्रमुख ने विजयगढ़ अभिलेख में अपने को ‘महासेनापति’ कहा है। यौधेय-गण के प्रमुख बहुत बाद तक अपने को महासेनापति कहते रहे और किसी सूत्र से भी यह ज्ञात नहीं होता कि यौधेय लोगों ने कभी किसी की अधीनता स्वीकार की थी।
अतः अनुमान किया जाता है कि सभी आयुधजीवी जातियों के प्रमुख अपने को सेनापति या महासेनापति कहते रहे और बल भी इसी प्रकार मौखरियों का प्रमुख था।
बल के तीनों पुत्रों के अभिलेखों के तिथि का उल्लेख कृत सम्वत् के रूप में हुआ है। कृत सम्वत् के सम्बन्ध में हरप्रसाद शास्त्री की धारणा रही है कि चार वर्षों के चक्र के पहले वर्ष का नाम कृत था। उनके इस कथन में तब तक कुछ बल माना जाता रहा जब तक कृत संवत् ४२८ और ४८० के अभिलेख ही ज्ञात थे। तब उपर्युक्त यूप लेख से २९५ कृत वर्ष ज्ञात हुआ तब स्पष्ट हो गया कि इसका सम्बन्ध चार वर्षोंवाले चक्र से नहीं है।
डी० आर० भण्डारकर का कहना था कि ज्योतिषियों ने वर्ष-गणना के लिए इसकी कल्पना की होगी इसीलिए यह कृत ( made ) कहा गया है। किन्तु कभी किसी काल में ज्योतिषियों ने अपनी गणना के लिए किसी संवत् की कल्पना की हो, इस बात का कहीं कोई उदाहरण या प्रमाण उपलब्ध नहीं है। अल्तेकर ने इस प्रसंग में गंगघर अभिलेख की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए स्पष्ट किया है कि मालव संवत् को ही कृत कहते रहे हैं। विक्रम संवत् ही मालव संवत् भी था; अतः कृत विक्रम संवत् का ही मूल नाम है।
बड़वा-यूप अभिलेख मौखरियों का सबसे प्राचीन अभिलेख माना जाता है। चक्रवर्तिन गुप्त वंश के उदय के बाद ये नेपथ्य में चले गये। गुप्तों के पतनोपरान्त इनका पुनः उदय होता है।