भूमिका
पाँचवाँ गढ़वा अभिलेख उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जनपद के बारा तहसील से गढ़वा नामक स्थल से दशावतार मन्दिर के भग्नावशेषों में प्राप्त चबूतरे के किनारे पर लगा हुआ मिला है। सम्प्रति यह भारतीय संग्रहालय, कोलकाता में संग्रहित हैं। इस अभिलेख को १८७४-७५ या १८७६-७७ में एलेक्जेंडर कनिंघम महोदय ने प्राप्त किया था। कनिंघम महोदय ने इसको १८८० ई० में प्रकाशित किया। उस समय कनिंघम महोदय ने इसका समय गुप्त सम्वत् १४० उद्वाचन किया परन्तु बाद में हुल्श महोदय ने इसका समय गुप्त सम्वत् १४८ बताया। जे० एफ० फ्लीट महोदय ने इसको सम्पादित करके Corpus Inscritionum Indicarum में प्रकाशित किया।
पाँचवाँ गढ़वा अभिलेख २’ ४” लम्बे और ७३/४” चौड़े प्रस्तर फलक पर अंकित है। यह अभिलेख भी गढ़वा से मिले कुमारगुप्त ( प्रथम ) के शासनकाल के अन्य चार अभिलेखों की तरह खंडित अवस्था में है। देखें — कुमारगुप्त प्रथम का गढ़वा अभिलेख । विद्वानों का अनुमान है कि इसका पूर्वांश लगभग इसी आकार के ही एक अन्य शिला-फलक पर अंकित रहा होगा।
संक्षिप्त परिचय
नाम :- पाँचवाँ गढ़वा अभिलेख ( Fifth Gadhwa / Garhwa Inscription ) या गढ़वा प्रस्तर अभिलेख ( Gadhwa / Garhwa Stone Inscription )
स्थान :- गढ़वा, बारा तहसील, प्रयागराज जनपद; उत्तर प्रदेश
भाषा :- संस्कृत
लिपि :- उत्तरी ब्राह्मी
समय :- गुप्त सम्वत् १४८ ( ४६७ ई० ), स्कंदगुप्त का शासनकाल
विषय :- मंदिर का जीर्णोद्धार, अनंतस्वामी के चरण की स्थापना, बडभी निर्माण की विज्ञप्ति।
मुलपाठ
१. ………… स्य प्रवर्द्धमान विजयराज्य-संव्वत्सर शतेऽष्यचत्वारिंशदुत्तरे माघमासदिवसे एकविङशतिमे।
२. ………… पुण्याभिवृद्ध्यर्थं वडभींकारपयित्वा अनन्तस्वामिपादां प्रतिष्ठाप्य गन्ध-धूप स्रग ……
३. ………… [स्फुट]-प्रतिसंस्कारकरणार्थं भगवच्चित्रकूट-स्वामिपादीय-कोष्ठे त प्रावेश्यमति
४. ………… दत्ता द्वादश [।] यैनंव्युच्छिन्द्यात्स पंचभिः महापतकै संयुक्तः स्यादिति [॥]
हिन्दी अनुवाद
१. …. के प्रवर्द्धमान शासनकाल के १४८वें वर्ष के माघ मास के २१वें दिन [।]
२. …. पुण्य की अभिवृद्धि के निमित्त वडभी बनवाकर अनन्तस्वामी के चरण को स्थापित करके गन्ध, धूप, माला …… तथा उसकी मरम्मत के निमित्त भगवान् चित्रकूट-स्वामी के कोष्ठ में [मैं] देता हूँ।
३. …. १२ […….] दिया। जो इस दान की अवहेलना करेगा उसे पंच महापातक का दोष लगेगा।
टिप्पणी
आरम्भिक अंश अनुपलब्ध होने के कारण इसमें अंकित काल १४८ गुप्त संवत् के सहारे ही कहा जा सकता है कि यह लेख स्कन्दगुप्त अथवा उसके बाद के शासक कुमारगुप्त (द्वितीय) के शासनकाल में लिखा गया होगा। अधिक सम्भावना है कि लेख स्कन्दगुप्त के काल का ही है।
लेख से ऐसा जान पड़ता है कि किसी ने बडभी बनवाकर उसमें अनन्तस्वामी के चरण की स्थापना की थी। फ्लीट ने बडभी शब्द के मूल में बलभी होने की कल्पना की है और इस शब्द के कुमारगुप्त (प्रथम) के शासन काल के मन्दसोर अभिलेख की पंक्ति ६ (श्लोक ११) में प्रयुक्त होने की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। उन्होंने इस शब्द की व्याख्या ‘छत का काष्ठ निर्मित ढाँचा’, ‘चपटी छत’, ‘भवन का सबसे ऊपरी भाग अथवा कमरा’, ‘सबसे ऊपर की मंजिल’, ‘छज्जा’, ‘प्रासाद के ऊपर बना अस्थायी निर्माण’, ‘तम्बू’ आदि किया है। प्रसंग के अनुसार उन्होंने अनुमान किया है कि इसका तात्पर्य देवालय के किसी रूप से होगा। अतः यहाँ उन्होंने सपाट छतवाले मन्दिर की कल्पना की है।
कैलास-तुङ्ग-शिखर-प्रतिमानि चान्या-
न्याभान्ति दीर्घ-बलभी–
नि सवेदिकानि।
गान्धर्व्व-शब्द-मुखरानि निविष्ट-चित्र-
कर्म्माणि लोल-कदली-वन-शोभितानि [ ॥ ११ ]
— मंदसौर अभिलेख ।
‘अनन्तस्वामी-पाद’ का तात्पर्य सम्भवतः भगवान विष्णु-पद से है। जान पड़ता है कि भगवान विष्णु की मूर्ति के विकसित हो जाने के बावजूद प्रतीक पूजा का महत्त्व इस काल तक बना हुआ था।
‘चित्रकूटस्वामी-पाद—कोष्ठ’ का तात्पर्य है — चित्रकूट प्रयागराज से लगभग १२० किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम, बाँदा से लगभग ७० किलोमीटर दक्षिण-पूर्व स्थित एक प्रख्यात पर्वतीय स्थल है। कहा जाता है कि यहाँ श्रीराम अपने वनवास काल में यहाँ रहे थे। अतः इस स्थान की ख्याति तीर्थ-स्थल के रूप में है। सहज अनुमान किया जा सकता है कि चित्रकूट-स्वामी का तात्पर्य यहाँ श्रीराम से है और ‘चित्रकूटस्वामी-पाद’ से किसी ऐसे मन्दिर से तात्पर्य है जिसमें भगवान राम की चरण पादुका प्रतिष्ठित रही होगी।
कोष्ठ का सीधा-सादा अर्थ ‘कोठार’ (वह स्थान जहाँ सुरक्षित रूप से सम्पत्ति रखी जाती है) है। यहाँ इसका तात्पर्य सम्भवतः खजाने से है। प्राचीन काल में अनेक धार्मिक-स्थल आधुनिक बैंक का काम करते थे जहाँ अक्षयनीवि के रूप में स्थायी रूप से धन जमा किया जाता था, और उस धन से सूद के रूप में होनेवाली आय, धन जमा करने वाले की इच्छानुसार निश्चित कार्य में व्यय किया जाता था। इस प्रकार का कार्य चित्रकूट स्वामी पाद करता रहा होगा और उसका जो विभाग यह कार्य करता होगा वह कोष्ठ कहा जाता होगा।
‘अनन्तस्वामी-पाद‘ के प्रतिष्ठापक ने उनके पूजा-अर्चना तथा मन्दिर की मरम्मत के निमित्त कुछ धन राशि जमा की थी। उसी बात को उसने इस लेख द्वारा प्रकाशित किया है।