नन्दपुर ताम्र-लेख; गुप्त सम्वत् १६९ ( ४८८ ई० )

भूमिका

नन्दपुर ताम्र-लेख १६२९ ई० में कलकत्ता के गणपति सरकार को मुँगेर (बिहार) जिला अन्तर्गत सूरजगढ़ा से दो मील उत्तर-पूर्व नन्दपुर नामक ग्राम स्थित एक जीर्ण मन्दिर के ताक में जड़ा एक ताम्र- फलक मिला था। उसी पर यह लेख अंकित था। इसे न० ज० मजूमदार ने प्रकाशित किया। हाल में मजूमदार द्वारा व्यक्त विचारों की श्रीधर वासुदेव सोहोनी ने आलोचना प्रस्तुत की है।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- नन्दपुर ताम्र-लेख

स्थान :- मुंगेर जनपद, बिहार

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- दक्षिणी ब्राह्मी

समय :- गुप्त सम्वत् १६९ (४८८:ई०); बुधगुप्त का शासनकाल

विषय :- अक्षयनीवी दान से सम्बन्धित

मूलपाठ

१. स्वस्त्य[म्बि]लग्रामाग्रहारात्मविश्वासमधिकरणाम् जङ्गोयिका ग्रामे ब्राह्मणोत्तरान्संव्यवहा- २. र्यादिकुटुम्बिनः कुशलमनुवर्ण्य बोधयन्ति लिखन्ति च [।] विज्ञापयति नः विषयपति छत्रमहः

३. इच्छाम्यहं स्वपुण्याभिवृद्धये नन्दवैथेय-खटापूरणाग्रहारिक-छान्दोग काश्यप सगोत्र- ब्राह्मणा-

४. ……. स्वामिने पञ्च-महायज्ञ-प्रवर्त्तनाम खिलक्षेत्र-कुल्यवाप-चतुष्टयं क्रीत्वातिस्रष्टुम्[।]

५. युष्मद्विषये च समुदयबह्याद्यस्तम्ब खिल-क्षेत्राणां शश्वदाचन्द्रार्कतारक भोज्या[ना]-

६. मक्षय-नीव्या द्विदीनारिक्य-कुल्यवाप विक्रयो(ऽ) नुवृत्तस्तदर्हथ मत्तो-(ऽ)ष्टौ दीनारानुप-

७. संगृह्य जङ्गोयिका-ग्रामे खिलक्षेत्र-कुल्यवाप-चतुष्टयमक्षय-नीव्यास्ताम्रपट्टेन दातुमिति[।]

८. यतः पुस्तपाल प्रद्योतसिं[ह]-बन्धुदासयोरवधारणयावधृतमस्तीहविषये समुदय-

९. बाह्यास्तम्ब-खिल क्षेत्राणामकिञ्चित्प्रतिकराणां     द्विदीनारिक्य-कुल्यवाप-विक्रयो(ऽ)-

नुवृत्तः[।]

१०. एवम्विधोत्प्रतिकर-खिलक्षेत्र-विक्रये च न कश्चिद्राजार्थं विरोधः दीयमाने तु परमभट्टारक- ११. पादानां धर्म्म-षड्भागावाप्तिस्तद्दीयतामित्येतस्माद्विषयपति छत्रमहादष्टौ दीनारानुप-

१२. संगृह्य जङ्गोयिका-ग्रामे गोरक्षित-ताम्रपट्ट-दक्षिणेन गोपालिभोगायाः पश्चिमेन खिल-

१३. क्षेत्र कुल्यवाप-चतुष्टयं दत्तम् [।]कु ४ [ते यूयमेवं विदित्वा कुटुम्बिनां कर्षणाविरोधि-

स्थाने

१४. दर्व्वीकर्म्म-हस्तेनाष्टक-नवक-नलाभ्यामपविञ्छ्य   चिरकाल-स्थायि-तुषाङ्गारादि-

चिह्नैश्चतुर्द्दि-

१५. ङ्निप्रमिर्ति-संमानं कृत्वा दास्यथ [।] दत्वा चाक्षयनीवी-धर्मेण शश्वत्कालमनुपालयि-

ष्यथ[।]

१६. वर्त्तमान-भविष्यैश्च संव्यवहारिभिरेतद्धर्म्मापेक्षयानुपालयितव्य-मिति [।] उक्तञ्च भग-

१७.                 [वता] [व्या]से[न] [।]

स्व-दत्तां परदत्तां वा यो हेरत वसुन्धरां[।]

स विष्ठायां कृमिर्भूत्वा पितृभिः सह

१८.                 पच्यते [॥]

[षष्टि] वर्ष-सहस्राणि स्वर्गे मोदति भूमिदः [।]

आक्षेप्ता चानुमन्ना च तात्येव न-

१९.             रके वसेत् [॥]

सं १०० (+) ६० (+) ९ वै-शुदि ८ [॥]

हिन्दी अनुवाद

स्वस्ति। अम्विल ग्राम के अग्रहार से अधिकरण के लोग जंगोयिका ग्राम के ब्राह्मण, संव्यवहारी और कुटुम्बियों की कुशल कामना करते हुए कहते और लिखते हैं —

विषयपति छत्रमह ने अपनी पुण्य-वृद्धि के लिये नन्द-वीथी स्थित खटापूरणा के अग्रहारिक छान्दोग[चरण] के काश्यपगोत्री ब्राह्मण …… स्वामी को पंच-महायज्ञ के निमित्त चार कुल्यवाप खिल-क्षेत्र खरीदकर [अग्रहार की] सृष्टि करने की इच्छा प्रकट की है और कहा है कि इस विषय में समुदयबाह्य, आद्यस्तम्ब (झाड़ियों से भरी हुई), खिल-क्षेत्र, जब तक चन्द्र-सूर्य-तारे रहें तब तक भोग के निमित्त अक्षय-नीवी के रूप में दो दीनार प्रति कुल्यवाप की दर से विक्रय की जाती है। अतः इसके निमित्त [मुझसे] आठ दीनार लेकर जंगोयिका ग्राम में चार कुल्यवाप अक्षय-नीवी का ताम्रपट लिखकर दिया जाय।

अतः पुस्तपाल प्रद्योतसिंह और बन्धुदास से जाँच करने पर ज्ञात हुआ कि इस विषय में समुदयबाह्यआपस्तम्ब, खिल-क्षेत्र, जिससे कोई प्रतिकर प्राप्त नहीं होता, दो दीनार प्रति कुल्यवाप की दर से विक्रय की जाती है। इस प्रकार अप्रतिकर खिल-क्षेत्र के विक्रय किये जाने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है वरन् इससे परमभट्टारक के पाद को धर्म के छठे अंश की प्राप्ति ही होती है।

अतः विषयपति छत्रमह से आठ दीनार लेकर जंगोयिका ग्राम में चार कुल्यवाप खिल-क्षेत्र दिया गया जिसके दक्षिण में ताम्रपट्ट द्वारा दी गयी। भूमि और पश्चिम में गोपाली द्वारा भोगी जानेवाली भूमि है।

यह बात आप सबको ज्ञात हो कि कुटुम्बियों की खेतिहर भूमि से अलग (कुटुम्बिनाकर्षणाविरोधी) स्थान में दव-कर्म के अनुसार हाथ से ८६ नल नापकर स्थायी रूप से तुषार अंगार आदि से चारों ओर समान रूप से चिह्न लगाकर भूमि दी गयी।

[यह भूमि] अक्षय-नीवी-धर्म के अनुसार शाश्वत काल के लिये दी गयी। वर्तमान और भावी संव्यवहारी धर्म समझकर इसका परिपालन करें।

भगवान् व्यास ने कहा है —

अपनी अथवा दूसरों की दी हुई भूमि का जो अपहरण करता है वह पितरोंसहित विष्ठा का कीड़ा होता है।

भूमि-दान करनेवाला छः हजार वर्ष तक स्वर्ग का उपयोग करता है और उसका अपहरण करनेवाला तथा उसमें सहयोग करनेवाला उतने ही काल तक नरक में वास करता है। संवत् १६९ वैशाख शुदि ८।

शंकरगढ़ ताम्र-लेख; गुप्त सम्वत् १६६ (४८५ ई०)

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