भूमिका
तख्तेबाही अभिलेख पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के मरदान जनपद में है। यह अभिलेख खरोष्ठी लिपि और प्राकृत भाषा में लिखा हुआ है। इस अभिलेख के शिला का प्रयोग पीसने के लिए सिल के रूप में होता था जिसके कारण इसकी तीसरी, चौथी और पाँचवीं पंक्तियाँ घिस गयी हैं और उनका पाठ अनेक स्थलों पर संदिग्ध है। यह अभिलेख लाहौर संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है।
तख्तेबाही अभिलेख : संक्षिप्त परिचय
नाम :- तख्तेबाही अभिलेख या तख्त-ए-बाही अभिलेख ( Takht-i-Bahi Inscription ) या गोण्डोफरनीज का तख्त-ए-बाही अभिलेख ( Takht-i-Bahi Inscription of Gondopohernees )
स्थान :- मरदान जिला, खैबर पख्तूनख्वा प्रांत, पाकिस्तान ( Mardan, Khyber-Pakhtunkhwa, Pakistan )
भाषा :- प्राकृत
लिपि :- खरोष्ठी
समय :- प्रथम शताब्दी ई०
विषय :- राजा द्वारा अपने माता-पिता के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए दान का विवरण
विशेष :- तख्त-ए-बाही एक विश्व धरोहर स्थल है। तख्त-ए-बाही का शाब्दिक अर्थ है – ‘पानी के झरने का सिंहासन’ ( throne of the water spring. )। गोण्डोफरनीज / गोण्डोफर्नीज ( Gondophernees ) पह्लव शासक था और तख्तेबाही अभिलेख उसके सम्बन्ध में सूचना देनेवाला एकमात्र अभिलेख है।
तख्तेबाही अभिलेख : मूलपाठ
१. महरयस गुदुव्हरस वष २० [ + ] ४ [ + ] १ [ + ] १
२. संब [ त्सरए ] [ ति ] शतिमए १ [ + ] १०० [ + ] १ [ + ] १ [ + ] १ वेशखस मसस दिवसे
३. [ प्रठमे ] [ पुञे ] [ ब ] [ ह ] ले पक्षे बलसमिस [ बो ] यणस
४. [ परि ] वर शध-दण स-पुअस केणमिर बोअणस
५. एर्झुण कप …… स पुअए [ । ] मदु-
६. पिदु पुअए [ । ]
संस्कृत छाया
महरजस गुदुह्वरस्य राज्य वर्षे २६ सम्वत्सरे १०३ वैशाखस्य मासस्य प्रथमे दिवसे पुण्य बहुल पक्षे बलस्वामिने वोयनस्य प्राकारः श्रद्धा दानं सुपुत्रस्य केनमिर वोयनस्य एर्झुन कपस्य च पूजायै, मातापित्रोः पूजायै ( समाननाय )।
हिन्दी अनुवाद
महाराज गुदुव्हर ( गुदूफर ) के राज्य वर्ष २६१ [ तथा ] संवत् १०३२ के वैशाख मास के प्रथम पुण्य दिवस बहुल पक्ष३ में बोयण के परिवार४ के बलस्वामी५ का यह श्रद्धा-दान पुत्रों सहित केनमिर-बोयन और एर्जुन६ ( कुमार ) कम के पुजा ( सम्मान ) के लिए, माता-पिता के पूजा ( सम्मान ) के लिए है।
- यहाँ खरोष्ठी की अंक-पद्धति के अनुसार २६ के लिए २० और उसके बाद ६ के लिए ४, १, १, लिखा गया है।१
- इसमें १०० के बोध के लिए सौ के चिह्न से पूर्व १ का अंकन उल्लेखनीय है। तीन के लिए तीन बार १ का प्रयोग हुआ है।२
- बहुल पक्ष शुक्ल पक्ष के लिए प्रायः लेखों में प्रयुक्त पाया जाता है।३
- बलस्वामी बोयन के क्रम में व्यक्तिवाचक अनुमान किया जा सकता है। किन्तु आगे उल्लिखित केनमिर-बोयन को देखते हुए संस्कृतनिष्ठ भारतीय नाम की सम्भावना नहीं जान पड़ती है। अतः यहाँ बलस्वामी विशेषण ही जान पड़ता है और वह सम्भवतः पदबोधक है और इसका अभिप्राय सेनापति से है।४
- मूल पाठ [ परि ] वर के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो परिवार के निकट है। इसका सीधा-सादा अर्थ कुल न लेकर स्टेन कोनो ने enclosure, enclosed hall, chapter अथवा chapel किया है। दिनेशचन्द्र सरकार ने उसे प्राकार के अर्थ में ग्रहण किया है और उसका अभिप्राय क्षुद्रवास-गृह बताया है।५
- इस एर्जुन उपाधि का प्रयोग मथुरा से प्राप्त एक बुद्धमूर्ति अभिलेख में भी हुआ है।६
तख्तेबाही अभिलेख : विश्लेषण
इस अभिलेख में महाराज गुदुव्हर ( गुदूफर ) का उल्लेख है जो दक्षिणी अफगानिस्तान का पह्लव शासक था। उसने सिन्धु घाटी तक अपने राज्य का विस्तार किया था।
- ईसाई अनुश्रुतियों के अनुसार यह भारत और पार्थिया के सन्त थॉमस का समकालिक कहा जाता है। सन्त थॉमस का भारत में आगमन गोण्डोफर्नीज के शासनकाल में हुआ था। वे ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए आये थे। बाद में वे दक्षिण भारत चले गये थे। ईसाई अनुश्रुतियों के अनुसार दक्षिण भारत में उनकी हत्या कर दी गयी। सन्त थॉमस ईसा मसीह के १२ शिष्यों में से एक थे।
गुदुव्हर के सिक्के भी बड़ी मात्रा में प्राप्त होते हैं और उनके आधार पर वह अय ( द्वितीय ) ( Azes II ) का उत्तराधिकारी अनुमान किया जाता है।
इस लेख को विशेषता यह है कि इसमें गुदुव्हर के राजवर्ष के साथ-साथ एक अन्य संवत्सर का भी उल्लेख ठीक उसी प्रकार हुआ है जिस प्रकार परवर्तीकालीन गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल के मथुरा स्तम्भलेख में हुआ है। इस संवत्सर का आरम्भ कब हुआ अभी तक निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता। लोग इसे मथुरा के शोडाससकालीन अभिलेख के सम्वत् ७२ और पतिक के तक्षशिला ताम्रलेख के सम्वत् ७८ के क्रम में ही अनुमान करते रहे हैं।
दूसरी ओर डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त जी की धारणा है कि यह इन दोनों अभिलेखों के क्रम में न होकर बाजौर अस्थि-मंजूषा अभिलेख के वर्ष ६३ के क्रम में है। इस धारणा का आधार उक्त अभिलेख में उल्लिखित अप्रचराज विजयमित्र और इत्रवर्मन के साथ कतिपय सिक्कों पर अंकित अपचराज इत्रवर्मन और उसके पिता विजयमित्र की पहचान है। इत्रवर्मा के पुत्र के रूप में अस्पवर्मा का उल्लेख कुछ सिक्कों पर हुआ है और वह अय-द्वितीय और गुदूफर के अन्तर्गत स्त्रतग ( Stratogas ) के रूप में जाना-पहचाना है। इस प्रकार हमारे सम्मुख एक क्रम में तीन अप्रचराज इस प्रकार हैं —
विजयमित्र = अय — वर्ष ६३
⇓
इत्रवर्मा
⇓
अस्पवर्मा = गुदूफर = ७७ ( १०३-२६ = ७७ ) (अज्ञात संवत्)
अय वर्ष ६३ में जब बाजौर मंजूषा प्रतिष्ठापित की गयी उस समय इत्रवर्मा कुमार था और उस समय तक उसके पिता विजयमित्र के शासन के २५ वर्ष हो चुके थे। अतः यह सहज अनुमान किया जा सकता है कि एक-दो वर्ष के भीतर ही वह अप्रचराज हुआ होगा। उस समय वह स्वयं काफी वयस्क रहा होगा। यह अनुमान करना अनुचित न होगा कि उसका पुत्र अस्पवर्मा भी उस समय तक युवा हो गया होगा। इस प्रकार वह किसी भी समय अय (द्वितीय) और उसके बाद गुदूफर के अधीन स्त्रतग हो सकता था।
गुदूफर का शासन वर्ष ७७ में आरम्भ हुआ था पर आवश्यक नहीं कि शासक होने के साथ ही उसने अय के राज्य-क्षेत्र पर अधिकार किया हो। इस प्रकार स्पष्ट है कि तख्तेबाही के इस अभिलेख की तिथि को बाजौर अस्थि-मंजूषा अभिलेख के क्रम में सहज भाव से आँका जा सकता है।
इस लेख की पाँचवीं पंक्ति के आरम्भ में एर्झण शब्द आया है, जो स्टेन कोनो के मतानुसार कुमार का बोधक है। इस शब्द के आगे राजकुमार का नाम अनुमान किया जाता है और उसके प्रथम दो अक्षर कप के रूप में पढ़े जाते हैं। स्टेन कोनो ने इस नाम की पूर्ति कप [ ष ] स के रूप में करने की चेष्टा की है और कुमार कपषस की पहचान कुषाण कदफिस ( प्रथम ) ( कुजूल कदफिस ) के रूप में की है। उनके इस कथन से गुदुव्हर और कुषाणों के बीच एक सीधा सम्बन्ध होने की बात प्रकट होती है। इससे इस लेख का महत्त्व बढ़ जाता है।
किन्तु वस्तुत: कप और स के बीच आठ अक्षरों का स्थान खाली है। स्टेन कोनो का कहना है कि पत्थर के रुखड़े होने के कारण यह स्थान खाली छोड़ दिया गया होगा। यदि स्टेन कोनो के इस कथन को महत्त्व दिया जाय तो इस लेख के तिथि क्रम में ही अगले लेख को भी देखा जा सकता है; तब इस लेख में अंकित वर्ष के अय-वर्ष होना निश्चित हो जाता है।
इस अभिलेख में श्रद्धा-दान की बात है। श्रद्धा-दान क्या था और किसको दिया गया यह स्पष्ट नहीं है। श्रद्धा-दान से पूर्व अभिलेख में परिवारशब्द आया है, जिसको वोयणस परिवार ( बोयण का परिवार ) के रूप में ग्रहण न कर लोगों ने परिवर को श्रद्धा-दान के साथ जोड़ा है और वे उसका तात्पर्य किसी घेरे, प्राकार, मन्दिर अथवा वासस्थान से लेते हैं। यदि यह भाव भी ग्रहण किया जाय तब भी यह स्पष्ट नहीं होता कि वह किसको दिया गया।
कुछ विद्वान छुद्रवास गृह ( वासगृह, गुहावास ) की कल्पना कर यह कहते हैं कि गुहावास बौद्धभिक्षु संघों को दिये जाते थे। अतः यह दान किसी बौद्धभिक्षु अथवा भिक्षु संघ को दिया गया होगा। परन्तु यह कोरा अनुमान है; इस सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता।