कामरा अभिलेख

भूमिका

वाशिष्क का कामरा अभिलेख कैम्पबेलपुर ( पाकिस्तान-पंजाब ) से ६ मील ( लगभग ९.६ किमी० ) की दूरी पर स्थित कामरा नामक ग्राम-स्थित एक बड़े टीले के तल से दस मीटर नीचे एक शिला-फलक मिला था जिस पर यह अभिलेख उत्तर-पश्चिमी प्राकृत भाषा और खरोष्ठी लिपि में अंकित है।

इसकी पहली पंक्ति के आरम्भ का कुछ भाग टूटा है और पंक्ति ४ के आगे अभिलेख खण्डित है। इस अभिलेख का पाठ कई विद्वानों ने प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत पाठ वाल्टन डाबिन्स और व्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी के पाठ पर आधारित है।

कामरा अभिलेख : संक्षिप्त परिचय

नाम :- वाशिष्क का कामरा अभिलेख ( Kamra Inscription of Vashishka )

स्थान :- कामरा ग्राम, कैम्पबेलपुर ( वर्तमान अटक ), पंजाब; पाकिस्तान

भाषा :- प्राकृत

लिपि :- खरोष्ठी

समय :- कुषाणवंशी शासक वाशिष्क का शासनकाल

विषय :- कुषाण नरेश वाशिष्क द्वारा कनिष्क के जन्म पर कुआँ खुदवाने का उल्लेख

कामरा अभिलेख : मूलपाठ

१. स २० विंशतिय जेठ मसस तिवसे त्रातशे १० [ +३ ] [ । ] महरजस रजतिरजस म [ हतस ]

२. त्रतरस जयदस दोम्रदस स्वशखयस महरजस करस कबिस [ स च ध्र- ]

३. मथितस देवपुत्र वझेष्कस गुषनस देवमानुषस पड़ि…..

४. जति कनिष्कस इशे सनमि कुये खनापिदे

  • पंक्ति १ के आरम्भ के अंश की पूर्ति वाल्टन डाबिन्स ने ‘[… १+२०+२०+] (२०+२०) पतिय’ के रूप में करने का प्रयास किया है। परन्तु सर हेराल्ड बेली आरम्भ में ‘स’ का टूट अंश देखते हैं। उसके बाद केवल १ या २ चिह्न देखते हैं। उनके अनुसार पाठ स[व १०]+१०+१० कतियस मासस है।
  • डबिन्स ने इसे ‘द्रम्म ब्रदस’ पढ़ा है।
  • डबिन्स ने इसे ‘स्वश खलस’ पढ़ा है।
  • डबिन्स ने उसे दुरमानुष पढ़ा है।
  • यह ‘पढि थपन’ शब्द का अंश हो सकता है।
  • डाबिन्स ने खदभि [ दनभि …] की कल्पना की है।

हिन्दी अनुवाद

वर्ष २० के ज्येष्ठ मास के १३वें दिन ! महाराज रजतिराज, महान्, त्राता, दोमात ( ? ), महाराज कारा कवि की शाखा [ में उत्पन्न ] सद्धार्मिक, देवपुत्र वझेष्क कुशाण ( खुषण ) देवमानुष ने.. …. कनिष्क के जन्म के इस क्षण कुआँ खुदवाया।

कामरा अभिलेख : समीक्षा

सामान्य रूप से यह अभिलेख कुषाण कालीन है और यह कूप खुदवाये जाने की विज्ञप्ति है। किन्तु इतिहास की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है और इसमें कई बातें विचारणीय हैं।

विरुद समीक्षा

सर्वप्रथम पंक्ति १ और २ में उल्लिखित विरुद-समूह :-

महरजस रजतिरजस महतस, त्रतरस, जयतस, दोम्रअतस (?), स्वशखस, महरजस करस कबिस सचभ्रमथितमस है

  • कुषाण वंशीय कुजूल कडफिसेस ने अपने सिक्कों पर अपने को ध्रमथितस अथवा सचध्रमिथितस कहा है। अनेक सिक्कों पर उसका नाम कुजूल ( कुचुल ) कारा कपस के रूप में भी मिलता है।
  • अतः इस अभिलेख के ‘करस कबिस’ को सहजभाव से ‘कारा कपस’ के रूप में पहचाना जा सकता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि इस अभिलेख में कुजुल कारा कदफिस का उल्लेख है।

महरजस रजतिरजस महतस त्रतरस जयतस दोमुअतस (?) विरुद-समूह।

  • महरजस-रजतिरजस का सर्वप्रथम प्रयोग शक-पह्लव शासकों के सिक्कों पर हुआ है।
  • इस विरुद को कुषाण शासकों में कुजूल कडफिसेस और विम कडफिसेस दोनों ने अपनाया था।
  • परन्तु उनके बाद के शासकों ने इसे त्यागकर ईरानी विरुद शाहानुशाहि ( Shao nano shao ) का प्रयोग आरम्भ किया।
  • इसी तरह महतस, त्रतरस, जयतस विरुदों का प्रयोग सर्वप्रथम भारतीय यवन शासकों ने किया था। वे इनमें से प्रायः किसी एक विरुद का ही प्रयोग अपने सिक्कों पर करते रहे; अवस्था-विशेष में हो किसी-किसी शासक ने दो विरुदों को अपनाया था।
  • शक-पह्लव शासकों ने भी इन विरुदों को अपनाया था और वे भी इसी परम्परा का वहन करते रहे।
  • कुषाण-शासकों ने इन विरुदों में से केवल एक त्रतरस को ग्रहण किया था। वह भी केवल विम कदफिस ने।
  • इन सभी विरुदों का एक साथ प्रयोग अभी तक केवल एक ही अभिलेख में हुआ है; उसमें शासक का नाम अनुपलब्ध है। यह अभिलेख उत्तर प्रदेश से प्राप्त हुआ है और ये विरुद कनिष्क और उसके परवर्ती शासकों के लिए अनजाने हैं। इसलिए डॉ० परमेश्वरीलाला गुपत ने उसे विम कडफिसेस-कालीन अभिलेख अनुमानित किया है।

इन विरुद-समूहों के साथ एक विरुद और भी है – दोम्रअतस

  • इसे व्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी ने दोमुअतस पढ़ा है। उन्होंने इसके मूल में किस संस्कृत शब्द की कल्पना की है, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया है; केवल उसका अनुवाद The law of living world किया है।
  • अहमद हसन दानी ने इस शब्द का पाठ दे (वे) म्म [क] से ग्रहण किया है और वे उसका तात्पर्य विम कडफिसेस मानते हैं।
  • डाबिन्स ने इसे द्रम्म ब्रदस के रूप में ग्रहण किया है और उसे धर्म व्रतस्य के रूप में ग्रहण किया है।
  • यह विरुद अब तक सर्वथा अस्पष्ट है।

उपर्युक्त विश्लेषण के परिप्रेक्ष्य में स्वाभाविक अनुमान यही होगा कि समूचे विरुद-समूह का प्रयोग कारा कपिस (कुजूल कारा कदफिस) के लिए ही किया गया है। किन्तु इस अनुमान को स्वीकार्यता में कठिनाई यह है कि कर कबिस के पूर्व महरजस और पश्चात् ध्रमथितस विरुद का प्रयोग हुआ है। महरजस रजतिरजस विरुद के आरम्भिक प्रयोग के बाद फिर महरजस का प्रयोग असंगत है और पुनरुक्ति दोष है। इसी प्रकार यदि डाबिन्स का पाठ भ्रम्मब्रदस (धर्मव्रतस्य) ठीक है तो वह भी भ्रमथितस (धर्मस्थित) के भाव की ही अभिव्यक्ति है। इस प्रकार यह भी पुनरुक्ति ही है।

ऐसा जान पड़ता है कि समूचे विरुद-समूह का प्रयोग यहाँ कारा-कपिस के लिए नहीं हुआ है, वरन् उसका प्रयोग पंक्ति ३ में उल्लिखित देवपुत्र वझेष्क गुषण के लिए हुआ है। और स्वशखयस महरजस करस कबिस स च प्रमथितस समग्र रूप से देवपुत्र वझेष्क गुषण के लिए विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है। स्वशखस का तात्पर्य सभी विद्वानों ने अपनी शाखा में (अपने वंश में) ग्रहण किया है। इस प्रकार अनुमान किया जाता है कि देवपुत्र वझेष्क गुषण ने अपने को कुजूल कदफिस का वंशधर घोषित किया है।

गुषण शब्द का उल्लेख पंजतर और मणिक्याला अभिलेखों में हुआ है। उनके प्रसंग में स्पष्ट किया गया है कि इसका तात्पर्य कुषाण है। वझेष्क कुशाणवंशी था। यही बात उसके देवपुत्र विरुद से भी ध्वनित होता है। यह कुषाण-शासकों का विरुद था, यह उनके मथुरा से मिले अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है।

गुषण के बाद एक विरुद का प्रयोग हुआ है जिसे डाबिन्स ने द्ररमानुष (धर्ममानुष) पढ़ा है और उससे Preserver of mankind का अर्थ लिया है और कहा है कि यह विरुद कदाचित् इस बात का संकेत है कि उसने पुत्रोत्पन्न करके मानव सृष्टि को सुरक्षित रखने का प्रयास किया है। किन्तु ब्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी ने इसे देवमानुष के रूप में ग्रहण किया है। इस प्रकार उनकी धारणा है कि इस विरुद के मूल में शासक के दैवी-विकास (Divine origin of kingship) की भावना निहित है जिसके अंकुर गुप्त-काल में लोक-धाम-देव के रूप में प्रस्फुटित हुई।

वाशिष्क की पहचान

विरुद-समूहों को दृष्टिगत करते हुए इस अभिलेख के देवपुत्र वाशिष्क कुषाण को विम कडफिसेस के बाद किसी परवर्ती काल में नहीं रखा जा सकता। कदाचित इसी कारण मिचनर ने इसके विम कदफिस के बाद और कनिष्क के पूर्व होने का अनुमान प्रकट किया है। इस प्रकार वे कदाचित् उसे पंक्ति ४ के परिप्रेक्ष्य में प्रख्यात कनिष्क का पिता सोचते हैं। परन्तु हमारे सामने सोंख (मथुरा) से प्राप्त ताँबे का वह सिक्का न होता जिस पर हुविष्कस्य पुत्र कनिकस्य आलेख है। साहित्य में कनिष्क का उल्लेख कणिक के रूप में हुआ है। इस प्रकार स्पष्ट है कि कनिष्क का पिता हुविष्क है। अतः कामरा अभिलेख का वाशिष्क कनिष्क का पिता नहीं हो सकता। उसे आरा अभिलेख के वैशिष्क ( वझेष्क ) के रूप में ही पहचानना उचित होगा। वहाँ उसे स्पष्ट रूप से कनिष्क का पिता कहा गया है।

  • व [ झि ] ष्प-पुत्रस कनिष्कस संवत्सरए एकचप [ रि ] –

आरा अभिलेख पर विचार करते समय लोगों का ध्यान तीन अन्य अभिलेखों की ओर गया था, जिनमें वशिष्क के उल्लेख के साथ वर्ष २२, २४ और २८ का उल्लेख हुआ है। इन तिथियों को कनिष्क (कुषाण) संवत् के क्रम में मान कर यह मत प्रतिपादित किया जाता रहा है कि वशिष्क और उसका पुत्र कनिष्क हुविष्क के शासनकाल में सह शासक या उप-शासक रहे होंगे। इस धारणा के लिए उनके सामने कोई पुष्ट प्रमाण नहीं था। वह कोरा अनुमान ही था। अब मथुरा कला की मूर्तियों के विश्लेषण तथा लिपि-स्वरूप पर विचार करने से यह बात सामने आयी है कि ये सभी अभिलेख वासुदेव के बाद के काल के हैं। इसी के साथ ही वाशिष्क के सिक्के भी प्रकाश में आये। इस परवर्ती काल में कनिष्क नामक शासक के सिक्के पहले से ही ज्ञात थे। वाशिष्क के सिक्के भी उसी के क्रम में हैं। इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह अभिलेख और उसमें उल्लिखित वझेषक (वशिष्क) और कनिष्क वासुदेव के बाद के काल के हैं।

वशिष्क नामवाले अभिलेखों पर अंकित वर्ष २२, २४, २८ और ४१ यदि कनिष्क (कुषाण) संवत् के क्रम में हैं तो उनमें शत (सौ) की संख्या का लोप है और वे वस्तुतः संवत् के क्रम में [१]२२, [१]२४, [१]२८ और [१]४१ के बोधक हैं या फिर वासुदेव के पश्चात् नये सिरे से संवत् का अंकनकिया गया था। वस्तुस्थिति जो भी हो हमारे सामने वशिष्क के लिए वर्ष २२, २४, २८ और उसके पुत्र कनिष्क के लिए वर्ष ४१ पहले से ही उपलब्ध है। उन्हें दृष्टि में रख कर ही इस अभिलेख की तिथि का, जो खण्डित है, निश्चिय किया जा सकता है।

कामरा अभिलेख के अनुसार वशिष्क ने अपने पुत्र कनिष्क के जन्म के उपलक्ष्य में कुआँ खुदवाया था। इस प्रकार निश्चय ही कुआँ कनिष्क के जन्म के तत्काल बाद खुदवाया गया होगा। इस प्रकार कनिष्क के जन्म की तिथि वहीं होगी जो इस अभिलेख के लेखन की तिथि है। सर हेराल्ड बेली ने इस अभिलेख में वर्ष ३० के रूप में पढ़ने की चेष्टा की है। खरोष्ठी लिपि के विशेषज्ञ के रूप में उनकी ख्याति है। परन्तु हमारे सामने आरा अभिलेख है, जिसके अनुसार वर्ष ४१ में (जो निस्सन्देह इस अभिलेख में अंकित तिथि के क्रम में ही है ) वशिष्कपुत्र कनिष्क शासक हो चुका था। उसमें उसे महाराज रजतिराज देवपुत्र कैसर कहा गया है। सर बेली के अनुसार प्रस्तुत अभिलेख तिथि ३० स्वीकार करने पर कहना होगा कि आरा अभिलेख के आलेखन के समय कनिष्क की आयु केवल ११ वर्ष ही थी। इतनी कम आयु में कनिष्क के शासक हो सकने की कल्पना नहीं की जा सकती। इस कारण व्रतीन्द्रनाथ मुखर्जी का पाठ २० (विंशतिये) ही उचित जान पड़ता है। २१ वर्ष की आयु शासक होने के उपयुक्त आयु है। फिरभी कम आयु में किसी के संरक्षण में शासक बनना इतिहास में अज्ञात तथ्य नहीं है, जैसे – पृथ्वीराज चाह्मान और अकबर।

इस विवेचन के अन्त में यह कहना रह जाता है कि कनिष्क, हुविष्क, वासुदेव आदि कुषाण- शासक यद्यपि कुजुल कडफिसेस और विम कडफिसेस के शासन-क्रम में ही हुए पर कडफिसेस शासकों के साथ उनका वंश-सम्बन्ध किसी सूत्र से प्रमाणित नहीं है और न इन शासकों ने इस रूप में कभी कहीं अपने किसी पूर्वज का परिचय नहीं दिया है। ऐसी अवस्था में जिस रूप में वाशिष्क ने अपना परिचय दिया है, वह असाधारण सा लगता है। उसके पीछे निश्चय ही कुछ प्रयोजन रहा होगा। किन्तु यह प्रयोजन क्या हो सकता है यह निश्चयपूर्वक तो नहीं कहा जा सकता है, केवल कल्पना की जा सकती है।

डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त का विचार है कि कनिष्क, दुविष्क, वासुदेव की सीधी वंश परम्परा में यह वाशिष्क नहीं था। उसने वासुदेव के एक-दो उत्तराधिकारियों के बाद उन राज्यों पर किसी प्रकार अधिकार कर लिया था। अपने इस अधिकार को अपना पैतृक अधिकार जताने के लिए ही उसे अपने को कुजुल कडफिसेस का वंशज कहने और उसके विरुद-समूह के साथ अपने को प्रस्तुत करने की आवश्यकता समझी होगी। इस प्रकार की घोषणा भारतीय इतिहास में अज्ञात नहीं है। गुप्त वंश के इतिहास में भीतरी अभिलेख में स्कन्दगुप्त का परिचय कुछ इसी ढंग का है।

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